Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १०६०-१०८०
वान् पार्श्वनाय की परम्परा के प्राचार्य श्रतः भस्मग्रह का किञ्चित मात्र भी प्रभाव उन पर न पड़ सका। पाठक ! वृन्द अभी तक बराबर पढ़ते ही श्रारहे हैं कि रत्नप्रभ सूरिसे, उपकेशगच्छाचार्यों ने शासन की उत्तरोत्तर वृद्धि ही की है। जितने इस परम्परा के आचार्यों ने जैनेतरों को जैन बनाने का श्रेय सम्पादन किया है। उतना अन्य किसी भी गच्छ के आचार्यों ने नहीं किया। इतना होने पर भी विशेषता तो यह थी कि ये लोग कभी भी वर्तमान साधु समाज के समान अहमत्व का दम नहीं भरते थे । पार्श्वनाथ सन्तानियों एवं वीर सन्तानियों में नाम मात्र की विभिन्नता तो अवश्य थी पर पारस्परिक दोनों सम्प्रदायों का प्रेम सराहनीय श्रादरणीय एवं स्तुत्य था। जिस किसी भी स्थान पर आपस में एक दूसरे का समागम होता वहां पार्श्वनाथ संतानिये वीरसंतानियों का श्रादर, सत्कार एवं विनय व्यवहार करते थे और वीरसंतानिये पार्श्वनाथ सन्तानियों को सम्मान वंदनादि शास्त्रीय व्यवहारों से अादर करते थे। कारण एकतो पार्श्वनाथ संतानिये परम्परानुसार वीर संतानियों से वृद्ध थे दूसरा वे चारों और भ्रमन कर नये जैनों को बनाकर जैन संख्या में वृद्धि करने में अग्रसर थे अतः पाव सन्तानियों का वीर सन्तानिये २ बहुत ही सत्कार वगैरह करते थे। उदा. हरणार्थ उत्तराध्ययनजी के तेवीसवें अध्ययन में वर्णित है--कि श्रीगौतमस्वामी श्रीकेशीश्रमण को बड़ा जानकर बंदन करने के लिये केशीश्रमण के उद्यान में गये और श्रीकेशीश्रमण भी श्रीगौतमस्वामी का स्वागत करने के लिये सम्मुख गये यह प्रवृत्ति भगवान महावीर के समय से अक्षुण रूप से चली आ रही थी प्रसङ्गोपात यह लिख देना भी अनुपयुक्त न होगा कि-हमारे चारित्र नायक आचार्य कक्कसूरिजी के समय ही क्या पर आज पर्यन्त के इतिहास में हम देखते आये हैं कि हमें एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि किसी भी स्थान पर किसी भी समय में पार्श्वसंतानियों एवं वीर संतानियों के परस्पर मतभेद खड़ा हुआ हो जैसे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर तथा अन्यगच्छों के आपस में हुआ था । उस समय के लिये यह बात भी नहीं कही जासकती है कि-उपकेशगच्छ में साधु साध्वियों की संख्या कम थी । विक्रम की तैरहवीं चौदहवीं शताब्दी तक तो इस गग्छ के हजारों साधुसाध्वी विद्यमान थे । उदाहरणार्थ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में केवल एक सिंध प्रान्त में ही उपकेशगच्छ के ५०० मंदिर थे । चौदहवीं शताब्दी में गुरुचक्रवर्ती प्राचार्यश्रीसिद्धसूरि के अध्यक्षत्त्व में शाह देसल व शाह समरसिंह ने, अलाउद्दीन से उच्छेद किये हुए श्रीशत्रुक्षय तीर्थ का उद्धार करवाकर श्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्टा करवाई थी। उस समय अन्य गच्छों के अनेक आचार्य भी वहां उपस्थित थे । पन्द्रहवीं शताब्दी में पाटण में उपकेशगच्छीयाचार्य देवगुप्रसूरि के अध्यक्षस्व में जो श्रमण सभा हुई उसमें ३००० साधुसाध्वी विद्यमान थे । इससे सिद्ध होता है कि भस्मगृह की विद्यमानता में भी उपकेशगच्छ के प्राचार्यों की उदय उदय पूजा होती थी। उपकेशगच्छीय श्राचार्यों का तो जैन समाज पर अवर्णनीय उपकार है। आप महापुरुषों ने तो दारुण परिषहों का विजयी सुभट की भांति सामना कर लाखों नहीं पर करोड़ों अजैनों को जैन बनाये । पर दुःख है कि कइ मत्तधारियों ने आपस में अलग २ गच्छ, मत, पन्थ सम्प्रदाय को स्थापित कर सुसंगठित शक्ति का एक दम हास कर दिया । इस विषय के स्पष्टी करण की आवश्यकता नहीं यह तो सर्वप्रत्यक्ष ही है ।
गृहस्थ लोगों में व्यवहार है कि बड़े ही परिश्रम पूर्वक अपने हाथों से कमाये हुए द्रव्य में से किञ्चित भी व्यर्थ चला जाय तो बहुत दुःख होता है परन्तु दूसरे का धन यों ही चला जाता हो तो उन्हें परवाह ही नहीं रहती यही हाल हमारे मतधारियों का हुआ । बिना ही परिश्रम किये उनके हाथ महाजन संघ लग गया
पाश्वंसंतानियों व वीर संतानिये
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