Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ६६०-६८०
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अतः आपने षट् दर्शन की तुलनात्मक आलोचना करते हुए जैन दर्शन के तत्वों एवं प्राचार व्यवहार के विषयों का खण्डन मण्डनात्मक दृष्टि से नहीं किन्तु, विषय प्रतिपादन शैली की दृष्टि से इस तरह प्रति. पादन किया कि-भोतावर्ग की आत्माओं पर गम्भीर असर हुए बिना नहीं रहा । आगे सूरीश्वरजी ने 'जैन दर्शन महात्म्य' विषय का दिग्दर्शन कराते हुए कहा कि कितनेक जैन दर्शन के वास्तरिक सिद्धान्तों से अनभिज्ञ व्यक्ति जैनधर्म को नास्तिक एवं अनीश्वर वादी कह कर भद्रिक लोगों को अपने भ्रम की पास में जकड़ लेते हैं किन्तु जैन दर्शन का सूक्ष्म, गम्भीरता पूर्वक अवलोकन करने वाले इस बात को भली प्रकार से जानते हैं कि जैनधर्म न तो नास्तिक धर्म है और न अनीश्वर वादी हो है । मेधावी व्यक्ति स्वयं समझ सकते हैं कि जैनधर्म ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने वालों में आरेश्वर है यदि जैन ईश्वर को ही नहीं मानता तो प्रत्येक्ष में लाखों करोड़ों रुपयों का व्यय कर भारत भूमि पर आलोसांन मन्दिरों का निर्माण कर ईश्वर की मूर्तियों स्थापन कर प्रतिदिन श्रद्धा एवं नियम से ईश्वर की सेवा पूजा क्यों करते ? मैं तो यहाँ तक कहने का दावा करता हूँ कि जैसा जैनों ने ईश्वर को माना है वैसा शायद ही किसी दर्शन कारो ने माना है तग द्वेष मोह अज्ञान काम क्रोध से बिल्कुल मुक्त सच्चिदानन्द अनंत ज्ञान दर्शन संयुक्त ईश्वर को जैन ईश्वर मानते है हाँ कइ मत्तानुयायी ईश्वर को सृष्टि का कर्ता हर्ता एवं जीवों को पुन्य पाप के मुक्तनेवाला माना है जैन ऐसे ईश्वर को ईश्वर नहीं मानते है कारण ईश्वर को सृष्टि के कर्ता हर्ता एवं पुन्प पाप के फल भुक्ताने वाला मानने से अनेक आपतियाँ पाती है और ईश्वर पर अन्यायी अज्ञानी अल्पज्ञादि कई दोष लागु हो जाते है अतः जैन अनेश्वर वादी नहीं पर कट्टर ईश्वर वादी है नास्तिकों की मान्यता है कि स्वर्ग नर्क पुन्य पापादि कोई पदार्थ नहीं है और न वे स्वीकार ही करते है जब जैन स्वर्ग नर्क पुन्य पाप और भनिष्य में पुन्य पापों का फलों को भी मानते है फिर समझ में नहीं आता है कि ईश्वर वादी अस्ति जैनों को नास्ति क्यों कहा जाता है । यह तो पक्षपात की अग्नि में जलने वाले व्यक्तियों का व्यर्थ प्रलाप है कि जैन तत्वों की वास्तविकता से अनभिज्ञ वे लोग यत्र तत्र अपने अज्ञानता पूर्ण पागल पन का परिचय देते रहते हैं । मैं तो दावे के साथ कहता हूँ कि आस्तिकता का दम भरने वाले अन्य धर्मोकीपेक्षा जैनधर्म सर्वोत्कृष्ट आत्म कल्याण साधक धर्म है । जैनधर्म के वास्तविक सिद्धान्तों का यथोचित स्वरूप बताने मात्र से आपको अपने आप उपरोक्त बातों का स्पष्टि करण हो जायगा अस्तु
१ सृष्टिवादः-जैन दर्शन सृष्टि को अनादि काल से शाश्वत् मानता है । वह स्वर्ग, नरक और मृत्यु लोक के आस्तित्व को स्वीकार करता है। स्वर्ग में देवों के निवास स्थान या नरक में नारकी के जीवों के रहने का और मृत्यु लोक में मनुष्द तिर्यञ्च का वास है इन सबका अनेक आगम प्रत्यक्ष परोक्ष अनुमानादि प्रमाण से स्पष्टीकरण होता है । जब दुनिया में पाप का आधिस्य एवं पुण्य का क्षय होता जाता है तब संसार अपकर्षावस्था को प्राप्त होता है । इसके विपरित पुण्य की प्रबलता एवं पाप भी कभी से जगत की उत्कर्षता एवं वृद्धि को प्राप्त होता है। इस तरह यह अनादिकाल का चक्र अनंत काल पर्यन्त चलता ही रहता है। जैन दर्शन ने इस तरह के काल विभाग को दो विभागों में विभक्त किया है एक उत्सर्पिणी काल-इसको उन्नतिकाल कहा है और दूसरा अवसर्पिणी काल इसको अवनति काल कहा है। उत्सर्पिणी काल में धन जन, कुटुम्ब, धर्मादि सकल कार्यों की म्नति होती जाती है और अवसर्पिणी काल में इन सबका अपकर्ष होना प्रारम्भ होता है । अवसर्पिणी काल के छ विभाग है जिसको छ श्रारा भी कहते हैं जैसे १०७२
तात्विक विषय पर सूरिजी का व्याख्यान
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