Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं ० ६६० से ६८० ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अहिंसा तत्व को पहिचान कर सच्चे हृदय से अहिंसा का अभिनंदन करने वाले - पालक एवं प्रचारक बन तो वर्तमान में पैदा हुई उच्च्छ्र खलता, स्वच्छंदता का नाश हो देश पुनः ऋद्धि समृद्धियुत श्रवाद बन जाय । क्षत्रियोचित सचे कर्तव्य को जैसे आपने पहिचाना है उसी तरह से हमारे दूसरे मांसाहारी भाई भी समझने का प्रयत्न करें वो देशोत्थान में किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं रहे । इस तरह उत्साहवर्धक बचनों से श्राचार्य देव ने रावजी की प्रशंसा की एव उनकी कर्तव्य परायणता पर संतोष प्रगट किया। बाद में वीर जयनाद से सभा विसर्जित हुई । रावजी को तो सूरीश्वरजी की एक दिन सत्संग से ही ऐसा रस लगा कि वे आवश्यक कार्यों को छोड़कर के भी उनका उपदेशश्रवण करने के लिये निर्धारित व्याख्यान के समय पर उपस्थित हो जाया ही करते थे । यथा राजा तथा प्रजा की लोक युक्ति अनुसासार प्रजाने भी सूरिजी के व्याख्यान श्रवण का लाभ तथा कई प्रकार के व्रत नियमों से श्रात्म हितसाधन किया ।
जब सूरिजी ने वहां से विहार करने का विचार किया और यह खबर राव गेंदा को मिली तो वे तत्काल संघ के प्रसर व्यक्तियों को साथ में लेकर श्राचार्यदेव की सेवा में आये सबके साथ रावजी ने अत्यन्त मह पूर्वक चातुर्मास का अलभ्य लाभ प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। विचार के न होने पर भी श्रीसंघ की आह भरी प्रार्थना को वे ठुकरा न सके । उन्हों ने भविष्य के लाभ की आशा से चातुर्मास का आश्वासन दे रावजी व संघ को विदा किया । बस फिर तो था ही क्या ? शाकम्भरी की जनता हर्ष सागर की उतुंग तरंगों से तरंगित होने लगी । शवजी की प्रसन्नता का तो पार ही न रहा ।
चातुर्मास के लिये अभी समय था अतः सूरिजी ने चातुर्मास के पूर्व श्रास पास के ग्रामों में विचर धर्म विचार करना अत्यन्त श्रेयस्कर समझा । उक्त विचारानुसार छोटे बड़े प्रामों में धर्मोपदेश देते हुए चातुर्मास के अवसर पर शाकम्भरी में अत्यन्त समारोह पूर्वक चातुर्मास कर दिया । डिडू गौत्रीय शा सालग ने परम प्रभाविक जय कुंजर पञ्चमाङ्ग श्रीभगवती सूत्र का महा महोत्सव किया। इस में शाह ने पञ्चलक्ष द्रव्य व्ययकर शासन की खूब प्रभावना की । राव गेंदा पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा । जैसे श्रावकों ने हीरा, पन्ना, माणिक मुक्ताफल एवं सुवर्ण के पुण्यों से ज्ञान पूजा की वैसे रावजी एवं अन्य नागरिक
*यदि कोई शंका करे कि उस समय की जनता के पास इतना धन कहां से आया । कि एक २ आचार्य के नगर प्रवेश एवं ज्ञानपूजा में लाखों रुपये सहज हीं में व्यय किये ? यह प्रश्न तो ऐसा है कि -एक व्यक्ति ने अपने जीवन भर में एक दाना भी खेत में नहीं बोया और दूसरे के खेतों में हजारों मन धान्य आते देखकर आश्चर्य से प्रश्न किया कि इस खेत में इतना धान्य कहाँ से आया समाधान । पर अब इनका निर्णय किया जाय तो यह ज्ञात होगा कि हजारों मन धान्य वाली जमीन के मालिक ने वर्षा के समय उत्तम उत्तम भूमि में अधिक से अधिक बीज बोये और उसका सुन्दर परिणाम उसको इस तरह से प्राप्त हुआ ।
यही समाधान उक्त प्रश्न का है । उस समय के लोग द्रव्योपार्जन भी भाज करू की तरह अनीति पूर्वक नहीं पर न्याय पूर्वक करते थे । वे लोग धर्म कार्य में द्रव्य का सदुपयोग करने से संकोच किंवा कृपण वृत्ति का आश्रय मह लेते थे । अतः धर्म के प्रताप से उनके यहां सब तरह को समृद्धियां रहती थी। उनका व्यापारिक क्षेत्र विस्तृत था । वे बदले जवाहिरात वगैरह उत्तम अमूल्य पदार्थं काया करते थे । उनका वे बीज बोने से उनके पुण्य भी बढ़ते ही जाते थे । उक्त पुण्य ही निमित्त करता था। इस प्रकार की धर्ममय प्रवृत्ति के कारण उन लोगों की देव,
विदेशों में माल भर कर ले जाते और उसके सप्तक्षेत्र में सदुपयोग करते अतः शुभ कार्य में कारण बन उनकी इस तरह के शुभ फल प्रदान
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द्रव्य व्यय करने का कारण
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