Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ६३१-६६० ]
[भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अन्यथा नहीं। इस पर आपको अलभ्य लाभ का भागी समझ राजा की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वह तत्काल मुनियों के पास में आया और वंदन करके बैठ गया । श्राचार्यश्री ने अहिंसा परमोधर्मः का मार्मिक उपदेश दिया जिससे राजा ने शिकार करने एवं मांस, मदिरा का उपयोग करने का त्याग कर लिये।
___ एक समय मुनिजी ने अभिप्रह किया कि, लग्न के समय वरवधू प्रन्थि बंधन सहित भिक्षा देवें तो पारणा करूं। इस अभिग्रह के पश्चात् भी १६ दिन व्यतीत होगये । एक दिन अचानक ऐसा संयोग्य मिल जाने से मुनि श्री ने पारण किया।
इस प्रकार की तपस्या के प्रभाव से जया विजयादि कई देवियां आपके दर्शनार्थ आया करती थी। क्यों नहीं ? तप का महात्म्य ही ऐसा है ।
आचार्य देवगुप्त सूरि ने अपने शिष्य मण्डल में सूरिपद के लिये मुनिश्री ज्ञानकलशजी को ही योग्य समझा और अपनी वृद्धावस्था के अन्तिम निश्चयानुसार उपकेशपुर में सकल श्रीसंघ के समक्ष बलाह गोत्रीय शाहलाला के महामहोत्सव पूर्वक भगवान महावीर के मन्दिर में मुनि ज्ञानकलश को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया।
आचार्य श्रीसिद्धसूरिजी महान् प्रतिभा सम्पन्न प्राचार्य हुए । श्राप के ज्ञान एवं तपस्या का प्रभाव था कि वादी प्रतिवादी श्रापका नाम श्रवण करते ही इधर उधर लुप्त हो जाते । आपका समय भले चैत्यवास का समय था किन्तु, उस समय के कई चैत्यवासी प्रायः चारों ओर जैन धर्म का रक्षण एवं प्रचार करने में तत्पर थे । वे आचार व्यवहार के नियमों में दृढ़ थे । यदि उनका जीवन नियमित न होता तो उस संघर्ष काल में जब कि-वेदान्तियों का, बोद्धों का एवं अनार्य मलेच्छोंका आधिक्य था,-जैन धर्म जीवित नहीं रह सकता । जैन धर्म जो अविच्छिन्न गति से बराबर चलता रहा है यह सब उस समय के उन सुविहित चैत्यवासियों का ही प्रताप है। उक्त बात जैन साहित्य का अन्वेषण एवं इतिहास का मनन पूर्वक अध्ययन करने से सुष्ठप्रकारेण ज्ञात होजाती है।
"चैत्यवासी यद्यपि शिथिलाचारी थे पर इससे यह नहीं समझा जाय कि सब चैत्यवासी ऐसे ही थे कारण उस समय में भी बहुत से सुविहित उग्र विहारी एवं जैन धर्म की महान प्रभावना करने वाले विद्यमान थे और उस समय उनका प्रभाव केवल समाज पर ही नहीं पर बड़े २ राजामहाराजाओं पर भी था और वे सुविहिताचार्य समय २ संघ सभाएं कर शिथिलाचारियों को उपदेश कर उप्र बिहारी बनाने की कोशीश भी किया करते थे जो पूर्व पृष्टों पर पाठक पढ़ आये हैं और चैत्यवासियों के लिये हम एक प्रकरण पृथक् ही लिखेंगे जिससे पाठक जान जायंगे कि चैत्यावासियों ने जैन धर्म पर कितना जबर्दस्त उपकार कर जैनधर्म को जीवित रखा है।
प्राचार्य श्रीसिद्धसूरिजी ने उपकेशपुर से विहार कर मरूभूमि के छोड़े बड़े ग्रामों में पर्यटन करते हुए जैनधर्म रूपी उपवन को उपदेश रूपी जल से सिन्चित कर फल पुष्प लता समन्वित नयनाभिराम कर्षक, हराभरा पल्लवित-गुलजार बना दिया। सूरिजी म.ने अपने पूर्वाचार्यों के श्रादर्श को सोचते हुए यह निश्चय कर लिया था कि साधुओं का विहार क्षेत्र जितना विशाल होवेगा-धर्म प्रचार उतने ही वेग से उतने ही परिमाण में वृद्धिंगत होता रहेगा । अतः आपश्री ने अपने आज्ञावर्ती साधुओं को खब दूर २ विचरने की आज्ञा देदी । और आपभी अपनी शिष्य मण्डली सहित मेटपाद, आवंतिका, लाट कोकण, सौराष्ट्र, कच्छ १.५६
मुनि ज्ञानकलश का मरिपद
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