Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
| ओसवाल सं० १०३१-१०६०
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सिंध, पन्जाब, कुनाल, करु, शूरसेन, मत्स्य आदि प्रान्तों में परिभ्रमण करते रहे । समयानुकूल शेषे काल एवं चातुर्मास के योग्य क्षेत्रो में ज्यादा ठहरते हुए व अवशिष्ट स्थानों में तत् स्थान योग्य निवास करते हुए श्राचार्यश्री ने धर्म प्रचारार्थ अपना परिभ्रमन प्रारम्भ रक्खा । आपके पूर्वजों द्वारा संस्थापित शुद्धिकी मशीन को आपने द्रुतगति से चलाना प्रारम्भ किया । और पूर्वाचयों के आदर्श का अनुसरण करते हुए अनेक मांस भक्षियों को मांस त्याग का सच्चा पाठ पढ़ाया । हम पढ़ चुके हैं कि पूज्य आचार्यदेव न तो देहिक कष्टों की परवाह करते थे और न सुख दुखः काही विचार करते थे । वे तो जैन धर्म की प्रभावना एवं महाजन संघ को रक्षा एवं वृद्धि करने में संलगन थे । उनकी नस नस में जैन धर्म के प्रति अनुराग भरा हुआ था और इसीसे प्रेरित हो आपश्री ने अपने विहार में अनेकों को जैनानुयायी वनाये । ईस गच्छ के आचार्य शुरु से ही अजैनों को जैन बना कर महाजनसंघ की वृद्धि करने में सलग्न थे उन प्राचार्यों के भक्त राजा महाराजा एवं सेठ साहूकारों को भी यही शिक्षा मिलती थी कि नूतन जैनों के साथ प्रेम रखे उनको सव प्रकार की सहायता पहुँचावे और जैनेत्तरों से जैन वनते ही उनके साथ विना किसी भेद भाव के रोंटी और बेटी व्यवहार करलें और ऐसा ही वे करते थे तथा इस उदारता से ही महाजनसंघ करोड़ों की संख्या तक पहुच गया था।
__उस समय के पूज्याचार्यों की व्यबहार दक्षता कार्य कुशलता हृदय की उदारता एवं विहार की विशा. लता ने जैन एवं जैनेतर समाज पर पर्याप्त प्रभाव डाला था। तथा जैन श्रमणो का त्याग वैराग्य निस्पृ. हिता एवं आचार व्यवहार की जटिलता ने भी जैनेत्तर लोगों को अपनी और अकर्षित कर लिये थे । करण उनके गुरुत्रों में प्रायः इस प्रकार कठोर प्राचार का अभाव ही था अतः उनकों नतमस्तक होना प्रकृति सिद्ध ही था।
फिर भी कई लोग जैनधर्म को उपादाय समझते हुए भी स्वीकार नहीं कर सकते थे इसका कारण संसार लुब्ध जीवों से जैनधर्म के कठोर नियम पालन करना दुःसाध्य थे साथ में इतर धर्म के कहलाने वाले गुरु स्वयं त्याग मार्ग से परडमुख होकर अपने भक्तों को किसी तरह की रोक टोक न कर सब तरह की चूट देकर भी धर्म बतलाते थे अतः पुदगलानंदी जीव धर्म के नाम पर अपनी इन्द्रियों का पोषण करने में स्वच्छन्दाचारी बने रहते थे तथापि उस समय सत्य धर्म को कसोटी पर कस कर आत्म दर्शियों की भी कमी नहीं थी जैनाचार्य श्राप जनता में एवं राजसभाओं में निर्डरता पूर्व सत्योपदेश कर सहस्रों एवं लक्षो जीवों का उद्धार कर जैन धर्म की वृद्धि करने में सदैव कटी बद्ध रहते थे और उन्होंने अपने कार्य में सफलता भी प्राप्त प्रमाण में करली थी।
जैनाचार्य और आपके आज्ञा बृति श्रमणगण सिवाय चतुर्मास के भ्रमन करते रहते थे जहां थोड़ी बहुत जैनों की बस्ती हो उस प्रदेश को श्रमणों से वंचित नहीं रखते थे अर्थात् जिस बगीचा को हमेशा जल संचन मिलता रहता हो बह हराबरा गुलमार रहे यह एक स्वाभाविक बात है।
उस समय जैन शासन में गच्छों एवं समुदायों का प्रादुर्भाव हो चुका था पृथक् र गच्छ होने पर भी जैन धर्म का प्रचार के लिये वे सब एक हो थे एक दूसरे के कार्य में मदद करते थे जैन धर्म की उन्नति में ही वे अपनी उन्नति समझते थे वे लोग गच्छ समुदायों के भेद से धर्म का हास करना नहीं चाहते थे आपसी बाद विवाद एवं वितण्डबाद में अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करते थे। इतना ही क्यों पर उस समय चैत्यवास के नाम पर कई श्रमण शिथिलचारी भी बन बैठते थे और बहुत से उग्र बिहारी भी थे पर वे आपस
सूरीश्वरजो का सद् विचार
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