Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि०सं० ५२०-५५८ वर्षे ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बज्र (१४) रथ (१५) पुष्पगिरि (१६) फल्गुमित्र (१७) धनगिरि (१८) शिवभूति (१९) भद्र (२०) नक्षत्र (२१) रक्ष (२२) नाग (२३) जेहिल (२४) विष्णु (२५) कालक (२६) संघपलित भद्र (२७) वृद्ध (२८) संघपालित (२९) हस्ति (३०) धर्म (३१) सिंह (३२) धर्म (३३) सांडिल्य (३४) दवद्धिगणि ।
इस गुरु क्रमावली के अनुसार देवद्धि गणि ३४ वे पुरुष थे और आर्य सांडिल्य के शिष्य थे ।
श्री क्षमाश्रमणजी और कालकाचार्य के आपस में मतभेद था। जब क्षमाश्रमणजी आर्य सुहरित एवं स्कांदिलाचार्य की परम्परा के थे तो कालकाचार्य किसी दूसरी परम्परा के होने चाहिये। पट्टावलियों से पाया जाता है कि कालकाचार्य आर्य महागिरि एवं नागार्जुन की परम्परा के प्राचार्य थे। पट्टावली निम्नलिखित है
(१) आर्य सुधर्मा ( २ ) जम्बू ( ३) प्रभव (४) शय्यंभव ( ५ ) यशोभद्र (६) संभूतविजय (७) भद्रबाहु (८) स्थूलभद्र (९) महागिरि (१०) सुहस्ति ( ११ ) गुण सुंदर ( १२) कालकाचाय (१३) स्कांदिलाचार्य ( १४ ) रेवतिमित्र (१५) आर्यमंगु (१६) धर्म ( १७ ) भद्रगुप्त ( १८ ) वज्र ( १९) रक्षित (२०) पुष्यमित्र ( २१ ) व पेन ( २२ ) नागहस्ति ( २३ ) रेवतिमित्र (२४) सिंहसूरि (२५) नागार्जुन ( २६) भूतदिन्न (२७ ) कालकाचार्य ।
___कालकाचार्य भगवान् महावीर के २७ वें पट्टधर होने से आपके समकालीन क्षमाश्रमणजी को भी सत्तावीसवां पट्टधर, लिख दिया गया है । पर ऊपर की तालिका से क्षमाश्रमणजी और कालकाचार्य के समकालीन होने पर भी श्रमणजी चौंतीसवें और कालकाचार्य सत्तावीसवें पट्टधर थे।
क्षमाश्रमणजी और कालकाचार्य के परस्पर ऊपर बतायी हुई मुख्य दो बातों का ही मतभेद था। एक आगम वाचना में रहा हुआ अंतर, दूसरा भगवान महावीर के निर्वाण समय ( ९८०-९९३ ) में । उक्त दोनों विषयों में परस्पर पर्याप्त वाद विवाद भी हुआ होगा कारण, अपनी २ परम्परा से चली आई मान्यताओं को सहसा छोड़ देना जरा अटपटासा ज्ञात होता है । जब वर्तमान में भी छोटी २ निर्जीवी बातों के लिये वाद नहीं पर वितंडा वाद मच जाता है और सच्ची बात के समममें आने पर भी मत दुरा. प्रह के कारण पकड़ी हुई बात को नहीं छोड़ी जा सकती है तो उस समय के उक्त दोनों प्रश्र तो अत्यन्त पेचीले एवं विकट महत्पूर्ण समस्या को लिये हुए खड़े थे। अतः बिना वाद विवाद के सहज में ही प्रश्नों का हल होना माना जाना जरा अप्रासंगिक सा ही ज्ञात होता है तथापि उस समय के स्थविरों का हृदय अत्यन्त निर्मल एवं शासन हित की महत्वपूर्ण आकांक्षाओं से भरा हुआ होता था । यही कारण है कि वे अपनी बात को पकड़ने या छोड़ने के पहिले शासन के हित का गम्भीरता पूर्वक विचार करते थे।
दो व्यक्तियों के पारस्परिक मतभेद के समाधान के लिये एक तीसरे मध्यस्य पुरुष की भी आव. श्यकता रहती है । तदनुसार हमारे युगल नायकों के लिये गन्धर्ववादी वैताल शान्तिसूरि का मध्यस्थ बन कर समाधान करवाने का उल्लेख मिलता है । जैसे :
"वालब्भसंघकज्जे, उज्जमिअं जुगप्पहाण तुल्लेहिं ।
गन्धबवाइवेयाल संतिसूरीहिं लहीए ।" ९२६
[ आर्यदेव ऋद्धिगणि
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