Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९२०-९५८
समय
शिलालेख में भो आँध्र के राजा शतकरणी का उल्लेख पाता है इनके अलावा आँध्र देश के राजाओं के शिला लेख तथा सिक्के भी मिले हैं जिसके कुछ ब्लॉक यह दे दिये गये हैं इस देश का आदि राजा श्रीमुख नन्दवंशी था जब नन्दवंशी रामा जैन थे तो राजा श्रीमुख जैन होने में किसी प्रकार की शंका को स्थान ही नहीं मिलता है और उनकी वंश परम्परा में भी जैन धर्म चला ही आरहा था जो उनके शिलालेखों और सिक्कों से पाया जाता है दूसरा दक्षिण देश में राजा श्रीमुख से पूर्व कई शताब्दियों से जैन धर्म का प्रचार हो चुका था जिसके प्रचारक भ० पारर्वनाथ के परम्परा में लोहित्याचार्य थे। इन आँध्र वंशी राजाओं के पश्चात् भी दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार बहुत लम्बा समय तक चला पाया था वहाँ के राजवंश जैसे कदम वंश कलचूरीवंश गंगवंश, पल्लववंश पाड्यवंश राष्ट्रकूटवंश वगैरह भी जैन धर्म पालन करने वाले थे जो उनके शिला लेखों दान पत्रों एवं सिक्कों से स्पष्ट पाये जाते हैं जिनकी नामावली आगे के पृष्ठों पर दी जायगी यहाँ पर तो पहले आँध्न वंश के राजाओं की वंशावली दी जाती है:नं० रामा समय (ई. सं० तूर्व) वर्ष । नं० राजा १ श्रीमुख ४२:४१४ १३ १७ बरिष्ट कर्ण ७२-४७ २ गोत्रमीपुत्र यज्ञश्री ४१४.३८३ ३१ । १८ हाल सालिवाहन ४७-१८ ३ कृष्ण-वशिष्ठ पुत्र ३८२-३७३ ९ । १९ मंतलक
१८-२५ ४ मल्लिकभी ३५३-३१७ ५६ । २० पुरिद्रसेन
२६-३२ ५ पूर्णोत्संग ३१७-२९९
२१ सुन्दर
३२.३२॥ ६ स्कन्द स्तंभ २९९.२८१
२२ चकोर ७ वस्टिपुत्र २८१-२२५
1 २३ शिवस्वाति
३५-७८ (शतकरणी)
२४ गोतमीपुत्र ७८९९ ८ लम्बोदर २२५.२०७
। (शतकरणी) ९ श्रापिलिक २०७-१९५
२५ चत्रपण
९९-१२२ १० आवि १९५-१८३ | २६ पुलुमावी
१२२.१५३ ११ मेघस्वाति १८३-१४५
२७ शिवश्री
१५३-१८० १२ सौदास-संघस्वाति १४५-११५
२८ शिव स्कन्द १८०-१८७ १३ मेष स्वाति (२) ११५-११३
| २९ यज्ञश्री
१८७-२१७ १४ मृगेन्द्र ११३. ९२ २१ । ३० ) तीन राजा २१७-२५२ १५ स्वाति कर्ण ९२-७५
३१ अंतिम राजा को क्षत्रिय सरदार आंमिर ईश्व १६ महेन्द्र
७५-७२
| ३२ ) दत्त ने हरा कर दक्षिण की ओर निकाल
| दिया उसने विजयनगर में अपनी सत्ता जमाई । ११ वस्लभी नगरी के राजाओं की वंशावली-बल्लभी नगरी के राजाओं का जैनधर्म के साथ अच्छा सम्बन्ध रहा है, जैनधर्म के कई महत्वपूर्ण कार्य इसी वल्लभी नगरी में हुए हैं। वस्लभी नगरी तीर्थधिराज भी शत्रुजन के बहुत निकट भाई हुई है। किसी समय वल्लभी नगरी शत्रुजय की तलेटी भी मानी जाती
आंध्र देश का राजवंश
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