Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १००१-१०३१
राजा ने सुना कि मंत्री यशोवीर और मण्डन दीक्षा के लिये उद्यत हो गये हैं; तो वह भी स्वधर्मी पना के नाते चल कर मंत्री के घर श्राया और उनकी हरएक तरह परीक्षा की । परीक्षा में वे सबके सब सौंटंच का स्वर्ण की भांति उत्तीर्ण होगये । राजा ने मंत्री मण्डन के ज्येष्ठ पुत्र रावल को मंत्री पद अर्पण कर स्वयं ने उन सबों की दीक्षा का शानदार महोत्सव किया । श्राचार्य कक्कसूरि ने मंत्री यशोवीर, सेठानी रामा और मण्डन व उन के साथ संसार से विरक्त हुए १७श्रन्य नर नारियों को भगवती दीक्षा देकर मण्डन का नाम मेरुप्रभ रख दिया । सूरिजी चरण कमलों की सेवा करते हुए मुनि मेरुप्रभ ने थोड़े ही समय में वर्तमान जैन साहित्य का, एवं श्रागमों का लक्षण विद्याओं का अध्ययन कर लिया। सूरिजी ने भी जाबलीपुर में मेरुप्रभमुनि को उपाध्याय पद और चन्द्रावती में सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया ।
आचार्य देव प्रसूरि महान् प्रभाविक, तेजस्वी आचार्य हुए हैं ! आपकी विद्वत्ता का प्रकाश सूर्य की सर्व विस्तृत था । श्राप जैसे मंत्री पद पर रह कर पर चक्रियों को परास्त करने में प्रवीण थे वैसे ही षट्दर्शन के मर्मज्ञ होने से परदर्शनियों का पराजय करने में भी प्रखर पण्डित थे । चंद्रावती चातुर्मास के समाप्त होने पर वहां से विहार कर आसपास के प्रदेशों में परिभ्रमन करते हुए आप श्री ने क्रमशः लाट देश में पदार्पण किया । जिस समय आचार्यश्री स्तम्भनपुर में विराजते थे उस समय भरोंच में बौद्ध भिक्षु अपने धर्म प्रचार के स्वप्न देख रहे थे। जब भरोंच के अप्रेसरों ने सुना कि वादी चक्रवर्ती श्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि स्तम्भनपुर में विराजते हैं तो वे तुरत एक डेपुटेशन लेकर आचार्यश्री की सेवा में आये । भरोंच नगर की वर्तमान परिस्थिति का वर्णन करते हुए संघ ने श्राचार्य श्री को पधारने के लिये जोर दार प्रार्थना की। सूरीश्वरजी ने भी भावी अभ्युदय का कारण जान, धर्म प्रभावना से प्रेरित हो तुरत भरोंच की ओर विहार कर दिया | श्रीसंघ ने बड़े उत्साह से सुरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया । बस, सूरिजी के पधारने मात्र से बहां की जैन समाज में नवीन शक्ति का प्रादुर्भाव एवं नव क्रान्ति का अङ्कुर अङ्कुरित हुआ ।
सूरिजी का व्याख्यान प्रायः दार्शनिक एवं तात्विक (स्याद्वाद, कर्मवाद, साम्यवादादि) विषयों पर होता था । षट्दर्शनों के परम ज्ञाता होने से दार्शनिक विषयों का स्पष्टीकरण तो इतना रुचिकर होता था कि श्रोतावर्ग मंत्रमुग्ध हो वहां से उठने की इच्छा ही नहीं करता ।
बौद्धों के दिलों में उम्मेद थी कि जैनाचार्यों के अभाव में हम लोग अपने प्रचार कार्य में पूर्ण सफल होगे किन्तु श्राचार्यश्री का पदार्पण सुनते ही उनके हृदय में सफलता विफलता का विचित्र द्वन्द्व मच गया । नवीनर शंकाओं ने नव २ स्थान बनालिये पर इससे वे एकदम हतोत्साह नहीं हुए। वे बड़े चालाक एवं कपट विद्या निपुण थे । एक समय उन्होंने शास्त्रार्थ के लिये जैनों को आइलन किया जिसको सूरिजी महाराज ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया । बस भरोंच पत्तन के राजसभा के मध्यस्थों के बीच जैन और बौद्धों का शास्त्रार्थ हुआ पर, स्याद्वाद सिद्धान्त के सामने बेचारे क्षणिक वादी कितने समय तक स्थिर रह सकते १ जैसे सिंह की गर्जना को सुन कर किंवा प्रत्यक्षाटोकन कर मदोन्मत्त हाथी हताश हो पलायन कर जाते हैं; वैसा ही हाल आचार्यश्री के सामने बौद्धों का हुआ ।
भरौंच में बौद्धों की यह पहली ही पराजय नहीं थीं किन्तु इसके पूर्व भी कई बार वे जैनाचार्यों से पराजित हो चुके थे । उपकेशगच्छाचार्यों के हाथों से तो वे स्थान २ पर पराजित ही होते रहे कारण, उस समय एक तो उपकेशगच्छाचार्यों के पास साधुओं की संख्या अधिक थी दूसरा उनमें कई ऐसे भी बादी
भरोंच नगर में चतुर्मास
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