Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ६.१-६३१]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रहते थे कि जिनको शुरु से ऐसी शिक्षा दी जाति थी तीसा उनका विहार क्षेत्र भी अत्यन्त विशाल था। बौद्धों का भ्रमन भी उन्ही क्षेत्रों में अधिक था अतः जहाँ जहाँ शास्त्रार्थ का चांस हाथ आया वहां २ उन्हें पराजित होना पड़ता था कई एकों को जैन दीक्षा से दीक्षित किया। उनकी उन्नति की नींव को एकदम कमजोर एवं खोखली यनादी । श्रतः बौद्ध भिक्षु आचार्यश्री का नाम श्रवण प रते ही एक स्थान से दूसरे स्थानपर पलायन करते रहते थे।
___जब भरोंच में बौद्धों का पराजय हुआ तो वे वहां से शीघ्र ही भाग गये इससे भरोंच श्रीसंघ का उत्साह और भी बढ़ गया और वे आचार्यश्री की सेवा में अत्यन्त श्राग्रह पूर्वक चातुर्मास के लिये प्रार्थना करने लगे। आचार्य देव गुप्तसूर ने भी लाभ का कारण जान वह चातुर्मास भरोंच नगर में ही कर दिया। बस, आचार्यश्री के चातुर्मास निश्चय के शुभ समाचार श्रवण कर सर्वत्र अानंद रसका समुद्र ही उमड़ने लगा।
चातुर्माप्त की दीर्घ अवधि में सूरिजी का व्याख्यान क्रमशः दार्शनिक तात्वि: अध्यात्म, योग, समाधि, एवं त्याग वैराग्य पर हुआ करता था। प्राचार्यश्री के व्याख्यान का लाभ जैन जैनेतर विशाल संख्या में लेते थे। कई वादो प्रतिवादी जिज्ञासा दृष्टि से किवां शंका समाधान की प्रवृत्ति से व्याख्यान के बीच व्याख्यानोद्भूत शंका विषयक प्रश्न पूछते थे जिनका समाधान सूरिजी शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा इस प्रकार करते थे कि, सकल जनसमुदाय एकदम उनकी ओर आकर्षित होजाला । सब निनिमेष रष्टि पूर्वक अवलोकन करते हुए श्रावार्य श्री की शान्ति सुधा का परम शान्तिपूर्वक पान किया करते थे। गुरुदेव के चातुर्मास से जैन जनता को लाभ पहुंचना तो स्वाभाविक प्रकृति सिद्ध था ही किन्तु, जैनेतर समाज पर जो इसका अक्षय प्रभाव पड़ा वह तो वर्णतोऽवर्णनीय है । कई सज्जन तो सूरीश्वरजी के भक्त बन गये ।
सूरिजी, भरोंचपत्तन का चातुर्मास समाप्त कर सोपारपट्टन की ओर पधारे। वहां आपने कई दिनों तक स्थिरता की । इसी दीर्घ स्थिरता के बीच एक जैन व्यापारी के द्वारा अपने सुना कि-महाराष्ट्र प्रान्त में इस समय विधर्मियों की प्रबलता बढ़ती जारही है । जैनियों को हर तरह से दवाया जा रहा है। साधुओं के विहार के अभाव में वहां धर्म के प्रति पर्याप्त शिथिलता श्रागई है- बस उक्त हृदय विदारक समाचारों को श्रवण कर आचार्यश्री एकदम चौंक ठे। वास्तव में जिनकी नशों में जैनधर्म के प्रति भप्र. पित अनुराग है, उसको जैनधर्म के हानि विषयक किञ्चित् समाचार भी असह्य से होजाते हैं। धर्म प्रभावना के परम इच्छुक आचार्य देवका भी नही हाल हुआ उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को बुलाकर अत्यन्त दर्दनाक शब्दों में महाराष्ट्र प्रान्तकी धार्मिक अवस्था का वर्णन किया और उधर विहार कर धर्मप्रचार करने की उन्नत भावना को वर्ण रूप में व्यक्त की। श्राचार्यश्री के कथन को सुनकर शिष्य समुदाय ने अत्यन्त हर्ष पूर्वक कहा--भगवन् । श्राप के आदेशानुसार हम सब आपकी सेवा के लिये हैय्यार हैं। आप खुशी से विहार करें। इसका कारण एकतो सब साधु गुरूआज्ञा के पालक थे दूसरा सब ही नये २ प्रदेशों में विहार करने के इच्छुक थे । वास्तव में भगवान् की आज्ञाराधना पूर्वक सतत विचरते रहने से ही चारित्र की विशुद्धता, धर्मका प्रचार तीर्थों की यात्रा और ज्ञानका विकास होता है।
यदि साधु अपनी सुविधा देख एकाध प्रान्त मे ही अपनी जीवः यात्रा समाप्त करदे तो उसे साधुत्व के कर्तव्य से बहुत दूर समझना चाहिये । इस प्रकार प्रान्तीय मोह से वह न तो जैनधर्म को जागृत कर सकता है और न अपने चारित्र गुण को भी शुद्ध रख सकता है। यही नहीं उसी प्रान्त में बार २ विहार करते
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सूरिश्वरजी का दक्षिण में विहार
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