Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९५८-१००१
जैनधर्म पर विधर्मियों के आक्रमण विक्रम की छटी शत्ता में हूण जाति का वीर विजयी राजा तोरमण भारत में आया और पंजाब में विजय कर अपनी राजधानी कायम की। जैनाचार्य हरिगुप्त सूरि ने नोरमण को उपदेश देकर जैनधर्म का अनुरागी बनाया तथा तोरमण ने अपनी ओर से भ० ऋषभदेव का मन्दिर ना कर अपनी भक्ति का परिचय दिया इस विषय का उल्लेख कुवलयमाल कथा में मिलता है।।
तोरमण के उत्तराधिकारी उस पुत्र मिहिरकुल हुअा मिहिरकुल कहर शिवधर्मी था और साथ में बौद्ध व जैनधर्म के साथ द्वेष भी रखता था अतः मिहिरकुल के हाथ में राजसत्ता आते ही जैन एवं बौद्धों के देन बदल गये । मिहिरकुल ने जैनों एवं बौद्धों पर इस प्रकार करतापूर्वक अत्याचार गुजारना शुरू किया के मरूधर के जैनों को अपने प्राणों एवं जनमाल की रक्षार्थ जननी जन्म भूमि का परित्याग कर अन्यत्र लाटा सौराष्ट्र) की और जाकर अपने प्राण बचाने पड़े।
उपकेशवंशियों की उत्पत्ति का मूल स्थान मरूधर भूमि ही है पर बाद में कई लोग अपनी व्यापार सुविधा के लिये तथा कई लोग विधर्मियों के अत्याचार के कारण अन्योन्य प्रान्तों में जाकर अपना निवास स्थान बनालिया और अद्यावधि घे लोग उन्हीं प्रान्तों में बसते हैं।
विक्रम की सातवी पाठवी शताब्दी में कुमारेल भट्ट नामक आचार्य हुए वे शुरू से जैन एवं बौद्धाचार्यों के पास ज्ञानाभ्यास किया था पर बाद में जैन एवं पोद्धों से खिलाप होकर उनके धर्म का खण्डन भी किया था पर जब आपको जैनाचार्य का समागम हुआ और उपकारी पुरुषों का बदला किस प्रकार दिया जाय इस विषय में कृतज्ञ और कृतघ्नीत्व के स्वरूप को समझाया गया तो आपको अपनी भूल पर बहुत पश्चा. ताप हुआ। आखिर आपको अपनी भूल का प्रायश्चित करना पड़ा । श्रीमान् शंकराचार्य भी आपके समकालीन ही हुए थे। जब शंकराचार्य को मालूम हुआ कि कुमारेल भट्ट इस प्रकार का प्रायश्चित कर रहे हैं तब शंकराचार्य चल कर कुमारेल भट्ट के पास आये और उनको बहुत समझाये पर भट्टजी ने अपनी आत्मा की शुद्धि के लिये अपने किया हुआ निश्चय से विचलीत नहीं हुए।
श्री शंकराचार्य और कुमारेल भट्ट के समय जैन एवं बोद्धों का सतारा तेज था इन दोनों धर्मों का कापी प्रचार था महाराष्ट्र प्रान्त में तो जैन धर्म राष्ट्र धर्म ही माना जाता था किन्तु शंकराचार्य से यह कब सहन हो सकता था उन्होंने जैन एवं बोद्धों के खिलाप भरसक प्रयत्न किया । यद्यपि वे अपनी मौजुदगी में जैन धर्म को इतना नुकसान नहीं पहुंचा सके तथापि वे अपने कार्य में सर्वथा निष्फल भी नहीं हुए उन्होंने जो बीज बोये थे आगे चल कर जैनों के लिये अहित कारी ही सिद्ध हुए । शंकराचार्य बड़े ही समयज्ञ थे जिस वेदों की हिंसा एवं हिंसामय यज्ञादि क्रिया काण्ड से जनता घृणा करती थी नये भाष्यादि रचकर उसका रूप बदल दिया था और कलिकालकी श्राड लेकर कई विधानों का निषेध भी कर दिया था जैसे कि"अग्नि होत्रंगवालम्मं सन्यासं पल पैतृकम् । देवराच्चसुतोत्पति : कलौ पश्च विवर्जयेत् ॥"
ऐसी ऐसी बहुत युक्तियों से जनता को अपनी ओर आकर्षित कर मृत प्राय धर्म में पुनः जान गलने का सफल प्रयत्न किया । यद्यपि उस समय जैनाचार्य एवं विशेषतः उपकेशगच्छाचार्य खड़े कदम थे उन्होंने जैनधर्म को विशेष हानी नहीं पहुँचने दी यदि किसी प्रान्त में जैनों की संख्या कम होती तो भी उनकी पू. ५ श्रीकल्याण विजयश्री के म० कपमानुसार ।
जैनो पर अत्याचार
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