Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १००१-१०३१ ३७--प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरि (सप्तम)
श्रेष्ठयाख्यान्वय एष राजसचिवः श्रीदेवगुप्ताविधी भव्यः स्वापरधर्मपारगतयाऽनेकान् जनान् निममे । जैनान ग्रन्थगणं स वै विहितवान् रम्याश्च देवालयान् धीरोऽभीष्टफलपदो विजयतामाचार्य चूडामणिः ।
रमोपकारी, पूज्यपाद प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर जी महाराज विश्व विश्रुत, संसारोपकारी, hind प्रखर धर्म प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं । आपका शासन समय जैनधर्म के लिए एक 8 विकट सभय था तथापि, आप जैसे शासन शुभचिंतक आचार्य के विद्यमान होने से शासन
के हित साधन विरुद्ध किञ्चिन्मात्र भी क्षति नहीं पहुँच सको । आपका जीवन अनेक चमकार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत है । पट्टावलीकारों ने आपके जीवन की प्रत्येक घटना को बड़े ही विस्तार पूर्वक लिखी है किन्तु, मैं अपने उद्देश्यानुसार यहां पर आपके जीवन का संक्षिप्त दिग्दर्शन करवा देता हूँ ।
परमपवित्र, अनेक भावों की पातक राशि को प्रक्षालन करने में समर्थ, श्री अर्बुवाचल तीर्थ की पवित्र छाया का श्राश्रय लेने वाली अमरापुरी से भी स्पर्धा करने वाली, गगनचुम्बी जिनालयों से सुशोभित चंद्रावती नाम की नगरी थी। पाठक, इस नगरी के विषय में पहले भी पढ़ चुके हैं कि श्रीमाल नगर के राजा जयसेन के पुत्र चंद्रसेन ने इस नगरी को आबाद की थी। यहां का रहने वाला प्रायः सकल जनवर्ग (राजा और प्रजा) जैन धर्म का ही उपासक था। यहां के राजघराने ने तो जैनधर्म के प्रचार में तन, मन, धन, एवं देहिक, मानसिक शक्ति से पूर्ण सहयोग दिया था। यही कारण था कि उस समय जहां कहीं भी दृष्टि डाली जाती थी सर्वत्र जैनधर्म ही जैनधर्म दीख पड़ता था । जैसे चंद्रावती नरेश जैन था वैसे ही वहां के सकल कार्यकर्ता भी जैनधर्म के परमानुयायी, परम प्रचारक थे।
- चंद्रावती नगरी उस समय लक्ष्मी का निवास स्थान ही बन चुकी थी। 'उपकेशे बहुलं ,व्य' यह कहा वत चंद्रावती के लिये भी सदैव चरितार्थ होती थी । लक्ष्मी के स्थिरवास में-'व्यापारे वसति लक्ष्मीः' की लोकोक्तिअनुसार चंद्रावती के व्यापारिक क्षेत्र की उन्नति ही मुख्य कारण था। वहां के व्यापारियों का व्यापारिक सम्बन्ध अासपास के क्षेत्रों तक या भारत पर्यंत ही सीमित नहीं था अपितु पाश्चा य देशों के साथ भी था । कई व्यापारियों की विदेशों में पेढ़िया (दुकानें) थी जल एवं स्थल-दोनों ही मार्ग जापारियों के व्यापार के केन्द्र बन गये थे। उस समय चंद्रावती में कोट्याधीश ही नहीं किन्तु बहुत से अब्जपति भी निवास करते थे । बेचारे लक्षाधीश तो साधारण गृहस्थ की गिनती में ही गिने जाते थे।
चन्द्रावती नगरी में साधर्मी भाइयों का वात्प्तल्यता खूब दूर दूर मशहूर था कारण कोई भी नया साधर्मी भाई चन्द्रावती में व्यापारार्थ आता था तब चन्द्रावती के धनाढ्य साधर्मी उस आया हुश्रा साधर्म भाई को एक एक मुद्रिका और एक एक इंट उपहार में दिया करता था कि आने वाला सहज ही में धनवान
चन्द्रावती नगरी की उदारता
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