Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० सं० ५५८ से ६०१
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
एक खास उल्लेखनीय घटना यह बनी कि शाह विमल नागपुर जा कर शाह नोढा संचेती को संभ में पधारने का आमन्त्रण किया कि उस समय शाह नोढ़ा का पुत्र देवा भी पास में बैठा था उसने कहा विमला शाह आप बड़े ही भाग्यशाली हैं कि इस प्रकार प्रात्मकल्याणार्थ धार्मिक कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग करते हैं । शाह विमल ने कहा यह आप साहिबों की अनुग्रह का ही सुन्दर फल है जैनधर्म में कारण से ही कार्य का होना बतलाया है शाह देवा समझ गया कि मेरा कहना शायद शाह विमल को ताना रूप हुआ हो और उस कारण को लेकर ही आपने संघ की योजना की हो ? पर ऐसा तो ताना ही अच्छा है कि जिसमें हजारों जीवों के पुन्य बन्ध का कारण बन जाता हो खैर शाह देवा ने कहा विमल शाह यदि आप पांच सात दिन मुहुर्त बदल दें तो हम सब कुटुम्ब के साथ आपके संघ में चल कर तीर्थयात्रा करें। विमल ने कहा बहुत खुशी की बात है यदि आपके जैसे भाग्यशाली मेरे पर इस प्रकार कृपा करते हों तो मुझे पांच सात तो क्या पर अधिक समय भी ठहरना पड़े तो भी इन्कार नहीं है। इस पर विमल की विमलता की कसौटी हो गई और उसी मुहूर्त के समय शाह नोढा-देवा संघ में चलने के लिये तैयार हो गये । अहा-हा कैसा निरभिमान का जमाना था और लोगों के दिल कैसे दरियाव सदृश विशाल थे ? जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है इससे ही धर्म की प्रभावना एवं उन्नति होती थी
ठीक समय पर मेदिनीपुर चतुर्विध श्रीसंघ से भर गया तब सूरीश्वरजी ने शाह विमल को संघपति पद प्रदान किया। इस तरह प्राचार्यदेव के नायकत्व एवं विमल के संघपतित्व में छरी पालक संघ ने शुभ
TE से प्रस्थान कर दिया। प्राचार्य देव के साथ में प्रायः सकल संघ पाद बिहारी बन तीर्थ यात्रा के परम सुकृत का लाभ उठाने लगा। चतुर्विध श्रीसंघ से सजा हुआ यह संघ इतनी विशाल संख्या में था कि देखने वालों को माण्डलिक गजा के बृहत् सैनिक समूह का भ्रम हो जाता था।
जब क्रमशः शत्रुब्जय तीन मुकाम दूर रहा तो सकल जनता के हृदय में तीर्थ स्पर्शन की पवित्र भावना प्रबल रूप से वृद्धिगत होने लगी। अतः प्रातःकाल संघ ने शीघ्र ही उक्त स्थान से प्रस्थान कर दिया। संघपतिजी तो सूरीश्वरजी के साथ में थे इस लिये सूर्योदय के होने पर प्राचार्य देव के साथ ही रवाना हुए चलते हुए मार्ग में पड़े हुए एक ऐसे बैल को देखा जिसके कि शरीर में कीड़े कलमला रहे थे। स्थान २ से रुधिर धारा प्रदवााहित हो रही थी । पक्षी गण चोंच से टोंच कर मांस निकाल उसे विशेष पीड़ित कर रहे थे । वह इस प्रकार से छट पटा रहा था कि मानों देह त्याग की ही आन्तरिक भावना प्रदर्शित कर रहा था। इस प्रकार वर्णतोऽवर्णनीय दारुण वेदना से दुखित बैल को संघपति ने देखा और उसने सूरिजी से कहा-भगवन् । ये भी किसी पूर्वभव कृत अशुभ कर्मोदय के ही फल होंगे ? सूरिजी ने कहा विमल ! इसके ही क्यों पर अपना यह जीव भी इससे अधिक भीम असह्य नारकीय यात-नाओं को अनेक बार सहन कर पाया है। बैल की पीड़ा के देखने मात्र से ही अपनी दयनीय स्थिति होगई है किन्तु जिसके सामने यह कष्ट नगण्य सा है ऐसा परमाधार्मिककृत उपसर्ग पापात्माओं को बलात् सहन करना पड़ता है। इस तरह सूरिजी ने विमल के नयनों के समक्ष नारकीय दुःखों का भयावना चित्र चित्रित कर दिया तब पाप से डरपोक विमल ने कहा-भगवन् ! ऐसा भी कोई अक्षय उपाय है कि जिससे कभी किसी भी प्रकार के दुःखों को सहन न करना पड़े ? सूरिजी ने कहा-इन दुःखों से छूटने का एक मात्र उपाय जिन गदित यमनियमों (महाव्रतों) को स्वीकार कर योगत्रय से सम्यकप्रकारेण रत्न त्रय
१०१२
बेल की असह्य वेदना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org