Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० सं० ५५८ से ६०१]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
नहीं, सब कार्य तो कर चुका हूँ, फेवल दीक्षा का काम रहा है सो वह भी कल तक हो जायगा । सूरिजी में कहा-'जहासुहं'।
सूरीश्वरजी के चरण कमलों में वंदन करने के पश्चात् विमल अपने निर्दिष्ट स्थान पर आया । अपने सकल परिवार को एव कौटुम्बिक सम्बन्धियों को बुला कर कहने लगा-मेरी भावना कल आचार्यश्री के पास में दीक्षा लेने की है अतः आप सर्व की अनुमति चाहता हूँ । विमल के . हृदय स्पर्धा वचनों को श्रवण कर सब के सब अवाक रहगये । अन्त में विमल की पत्नी ने विनय पूर्वक कहा प्राणेश्वर ! यदि आपको दीक्षा लेना ही है तो कम से कम संघ को लेकर पुनः अपने घर पधार जाइये । वहां मैं भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करूगी । विमल ने कहा-जब दीक्षा लेनी ही है तो ऐसे पावन तीर्थ स्थल को छोड़ कर घर जाकर दीक्षा अङ्गीकार करने में क्या विशेष लाभ है ? कुछ भी हो, मैं तो इसी स्थान पर कल दीक्षा ग्रहण करूगा । इस विषय में विमल के पुत्रों ने भी बहुत कुछ कहा किन्तु विमल, अपने कृत निश्चय पर अडिग रह।। आखिर विमल ने, अपनी पत्नी सहित ११ श्रावक श्राविकाओं के साथ सिद्धाचल के पवित्र आक्षय स्थान में सूरीश्वर जी के कर कमलों से परमवैराग्य पूर्वक दीक्षा स्वीकार की । उस ही दिन से विमल का नाम विनयसुंदर रख दिया गया।
___ संघपति के उत्तर दायित्व की माला विमल के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपाल को पहिनाई गई। काशः संघ चलकर पुनः मेदिनीपुर श्राया । संघपति श्रीपाल ने संघ को स्वामी वात्सल्य व सवासेर मोदक में पांच स्वर्ण मुद्रिकाएं डालकर स्वधर्मों भाइयों को पहिरावणी दी । याचकों को प्रचुर परिमाण में दान दे संध को सुष्ठ प्रकारेण विसर्जित किया।
श्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी ने मरुधर में विहार कर स्थान २ पर जैनधर्म का उद्योत किया। मुनि विनयसुन्दर भी इस समय पूज्य गुरुदेव की सेवा का लाभ लेता हुआ मनन पूर्वक शास्त्रों का अभ्यास करने लगा । विमल ऐसे तो स्वाभावतः ही कुशाग्र बुद्धि वाला था, फिर गुरुदेव का संयोग तो स्वर्ण में सुगंध का सा काम करने लगा। परिणाम स्वरूप थोड़े ही समय में विनयसुंदर न्याय, व्याकरण तर्क, छन्द, काव्य, अलंकार, निमित्तादि शास्त्रों का अभ्यास कर उद्भट-अजोड़ विद्वान होगया। विद्वात्ता के साथ ही साथ उस समय के लिये परमावश्यक वाद विवाद की शक्ति संचय में भी अनवरत गति से वृद्धि करने लगे। इतना ही नहीं, कई राज सभाओं के दिग्गज वादियों को नत मस्तक कर उन्हें जिनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुयायी बनाये । इसतरह सर्वत्र जैनधर्म की विजयपताका फहराते रहे ।
अन्त में योग विद्या से अपना मृत्यु समय नजदीक जान सिद्धसूरि ने अपने अन्तिम सत्य नागपुर के चातुर्मास के बाद देवी सच्चायिका के परमर्शानुसार, भाद्र गौत्रीय शाः गोल्ह के महा मत्सा पूर्वक विनय सुंदर मुनि को सूरि पद से विभूषित किया । परम्परानुसार आपका नाम कक्क सूरि रखदिया गया। श्रीसिद्ध सूरिजी तो उसही दिन से अपनी अन्तिम संलेखना में संलग्न हो गये
उपकेशगच्छाचार्यों में क्रमशः रत्नप्रभसूरि, यक्षदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुसूरि, सिद्धसूरि; इन पांच नामों की परम्परा चली आ रही थी किन्तु काल दोष से किंवा देवी के कथन में राप्रभसूरि और यक्षदेवसूगि, ये दोनाम भण्डार (बंद) कर देने पड़े । अतः अब से कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि ये तीन नाम ही क्रमशः रक्खे जाने लगे। इसी के अनुसार सिद्धसूरि के पट्ट पर प्राचार्य कक्कसूरि हुए । १०१४
विनयसुन्दर को सूरिपद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org