Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५५८ से ६.१]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जलमार्ग एवं स्थल मार्ग दोनों ही मार्ग से व्यापार किया करते थे । इन्ही व्यापारियों में श्रेष्टिगौत्रीय शाह करमण नाम के एक नामाङ्कित व्यापारी थे । आप पर लक्ष्मी की अपार कृपा होने से आप धन कुबेर के नाम से भी जग विश्रत थे।
शाह करमण के पुन्य पावनी, पतिव्रत धर्म परायण, परम सुशीला मैना नामकी स्त्री थी। इसी देवी ने अपनी रत्न कुक्षि से ११ पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर, अपने जीवन को कृतार्थ बनाया था। माता मैना, इतने विशाल कुटुम्ब वाली होने परभी अपने धर्म कार्य सम्पादन करने में सदैव तत्पर रहती थी। उस जमाने में एक तो जीव लघुकर्मी ही होते थे दूसरा निस्पृही निर्ग्रन्थों का उपदेश ही ऐसा मिलता था कि वे एक मात्र धर्म को ही उभयतः श्रेयस्कर श्रादरणीय, एवं उपादेय समझते थे । माता मैना के कई पुत्र पुत्रियों की शादियां भी हो गई थी । उनमें से श्री विमल नाम का पुत्र भी एक था। विमल, व्यापार कला का विशे. षज्ञ एवं धर्म कार्य का परम अनुरागी, दृढ़ श्रद्धालु था। प्रत्येक कार्य के लिए शा. करमण विमल से परामर्श किया करते थे।
एक समय विमल किसी कार्यवशात् नागपुर गया था ।वहां पर उपाध्याय श्रीसोमप्रभ के उपदेश से सुचंतिवंशभूषण शा. नोढ़ा ने शत्रुजय का संघ निकालने का निश्रय किया एवं संघ निकालनेके शुभ मुहुर्त का भी निश्चय हो चुका था अतः उक्त अवसर पर सम्मिलित होने के लिये शा. नोढ़ाने शा.विमल से प्रार्थना की कि कृपा कर संघ में पधार कर सेवा का लाभ मुझे प्रदान करें। इस पर विमल ने उत्तर दिया कि श्राप बड़े ही भाग्यशाली हैं कि संघ निकालने रूप बृहद् पुण्योपार्जन कर रहे हैं किन्तु यदि पांच दिन मुहूर्त को आगे रखें तो हम सकुटुम्ब साथ चल कर यात्रा के अपूर्व लाभ एवं अतुल पुण्य को सम्पादन कर सकेंगें । इन पांच दिनों मैं तो हमारे जरूरी काम होने से यकायक पाना नहीं बन सकता है । इस पर शाह नोढ़ा ने तो कुछ भी जबाब नहीं दिया पर पास में ही बैठे हुए नोढ़ा के पुत्र देवा ने कहा कि निर्धारित मुहूर्त में कुछ भी रहोबदल नहीं हो सकता है यदि आपके जरूरी कार्य होने से इस संघ में न पधारे तो भी आप समर्थ है कि आप स्वयं संघ निकाल कर यात्रा कर सकते हैं । शाह देवा ने किसी भी श्राशय से कहा हो पर विमल ने उसको ताना समझ कर उत्तर में कुछ भी नहीं कहा चुप चाप वह यों ही चल पड़ा पर उसकी अन्तरात्मा में संघ निकालने की नवीन उत्कट भावना ने जन्म ले लिया अतः तत्काल वहां से रवाना हो विमल, मेदिनीपुर आया और अपने सब कुटुम्बियों के समक्ष स्वहृदयान्तर्हित नवीन भावना को कह सुनाया। ऐसी परमपुण्यमय सुन्दर योजना को सुन सभी के हृदयों में अपरिमित आनंद का अनुभव होने लगा और उसी दिन से वो संघ निकालने के लिए आवश्यक साधनों को जुटाने में संलग्न वन गये ।
विमल की इच्छा थी कि अपने माता पिता की मौजूदगी में ही यात्रार्थ संघ निकाल कर यात्रा करे पर कुदरत कुच्छ और ही घाट घड़ रही थी। शाह करमण की अवस्था वृद्ध थी उसने अपने शरीर की हालत देखकर अपने स्थान पर शा० विमलको स्थापन कर घर का सब कारोबार विमल के अधिकार में कर दिया और आप परम निर्वृति में जैन धर्म की आराधना में सलग्न हो गये यही हाल माता मैना का था।
आहा-हा उस जमाने के भद्रिक एवं लघुकर्मी लोग आत्मकल्याण करने में किस प्रकार तत्पर रहते थे जिसका यह एक उदाहरण है थोड़ा ही समय में शाह करमण समाधी पूर्वक एवं पंच परमेष्टी का स्मरण के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। जिससे विमल को बड़ा भारी रंज हुआ वह सोचने लगा कि में हत
विमल को ताना और संघ
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