Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९२०-९५८
जोश के साथ इतिहास का कार्य कर रहे हैं और इतिहास के साधनों से उन्होंने अनेक नयी नयी बातों को जानी है पर जैन समाज का इतिहास की ओर बहुत कम लक्ष है और इस कार्य में बहुत कम सज्जन दिलचस्पी रखते हैं अधिक लोग प्राचीन समय से चली आई परम्पार एवं रूढ़ीवाद को ही मानने वाला है यदि ऐतिहासिक प्रमाण भी मिल जाय तो भी अपनी मान्यता में थोड़ा भी परिवर्तन करना नहीं चाहते हैं श्रीमान् शाह ने अभी 'प्राचीन भारतवर्ष नामक ग्रन्थ के ५ भाग लिखे हैं जिसमें अपने कई वर्ष से बहुत परिश्रम किया है अन्य मत आलंम्बियों ने आपके इस परिश्रमों की बहुत बहुत तारीफ एवं प्रशंसा की है । पर जैन समाज में कई लोग ऐसे ही महंमद एठ असाहणुत रखनेवालेहैं कि आपके कार्य का अनुमोदन करना तो दर किनारे रहा पर उसमें रोड़ा डालने को तैयार हो जाते हैं। हाँ इतिहास का काम ही ऐसा है कि पहले पहल लिखने मैं अनेक त्रुटियाँ रह जाती हैं पर ऐसी त्रुटियों को सामने रख लेखक का उत्साह भंग कर देना कितना अनुचित है ? यदि त्रुटियों के सामने रखने वाला इतिहास विषय का प्रन्थ लिख कर देखें कि इतिहास लिखने में कितनी मगजमारी करनी पड़ती है एक छोटा सा इतिहास लिखने में कितने प्रन्थों का अवलोकन करना पड़ता है और उस देखी हुई विषय को किस तरह से सिलसिलेवार व्यवस्थित करनी पड़ती है पर इन बातों पा लक्ष देता है कौन ? आज तो यह एक रोजगार बन गया है कि इधर-उधर के पांच पचीस स्तवन या प्रतिक्रमण के पाठ रख एक दो किताब छपवा दी कि वह लेखक बन जाता है मेरे खयाल से तो जैन समाज में श्राज वही काम कर सकता है कि अपने हृदय को बन समान बनाले और किसी के कहने की तनक भी परवाह न रखे और अपना काम करता रहे । मैंने तो श्रीमान शाह का ग्रंथ पढ़ कर बहुत खुशी मनाई है और आपके ग्रंथों से बहुत सी बातें जानने काबिल भी मिली है इन प्रकरणों का अधिक मसाला शाह की पुस्तकों से ही लिया गया है अतः ऐसे ग्रंथों का स्वागत करना मैं मेरा कतव्य समझता हूँ।
गुफा-प्रकरण भारतीय श्रमण संस्कृति का अस्तित्व इतिहास काल का प्रारम्भ से पूर्व भी विद्यमान था यही कारण है कि आज विद्वान वर्ग की अटल मान्यता है कि भारत की संस्कृति श्राग्यात्मता का केन्द्र है और यह प्राचीन समय से ही चली आ रही है। पूर्व जमाने में भारतीय किसी धर्म के श्रमण क्यों न हो पर वे सब के सब जंगलों में रहकर अध्यात्म विद्या का अभ्यास किया करते थे और इसी अध्यात्मता से उनकी आत्मा का सर्व विकाश भी हो जाता था । कारण जंगलों में रहने वाले श्रमणों को प्रथम तो गृहस्थों के परिचय का सर्वथा अभाव ही रहता था दूसरा जंगलों की श्राबहवा स्वच्छ जिसमें ज्ञान-ध्यान तत्व चिन्तन पठन-पाठन मनन निधिध्यासन करने में मन का एकाग्रहपना रहता है श्रासन समाधि और योगाभ्यास करने में सब साधन अनुकूल रहते थे और पूर्व संचित कमों की निर्जरा करने को कर्मों की उदिरण करने में शीतकाल में माड़ा-ठाड सहन करना ग्रिष्मकाल में अातापनादि कई प्रकार के परिसहों को जान बूझकर सहन करने का सुअवसर हाथ लग जाता तथा इन कार्यों में बाद पहुँचने का कोई कारण जंगलों में उपस्थित नहीं होता था इत्यादि जंगलों में रहने वाले श्रमणों से अनेक प्रकार के आत्मिक लब्धियां एवं विविध प्रकार के चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त हो सकती थी इतना सब कुछ होने पर भी बरसात के समय उनको अच्छादित स्थान की अपेक्षा अवश्य रहती थी इसके लिये वृक्षों का ही आश्रय लिया जाता था पर संख्या की अधिकता के श्रमण संस्कृति
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