Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९२०-९५८
चमत्कारिक वर्णन भी किया है पर पट्टावलियादि ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि साचौर में महावीर का मन्दिर कोरंटपुर का मंत्री नाहड़ ने वीर की छटी शताब्दी में बनाया था और जिस समय यह मन्दिर बनाया था उस समय तो यह एक ग्राम का मन्दिर ही कहा जाता था यदि साचौर का मन्दिर को ही तीर्थ रूप समझा जाय तो उससे भी प्राचीन समय में ओसियां और कोरंटपुर के महावीर मन्दिर चमत्कार से बने हुए थे उनको भी तीर्थों की गनती में गि ते श्रतः जग चिन्तामणि का चैत्यवन्दन में 'जयवीर 'चउरि ' मण्डण वाला स्थान मारवाड़ का साचौर नहीं पर विदिशानगरी का सांचीपुर ही होना चाहिये और इसके लिये उपर बतलाये हुए प्रमाणों में श्रा महागिरी और सुहस्तीसूरि का यात्रार्थ जाना, सम्राट चन्द्रगुप्त का वहाँ दीपक के लिये बड़ा भारी दान देना तथा वहाँ राज महल बना कर कुच्छ समय निर्वृति से रहना । सम्राट् अशोक का भी यात्रार्थ जाना, सम्राट् सम्प्रति का उज्जैन को छोड़ अपनी राजधानी विदिशा में ले जाना इत्यादि ऐसे कारण है कि विदिशा एवं सांचीपुर को सहज ही में एक धाम तीर्थ होना साबित करते हैं ।
धारानगरी का महा कवि धनपाल एक जैनधर्म का परम भक्त श्रावक था जब धनपाल और घरा पति राजा भोज के आपस में मनमल्यनता हो गई तो धनपाल धारा का त्याग कर सांचौर - सत्यपुर में जाकर महावीर की भक्ति की और वहाँ पर इस विषय के प्रन्थ भी बनाया। इसके लिये भी बहुत लोगों की ही मान्यता है कि धनपाल मारवाड़ के साचौर में रहा था पर अब इस बात में भी विद्वानों को शंका होने लगी है कारण धनपाल मालवा का रहने वाला और मालवा में सांचीपुरी भ० महावीर का एक प्रसिद्ध तीर्थ जिसको छोड़ वह मारवाड़ के साचौर में जाय यह संभव नहीं होता है जब कि मगद देश में राज करने वाला सम्राट् चन्द्रगुप्त निर्वृति के लिया सांचीपुरी आया था तब पं० धनपाल के तो पास ही में सांचीपुरी थो वह वीर तीर्थ सांचीपुरी को छोड़कर मारवाड़ के सांचौर में कैसे जा सकते । इस समय रेल्वा तथा पोस्ट वगैरह के साधनों से मारवाड़ का साचौर भले प्रसिद्ध हो पर पहले जमाना में तो इसकी प्रसिद्धि भी शायद ही मालवा प्रान्त तक हो खैर कुच्छ भी हो पर पं० धनपाल मारवाड़ की अपेक्षा मालवा की सांचीपुरी जाना विशेष प्रमाणित हो सकता है ।
विशेष में एक यह भी बतलाया गया है कि भारत में कई विदेशी लोग यात्रार्थये करते थे जिसमें चीनी लोगों के लिये अधिक प्रमाण मिलते हैं क्योंकि १ - त्रीनी फहियन ( इ० सं० ४११ ) २ – सँगयुन ( इ० सं० ५१८ ) ३ - इत्संग ( इ० सं० ६७१) ४ - हुयंत्सग ( इ सं० ६७५ ) में भारत में श्राये थे और ये चारों चीनी बोद्ध धर्म को मानने वाले थे और इनका आना भी बोद्ध धर्म के प्राचीन स्मारकों की शोध खोज करने का ही था और उन्होंने अपने २ समय भारत में भ्रमन कर जो कुछ बोद्ध धर्म सम्बन्धी उनको जानने योग्य मिला उनकी उन्होंने अपनी डायरी में नोंध करली थी और बाद अपने देश में जाकर उन लब्धपदार्थों को एक स्थान लिपिबद्ध करने को पुस्तक के रूप में लिख ली थी और वे पुस्तकें वर्तमान में मुद्रित भी होगई उनकी पुस्तकों में बहुत कुछ वर्णन मिलता है, पर सांची स्तूप के लिये थोड़ा भी ईशारा नहीं मिलता हैं कि सांची में बोद्ध धर्म का कोई भी स्तूप है। यदि सांची के स्तूप बोद्ध धर्म के होते तो वे चीनी मुशाफिर अपनी डायरी में नोट करने से कभी नहीं चूकते ? शायद कोई सज्जन यह सवाल करें कि वे चीनी यात्रु सांची एवं मालवा में भ्रमन नहीं किया हो ? भला
चीनी यात्री भारत में
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