Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५२०-५५८ ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
(४) सौराष्ट्र प्रान्त के प्रभास पट्टन में खुदाई का काम करते हुए एक ताम्र पत्र मिला है जिसमें लिखा है कि राजा ने बुसदनेमर ने एक मन्दिर बनवा कर गिरनार मण्डन नेमिनाथ भगवान् को अर्पण किया। इसका समय विक्रम पूर्व पांच, छ शताब्दी का है इससे पाया जाता है कि इसके पूर्व भी वहां जैनधर्म का प्रचार था हमारी पट्टावलियां भी इसी बात को पुकार पुकार का कह रही है कि लोहित्याचार्य ने पश्चिम से दक्षिण तकके प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार किया था।
(५) महाराष्ट्र प्रान्त में बहुत से ताम्रपात्र दान पत्र भूगर्भ से मिले हैं, तब हमारी पट्टावलिये कहती हैं कि विक्रम की छट्टी, सातवीं शताब्दी पूर्व लोहित्याचार्य ने महाराष्ट्र प्रान्त में जैनधर्म आ प्रचार किया था।
(६) तक्ष शिला के खोद काम से वहां अनेक जैन मूर्तियें एवं जैन मन्दिरों के खण्डहर मिले हैं तब जैन पट्टावलियां बताती है कि एक समय तक्षशिला में ५ . जैन मन्दिर थे ।
(७) केवल आर्यावर्त में ही नहीं; पाश्चात्य प्रदेशों में भी जैन प्रतिमाओं एवं खण्डहरों के अखण्ड चिन्ह मिले हैं। अभी ही आस्ट्रिया प्रान्त के बुढ़ प्रस्त प्राम के एक कृषक के खेत में भगवान महावीर की अखण्ड मूर्ति उपलब्ध हुई है। अमरिका में सिद्धचक्र का ताम्र मय घट्टा व मंगोलिया प्रदेश में अनेक जैन मन्दिरों के खण्डहर प्राप्त हुए हैं। इसी बात को हमारे पट्टावली निर्माताओं ने लिखा है कि सम्राट् सम्प्रति ने पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का विस्तृत प्रचार करवाया था। इत्यादि ।।
अम्वेषण के ऐसे सैकड़ों ऐतिहासिक साधन हमारी पट्टाव लयों एवं वंशावलियों की सत्यता को अब भी सिद्ध कर रहे हैं। न जाने ऐसे कितने ही साधन भू गर्भ में अब भी गुप्त पड़े होंगे ? पर ज्यों-ज्यों शोध-खोज एवं अन्वेषण कार्य तीव्रता से बढ़ता जा रहा है त्यों २ प्राचीन एवं ऐतिहासिक पुण्य साधन भी उपलब्ध होते जा रहे हैं । इन प्राचीन सत्य प्रमाणों के आधार पर हमारी पदावलियों की प्रामाणिकता एवं सत्यता अपने आप ही सिद्ध होती जा रही है । अतः हमारा कर्तव्य है कि, हम हमारी वंशावलियों में विश्वास रखते हुए ऐतिहासिक साधनों के द्वारा पट्टावलियों की प्रामाणिकता को जनता के सन्मुख रखने का प्रयत्न करते रहें।
हमारी पट्टावलियों, वंशावलियों की सत्यता में संदेह रखने का कारण-वे घटना समय के सैंकड़ों वर्षों के पश्चात् लिपिबद्ध की गई हैं । दुसरा-इतने दीर्घ समय के बीच एक ही नाम के अनेक राजा एवं आचार्य हो गये हैं अतः पीछे के लेखकों ने नामकी समानता के कारण एक दूसरे प्राचार्यों की घटना एक दूसरे समान नाम वाले श्राचार्यों के साथ जोड़ दी है। एक राजा की घटना दूसरे राजा के साथ सम्बन्धित करदी है । उदाहरणार्थ देखिये
(१) उत्पलदेव नाम के कई राजा हुए हैं अतः भाटों चारणों ने बाबू के परमार राजा उत्पलदेव के साथ ओसियां बसाने बाले राजा उत्पलदेव की घटना को जोड़ दी है की वास्तव में ओसियों को श्राबाद करने वाले तो भिन्नमाल के सूर्यवंशी राजा उस्पल देव थे। श्राबू के उत्पल देव विक्रम की दशवीं सताब्दों में हुए तब भिन्नमाल के सूर्यवंशीय उत्पलदेव विक्रम के चार सौ वर्ष पूर्व हुए हैं।
(२) जैन संसार में पन्चमी की सम्वत्सरी को चतुर्थी के दिन करने वाले कालिकाचार्य हुए हैं पर कालकाचार्य नाम के कई प्राचार्यों के हो जाने से पंचमी की सम्वत्सरी को चतुर्थी के दिन करने वाले
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राज्य-प्रकरण]
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