Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५२०-५५८ ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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त्याग अवश्य किया था पर इस त्याग से पूर्व प्रांत में जैनश्रमणों का प्रभाव नहीं हुआ। हां, उतनी संख्या में व उतनी निर्भयतापूर्वक वे उस प्रान्त में जिनधर्म का प्रचार नहीं कर सके ।
जैन तीर्थंकरों की प्रायः जन्म और निर्वाणभूमि पूर्व प्रान्त ही था अतः जैनधर्म का उस प्रान्त में ज्या प्रचार होना भी स्वाभाविक ही था । यही कारण था कि पुष्पमित्र के राक्षसीय अत्याचार भी जैनियों के अस्तित्व को सर्वथा मिटाने में असफल ही रहे। पुष्पमित्र का राज्य भी २६ वर्ष पर्यन्न ही रहा अतः उसकी मृत्यु के पश्चात् तो जैनश्रमणों को पूर्व प्रान्त में विचरण करने में इतना विघ्न का सामना नहीं करना पड़ा।
जिन श्रमणों ने पुष्पमित्र के उपद्रव से पूर्व प्रान्त का त्याग कर अन्य प्रान्नों की ओर विहार किया था वे जिन जिन प्रान्तों में गये वहां जैनधर्म का प्रचार कर अपना विहार क्षेत्र बना लिया वहां के राजा प्रजा पर धर्म का प्रभाव डाल उनको जैनधर्म के उपासक बना दिये इधर मरुधरादि प्रांतों में पहले से ही भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानिये विहार करते थे वहां भी लाखों की संख्या में जैन विद्यमान थे इससे पूर्व से आने वाले श्रमणों को सब तरह की सुविधा भी थी।
जब पुष्पमित्र का देहान्त हो गया और साथ ही में उपद्रव की भी शति हो गई । इस हालत में कई श्रमण बड़े-बड़े संब निकलवा कर पूर्व के तीर्थों की यात्रा करने को पुनः पूर्व में गया और •ई निग्रंथों ने पूर्ववत् पूर्व प्रदेशों को स्थायी रूप से अपना विहार एवं धर्म प्रचार का कार्य करने लग गये इत्यादि पाठक सोच सकते हैं कि धर्म रक्षा के लिये जैन मुनयों ने कैसे-कैसे संकटों का सामना किया था- ?
पट्टावलीकार लिखते हैं कि प्राचीन जमाने में मरुभूमि के गजा कई विभागों में विभक्त थे जैसे--भिन्नभाल, उपके शपुर, कोरंटपुर, नागपुर, चन्द्रावती, नारदपुरी. शिवपुरी, माण्डव्यपुर, शंखपुर वगैरह स्थानों में पृथक २ राजाओं का राज्य था । इन सब राजाओं पर जैनाचार्यों का पर्याप्त प्रभाव था। उक्त जिन धर्मानु यायी नरेशों में से कई तो जिनधर्म के उपा क ही नहीं पर कट्टर प्रचारक भी थे । उस समय में जैनधर्म का चतुर्दिक में इतना विस्तृत प्रचार होने का एकमात्र कारण जैनधर्म के सिद्धान्तों की पवित्रता अहिंसा, स्याद्वाद कर्मवादादि अकाटय सिद्धान्तों की प्रामाणिकता ही था। वाममार्गियों के अत्याचार एवं यज्ञ की गहिंद हिंसा से सब ही घृणा करने लगे थे। मांस, मदिग, व्यभिचार आदि पाप रूप वाममार्गियों के धार्मिक सिद्धान्तों को अधर्म समझ जनसमाज उससे घृणा करने लग गया था । धर्म की आड़ में पाप का पोषण उन्हें अरुचिकर प्रतीत हुआ, यही कारण था कि जैनियों की पवित्रता एवं उच्चता ने उनका प्रचार मार्ग एक दम अवरुद्ध कर दिया । वाममागियों की जुगुप्सनीय प्रवृत्ति के एकदम विपरीत जैन श्रमणों की कठोर त्याग परायणता, आचार व्यवहार एवं नियमों की दृढ़ता, शास्त्र ज्ञान अन्य विषय प्रतिपादन शैली की अपूर्वत ने जैनधर्म के प्रति सबके हृदय को आकर्षित करने में चुम्बक का काम किया। बस एक बार जैनियों का विक्रय डंका सारे भारतवर्ष में ही नहीं अपितु प्राश्चात्य प्रदेशों में भी बज गया। जैनियों की संख्या में दिन प्रति दिन अभिवृद्धि होती गई।
इन राजांओं में से कई तो ऐसे भी थे जिनकी कई पीढ़ियों पर्यन्त जैन धर्ती का पालन बराबर चलता आया । इनमें उपकेशपुर, चद्रावली, शंखपुर, विजयपुर शिवपुरी, कोरंटपुर, डामरेल, वीरपुर आदि
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[ राज्य-प्रकरण
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