Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ९२० ९५८
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ज्य--प्रकरण इस प्रन्थ के पूर्व प्रकरणों में शिशुनागवंशीय, नन्दवंशीय, मौर्यवंशीय, चेटकवंशीय चेदीवंशीय राजाओं का वर्णन कर आया हूँ । उनके जीवन वृत्तान्त व घटनाओं को पढ़ने से यह सुण्ठ प्रकारेण ज्ञात हो जाता है कि वे सबके सब अहिंसा धर्म के परमोपासक व जैन धर्म के प्रखर प्रचारक थे । उन्होंने केवल भारत में ही नहीं अपितु पात्रात्य प्रदेशों में भी जैनधर्म का पर्याप्त प्रवार किया थापाश्चात्य प्रदेशों में भूगर्भ से प्राप्त मन्दिर मूर्तियों के खण्डहर आज भी पुकार २ कर इस बात की साक्षी दे रहे हैं कि वे जिन धर्मानुयाई परम भक्त के कारवाये हुए और एक समय वहां जैनों की कापी वसति थी।
जब मौर्यवंशीय राजा वृहद्रथ के सेनापति सुंगुवंशीय पुष्यमित्र ने अपने स्वामी को धोके से मार कर राजसिंहासन ले लिया तब से ही जैन और बौद्धों पर घोर अत्याचार प्रारम्भ होने लगा। राजा पुण्यमित्र वेदानुयायी था। उसने धर्मान्ता के कारण अन्य धर्मावलम्वियों पर जुल्म ढोना शुरु कर दिया । अपने सम्पूर्ण राज्य में यह घोषणा करवा दी कि " जैन गौर बौद्ध श्रमणों के सिर को काट कर लाने वाले बहादुर (!) व्यक्ति को एक मस्तक के पीछे १०० सौ-स्वर्ण दीनारें प्रदान की जायगी" इस निर्दयता पूर्ण घोषणा ने या रुपयों के क्षणिक लोभ ने कई निर्दोष जैन, बौद्ध भिक्षुओं को मस्तक विहीन कर दिये ।
क्रमशः इस अत्याचार का पता महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल को मिला तो उन्होंने मगध पर चढ़ाई कर पुष्पमित्र के दारुण पापो का बदला बहुत जोरों से चुकाया। उसे नतमस्तक बना कर माफी मंगवाई । इससे पुष्य मित्र खारवेल की शक्ति के सन्मुख कुछ समय तक तो मौन अवश्य रहा पर उसके मानस में उक्त दोनो धर्मों के प्रति रहे ए द्वेष कोवर त्याग नहीं सका । उसका क्रोध अन्दर ही अन्दर प्रज्जवलित होता रहता पर चक्रवर्ती खारवेल की सैन्यशक्ति को स्मृति हो पुनः उसके क्रोध को एक दम दबा देती। क्रमशः द्वेषाग्नि की भयङ्कर ज्वाला ज्यादा समय तक दबी न रह सकी ओर पुष्यमित्र ने अपना पूर्व का कार्य क्रम पुनः प्रारम्भ कर दिया · महामेधवाहन चक्रवर्ति महाराजा खारवेल ने भी दूसरी वार फिर मगध पर आक्रमण किया ! गजा पुष्यमित्र को पराजित कर मगव प्रान्त को खूब लूटा । राजानन्द द्वारा कलिङ्ग से लाई हुई जिन प्रतिमा को उठाकर वह वह पनः कलिङ्ग में लाया। इस आक्रमण के पश्चात् राजा खारवेल एक वर्ष से ज्या। जीवित नहीं रह सका यही कारण था कि पुष्पमित्र का अत्याचार अब तो निर्भयता पूर्वक होने लग गया । इस अत्याचार की भयङ्करता एवं निर्दयता के कारण जैन एवं बौद्ध भिक्षुओं को विवश, पूर्व प्रदेश का त्याग करना पड़ा।
पश्चिम उत्तर ओर दक्षिण में पहिले से ही जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार था। हजारों जैन श्रमण उन प्रान्तों में विचरण कर जैनधर्म की नींव को दृढ़ भी बना रहे थे । राजपुताना-मरुभूमि में प्राचार्य स्वयं प्रभसूरि और रत्नप्रभ सूरि ने जैनधर्म की नींव डाल कर इसका खूब प्रगर किया था। महाराष्ट्र प्रान्त में लोहिल्याचार्य ने जैतधर्म के बीजारोपण कर ही दिये थे। सम्राट सम्प्रति और खारवेल के समय भारत के अधि। शि-या सबके सब प्रदेश प्रायः जैन धर्मानुयायी थे अतः पूर्व प्रान्तीय मुनिवर्ग, पुष्पमित्र के यमगज को कंपाने वाले अत्याचारों से --जहां अनुकूलता दृष्टिगोचर हुई; चले गय । यद्यपि उन्होंने पूर्व प्रदेश का
राज्य-पकरण]
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