Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आर्य पादलिप्त सूरि एवं सिद्धसेनदिवाकर को प्राय रक्षित के पूर्व माना जाय तो इनके समय में लिखी हुई पुस्तकें मिलने का प्रमाण मिल सकता है जैसे सिद्धन दिवाकर जब चित्तौड़ गये तब वहां के एक स्तम्भ में आपने बहुतसी पुस्तकें देखी। उसके अन्दर से एक पुस्तक आपने पढ़ी तथा आयपादलिप्तसूरि की तरंग लोल नाम की कथा का थोड़ा २ भाग कवि पंचाल ने राजा को सुनाया इसका उल्लेख पादलिप्त के जीवन से मिलता है। इससे पाया जाता है कि उस समय पुस्तकों पर लिखना प्रारम्भ हो गया था।
हेमवंत पट्टावली के अनुसार प्राय स्कंदिल के उपदेश से ओसवंशीय पोलाक नामक श्रावक ने गंध हस्ति विवरण सहित आगमों की प्रतिय लिखकर जैन श्रमणों को भेंट की। इसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी है, अतः यह ठीक है तो मानना चाहिये कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में जैनागमों को पुस्तक रूप में लिखना प्रारम्भ हो गया था।
अन्तिम द्वादश वर्षीय दुष्काल विक्रम की चौथी शताब्दी में पड़ा था। जब दुष्काल के अंत में सुकाल हुआ तो आर्ष स्कंदिल सूरि ने मथुग में और आर्य नागार्जुन ने वल्लभी में श्रमणों को आगमों की वाचना दी। उस समय भी आगमों को पुस्तकों पर लिखा गया था।
___ आर्य देवद्धि गणि क्षमाक्षमणजी और कालिकाचार्य के समय पुनः वल्लभी नगरी में माथुरी और वल्लभी वाचना के अंदर जो-जो पाठान्तर रह गये थे; उनको ठीक व्यवस्थित करने के लिये सभा की गई।
___एक समथ वह था जब कि जैन श्रमण पुस्तकों को लिखने एवं रखने में संयम विराधना रूप पाप समझते थे परन्तु समय ने पलटा खाया और क्रमशः बुद्धि की मंदता होने लगी । अतः ज्ञानि को स्थिर रखने के लिये पुस्तक लिखना एवं रखना अनिवार्य समजाने लगा। इतना ही क्यों पर पुस्तकें संयम की रक्षा के अंग बन गये थे । ३।
__ जब पुस्तकें लिखने रखने की आवश्यका प्रतीत हुई और इन्हें ज्ञान का साधन व संयम का अंग समझ लिया तब यह सवाल पैदा हुआ कि पुस्तके किस लिपि में किन साधनों द्वारा लिखी गई ? साथ ही इस विषय का शास्त्रों में कहां २ उल्लेख है ?
१, अस्थि महुराउरीए सुय समिद्धो खंदिलों नाम सूरि तहा बलहि नयरीए नगज्जुणो नाम सूरि । तेहिय जाए बारस वरिसिए दुक्काले निव्व उभावों विफुटि (1) पाऊण पंसिया दिसो दिसि साहवो । गमिउंच कह विदुस्थते पुणो मिलिया सुगाले । जाव सःझायंति तात्र खंडुखुरु डीहूयं पूच्चाहीयं । ततोमा सुय वोच्छित्ति होउत्ते पारदो सूरीहिं सिद्धतुद्धारो । तत्थ विजं न विसरियेतं तहेव संठवियं । पम्हट्ठाणं उण पुवावरावदंतु सुत्तत्त्थाणुसारओं कया संघडणा, कहावली लिखित प्रति'
२-वल्लहि पुरम्मिनयरे देविड्डी पमुह सयळ संधैर्हि ।
पुत्थेआगम लिहिओ नवसय असियाओ वीराभो ॥ ३ (क) घेप्पति पोरस्थग पणगं, कालिगणिज त्ति कोसटठा ॥ निशीथ भाष्य-३.१२ (ख) मेहा ओगहण धारणादि परिहाणि जाणिठण कालियसूयणिज्जु त्तिणिमित्तं वा पोत्थग पणगं घेप्पति ।
कोसो त्तिसमुदाभो ॥ निशीथ चूर्णी. (ग) कालं पुण पडुच्च चरण करणठा अवोच्छित्ति निमितंच गेण्ह माणस्स पोत्थए संजमों भवइ ।
दशवै कालिक चूर्णी.
[भ० महावीर की परम्पर
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