Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धमुरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ९२०-९५८
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इसके लिये सबसे रहले हम श्रीराजप्रश्नीयसूत्र को देखते हैं । उसमें सूर्याभदेव के अधिकार में पुस्तक रत्न और उनके साधन निम्न बतलाये हैं।
"तस्सेणं पोत्थरयणस्स इमेया रूवे वण्ण वासे पण्णत्ते तंजहा रयणामयाइंपत्तगाई, रिट्टामइओकविआओ, तवणिज्जमएदोरे, नाणामणिमएगंठी, वेरुलियमणिलिप्पासणे, रिट्टामए छंदणे; तवणिज्जमइसंकला, रिट्टामइमसी, वइरामइलेहणी, रिट्टामयाईअक्खराई धम्मिए सत्थे
"श्रीराज प्रश्नी सूत्र" प्रस्तुत उल्लेख से लेखन कला के साथ सम्बन्ध रखने वाले साधनों में से पत्र कम्बिका ( कांबी ) डोरा, गांठ, दवात, घात का ढक्कन, सांकल, स्याही, लेखनी आदि प्रमुख साधन बतलाये हैं। इन्ही साधनों को जैनश्रमणों ने पुस्तक लिखने के उपयोग में लिये।
जैसे आज मुद्रित पुस्तकों की साइज रोयल सुपरवाइल, डेमीइल, क्राउन है वैसे ही हस्त लिखित पुस्तकों की साइज के लिये निम्न पाट है:--
"पोत्थगपणगं-दीहोबाहल्लपुहजेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्थगो अंतेसुतणुओ मज्झे पिहुलो, अप्पबाहल्लो कच्छ भी, चउरंगुलो दीहोवावत्ता कति मुट्टि पोत्थगो, अहवा चउरंगल दीहो चउरंसो मुट्टिपोत्थगो । दुमादि फलगा संपुउगं । दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पबाहुल्लो छिवाड़ी, अहवातणु पतेहि उस्सिओ छिवाड़ी"
गंडी पुस्तक-जो पुस्तक जाड़ाई और चौड़ाई में सरीखी अर्थात चौखंडी लम्बी हो वह गंडी पुस्तक । कच्छपी पुस्तक-जो पुस्तक दो बाजू से संकड़ी और बीच में चौड़ी हो वह कच्छपी पुस्तक । मुष्टि पुस्तकः-जो पुस्तक चार अंगुल लम्बी होकर गोल हो चौड़ी वह मुष्टि पुस्तक । संपुट फलकः-लकड़ी के पटियों पर लिखी हुई पुस्तक का नाम संपुट फल है । छेदपाटी:-जिस पुस्तक के पत्र थोड़े हों ऊचे भी थोड़े हों वह छेदपाटी पुस्तक है । इन पांचों के अलावे भी कई प्रकार के साइज में पुस्तकें लिखी गई थी।
पुस्तकों की लिपि-ऐसे तो अक्षर लिखने की बहुत सी लिपियां हैं परन्तु जैन शास्त्र लिखने में प्रायः ब्राह्मी लिपि ही काम में ली गई थी। यही कारण है कि श्रीभगवतीसूत्र के आदि में ग्रन्थ कर्ता ने 'नमो बंभीए लिबीए" अर्थात् ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है। श्री समवायांगजी सूत्र में ब्राह्मी लिपि के १. भेद बतलाये हैं । यथा :--
"बंभण्णं लिवीए अट्ठारस विहेलेख विहाणे पं० तंबंभी, जवणालिया ( जवणाणिया ), दोसाउरिया, खरोट्टिआ, पुक्खरसारिआ, पराहइया ( पहाराइया), उच्चतरिया, अक्खरपुट्टिया, भोगवयता, वेणतिया, णिण्हइया, अंकालवी, गणिअलिबी, गंधव्य लवी, भ्रअलिवी आदंसलिवी, माहेसरी लिवी, दामिलीलिवी पोलिंदीलिवी " “समवायाग १८ समवायें "
इस सूत्र की टीका में प्राचार्य अभयदेवसूरि ने ब्राह्मी लिपि का अर्थ निम्न प्रकारेण किया है :जैन श्रमणों और पुस्तक काल]
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