Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९२०-९५८
के प्राप्त होने का भी पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है तब खपटाचार्य का स्वर्गवास तो वीर निर्वाण ४८४ में ही हो गया था | इस कारण यह अनुमान किया जा सकता है कि खपटाचार्य से विद्या हासिल करने वाले पादलिप्रसूरि पहले हुए हैं और नागहस्ति के शिष्य पादलिप्त बाद में हुए । एक ही नामके अनेक आचायों के होने से उन आचार्यों के नामों के साम्य को लक्ष्य में रख पिछले लेखकों ने दोनों पादलिप्तसूरि को एक ही लिख दिया हो जैसे कि भद्रबाहु के लिये हुआ है
ठीक है
नागहस्तिसूरि के पट्टधर पादलिप्तसूरि का समय विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी मानना ही । कारण, खपटाचार्य के समय पादलिप्त के गुरु नागहस्ति का भी अस्तित्व नहीं था तो पादलिप्त का तो माना ही कैसे जाय ?
नागार्जुन -- ये पादलिप्तसूरि के गृहस्थ शिष्य थे । जब पादलिप्तसूरिवि की तीसरी शताब्दी के आचार्य थे तो नागार्जुन के लिये स्वतः सिद्ध है कि वे भी तीसरी शताब्दी के एक सिद्ध पुरुष थे ।
आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर वृद्धवादी के गुरु आर्यस्कंदिल थे और आप पादलिप्तसूर की परम्परा में विद्याधर शाखा के थे । इससे पाया जाता है कि आप पादलिप्तसूरि के बाद के आचार्य हैं । स्कंदिल नाम के भी तीन आचार्य हुए हैं जिनमें सब से पहिले के स्कंदलाचार्य युगप्रधान के प्रथमोदय के २० आचार्यों में १३ वें युगप्रधान माने जाते हैं । ये श्यामाचार्य के बाद और रेवतिमित्र के पूर्व के आचार्य हैं अतः इनकः समय ३७६ से ४१४ का है ।
दूसरे स्कंदिलाचार्य का उल्लेख हेमवंत पट्टावली में है । इनका स्वर्गवाल वि० २०२ में होना लिखा है अतः ये भी वृद्धवादी के गुरु नहीं हो सकते हैं कारण, स्कंदिल पादलिप्त के पूर्व हो गये थे ।
माथुरी वाचना के नायक तीसरे स्कंदिलाचार्य का समय वि ३५७ से ३७० तक का है । ये विद्याघर शाखा तथा पादलिप्तसूरि की परम्परा में थे । इन स्कंदिलाचार्य को ही वृद्धवादी के गुरु मान लिया जाय तो और तो सब व्यवस्था ठीक हो जाती है पर हमारी पट्टा वलियों, चरित्रों, प्रबन्धों तथा खासकर वृद्धवादी के जीवन पर जिसको कि विक्रम के समकालीन होना लिखा है- कुछ आघात पहुँचता है । साथ ही परम्परा से चले आया उल्लेख में
“पंचसय वरिसंसि सिद्धसेणो दिवायरो जाओ"
अर्थात् - वीर नि० सं० पांचसौ में सिद्धसेन दिवाकर हुए- अवश्य विचारणीय बन जाता है ।
इन सबका समाधान तब ही हो सकता है जब कि हम राजा विक्रम के स्थान दूसरे विक्रम की चौथी शताब्दी में होना मान लें तदनुसार गुप्तवंशीय राजा चंद्रगुप्त बड़ा पराक्रमी राजा हुआ और उसको विक्रम की उपाधि भी प्राप्त थी अतः इस समय में ( चंद्रगुप्त विक्रम के वक्त में ) सिद्धसेन दिवाकर को समझ लिया जाय तो उक्त विरोध का प्रतिकार सुगमतया हो सकता है ।
सम्वत्सर प्रवर्तक राजा विक्रम के लिए देखा जाय तो - इतिहासकारों का मत है कि उस समय न कोई विक्रम नाम का राजा ही हुआ और न विक्रम ने संवत ही चलाया। इसका विशद उल्लेख हमने इसी पृष्ठ ४६७ में किया है ।
प्रन्थ
आचायों का समय निर्णय ]
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