Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० [सं० ४८० - ५२० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
मशहूर थे भगवान् पार्श्वनाथ और आपकी सन्तान परम्परा के श्राचार्यों ने वहां पर अनेक वार पधार कर धर्म का प्रचार किया था। वहां से विहार करते हुए भगवान् पार्श्वनाथ के कल्याणक भूमि की स्पर्शना करते हुए करू- पंचाल और कुनाल प्रदेश में पधारे वहां पहले से ही उपकेश गच्छ के बहुत से मुनि गण विहार करते थे आपश्री ने उनके धर्म प्रचार पर खूब प्रसन्नता प्रगट की और कई असें तक वहां विहार कर जैन धर्म को खूब बढ़ाया वहां पर आप श्री ने कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाई कई जैनों को जैन बनाये और कई महानुभावों को दीक्षा भी दी। बाद वहां से आप ने सिन्ध भूमि की स्पर्शना की तो सिन्ध की जनता के हर्ष एवं आनन्द का पार नहीं रहा उस समय सिन्ध में उपकेश वंशियों की घनी बस्ती थी बहुत से साधु साध्वियां विहार कर उपकेश रूपी बगीचे को धर्मोपदेश रूपी जल का सींचन भी करते थे सूरिजी के पधारने से सर्वत्र श्रानन्द का समुद्र ही उमड़ उठा था जहां जहां आपके कुंकुम मय चरण होते थे वहां वहां दर्शनार्थियों का खूब जमघट लग जाता था सब लोग यही चाहते थे एवं प्रार्थना करते थे कि गुरुदेव पहले हमारे नगर को पावन बनावें इत्यादि । सूरिजी ने सिन्धधरा में कई अर्से तक भ्रमण कर कई मन्दिरों की प्रतिष्टाए करवाई, कई भावकों को दीक्षा दी कई मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर उनका उद्धार करते हुए जैनों की संख्या में खूब गहरी वृद्धि की । वहाँ से आचार्य देव कच्छ भूमि की ओर पधारे वहां भी श्रापश्री के आज्ञावर्ती बहुत से मुनि विहार कर रहे थे प्रायः वहाँ की जनता उपकेशगच्छोपासक ही थी क्योंकि इन प्रान्तों में जैनधर्म के बीज उपगच्छाचार्यो ने ही बोया था इतना ही क्यों पर उपकेशगच्छाचार्य एवं मुनियों ने इन प्रान्तों में वार बार विहार कर धर्मोपदेशरूपी जल से सिंचन कर खूब हराभरा गुलचमन बना दिया कि जैनधर्म रूपी वगीचा सदैव फलाफूला रहता था आचार्यश्री ने अपनी सुधा वारि से वहाँ की जनता को खूब जागृत कर दी थी। कई अर्से तक आपने कच्छ भूमि में विहार कर के जनता पर खूब उपकार किया बाद वहाँ से आपके चरण कमल सौराष्ट्र भूमि में हुए सर्वत्र उपदेश करते हुए आपने तीर्थाधिराज श्री शत्रु जय तीर्थ के दर्शन एवं यात्रा कर खूब लाभ कमाया । कहने की श्रावश्यकता नहीं है कि उन परमोपकारी पूज्य आचार्य देव का जैन समाज पर कहाँ तक उपकार हुआ है कि जिसको न तो हम जिह्वा द्वारा वर्णन कर सकते हैं और न इस छोहे की तुच्छ लेखनी से लिख भी सकते हैं अर्थात् आपका उपकार अकथनीय हैं ।
श्राचार्य देवगुप्तसूर के शासन के समय जैन श्रमणों में एकादशांग के अलावा पूर्वी का भी ज्ञान विद्यमान था । स्वयं आचार्य देवगुप्तसूरि सार्थ दो पूर्व के पाठी एवं मर्मज्ञ थे अतः आपकी सेवा में स्वगच्छ एवं परगच्छ के अनेक ज्ञानपीपासु ज्ञानाध्ययन करने के लिये आया करते थे उनमें आर्य देव वाचक भी पक थे आपकी विनय शीलता और प्रज्ञा से सूरिजी सदैव प्रसन्न रहते थे । सूरिजी की इच्छा थी कि मैं मेरा सब ज्ञान आर्य देववाचक को दे जाऊं पर कुदरत इससे सहमत नहीं पर प्रतिकूल ही थी जब आर्य देववाचक डेढ पूर्व सार्थ पढ़ चुके तो उनको थकावट आगई । प्रमाद ने घेर लिया उन्होंने श्राचार्य श्री से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! अब शेष ज्ञान कितना रहा है । इस पर सूरिजी ने कहा कि वाचकजी आप पढ़ते रहें क्योंकि इस ज्ञान के लिये एक आप ही पात्र हैं इत्यादि पर वाचकजी अपने धैर्य को काबू में रख नहीं सके जिसका श्राचार्यश्री को बड़ा ही दुःख हुआ कि परम्परा से आया दृष्टिवाद एवं चतुर्दश पूर्व का ज्ञान
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आचार्य देववाचक को दो पूर्व का ज्ञान ]
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