Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६२० - ६५८
चले आये धर्म का त्याग कैसे किया जाय इससे मेरी मान प्रतिष्ठा का भी भंग होता है ? फिर भी मैं म कल्याण तो करना चाहता हूँ ?
सूरिजी -- सेठजी ! मुझे यह उम्मेद नहीं है कि आप जैसे विचरज्ञ पुरुष केवल मान प्रतिष्ठा एवं वंश परम्परा की दाक्षिण्यता से अपना हित करने को तैयार है जैसे शास्त्रों में लोहा बनिया का उदाहरण लाया है वह भी सुन ' लीजिये - एक नगर से कई व्यापारियों ने किराणे के गाडे भर कर व्यापारार्थ अन्य दिसावर के लिये प्रस्थान किया वे सब चलते जा रहे थे कि रास्ते में बढ़िया लोहे की खानें श्रई तो सब व्यापारियों ने लाभ जान कर किराणा वहां डाल दिया और लोहे से गाडे भर लिये फिर आंगे चाँदी की खाने आई तो एक बनिये के अलावा सब ने लोहा डाल कर चांदी लेली । जिस एक बनिये ने लोहा नहीं डाळा उसको सबने कहा भाई लोहा कम मूल्य वाला है अतः इसको यहां डाल कर बहुमूल्य चांदी ले ले | हम सबने ली है तू हमारे साथ आया है अतः तेरे हित के लिये ही हम कहते हैं लोहाबनिया ने जवाब दिया कि मैं आपके जैसा अस्थिर भाव वाला नहीं कि बार बार बदलता रहूँ। मैंने तो जो लिया वह ले लिया खैर आगे चलने पर सुवर्ण की खाने आई तो सबने चांदी डाल कर सुवर्ण ले लिया । लोहा बनिये को और भी समझाया गया पर वह तो था वंश परम्परा वादी उसने एक की भी नहीं सुनी फिर आगे चलने पर हीरेपन्ने की ख. ने देखी तो सब गाडे वालों ने सोने को डाल कर हीरे पन्ने भर लिये! और लोहा बनिया को बहुत समझाया कि अभी तक तो कुछ नहीं बिगड़ा है अब भी आप इस तुच्छ लोहे को डाल दो और इन हीरे पन्ने को लेलो कि अपन सव एक से होजाय वरना तुमको बहुत पश्चाताप करना पड़ेगा । पर लोहा बनिया ने एक की भी नहीं सुनी और जिस लोहा को पहले प्रहन किया उसको ही पकड़ रखा खैर सब व्यापारी चल कर अपने बास स्थान पर आये सबने रत्न बेच कर अच्छे मकान और सब सामग्री खरीद कर देवताओं के सदृश आनन्द से सुख भोगने लगे तत्र लोहाबनिया उसी हालत में रहा कि जैसी पहिले थी ब दूसरे व्यापारियों के वे अलौकिक सुख देख कर पश्चाताप करने लगा और अपनी की हुई शुरु से भूल पर रोने लगा पर अब क्या हो सकता ? सेठजी कभी आपको भी लोहा बनिया की भाँति पश्चाप न करना पड़े ?
सेठ सालग तो सूरिजी के पहिले ही व्याख्यान मैं समझ गया था पर सूरिजी के उपदेश एवं उदाहरण ने तो इतना प्रभाव डाला कि वह जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार हो गया और कहा पूष्य गुरुदेव ! मैं मेरे सब कुटुम्ब वाले को लेकर कल व्याख्यान में आकर आम पब्लिक में जैन धर्म स्वीकार करूँगा कि मेरे कुटुम्ब में दो मत न हो सके ? सूरिजी ने कहा " जहा सुखम् "
सेठजी अपने मकान पर आये और रात्रि के समय अपने सव कुटुम्ब वालों को एकत्रित किया और उनको यह समझाया कि मनुष्यभव और ऋद्धि तो अनेक बार मिली और मिलेगी ही पर धर्म की आराधना बिना जीव का कल्याण नहीं होता है अतः मैंने धर्म का अच्छी तरह से निर्णय कर के जैनधर्म को पसंद किया है और कल सुबह जैन धर्म स्वीकार करने का अतः आप लोगों का क्या बिचार है ? इस पर बहुत लोगों ने तो सेठजी का लोग परम्परा धर्म को कैसे छोड़ा जाय भी कहा पर सेठजी ने हेतु युक्ति से उनको समझा बुझा कर अपने सहमत कर लिया और सुबह होते ही बड़े ही समारोह से सकुटुम्ब सेठजी चल कर आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित हो गये ३घर नगर
भी निश्चय कर लिया है अनुकरण किया पर कई
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[ सेठ सालग के जैनधर्म स्वीकार का निर्णय
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