Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ९२०-६५८
में करीब डेढ़ लक्ष यात्री, एकबीस हस्ती, तीन राजा, और चार हजार साधु-साध्वियें थीं शाह पुनड़ ने इस संघ के निमित्त एक करोड़ द्रव्य व्यय कर जैनधर्म की उन्नति के साथ आत्म कल्याण किया संघ सानंद यात्रा कर वापिस लौट आया और आचार्य देवगुप्तसूरि ने श्री सम्मेतशिखर की यात्रा कर अपने मुनियों के साथ पूर्व बंगाल कलिंग में कई अर्से तक बिहार किया जिससे जैनधर्म का प्रचार हुआ और कई बौद्धों को जैनधर्म की दीक्षा भी दी।
मुनि शेखरप्रभ ने सूरिजी की सेवा में रहकर वर्तमान साहित्य का गहरा अध्ययन कर लिया इतना ही क्यों पर आप सर्वगुण सम्पन्न हो गये यही कारण है कि आचार्य देवगुप्तसूरि भू भ्रमण करते हुए मथुरा में पधारे और वहां देवी सच्चायिका की सम्मति से एवं वहां के श्रीसंघ के प्रति अाग्रह से मुनि शेखरप्रभ को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया ।
__ श्राचार्य सिद्धसूरि एक महान् प्रतिभाशाली श्राचार्य हुए आपके शासन समय में जैनधर्म अच्छी उन्नति पर था जैनों की संख्या भी करोड़ों की थी विशेषता यह थी कि आपके आज्ञावर्ती हजारों साधुसाध्वियें अनेक प्राम्तो में बिहार कर धर्म-प्रचार बढ़ा रहे थे ऐसा प्रान्त शायद ही बचा हो कि जहाँ जैन साधु साध्वियों का विहार न होता हो । दूसरा उस समय के आचार्यों एवं साधुओं में गच्छभेद मतभेद क्रियाभेद भी नहीं था और किसी का लक्ष भेदभाव की ओर भी नहीं था वे आपस में मिल-मुल कर धर्म प्रचार को बढ़ा रहे थे वादियों को परास्त करने में वे सबके सब एक ही थे यही कारण है कि ऐसी बिकट परिस्थिति में भी जैनधर्म जीवित रहकर गर्जना कर रहा था उस समय उपकेशगच्छाचायों का विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था मरुधर लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पंजाब शूरसेन पंचाल मत्स्य बुलंदखण्ड श्रावंती और मेदपाट तक उपकेशगच्छीय साधुओं का विहार होता था कभी-कभी महाराष्ट्र तिलंग बिदर्भ श्रीर पूर्व तक भी उपके शगच्छा. चार्य विहार किया करते थे तब वीर सन्तानियों का विहार श्रावंती सौराष्ट्र मेदपाट मरुधर वगैरह प्रदेशों में होता था और कोरंटगच्छाचार्यों का विहार आबू के आस-पास का प्रदेश और कभी कभी मथुरा तक भी होता था बहुत बार इन साधुओं की आपस में भेंट होती और परस्पर शामिल भी रहते थे परन्तु जनता यह नहीं जान पाती कि ये पृथक २ समुदाय के साधु हैं कारण उनके बारह ही संभोग शामिल थे विनय भक्ति का व्यवहार तो इतना उत्तम था कि पृथक पृथक् प्राचार्यों के शिष्य होने पर भी वे एक गुरु के शिष्य ही दीख पड़ते थे ठीक है जिस गच्छ समुदाय व्यक्ति के उदय के दिन प्राते हैं तब ऐसा ही सम्प ऐक्यता रहती है ।
प्राचार्य सिद्धसूरिजी महाराज धर्मप्रचार करते हुए एक समय चन्द्रावती की और पधार रहे थे यह संवाद वहां के श्रीसंघ को मिला तो उनके उत्साह का पार नहीं रहा अतः उन्होंने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़े ही समारोह से महोत्सव किया सूरिजी ने मन्दिरों के दर्शन कर सारगर्भित देशनादी जिसका जनता पर काफी प्रभाव हुआ इस प्रकार सूरिजी का व्याव्यान हमेशा होता था चन्द्रावती नगरी में एक सालग नामका अपार सम्पति का मालिक व्यापारी सेठ रहता था वह था वैदिकधर्मानुयायी । उसको ऐसी शिक्षा मिलती थी कि जैन धर्म नास्तिक धर्म है वैदिकधर्म की जड़ उखाड़ने में कट्टर है अतः जैनों की संगत करना भी नरक का मेहमान बनना है इत्यादि सेठ सालग भद्रिक था उन उपदेशकों की भ्रान्ति में आकर वह जैनों से बहुत नफरत करता था। जब सिद्धसूरि नगरी में पधारे और उनकी प्रशंसा सर्वत्र फैल गईथी तब कइ जैन व्यापारियों ने सेठ सालग को कहा कि एक दिन चलकर व्याख्यान तो सुनो ? अतः उनकी लिहाज से सेठ सालग व्याख्यान में आया
[ मथुरा में मुनिशेखर को सरिपद
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