Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८२४-८४०
मेरा काम निकल गया अब इस थेली की जरूरत नहीं है अतः आप अपनी थेली ले जाइये । पात्ता के निस्पृही शब्द सुन देवी बहुत खुश हुई और कहा कि पात्ता तेरे पास थेली रहगी तो इसका दुरुपयोग नहीं पर सद्उपयोग ही होगा। देवों की दी हुई प्रासादी वापिस नहीं ली जाति है इस थेली को तु खुशी से रख । इत्यादि देवी की अत्याग्रह से पाता ने थली रखली पर उस थेली को अपने काम में नहीं ली । पाता ने पुनः व्यापार करना शुरु किया थोड़े ही समय में पात्ता ने बहुत द्रव्य पैदा कर लिया और मोरात वगैरह के व्यापार में धन बढ़ते क्या देर लगती है चाहिये मनुष्य के पुन्य खजाना में। पात्ता पहिले की तरह पुनः कोटी धीश बनगया कहा है कि समय चला जाता है पर बात रह जाति है शाह पात्ता की धवल कीर्ति अमर होगई जो आकाश में चन्द्र सूर्य रहगा वहां तक पाता की यशः पताका विश्व में फहराती रहगी किसी कवि ने ठीक कहा है कि " माता जिणे तो ऐसा जीण, के दाता के शूर, नहीं तो रही जे बांझड़ी मती गमाजे नूर।"
धर्म प्राण लब्ध प्रतिष्टित पूज्याचार्य श्री रत्नप्रभसूरि अपने शिष्यमण्डल के साथ विहार करते हुए करणावती नगरी की ओर पधार रहे थे यह शुभ समाचार करणावती के श्रीसंघ को मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा। जनता आपके पुनीत दर्शनों की कई अौ से अभिलाषा कर रही थी श्रीसंघ ने बड़ा ही अालीसान महोत्सव कर सूरिजी को नगर प्रवेश कराया सूरिजी ने थोड़ी पर सार गर्भित देशना दी जिसमें त्रिलोक्य पूजनीय तीर्थङ्कर भगवान् दीक्षा के पूर्व दिया हुआ वर्षीदान का इस प्रकार वर्णन किया कि परिषदा पुन्यशाली पात्ता की ओर टीकटकी लगा कर देखने लगी। किसी एक व्यक्ति से रहा नहीं गया उसने कहा पूज्यवर ! तीर्थङ्कर भगवान तो एक अलौकिक पुरुष होते है उनकी माता विश्व भर में ऐसे एक पुत्र रत्न को ही जन्म देती हैं उनकी बराबरी तो कोई देव देवेन्द्र भी नहीं कर सकते है पर इस कलिकाल में हमारे नगरी का भूषण शाहपात्ता अद्वितीय दानेश्वरी है इसने भयंकर दुकाल में करोड़ों रुपये नहीं पर अपनी ओरतों का जेवर तक अपने देशवासी भाइयों के प्राण रक्षणार्थ वोच्छावर कर दिये ? इत्यादि सूरिजी ने भी नौ प्रकार का पुन्य वतला कर शाह पात्ता के उद्धारता क खूब ही प्रशंसा की बाद में सभा विसर्जन हुई।
प्राचार्य श्री का व्याख्यान प्रति दिन होता था आप जिस समय वैराग्य की धून में संसार की असारता का वर्णन करते थे तब जनता की यही भावना हो जाति थी कि इस घोर दुःखमय संसार को तिलांजली देकर सूरिजी के चरणों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण किया जाय तो अच्छा है। एक समय सूरिजी ने चक्रवर्ति की ऋद्धि का वर्णन करते हुए फरमाया कि महानुभावों ! मनुष्यों के अन्दर सब से बढ़िया ऋद्धि चक्रवर्ति की होती है जिनके चौदह रत्न और नवनिधान तथा इनके अधिष्टायिक पचवीस सहस्त्र देवता हाजरी में रहते हैं उन चौदह रत्नों में सात रत्न पांचेन्द्रिय है जैसे ----
१. सेनापति-चक्रवर्ति की दिग्विजय में सैना का संचालन करता है । २. गाथापति- खान पान वगैरह तमाम आवश्यक पदार्थ की व्यवस्था करता है । ३. वढ़ाई रत्न-जहां जरूरत हुई वहां मकान वगैरह की व्यवस्था करे । ४. पुरोहित -तुष्टि पुष्टि वगैरह शान्ति कार्य का करने वाला।
५. गजरत्न-युद्ध एवं संग्राम में विजय प्राप्त कराने वाला पाटवी हस्ति । आचार्य रत्नप्रभसरि करणावती में ]
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