Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ४२४-४४० वर्ष]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
धर्मान्ध लोग धनमाल के साथ पवित्र मन्दिर मूर्ति पर भी दुष्ट परिणामों से हमले किया करते थे परन्तु वे धर्मप्राण आचार्य मन्दिरों के लिये अपने प्राणों की वोच्छावर करते देर नहीं करते थे कही उपदेश से कही विद्या बल से कही यंत्रादि से और कभी कभी अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हो जाते थे इससे पाठक समझ सकते है कि उस समय श्रीसंघ की मन्दिर मूत्तियों पर कैसी दृढ़ श्रद्दा और हृदय में कैसी भक्ति थी यदि यह कह दिया जाय की इन मन्दिर मूर्तियों के जरिये ही जैन धर्म जीवित रह सका है तो भी कुच्छ अतिशय युक्ति नहीं है । इतना ही क्यों पर आज हम देखते है कि जैन धर्म की प्राचीनता के लिये सब से श्रेष्ट साधन है तो एक प्राचीन मन्दिर मूत्तियों ही है पाश्चत्य प्रदेशों में एक समय जैन धर्म का काफी प्रचार था इसकी साबुति के लिये भी आज वहाँ के भूगर्भ से मिली हुई मूर्ति के अलावा और क्या साधन है । इत्यादि मन्दिर मूर्तियों धर्म का एक खास अंग ही समझा जाता था।
__ जिस समय सूरिजी महाराज मरूधर भूमि में विहार कर जैन धर्म का प्रचार बढ़ा रहे थे उस समय मेदपाट में कुच्छ बोद्धों के साधु आये और अपने धर्म का प्रचार बढ़ाने लगे क्रमशः वे आघाट नगर में पहुंचे और अपने धर्म की महिमा के साथ जैन धर्म की निन्दा भी कर रहे थे कारण आघाट नगर में प्रायः राजा प्रजा सब जैनधर्मोपासक ही थे । इस हालत में संघ अग्रेसरों ने मरुधर में आकर आचार्ययक्ष देवसूरि से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! श्राप शीघ्र ही मेदपाट में पधारें जिसका कारण भी बतला दिया सूरिजी ने बिना बिलम्ब मेदपाट की ओर विहार कर दिया और क्रमशः आघाट नगर के नजदीक पधारगये जिसको सुनकर बोद्ध भिक्षु पलायन करगये कारण पहिले कई वार सूरिजी के हाथों से वे परास्त हो चूके थे | श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक मृरिजी आघाटनगर में पधारे और अपने पास के बहुत साधुओं को मेदपाट में विहार करने की आज्ञा देदी। धर्म का प्रचार एवं रक्षण केवल वाते करने से ही नहीं होता है पर परिश्रम एवं पुरुषार्थ करने से होता है हम उपकेशगच्छचार्यो के विहार को देखते है तो ऐसा एक भी आचार्य नहीं था कि किसी एकादी प्रान्त में ही अपनी जीवन यात्रा समाप्त करदी हो। इसका एक कारण तो यह था कि उपकेशवंश प्राग्वटवंश और श्रीमालबंश आपके पूर्वजों के स्थापित किया हुआ था और इन वंशों की वृद्धि भी प्रायः उपकेशगच्छ के आचार्यों ने ही की थी उनका रक्षण पोषण और वृद्धि करना उनके नसों में ठूस ठूस कर भरा था दूसरे उपकेशवंशादि महाजन संघ भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में फैला हुआ था । क्योंकि इन वंशों में अधिकतर लोग व्यापारी थे और वे अपनी व्यापा' सुविधा के कारण हरेक प्रान्त में जाकर बस जाते थे अतः उनको धर्मोपदेश देने के लिये मुनियों को एवं आचार्यों को भी उन प्रान्तों में विहार करना ही पड़ता था
श्राचार्य यक्षदेवसूरि ने श्राघाट नगर में चतुर्मास करदिया और आस पास के क्षेत्रों में अपने साधुओं को भी चतुर्मास करवा दिया कि मेदपाट प्रान्त भर में जैन धर्म की अच्छी जागृति एवं उन्नति हुई कई मन्दिरों की प्रतिष्टा करवाई कई भावुकों को भवतारणी दीक्षा दी बाद चतुर्मास के मेदपाट आवंति और बुन्देलखण्ड में विहार करते हुए। आप मथुरानगरी में पधारे। वहां पर भी बोद्धों का खासा जोर जमा हुआ था और जैनों की भी अच्छी आबादी थी आचार्य यक्षदेवसूरि के पधारने से वहां के श्रीसंघ में धर्म की खूब जागृति हुई सूरिजी का व्याख्यान हमेशा तात्विक दार्शनिक एवं त्याग वैराग्य पर इस प्रकार होता था कि जैन जैनेत्तर जनता सुनकर बोधको प्राप्त होती थी८३८
[ मेदपाट में सरिजी का पधारना और वौद्ध
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