Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि०सं० ४८०-५२० वर्षे
[ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३४-प्राचार्य भी देवगुप्तसूरि (पष्टस)
आचार्यस्तु स देवगुप्त पदयुग् वीरो विशिष्टो गुणैः । गौत्रे स्वे करणाटनामकयुते ज्ञानप्रदानेन यः॥ देवर्द्धिं च मुनि कामाश्रमण नाम्ना भूषया मास च । संख्यातीत मुनीन् विधाय कुशलान् जातो यशस्वी स्वतः ॥
httpse.
da batatase 2
चार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वर-परम वैरागी, महान् विद्वान, उत्कृष्ट तपस्वी, अतिशय. प्रभावशाली उपबिहारी धर्मप्रचारी सुविहितशिरीमणि मिथ्यात्वरूपी अन्धकार कों नाश करने में सूर्य की भांति प्रकाश करने वाले देवताओं से परिपूजित पूर्वधर एक युगप्रवृतक महान् आचार्य हुए है आपश्री जैसे साहित्य समुद्र के पारगामी थे वैसे ही
ज्ञानदान देने में कुवेर की भांति उदार भी थे आपके पुनीत जीवन के श्रवण मात्र से पापियों के पाप क्षय हो जाते है । यों तो आपका जीवन महान् एवं अलौकिक है जिसका सम्पूर्ण वर्णन तो वृहस्तपति भी करने में असमर्थ है तथापि भव्य जीवों के कल्याणार्थ पट्टारल्यादि ग्रन्थों के आधार पर संक्षिप्त से यहां पर लिख दिया जाता हैं।
मरूधरदेश में खटकुप नाम का प्रसिद्ध नगर था वह नगर ऊँचे २ शिखर और सुवर्णमय दंडकलस वाले मन्दिरों से अच्छा शोभायमान था वहाँ पर महाजन संघ एवं उपकेशवंश के बहुत से धनवान एवं व्यापारी साहुकारों की घनी वसति थी जहां व्यापार की बहुलता होती है वहां सब लोग सुखी रहते है कारण मनुष्यों की उन्नति मापार पर ही निर्भर है खट्कुट नगर के व्यापार सम्बन्ध भारत और भारत के बाहर पाश्चात्य प्रदेशों के साथ भी था जिसमें वे पुष्कलद्रव्य पैदा करते थे जैसे वे द्रव्योंपार्जन करने में कुशल थे वैसे ही उस न्ययोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करने में भी दक्ष थे और उन पुन्य कार्यों से पसंद होकर लक्ष्मीदेवी भी उनके घरो में स्थिर वास कर रहती थी। प्राचार्यरत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के अष्टा. दश गोत्रों में करणाट नाम का उन्नत गोत्र था उस में राजसी नाम का एक सेठ था आपके गृहदेवी का नाम रूकमणी था शाह राजसी के तेरहपुत्र और चार पुत्रियां थी जिसमें एक धवल नामका पुत्र अच्छा होनहार उदार एवं तेजस्वी, था वच्चपन से ही उसकी धवल कीर्ति चारो ओर पसरी हुई थी शाह राजसी के यों तों बहत व्यापार था परन्तु देश में आप के घृत और तेल का पुष्कल व्यापार था राजसी के एक हजार गायों ॐसे वगैरह तो हमेशा रहती थी और उसके वहां खेती भी खूब गेहरे प्रमाण में होती थी । उस जमाने में जितना महत्व व्यापार का था उतना ही खेती का भी था और गौ धन पालन करने का महत्व भी व्यापार से कम नहीं था इतना ही क्यों पर शास्त्रकारों ने तो व्यापार खेती और गौधनका पालन करना खास वैश्य का कर्तव्य ही बतलाया हैं क्योंकि खेती वैश्यवर्ण की उन्नति का मुख्य कारण है जबसे वैश्यवर्ण का खेती की और दुर्लक्ष हुआ तव से ही वैश्यवणे का पतन होने लगा था खेती करने वाला हजारों गायों का सुख पर्वक निर्वाह कर सकता है और गायों को पालन करने से दूध दही घृत छास वगैरह प्रचूरना से मिलती है
-auwomanramm-...
८७८
[खटकूम्प नगर का शाह राजसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org