Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तमरि का जोवन }
[ ओसवाल संवत् ८८०-१२०
श्री ने फरमाया राजसी ! इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा वगैरह का कार्य तो हमारे गच्छ नायक आचार्य कक्कसूरिजी महाराज के कर कमलों से करवाना अच्छा है। राजसी ने कहा प्रभो! पूज्याचार्य इस समय न जाने कहाँ पर बिराजते होंगे हमारे लिये तो आप ही ककसूरिजी है कृपाकर आप ही प्रतिष्ठा करवा दिरावे ? सूजिी ने कहा राजभी यह वृहद कार्य तो वृद्ध पुरुषों के बृहद् हाथों से ही होना विशेष शोभा देगा दूसरे नूतन मूर्तियों की जनशिलाका करवाना कोई साधारण काम नहीं है । आचार्यश्री जी दक्षिण की अर पधारे थे जिन्हों को तीन वर्ष हो गया अब वे इधर पधारने वाले हैं यदि आप कोशिश करेंगे तो और भी जल्दी पधार जावेंगे और अभी तुम्हारे मन्दिर में काम भी बहुत शेष रहा है। इतनी जल्दी क्यों करते हो और हमारे गच्छ की मर्यादा भी है कि अञ्जनशिलाकादि कार्य गच्छ नायक ही करवा सकते हैं उस मर्यादा का मुझे
और तुझे पालन करना ही चाहिये कारण तूं भी गच्छ में अग्रसर एवं श्रद्धा सम्पन्न श्रावक है । सूरिजी का कहना राजसी के समझ में आ गया और उसके दिल में यह बात लग गई कि आचार्य कक्कसूरिजी की खबर मंगानी चाहिये कि आप कहाँ पर विराजते हैं राजसी ने अपने आदमियों को इधर-उधर भेज दिये उनमें से कई आवंती प्रदेश की ओर गये थे उन्होंने सुना कि सूरीश्वरजी महाराज इस समय उज्जैन में विराजते हैं बस फिर तो क्या देरी थी शाह राजसी एवं धवल चल कर उज्जैन गया और वहाँ सूरिजी का दर्शन एवं वंदन किया और खटकुप नगर के सब हाल कह कर उधर पधारने की प्रार्थना को। जिसको सुनकर सूरिजी महाराज को बड़ा ही हर्ष हुआ विशेष कुकुंदाचार्य की गच्छ मर्यादा को पालन और विनपमय प्रबृति पर प्रसन्नता हुई । सूरिजी ने कहा राजसी तूं बड़ा ही भाशाली है इस प्रकार शासन की प्रभावना करने से तेरी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। राजसी ने कहा पूज्यवर ! मैंने मेरे कर्तव्य के अरावा कुछ भी नहीं किया है जो किया है वह भी आप जैसे गुरुदेव की कृपा का ही कारण है भाप साहिबजी मेहरबानी कर खटकुपज पधारे और यह सब धर्म कार्य करवा र मुझे कृतार्थ करें कारण आयुष्य का क्षणभर भी विश्वास नहीं है ? सूरिजी ने कहा राजस ! हमारे साधु बहुत बिहार कर आये हैं और खटकुप नगर यहाँ से नजदीक भी नहीं है यह चतुर्मास तो हमारा इधर ही होगा चतुर्मासके बाद हम अवश्य अवसर देखेंगे ऐसी हमारी वर्तमान भावना है। राजसीने चार दिन सूरिजी काव्याख्यान सुना धवल पर सूरिजी का खूब ही प्रभाव पड़ा इतना हो क्यों पर वह संसार से विरक्त भी हो या खैर. बाप बेटा सूरिजी को बन्दन कर वापिस लौट आये और सूरिजी ने यह चतुर्मास उज्जैन में कर दिया जिससे जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई बाद चतुर्मास के वहाँ से विहार कर छोटे-बड़े ग्राम नगरों में धर्मउपदेश करते हुए भाचार्य श्री मेदपाट एवं चित्रकोट नगर के नजदीक पधार रहे थे वहां के श्री संघ को मालूम पड़ो तो हर्ष का पार नहीं रहा । सूरिजी महाराज बड़े ही अतिशयधारी थे जहां आप पधारते वहाँ बड़ा ही स्वागत होता ओर दर्शनार्थियों के रिये तो एक तीर्थ धाम ही बन जाता था चित्रकोट में कुछ दिन स्थिरता कर वहाँ से बिहार कर मरुधर की भोर पधार रहे थे शाह राजसी ने मनुष्यों की डाक ही बैठा दी कि एक एक बिहार को खबर आपके पास पहुँच जाती थी जैसे राजा कोणिक भगव न महावीर के विहार की खबर मंगवा कर ही अन्न-जल लेता था कलिकालमें राजसीने भो उसका एक अंशतो बतला ही दिया । क्रमशः सूपिजी महाराज खटकुप नगर के नजदीक पधारे तो शाइ राजसी ने सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव इस प्रकार किया कि राजा दर्शन भद्र के स्वागत को जनता याद करने लगी । श्रीमान् पूज्यवर सूरिजी महारान मन्दिर जी के दर्शन करके धर्मशाला में पधारे और मंगलाचरण के पश्च त् थोड़ी पर सार गर्मित एवं प्रभावसाला देशना दी जिसका प्रभाव जनता पर बहुत ही अच्छा पड़ा। इधर कुंकु दाचार्य जिसका चतुमोस भिन्न्माल में था बिहार करते हुए सुना कि आचार्य कक्कसूरि खटकुप नगर में पधार गये हैं वे भी चलकर खटकुंप नगर पधार गये श्री संघ ने अच्छा स्वागत किया आचार्य कक्कसूरि ने कुकुंदाचार्य का यथायोग सत्कार किया क्योंकि कमाऊ पुत्र किसको प्यारा नहीं लगता है दोनों आचार्य आपस में मिले आचार्य ककसरि ने कुकुदागर्व को खूब ही प्रशंसा की और कहा कि आपने जैमधर्म की अच्छी उन्नति को है लो अब राजसी के काम को संभालो । कुकुंदाचार्य ने कहा पूज्यवर । मैं तो आपका अनुचर हूँ यह कार्य तो आप जैसे पूज्य पुरुषों का है । और जो मेरे योग्य कार्य हो आज्ञा दिरावें मैं करने को तैयार हूँ अर्थात् दोनों ओर से विनय भक्ति इस प्रकार से हुई कि जिससे जैनधर्म की शोभा, संघ में शान्ति, श्रमण संघ में प्रेम की वृद्धि आदि हुई। आचार्य ककसरि और कुकुंदाचार्य का मिलाप ]
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