Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ४८०-५२० वर्ष ।
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
एक समय सूरिजी ने तंथों की यात्राका वर्णन इस प्रकार किया कि शाहरा नसी की भावना श्रीशत्रुजय तीर्थ का संघ निकालकर यात्रा करने की हुई अतः उसने सूरिजी की सम्मति ली तो सूरिजी ने फरमाया राजसी तेरे केवल शत्रुजय का संघ निकालने का काम ही शेष रहा है कारण गृहस्थ के करने योग्य कार्य मन्दिर बनाना सूत्र बांचना और संघ निकालना ये तीनों कार्य तो तुं करही लिया है विशेषता में तेरे पुत्र ने दीक्षा भी ली है अतः तु वड़ा ही भाग्यशाली है फिर वह एक संघ का कार्य शेष क्यों रखता है । राजसी ने निश्चयकर लिया और संघकी सब तैयारियां करनी प्रारम्भ करदी चतुर्मास समाप्त होते ही सब प्रान्तों में आमन्त्रण पत्रिका भेजवादी । साल भर में एक दो संघ तो निकल ही जाता था तब भी धर्मज्ञ पुरुषों की तीर्थ यात्रा के लिये भावना कम नहीं पर बढ़ती ही जारही थी इस का कारण यह था कि उस समय गृहस्थों के बडा ही संतोष था समय बहुत मिलता था परिवार भी बहुत था और धर्म भावना भी विशेष थी। तीर्थ यात्रा के लिये बहुत से साधु साध्वियों और लाखों श्रावक श्रविकाएं खटकूपनगर को पावन बना रहे थे। आचार्य ककसूरि ने शाह राजसीको संघपति पद अर्पण कर दिया और मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा के शुभ मुहूर्तमें संघ ने प्रस्थान कर दिया रास्ते में भी बहुत से लोग मिलते गये और ग्राम नगरों के मन्दिरों के दर्शन करते हुए क्रमशः संघ तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय पहुँच गया दूर से तीर्थ का दर्शन करते ही मुक्ताफल से पूजन किया और युगादिदेवकी यात्रा कर पापोंका प्रक्षालन किया । अष्टान्हिक महोत्सव धज उच्छव पूजाप्रभावना स्वामिवात्सल्यादि शुभकार्यों में शाहराजसी ने पुष्कलद्रव्यव्यय किया वहाँ से संघ वापिस लोटने वाला था उस समय मुनि गजहंस ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर । मेरी इच्छा है कि इस तीर्थ भूमिपर शाहराजसी और उनकी पत्नि को श्राप उपदेश दिरावे कि उन्होंने प्रवृति कार्य तो सब कर लिया है अब निर्वृति कार्य कर अपने मनुष्य जन्म को विशेष सफल बनावे । सूरिजी ने कहा मुनि राजहंस --तुं सच्चा कृतज्ञ है कि अपने मातापिता का कल्याण चाहता हैं । सूरिजी ने संघपति राजसी और उपकी पनि को बुलाकर कहा कि संघपति तेरे पुत्र मुनि राजहंस की इच्छा है कि आप दोनों इस पुनीत तीर्थ पर दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करें । वास्तव में मुनि का कह । सत्य भी है जब गृहस्थों के करने योग्य सब कार्य तुमने कर लिया है तो अब निवृति यानि दीक्षा लेकर कल्याण करना जरूरी है इत्यादि साथमें मुनिराजहंसने भी जोर देकर कहाकि जिसने जन्म लिया है उसको, मरना तो निश्चय ही है तो फिर सुअवसर को क्यों जाना देते हैं मेरा अनुभव से तो दीक्षा पालन कर मरना अच्छा है इत्यादि राजसी ने अपनी पत्नि के सामने देखा इतने में पुन: मुनि राजहंस बोलाकि इसमें विचार करने की क्या बात है यह तो अपने ही कल्याण का काम है अनन्तकाल हो गया जीव संसार में परिभ्रमन कर रहा है किसी भव के पुन्य से यह अवसर मिला है इत्यादि । जिन जीवों के मोक्ष नजदीक हो उनको अधिक उपदेश की
आवश्यकता नहीं रहती है उस जगह बैठे ही दम्पति ने सूरिजी एवं अपने पुत्र के कहने को स्वीकार कर लिया और संघपति की माला अपने पुत्र खेतसी को पहना कर शाह राजसी और उसकी स्त्री ने सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा स्वीकार करली। अहाहा बेटा हो तो ऐसा ही होकि आपतो तरेही पर साथ में अपने मातापिता को भी तार देवे और मातापिता हो तो भी ऐसे हो कि पुत्र के थोड़े से कहने पर घर छोड़ दे राजसी ने घर और चित्रवल्ली जैसी अखूट लक्ष्मी कों बातही बात में त्याग कर दीक्षा ले ली-इस आश्चर्यः जनक घटना को देख संघर्मे का भावुकों की भावना संघपति का अनुकरण करने की होगई वहाँ आठ दिनों में २८ नरनारियोंने सूरिजी के हाथों से दीक्षा ग्रहण करली । ८८६
. [ श्री शत्रुजय पर शाह राजसी की दीक्ष
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