Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८२४-८४०
२-कुलवान्-पिता का पक्ष विशुद्ध होना चाहिये कारण मानपिता के वंश का असर उसकी सन्तान पर अवश्य पड़ता है । दूसरा जातीवान् कुलवान होगा तो अकार्य नहीं करेगा । अकृत्य करते हुए को अपनी जातिकुल का विचार रहेगा अतः सबसे पहिला जातिवान् कुलवान् हो उसको ही आचार्य बनावे
३- लज्जावान-लोकीक एवं लोकोतर लज्जावान हो लज्जावान् अनुचित कार्य नहीं करेगा ४ - बलवान्-शरीर आरोग्य-तथा उत्साह और साहसीकता हो। ५-रूपवान्-शरीर की आकृति शोभनीक एवं सर्वांगसुन्दराकारहो ६-ज्ञानवान्-वर्तमान साहित्य यानि स्व-परमत के शास्त्रों का ज्ञाता है उत्पतिकादि बुद्धि हो कि
पुच्छे हुए प्रश्नों के योग्य उत्तर शीघ्रता से दे सके। ७-दर्शनवान्-षट्रदर्शन के ज्ञाता और तत्वोंपर पूर्णश्रद्धा ८-चारित्रवान-निरतिचार यानि अखण्ड चारित्रकों पालन करे ९-तेजस्वी-अताप नामकर्म का उदय हो कि आप शान्त होने पर भी दूसरों पर प्रभाव पड़े १०-वचनस्वी-माधुर्यतादि वचन में रसहो जनता को प्रिय लगे वचन निः सफल न हो ११-ओजस्वी-क्रान्तिकारी स्पष्ट और प्रभावोत्पादक वचन हो। १२-यशस्वी-यशः नामकर्म का उदय हो कि प्रत्येककार्य में यशः मिले १३-अपतिबद्व-रागद्वेषवं पक्षपात रहित निस्पृही-ममत्व मुक्त हो १४- उदारवृति-ज्ञानदान करने में एवं साधु समुदाय कानिर्वाह करने में उदार हो १५-धैर्य हो गाभिर्य हो विचारज्ञतो दीर्घदर्शी हो सहनशीलताहो ।
इत्यादि गुण वाले को ही प्राचार्य पद दिया जा सकता है सामान साधु में उपरोक्त गुण हो या उनसे न्यून हो तब भी वे अपना कल्याण कर सकता है क्योंकि उसके लिये इतनी जुम्मावारी नहीं है कि जितनी श्राचार्य के लिये होती है । अब आचार्य की आठ सम्प्रदाय बतलाते हैं कि आचार्य के अवश्य होनी चाहिये
१-प्राचार सम्प्रदाय-जसके चार भेद हैं। १-पांच आचार "ज्ञानाचार दर्शनाचार चारित्राचार तपाचार और वीर्याचार" पांच महाव्रत, पांच समिति, तीनगुप्ति, सतरह प्रकार संयम, वारह प्रकार तप दश प्रकार यति धर्म, आदि श्रावार में दृढ़ प्रतिज्ञा वाला हो और धारणा सारणा वारणा चोयणा प्रतिचोयणा करके चतुर्विध संघ को अच्छे आचार में चलावे अर्थात आप अच्छा आचारी हो तब ही संघ को चला सके ।
२-अष्ट प्रकार का मद और तीन प्रकार का गर्व रहीत हो अर्थात् बहुत लोग मानने से अहंकार नहीं करे और न मानने से दीनता न लावे। यह भी आचार्य के खास आचार है।
३- अप्रतिवद्ध जैसे द्रव्य से वस्त्र पात्रादि उपकरण, क्षेत्र से ग्राम नगर देश और उपाश्रयादि मकान, काल से शीतोष्णादि और भाव से राग द्वेष इनका प्रतिबन्ध नहीं रखे । ४-चंचलता, चपलता, अधैर्यता न रखे पर स्थिर चित से इन्द्रियों का दमन एवं त्यागवृति रक्खे ।
२-सूत्र सम्प्रदाय-जिसके चार भेद १-बहुशास्त्रों के ज्ञाता-क्रमश-पढ़ा हो-गुरु गम्यता से पढ़ा हो । अपने शिष्यों को भी क्रमश सूत्र पढ़ावें ।
प्राचार्य पदकी योग्यता पर व्याख्यान ] Jain Education Internation१०६
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