Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ८४० - ४८० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
इस
हित चिन्तवन में ही व्यतीत किया । श्राखिर श्रापने सोचा कि "जंजं भगवया । दिठा तंतं पणमि संति" पर ही संतोष करना पड़ा दूसरा तो उपाय ही क्या था ?
जिस समय कुंकुदाचार्य हुआ था उस समय श्राचार्य कक्कसूरि की आज्ञा में पांच हजार मुनि और पैंतीस सौ के करीबन साध्वियाँ थीं और वे मुनि कई शाखाओं में विभक्त थे जैसे १ - सुन्दर २ प्रभ ३ कनक ४ मेरू ५ चन्द्र ६ मूर्ति ७ सागर ८ हंस ९ तिलक १० कलस ११ रत्न १२ समुद्र १३ कल्लोल १४ रंग १५ शेखर १६ विशाल १७ भूषण १८ विनय १९ राज २० कुँवार २१ आनन्द २२ रूची २३ कुम्भ २४ कीर्ति २५ कुशल २६ विजयादि । शाखा का मतलब यह है कि मुनियों के नाम के अन्त में यह विशेषण लगाया जाता है जैसे कि-
१ सोमसुन्दर
१२ सुमति प्रभ
३ राज कनक
४ ज्ञानभेरू
५ कुशल चन्द्र
६ तपोमूर्ति
७ दर्शन सागर
८ दीपहंस
९ सागर तिलक
१० कीर्तिकलस
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१५ शान्तिशेखर
१६ धर्मविशाल
१७ ज्ञान भूषण
११ शोभाग्यरत्न
१८ सुमतिविनय
१२ श्रार्य समुद्र
१३ चारित्र कल्लोल १४ विजय रंग
१९ सदाराज 70 सुमतिकुंवार २१ लोकानन्द
इत्यादि नाम के साथ विशेषण को शाखा कहते है इस प्रकार मुनियों की विशाल संख्या होने से ही से दूर दूर प्रान्त विहार कर जैन धर्म का प्रचार एवं जैन धर्मोपासको को धर्मोपदेश देकर धर्म बगीचा को हरावर एवं फला फूला रखते थे । जब से जैन श्रमणों का विहार क्षेत्र संकीर्ण हुआ तब से ही जैन संख्या घटने का श्रीगणेश होने लगा और उनका उग्ररूप आज हमारी दृष्टि के सामने विद्यमान हैं । श्राचार्य कसूरि के मुनियों का विहार पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक होता था इतना ही क्यों पर स्वयं आचार्य भी एक वार पृथ्वी प्रक्षिणा दिया ही करते थे इसका कारण उनके अंतरात्मा में जैन धर्म की लग्न थी । भरोंच में इस प्रकार की घटना घटने के बाद सूरिजी का विचार वहां से विहार करने का हुआ पर वहां का श्रीसंघ घर आई गंगा को कब जाने देने वाला था । उन्होंने चतुर्मास की विनति की पर सूरिजी का दिल वहां ठहरना नहीं चाहता था अतः वहां अन्य मुनियों को चतुर्मास का निर्णय कर आप विहार कर दिया और क्रमशः कांकरण प्रान्त में पधार कर सोपारपट्टन में आपने चतुर्मास किया आप के विराजने से वहां की जनता को बहुत लाभ हुआ पर आचार्य श्री के मनमंदिर में भविष्य के लिये कई प्रकार के विचार होरहा था । एक समय देवी सत्यका सूरिजी को वन्दन करने को आई परीक्ष पने रह कर वन्दन किया । सूरिजी धर्मलाभ देकर अपने दिल के विचार देवी को वहाँ इस पर देवी ने कहाँ प्रभो ! यह काल हुन्डासर्पिणी हैं इसमें कई बार उदय अस्त हुआ करेगा। फिर भी आप जैसे शासन के शुभचिंतक एवं शासन के स्तम्भ श्राचार्यों से शासन चलता ही रहेगा। अब श्रापका विहार दक्षिण एवं महाराष्ट्रीय की और हो तो विशेष लाभ का कारण होगा । इत्यादि वार्तालाप के अन्त देवी सूरिजी को वन्दन कर चली गई। सूरिजी ने सोचा कि ठीक है इधर तो बहुत मुनि वहार करते ही हैं कुंकुंदाचार्य भी इधर ही हैं बहुत अर्सा हुआ दक्षिण में अभी कोई श्राचार्य नहीं गये हैं वहां पर बहुत से साधु भी विहार करते हैं अतः देवी का कथानुसार मेरा विहार दक्षिण
२२ विनयरूची २३ मंगलकुम्भ २४ धनकीर्ति
२५ शान्तिकुशल
२६ कषायविजय
[ उपकेशगच्छ में २६ शाखाएं के सुनि
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