Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कमरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८४०-८८०
गया कहा है कि वीरों की सन्तान वीर ही हुआ करती है सिंह भले थोड़ी देर के लिये गुफा में बैठ जाय पर जब हाथ लपटक कर गर्जना करता है तब सबके दिल की बिजली जगृत हो जाती है सैना का संचालक वीर होता है वह केवल अपने वीर शब्दों से ही सैनिकों के हृदय में वीरता का संचार कर देता है आज हमारे सूरीश्वरजी ने भी उपस्थित श्रमण गण के हृदय में धर्म प्रचार की विजली भर दी है यही कारण है कि उन लोगों ने उसी सभा में खड़े होकर अर्ज की कि पूज्यवर । श्राज आपश्री ने सोये हुए श्रमण संघ को ठीक जागृत कर दिया है आप विकट से विकट प्रदेश में जाने की आज्ञा फरमावे हम जाने को तैयार है। सूरिजी ने कहा महानुभावों विकट प्रदेश तो पूर्वाचार्यों ने रखा ही नहीं है फिर भी आपका उत्साह भावि अभ्युदय की बधाई दे रहा है आपके इन शब्दों से चन्द्रावती के संघ का यह भागीरथ कार्य सफल हो गया है । सूरिजी ने श्रमण संघ के साथ दो शब्द श्राद्द संघ के लिये भी कह दिया कि रथ चलता है वह दो पहियों से चलता है अतः श्रमण संघ के साथ आपको भी तैयार हो जाना चाहिये तन मन और धन से शासन सेवा ही करना आपका भी कर्त्तव्य है कहाँ पर भी मुनि अजैनों को जैन बनावे तो श्रापका भी कर्तव्य है कि उनके साथ सहानुभूति एवं सब प्रकार का व्यवहार और उनकी सहायता कर उनका उत्साह को बढ़ावे इत्यादि श्रादवर्ग ने सूरिजी का हुक्म शिरधार्य कर लिया बाद भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई।
दूसरे दिन इधर तो श्रीसंघ की और से आगन्तुकों का बहुमान स्वामिवात्सल्य पहरामणि का अयोजन हो रहा था इधर आये हुए श्रमणसंघ में योग्य मुनियों को पद प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न हो रहा था सुरिजी ने बिना किसी भेद भाव के योग्य मुनियों को पदवियो प्रधान कर उनको प्रत्येक प्रान्त में विहार की आज्ञा देदी जिसको उन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ स्वीकार कर प्रस्थान कर दिया
यों तो प्रत्येक आचार्य के शासन में धर्मप्रचार के निमित सभाएँ होती ही आई थी पर इस सभा का प्रभाव कुछ अजब ही था। इसका कारण एक तो आचार्य श्री कई वर्षों से भ्रमण में लगे हुए थे यह बात स्वभाविक है कि बिना नायक के सेना में शिथिलता आ ही जाती है दूसरा सभा करने से सब साधुओं को उपदेश मिला अतः वे अपने कर्त्तव्य को समझकर स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण एवं शासन की सेवा के कार्य में लग गये इत्यादि सभा होने से धर्म की बहुत जागृति हुई। ___आचार्य कक्कसूरि एक महान् धर्म प्रचारक आचार्य हुए हैं आपके शासन में कलिकाल ने अनेक प्रकार से आक्रमण किये पर आपकी विद्वता एवं कार्य कुशलता के सामने उनको हार खाकर नत्तमस्तक होना पड़ा। आपके सामने अनेकानेक कठिनाइयों उपस्थित हुई पर आपने उनकी थोड़ी भी परवाह न करते हुए अपने प्रचार कार्य को आगे बढ़ाते ही रहे हजारों नहीं पर लाखो अजैनों को जैन बनाकर तथा अनेक महानु भावों को जैन धर्म की दीक्षा दे कर चतुर्विध श्रीसंघ की वृद्धि की का मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाए करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बनाया आपने तीर्थ यात्रार्थ देशाटन भी बहुत किया एवं आप श्री ने अपने ४० वर्ष के शासन में जैन धर्म की बहुत कीमती सेवा की अतः आपकी अमर कीर्ति और धवल यशः इतिहास के पृष्टों पर सुवर्ण अक्षरों से लिखा हुआ चमक रहा हैं । जैन संसार पर आपका महान् उपकार हुआ है जिसको हम एक क्षण मात्र भी भूल नहीं सकते है । यदि हम हमारी अज्ञानतासे ऐसे परमोपकारी महा पुरुष के उपकार को एक क्षण भर भी भूल जाय तो हमारे जैसा कृतनी संसार में कौन हो सकेगा । अतः चन्द्रावती नगरी में श्रमण सभा ]
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