Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ४४०-४८० वर्ष ।
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
श्राचार्य को एकान्तमें बेठे हुए देखे उसके परिणामोंने पलटा खाया वह दिल में सोचने लगा कि मेरी समझ में धाँ ति है क्या एकान्तमें युवास्त्री लेकर बैठने वालों का इतना प्रभाव हो सकता है कि लोहा की शांकले टूट जाय ? नहीं ! कदापि नहीं !! वह तो मेरे पुन्यका ही प्रभाव था कि शांकले टूट गई। जैसे ही सोमाशाह वापिस लौटने के लिये कदम उठाया वैसे ही वह भूमि पर गिर पड़ा और उनके मुंहसे रक्त धारा बहने लग गयी और शाह मुञ्छित भी हो गया। जब मुनि भिक्षा लेकर आये तो उपाश्रपके द्वार पर सोमाशाह बुरी हालत में पड़ा हुआ देखा मुनियों ने सब हाल सूरिजी से निवेदन किया इस पर सूरिजी ने सोचाकी यह देवी का ही कोप है अतः सूरिजी ने देवी से कहा देवीजी सोमाशाह गच्छ का परम भव्य श्रावक है इस पर इतना कोप क्यो है ? देवीने कहा प्रभो ! इसकी मतिमें भ्रॉति होगइ है जिसके ही फल मुक्त रहा है पूज्य वर ! इस दुष्टने आप जैसे महान् प्रभाविक आचार्य के लिये विना विचार दुष्ट भाव ले आया तो दूसरों के लिये तो कहनाही क्या है ? सूरिजी ने कहा देवीजी! आप इसका अपराध को माफ करो और इसको पुनः सावचेत करदो ? देवीने कहाँ पूज्य ! यह दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य सावचेत करने काविल नहीं है इस दुर्मति को तो इनसे भी अधिक सज्जा मिलनी चाहिये । सूरिजी ने सोभाशाह पर दया भाव लाकर देवीको पुनः साग्रह कहाँ देबीजी आप अपना क्रोध को शान्त करें और इस सोम को सावचेत करदो कारण उत्तम जनका यह कर्तव्य नहीं है कि दुष्ट की दुष्टता पर खयाल कर उसके साथ दुष्टता का वरताव करे यदि ऐसा किया जाय तो दुष्ट और सज्जन में अन्तर ही क्या रह जाता है अतः श्राप मेरे कहने से ही शान्त होकर इसको साबचेत कर दो इत्यादि देवीने क्रोध में अपने आप को भल कर कह दिया कि या तो आपकी सेवामें मैं ही प्रत्यक्ष रूप में आउगी, या सोमाशाह । यदि आप सोमाको सावचेत करावेंगें तो मैं अब प्रत्यक्ष रुपमें नहीं पाउगी अर्थात्
"देवताऽवसरसीन, सूरीणां पुरतः स्थितम् । स्त्रीरूव सत्यकांदेवीं, वीक्षा साद्योन्य वर्तते । व्याचिन्तय चा हा कष्टं, यदेवं विधि सूरयः । अभूवन् वशगाः स्त्रीणं, धुर्याश्चरि त्रिणामपि । वंद्याः कथं भवन्त्ये ते विचिन्त्येतिन्य वर्तते । यावतावत् पपा तोव्यों, मुखेन रूधिरं वमन् ॥ वद्धो मयर बंधेन रार टीतिस्म कष्टतः अंतः स्थाः सूरयः श्रुत्वा, सद्यो पहि पुपा गताः विलोक्य तं तथा वस्व, हेतु जिज्ञा सागुरुः यासद् दोमरी तावत् सत्यकागुरु मब्रवीत् प्रभो दुरात्मा श्रादौरऽसा वेव चिन्तित वानतः । मयंदृशी दशांनी तो मारियष्यपि मां प्रतम् सकलोऽपि पौर लोके लब्धो इन्तोऽस्तियोऽमिलत् सोऽपिविज्ञा पयमास देवी भून्यरत्त मस्तकः।। प्रसीद देवी ! ते दासो भक्तोऽयं सदाऽविहि । कृताऽपराध मज्ञ त्वाद् विमुच भगवत्य मुम् । देवी पोचेन मुचामि पापिनं खभ्र गामिन परं करीमि किं पूज्य देशो वारमेत बलात् ।। इति सूरिगिरादेवी तुंमोच तमुपरसकम् सौऽपि नत्वागुरु पादौ, ज्ञमा माल साल सादरं । अतःमूरिसुरी मुचे सांप्रतं विषमपुगे । विपरी तं चिंतयतः किमतः शिक्षयिष्यसि ॥ ततः प्रत्यक्ष रूयेण नागंतव्य मतः परम कार्य मादेश दानेन प्रोक्तव्यं स्मृतय त्वया । देवता वसरे तुभ्यं धर्म लाभं मुदा वयम् दास्याम दूयती दानी व्यवस्थाऽस्तुसदाऽवयो ।
"उपकेश गच्छ चरित्र"
८६६
[ देवी का प्रकोप और सोमाशाह
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