Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि०सं० ४४०-४८० वर्षे
[ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कारों की लड़कियों के लिए प्रस्ताव आ रहे है अतः बेटा हम नहीं चाहते कि तूं दीक्षा लेने की बात तक भी करे ? शोभन ने कहाँ कि माता संसार में मोह कर्म का ऐसा ही नश है कि जिस काम को लोग अच्छे समझने हुए भी मोहकमे के जोर से अन्तराय देने को तैयार हो जाते है । आप जानते हो कि इस संसार में जन्ममरण का महान दुःख है और बिना दीक्षा लिये वे दुःख छुट नहीं सकते है । और दीक्षा भी अच्छी सामग्री हो तब पा सकती है । माता पिता अपने वाल बच्चों के हित चिंतक होते है अतः आप हमारे हित चिनके है फिर हमारे हित में श्राप अन्तराय क्यों करते हो ? इत्यादि नम्रतासे अर्ज की कि आप आज्ञा प्रदान करे कि मैं सूरिजी के पास दीक्षा ले कर आत्म कल्याण करूँ ?
__माता ने कहा-बेटा अभी दीक्षा लेने का समय नहीं है अभी तो तुम विवाह करो माता पिताकी सेवा करो जब तुमारे बाल बच्चा हो जाय हम लोग अपनी संसार यात्रा पूर्ण करलें बाद दीक्षा लेकर अपना कल्याण करना इसमें तुमको कोई रोक टोक नहीं करेंगा।
बेटाने कहा- माताजी वह किसको मालूम है कि मातापिता पहले जायगें या पुत्र पहले जायगा । माता ! विवाह सादी करना यह तो एक मोह पास में बन्धना है और विषय भोग तो संसार में रुलाने वाले है जिन जिन पुरुषों ने विषय भोग सेवन किया है वे नरकादि गति में दुःख सहन किया है वे उनकी आत्माही जानती है । क्या ब्रह्मदत्त चक्रवर्तिका व्याख्यान आपने नहीं सुना है ? अतः आप कृपा कर श्राज्ञा दे दिजिये--
माताने कहा-बेटा तुमको किसीने बहका दिया है अतः तु दीक्षा का नाम लेता है। पर दीक्षा पालन करना सहज नहीं है जिसमें भी तुं इस प्रकार का सुखमाल है क्षुद्या पीपासा शीत उष्णादि २२ परिसह सहन करना कठिन है जो तु सहन नहीं कर सकेंगा इत्यादि शोभन के माता पिता ने बहुत कुछ समझा दिया।
बेटाने कहा-माताजी नरक और तिर्यंच के दुःखोंकि सामने दीक्षा के परिसह किस गीनती में है जो एकेक जीव अनंती अनंतीवार सहन कर आया है । जब दीक्षा में तो साधु उल्टे उदिरणा कर के दुःख सहन करने की कोशिश करते है । माता देख सूरिजी के साथ पांचसौ साधु है और वे भी अच्छे २ घराना के देवता के जैसी सुख साहबी छोड़कर दीक्षा ली है और आपके सामने दीक्षा पालतेहैं । इतना ही क्यों पर वे सब साधनों वाले नागरोंकों छोड़कर पहाड़ों में जाकर कठोर तपस्या करते हैं तो क्या तेरे जैसी मता के स्तन पान कर ने वला मैं दीक्षा पालन नहीं कर सकूँगा अतः आप पूर्ण विश्वास रखे और कृपा कर आज्ञा दीजिये कि मैं दीक्षा लेकर अपना कल्याण करूँ ।
इत्यादि बहुत प्रश्रोत्तर हुए अर्थात् माता पिता ने शोभन की कसोटी लगाकर खूब जाँच एवं परीक्षा की पर शोभन तो एक अपनी बात पर ही अडिग रहा । मंत्री यशोदित्य ने कहा कि तुम दोनों चूप रहो मैं कल सूरिजी के पास जाकर उनकों कहदूगा कि शोभनकों दीक्षा न दें। बस मां बेटा चुप हो गये ।
दूसरे दिन मंत्री सूरिजी के पास गया और वन्दन करके अर्ज की कि गुरु देव शोभन अभी वचा है किसी की बहकावट में आकर हट पकड़ लिया है कि मैं दीक्षा लुगा । पर हमारे सात पुत्रों में यह सब से बड़ा है इसकी सादी करनी है इसकी माता रोती है इत्यादि हमारे प्रतिष्ठा कार्य में एक बड़ा भारी विन्न खड़ा हो जायगा अतः आप शोभन को समझादें कि अभी दीक्षाकी बात न करे।
सूरिजी ने कहा यशोदित्य तुम्हारा घराना उपकेश गच्छ का उपासक है जिसमें भी तु हमारे अप्रेसर ८५४
[ शोभन की दीक्षा के लिये माता पिता का For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International