Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं०४२४-४४० वर्ष ]
[भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पुष्कल द्रव्य पैदा किया। शाह पात्ता जैसे द्रव्योपार्जन करने में दक्ष था इसी प्रकार न्यायोपार्जिन द्रव्य का सदुपयोग करने में भी निपुण था जिसमें भी साधर्मि भाइयों की ओर आपका विशेष लक्ष था आपकों उपदेश भी इसी विषय का मिलता था। व्यापार में भी अग्रस्थान साधर्मी भाइयों को ही दिया करता था एक ओर तोजैन चार्यों का उपदेश और दूसरी ओर इस प्रकार की सहायता यही कारण था कि जैनेत्तर लोगों को जैन बना. कर सुविधास जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया जाता था शाह पात्ता बहुकुटम्ब वाला होने पर भी उनके वहाँ सम्पथा यही कारण था कि लक्ष्मी बिना आमन्त्रण किये ही पात्ता के वहाँ स्थिर स्थाना डालकर रहती थी।
जब वि० सं० ४२९ में एक जन संहारक भीषण दुकाल पड़ा तो साधारण लोगों में हा हा कार मचगया मनुष्य अन्न के लिये और पशु घास के लिये महान दुःखी हो रहे थे शाह पाता से अपने देशवासी भाइयों का और मुक् पशुओं का दुःख देखा नहीं गया। उसने अपने कुटम्ब वालों की सम्मति लेकर दुकाल पीड़ित जीवों के लिये अन्न और घास के कोठार खुल्ला रख दिया कि जिस किसी के अन्न घास की जरूरत हो बिना भेदभाव के ले जाओं फिर तो क्या था दुनियां उल्ट पड़ी पर इतना संग्रह कहा था कि पाता मुल्क कों अन्न एवं घास दे सके ? जहां तक मूल्य से धान घास मिला वहाँ तक तो पाता ने जिस भाव मिला खरीद कर आसा कर आये हुए लोगों को अन्न घास देता रहा। जब आस पाल में धन देने पर भी अन्न नहीं मिला इसका तो उपाय ही क्या था पर आये हुए दुःखी लोगों को ना कहना तो एक बड़ी शरम की बात थी शाह पात्ता की ओरत ने कहा कि इन दुःखियों का दुःख मेरे से भी देखा नहीं जाता है अतः मेरा भेवर ले जाओं पर इन लोगों को अन्न दिया करो। पात्ता ने अपने भाइयों को और गुमास्तों को भेज दिया कि देश एवं प्रदेश में जहां मिले वहां से अन्न एवं घास लाओं। बस चारों ओर लोग गये और जिस भाव मिला उस भाव से देश और प्रदेशों से पुष्कल धान लाये पर दुःकाल की भयंकरता ने इतना त्य रूप धारण कियाकि शाह पात्त के पास जितना द्रव्य था वह सब इस कार्य में लगा दिया पर दुकाल का अन्त नहीं आया। औरतों का जेवर तक भी काल के चरणों में अर्पण कर दिया कारण पात्ता की उदारता से सब दुनियां पात्ता के महमान बन गई थी अतः पाता ने अपने पास करोड़ों की सम्पति को वह सब इस कार्य में लगा दी जिसका तो कुछ भी रंज नहीं था पर शेष थोड़ा समय के लिये आये हए अाशाजन को निराश करने का बड़ा भारी दुःख था। आखिर शाह पात्ता ने तीन उपवास कर अपनी कुलदेवी सच्चायिका से प्रार्थना की कि यातो मुझे शक्ति दे कि शेष रहाहुआ दुकाल को सुकाल बना दू । या इस संसार से बिदा दें। देवी ने पात्ता की परोपकार परायणता पर प्रसन्न होकर एक कोथली (थेली) देदी कि जितना द्रव्य चाहिये उतना निकालते जाओं तुमारा कार्य सिद्ध होगा। बस देवी तो अदृश्य होगई शाहपात्ता ने पहिले दुःखी लोगों की सार संभाल ली बाद पारणा किया, अब तो पात्ता के पास अखूट खजाना आगया और शेष रहा हुआ दुकाल का शिर फोड़ कर उसको निकाल दिया जब वर्षाद पानी हुआ तो जनता पात्ता को आशीर्वाद देकर अपने २ स्थान को चली गई। शाहपात्ता अपने कार्य में सफल हुआ और पुनः तीन उपवास कर देवी की आराधना की जब देवी श्राई तो पात्ता ने कहां भगवती यह आपकी थेली संभाल लीजिये। देवी ने ने कहा पात्ता में तुझे थेली दे चुकी हूँ, इसको तुम अपने काम में ले । पात्ता ! तूं बड़ा ही भाग्यशाली है तेरे पुन्य से संतुष्ट हो यह थेली तुझे दी है इत्यादि । पात्ता ने कहा देवीजी आपने बड़ी भारी कृपा की पर ८३२
[पुन्यशाली पासा ने दुकाल का शिर फोड़ डाला
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