Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८२४-८४०
३२-प्राचार्य श्री यक्षदेव सूरि ( षष्टम् )
सूरि नायक यक्षदेव पद्माक्कनौजियाख्यान्वये । त्रात्व बन्धुगणं महाधन व्यया दुष्काल पीड़ा बहम् ।। सोऽयं सूरिरनेक भव्य जनतोद्धारे रतो ग्रन्थकृत् । म्लेच्छात्नीतिपदातु रक्षण परो देवालया नाभयम् ॥
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चार्य श्री यक्षदेव सूरीश्वर जी महाराज यक्षपूजित महा प्रतिभाशाली उपविहारी धर्मप्रचारी और सुविहितशिरोमणि श्राचार्य हुए आपश्री चन्द्र को भांति, शीतल, सूर्य सदृश तेजस्वी, मेरू की तरह अकम्प, धरनी के सदृश धीरे, एवं सहनशील, मेघ की तरह चराचर जीवों के उपकारी, जन शासन के स्तम्भ, एक महान् आचार्य हुए है आप का जीवन जन कल्याणार्थ ही हु प्रा था पट्टावलीकारों ने
आपका जीवन विस्तार से लिखा है तथापि पाठकों के कर्णपावन के लिये यहां पर संक्षप्त से लिख दिया जाता है। जिस समय का हाल हम लिख रहे है उस समय भारत के भूषण रूप करणावती नगरी अनेक जिनमन्दिरों से शोभायामन थी व्यापार का तो एक केन्द्र ही था वहाँ के व्यापारी लोग भारत के अलावा जल एवं स्थल रास्ता से पाश्चात्य प्रदेशों में भी व्यापार किया करते थे जिसमें अधिक व्यापारी उपकेशवंश के ही थे 'उपकेशे बहुत द्रव्यं' इस वरदान के अनुसार उन व्यापारियों ने न्याय नीति एवं सत्यता के कारण व्यापार में बहुत द्रव्य पैदा किया था और वे लोग उस द्रव्यको आत्मकल्याणर्थ एवं धर्म कार्य में व्यय कर पुन्यानुबन्धी पुन्य का भी संचय किया करते थे ।
आचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के जो आगे चल कर अठारह गौत्र हुए थे उसमें कन्नौजियागौत्र भी एक था । उस कन्नौजिया गौत्र में शाह सारंग नामका धनकुबेर सेठ था जिसकी धवलकीर्ति चारो
ओर प्रसरी हुइ थी शाह सारंग बड़ा ही उदार एवं धर्मज्ञ था पांच वार तीयों का संघ निकालकर संघ को सोना मुहरों और वस्त्रां की पेहरामणी दी थी सात बड़े यज्ञ जीमणवार किये थे याचकों को तो इतना दान दिया कि वे हर समय सारंग के यशोगान गाया करते थे शाह सारंग के गृहदेवी धर्म की प्रतिमूर्ति रोहणी नाम की स्त्री थी। माता रोहणी ने तेरह पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर अपना जीरन को सफल बनाया था जिसमें पात्ता नामका पुत्र बडाही तेजस्व एवं होनहार पुत्र था माता रोहणी ने भगवान् वासुपूज की आराधना अर्थ करणावती में एक प्रालीसांन मन्दिर बनाकर वासपूजतीर्थङ्कर की प्रतिष्टा भी करवाई थी।
जब पात्ता के माता पिता का स्वर्गवास हुआ तो घर का सब भार पात्ता के शिर आपड़ा। पात्ता व्यापार में बडाहीदक्ष था उसने अपना व्यापारक्षेत्र को इतना विशाल बना दिया कि पश्चात्य प्रदेश इरान मित्र जावा जापान और चीनादि के साथ जल एवं थलके रास्ते थोकबद्ध व्यापार किया करता था कइ बन्दरों में तो आप अपनी दुकानें भी खोली थी। देवी सच्चायिका की आप पर बड़ी कृपा थी कि आपने व्यापार में करणावती में भगवान् वासपूज्य का मन्दिर ]
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