Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ८००-८२४
भी प्रार्थना की थी कि पूज्य आचार्य देव आपने मरुधर की पवित्र भूमि पर जन्म लेकर केवल मरुधर पर ही नहीं पर भारत पर बड़ा भारी उपकार किया है यह वही उपकेशपुर है कि आपके पूर्वजों ने जैनधर्म का बीज बोया और पिच्छले प्राचार्यों ने उसको जलसिंचन कर नवप्लव बनाया । कृपा कर यह चतुर्मास यहां कर के यहाँ की जनता पर उपकार करावे आपके विराजने से मुझे भी दर्शनों का लाभ मिलेगा। सूरिजी ने कहाँ देवीजी क्षेत्रस्पर्शना होगा तो मुझे तो कही न कही चतुर्मास करना ही है । यह कब हो सकता है कि इस गच्छ के आचार्य आपकी विनती स्वीकार नहीं करे। दूसरे हमारे लिगे तो यह एक पवित्र तीर्थ धाम हैं आचार्य रत्नप्रभसूरि के शुभ हाथों से शासनाधीश चरमतीर्थकर की स्थापना हुई जिसकी उपासना तो प्रबल्य पुन्योदय से ही मिलती है इत्यादि सूरिजी के कहने से देवी को बड़ा हो संतोष होगया।
उस समय उपकेशपुर का शासन कर्ता महाराजा उत्पलदेव की सन्तान परम्परा के राव भाल्हन देव था आप वंश परम्परा से ही जैन धर्म के परमोपासक थे सूरिजी के पधारने से आपको बड़ा ही हर्ष था कारण आपका लक्ष आत्मकल्याण की ओर विशेष रहता था । अतः एक दिन श्रीसंघ एकत्र हो सूरिजी से चतुर्मास की प्रार्थना की जिस पर सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जान श्रीसंघ की विनति को स्वीकार करली। दूसरे यह भी था कि उपकेश गच्छ के आचार्य उपकेशपुर पधारे तो कम से कम एक चतुर्मास तो वहां अवश्य करते ही थे जिसमें सूरिजी की तो अवस्था ही वृद्ध थी।
रावजी ने महामहोत्सव पूर्वक श्री भगवतीजी सूत्र को अपने वहां लाकर रात्रि जागरण पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्या किया और हस्ति पर सूत्रजी विराजमान कर वरघोड़ा चढ़ा कर सूरिजी को अर्पण किया
और सूरिजी ने उस म्हाप्रभाविक शास्त्रजी को व्याख्यान में बांचकर श्रीसंघ को सुनाया जिसको सुन कर जनता ने अपूर्व लाभ उठाया। सूरिजी के विराजने से धर्म का खूब ही उद्योत हुआ अपनी २ रूची के अनुसार सब लोगों ने यथाशक्ति लाभ लिया। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन सुनाते हु र फरमाया कि महानुभावों! जिन महापुरुष ने इसी उपकेशपुर में धर्म रूपी वृक्ष का बीज बोया था और पिछले आचार्यों ने उसको जल सिंचन कर नवप्लव बनाया जिसके ही मधुरफल है कि आज हम जहां जाते है वहां उपकेशवंश उपकेशवंश ही देखते है और वे भी देवी सञ्चायका का वरदान से 'उपकेशे बदुल द्रव्यं धन धान एवं परिवार से समृद्ध और धर्म करनी में तत्पर नजर आते है और वे भी केवल मरुधर में ही नहीं पर लाट सौराष्ट कच्छ सिन्ध कुनाल पांचाल शुरसेन पूर्व बंगाल बुन्देलखण्ड आवन्ति मेदपाट तक हमने भ्रमन करके देखा है कि कोई भी प्रान्त उपकेशवंश से शुन्य नहीं पाया उनको पूछने से यह भी ज्ञात हुआ है कि प्रायः वे लोग अपनी व्यापार सुविधा के लिये ही वहां गये थे बाद में जैनाचायों ने वहां के अजैनों को जैन बना कर उनके शामिल मिलाते गये थे कि उनकी संख्या बहुत बढ़ गई। इस पवित्र कार्य में उन आचार्यों का प्रयत्न तो था ही पर साथ में महाराजा उत्पलदेव मंत्री ऊहड़ादि धर्मवीर गृहस्थों एवं उनकी सन्तान परम्परा का भी सहयोग था तथा देवी सच्चायिका की भी पूर्ण कृपा थी जिससे इस पुनीत कार्य में आशातीत सफलता मिलती गई पूर्वाचार्यों की यह भी एक पद्धति थी कि वे नैनों के केन्द्र में समय समय सभाएँ करके चतुर्विध श्रीसंघ को और विशेषतय श्रमण संघ को जैनधर्म का प्रचार के लिये प्रेरणा एवं उत्साहित करते थे तथा कोई भी प्रान्त जैन साधुओं से निर्वासित नहीं रखते थे। दूसरा यह भी था कि जहां नये जैन बनाये वहां उनके आत्मकल्याण के लिये जैन मन्दिर एवं विद्यालय की प्रतिष्ठा देवी सच्चायिका की सूरिजी से विनति ]
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