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प्रस्तावना
की गाथामें अपनी छद्मस्थताके कारण आगमविरुद्ध यदि कुछ लिखा गया हो तो उसको शुद्ध करनेकी प्रार्थना करते हैं। अतः उन्होंने अपनी शक्तिसे एक लुप्त कृतिको पुनर्जीवित किया है, यही उनका अभिप्राय हमें प्रतीत होता है । अस्तु,
जहाँ तक हम जानते हैं जैन परम्पराकी किसी पट्टावली आदिमें न तो शिवार्य नाम ही मिलता है और न उनके गुरुजनोंका ही नाम मिलता है। शिवार्य में शिव नाम और आर्य विशेषण हो सकता है जैसे आर्य जिननन्दि गणि और आर्य मित्रनन्दि गणिमें है । अतः अतः यह कह सकते हैं कि इस ग्रन्थके रचयिता आर्य शिव थे।
भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने महापुराणके प्रारम्भमें एक शिवकोटि नामक आचार्यका स्मरण किया है
'शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाऽऽराध्य चतुष्टयम् ।
मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटिमुनीश्वरः ॥' अर्थात् जिन की वाणी द्वारा चतुष्टय रूप ( दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप रूप ) मोक्षमार्गआराधना करके जगत् शीतीभूत हो रहा है वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
इस श्लोकमें जो 'आराध्य चतुष्टयं' तथा शीतीभूतं पद है ये दोनों पद शिव आर्य रचित भगवती आराधना की ही सूचना करते प्रतीत होते हैं। क्योंकि उसीमें चार आराधनाओंका कथन है। तथा गाथा ११७६ में कहा है कि सर्वं परिग्रहको त्यागकर जो 'शीतीभूत' होता है । इसके साथ ही उसके रचयिताका नाम 'शिव' भी है। उसके साथ यद्यपि कोटि शब्दका प्रयोग विशेष किया गया है तथापि इसमें कोई विवाद नहीं हो सकता कि जिनसेन स्वामीने भगवती आराधनाके कर्ताका ही स्मरण किया है।
आचार्य प्रभाचन्द्रकृत कथाकोश में दर्शन और ज्ञानका उद्योतन करने में आचार्य समन्तभद्र की कथा दी है। उसके अनुसार भस्मक व्याधि होने पर वे वाराणसीके राजा शिवकोटिके दरबारमें जाते हैं और उनके शिवालयमें शिवपिण्डीके फटने तथा चन्द्रप्रभु भगवानकी प्रतिभा प्रकट होनेके चमत्कारसे शिवकोटिको प्रभावित करते हैं। शिवकोटि राज्य त्याग कर साधु हो जाते हैं। तथा सकल श्रुतका अवगाहन करके लोहाचार्यरचित आराधनाको, जिसका परिमाण चौरासी हजार था, संक्षिप्त करके अढ़ाई हजार प्रमाण मूलाराधनाकी रचना करते हैं।
प्रभाचन्द्रसे पूर्वमें आचार्य हरिषेणने कथाकोश रचा है उसमें यह कथा नहीं है, यद्यपि उस कथाकोशका आधार भो मूलाराधना या आराधना ही है। आचार्य जिनसेनके उल्लेखसे यह तो स्पष्ट है कि भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटि नामसे ही ख्यात रहे हैं । किन्तु जिनसेनने उन्हें समन्तभद्रका शिष्य नहीं कहा है। ऐसा होता तो समन्तभद्रके पश्चात् ही वे शिवकोटिका स्मरण करते। किन्तु दोनोंके मध्यमें श्रीदत्त और प्रभाचन्द्रका स्मरण है । अतः जिनसेन के समय तक शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य माननेकी कथा प्रवर्तित नहीं हुई थी।
प्रभाचन्द्रके सामने इसका क्या आधार रहा है यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु लोहाचार्य विरचित ८४ हजार प्रमाण वाली आराधनाका भी अन्यत्र कोई संकेत नहीं मिलता।
इसके साथ शिवार्य अपनी प्रशस्तिमें इसका कोई संकेत तक नहीं देते। यदि वह समन्त
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