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प्रस्तावना
अनुवाद भी थे जिनमें प्राकृत गाथाओंका संस्कृत श्लोकोंमें रूपान्तर किया गया था। आज तो केवल अमितगति कृत पद्यानुवाद ही उपलब्ध है जो शोलापुर संस्करणमें प्रकाशित हुआ है । उसके सिवाय कम से कम दो अनुवाद आशाधरजीके सामने अवश्य रहे हैं। उनमेंसे एक अनुष्टुप् छन्दोंमें था तो दूसरा आर्या छन्दोंमें था । आर्या छन्दोंका अनुवाद हमें मूलके अधिक निकट प्रतीत हुआ है। आशाधरजीने जिस विदग्ध प्रीतिवर्धनीका नाम निर्देश करके उससे आर्याच्छन्द में जो उद्धरण दिया है वह गाथाका ही पद्यानुवाद है। अतः एक पद्यानुवादका नाम विदग्ध प्रीतिवर्धनी हो सकता है। किन्तु यह नाम भगवती आराधना जैसे ग्रन्थके पद्यानुवादके अनुकूल प्रतीत नहीं होता । यह नाम तो किसी सुभाषितसंग्रहके उपयुक्त हो सकता है या व्याख्यात्मक टीकाके भी उपयुक्त हो सकता है । अस्तु, कुछ विशेष कहना शक्य नहीं है। किन्तु इतना अवश्य है कि कोई एक पद्यानुवाद प्राकृत टीकाके अनुसार था।
६-७. दो टिप्पण-आशाधरजीने दो टिप्पणीका भी उल्लेख किया है। उनमेंसे एक तो श्री चन्द्रकृत टिप्पण है और दूसरा जयनन्दिकृत टिप्पण है। श्री चन्द्रकृत टिप्पणका उपयोग आशाधरजीने विशेष किया प्रतीत होता है। श्री प्रेमीजीने लिखा है कि ये वही श्रीचन्द जान पड़ते हैं जिन्होंने पुष्पदन्तके उत्तरपुराण और रविषेणके पद्मचरितके टिप्पण तथा पुराणसार आदि ग्रन्थ रचे थे जो भोजदेवके समयमें १०८७ थे और जिनके गुरुका नाम जिननन्दि था।
८. आराधना पञ्जिका-श्री प्रेमीजीने लिखा है कि पूणेके भाण्डारकर इन्स्टिस्य टमें इसकी एक प्रति है परन्तु उसके आद्यन्त अंशोसे यह नहीं मालूम हो सका कि इसके कर्ता कौन है। प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके कर्ता और अनेक ग्रन्थों पर टीकाएँ पञ्जिकाएँ लिखने वाले प्रभाचन्द्रके ग्रंथोंकी सूचीमें भी एक आराधना पंजिकाका नाम है। परन्तु यह वही है या इसके सिवाय कोई दूसरी यह नहीं कहा जा सकता । इसमें कोई उत्थानिका या मंगलाचरणसूचक पद्य नहीं है जैसा कि प्रभाचन्द्रके टीका ग्रंथोंमें प्रायः रहता है ।
प्रेमीजीने यह भी लिखा है कि दूसरे लिपिकर्ताने अपना संवत् १४१६ दिया है और उसने वह प्रति अपनेसे पहलेकी प्रति परसे की है। इससे इसके निर्माण कालके विषयमें इतनी बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है यह पंजिका चौदहवीं शताब्दीके बादकी नहीं है।
१. जै० सा० इ०, पृ० ८६ का टिप्पण ।
२. जै० सा० इ०, पृ० ८०-८१ । हमने पूनाके भण्डारकर प्राच्य विद्या संशोधक मन्दिरमें इसकी खोज कराई किन्तु नहीं मिली। यदि मिलती तो उसे भी इसके साथ प्रकाशित कर देते । प्रेमी जीने उसका अन्त का अंश इस प्रकार दिया है
अज्जजिणणंदि आर्य जिननन्दिगणिनः सर्वगुप्तगणिनः आचार्यमित्रनन्दिनश्च पादमूले सम्यगर्थं श्रतं चावगम्य । पुयारिएत्यादि । पूर्वाचार्यकृतानि च शास्त्राणि उपजीव्येयमाराधना स्वशक्त्या शिवाचार्येण रचिता पाणितल भोजिना । छदुमत्यदाण । छद्मस्थतया यदत्र प्रवचनविरुद्धबद्धं भवेत् तत् सुगृहीतार्थाः शोधयन्तु प्रवचनवत्सलतया। आराहणा भगवदी। आराधना भगवती एवं भक्त्या कीर्तिता सती संघस्य शिवाचार्यस्य च विपुलां सकलभव्यजनप्रार्थनीयां अव्यावाधसुखां सिद्धि प्रयच्छतु । इत्याराधनापञ्जिका समाप्ता । ( यह विजयोदयासे अक्षरशः मिलती हुई है । )
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