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भगबती आराधना प्रभाचन्द्रकृत एक गद्यकथा कोश भी है जिसमें भ० आ० की गाथाएँ उद्धृत करके उनसे सम्बद्ध कथाएं दी हैं। सम्भव है यह पंजिका उन्हीं प्रभाचन्द्र की हो।।
९. भावार्थ दीपिका टीका-श्री प्रेमीजीने लिखा है कि यह टीका भी पूनेके भण्डारकर इन्स्टीच्यूटमें है यह टीका शिवजिद् अरुण अर्थात् पं० शिवजी लालने अपने पुत्र मणिजिद् अरुणके लिये बनाई है । वे जयपुरकी भट्टारकको गद्दीके पंडित थे । संवत् १८१८ में टीका समाप्त हुई है।
इस प्रकार इस ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ रची गई थीं। भ० आ० के रचयिता
__इस ग्रन्थके अन्तमें इसके रचयिताने जो अपना परिचय दिया है उससे इतना ही ज्ञात होता है कि आर्य जिननन्दि गणि, सर्वगुप्त गणि और आचार्य मित्र नन्दिके पादमूलमें सम्यक रूपसे श्रुत और अर्थको जानकर हस्तपुटमें आहार करनेवाले शिवार्यने पूर्वाचार्यकृत रचनाको आधार बनाकर यह आराधना रची है।
__इससे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकारका नाम शिवार्य था और जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दि उनके गुरु थे। उनके पादमूलमें ही उन्होंने श्रुतका अध्ययन किया था। किन्तु इस ग्रंथकी रचनामें उनका कोई हाथ प्रतीत नहीं होता, क्योंकि गाथा २१६० में वह 'ससत्तीए' अपनी शक्तिसे पूर्वाचार्य निबद्ध रचनाको उपजीवित करनेकी बात कहते हैं। उपजीवितका अर्थ पुनः जीवित करना होता है अतः ऐसा भी उनका अभिप्राय हो सकता है कि पूर्वाचार्य निबद्ध जो आराधना लुप्त हो गई थी उसे उन्होंने अपनी शक्तिसे जीवित किया है।
यद्यपि अभी तकके विद्वान लेखकों ने 'पूज्वाइरियणिबद्धा उपजीवित्ताका अर्थ 'पूर्वाचार्योके द्वारा निबद्धकी गई या रची गई रचनाके आधारसे किया है, और हमने भी तदनुसार ही अर्थ किया है । किन्तु 'उपजीवित्ता इमा ससत्तीए' पद हमें इस अर्थका सूचक प्रतीत नहीं होता । यदि पूर्वाचार्य निबद्ध आराधना या इस तरहको कोई रचना उनके सामने थी तो इसके लिये उपजीवित्ता ( उपजीव्य) पदका प्रयोग नहीं घटित होता और न 'स्वशक्ति' पदका प्रयोग ही वजनदार प्रतीत होता है। उसका वजन तो तभी बढ़ता है जब रचयिता अपनी शक्तिसे एक पूर्वलुप्त कृतिको जोवनदान देता है । अतः शिवायंने पूर्वाचार्य निबद्ध रचनाको आधार बनाकर आराधना नहीं बनाई किन्तु उसे अपनी शक्तिसे पुनर्जीवित किया है।
____टीकाकार अपराजित सूरिने अपनी टीकामें 'पुवायरिय' आदिका जो अर्थ किया है वह भी ध्यान देने योग्य है-वह लिखते है-'पूर्वाचार्यकृतामिव उपजीव्य' यहाँ जो 'इव' पदका प्रयोग है वह उल्लेखनीय है । 'पूर्वाचार्यकृतकी तरह उपजीवित करके यह आराधना अपनी शक्तिसे शिवाचार्यने रची।' अर्थात् इस रचनाको उन्होंने अपनी शक्तिसे इस प्रकार उपजीवित किया मानों यह पूर्वाचार्यकृत है। पूर्वाचार्यकृत रचनाको आधार वनाकर रचने को गन्ध भी' टीकामें नहीं है । अतः यह ग्रन्थ शिवार्य की अपनी शक्तिसे रचित मौलिक कृति है। तभी तो वह आगे
१. 'श्रीमन्तं जिनदेवं वीरं नत्वामराचितं भक्त्या।
वृत्ति भगवत्याराधना-ग्रन्थस्य कुर्वेऽहम् ॥' २, जै० सा० इ० पृ० ७५ । हरिषेण कथा कोशको डा० उपाध्येकी प्रस्तावना पृ० ५२ ।
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