________________
प्रस्तावना
२८. गा० १३१९ ( १३२५ ) की टीकामें प्राकृत टीकाकारके मतसे व्याख्या देकर 'तथा चोक्त' पूर्वक उसका नीचे लिखा अनुवाद दिया है
‘एवं केचिद् गृहद्वन्द्वविमुक्ता अपि दीक्षिता ।
. कषायेन्द्रियदोषेण तदेवाददते पुनः ॥' अपि च
गृहवासं तथा त्यक्त्वा कश्चिद्दोषशताकुलम् ।
कषायेन्द्रियदोषार्तो याति तं भोगतृष्णया ।-अमितगति । इसके आगे श्री विजयाचार्यके अनुसार अर्थ देकर 'तथाचोक्तं विदग्धप्रीतिवधिन्याम् ।
'एवं केचिद् गृहवासदोषमुक्ताश्च दीक्षिताः सन्तः ।
इन्द्रियकषायदोषान्पुनरपि तानेव गृह्णन्ति ।' लिखा है। इससे प्रकट होता है कि प्राकृत टीकाकारकी व्याख्याके अनुसार कोई संस्कृत श्लोकात्मक रचना थी, जो अमितगतिसे भिन्न थी। अमितगति ने भी शायद उसका अनुसरण किया हो। और एक विदग्धप्रीतिवर्धनी नामक संस्कृत पद्यात्मक टीका भी थी। उसके पद्य आर्या छन्दमें थे।
२९. गा० १३४० (१३४६ ) में भी अन्यस्तु लिखकर एक मत दिया है
अन्यस्तु 'सउणो वीदंसगेणेव' इति पठित्वा 'पक्षी चंच्वा यथा' इति प्रतिपन्नः । तथा च तद्ग्रन्थ :
कषायाक्षो कुटीश्चित्ते बहिनिभृतवेषवान् ।
आदत्ते विषयांश्चच्वा निभृतः शकुनो यथा ।। अमितगतिका अनुवाद इस प्रकार है
'बहिनिभृतवेषेण गृहीते विषयान् सदा ।
अन्तरामलिनः कंको मीनानिव दुराशयः ॥' विजयोदयामें गाथाके अन्तिम चरण 'सउणो वीदसंगणेव' का अर्थ ही नहीं है।
३०. गा० १४०७ ( १४१२ ) की टीकामें विजयाचार्यके मतसे व्याख्या देकर 'तथा चोक्तम्' पूर्वक नीचे लिखे श्लोक उद्धृत किये हैं
यदि संगाटवीं यान्ति रागद्वेषमदोद्धताः । ध्यानयोधवशा नैव सन्ति ज्ञानांकुशं विना ।। विषयारण्यसाकांक्षास्ते कषायाक्षहस्तिनः ।
ततः शमरतिं नेया येन दोषं न कुर्वते ।। यह उक्त गाथाका ही पद्यानुवाद है । इसके आगे 'अन्यस्त्वेवमाह' लिखकर अमितगतिकृत पद्यानुवाद दिया है।
उल्लिखित दोनों पद्यानुवाद गा० नं० १४०६ और १४०७ को मिलाकर है। किन्तु एक तीसरा पक्ष भी जो दोनों गाथाओंको पृथक करके अर्थ करता है
यथा-रागद्वेषमदान्धः करणकरीन्द्रो विशन् विषयविन्ध्यम् ।
ध्यानसुभटस्य वश्यो ज्ञानांकुशितो भवेन्नियतम् ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org