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· कर्मसे प्रावृत आत्माका विकास इसप्रकार होता है । वह अपने कर्मानुसार ऊपर चढ़ती जाती है । अनादि निगोदमेंसे निकल
कर, व्यवहारराशिमें आकर पृथ्वी, अप्, तेजस्, अत्मा का विकास. वायु और वनस्पतिपन पाकर, दो तीन और
चार इन्द्रिये प्राप्त कर, पांच इन्द्रियोंवाला तिर्यंच होता है और जब भवितव्यताकी कृपा होती है और कर्मविधर हो तब मनुष्य होकर कार्य सिद्ध करती है। सर्व कर्मोसे मोक्ष मनुष्यगतिमें ही प्राप्त होता है। Evolution विकास सिद्धान्त और जैनकी गति-आगतिके सिद्धान्तमें एक बड़ी भारी भिन्नता यह है कि विकासवादघाले ऐसा मानते हैं कि " इस जीवके एक समयपर अमुक हद तक पहुंच जानेके पश्चात् यह चाहे जैसे भी कार्य क्यों न करें किन्तु फिर भी वह नीचे नहीं उतर सकता है। अपनी उसी स्थितिमें यह चाहे जितना कालक्षेप भी क्यों न करे परन्तु पिछा नहीं जासकता है । एक जीव चढ़ते चढ़ते मनुष्य हो गया तो वह फिर तिर्यंच नहीं हो सकता है, चाहे जैसे पापकर्म क्यों न करे तो भी वह मनुष्य तो है ही, वहां वह जो सुखदुःख भोगता है वह सब कर्मानुसार भोगता है । जैन शास्त्रकार इस हकीकतके सम्बन्धमें कुछ और भिन्न हो बात बतलाते हैं । उनका कहना है कि "विकास और अपक्रान्ति साथ ही साथ है । अशुभकर्म करनेसे इस जीवका पतन होता है और यदि मनुष्य महापापात्मक कार्य करे तो पंचेन्द्रिय तिर्यच तो कहा रहा परन्तु एकेन्द्रिय जैसी अधम गतीमें भी चला जाता है । " इसप्रकार जैन शास्त्रकार आत्माकी शक्ति और उसका कर्मजन्य विकास, अपक्रान्ति और मोक्षकी प्राप्ति होने पर सर्व कर्मोका नाश होना मानते हैं ।
आत्मामें अनन्त शक्ति होनेसे यह सब कार्य वह स्वयं ही करता है। उसे उसमें किसीकी मदद, प्रेरणा या इच्छाकी आवश्यकता नही रहती है, परन्तु जो मदद या प्रेरणा होती है वह निमित्तकारणरूप है । इसकी भी कितनेक अंश तक ही आवश्यकता होती है और इसी हेतुसे इस ग्रन्थका प्रयास किया गया है। निश्चयनयकी अपेक्षाए प्रोत्मा कर्मसे निर्लेप है और यह ही उसका स्वभाव है। स्वर्णमें जैसे स्वर्णस्व तीनों कालोंमे भी रहता है, जब वह मिट्टीसे आच्छादित खानमें था तब भी उसमें स्वर्णत्व था और जब उसके