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समय देखना, जानना और स्थिरता रखना, यह प्रात्माके लक्षण हैं अथवा उन गुणों और प्रात्माका अभेद है यह शुद्ध दशा कर्मके कारण दबा दी गई है; आच्छादन हो गई है, ढक गई है-जैसे दीपकपर पर्दा डालनेसे उसका प्रकाश कम पड़ता है और अधिक पर्दे डालनेसे प्रकाश अधिक कम पड़ता है, परन्तु जब देखों तब अन्दर तो दिपक प्रकाशित ही है, एक मात्र पर्दोके हटानेकी श्राव. श्यक्ता है; इसीप्रकार आत्माके सम्बन्धमें भी समझे । इस पदको हटानेका कर्तव्य प्रत्येक प्राणीका है । जब ये कर्म तन दूर हो जाते हैं तब इस आत्माने मोक्ष प्राप्त कर लिया ऐसा कहा जाता है । एक वक्त सब कोके साथका सम्बन्ध छूट जाय और उसको मोक्ष प्राप्त हो जाय तो फिर उस आत्माको यहाँ फिरसे नही आना पड़ता है; इससे मोक्षका सुख अव्याबाध कहलाता है । जब तक यह जीव संसारमें है तबतक इसका स्त्री, पुत्र, घर, प्राभूषणपर ममत्वभाव है और कामक्रोधादिक करता है, यह सब विभावदशा है; परन्तु कर्मावृत्त स्थितिके कारण यह स्वभावदशा हो जाती है । परम वीर्यस्फुरणा करनेसे यह जीव अपना शुद्ध स्वभाव प्रगट कर सकता है । इस मनुष्य जीवनका मुख्य उद्देश सर्व कर्मोको तद्दन दूर करनेका अथवा ऐसा होना अशक्य प्रतीत होता हो तो कर्मका भार जितना हो सके उतना कम करना है अथवा अधिक स्पष्ट शब्दोंमें कहा जाय तो इसप्रकारका प्रयास होना चाहिये, क्यों कि इस कार्यकी फतहपर ही जिन्दगीकी फतहका श्राधार है। यदि कर्म और आत्मा दोनों पृथक पृथक न हों और इसका पूर्वभवके साथ सम्बन्ध न हो तो भिन्न भिन्न प्राणियोंमें जन्मसे दिखाई देनेवाला अल्प विशेष ज्ञानीपन, धनवान निर्धनपन शरीरका प्रारोग्य और रोगीपन, मानसिक स्थिरपन और अस्थि. रपन आदि अनेक भिन्नताओं और उनके अन्दरको तरतमताओंका खुलासा दूसरी ओर किसी भी प्रकारसे होना असंभव है । इसी. प्रकार यदि पुनर्जन्म न हों तो इस भवमें नीतिके नियमोंको अनुसरण करनेकी कोई भी लालच नही रहती है, केवल व्यवहारमें श्रेष्ठ दिखलाई देनेके लिये नीतिका देखाव करनेकी आवश्यकताके सिवाय अन्य कोई विशेष आवश्यकता ऐसा करनेके लिये बाध्य नही कर सकती है।