Book Title: Prakarana Ratnakar Part 2
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002166/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 南西北民的滿長車急出兩款 erreraseo299. 96666 Jain Educa 540707 ptetete 12460 श्री प्रकराग-ना धुरंधर सुविहित विविध विषयक नाग श जिनवचना मिहोदधिजन्य मी ज्ञ पूर्वाचार्य वचन तरंग बिंडरूप तरणाख्य ग्रंथोनी यत्किचित् संग्रह करीने श्री मुंबापुरीमध्यें 21 शा० नीमसिंह माणक नामाख्य श्रावके स्वामित्व विरहित ज्ञान वृ-पर्थ या पुस्तक उपावी प्रसिद्ध कर्तुं ते. शके १७९८ संवत् १९३३ पौष शुद्ध ३ सोमवार ता०१८ दिजमवर सने १८७६ ' निर्णयसागर " मुद्रायंत्रमां रा० रा० जावजी दादाजीये छाप्युं छे. आ पुस्तकनो सर्वप्रकारे सरकारना धाराप्रमाणे हक्क मालके स्वाधीन रायपोछे. ॐॐॐ 一開 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुररगितश्री निममरारा. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. या पंचमकाल समाप्तिना श्रवसरे बेला दूप्पसहनामा याचार्य थशे, तेमना नि वसुधी जिनधर्मरूप मानससरोवरना साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका ए चतु विध संघरूप चार धारा खुला रहेवा जोये. एवं परमेश्वरनु वचन बे. कदाचित काल ना प्रबल प्रभावथी कोई समये कोई यारो न्यूनता पाम्या जेवुं याय तोपण बाकीना चालु रहेला बीजा खाराने प्रजावे समय पाम्याथी ते खारो पण सुधरी जाय बे. च या समयमा पूर्वना समयना करतां घणी न्यूनता थई गएली दीगमां प्रावेले. तुर्विधसंघां साधु तथा साध्वी तो क्वचितज दीगमां यावेळे घने श्रावक तथा श्राविकाओ नुं पण अल्प अस्तित्व बे. तेयोनी ऊपरज धर्मवृद्धि व्याधार राखे बे. धर्म वृद्धि ज्ञाननी वृ दिथी थायले. माटे ज्ञान वृद्धि अवश्य करवी जोयेबे. ज्ञाननी वृद्धि ज्ञानना साधनोनी वृद्धि ऊपर आधार राखे. ज्ञाननां साधनो पूर्वाचार्य कृत ग्रंथोनो जीर्णोद्धार तथा य वलोकन, विद्याज्यास, उत्सुकता, धर्मप्रीति, अनिरुचि, तथा उद्योग प्रमुख बे. पूर्वाचार्यकृत ग्रंथोनो जीर्णोद्धार करणाथी ते समयना पंमितोनुं पांमित्य जाल्या मां प्रावे; मनुष्योनी धर्मकपर केवी रुचि हती ते जगायले. नूत कालथी ते घा वर्तमान कालसुधी वचगालामां धर्म तथा विद्वत्ता प्रमुखनी केटली अधिक न्यूनता थई बेते दीगमां यावे. पूर्वाचार्यो यति श्रम वेठी विद्यान्यास करी मोटा मोटा ग्रंथोनी रचना करता हता तेनो हेतु मात्र धर्मवृद्धि अथवा ज्ञानवृद्धि विना बीजो कांई द तो के गुं ते वात स्पष्ट देखाई खावे. ग्रंथनी रचना करवामां केवल परोपकार विना बीजो का पण स्वार्थ होयले के चुं ? ते कलाय बे. पूर्व कालना करतां हालना वखतमां विद्यायासनो उद्योग केटलो अधिक अथवा न्यून थयो ? ते जलाई यावे. इत्यादि बीजा पण घण हेतु दीगमां यावे. माटे अवश्य प्राचीन ग्रंथोनो जीर्णोद्धार करवो जोये. केमके, ए ज्ञानवृद्धिनुं मुख्य साधन बे. जो पुरातन ग्रंथोनो जीर्णोद्धा र नहीं था, तो कालांतरे विश्वेद थई जवानो संभव बे घने तेतुं यएलुं हाल दीगमां यावेळे, जुवो के हरिरिए चौद शे ने चुमालीश ग्रंथो कथा बे, ते बधानो जीर्णोद्धा र नही थयाथी ते माना केटलाएक ग्रंथोनो हाल पत्तो पण मलतो नथी, एवा बी जा पण नेक सुविहित श्राचार्योना करेला ग्रंथोनो शोध मली शकतो नथी तेनुं कारण पण एज बे. ते केटलुं लखिये ! यद्यपि मारुं एम कहेतुं नथी के व्याज दिवस सुधी को ईए ग्रंथोनो जीर्णोद्धार करयोज नथी, मोटा राजाउ तथा सडकारो वगैरे घणा ज्ञान Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमारा करी गयाने ते अद्यापि विद्यमान डे; अने तेथीज हाल केटलाएक पुरातन ग्रंथोनु थापणने दर्शन थायजे. तथापि मात्र दर्शन करवाथीज काई वलवा- नथी, प । योग्यरीते उपयोग कस्याथी कार्यसिदि थवानो संनवले. जेम पूर्व धर्मानिमानी रा जा वगैराउए ज्ञान नंमारा कस्याले तेम पाउल थयुं नथी. ए मोटी दिलगीरीनी वात ३. जो एवो चालज पडी गयो होत तो एके ग्रंथ विछेद गयो न होत बने थाटलो झाननी न्यूनता पण थई न होत. जुवोके, देरासरनो जीर्णोद्धार करवानो चाल पडी गयो तो तेनी संतति विजेद गएली देखाती नथी. तेमज ग्रंथोविषे चाल पडवो जोयेने. केमके ग्रंथोनो जीर्णोधार तो ज्ञाननी वृदिनु एक मुख्य कारण ले. दालना समयमां ग्रंथोनो जीर्णोद्धार करवाना जेवांसाधनो मलीयावे तेवां थाग ल कोई वखते पण नहोता. पहेला प्रथम ग्रंथोनो जीर्णोधार तालपत्र पर थएलो देखायडे, ने त्यार पढी कागल पर थयो रे ते अद्यापि सिम बे. परंतु ते हस्तक्रिया विना यंत्रादिकनी सहायताथी थरलो नथी. ने हाल तो मुझयंत्रनी थति उत्कृष्ट स हायता मली धावेने, तेनो उपयोग करवानुं मूकी दर्शने बालस करी बेशी रहेगुं तो ग्रंथो केम कायम रहेशे ? हाल विद्यान्यास करीने नवा नवा ग्रंथोनी रचना करवी तो एक कोरे रही, पण बतीशक्तिये पुरातन ग्रंथोनी रक्षा करवानो यत्न नही करमु तो आपणेज ज्ञानना विरोधी ठरलॅ. केमके जे जेनी रक्षा करे नही ते तेनो विरोधी अथवा अहितकर होय. ए साधारण नियम थापणी पर लागु पडशेः __श्रावक नाईयो, पुरातन ग्रंथोनो जीर्णोधार कस्याथी ते ग्रंथोनुं अवलोकन थशे, प्रयाशविना केटलोएक विद्यान्यास थशे, रस उत्पन्न थईने ज्ञान संपादन करवानी अंतःकरणमा उत्कंठा थशे. शु६ धर्म ऊपर प्रीति वधशे, अनिरुचि एट ले पुनःपुनः ज्ञान मेजववानी बा थशे, अने उद्योग प्रमुख सर्व ज्ञानना साधनोनो सहज प्राप्त थशे. उद्योग ए सर्व पदार्थ मेलववानुं अथवा वृद्धि करवानुं मुख्य साधन डे; परंतु अमस्ता उद्यमयीज कांई थई शकतुं नथी. तेनी साये इव्यनी पण सहायता जोये. इव्य जे जे ते सर्वोपयोगी पदार्थ जे. माटे इव्यवान पुरुषोए थव श्य ए काम ऊपर लद देवो जोयेजे. केमके, तेउनी ए फरज ने के, जेम बने तेम झाननी वृद्धि करवी जोयेले. ते याप्रमाणेः- सारा सारा पंमितोनी मारफते प्राचीन ग्रंथो सुधारी लखावी अथवा उपावीने प्रसिह करवा. तेनो नाविक लोकोने थन्या स कराववोः इत्यादिक शास्त्रोमां कह्या प्रमाणे सर्व प्रकारे छाननी वृद्धि करवी. एवा हेतुथीज में था ग्रंथो उपाववानुं काम हाथमां लीधुं बे, परंतु कोईनी सहायता विना स्वतंत्र मारी मरजी प्रमाणे ढुं ग्रंथो उपावी शकुं एवी मारीपाशे इव्यनी शक्ति नही Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवाने लीधे या प्रकरण रत्नाकर' नामर्नु मोटुं पुस्तक कहामवानी थागमज मारा स्व धर्मी नाश्योनी मने मदत लेवी पडी. सारा नाग्यजोगे योग्य रोते मदत पण मली यावी, तेथी या पुस्तकनो प्रथम नाग समाप्त करी ते गया जेष्ट मासमा प्रति कसो बने था बीजो नाग पण हमणा पूर्ण थयो जे तेथी दुं मने कतरुत्य समजुं . आ ग्रंथ प्रसिद्ध करवाने मुख्य मदत करनार शेठ. केशवजी नायकले. हरेक पदार्थने सम योग्यतावान वा अधिक योग्यतावान रक्षण करी शकेले एq बहुधा दीवामां आवेडे. जेम ग्रीष्म ऋतुना तापथी तप्त थएला पर्वतने मेघज रक्षण करेले, तेम ज्ञान- रक्षण ते उसम योग्यतावान पुरुषथोज थई शकेले. यद्यपि सकल चतुर्विध संघने ज्ञाननी रक्षा करवानो अधिकार , तथापि सर्वने तेवं सामर्थ्य होतुं नथी. माटे योग्यतावानज रक्षण करी शकेले. तेवी योग्यता कोई विरलानेज होय बे, केमके, बाह्य सर्व लदम्यादि समृधि बतां अंतरनेविषे जिन वचन श्रज्ञानरूप समू दि पण जोये . तेमांनी बाह्य समृद्धि तो घणायोने होय तेम बतां जिनवचन श्रमान दोतुं नथी तो तेनाथी कोई पण एबुं गुन कृत्य थई शकतुं नथी. तेथी बाह्य संपत्ति सहित प्रवचनश्रमान पण जोये . बाह्य उत्तम संपदा अने अंतर स्वधर्म निष्टा ए उत्कृष्ट पुण्यानुबंधीपुण्यनुं फल . ते कोईएकनेज होय . एनुं प्रत्यद न दाहरण आ वर्तमान विशतकरूप कालनेविषे श्रेष्ट केशवजी नायक जे. केमके, एवी योग्यतावान बीजो कोई पुरुष हाल दीवामां आवतो नथी. एओ बाह्य लदम्यादि सं पत्तियुक्त बतां अांतर धर्म सम्यक्त्व अज्ञानरूप अत्युत्तम संपत्तिए करीने पण युक्त ने. जेनेविषे पंच प्रतिरूप अंतराय कर्मनो क्ष्योपशम अाधुनिक सर्व संघ जनोना कर्तीय धिक दीवामां आवे एमना जेवू घातप नाम कर्म तो कोई नूपने पण क्वचित् उदय थयखं दृष्टि गोचर थशे! तेमज आदेय नामकमें, अंगोपांग नाम कर्म, यशः कीर्तिनाम कर्म,प्रमुख गुन प्रकृतिथोनुं एमणे एवो तो नत्कृष्टबंध कस्यो के, तेवो हाल दक्षानरत्ता ईमां कोई बीजानेविषे क्वचित् दीवामां आवसे एवा पुरुषने झुं अशक्य होय? थने कीयु कार्य करवाने समर्थन पाय ! अर्थात् सर्व कार्य करवाने शक्तिमान ले. पूर्वे थईगएला सं प्रति राजा तथा वस्तुपाल तेजपाल अने कुमारपाल प्रमुख महत् प्रनाविक पुरुषोनी पठे एमणे पण वर्तमान कालानुसार धर्म दीपनार्थ तथा स्वश्रज्ञान दर्शनार्थ श्रीथर्हदेवा लयो तथा अंजन शलाका प्रमुख उत्तम धर्म कृत्यो कस्यां जे; ते बधाोथी पण य . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्युत्तम ज्ञानवृधिनी उत्कंठा पूर्वक तउद्युक्त पुरुषोने अतिशय श्राश्रय दियेने; माटे नि श्चये करी एमने पूर्वनूत धर्म श्रमावान कुमारपाल राजा प्रमुखनी पंक्तिमा शासारूं न गणाय. किंतु तेमनी तुलना करे तेवाज . आ लखाणमां कोईए अतिशयोक्ति स मऊवी नही, पण निर्पक्षपात बुद्धिथी विचार कर। जोके, शेठ केशवजी नायक ए सर्व उपमाने योग्य बे के नही ! जुवो के अमे अंकित करवाने श्रारंन करेला था ए क लद संख्याक महत् चतुर्नागात्मक पुस्तकना अंकनीय खर्चनेविष एवी युक्तिथी आश्रय आप्योने के जेथकी केटलाएक लमयोछरित पूर्व गीतार्थोए करी रचित प्रकर गोनुं सुखरूप पुनः जीर्णोदार थई शकशे. माटे एमने जेटली उपमादैये तेटली योडीने. रानबहादूर बाबुसाहेब लदमीपति सिंदजी त्रपति सिंदजी. शेठ केशवजी नायकविषे लखता था प्रसंगे श्रीमक्दावाद निवासी स्वप्रांत नूप समान, लदम्यादि बाह्य अमित समृद्धि युक्त, उत्तम यशःकीति नाम कमादयवान, ज्ञान वृक्ष्युत्कंठावान अतिशय, प्रतापी. स्वधर्म दीपक, पूर्वोक्त पंक्ति अनिराजनीय, सर्व संघ तिलक नूत तथा श्रावक गुण सहित्यादि अपूर्व कत्यालंकार नूषित रामबहार नूपतिदत्त पदक धारक बाबुसाहेब लक्ष्मीपति सिंहजी बत्रपति सिंहजी पोताना नाम प्रमाणेज योग्यतावान होवाथी अधुना अनुपमेयज डे. __जस्टिस् आँत् धि पीसाख्य नूपतिदत्त पदक धारक शेठ केशवजी नायक तथा रा उबहाउराख्य नपतिदत्त पदक धारक शेत लक्ष्मीपतिसिंहजी बत्रपतिसिंहजी जेवा प्रना विक धर्म दीपक पुरुषो श्रावक मंमलने विषे हमेश उत्पन्नथता रहो; अने यावा ज्ञान वृद्धिरूप धर्मकृत्यो का रहो एवो थमारो अंतःकरण पूर्वक थाशिर्वाद दे. __ या ज्ञानवृद्धिक उत्तम कृत्यने सारो थाश्रय थापनार प्रनाविक पुरुषोनी पंक्तिमा शोनित, थपेक्षा तथा उपेक्षा रहित, सारासार ग्राहक, परम रहस्या , परोपकार म तिमान, करुणा, दया, कृपा तथा शीलादि गुनगुण युक्त, श्री वीतरागपद कमल मक रंद लालसाय भ्रमरायमान्, महात्मा सदृश मुनीमहिमा सागरजी तथा सुमति सागर जी; एमनो अत्यंत प्रार्थना पूर्वक अत्युपकार युक्त नाम स्मरण अत्र गुंथित करुं बुं. श्री मुंबईना श्रावक मंमलमांना श्रेष्ट हरनम नरसिंह; श्रेष्ट घेला जाई पदमसी, श्रेष्ट वर्षमान पुनसी, श्रेष्ट नोजराज देसल, एमणे झान वृद्धि विषयक पोतानी सारी उदारता दर्शावी ने माटे तेमना उपकार पूर्वक हुँ नाम गुंथित करुं बु. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श्रीमदाबाद निवासी परम ज्ञान प्रसारोयुक्त मतिमान स्वज्येष्ठ भ्राता तुल्य ल ी तथा गुण युक्त नूप दत्तक रायबाहादूर पद धारक बाबुसाहेब धनपति सिंहजी पति सिंहजी एमने पण पोतानी उत्कृष्ट ज्ञान वृद्धिक कृत्यने सारी उदारता दर्शावी बे तेथी तथा बीजो पण ज्ञान वृद्धिने यर्थे पुस्तक अंकित करवानो हमेश उद्योग चालुं राखेने तेथी यति सत्कार पूर्वक तथा मान्यता युक्त नामस्मरण गुंधित करूंबुं. श्री मुंबईना श्रावक मंडलमांना शेठ परबत लधा, शेव मूलजी देवजी, शेठ जादव जी परबत, सा. नोजराज नरपाल, तथा शेठ कीकानाई फूलचंद तथा शा. ठाकरसी देवजी rate to terश्रद्धान प्रमाणे या ज्ञानवृद्धिना कत्यने याश्रय श्राप्यो तेथ तेनुं उपकार सहित नामस्मरण ग्रंथित करूं बुं. श्री अहमदावादना श्रावक मंगल माहेला शेव दलपत नाई नगुनाई, तथा शेव मयानाई प्रेमानाई, एउनी ज्ञाननी प्रशस्ति थवानेविषे व्यति उत्कंठा जोईने मोटा थानार सहित नामस्मरण थित करूं बुं ; श्री सादवाला शेव साकलचंद दुकमचंद तथा श्री नरुचवाला शेव अनूपचंद मलु कचंद, एए पोतानी धर्मप्रभावना अधिक दर्शाववाने अर्थे ज्ञाननी वृद्धि थवा सारु जे उत्सुकता बतावी बे ते जोईने मोटा उपकार साथे नामस्मरण गुंथित करूं बुं. श्री कल मुदराना रहेवाशी शेव कस्तुरचंद सिंघजी पारेख एमनी अद्भुत धर्म प्री ति, वैराग्यता तथा ज्ञानवृद्धिनी अतिशय चाहना जोईने मोटा खादर पूर्वक था पु स्तनी साथै नाम गुंथित करूं बुं. साधुमंमल मार्गमार्गित संवेगी साधु वर्य, यति विवेकी, ज्ञान पीयूष बुजुत्सुक जिनप्रवचन श्रवण श्रद्धावान श्रावक जन मन कर्णने परमामृत रहस्य पान कराव नार; साधु गुण नूषणालंकृत; ज्ञानवृद्धि कर्त्ता पुरुषरूप वृक्षोने मेघवृष्टि समान धत्यु त्कृष्ट साधन नूत, महाराज श्री मूलचंड्जी तथा जवेर सागरजीना, नामस्मरण प्रेम पूर्वक गुंचित करूं कुं. साधु मंगलमां साधु गुण संपन्न, ज्ञानरूप सूर्यना प्रकाशने यावरण करनारा जे नाना प्रकारना संशयो, कुतर्कों, द्वेष, मान, ईर्षा तथा कुसंग प्रमुख वादल समूहरूप घनघटानो सम्यक् प्रकारे विध्वंश करवाने बलवान पवन समान ; धर्म तथा धर्मग ज्ञानादिकन वृद्धि करवाने पूर्वना अत्युत्तम सुविहित शास्त्रपारगु याचार्यादि आर्य जन तुलस्याद्वाद सैलीना जाए बहुधा पंजाबाख्य देश निवाशी संवेगी साधु श्री यात्माराम समान यात्मारामजी एमनुं प्रति नावपूर्वक नामस्मरण कुंचित करुंकुं. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगी साधु श्री नितीविजयजी महाराज एनो ज्ञान वृद्धि अर्थे सारो उद्योग होवाथी प्रथम नागनी पते नामस्मरण गुंथित करूं बं: संवेगी साधु साध्य वस्तु साधनोद्युक्त युक्त मतिमान जिनवचन समुमाथी जलद वत ग्रहीत धर्माकाशस्थित जलवृष्टि वत् झान वृद्धि कर्त्ता; संवेगी साधु गु६ सम्यक्त्व पदारथ, परम सुविहित सुसाधु मंगल माल प्रोहीत. ज्ञानादि शुद्ध जिनधर्मागति प्रयत्नवान. श्रीशांति सागरजी महाराजनुं नामस्मरण गुंथित करुंडं जन वृंद वंद्य अचल गन्हाचार्य नहारक श्रीविवेक सागर सूरि, एमर्नु पूर्वनागनी पठे नाम स्मरण गुंथित करुं बुं; मनुष्य पुंज पूज्य तप गहाधिपति जट्टारक श्री धरणेंइसूरि, एमर्नु नाम स्मरण गुंथित करुं बुं; श्री हुकमचंजी महाराज, में प्रथम नागमा नाम स्मरण गुंथन कयुं ने तेमज थो पण गुंथित करुं बुं.. प्रवचन रहस्य ज्ञाता, कोविद मतिमान, अनुत चपल वक्तृत्वशक्तियुक्त, स्वरूपसा गरवित् श्रीरूपसागरजीतुं नाम स्मरण गुंथित करूं ढुं; शुक्ष वीतराग परुपित, जिनधर्म विनति युक्त श्रीअहमदावाद नगर निवाशी सर्व श्रावक मंगल जन जूप समान अत्यंत लक्ष्मि संपत्तिवान पूर्वज परंपरा श्रेणि श्रागत श्रीमान उत्तम श्रदान सहवर्तमान तथा धर्मदीपक श्रेष्ट मयानाई प्रे मानाईनु नामस्मरण पुनः मुंथित करूं बूं. बीजा पण जे जे सहदिमान पुरुषोए धर्म प्रनावना दर्शाववा निमित्ते स्वसामर्थ्या नुसार ज्ञानवृद्धि हेतुथी जे उदारता दर्शावो ने तेयोनां नामस्मरणार्थ पुस्तकना अंत नेविषे गुंथित थशे. दमापना. प्रथम नाग मध्ये मतिदोषथी तत्वानुबोध नामनो ग्रंथ जे पृष्ट ७३१ थी ७५६ सुधीमा नाखवामां आव्युं वे ते स्थानकवासी रतनचंदनो करेलो बतां लखेली प्रतमा ते, न जणायाथी नूलथी पाई गयो ने. एटला माटे ढुं सर्व सुबुदिवान वाचको पाशे थी दमा मांगु बूं के अंकित ग्रंथना मुख पृष्टमां. सुविहित गीतार्थ रचित ग्रंथो ज नाखवानी में प्रतिज्ञा करेली ले तेने कोई दूषण थापशो नही. केम के, हरेक Jain Education Interational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम नूली थाय. ते क्षमा करवा योग्य ने ढुंढिया यद्यपि जिनधर्मी नामधरावना रातो पण जाते मूर्ख होय बे तेथी तेज जिनोक्त मार्गनी विपरीत परूपणा कर तादरता नथी एवात सर्व सुइ जनाने सम्मत बे माटे ते मूर्ख होवाथी गोतार्थ कहेवा नही तेथी ए ग्रंथ अवश्य जैन सैलीथी विपरीतजबे एवं जाली त्याग करवा यो ; कोई सुविहित गीतार्थकृत जाणीने वांचवो नावो नही ए वात हुं श्री ना वनगरमा साधु श्री श्रात्मारामजी महाराजने मलवा गयो हतो त्यारे तेमणे मारी पाशे कही ए रतनचंद यानकवासी साधे यात्मारामजी महाराजनो मलाप थयलो तो इत्यादिक बहुवात मे एमना मुखथी सांजलीने तेथी में घणो पश्चात्ताप करचो प पती याय ? माटे मूलथी मारी प्रतिज्ञामां में नूल कीधी तेनी मुनि श्री श्रात्माराम जी महाराजना उपकार सहित सर्व सतनो पाशेथी क्षमापना मागुं बुं. शा. जीमसिंह मालक. विनती. समस्त जैन धर्म रागी, नाना ग्रंथ विचार बुजुत्सुक, जिनवचन पीयूषपान कर्त्ता, श र चित्तवाला जनाने प्रति प्रार्थना पूर्वक विनति करूं बुं के, जेम जननी अथवा जनक स्वपुत्रना दोषविषे रंचमात्र विचार न करतां मात्र गुणनुंज ग्रहण करेबे. तेम कित पुस्तकने विषे कोईने कांई दोष दृष्टिगोचर थाय तो मऊ ऊपर रंचमात्र रोष कर वो नही. केमके, सर्व प्रकारे निर्दोषता एक केवलीविना बीजा कोईने विषे पण संजवे नही. एटला माटेज पूर्वे थई गयला महत् श्राचार्य प्रमुख श्रुतज्ञान पारग श्रत्युत्रु ष्ठ पंकितो पण स्वरचित ग्रंथोमां बुद्धि दोषने विषे क्षमा मागी गयजा दीगमां धावेळे; त्यारे याधुनिक साधारण जननी वात शुं कहेवी ? या पुस्तकनुं शोधन करतां मति दोष अथवा दृष्टिदोष अवश्य दीठामां यावशे; ते जोईने रोष न करतां क्षमा करवी. केमके, वांचता अथवा लखतां नूल थायज ने एवो नियम बे. एविषे जे गर्व करे ते मूर्ख कहेवाय. माटे ए विषेढुं सर्वं सत्पुरुषोनो विनय करंतु के, छापनी हंसना चंचू जेवी तिथी सारासार विचार पूर्वक जलरूप दोष निवारण करीने पयरूप गुं ग्रहण कर. अने सत् पुरुषोनो पण अधिक विनय करुं हुं के, थापनी काकना चंचू जेवी मतिवडे गुण तजाने दोषनुं ग्रहण करीने ते सुखेथी प्रसिद्ध करवो; तेथी ढुं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G मोटो उपकार मानीश ? केमके, जो दोष दर्शावनार नही मले तो दोष दीगमां केम यावे? गुणग्राहकनी क्षमारूप श्रमृत धाराथी यद्यपि गुलनी पुष्टी थायडे, तथापि दोष ग्राहकनी कुमतिरूप कुठार धाराथी बुद्धि बिन्न निन्न थने तेने प्रदोषता करवाविषे घणा प्रयत्नमां प्रवृत्ति थायले, तेथी तेनो पण उपकार मानवा योग्य बे. माटे सर्व सत न तथा कुष्ट पुरुषोनी विनति करूं बुं के, यथा स्वमति अनुसार गुणदोष विचार करीने मादिक कर. शा० नीमसिंद मालक. प्रार्थना. 1000000 या पुस्तक वांचनारा धने जणनारा प्रमुख सर्व ज्ञानना रागी घने विवेकी सुझ जनने प्रति नम्रतापूर्वक हुं याचना करूंतु के, या प्रकरण रत्नाकरमांना कोई प्रकर मां अंतरवृत्तिजन्य दोषथी, बाह्यदृष्टि दोषथी अथवा प्रज्ञान प्रक्रियाने लीधे कांई जैननी सैलीथी विपरीतता अथवा सांशयिक दीगमां यावे तो ते विषे कोप न करतां सर्व लखी लईने ते मने मोकलावी देवुं, के जेथी ते सुधारीने कोई प्रसंगे विरोधनो परिहार करवामां यावे. जेम के, प्रथम नागमां नाखेला उपमितिनवप्रपंचनी कथा मां सुंदरने अवधिज्ञान उत्पन्न यया पती घनंत काल निगोदमां रही धाव्यो ब तां ते सर्व वात स्मरणमां श्रावी बे. ए सांशयिक उक्ति बे; इत्यादिकनी पते ज्यां ज्यां दीगमां श्रावे त्यां त्यांथी लखी लईने जो बने तो तेना विवेचनसुद्धां अथवा एमज मने सूचना करवी एवढुं तेमनी प्रार्थना करूंतु, घने एम कस्याथी मोटो उपका रमान्यामां श्रावशे. शा० नीमसिंह माणक. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ प्रकरणरत्नाकर नामाख्य पुस्तकना बीजाभाग माहेला ग्रंथोनी स्थूल विषयानुक्रमणिका प्रारंभः ग्रंथोनुं नाम. १ श्री रत्नशेखरसूरिकृत श्रीकषन स्तुति गर्जित महिम्नस्तोत्र. २ श्री क्षमाकल्याणजीकृत विविधकाव्यचातुर्य युक्त चतुर्विंशतिजिनस्तुति ४ ३ श्री मुनिसुंदरसूरिकृत अध्यात्मकल्पद्रुमनामाग्रंथनी अनुक्रमणिका. ए अधिकार. १ साम्योपदेशाख्यः प्रथमोधिकार. २ स्त्री ममत्वमोचनोनामद्वितीयोधिकार... ३ पुत्रममत्वमोचनाख्यस्तृतीयो धिकार ४ धनममत्व मोचनोनामचतुर्थीधिकार ५ देहममत्वमोचनाख्यः पंचमोधिकार ६ विषयावशतोपदेश नामाख्यः षष्टो धिकार ७ विषयकषायद्यवशताख्यः सप्तमोधिकार शास्त्रागुणाधिकारोऽष्टम तदंतरगत चतुर्गत्याश्रिताधिकार ९ चित्तदमनानिधानो नामनवमोधिकार १० वैराग्योपदेशाख्योदशमोधिकार ११ धर्मशुद्धि उपदेशाख्य एकादशोधिकार १२ देवगुरुधर्मशुद्धिनामारख्यो द्वादशोधिकार १३ यति शिक्षा निधानोनाम त्रयोदशोधिकार १४ मिथ्यात्वादिसंवरोपदेशाख्यश्चतुर्दशोधिकार १५ गुनप्रवृतिशिदोपदेशाख्यः पंचदशोधिकार १६ साम्य सर्वस्वनामा षोडशोधिकार . .. २ .. पद्य ष्टष्ट. ३४. टष्ट. ४ G-- १९ २१ ܐܐ -6 २३ -- २५ - २७ २१-- ३० १६-- ३६ १७-- ४१ २६-- ४६ १४-- ५६ १७-- ६० ५--- ६६ २२-- ८२ १०- ‍ G-- ए३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ४ श्री शीतलनाथाष्टक पुतविलंबिताख्य वृत्त चतुर्पादावृत्ति युक्त मजूकचंड रचित .. .. .. .. .. .. । .. .. .. .. .. .. .. G-- ए६ श्री जिनस्तोत्र संग्रह, श्री कल्याणसागर सूरिकृत. ५ श्री माणिक्य स्वामि स्तोत्र विविध पद्यरचनात्मक . . .. .. .. १७-- ए७ ६ सूर्यपुरीय श्रीसंनव जिनस्तोत्र वसंत तिलकाख्य वृत्त गुंथित च । तुर्थी विनत्यंत पद ब .. .. .. .. .. .. .. .. .. ११- ए ७ श्री सुविधि जिनस्तवन पुतविलंबित वृत्तबह प्रत्येक पद सुविधि नाम युक्त .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. ... .. ६-- एज G श्री शांतिनाथ स्तोत्र पुतविलंबितवृत्तव वितीया विनत्यंत पद युक्त १३-- एए श्री शांतिजिनस्तोत्र विविध पद्यबद संबोधन पर्यंत अष्टविनक्ति दर्शक.. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. १५-- एए १० श्री अंतरिद पार्श्वस्तोत्र इंवत्रा वृत्त बह चतुर्थ पादावृत्ति युक्त. --१०१ ११ श्री गौडिक पार्थाष्टक शार्दूलविक्रीडित वृत्त बढ़ चतुर्थ पादा वृत्ति युक्त.. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. ११--१०१ १२ श्री गौडि पार्श्वनाथस्तोत्र नानाख्यवृत्त बम अनुत चमत्कृतियुक्त. १२-१०२ १३ श्री दादा पार्श्वनाथ स्तोत्र इंश्वजावृत्त बह चतुर्थ पादावृत्ति युक्त ए--१०३ १४ श्री कलिकुंम पाश्र्वाष्टक वृत्त बह चतुर्थ पादा वृत्ति युक्त .. ए-१०४ १५ श्री रावण पार्थाष्टक इंश्वजावृत्त बढ़ चतुर्थ पादावृत्ति युक्त. ए--१०४ १६ श्री गोडि पुर पार्श्व जिनस्तोत्र गायन पद्य बह रमणीय राग युक्त. १७--१०५ १७ श्री पाच जिन स्तोत्र तोटक वृत्तब वितीया विनत्यंत पदयुक्त १०--१०५ १७ श्री महुर पार्श्वस्तोत्र पुतविलंबित वृत्तबह चतुर्थ पादावृत्ति युक्त. १०--१०६ १९ श्री सत्यपुरीय महावीर स्तोत्र पुतविलंबित वृत्त बछ युष्मनन्द प्रथमैक वचन द्वितीय पुरुष यस् धातु वर्तमान काल दर्शक. २५--१०६ , , ,, ,, वृत्तबह युष्म शब्द चतुर्थ क वचन हीतीय पुरुष नम् धातु एक वचन वर्तमान काल दर्शक V-10 २१ श्रीलोडण पार्श्वनाथ स्तोत्र अनुष्टुप्तृत्त बदितीय विनक्तिदर्शक. १३--100 २२ श्री सेरीश पार्श्वनाथ स्तोत्र उपजाति वृत्तबह चतुर्थ पादावृत्ति युक्त. ए-100 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. २३ श्री संनवनाथ स्तोत्र उपजाति वृत्त ब६ चतुर्थ पादावृत्ति युक्तः --१०ए २४ श्री सूक्त मुक्तावली केशरविमलकृत मालिनी प्रति वृत्त बछ १ धर्म पदार्थ वर्ग. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. --११० ५ अर्थ पदार्थ वर्ग .... .. .. .. .. .. .. .. ३५--११६ ३ काम पदार्थ वर्ग . . . . . . . . . . . . . . . . .. .. २३-११५ ४ मोद पदार्थ वर्ग .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. ४३-११ २५ श्री शांतसुधारस ग्रंथ श्रीविनय विजय नपाध्यायजीकृत विविध गायनीयराग रचित पद्य बद अनित्यादि वादश नावना तथा मैत्रादिचार नावना मली शोल नावना विषय काव्यचमत्कृति युक्तः .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. १३७--१२४ २६ चतुर्विशति जिनस्तोत्र जिनप्रनसूरिकृत वृत्तबह काव्य चमत्कृति युक्त २-१ ७५ २७ थास्तिक तथा नास्तिक मति संवाद का नाम लुप्त विविध प्र श्रोत्तर युक्त गुर्जर नाषा गद्यब. .. .. .. .. .. .. --१७७ २७ सम्यक्त्वना सडसठ बोलनी सशाय श्रीयशो विजयजी उपाध्या यकृत गुर्जर नाषा गायनीय विविध ढालरूप पद्यबह.. .. ६ए--२१२ श्ए शृंगार वैराग्य तरंगिणी, सोमप्रनाचार्य विरचित नूतन काव्य च मत्कृति नपजात्यादि अनेक विध वृत्तारख्य पद्यबद्ध स्त्री शृंगार वर्णन मिशे वैराग्य दर्शक. .. .. .. .. .. .. ४५-२१७ विविधविषयिकस्तोत्र, जिनप्रनाचार्यकृत. २०-२४४ ३० श्री वीरजिनस्तोत्र थार्यावृत्तबह पंच वर्ग परिहारक काव्य चातुर्ययुक्त २६ --२४२ ३१ श्री गौतम स्तोत्र उपजात्यादि वृत्तबह पांमित्य युक्त .. .. .. १--२५३ ३२ श्री नेमिजिनस्तोत्र थार्या प्रति विविध जातीय वृत्तब अमि त चातुर्य क्रियालुप्त .. .. .. .. .. .. .. .. ... .. २३ श्रीवर्धमान जिनस्तोत्र इंश्वजा प्रमुख विविध वृत्त नाम श्लेषा र्थ गर्नित काव्य पांमित्य सूचक .. .. .. .. .. .. .. २५--२४५ ३४ श्री चतुर्विंशति जिनस्तोत्र पुतविलंबित वृत्त चतुर्थ पादांतरगत सदृश वर्णावृत्तिरूप यमक नामक शब्दालंकार श्लेषादि गनित २५--२३७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ३५ श्री पंचकल्याणिकमय महावीर जिनस्तोत्र वृत्त बह लाटानुप्रासा द्यनेक काव्य कलायुक्त .. .. .. . .. .. .. .. .. २६-२४ए ३६ श्रीमंत्र स्तोत्र अनुष्टुप्तृत्त ब६ परम रहस्यार्थ गर्मित मंत्ररूप --२५१ ३७ श्रीवईमानजिनस्तोत्र उपजातिवृत्तबह विविधालंकृत शब्द लालित्ययुक्त ए-२५१ ३७ श्री पार्श्वजिनस्तोत्र उपजाति वृत्त ब६ प्रतिपद पंचादर पुनरा वृत्ति रूप सिंहावलोकन युक्त .. .. .. .. .. .. .. .. --२५१ ३॥ श्री पार्श्वजिनस्तोत्र उपजाति वृत्त ब६ पादांत समचतुरदर पुन रावृत्तिरूप यमकालंकार युक्त .. .. .. .. .. .. .. .. --२५२ ४० श्री नंदीश्वर कल्प अनुष्टुप वृत्त बद्ध काव्यसरलत्व अर्थ गौरवयुक्त --२५२ ४१ श्री शारदास्तोत्र नपजातिवृत्त बम क्वचित् समपाद पुनरावृत्ति क्वचित् विषमपाद पुनरावृत्तिरूप एक चतुर्पादरूप यम कालकारयुक्त .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. १३-२५४ ४२ श्री जिनसिंहसू रिस्तोत्र उपजाति वृत्त बम क्वचित् समपाद पुनरावृत्ति क्वचित् विषम पाद पुनरावृत्ति एक चतुर्पादरूप यमकालंकार युक्त.. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. १३-१५५ ४३ श्री पंच नमस्कृति स्तोत्र अनुष्टुप वृत्त बम अनुत आशय युक्त ३३--२५६ ४४ श्री वीरस्तोत्र अनुष्टुप वृत्त बम प्रत्येक पद्ये सम समपाद पुनरावृत्ति रुप यमकालंकार युक्त .. .. .. .. .. .. .. .. .. १३--२५७ १५ श्री आदि जिनादि स्तोत्र अनुष्टुप् वृत्त बम प्रत्येक पद्ये सम स मपाद पुनरावृत्तिरूप यमकालंकार युक्त . .. .. .. .. २७-२५७ ४६ श्री पार्श्वप्रातिहार्य स्तोत्र स्वागता वृत्त बम प्रत्येक पद्ये समसम पाद पुनरावृत्तिरूप यमकालंकार युक्त .. .. .. .. .. १०-२५ए ४७ श्री कल्याण पंचक स्तोत्र वंशस्थ वृत्त बद साधारण काव्य रचना युक्त -२६० ४ श्रीवीर जिनस्तोत्र सहरण प्रयोगमय उपजाति वृत्त ब६ व्याकर ना प्रयोगना मिशे जगवंतना लहाण नक्ति युक्त .. .. १७--२६० ४ए श्री वीतराग स्तोत्र उपजाति वृत्त बद क्वचित् पादांतगत कचित् पादांतस्थले दयादि अदरावृत्तिरूप यमकालंकार युक्त .. १६-२६१ ५० श्रीचंप्रनस्वामि स्तोत्र अनुष्टुप वृत्त ब६ सम समपाद पुनराव तिरूप यमकालंकार युक्त .. .. .. .. .. .. .. .. ४-२६२ ५१ श्रीषनदेव स्तोत्र आदि वृत्त बम विविध नाषा रचना चम Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिकाः रुति युक्त तथा संस्कृत, प्रारुत, मागधी, पैशाची. चलिका पैशाची, शौरसेनी, समसंस्कृत ने अपभ्रंश निन्न निन्न अने मिश्र कविनाम गर्न चक्र युक्त .. .. .. .. .. .. ... ४०-२६३ ५२ श्री महावीरस्तोत्र विविध वृत्तब अत्युत्तम चित्रादि काव्य चम कति युक्त यथा प्रतिलोमानुलोमपाद, अनुलोम प्रतिलोम, घईप्रतिलोमानु लोम, थईनम, मुरजबंध, गोमूत्रिका, सर्व तो नइ, रथपद, यदपाद, एकादरपाद, एकादश्लोक, थसंयोग, वान्यां खड़ संदानितकं, मुसल, त्रिशूल, हल, धनु ष्य, शर, शक्ति, अष्टदल कमल, षोडशदल कमल, स्तुत्यना मगर्न बीजपूर. हर, कविकाव्य नामक चक्र, तथा चामरबंध. ५३ श्री जीरापन्निपार्श्वस्तोत्र स्वागतावृत्तब विषम पदांत समपदाद्य त्र्यदर पुनरावृत्तिरूप सिंहावलोक काव्ययुक्त .. .. .. .. १५-१६ ५४ श्री फलवाई जिनस्तोत्र थार्यावृत्तब प्रत्येक पद्या चतुरक्षा रमक त्रयावृत्तिरूप यमकालंकारयुक्त .. .. .. .. .. .. १५-१९ए ५५ श्री चंप्रन स्वामिस्तोत्र मौक्तिक दामादिवृत्तबह षट्नाषा रच ना चमत्कृति युक्त यथा संस्कृत, प्राकृत, शोरसेनी, मागधी, पैशाचिक, चूलिका पैशाचिक, अपभ्रंश .. .. .. .. .. १२-२६ए ५६ श्री वर्षमान निर्वाण कल्याणक स्तोत्र स्वागतावृत्तबद्ध सर्वोत्कृष्ट वर्णन युक्त .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. १०-२७१ ५७ श्री धरनाथस्तोत्र पंचदश केवलादर पद्यबर अभुत रचना युक्त १४--२७२ ५७ आध्यात्म मतपरिदानाम ग्रंयनी स्थूलविषयानुक्रमणिका. ७३ थाध्यात्मना चार प्रकार देखाडीने तेमा मात्र नाम श्रध्यात्मिजे दिगम्बर लोक तेमना मतनुं निवारण करतां नावाध्यात्मन स्वरूप दर्शावतां तथा साधुने वस्त्र पात्र उपधिप्रमुख ते सिम ताना हेतुने एवं अनेक दृष्टांतो सहीत प्रश्नोत्तररूपे सिमांतसै लिये प्रतिपाद्युठे तेने प्रसंगे ध्याननु स्वरूप स्थविरकल्प जिनकल्प तथा अपवाद उत्सर्ग इत्यादि .. .. .. .. .. १७३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनुक्रमणिका. Traष्ट अध्यात्मनी प्राप्ति यवानां कारणो निश्चय व्यवहार न या वाद सहित मध्यस्थपणे प्रमाण वादीनुं मत लावी उत्कृष्ट अध्यात्मनी प्राप्ति दर्शावीबे केवली कवलाहार अवश्य करे एवी स्थापना युक्तिपूर्वक सि सैलिये बतावी बे केवल कवलाहार करता बता कृतकृत्यज बे ३०२ ३२१ षट्कारकनुं स्वरूप .. सिद्धना पन्नर नेद ३३२ .. ३३२ स्त्रीलिंगे सिद्धता दिगम्बरीच नथी मानता तेने दूषण ग्रंथनुं परम रहस्य ३३३ ३ ३७ ५० श्री समयसार नाटक नामाख्य ग्रंथनी स्थूल विषयानुक्रमणिका. ३४५ श्री पार्श्वनाथ, सिद्ध भगवान, साधु, घने सम्यकदृष्टीनी स्तुति, मिथ्यादृष्टि वर्णन, मंगलाचरण, श्रात्मइव्य वर्णन, ग्रंथगी रवता, कवीनुं साम्यर्थ, ग्रंथ महिमा, अनुभव लक्षण, तथा महिमा, षड्व्य नव तत्व वर्णन, नाम माला, या ग्रंथमां क देवा लायक द्वादशानां नाम; ग्रंथारंजनो मंगलाचरणरूप नमस्कार, श्रात्म वर्णन, भगवाननी वाणीने नमस्कार १ जीवधार वर्णन २ अजीव द्वार अधिकार ३ करता क्रिया कर्मनो द्वार ४ पुन्य पाप एकत्वी कथन चतुर्थ द्वार ५ अध्यात्मना अधिकार सहित श्राश्रव द्वार ६ संवर द्वार ७ निर्झरा द्वार ८ बंध तत्वना धारना प्रबंधनो अधिकार मोक्षदार १० सर्व विशुद्धिद्वार.. ११ स्याद्वादनामा हारनी अंतर्गत ग्रंथमहिमा तथा नवरस :::: :::: Iსო .. ३४५ ८६-३६२ १४ -- ३७९ ३५-३८४ १६-४०० १६-४०७ ११- ४१२ ६१-४१६ ६८--४३८ ५३-४६२ २८-४७९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. वर्णन ने चतुर्दश नय इत्यादिक प्रनेक विषययुक्त १२ साध्य वस्तु ने साधक वस्तुना स्वरूपनो द्वार कवी अमृतचंद याचार्यनी घालोचना तथा बनारसी दासें जिन प्रतिमानी स्तुति करी तथा वणारसीदासनी पोतानी कथनी. चनद गुणस्थानक स्वरूप तेमां चोथा गुणस्थानकमां का यिकादि सम्यक्त्वनो स्वरूप तथा पांचमा गुणस्थानकमां श्रावकनी एकादश प्रतिमानुं लक्षण ६० सम्यक्त्वस्वरूप स्तवग्रंथनी स्थूल विषयानुक्रमणिका. १ सूत्रकारनी गाथा तथा सम्यक्त्वप्राप्तिनी प्रगाव जेवी जी वनी अवस्था होय तेनो विवरो २ सम्यक्त्व प्राप्तिनो उपाय ग्रंथि भेदवानी रीत ४ निवृत्ति करणे गयो थको जीव जे कर्त्तव्य करे ते कर्त्तव्य ५ सम्यक्त्वना भेदनो विवरो ... ६ कारकादि सम्यक्त्वनां लक्षण ७ कर्म ग्रंथनी सैलिये उपशम सम्यक्त्व प्राप्तिनो उपाय पांच सम्यक्त्वनो काल... ए दश प्रकारनी रुचिरूप सम्यक्त्व...... १० सम्यक्त्वना सडसठ नेद विशुद्ध व्यवहारथी .... ६१ षष्टीशतक नामक ग्रंथ नेमीचंद जंमारीकृत ए ग्रंथ शुद्ध मार्गानु सारीखाने जणवा वांचवा तथा सांजलवा लायक विचित्र न पदेशे करी युक्त .. ६२ संयम श्रेणीनुं स्तवन पंमित उत्तम विजयजीकृत ६३ लोकनाल द्वात्रिंशिका .. ६४ सम्यक्त्व विचारगर्भित महावीर जिन स्तवन. —◇8-(14) 388 उपशमादिक सम्यक्त्वना भेद सविस्तरपणे तथा सम्यक्त्व पामवा यथा प्रवृत्यादिक ऋण करणनुं स्वरूप इत्यादि. नो उपाय १५ ४१--५१३ ५२-५२८ ---५४४ ८--५४६ Այց ५७७ ԱԵԱ एन्ट ५० ५३ ५६ ६०१ ६०० ६१२ ६१८ ६५६ ६ ७२० ७३७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ ७५७ ७७४ ७७७ gruo अनुक्रमणिका. पांचसम्यक्त्वना स्थितिकालमानादिक तथा गुणगाणा .. .. उपशम श्रेणी तथा पकश्रेणीनुं स्वरूप........... आठ नेदे पुजल परावर्त .... .... .... .... .... .... काय स्थितिविचार .. .. .. .. .. .. .. .. सप्तनंगीतुं स्वरूप .... .... ..... .. .. .. ६५ षड्व्य विचार नामाग्रंथ चर्चकरूपे. -~rpec~सिचना पन्नर नेद तेमां दिगम्बरीयोना मत खमन पूर्वक स्त्री लिंगनी सिता बतावी .. .. .. .. .. .. .. .. अजीव इव्य विचार तेमां दिगम्बरोनी चर्चा पूर्वक पुजल _ व्यनो विचार सिह कयुंडे .. .. .. .. .. .. .. चार प्रकारना अनाव .. .. .. .. .. .. .. .. .. नय निक्षेप स्वरूप .. .. .. .. .. .. .. .. मोद प्राप्तिनुं क्रम .. .. .. .. .. आत्म प्राप्ति विधि .. .. .. .. .. सम्यक्त्वीना श्रावगुण .. .. .. .. सम्यक्त्वी सोहं बीजध्यावे तेनो अर्थ ... .. पए : : : : : : : : : : : : ७६ Gog G१० १२ G१२ १४ .१५ B Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ श्री महिम्नस्तोत्रप्रारंनः॥ महिम्नः पारं ते परमलनमाना अपि विनो नवंति स्तोतारः समवसतिन्मो समु दिताः ॥ यदिंद्यास्त्वां तनिषननत्या स्तवयतो ममाप्येष स्तोत्रे हर निरप वादः परिकरः ॥ १॥ स्वरूपं चिपं किमपि तदरूपं नगवत श्चतूरूपा ब्राह्मी | यदि गदितुमीष्टे न नवतः ॥ ततः कस्य स्तुत्यं किमुपममिदं कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥ २॥ या ॥ पदं शैवं केचित्परमम नपेदादयसुखं स्तुवंति त्वां राज्यादिकपदकते मंदमतयः॥ नवे तत्वार्थे रतिर | तितरां नैव नवतः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥ ३ ॥ गुणाना मानंत्यादविषयतया वाङ्मनसयो न शक्या तत्वझै रपि तव विधातुं स्तुतिरियम् ॥ जवन्नामोच्चारात्पुनरपि ममैतां निजगिरं पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथनबुर्व्यिव सिता ॥ ५ ॥ यक्ष ॥ जटालंकारालंकृतमथ तृषांकं च नगवन् पुनानं विश्वं त्वां प्रथमजिन मत्वा किमु ततः ॥ जटां धृत्वा श्रित्वा वृषमहमपि क्ष्यातलमिदं पु नामीत्यर्थेऽस्मिन्पुरमथनबुझिर्व्यवसिता ॥ ५ ॥ न कोपस्याटोपः स्वरिपुषु न च स्खे प्वपि तथा प्रशांति! कांतादिकपरिकरः कश्चिदिति ते ॥ त्रिलोक्यामालोक्याप्यह ह परमां प्रारजरमां विहंतुं व्याक्रोशी विदधत इहैके जडधियः ॥ ६ ॥ ध्रुवं कश्चि स्कर्ता निखिलनुवनस्यापि स पुन विनित्यश्चैकः सतनुरतनुर्वा स्ववशतः ॥ स्वयं सिन्यस्मिंस्तव मतमनाप्तान् हतधियः कुतर्कोयं कश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥ ७ ॥ विगुप्तैरागाद्यैरपि नवति किं सर्वविदहो विना वा सर्वज्ञ ननु जिन किमाप्तो |पि स च किम् ॥ त्वदन्योपि क्वापि त्रिजगति बताप्तस्व विषये यतोमंदास्त्वां प्रत्यमर वर संशेरत इमे ॥ ॥ त्वमेवाईन बुधोजगति परमेष्ठी च पुरुषो तमोलदम्या ना स्वान्विबुधगुरुरादीश्वर इति ॥ विनो नानादानिः समविषममार्गेषु चरतां नृणामे कोगम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥॥ प्रसादाते पुत्रा विषयसुरवसाम्राज्यमनजन् न के वा सेवातस्तव नवनवाम्रधिमगमन् ॥ तृणे स्त्रैणे स्वर्णे दृषदि च सदृक्षः पु नरहो न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्मा भ्रमयति ॥ १० ॥ नवन्ततादृदातिशय महिमेदावशसमुद्भवद्भक्तिव्यत्या रणरणकितांतःकरणतः॥अधीरप्युद्युक्तोखिसजग दशक्यं स्तवमपि स्तुवन् जिन्हेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ ११ ॥ न श स्यौ कस्यास्तां नमिविनमिपत्ती जिनपते त्वदेकस्वामित्वाकमकमलसेवासु रसिकौ ॥ प्रसादात्ते विद्याधरपतितति यत्सविनयं स्वयं तस्थे तान्यां तव किमनुत्तिर्न फल ति ॥ १२ ॥ तदा विद्याः प्राप्य ध्रुवमखिलविद्याधरमहा स्वयं प्राउ ष्य प्रथमम Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिम्नस्तोत्र. थ वैताढ्य विजुताम् ॥ यदेतो उस्साध्यौ सुरनरवराणामनजतां स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रि पुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥ १३ ॥ अथावाप्तेश्वर्य मदनमदविध्वंसि च महाव्रतित्व सर्वज्ञत्वमसमविनूतिश्च परितः ॥ शिवासंगश्चंगः सततमिति नो कस्य कृतिनः स्थि रायास्त्वनक्तस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥ १४ ॥ विवाहादौ नेतुर्मुद्रुपकतो विप्र तिनवं त्वया पारंपर्यागतपरिचयान्मोहचरटः ॥ तथा दूरं नष्टः क्वचिदपि यथाकेव लकलाप्रतिष्टा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥१५॥ निजा स्पर्धालुर्नरत विनुरासीन्मघवता यदाऽपत्तस्यासिनमथ सुखं केवलरमाम् ॥ तदेतस्मिन्सर्व तव पदविनने समुचितं न कस्याप्युन्नत्यै नवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥ १६ ॥ निनंसा यां पूर्व कमजगणत्वां नरतराट् समं चक्रेणाहो तदिह विषयाणां विषमता ॥ यदे तस्यार्चात्र प्रमितफलदैवाशिवसुखं न कस्याप्युन्नत्यै नवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥ १७ ॥ प्रनो त्वत्पुत्रस्यातुलबलवतो बाहुबलिनस्तपस्तीवं तादृक् शरदवधिमानाद पि कृतं ॥ निदानं ज्ञानस्य ध्रुवमनवदाश्चर्यमथवा विकारोपि श्लाघ्यो जुवननयनंग व्यसनिनः ॥ १७ ॥ न सुत्रामा यत्र प्रनवति विधातापि न विनुः स वैकुंठः कुंतः किमपि न नवश्वानवदलम् ॥.जिगीषुः स त्वामप्यपरसुरमहुम्मेतिरनूत् स्मरः स्म तैव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिनवः ॥ १५ ॥ प्रयुंजानः स्वामिन्स्वयमखिलशि व्पान्यसुमतां कलाः पुंसां स्त्रीणामपि च सकताः क्ष्यापतिरपि ॥ कुलालादींस्तांस्ता न् दणमपि नयन् शिक्षणविधौ जगदायै त्वं नटसि ननु वामैव विनुता ॥२०॥ प्रनो तैस्तैः सारैरणुनिरखिलेश्चामरवरैः कृतं रूपं सर्वोत्तमसुरखगमंगुष्ठकमितम् ॥ त्वदंगुष्टस्याये गुनति किल नांगारकश्वेत्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः ॥२१॥प्रजाः प्राज्यं राज्यं स्थविरजननी स्वस्य तनुजांस्तपस्यन्नासत्तावपि च विहरन्बा | दुबलिनः ॥ उपेदिष्ठा आत्तव्रतनपसहस्राश्च चतुरो विधेयैःकोडंत्यो न खलु परतंत्राः प्रधियः ॥ २२ ॥ यदा नो रत्नानां त्रयमखिलदौर्गत्यहरणं निदानं संपत्तेस्त्रिनुवनज नानामनुदिनम् ॥ नवान् योगमावपि विरचयन्मन्मथजये त्रयाणां रायै त्रिपुर हर जागर्ति जगताम् ॥ २३ ॥ यथा पूर्व मुग्धास्तवसउपदेशाद्युगलिनः सदा स्वामि नीशाजनिषित सदाचारचतुराः॥ तथा कस्कः संप्रत्यपि न विशदेषु त्वदितश्रुतौ श्र कां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥ २४ ॥ तपस्तीव्र ब्रह्मव्रतनियमनिष्ठा बहुवि धाः क्रियाकष्टास्टष्टा अपि जिनप उष्टाशयतया ॥ त्वदाज्ञावज्ञायां नियतमहिताये व नविनां ध्रुवं कर्तुःश्रमाविधुरमनिचाराय हि मखाः॥ २५ ॥ कमानृन्मुख्याः के नियतमधिमात्रानपि सदा स्वयंस्थान शास्त्रौघान्नदधतितरां यस्य हतये ॥ अविघ्नं तं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगादिदेवस्तुति. निघ्नन्नसमसमयस्तामसमृगं त्रसंतं ते ऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरनसः ॥ २६ ॥ परिघ्राम्य क्लेशार्जितमपि सहस्रेण शरदा मदाश्चिाजत्वं सपदि मरुदेव्यै तदपि चेत्॥ प्रनो निस्नेहं सा व्रतसमयसर्वावगणनादवैति त्वामा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥ २७ ॥ महानंदे यद्यप्यसि जिन दवीयस्यपि पदे न रुष्टस्तुष्टश्च त्रिभुवनजनेषु क्व चिदपि ॥ नवन्नाम स्वामिन्स्वमनसि महामंत्रमनिशं तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २७ ॥ प्रनो प्राणायामान्यसनरसिकत्वानिजमनः समाधावाधाया खिल विषयतोदाणि युगपत् ॥ तं प्रत्याहत्य स्थिरनिहितनासाग्रनयना दधत्यंत स्तत्वं किमपि यमिनस्तत्किल नवान् ॥१ए। सुरपुः खः कुंनस्त्रिदशसुरनिस्त्वं सुरम णिः पिता माता नाता विनुरपि सुहत्त्वं च सुगुरुः॥ परात्मा ब्रह्मापि त्वमसि पर मं दैवतमतो न विद्मस्तत्तत्वं चयमिहहि यत्त्वं न नवति ॥ ३० ॥ अकाराद्यैर्वणे स्त्वयि परिणतान् पंच परमेष्टिनः स्पष्टं पंचाक्षररचनया नामिनिगदन् ॥ कलाना दव्यक्तं किमपि परमब्रह्मविषय समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥३१॥ नरागाद्यैर्यस्तो न पुनरनुकंप्योमदपरः कृपालु स्त्वत्तोन्यो न जगति न तेन्यःपुनरलम्॥ स्वयं तैरत्याः किमितरसुरैश्चेति विमृशन् प्रियायास्मैधान्ने प्रविदतनमस्योस्मि जवते ॥३२ नमो नासक्ताय क्वचिदपि विरक्ताय च नमो नमः संबुदाय प्रशमद मरुदाय च नमः ॥ नमः सर्वज्ञाय स्मरणपरतद्भाय च नमोनमः सर्वस्मै ते तदि दमितिशय च नमः ॥३३॥ दलितरजसे शश्वविश्वार्चिताय नमोनमः प्रहततम से श्रीसर्वज्ञाधिपाय नमोनमः॥जनहितकते तुल्यं सत्वाधिकाय नमोनमः प्रमहसि पदे निस्वैगुण्ये शिवाय नमोनमः ॥३४॥ कुसुमबटुरिवाहं तवतो किंचनाई कतिनि हरसि कंठे वा गुणत्वादधार्यम् ॥ जिनवर जिनहर्षोत्कर्षतोकार्षमेवं वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारं ॥ ३५ ॥ प्रांशुश्रीसोमवंशेऽजनिषत मुनयोमौक्तिकानीव शुभास्ते प्वप्येकावली च प्रगुणगुणवती श्रीमदाचार्यपंक्तिः ॥ जीयाज्यं यदूनामिव गुरुज यचंशव्हयश्रीमुनींइस्तस्यामप्येष चिंतामणिरुचिररुचिर्नायकः कृष्णदेवः ॥३६ ॥ निहितचरमपादं श्रीमहिम्नः स्तवस्य त्रिनुवनमहितस्य श्रीयुगादीश्वरस्य ॥ चमरश्व सदा तत्पादपद्मोपजीवी रुचिरमलघुरत्तैः स्तोत्रमेत यधत्त ॥३७॥ एवं शारदसो मसुंदरयशःस्तोमं युगादीश्वरं चेतोनूजयचंमौलिनिरनिष्ठुल्यान्वहं योगिनिः॥ज्ञानं प्राप्य विशालराजसदृशल्हादं समाश्रीयते मुक्त्यै मूईनि रत्नशेखररमा ब्रह्मैकतेजो मया ॥३०॥ इतिश्रीयुगादिदेवमदिन्नः स्तोत्रं संपूर्णम् ॥ - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ अथ दमाकल्याणजीकृत चतुर्विंशतिजिनस्तुतिप्रारंनः ॥ शार्दूल विक्रीडितबंदः ॥अथ षनस्तुति प्रारंनः॥ समक्या नतमौलिनिर्जरवरघ्राजि मुमौलिपना संमिश्रारुणदीप्तिशोनिचरणांनोजक्ष्यःसर्वदा ॥ सर्वज्ञः पुरुषोत्तमः सुच रितो धर्मार्थिनां प्राणिनां नूयारिविनूतये मुनिपतिः श्रीनानिसर्जिनः॥१॥सदो धोपचिताः सदैव दधताप्रौढप्रतापश्रियो येनाज्ञानतमोवितानमखिलं विक्षिप्तमंतः एं॥ श्रीशत्रुजयपूर्वशैलशिखरं नास्वानिवोजासयन् नव्यांनोजहितः स एष जयतु श्रीमारुदेवप्रनुः॥॥ योविज्ञानमयो जगत्रयगुरुयं सर्वलोकाश्रिताः सिध्येिन वृतास मस्तजनता यस्मै नतितन्वते॥यस्मान्मोहमतिर्गता मतिनतांयस्यैव सेव्यं वचो यस्मि विश्वगुणास्तमेव सुतरां वंदे युगादीश्वरं॥३॥अथ यजितस्तुतिःप्रारंनःमालिनीबंदः॥ सकलसुखसमृदिर्यस्य पादारविंदे विलसति गुणरक्ता नक्तराजीव नित्यं ॥ त्रिनुवनज नमान्यः शांतमुज्ञनिरम्यःस जयति जिनराजस्तुंगतारंगतीर्थे॥१॥प्रनवति किल नव्यो यस्यनिर्वनेन व्यपगतरितोघः प्राप्तमोदप्रपंचः॥ निजबलजितरागद्वेषविदेषिवर्ग | तमजितवरगोत्रं तीर्थनाथं नमामि ॥ ॥ नरपतिजितशत्रोर्वशरत्नाकरेंः सुरपतिय तिमु ख्यक्तिददैः समर्म्यः॥ दिनपतिरिव लोकेऽपास्तमोहांधकारो जिनपतिरजितेशः पातुमां पुण्यमूर्तिः॥३॥ अथ संनवस्तुतिः॥स्त्रग्धराबंदः॥ यतया सक्तचित्ताः प्रचु रतरनवज्रांतिमुक्ता मनुष्याःसंजाताः साधुनावोन सितनिजगुणान्वेषिणःसद्यएवास श्रीमान्संनवेशःप्रशमरसमयोविश्व विश्वोपकर्ता सद्भः दिव्यदीप्तिः परमपदलते से व्यता नव्यलोकाः ॥ १॥ शुक्लथ्यानोदकेनोज्वलमतिशयितस्वबनावानुतेन स्वस्मादा हत्य वृत्तं शिवपदनिगम कर्मपंकप्रपंचानीरं, दूरयित्वा प्रकृतिमुपगतोनिर्विकल्पस्वरू पः सेव्यस्तायध्वजोसो जगति जिनपतिर्वीतरागः सदैव॥२॥ वाझे विद्योतिरत्नप्रकर श्व परिचाजते सर्वकाले यस्मिन्निःशेषदोषव्यपगमविशदे श्रीजितारेस्तनूजे ॥ प्रा पो उष्टसत्वैः स्फुटगुणनिकरः शुबुझिदमादिः कल्याणश्रीनिवासः स नवतिवद ताऽन्यर्चनीयो न केषां ॥३॥ अथ अभिनंदनस्तुतिप्रारंजः ॥ पुतविलंबितबंदः॥ विश दशारदसोमसमाननः कमलकोमलचारुविलोचनः॥ शुचिगुणः सुतरामनिनंदन ज य सुनिर्मलतांचितनूघन ॥ १ ॥ जगति कांतहरीश्वरलांजितकमसरोरुह कामरुपा निधे।मम समोहितसिदिविधायकं त्वदपरं किमपीह न तर्कये ॥ २॥ प्रवरसंवर सं वरनूपतेस्तनय नीतिविचक्षण ते पदं॥शरणमस्तु जिनेश निरंतरं रुचिरनक्तिमयुक्तिन तो मम ॥३॥ अथ सुमतिस्तुति प्रारंनः॥ तवज्जाबंदः॥ सुवर्णवर्णो हरिणासव - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिजिनस्तुति. यो मनोवनं मे सुमतिर्बलीयान् ॥गतस्ततो उष्टकुदृष्टिरागझिपें नैव स्थितिरत्र कार्या ॥१॥जिनेश्वरो मेघनरेंड्सनुर्घनोपमो गर्जति मानसे मे॥ अहो गुरुदेषदुताशन त्वा म सौ शमं नेष्यति सद्यएव ॥ २ ॥इतः सुदूरं व्रज उष्टबुझे समं उरात्मीयपरिबदेन ॥ सु बुद्धिना सुमतिर्जिनेशो मनोरमः स्वांतमितो मदीयं ॥ ३ ॥अथ पद्मस्तुतिप्रारंजः नुजंगप्रयातबंदः ॥ उदारप्रनामंडलै समानः कृतात्यंतउदातदोषापमानः ॥ सुसी मांगजश्रीपतिर्देवदेव स्सदा मे मुदायर्चनीयस्त्वमेव ॥ १ ॥ यदीयं मनःपंकजनित्य मेव त्वयारुतं ध्येयरूपेण देव ॥ प्रधानस्वरूपं तमेवातिपुण्यं जगन्नाथ जानामि लो के सुधन्यं ॥ ॥श्रतो धीशपद्मप्रनानंदधाम स्मरामि प्रकामं तवैवांग नाम ॥ मनो वांनितार्थप्रदं योगिगम्यं यथा चक्रवाको रवेदीम रम्यं ॥३॥अथ सुपार्थ जिनस्तुतिप्रा रंनः तोटकबंदः ॥ जयवंतमनंतगुणैर्निनृतं पृथिवीसुतम तरूपनृतं ॥ निजवीर्य विनिर्जितकर्मबलं सुरकोटिसमाश्रितपत्कमलं ॥ १॥ निरुपाधिकनिर्मलसौख्यनि धिं परिवर्जित विश्वरंत विधि नववारिनिधेः परपारमिमं परमोज्वलचेतनयोन्मिलित शाकलधौतसुवर्णशरीरधरं शुनपाश्र्वसुपार्वजिनप्रवरम् ॥ विनयावनतः प्रणमामि सदा हृदयोअवतरितरप्रमुदा ॥३॥ अथ चंप्रनाजिनस्तुतिप्रारंजः ॥ वंशस्थबंदः॥ अनंतकांतिप्रकरण चारुणा कलाधिपेनाश्रितमात्मसाम्यतः॥ जिने चंप्रन देवमुत्त मंनवंतमेवात्महितं विनावये॥१॥उदारचारित्रनिधे जगत्प्रनो तवाननांनोजविलोक नेन मे ॥ व्यथा समस्तास्तमितोदितं सुखं यथा तमिस्त्रादिवमर्क तेजसा॥॥ सदैव संसे वनतत्परे जने नवंति सर्वेपि सुराः सुदृष्टयः।।समग्रलोके समचित्तवृत्तिना त्वयैव संजा तमनोनमोस्तु ते॥॥अथ सुविधिजिनस्तुतिप्रारंनः ॥ वसंततिलकाबंदः॥ विश्वानिवं द्यमकरांकितपादपद्म सुग्रीवजात जिनपुंगव शांतिसमाजव्यात्मतारणपरोत्तमपानपा त्र मां तारयस्व नववाटिनिधेविरूपात् ॥ १॥ निःशेषदोषविगमोनवमोक्षमार्ग न व्याः श्रयंति नवदाश्रयतो मुनी ॥ संसेवितः सुरमणिबहुधा जनानां किंनाम नोनव ति कामितसिधिकारी॥२ ॥ विज्ञ कपारसनिधि सुविधे स्वयंभूर्मत्वा नवंतमिति विज्ञप यामि तावत्॥ देवाधिदेव तव दर्शनवलनोहं शश्वनवामि नुवनेश तथा विधेहि॥३॥ अथ शीतलजिनस्तुतिप्रारंजः॥शार्दूलविक्रीडितबंदः॥कल्याणांकुरवईने जलधरं सवीं गिसंपत्करं विश्वव्यापियशःकलापकलितं कैवल्यलीलाश्रितं ॥ नंदाकुदिसमुन्नवं दृ ढरथोणीपते दनं श्रीमत्सूरतबिंदरे जिनवरं वंदे प्रचं शीतल॥१॥ विश्वाज्ञानविशु सिक्षिपदवीहेतुप्रबोधं धनव्यानां वरनक्तिरक्तमनसां चेतः सुमुनासयन् नित्यानं दमयप्रसिइसमयः सबूतसौख्याश्रयो उष्टानिष्टतमःप्रणाशतरणिर्जीयाङिनः शीत Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. लः॥२॥ सनत्या त्रिदशेश्वरैः कतनतिर्नास्वजणालंकतिः सत्कल्याणसमद्यतिः गुन मतिः कल्याणकत्संगतिः॥ श्रीवत्सांकसमन्वितस्त्रिनुवनत्राणे गृहीतव्रतो नूयानक्ति जूतां सदेष्टवरदः श्रीशीतलस्तीर्थकत् ॥३॥ अथ श्रेयांसजिनस्तुतिप्रारंनः॥ हरिणी बंदः॥ चिरपरिचितागाढव्याप्ता सुबुदिपराङ्मुखी निजबलपरिस्फूर्योदया समग्रतया ममाव्यपगतवती दूरंउष्टा स्वनिष्टकुदृष्टिता अपचितसहा सद्योनूत्वा यदीयसुदृष्टितः१ निरुपमसुखश्रेणीहेतुर्निराकृतउर्दशा शुचितरगुणग्रामावासो निसर्गमहोज्वला।हृदय कमले प्राउजूता सुतत्वरुचिर्मम विदलितनवज्रांतिर्यस्याप्यजत्रमनुस्मृतेः॥ शउपक तिमतिर्दाने ददो निरस्तजग क्ष्यथः समुचितकतिर्विज्ञानांप्रकाशितसत्पथः॥नृपगण गुरोविमोर्वशे प्रनाकरसन्निनः स नवतु मम श्रेयांसेनःप्रबोधसमृध्ये॥३॥अथ वासुपू ज्यस्तुतिप्रारंनः ॥ रथोक्ताबंदः॥ पूर्णचंकमनीयदीधिति भ्राजमानसुखमनुतश्रिी यां॥शांतदृष्टिमनिरामचेष्टितं शिष्टजंतुपरिवेष्टितं परं॥१॥नष्टउष्टमतिनिर्यमीश्वरं संस्मर द्भिरिहनूरिनिनिगादीणमोहसमयादनंतरा प्रापि सत्यपरमात्मरूपता ॥॥ पार्थिवे शवसुपूज्यवेश्मनि प्राप्तपुण्यजनुषं जगत्प्रचुं॥वासुपूज्यपरमेष्टिनं विशः के स्मरंति नहि तं विपश्चितः॥३॥अथ विमलजिनस्तुतिप्रारंनः॥मंदाक्रांताबंदः॥संसारेस्मिन्महतिम हिमामेयमानंदिरूपं त्वां सर्वइं सकलसुकृतिश्रेणिसंसेव्यमानं ॥ दृष्ट्वा सम्यग्विमलसद सज्ज्ञानधाम प्रधानं संप्राप्तोहं प्रशमसुखदां संजृतानंदवीचिं॥१॥ येतु स्वामिन् कुमति पिहितस्फारसबोधमूढाः सौम्याकारां प्रतिकतिमपि प्रयते विश्वपूज्यां॥षोतेः कलु षितमनोवृत्तयः स्युःप्रकामं मन्ये तेषां गतगुनदृशां का गति विनीति ॥ ॥ श्यामा सूनो प्रतिदिनमनुस्मृत्य विज्ञानिवाक्यं हित्वानार्य कुमतिवचनं ये नुवि प्राणनाजः॥पू नंदोन्नसितहदयास्त्वां समाराधयंति श्लाघ्याचाराःप्रकृतिसुनगाः संति धन्या स्तएं। व॥३॥अथ अनंतस्तुतिप्रारंनः॥स्त्रग्विणीबंदः॥यस्य नव्यात्मनो दिव्यचेतोगृहे सर्वदा ऽनंताचंतामणि?तते॥यांति दूरस्वतस्तस्य उष्ठापदो विश्वविज्ञान वित्तं नवेदक्ष्य।।१ यस्तु सर्वज्ञरूपं स्वरूपस्थितं वीक्ष्यसनावतः सिंहसेनात्मजायनुतामोदसंदोहसंपूरि तोमन्यतेधन्यमात्मीयनेत्रदयं ॥॥ सोपवर्गानुगामिस्वनावोज्ज्वला व्यूढमिथ्यात्ववि झवणे तत्परां बंधुरात्माऽनुनूतिप्रकाशोद्यतां शुइसम्यक्त्वसंपत्तिमालंबते ॥३॥ यु | ग्मं ॥अथ धर्मस्तुतिप्रारंजः ॥ कामक्रीडाबंदः ॥ नास्वज्ञानं शुक्षात्मानं धर्मेशानं स यानं शक्त्यायुक्तं दोषोन्मुक्तं तत्वासक्तं सनक्ताशश्वनांत कीर्त्या कांत ध्वस्तध्वातं वि श्रामं दिप्तावेशं सत्यादेशं श्रीधर्मेशं वंदध्वं॥१॥निःशेषार्थप्राऊष्कर्ता सिदेना संसा उर्जावानां दूरेदी दोनोक्र्ता संस्मतासमक्तेन्योमुक्तेर्दाता विश्वत्राता निर्वाता स्तुत्यो Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिजिनस्तुति. नक्यावाचोयुक्त्या चेतोवृत्त्या ध्येयात्मा।शासम्यग्दृग्निःसाक्षात्दृष्टोमो हास्टष्टो ना कृष्टः स्त्रोतोग्रामैः संपज्ज्येष्टःसाधुश्रेष्टः सत्प्रेष्टः॥श्रमायुक्तस्वातैर्जुष्टो नित्यंतुष्टोनिदृष्ट स्त्याज्यो नैवश्रीवजांको नष्टातको निःशंकः॥३॥ युग्मं ॥ अथ शांतिजिनस्तुतिप्रारंजः॥ इतविलंबितबंदः॥ विपुल निर्मलकीर्तिनरान्वितोजयति निर्जरनाथनमस्कृतः ॥ लघु विनिर्जितमोहधराधिपो जगति यः प्रनुशांतिजिनाधिपः॥१॥ विहितशांतसुधारसमऊ नं निखिलर्जयदोषविवर्जितं ॥परमपुण्यवतां जजनीयतां गतमनंतगुणैः सहितं सतां ॥॥तमचिरात्मजमीशमनीश्वरं नविकपद्मविबोधदिनेश्वरं। महिमधाम नजामि जग ये वरमनुत्तरसिदिसमध्ये॥३॥ त्रिनिर्विशेषकं ॥ अथ कुंथुजिनस्तुतिप्रारंजः॥गी तपतिमाह ॥ जयजय कुंथुजिनोत्तमसत्तम तत्वनिधान धर्मजनोज्वलमानसमानस हंससमान ॥ज्ञानाबादकमुख्यमहोतकर्मविमुक्त विषमविषयपरिनोगविरक्त गुनाश ययुक्त॥१॥ जयजय विश्वजनीन मुनिव्रजमान्य विशुद्ध चेतन चारुचरित्रपवित्रितलोक विबुद निरुपममेरुमहीधरधीर निरंतरमेव गर्वविवर्जितसर्वसुपर्वविनिर्मितसेव ॥ २॥ जयजय सूरनरेश्वर नंदनचंदनकल्प वासक विश्वविनावविनाशक वीतविकल्प ॥ नि मलकेवलबोधविलोकितलोकालोक प्राउतमहोदयनिर्वृतिनित्यविशोक ॥ ३ ॥ य थारजिनस्तुतिप्रारंनः ॥ रामगिरिरागण गीयते ॥ दिव्यगुणधारकं नव्यजनतारकं उरितमतिवारकं सुरुतिकांतं ॥ जिनविषमसायकं सर्वसुखदायकं जगति जिननायकं परमशांतं दि०॥१॥स्वगुणपर्यायसंमीलतं व्याहतं विगतपरंनावपरिणतिमखंडं॥सर्व संयोगविस्तारपारंगतं प्राप्तपरमात्मरूपं प्रचंड ॥ २ ॥ दि० ॥ साधुदर्शनवृतं नाविकै प्रस्तुतं ॥ प्रातिहार्याष्टकोनासमानं ॥ सततमुक्तिप्रदं सर्वदा पूजितं॥शिवमपरसार्वनौ मप्रधानं ॥३॥अथ मन्निस्तुतिप्रारंनः ॥ कुंनसमुन्नव संमदाकर सगुणवरहेमन्निजि नोत्तम देव जयजय विश्वपते १ कृत्याकत्यविवेकिता जिनसमुचिता हे त्वयि जागर्ति जि नेश जानित्यानंदप्रकाशिका चमनाशिका हे तव शुनदृष्टिरनीश ज०॥३॥हिनि बंधनसन्निधे सगुणनिधे हे वर्जितसर्व विकार ज०॥४॥ निजनिरुपाधिकसंपदा शो नित सदा हे निर्मलधर्मधुरीण ॥ ५ ॥१ए ॥अथ मुनिसुव्रतस्तुति प्रारंजः॥अथान्या गेयपतिः॥ उत्तमचेतनधर्मसमरजगत्पते॥ नित्यानित्यपदार्थनिचयविलसन्मते॥नि जविक्रमजितमोहमहोनटनूपते ॥ श्रीपनातनुजात सुजातहरिद्युते ॥१॥ श्रीमुनिसु त सुव्रतदेशक सङनाः कृतसजुरुशुनवाक्यसुधारसमऊनाः हे प्रणमंति नवंतमनंतसु खाश्रितं ॥ केवलमुज्वलनावमखंडमनिंदितं ॥ ॥ तेनिःसंशयमेव जगत्रयवंदिताः॥ समावेन नवंति सुदृष्टयानंदिताःकत्यं स्वोचितमेव यतः किल कारणं॥जनयति नात्म Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. विरुक्षमिहासाधारणं ॥३॥ अथ नमिजिनस्तुतिप्रारंनः॥ पंचचामरबंदः॥ नमीश निर्मलात्मनूप सत्यरूप शाश्वतं परामर्थसिदिसौधमूधिसत्स्वनावतः स्थितं ॥ विधा य मानसाब्जकोशदेशमध्यवर्त्तिनं स्मरामि सर्वदा नवंतमेव सर्वदर्शिनं॥१॥प्रफुल्लकौव लांबन प्रनूततेजसो द्य ते दिवाकरस्य वा महेश्वरानिदर्शनेन मे॥प्रमादवदिनी सुधर्म तिनिशेव उनगा गता प्रणाशमागु हत्कजे विनिश्तिा नवत् ॥ २॥ निरस्तदोषऽष्ट कष्टकार्यमर्त्यसंस्तवो नवे नवे नवत्पदांबुजैकसेवकः प्रनो ॥ नवेयमीदृशं नशं म | दीयचित्तचिंतितं तव प्रसादतोनवत्ववंध्यमेव सत्वरं॥३॥अथ नेमिजिनस्तुतिप्रारंनः।। उपजातिबंदः ॥ विशुविज्ञाननृतां वरेण शिवात्मजेन प्रशमाकरेण ॥ येन प्रयासे न विनैव कामं विजित्य विक्रांतवरं प्रकामं ॥१॥ विहाय राज्यं चपलस्वनावं राजीम तिं राजकुमारिकां च ॥ गत्वा सलील गिरिनारशैलं जे व्रतं केवलमुक्तियुक्तं ॥२॥ निः शेषयोगीश्वरमौलिरत्नं जिनेंख्यित्वे विहितप्रयत्न। तमुत्तमानंदनिधानमेकं नमामि ने मि विलसदिवेकं ॥३॥ अथ पार्वजिनस्तुतिप्रारंनः॥ पंचचामरबंदः॥ श्रयाम तं जि नं सदा मुदा प्रमादवर्जितं स्वकीयवाग्विलासतोजितोरुमेघगर्जितम् ॥ जगत्प्रकामका मितप्रदानददमदतं पदं दधानमुच्चकैरकैतवोपलदित ॥ १॥ सतामवद्यनेदकं प्र नूतसंपदां पदं वलपददङजापतीपक्षणप्रदं ॥ सदैव यस्य दर्शनं विशांविर्मदि तैनसांनिहत्यशातजातमात्मनक्तिरक्तचेतसां ॥२॥ युग्मं॥अवाप्य यत्प्रसादमादितः पुरुश्रियो नरा नवंति मुक्तिंगामिनस्ततः प्रनाप्रनास्वराः॥नजेयमाश्वसेनिदेवदेवमेवस स्पदं तमुच्चमानसेन शुधबोधवृदिलानदं॥३॥ अथ वीरजिनस्तुतिप्रारंजः॥ पृथ्वी बंदः ॥ वरेस्यगुणवारिधिः परमनिर्वृतः सर्वदा समस्तकमलानिधिः सुरनरें कोटिश्रितः ॥ तथापि गुणवर्जितो विगतनावसौख्यो धनः सुमुक्तजनसंगमस्त्वम सि वईमान प्रनो ॥ १॥ जिने नवतोनुतं मुखमुदारबिंबस्थितं विकारपरिव र्जितं परमशांतमुकितं ॥ निरीक्ष्य मुदितेदणादणमितोस्मि यनावनां सदैव जग दीश्वरोजवत सैव मे सर्वदा ॥ २ ॥ विवेकिजिनवननं समऊरात्मनां उज़नं उरंतजरि तव्यथानरनिवारणे तत्परं ॥ तवांग पदपद्मयोयुगमनिंद्यवीरप्रनो प्रनूतसुखसिक्ष्ये मम चिराय संपद्यतां ॥३॥इत्थं चतुर्विंशतिसंख्ययैव प्रसिदिनाजां वरतीर्थराजां॥श्री जैनवाक्यानुसृतप्रबंधा वृत्रहीना प्रतिनवीना॥७॥गणाधिपश्रीजिनलानसूरिप्रनु प्रसादेन विनिर्मितेयं ॥ जिनप्रणीतामृतधर्मसेविदमादिकल्याणबुधात्मबुध्यै॥ ७६॥यु ग्मायस्याःप्रसादात्परिपूर्णनावं नूतः सुनिर्विघ्नतया स्तवोय। जगत्रयोजंतुहितकनिष्टा वाग्देवता सा जयतादजस्रं ॥ ७ ॥ इतिश्रीमञ्चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः समाप्ता ।। . - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - emon - ॥ श्रीसर्वज्ञायनमोनमः ॥ अथश्री मुनिसुंदरसूरिकृत अध्यात्मकल्पद्रुमो बालावबोधसहितः प्रारभ्यते ॥ प्रथम अर्थक नुं मंगलाचरण ॥ श्रीशंखेश्वरपार्श्वेशं प्रणतानीष्टदायकं ॥ प्रणमामि परमप्रेम्णा सर्वानीप्सितसिच्य॥१॥ सर्वज्ञ सर्वनाषानिः र्सवसंसत्प्रबोधकं ॥ सर्वसवदितं वंदे वर्धमानजिनेश्वरं ॥२॥ अध्यात्मकल्पद्रुमसंज्ञकस्य शास्त्रस्य संविज्ञहितावहस्य॥ वार्तानिरप्रौढमतिप्रतुष्ट्यै बालावबोधां विदधे वित्तिं ॥ ३ ॥ हवेग्रंथनेयादि ग्रंथकार प्रथमस्थापनानुं सूत्रकहेडे अथायंश्रीमान् शांतनामा रसाधिराजः सकलागमादि सुशास्त्रार्णवोपनिषतसुधारसायमान ऐदिकामुष्मिका नंतानंदसंदोहसाधनतया पारमार्थिकोपदेश्यतया सर्वरस सारनूतत्वाच शांतरसनावनात्माध्यात्मकल्पद्रुमानिधा नग्रंथांतरग्रंथननिपुणेन पद्यसंदर्नेण नाव्यते ॥ अर्थ ॥ पूर्वश्री मुनिसुंदरसूरिये त्रिदशतरंगिणी गुर्वावली प्रमुख ग्रंथकीधा ते वारपली धाग्रंथकीयो तेनणीश्हां अथशब्दास्यो तेमाटे अथकहेतां एटलायकी अनंतर जेजेनशासननेविषे प्रत्यक्ष शांतनामाजे रसाधिराज रसजे १ शृंगार १ हा स्य ३ करुणा ४ रोइ ५ वीर ६ नयानक ७ बीनत्स अत ए शांत एनवमध्येथ धिराजके शिरोमणी तेढुं मुनिसुंदरसूरि पदके काव्यतेहनो संदर्नजेरचना तेणेकरी ने नाव्यतेके० विचारुढं एटलेपूर्वेमनमधिस्यो तेकाव्यबंधे प्रगटकरीकडं के हेवोडेते रसाधिराज श्रीके मोरूपिणीलक्ष्मी तेले फलजेहनु एहवो वलीकेहेवोले - - - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पम. बागमजे श्रीजिनेश्वरप्रणीत सिक्षांत तेआदेश्ने सकलजे सुशास्त्रकहेतां धर्मशा स्त्र तेरूपी अर्णवजे समुइ तेहउपनिषत्रूतके सारनूत एहवो सुधारसायमा नके अमृतरसतुव्यजे हवेअन्यशृंगारादिक रसतजीने केवलशांतरसनेज शावास्तेना व, तेहनोहेतुकहे एकतोऐहिकामुष्मिकके इहलोकसंबंधी अने बामुष्मिकके परलोकसंबंधी जेअनंतानंदनो संदोहके समूह तेनुसाधन तेहेतुयेंकरीने वली बीजोहेतुकहे परमार्थिकजे मोदार्थ तेहनाजेजाणनार तेहनेनपदेशदेवायोग्यए टलेमोक्षार्थनाउपदेशकजे तीर्थकर गणधरादिक तेषाशांतरसनोज उपदेशकरे तेणेक रीने. वलीत्रीजोहेतुकहे जेआशांतरसते सर्वरसनेविषे सारनूत तेहेतुथकी. हवे पद्यसंदर्नकहे तेके हेडे शांतरसनावनास्वरूप अध्यात्मकल्पधुम एहवेनामेजेग्रंथ विशेष तेह ग्रंथनजेरचना तेहेनेविषे निपुण मनाचित अध्यात्मज्ञान आपवा ने कल्पवृदनीपेठेसमर्थ तेमाटेवाग्रंथनाम अध्यात्मकल्पम जाणवू. जयश्रीरांतरारीणां लेने येन प्रशांतितः॥ तं श्रीवीरजिनं नत्वा रसः शांतो विनाव्यते॥१॥ अर्थ ॥ हवेग्रंथनेयादें ग्रंथकर्ता मंगलाचरणकहेजे जेणेप्रशांतितके नत्कृष्टशां तरसथी क्रोध मान माया लोन राग ष ए नए अंतरंगशत्रु तेयोनेजीतीने जय लक्ष्मीपामी एहवाते श्रीवीर जिनप्रतें दुंमुनिसुंदरसूरि नमस्कारकरीने शांतनामाजे रस तेने नावुलु एटले समुचितेष्टदेवताने नमस्कारलदाण ग्रंथारंजेमंगलिककयुं॥१॥ सर्वमंगलनिधौ हृदि यस्मिन् संगते निरुपमं सुखमेति ॥ ___ मुक्तिरार्म च वशीनवति शाक् तं बुधा नजत शांतरसेंज॥२॥ अर्थ ॥ हवेशांतरसतुं महात्म्यकहेले बुधाके हेविवेकीजनो तमें आ सर्वमांग व्यनुं निधान एहवोजे शांतनामारसाधिराज तेप्रतेंनजो केमके एशांतरस जेनारद यमांबाव्यो तेप्राणी अनुपम सर्वार्थ सिध्यादिकनाजेसुख तेप्रतेपामें वलीजे रुदयमा आवेथके जेमोदसुखतेपण झगके तत्काल थोडाकालमांज वशथाय ॥ २ ॥ समतैकलीनचित्तो ललनापत्यस्वदेवममतामुक् ॥ विष यकषायाद्यवशः शास्त्रगुणै र्दयितचेतस्कः॥३॥वैरा ग्यशुधधर्मा देवादिसतत्वविधिरतिधारी॥ संवरवान् शुनत्तिः साम्यरहस्यं नज शिवार्थिन् ॥४॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समताधिकार. अर्थ ॥ हवे साम्योपदेशयोग पुरुषनाविशेषण झारेकरीने ग्रंथकर्ता ग्रंथमध्येक हेवाना सोल धारकहेले हेमोहार्थिपुरुषतुं साम्यरहस्यजे समतानुसार तेप्रतेंनज तेकहेवोथश्नेनज जे एकतो समतासाथें लीनचित्तकरीने एटलेएपहेतुं मारपण कह्यु वली बीजूं ललनाजे स्त्रीनीममतामोचनबार त्रीजुं अपत्यजे पुत्रादिकसंततिनी ममतामोचन हार चोथु स्वके धननीममतामोचन क्षार पांचमुं देह तेहनीममतायेंर हितयको एटलेपांचमुं देहममतामोचन हार नहुँ विषयजे शब्दादिकनोनिग्रहकरवो सातमुं कषायजे कोधादिक तेनोनिग्रहकरवो इहां यादिशब्दथी राग देष प्रमादादि क तेदुने अवश्यके आधीननही एहवोथकोरहे तथा शास्त्रजे जैनागम तेहना गुणजे हेयोपादेयादिक तेणेकरीने दम्युचित्तजेणे एटलेशास्त्रगुणते आठमुंहार यनेचित्तदमननामे नवमुंहार वत्ती वैरागेंकरीने शुद्धनिर्दोषने धर्मजेहन एमांदस मुं वैराग्य क्षार अने ग्यारमुं शुधर्मनामाधार तथा देवजेश्रीअरिहंत गुरुजेसु साधु अनेकेवलिप्रणीतधर्म एत्रण तत्वनो जागथयीने एटले ए देवादिकस्वरूपनाझा ननुं बारसुधार तथा विरतिजे पंचाश्रवनुविरमण तेहधारकथको एतेरसुविरति धारी नामा हार वली संवरजेसत्तावनने आश्रवनिरोधरूप तेणेकरीसहित तेचउद मुं संवरधार अने गुनउत्तम वृत्तिके आचरणाजेहनी एहवोथको तुंसाम्यरहस्य नेनज एटलेश्हां शुनवृत्तिनामापन्नरमुंहारथयुं अनेसोलमुं साम्यरहस्यनामाचार एग्रंथमांकहेवानासोलारना नामबेश्लोकेंकरीकह्या ॥३॥४॥ इति षोडशाधिकारे शास्त्रोपदेशपदसंग्रहो यथा चित्तबालक मात्यादी रजस्त्रं नावनौषधीः ॥ यत्त्वां उर्ध्याननूता न उलयंति बलान्विषः॥५॥ __ अर्थ ॥ हवेप्रथम समताना अधिकाराश्री उपदेशकहेने हेचित्तरूपीयाबाल क तुं सदाय नावनाजे अनित्यादिकबार तथामैत्र्यादिकचार तेरूपपणीऔषधीप्रतें बां मोसनही केमकेएनावनाने नांमवाथी शोगुणथाय तेकहे जेथकीताहराब्लना. जोनाराजे आर्तरौशादिडान तेरूपीथा नृतपिशाचते तुजनेबलकरीशकशेनही॥५ यदिडियाथैः सकलैः सुखं स्यान्नरेऽचक्रित्रिदशाधिपानां ॥ तद्विंदवत्येव पुरोदि साम्यसुधांबधेस्तेन तमाज्यिस्व ॥६॥ अर्थ ॥ हवेएगुननावना ते समताविना नहोय तेकहेडे सघला इंडियार्थेजे शब्द रूप रस गंध अनेस्पर्श तेणेकरीने राजाचक्रवर्ती अनेत्रिदशाधिपकहेता ३६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पम. तेहनेजेसुखहोय तेसर्वसुख समतारूपीपुंजे सुधांबुधिकहेतां अमृतसमुले तेश्रा गल बिंबराबरदेखाय एटलेसंसारिक सुख सघलुंमलीने बिंतुल्य अनेसमतानु सुखदेते समुश्तुल्य तेमाटेमोक्षार्थिजीवते समतारूपीथा सुंधासमुड्नेयादरे॥६॥ अदृष्टवैचित्र्यवशाजगज्जने विचित्रकर्माशयवागविसंस्थुले ॥ नदासत्तिस्थितचित्तरत्तयः सुखं नजंते यतयः दतातयः॥७॥ अर्थ ॥ दवेसमतावादस्यानु फलकहे जगतजे त्रिजुवनतेमां जनजे देवमनु ष्यादि तेमध्येयतीजेनिग्रंथ तेजसुखीया तेजगतजनकहेवाडे तेकहे यदृष्टजेपूर्वक तकर्म तेहविचित्र नानारूपपणुं तेहनावशयकी नानाविधकर्मना विपाकथी सं सारीजीवना मननोथनिप्राय तथावचन अनेकायानीचेष्टापण नानाविध तेणेकरी व्याकुलले. दवेयतीकहेवाडे उदासवृत्तिजे लानालान सुखःख बने प्रिययप्रिय तेने विषेसमानवृत्ति तथाजेनी चित्तवृत्ति स्थितरही वलीजेनीसर्वचिंता क्यपामी॥७ विश्वजंतुषु यदि दणमेकं साम्यतो नजसि मानस मैत्रीं ॥ तत्सुखं परममत्र परत्राप्यनुषे न यदनूत्तव जातु॥७॥ अर्थ ॥ वलीसमतानुं विशेषफलकहेले हेचित्त जोतुं समतायेंकरीने सर्वजीवने विषे एकदणमात्रपण मैत्रिता चिन्तवेतो तुं पूर्वसंसारमांत्रमणकरता कोश्वखतपा म्योनथी एवा इहलोक अने परलोकमांपण परमउत्कृष्टसुखप्रपामें ॥ ७ ॥ न यस्य मित्रं न च कोपि शत्रुनिजः परो वापि न कश्चनास्ते॥ न चेजियार्थेषु रमेत चेतः कषायमक्तं परमः स योगी॥॥ ___ अर्थ ॥ हवेएसमताने योग्यजीवकोणहोय तेकहेजे जेहनेको मित्रनथी तथा कोशत्रुपणनथी तेमजजेहने पोतानु तथापारकुंकांनथी वलीजेहनुं चित्त कषाय रदितथको इंडियार्यजे शब्दादिविषय तेनेविष रमेनही तेप्राणीपरमयोगवंतहोय एटले ते समतावंतजाणवो ॥ ए॥ नजस्व मैत्री जगदंगिराशिषु प्रमोदमात्मन् गुणिषु वशेषतः॥ नवार्तिदीनेषु कृपारसं सदाऽप्युदासत्ति खलु निर्गुणेष्वपि ॥१॥ अर्थ ॥ हवेसमतावाव्याना कारणउपदेशेने हेजीव जगतना अंगीकेण्जेजीवते हनीराशिकहेतां समूहनेविषे एटलेसामान्यथकीसर्वजीवनेविषे मैत्रिताप्रत्येनजस्तके आदरीने वलीसमस्तप्रकारेंजेकोश्ज्ञानादिकगुणयुक्तहोय तेहनेविषे प्रमोदप्रत्येनजि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समताधिकार. अनुमोदनाकर तथानवके संसारनी आर्तिजेपीडा तेणेकरीदीनके खितप्राणिने विषेरूपारसप्रतेंनज वली नि.निर्गुण प्राणीनेविषेपण उदासत्तिप्रतेनज ॥१०॥ मैत्री परस्मिन् दितधीः समग्रे नवेत्प्रमोदो गुणपत्नपातः॥ कृपानवार्ने प्रतिकर्तृमीदोपेदा च माध्यस्थ्यमवार्यदोषे॥११॥ अर्थ ॥ हवेएमैत्र्यादि चारेनावनानुं स्वरूपकहेले समस्तपोताथी व्यतिरिक्तजेबी जाजीव तेनेविषेजे हितचिंतववानोबुद्धि तेनेमैत्रीकहियें तथागुणीजे ज्ञानादिकगुण वंत तेहनोपदपातजे प्रशंसा तेहनेप्रमोदकहियें तथानवार्थिजे जन्ममरणादिक सं सारनाऊख प्रतिकारकरवानीवांना कोश्यज्ञानीजीवने पापथकीनिवविवानेयर्थं प्र तिबोधदेवो तेनेरुपाकहियें जेमश्रीवीरस्वामीयें शूलपाणीयद चमकोशिकसर्पप्रतें अपराधरापरपण कृपाकीधी. क्लोजेप्राणीअवार्यदोषकहेतां वारताथकापण दोषनेन बमे तथावारवायोग्यपणनहोय एहवोदोषवंत जेपुरुष तेनेविषे मध्यमनावें रागदेष रहितपणे समनारहेतुं तेउपेक्षानावनाकहियें ॥ ११॥ तथाचोक्तं तुर्यषोडशके॥परहितचिंता मैत्री परःख निवारिणी तथा करुणा ॥परसुखतुष्टिर्मुदिता परदोषोपेक्षणमुपेदा ॥ १२ ॥ अर्थ ॥ तेमजवलीकडंडे श्रीहरिजइसूरियें चोथाषोडशकमध्ये जे परनेहितचिंत वतेमैत्री तथापरनामुःखने निवारणकरवानीनावना तेकरुणा अनेपर-सुरवजे सम तादिरूप तेदेखीने संतोषपामवो ते मुदिताके प्रमोदनावना कहियें अने परनादोष देखी उवेखवू उदास रहेवू तेनेउपेक्षानावना कहियें ॥ १२ ॥ तथाच योगशास्त्रे ॥माकार्षीत्कोपि पापानि मा चानत्कोपि छः खितः ॥ मुच्यतां जगदप्येषां मतिमैत्री निगद्यते ॥ १३ ॥ अर्थ ॥ वलीयोगशास्त्रमध्येपण श्रीहेमचंदसूरियेकडंडे के कोपापमकरो को कुःखीथाथोमां तथाजगतसर्व कर्मथीमुकायो एवीजेमतितेने मैत्रीकहियें ॥ १३॥ अपास्ताशेषदोषाणां वस्तुतत्वावलोकिनां ॥ गुणे षु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥ १४ ॥ अर्थ ॥ सकलदोषरहित तथा वस्तुतत्वजे स्वनाव अने परनाव तथा इव्य गुण पर्यायनाजाण एवाजेगुणवंत तथाउपलदायकी सामान्यपणेपण जेगुणवंतहोय तेहना गुणनेविषे जेपक्षपात तेनेप्रमोदनावनाकहियें ॥ १४ ॥ - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. दीनेष्वार्तेषु नीतेषु याचमानेषु जीवितं ॥ प्रती कारपरा बुद्धिः कारुण्यमनिधीयते ॥ १५ ॥ अर्थ ॥ वलीदीन असमर्थ अनेधार्नपीडावंत तथा नयेंकरी आकुल अनेजी वितव्यनेयाचतां एवाप्राणिनेविषेजे प्रतिकारकहेतां उःख निवारवानीबुद्धि राखवी तेने कारुण्यके० करुणानावना कहियें ॥ १५ ॥ क्रूरकर्मसु निःशंकं देवतागुरुनिदिषु ॥ आ मशंसिषु योपेदा तन्माध्यस्थ्यमुदीरितं ॥२६॥ । अर्थ ॥ तथा शंकारहित क्रूरकर्मनाकरनार अने देवगुरुनानिंदक पोतानीप्रशं सानाकरनार एवायधमपुरुषने विषेजे उपेक्षा तेमध्यस्थनावनाकहियें ॥ १६ ॥ चेतनेतरगतेष्वखिलेषु स्पर्शरूपरवगंधरसेषु साम्यमे ॥ ति यदा तव चेतः पाणिगं शिवसुखं हि तदात्मन् ॥१७॥ अर्थ ॥ हवेवलो मूलसूत्रकार समतावादरवाथी मोदनी सुलनताकहेले हेया त्मन् जेवारें ताहालंचित्त अखिलके समग्रचेतनजे अनुकमै स्त्री देह स्त्रीकटाद कोकिलनाद कस्तुरी पशुमांसप्रमुख तथाश्तरजे अचेतनपदार्थ अनुक्रमें शय्या थानरणघरेणादिक कर्पूर वीणा शर्कराप्रमुख तेसंबंधी जेस्पर्श रूप रवकेश ब्द गंध रस तेहनेविषेतुं साम्यताके ० इष्टानिष्टनेविषे समवृत्तिप्रपामशे तेवारेंज नि धेकरीने मुक्तिसुखते ताहरेहस्तगतथाशे ॥ १७ ॥ के गुणास्तव यतः स्तुतिमिलस्यतं किमकृया मदवान् यत् ॥ कैर्गता नरकनीः सुकृतैस्ते किं जितः पितृपतिर्यदचिंतः॥१७॥ अर्थ ॥ दवेआत्माजे स्तुतिनेवांने तेनोमदनिवारवाने कहेडे हेअत्माश्रौदार्य धै र्य गानोर्य दान शील तप नावना उपशमादिक जेगुणजे तेमांहेलाताहरामांश्यागुण २ केजेहने माटेतुं स्तुतिकहेता लोकनामुखें पोतानीप्रशंसा कराववावांने तथावली तेरांसाधुधाश्रीने राज्यादिमहकिनेप्रतिबोध अथवासर्वशास्त्रप्रवीणता उग्रतप युगप्रधानपणुं इत्यादिक अथवाश्रावकथाश्रीने जीर्णोधार बिंबप्रतिष्ठा संघपतिपएं अमारपडह इत्यादिक अनुतके याश्चर्यकारी कार्यश्यांकीधा केजेनाथी तूं मद वंतथायडे तथा कयासुकृतेकरी ताहारीनरकनीबीकग अथवापितृपतिजे यम तेj - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समताधिकार १५ तेंजित्यो जेमाटेतुं चिंतकहेतां निश्चितथकोरहेडे. एटजे स्तुतिनीवांचा मदकरवो ने निश्चितर हे एतने युक्तनथी ॥ १८ ॥ ॥ गुणस्तवैर्यो गुणिनां परेषा माक्रोशनिंदादिनिरात्मनश्च मनः समं शीलति मोदतेवा खिद्येत च व्यत्ययतः स वेत्ता ॥ १ ॥ अर्थ | वेजेवेत्तापं ते शांतरसनुंकारणले एमक हेबे जेप्राणी परके० अन्यजेगुण वंतपुरुषहोय तेनागुणस्तवजे गुणवर्णन अनेग्रात्मनःकहेतां पोतानाचाक्रोशजे गा लप्रमुख तथा निंदादिक सांजलीने पोतानुंमन समपरिणामेराखे पण श्रमर्षधरेनही उलट मोदतेक देतां हर्षपामे नेएमविचारेजे गुणवंतना गुणस्तववाजवटेले तथा यात्मातुं निर्गुणो माटे निंदानेजयोग्यो एमप्रमोदधरे तथाव्यत्ययकदेतां न परकह्याथी विपरीतजे बीजागुणवंतपुरुषना याक्रोशके० निंदासांनली खनेपोतानी प्रशंसादिकसांजलीने खेदपामे जेएएवागुणवंतपुरुषनी निंदाकांकरेबे तथामाहारामां तोगुणनथी ते तांएकदेने एम चिंतवे तेहनेवेत्ता के ० ज्ञानीकहियें ॥ १५९ ॥ न वेत्सि शत्रून् सुहृदश्च नैव दितादिते स्वं न परं च जंतोः ॥ डुः खं विषन् वांसि शर्म चैत निदानमूढः कथमाप्स्य सीष्टं ॥ २० ॥ अर्थ || हवे यथार्थने नहीजाणनारजीवनुं मूढपणुंकदेबे जीव तुंराजेरागादिक तथा मित्र जेवपशमादिक तेहनेनथी जाणतो तथा हितजेसंवरादिक धने हितजेया श्रवादिक तथावली स्वावजे ज्ञानदर्शनादिक खनेपरजावजे मिथ्यात्वरागादिक तेहने नथी योजखतो वली दुःखजे परिसहा दिक तेहथी वनग्यो अशर्मजे इहलोकतथा परलोकादिकसुख तेनेवांबे तेवारें तुं एसुखनुं निदानजे कारण तेहनुं तो मूढके जाणतो ते मतां शीरीतेंवांछित पदार्थप्रतेंपामीश एटजेसुखनुंमूल निदानते सं म विनाष्टसुखनी प्राप्तिनथाय ॥ २० ॥ 0 कृती हि सर्व परिणामरम्यं विचार्य गृएदाति चिरस्थितीह ॥ जवांतरे ऽनंत सुखाप्तये तदात्मन्किमाचारमिमं जढ़ासि ॥ २ ॥ अर्थ || हवेजाणपणानं फलदेखाडीने उपदेशेने कृतीजेमाह्योपुरुषहोय तेतोस वैवस्तुमांजे वस्तुपरिणामेरम्य तथासुखदाइहोय अने चिरस्थितिकतां घणोकालर हे एवं विचारकरीने वस्तुनेतेग्रहणकरे तोहेयात्मा नवांत रेखनंतसुख यापवाने समर्थ एवाजेज्ञानादिक चारपदार्थ तेनेतुंकेमत्यजेबे एचा वस्तुपरिणामेरम्यले अने चिरस्थितिले एटलेघयाकालसुधी रहेएवीजे माढेतेतुजनेत्यजवीघटेनही ॥ २१ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्प/म. निजः परो वेति कृतो विनागो रागादिनिस्ते त्वरय स्तवात्मन् ॥ चतुर्गतिक्लेशविधानतस्त प्रमाणयन्नस्यरिनिर्मितः किं ॥२२॥ अर्थ ॥ हवेवात्मा रागादिकने वशथको पोतानुबने पारकुंलेखेने तेयाश्रीउपदे शेडे हेआत्मा निजकहेतां स्वजन कलत्र पुत्रादिक अथवा परजेशत्रुप्रमुख एवोवि जागजे नेदकरीजाणवो तेनेदसर्वरागादिकन करेखं माटेताहरे जेप्राणीसा) राग बे तेहनेतुं स्वजनकरीजाणे अनेजेनाथीदेषले तेनेशत्रुकरीजाणे पणतेरागादिक तो चारगतिनाक्लेश कष्टनाकरनार ताराशत्रुडे तोअरिनिर्मितके ० तेशत्रु-जनीपजा व्युं जेनेद तेने गुंप्रमाणकरेले एटलेराग देषनावशथी निजपराविनागकरवूतेजूतो. अनादिरात्मा न निजः परो वा कस्यापि कश्चिन्न रिपुः सुहृछा ॥ स्थिरा न देदाकृतयोणवश्व तथापि साम्यं किमुपैषि नेषु॥२३॥ अर्थ ॥ हवेसर्ववस्तुनी अनित्यतादेखामी आत्मानेसमतानी प्रेरणाकरे हेा स्मा तुंआदिरहितो अनेकोग्नेको पोतार्नु तथापारकुंनथी वलोकोश्नोकोशत्रु अ नेमित्रपणनथी वलीहेआत्मन् देहजेपुरुष स्त्रीआदिक-शरीर तेथाकारेंपरिणाम्या एवायकहेतां पुजल तेपणस्थिरनथी केमके दणदणप्रत्यें उपचयके शुनप्रय नादिक अवस्थापालटेडे तेमबतां हेत्रात्मा आदेहाकारजे पुजलतेनेविषे तुंकेम सा म्यताकहेतां रागोषरहिततापणुंनथीपामतो हेआत्मा तुंतोषनादी अनेएदेहारुती तो अस्थिरजे माटेसमतानेधादर ॥ २३ ॥ यथा विदां लेप्यमया न तत्वा त्सुखाय मातापितृपुत्रदाराः॥ तथा परेपीद विशीर्णतत्तदा कारमेतदि समं समग्रं ॥२४॥ अर्थ ॥ वलीएजअर्थ दृढकरे आसंसारमांजेम लेपमयकहेतां चित्रादिलिखित जे माता पिता पुत्र दारा कसत्रहोय ते तत्वथकी विचारीजोतां विवेकीपुरुषने सुखदा नहोय एटलेतेहने देखीविवेकीसुखमानेनही तेम अपरेके बीजापणजे सादातदृश्य मान माता पिता पुत्र कलत्रादिक तेपणतत्वथकी विवेकीने सुखदाश्नथाय केम के तेना तेतेश्राकारनांगाथकी ते लिप्यमय जेचित्रितपुतता तथाप्रत्यक्षदृश्यमानजे मातापितादिक तेसर्वसरखाथाय माटेतेनेविषे ममत्वकरवू तेमिथ्याडे ॥ २४॥ जानंति कामानिखिलाः ससंझा अर्थ नराः कर्म च केपि धर्म ॥ जैनं च केचिद् गुरुदेवशुद्धं केचित् शिवं केपि च केपि साम्याश्या | , Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समताधिकार. __ अर्थ ॥ हवेसमताना धरनारप्राणियोडाहोय तेकहेले संसारमा समयसंझाधार क जीवमात्र तेकामकहेतां शब्दादिकविषयजाणे एटले कामनाअर्थी सर्वजीव तेसर्वमनुष्य अर्थकहेतां धनउपार्जन तथाकर्मकहेतांकाम एबेपदार्थजाणे केमके मनुष्यना कामनोगते धननेयाधीन तेमांवलीकोइकमनुष्यते सामान्यथकी मिथ्या दृष्टयादिक धर्मनेजाणेने वलीतेमांपणकोइकज जैनधर्मनेजाणेने वलीतेमांपण को इकविरलाज गु६ अष्टादशदोषरहितदेव तथागुरु सुविहितसुसाधु एवोजैनधर्मजा रोने वलीतेमांपण शिवजेमोक्षार्थ तेहनेतोकोइकज जाणेने वतीतेमांपणसमताना जाणतो कोश्कविरलाज एटले ए सर्वथीअधिक तेसमताना जाणनेकह्यो॥ २५॥ स्निाति तावधि निजानिजेषु पश्यंति यावन्निजमर्थमेन्यः॥ इमांजवेऽत्रापि समीक्ष्य रीति स्वार्थे न कः प्रेत्य दिते यतेत ॥२६॥ अर्थ ॥ हवेस्वजनना संबंधते केवलस्वार्थ निष्टित तेदेखाउने निश्चयथी निजके० पोतानास्त्रीपुत्रादिकतेसद् निजके पोताना पतितादिक, स्वजननेविषेतिहां लगें स्नेह धरें जिहां लगें ते स्वजनथी पोतानुंअर्थ जे नरण पोषणादिक अतुंदेखे तिहांलगें स्नेह धरेने एम प्रत्ययानवनेविषेपण स्वजनादिकनी एरीतले तेजोश्ने प्रेत्यके परलोक नेविषे हितकारी एवोस्वार्थजे अत्मार्थ संयमादिक तेहनेविषे कोणउद्यमनकरे॥२६॥ स्वजालादिपुयघदाप्त रोषश्च तोपश्च मुदा पदार्थैः ।। तथा नवेऽस्मिन् विषयैः समस्तैरेवं विनाव्यात्मलयेऽवधेदि॥३४॥ अर्थ ॥ हवेजेरागषधरवो तेफोगटचे एमदेखाडे जेमस्वप्न तथाइजालादिक विषे पाम्याजे अशुन तथा शुनपदार्थ तेणेकरीने रोषकहेतांदेष अने तोषकहेतां हर्षकरवो ते मुधाके निरर्थक एटले जेमस्वप्न इंजालादिकना पदार्थोथी अर्थसि दिकांनथी तेमनवमांपण अगुनतया गुनविषयेंकरीने रोषयनेतोषकरवो तेमुधाने एमविचारीने हेयात्मातुं आत्मसमाधिनेविषे अवधेहिके सावधानरहे ॥ २७ ॥ एप मे जनयिता जननीयं बंधवः पुनरिमे स्वजनाश्च ॥ व्यमेतदिति जातममत्वो नैव पश्यसि कृतांतवशत्वाशन॥ नोधनैः परिजनै स्वजनैर्वा दैवतैः परिचितैरपि मंत्रैः ॥ रहतेऽत्र खलु कापि कृतांतानो विनावयसि मूढ किमेव॥णा अर्थ ॥ हवेबेकाव्यमा जीवने मृत्यु, आधीनपणुं देखाडे हेत्रात्मा आमाह १०० . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अध्यात्म कल्पडुम. रोपिता यामाहरीमाता या स्वजन प्राड्व्य एम ममत्वमां मग्नथयोथकोतुं स्वकहे तपोतेज यमनेवशपड्यं नथीदेखतोबतो ॥ २८ ॥ तोहेमूढ एसंसारने विषे निश्व करीने धन तथा परिजन सेवकादिक तथा स्वजन पुत्र कलत्रादिक बलिदेवता त या परिचितकतां विधिथी उपाय जेमंत्रतेोसर्वे मलीनेपण कृतांतजेमृत्यु तेथी को प्राणीरखायनही एवं हेमूर्खतुं केम विचारतोनथी ॥ २९ ॥ तैर्भवेपि यददो सुखमिवं स्तस्य साधनतया प्रतिज्ञातैः ॥ मुहा सि प्रतिकलं विषयेषु प्रीतिमेषि न तु साम्यसतले ॥ ३० ॥ अर्थ || होश्रात्मा जेमा संसारमापण ते पूर्वोक्तजेधनादिक तेोकरीने स खवांबतो बतो समयसमय विषे विषयमां मोहपामेले पणतेधनादिक कहेवाले तेतुज नेसुख साधन तयाके० कारणपणे प्रतिनास्यांबे पणतेधनादिक तो सुखनाकार नथी मात्र एमास्यांबे जे ए सुखनासाधनले तेथी तुं समताना सतत्वस्वरू पनेविषे प्रीतिनथीपामतुं ॥ ३० ॥ प्रतोयुग्मं ॥ किं कषाय कलुषं कुरुषे स्वं केषु चिन्ननु मनोरिधि यात्मन् ॥ तेपि ते हि जनकादिकरूपैरिष्टतां दधुरनंतनवेषु ॥ ३२ ॥ ॥ हवेस्वजनादिकनुं अनेकांतिकपणुं देखामेळे निश्चयथकी हेयात्मा कोइ कप्राणीने विषे परिधिया कहेता एमाहाराशत्रुबे एवीबुवेंकरी पोतानुंमन कषायेंकरीक लुषित करे केमके तेप्राणीपण ताहरा पिता मातादिकस्वरूपेंकरीने अनंता नवमां अनंतासगपणाने धरताहवा तेमाटेतेयाने केवल शत्रुकरीजाणवुं तेमिप्यारे ॥ ३१ ॥ यांश्च शोचसि गताः किमिमेमे स्नेहला इति धिया विधुरात्मा ॥ तैर्नवेषु निहतस्त्वमनंतेष्वेव तेपि निहता भवता च ॥ ३२ ॥ अर्थ || हवे जे स्वजन तेजशत्रुबे एवंदेखाडेबे हेयात्मातुं एमाहारो स्नेहवंत स्वजन किहांगो एवबुद्धियें विधुरात्माके दुःखेंव्याकुलयको मुवागयाजेस्वज नादिक प्रत्येशाचे एमजेहना शोककरेले तेजस्वजनादिकें तुजनेयनंतानवने वि होने वजीतें पण तेहने अनंतानवनेविषे हल्याने तेटलामाटे स्वजनबुद्धियेंजे से हराख तेपण मिय्यावे. ॥ ३२ ॥ त्रातुं न शक्या जवङःखतो ये त्वया न ये त्वामपि पातुमीशाः ॥ ममत्वमेतेषु दधत् मुधात्मन् पदेपदे किं शुचमेषि मूढ ॥ ३३ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीममत्वमोचनाधिकार. अर्थ ॥ हवेकोकोने राखवासमर्थनथी एबुंदेखाडे नवके० संसारनापुःखथ की जेप्राणीने तुं राखीशक्योनही अनेतेपण नवखथीतुजने राखीशक्यानही तो जेनवःखथी राखवानेसमर्थनथी तेवारेहेमूर्खयात्मा स्वजनादिकनेविषे मुधाके फो कटममत्वकरतोयको पगेपगेंगुंशोकपा माटेशोकतजीने समताने नज ॥ ३३॥ सचेतनाः पुजलपिंडजीवा अर्थाः परे चाणुमया ध्येपि ॥ दधत्यनंतान् परिणामनावान् तत्तेषु कस्त्वति रागरोषौ॥३४॥ अर्थ ॥ हवेजोवना पुजलसाथें नानाविध परिणाम तेकहेले पुजलपिंडके पुज लनो समूहजेदेहलहण तेहनेवाश्रीनेरह्या एवाजे सचेतनके० चेतनाधारक सर्व जीव अथवा अणुमयाके पुजलमयजे बीजा अचेतन अर्थके० पदार्थ एटलेशरी रधारकजीव अने पुजल एबेपण अनंतागमे परिणामनावके ७ पर्यायप्रत्येंधरे तोते जीवधने पुजलनेविषे रागअनेरोषकरवाने कोणयोग्य थाय निपुंणपुरुषे तेलपर राग रोषकरवो युक्तनथी॥३४॥ इतिश्रीअध्यात्मकल्पमे साम्योपदेशारख्यः प्रथमोधिकार; अथस्त्रियः॥ मुह्यसि प्रणयचारुगिरासु प्रीतितः प्रणयिनीषु कृतिन् किं॥किं न वेत्सि पततां नववा तानृणां खलु शिलागलबद्धाः॥२॥ चास्थिमांत्रवसास्त्रमांसामेध्यायशुच्यस्थिरपुजलानां ॥ स्त्री देवपिंडाकृतिसंस्थितेषु स्कंधेषु किं पश्यसि रम्यमात्मन् ॥२॥ अर्थ ॥ हवेबीजाअधिकारमा स्त्रीयोनोममत्व त्यजवाथाश्री उपदेशापेजे हेक तिन् प्रणयचारुके स्नेहेकरीमनोहर गिराके वाणीजेहनी एहवी प्रणयिनीके स्त्री ओनेविर्षे प्रेमेकरीने सुंमोहपामे पण एमकांनथीजाणतोजे नववा के० सं सारसमुश्मां पडतापुरुषनागलामा स्त्रीोते शिलाउँबांधे ॥ १ ॥ हवेएस्त्रीयोना शरीरनु अपवित्रपणुंकहेडे हेआत्मन् चामडी दाम चरबी आंत्रर्मा पासली मेद रुधिर मांस विष्टा तथा आदिशब्दथी मूत्र कफ श्लेष्मादिक एहवाअपवित्र अने अस्थिरके। णविनाशिक जे पुजल तेहना स्कंधके समूहथी बन्यो जेस्त्री-शरी र तेहनी पिंमारुतिके० सांइ सुघटाकार तेरूसंस्थितरह्याने तेमां सुंतुंमनोहर पणुंदेखे एटलेएसर्व अपवित्र अस्थिरपुजलनो पिंम तेमोकांसारनथी ॥ २ ॥ विलोक्य दूरस्थममेध्यमल्पं जुगुप्ससे मोटितनासिकस्त्वं ॥ नृतेषु तेनैव विमूढयोषावपुष्षु तत्किं कुरुषेनिलाषं ॥ ३ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पम. अर्थ ॥ वलीतेहिजकहेने हेयात्मन् अल्पके थोमुकपण अमेध्यके विष्ठादि कदेखीने मोटितनासिकाके नाकमचकोडीनेतुं जुगुप्ससेके० डगंबाकरे तोहे मूर्ख विष्टादिकेंजनस्या एहवाजे स्त्रिोनाशरीर तेहनेविषे सुं अनिलाषकरे ॥३॥ अमेध्यमांसास्त्रवसात्मकानि नारीशरीराणि निषेवमाणाः॥ इदाप्यपत्यजविणादिचिंतातापान् परत्रेप्रतिगतीश्च॥४॥ अर्थ ॥ हवेएस्त्रीयोनाशरीरते इहलोकें अने परलोकेंपण सुःखदायीने तेकडे अमेध्यजे विष्टादिक ते मांस रुधिर मेद तेथीजबनेला तन्मय एहवाजे स्त्रीोनाश रीर तेहने सेवनाराजेपुरुष तेइहलोकेंपण अपत्यके संतानपुत्रादिक तथा प्रविण के० धनइत्यादिकनी चिंतानासंतापप्रतें पामे अने परलोकेंपण उर्गतिप्रपामेध अंगेषु येषु परिमुह्यसि कामिनीनां चेतः प्रसीद विश च हणमंतरेपां॥ सम्यक् समीदय विरमाशुचिपिंडके न्यस्तेभ्यश्च शुच्यशुचिवस्तुविचारमिबत् ॥ ५ ॥ थर्थ ॥ वलीस्त्रीनादेहनी अपवित्रताकहेले चित्तनीप्रसन्नतायेंकरीनेजे स्त्रीयोनाथं गने विषे मोहपामेले तेहनेकहियें.जे तुं तेमाएकणमात्र प्रवेशकरी एटलेसूक्ष्म टीकरी तेहर्नुसम्यकप्रकारे स्वरूप विचारीने पवित्र अने अपवित्र एबेवस्तुनावि चारने वांडतुंथको होयतो जेजे स्त्रीनाअंग तेतेसर्व अपवित्रतानाज पिमके ढग लाले तेहथीतुं विरमके रागत्यजीने अलगोरहे ॥ ५ ॥ विमुह्यसि स्मेरदृशः सुमुख्या मुखेतणादीन्यनिवीदमाणः॥ समीदसे नो नरकेपु तेषु मोहोमवा नाविकदर्थनास्ताः॥६॥ अर्थ ॥ हवेस्त्रीनाअंगनिरीक्षण तथानोगनुंफलकहेले हेयात्मातुं सुंमुखीकेचं इमुखी तथास्मेरके विकसित नेत्रजेदुना एहवीस्त्रीोनामुख तथाईदणजेनेत्र श्रा दिशब्दथी स्तन जंघादिक तेहनाउपर सरागपणेजोतोथको मोहपामेले पणजे महाकुःखमयनरक तेदुनेविषे तथाविध मोहथकी उपनीयो एहवी नाविके० श्रा गामिककदर्थनाजे महापीडाओ तेप्रतेतुंकेमविचारतोनथी ॥ ६ ॥ अमेध्यनस्त्राबहुरंध्रनिर्यन्मलाविलोद्यत्कृमिजालकीर्णा ॥ चापल्यमायान्तवंचिका स्त्री संस्कारमोहान्नरकाय नुक्ता॥७॥ वर्थ ॥ वलीतेहिजकहे विष्ठादिकेंनरीथकी नस्त्राके धमणीसरिखी तथाघ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपत्यममत्वमोचनाधिकार. णारंध्रजे बारेचार तेहथीनिकलता मलके विष्टामूत्रश्लेष्मादिक तेरोकरी थावि लके मलिन तथा नद्यतके० नपजता कमिजे योनीमाहेला सूक्ष्मजीव तेहना जालके समूह तेणेकरी कीर्णके व्याप्त वली चपलपणुं तथा कपटाइपणुं अने अनृतके असत्यवचन तेणेकरी वंचिकाके पुरुषनेगनारी एहवीजेस्त्री तेसंस्कार जे जन्मांतरनोसंबंध तेहनावशथकी अथवा संस्कारजे स्नान तिलक आनरणादिक तेहथी उपनोजेमोह तेहनावशेकरी नोगवीथकी नरकायके नरकनीदेवावालीथाय निमिर्विषकंदली गतदरी व्याघ्री निराव्हो मदाव्या धिर्मत्युरकारणश्च ललनाऽनम्रा च वजाशनिः॥ बंधु स्नेहविघातसादसमृपावादादिसंतापनःप्रत्यदापि च राहसीति विरुदैः ख्याताऽऽगमे त्यज्यतां ॥ ७ ॥ अर्थ ॥ वलीपणस्त्रीनुज त्यजकहेले श्रीसिद्धांतमां स्त्रीनेएहवे बिरुदेकरीवखा णीने तेमाटेस्त्रीनेत्यजवी तेकिहांकिहांविरुदेंत्यजवी तेबिरुदोनानामकहेले एस्त्रीतेनू मिविना विषनी कंदलीके० नवाथंकुरनीसीखा तथा कंदरीजेगुंफाथीरहितथकीपण वाघणसरिखी वलीको नामविनापण महारोगरूप वली अकारणके अपथ्य सेवन अजीर्णादिक कारणोविनाज मृत्युके० मरणतुल्यं वली अनवादलरहितते वन्त्रसरिखी वीजलीने अने बंधुके ० स्वजननो स्नेह तेहनो विघातके ० नाशकरनारी ने तथा साहसके० अविचारितकार्यनुंकर असत्यबोलQ वली आदिशब्दथी अदत्त अब्रह्म परिग्रहादिक तेसंबंधी संतापनो नूके० नत्पतिनोस्थानको वली प्रत्यद साक्षात् रादतीपणजाणवी एरीतें एसर्वस्त्रीना एहवा अशुन बिरुदजाणीने विवेकी पुरुषने स्त्रीसंबंधी ममत्वत्यजq ॥ ७ ॥ इतिश्रीअध्यात्मकल्पमे स्त्रीममत्वमोचनो नाम इतीयोऽधिकारःसंपूर्णः ॥ अथापत्याधिकारः॥मानूरपत्यान्यवलोकमानो मुदाकुलो मोहनृपारि या यत्॥चिदिप्सया नारकचारकेऽस्मिन् दृढं निबछो निगडैरमीनिः॥२॥ - अर्थ ॥ हवेत्रीजाअधिकारें पुत्रादिकनुं ममत्वमुकवायाश्री उपदेशकहे तेमां प्रथम संतानउपरें मोहकरवुनही तेकहेडे हेत्रात्मातुं अपत्यजेपुत्रपुत्रीप्रमुख तेने जोतोथको मुदाके हर्षाकुलथाइस केमके मोहराजारूप शत्रुयें नरकरूपजे चा रकके बंदीखानु तिहां चिदिप्साके घालवानीलायें अपत्यरूप निगडके बिमिय दृढकरीने तुजने बांध्यो ॥ १ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्प डुम. आजीवितं जीव जवांतरेपि वा शल्यान्यपत्यानि न वेत्सि किं हृदि ॥ चलाचलैयैर्विविधार्तिदानतोऽनिशं निहन्येत समाधिरात्मनः ॥ २ ॥ अर्थ || हवेपमानंतरेंकर संताननुं दुखदाइपणुंदेखाडे हेयात्मा थानव मां जावजीवलगें तथा नवांतरे परनवेंपण अपत्यजे संतान राज्यके० शलरूप मताराम केमनथीजाणतो जेस्वल्पायुषवंत संतानादिक तेशोकरूप पीडायाने दीर्घायुषवंतजे अपत्यते लग्नादिक व्यव्ययप्रमुख विविधप्रकारनी पीडा तथा नरणपोषणादिकनी चिंता रूपजेयाति तेहने पजावेकरीने यह निशके o निरंतर हेयात्माताहरी समाधी सुस्थताने हन्येतके० हणीने ॥ २ ॥ २२ कुक्षौ युवत्याः कृमयो विचित्रा अप्यस्त्रशुक्रप्रभवा नवंति ॥ न तेषु तस्या न हि तत्पतेश्च रागस्ततोऽयं किमपत्यकेषु ॥ ३ ॥ त्राणाशक्तेरापदि संबंधानंत्यतोमिथोंऽगवतां ॥ संदेदाच्चापकृतेर्माऽपत्येषु स्निहो जीव ॥ ४ ॥ अर्थ | वजीतेही जकने स्त्रीनी कुंखने विषे त्रजेस्त्रीनीयोनीनुरक्त धने शुक्रजे पुरुषनुंवीर्थ तेहना संयोगथीनपना एहवाकमीजे बेइंडिया दिकजीव तेपण विचित्रत्र कारनाथाय यक्तं बी जोणिमसे हवंतिबेंदियान जे जीवा ॥ इक्कोयदोवतिन्निव जरकपटुत्तं च नक्कोसा ॥ १ ॥ तथासंमूर्तिमगर्न जपं चेंडी मनुष्यपण थायले तो स्त्री तथानर्त्तार बेहुने किंनिश्वये स्युंके ० तेक्रमीजीवने विषे केमरागस्नेहन थी होतु पत्यपुत्रपुत्रादिक तेहनाउपर रागकेमउपजेले केमके एकजस्थानकनाउपना कमी पत् तेदुबराबरबे ॥ २ ॥ हवे अपत्यथकी कांपणस्वार्थ सिद्धिनी खाशाखवी जूतीने तेदेखाडे हे श्रात्मातुं अपत्यउपर स्नेहकरी सनही शाहेतुमाटेके आपदाजे मरणरोगादिक यावेथके जेापत्यते त्राण के राखवानेसमर्थनथी तथाव ली परस्परेंप्राणीने संबंधनुं नित्य कारण केनानाप्रकारना संबंधळे माटे उपकारनो पण संदेह केमके जो पुत्रादिकसायें वैरानुबंधी संबंधहोयतो तेथकी उपकारकेमथा य श्रेणीने कोणीराजानीपरें तेमाटेस्नेहनुं धरतेफोकट || ४ || इतिश्रीअध्या त्मकल्प मे पुत्रममत्वमोचनाख्यस्तृतीयोऽधिकारसमाप्तः ॥ अथधनाधिकारः ॥ याः सुखोपकृतिकृत्वधिया त्वं मेलयन्नसि रमा ममताजाक् ॥ पाप्मनोधिकरणत्वत एता देतवो ददति संसृतिपातं ॥ २ ॥ ס Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनममत्वमोचनाधिकार. अर्थ ॥ हवेचोथाअधिकारें धननीममत्वमूकवाआश्री उपदेशयापेजे तिहांपहेलु धनथी सुखतथाउपकार नथाय तेकहेले हेजीवतुं ममत्वने नजतोथको एममाने जे एलनी ते मने तथामहाराकुटुंबने सुखकारीथासे तथा दिनादिकनो नपकारकरवा ने कामयावशे एहवीबुझियेंजे रमाके लक्ष्मीनेमेलवेडे तेएलमीतोकादानादिक सावद्यव्यापारने करवेकरी अधिकरणपणाथकी पाप्मनःके पापनीजहेतु तेमाटे संसृतिपातजे संसारमांन्रमणकर तेप्रतेंजबापे एहवीने तेनणी लक्ष्मीथकी सुख तथा उपकारनीवांडाते फोकट ॥ १ ॥ यानि विषामप्युपकारकाणि सोऽरादिष्वपि यैर्गतिश्च ॥ शक्या च नापन्मरणामयाद्या हंतुं धनेष्वेषुक एव मोदः॥२॥ अर्थ ॥ हवेधनयकी अनर्थनीपरंपराथाय तेकहे जेधनते विषांके । शत्रुनेपण उपयोगीथाय एटलेधनना संचयकरनारने हणीनेज शत्रुबलवंतथाय अनेतेहना धननेज जोगवे वली जेधननेसंच्याथका नंदिरइत्यादिकनीगतिप्राप्तथाय केमके धन नोलोनीजीव धननीमूर्जायेंमरीने तेधननपरें सर्प तथा नंदिर इत्यादिकथयी अवत रे वलीजे धनेकरीमरण तथारोगश्त्यादिक आपदाोतेपण सुचमचक्रवर्तिप्रमुखनी परें निवारीशकायनही तोएहवाधननेविषे मोहतेशीकरवी ॥ २ ॥ ममत्वमात्रेण मनःप्रसादः सुखं धनैरल्पकमल्पकालं ॥ आरंनपापैः सुचिरंतु फुःखं स्यादुर्गतौ दारुणमित्यवेदि॥३॥ अर्थ ॥ हवेएधनथकीसुखयोहुंचे अने दुःखघणुं तेकहेले केमके धनेकरी केव लममत्वना जन्मनोज प्रसादथाय कारणके महारापाशेधन एमचिंतवीचिंतवी ने धननोलोनिप्राणी हर्षपामेले पणतेधनेकरी सुखतो अल्पकाल लेशमात्र थोडा काललगेंजहोय पणतेहना अतिनिमित्तक आरंजनापापेकरीने मुर्गतिनेविषे दारु एके कविणःखहोयज एहवं नवनंदराजाने दृष्टांतें अवेहिके जाण ॥३॥ जव्यस्तवात्मा धनसाधनो न धर्मोपि सारंनतया तिशुद्धः॥ निःसंगतात्मा त्वतिशुद्धियोगा न्मुक्तिश्रियं यति तभवेपि॥४॥ 'अर्थ ॥ हवेधनविना व्यस्तवरूपधर्मनथाय तेमाटेधननपार्जq एहविचारपण निश्चेंथकी जोता अयुक्तले तेदेखाडेले धननेसाधियें एहव्यस्तवात्माके इव्य सत्वरूप जिन वन बिंबप्रतिष्टा दानशालादिक जेंधर्मकरणी तेपण सारंनके Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अध्यात्मकल्पडुम, व्यारंभ सहितपणे करी ने अतिनिर्मलनथी पणमात्रस्वर्गादिकगतिनाहेतुले माटेतेध नेपल मुक्तिनुपरंपरा कारणजाणवुनही अने निःसंगतारूपजे धर्मते अतिशु-६ के० निर्मलता निरवद्यतानायोगथी तेहिजनवमांपण मोक्षरूप लक्ष्मीने यापे ॥ ४ ॥ क्षेत्र वास्तु धनधान्य गवाश्वैर्मेलितैः सनिधिनिस्तनुनाजां ॥ : शपाप नरकान्यधिकः स्यात् को गुणो यदि न धर्मनियोगः ॥५॥ अर्थ || हवेवपरिग्रहते पापमूलवे तेकहेने देत्र क्यारडाप्रमुख तथावस्तुते घरप्रमुख धनधान्य गायो यश्वइत्यादिक तथा निधिजे नंमारतेोसहित एहवोपरि ग्रहमेवे पण जो एक धर्मनियोगके० जिनबिंबादिक शातक्षेत्रमां ववरायन ही तो नेवारें तेपरिग्रहथकी क्लेश पाप ने नरक एत्रण विना अन्यधिकके० व्यति रेबीजोशो होय एटले परिग्रहथकी अनुक्रमें कष्ट पाप ने नरक एत्रवा नाजथाय पबीजोगुणकोइनथाय ॥ ५ ॥ आरंमैर्नरितो निमज्जति यतः प्राणी नवाजोनिधावीदंते कुनृपादय व पुरुषा येन बलादाधितुं ॥ चिंता व्याकुलताकृतेश्च दरते यो धर्म कर्मस्मृति विज्ञानरि परिग्रहं त्यजत तं भोग्यं परैः प्रायशः ॥ ६ ॥ || हवेर इहलोकें तथा परलोके दुःखयायतेकडे जेपरिग्रहमे लववाथकी प्राणी खारने के आरंनेन खुंथको संसारसमुड्मांबुडेने वली तेपरियहें करी दुष्ट राजा तथा प्रादिशब्दयी मंत्रीप्रमुख अधिकारीयो नेचोरादिक तेपुरुषने बजे करी बाधितुंके० पीडवानेवालेले केमकेबदुधनवंत उपरखोटोपण गुनाहनो श्रारोप ained वलीपरिग्रहनी चिंतायें व्याकुलताने करवेकरीने धर्मकर्मस्मृतिके ० धर्मकार्यं संजाल तेहनोहरणकरीलिये माटे हे विवेकीजनो एधनते प्रायें बाहुल तायें परनाजोगमांयावे एटले एकेंसंच्योहोय बीजोजोगवे एहवोजेए नूरिके ० परिग्रहतेहने त्यो बांगो यक्तं कीटिकासंचितधान्यं मद्दिकासंचितंमधु ॥ प : संचितं वित्तं परैरैवोपभुज्यते ॥ १ ॥ जेमयोगियें घणाकष्टेकरी सिद्धिनारसनो संग्रह कोने वलनिपूरमांकाशेवनानोगमांश्राव्यो तेमको इनुसंच्युधन कोइकनोगवे ६ क्षेत्रेषु नो वपसि यत्सदपि स्वमेतद्यातासि तत्परनवे किमिदं गृहीत्वा ॥ तस्यार्जनादिजनिताघचयार्जितात्ते जावी कथं नरकडुःखनराच्च मोक्तः ७ a || हवे तरकीने सातखेत्रे धनवावखानुं उपदेशक देवे हेधनवंत जे तुं बतुंपोतानुंस्वके० धन तेहनेसात क्षेत्रने विषे नथीवावरतुतो एधननेतुंसुं परनवेंसा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहममत्वमोचनाधिकार. थेंलेजनारले एटलेहमणातोतुं लोननावशथकी धननेसुमार्गे खरचतोनथी पणते धन परनवेंताहरीसाथें नजयावे वलीतेधनना नपार्जनकरवाथी उपमुंजे अघ के पापनो चयके समूह तेथी अर्जितके उपजाव्यो एहवोजे नरकसंबंधीःख तेहनो नरके जारतेहथी मोदके लूटवुतेकेमथाशे॥ ७॥ इति श्रीअध्यात्मकल्प द्रुमे धनममत्वमोचनोनामचतुर्थाधिकारः समाप्तः॥ अथ देहाधिकारः॥पुष्णासि यं देहमघान्यचिंतयं स्तवोपकारं कमयं विधा स्यति॥ कर्माणि कुर्वन्नितिचिंतयायतिं जगंत्ययं वंचयते दि धूर्तराट् ॥१॥ अर्थ ॥ हवेपांचमॆअधिकारें शरीराश्रयी ममत्वमूकवो तेकहेले तेमांप्रथम पा पकरीने देह,पोषणकरवुनही तेकहेजे हेआत्मातुं अपके पापने अणविचारतोथ कोदेहने पुमासिके० पोखेडे ते आ देह तुजने सुंठपकारकरशे वली थायतिके आ वताकालनी चिंताचिंतवी हिंसादिककर्मकरतोथकोप्रवर्त्तनारो एहवोजेताहरोदेहते धूर्तेनोराजाले सर्वजगतने वंचयतेके ठगेडे तोतुंपापकरीनेदेहने पुष्टकरे पण एदे हतेबाखरतुजनेगसे बेहदेहीजाशे ॥ १ ॥ कारागृहाबहुविधाशुचितादिदुःखा निर्गतुमिचति जडोपि हि तहिनिय॥ क्षिप्तस्ततोधिकतरे वपुषि स्वकर्मवातेन तदृढयितुं यतसे किमात्मन्॥शा अर्थ ॥ हवेएशरीरते काराग्रहीपण®मोडे तेदेखाडे हेयात्माजेप्राणी जड के मूर्खहोय तेपण कारागृहजे बंदीवानुं जेमा बहुविध अशुचिता अपवित्रता आदि शब्दयी हुधा तृषा वध बंधनादिऊःखहोय एहवाकारागृहने नेदी खात्रादिकपाडी ने नीकलवावांने तोतुजने स्वके० पोतानाकर्मने समूहें तेकाराग्रहथीयधिकुंएह बुंजे वपुके शरीररूपबंदीखानुं तेमांघाल्यो तोएहवाकारागृह सरिखोजे ताहारो देदतेहने दृढकरवानेज सुंनद्यमकरेले केमके काराग्रह बंधनतोथोडं पणदेह बंधनतो जावजीवसुधी तथापरलोकेंपणहोय तेमाटेदेह-बंधन अधिकजाणवु ॥२॥ चेशंबसीदमवितुं परलोकःखनीत्या ततो न कुरुषे किमु पुण्यमेव॥शक्यं नरदितुमिदं हि न फुःखनीतिः पुण्यं विना दयमुपैति च वत्रिणोपि॥३॥ अर्थ ॥ हवेपरनवनाउःखथी बीहीतोथको घणुजीववानेअर्थेजे देहनेपोषे तेने कहेले हेयात्माजोतुं शरीरने परलोकसंबंधीयुःखनाबीकेंकरी अवितुकेराखवावां बेजे तोतुंपुण्य नपार्जन केमनथीकरतो केमकेपुस्करी एशरीरकुःखनानयथकी रखा यनही एमतोकाश्नथी एटलेशरीरने दुःखनाजयथी राखवानेपण पुण्यजसमर्थडे Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्प डुम. नेवली पुण्यविनानु तो वज्ज्रिजेइंड् तेहनुंशरीरपण नाशपामेवे तेमाटेजोपरलोकें दुःखी बी तो तुंपुष्यकर ॥ ३ ॥ देहे विमुह्य कुरुषे किमघं न वेत्सि देवस्थ एव नजसे नवडुःखजालं ॥ लोहाश्रितोहि सहते घनघातमग्नि र्बाधा न तेस्य च नमोवदनाश्रयत्वे ॥ ४ २६ 0 अर्थ || हवेजेशरी र जेतुं पोषणकरेवे तेशरीरमांरह्योथकोज तुंः खपामेने एहवं देखाडे किंनवेत्सि के हेयात्मातुं देहनेविषे मोहपामिने पापकरेले नेते देहमां रह्योथकोज नवदुः खना समूहप्रतेंपामेबे तेकेमनथी जाणतो एतोनिकी लोह श्री मयुंजे तेजेम घणा घणोना प्रहारोनेसहन करेवे तेमतुजने तथा ए शरीररूप लिनेपण ननवत् के० प्राकाशनीपरें अनाश्रयत्वेके ० निरालंब पशुंकरेतो बाधाके० पीडानहोय एटजेलोहाश्रित अमीनीपरें तुंपणदेहाश्रितथको दुःखपामेढे कुष्टः कर्मविपाकनूप तिवशः कायादयः कर्मकृत् बध्वा कर्म गुणैर्हपी कचपकैः पीतप्रमादासवं ॥ कृत्वा नारकचारकापचितं त्वां प्राप्य चाशु बलं गंतेति स्वहिताय संयमजरं तं वाहयाल्पं ददत् ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ वेदेहकर्मकरतुं उपमानकदेवे हेयात्मा एडुष्ट निर्दय एहवोदेहनामे क करके ० राजसेवक तेतुजने कर्मरूप घाबंधने बांधीने नरकरूप बंदिखाना संबं घीयापदानो उचितयोगएहवोकरी पढेबलताकीने उतावलोजतोरहसे एकर्मकरक के कर्म विपाकनामाजेराजा तेहनोवशवर्त्तिने एटजेकर्म विपाकराजायें एहनेत्रे माजीव तें पीकजे इंड्रियतेरुप चषकजे मद्यपाननापात्र त्रणेकरी पां चविधप्रमादरूप याश्रवनामामद्य पीधुबे एहवोजाएगीनेतुं पोताना हितनेयर्थे ते कर्म करजे शरीरतेने थोपलथहार दोपरहितश्रापीने संयमरूपनारवहरावके जेथ कीताहरा श्रात्मानी सिद्धियाय ॥ ५ ॥ यतः शुचीन्यप्यशुचीनवंति कृम्याकुलात् काकशुनादिनदयात् ॥ शग्नाविनो नस्मतया ततोऽगात् मांसादिपिंडात्स्वहितं गृहाण ॥६॥ अर्थ || हवेएशुचिदेदथी बीजापदार्थपण अपवित्रथाय तेकहेबे शुचिके० प वित्रजेवस्तु एवाखीरखांमप्रमुख तेपण एशरीरनासंगथी अपवित्रथाय तेमाटेएश रकबे कबेक मिजे नदरप्रमुखनाजीव तेोकरीयाकुजके० व्याप्त तथा का ast कुतरा इत्यादिकजीवने नवायोग्य ने प्राणगयापछि तत्काल नस्मथय Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० विषयप्रमादत्यागाधिकार. राखथनारने वली मांसादिक,पिमडे एहवाए असारशरीरथकीतो जे स्वहितके आत्मानेहितकारकएहवा संयमादिकतेप्रतेलेश्ने आत्मसाधनकर ॥ ६ ॥ परोपकारोस्ति तपो जपो वा विनश्वरायस्य फलं न देहात् ॥ सनाटकादल्पदिनाप्तगेहमृत्मिमूढः फलमश्नुतेकिं ॥ ७ ॥ अर्थ ॥ वलीयुक्तिविशेषे देह सफलकरवुकहेजे जेपुरुषने एविनाशशील एदवू जेदेह तेथकी परोपकार तथा तप जप प्रमुखनथाय तोतेपुरुष ना.राखेनुं थोडा दिवससुधिपाम्युं एहजेघर तेसरिखो एमाटीनापिमरूप देहनुपरमूढतो शोफ लपामें जेमनाडामुंघरते वापरियेंतोजशासै नहिकांजेनाडुखरचियेंते व्यर्थजाय अनेवली आखरपोतानुंपण तेघरथायनही तेमएदेहनेपण अहारादिकनाडुंधापीने पोष्युथको तपजपादिकेंकरी वावरीयें तोजसफलथाय नहिकांनिःफलजाणवू ॥७॥ मृपिंडरूपेण विनश्वरेण जुगुप्सनीयेन गदालयेन ॥ देहेन चेदात्महितं सुसाधं धर्मान्नकि तयतसेऽत्रमूढ ॥७॥ अर्थ ॥ वलीतेहिजकहे जेमाटीनापिमसरिखं विनाशीयाचारवंत तथाडगंबा करवायोग्य अनेरोगर्नु अालयके घर एहवोजेदेह तेणेकरीने धर्मकरवाथी आ त्महितसाधq तुजनेसुलन तोहेमूर्ख अत्महितसाधवाने केमउद्यमकरतोनथी माटे असारजूतदेहथी सारनूतथात्मानो हितसाधवाने सर्वथाउद्यमकर ॥ ७॥ इतिश्री अध्यात्मकल्पमेदेह ममत्वमोचनानामें पांचमोअधिकारसंपूर्णथयो. अत्यल्पकल्पितसुखाय किंमिडियार्थ स्त्वं मुह्यसि प्रतिपदं प्रचुरप्रमादः॥ एते क्षिति गहने नवनीमकदे जंतून यत्र सुलनाशिवमार्गदृष्टिः ॥१॥ अर्थ॥पूर्वेकह्युजेदेहनिग्रहकरवुतेकांश विषयनीममतामूकवासीवाय थतुंनथी मा टेहवेब अधिकारे विषयप्रमाद त्यजवा आश्रयी उपदेशे तिहां प्रथम इंडियार्थ मो हत्यज तेकहेले हेयात्मातुं घपुजप्रमादवंतथको पण अतिशयेंकरी अल्पके थो मुंपणकल्पनामात्र जेसुखतेपण परमार्थथीतोःखजले पणतेंसुखकरीमान्युं एहवं जेसुख तेहनाअर्थे प्रतिपदके० गमेगमें इंडियार्थजे शब्द रूप रस गंध स्पर्श तेणेक री सुमुंजायजे एइंडियार्थते जंतुके० प्राणीने गहनके अपार एहवोसंसाररूपजे नी मके० रोइ कक्के अटवीतेमां दिपंतीके० घालेले बलात्कारें तेमांप्रवेशकरावे जिहां शिवके मुक्तिमार्गनुं दृष्टिदर्शनतेजीवने सुलननथी जेमकोइबीजोपण गह नवनहोयतोतेमांहें शिवके निरूपव्यमार्गनुं जेदर्शनते उर्लनहोय तेनीपरेंजा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ अध्यात्मकल्पम. एवं ॥ १ ॥ इहांप्रमादना पांचप्रकार तथा थानप्रकारनी गाथाकहेले. मशं विषय कषाया निहाविकहाय पंचमीनणिया॥ एए पंच पमाया जिवं पाउंति संसारे॥१॥ तथाधावप्रकार कहेले. पमाउयमुगिदीही नपिउथग्नेय ॥अन्नाणं संसक चेव॥ मिहानाणं तहेवय॥ १॥रागो दोसो मसंसो धम्ममिय थायरो॥ जोगाणं डप्पणि हाण ॥ बहाव जियव ॥ ५ ॥ आपातरम्य परिणामःखे सुखे कथं वैषयिक रतोसि॥जमो पि कार्य रचयन् हितार्थी करोति विछन् यज्दर्कतर्क ॥२॥ अर्थ ॥ हवेसंसारिकसुखते प्रथमतोमुखदायी पण परिणामेंःखदायी तेकहेडे हेचतुरयात्मातुं आपातके तत्कालमात्रतो रम्यमनोहरले पणपरिणाम के विपाककालें महाउःखदाइप एहवा विषयसंबंधी सुखमां सुंराच्योडो केमके पोतानाहितने वांडनार एहवोजे जडके० मूर्खप्राणीहोय तेपण कोकार्यकरेतो उदर्कके जेयागामिककालतुंफल तेह तर्कके विचार करीने परिणामे यहितका रीहोयतेने त्यजे तोतुंचतुरता परिणामें उःखदायी एहवाजे विषयादिक तेप्रतें केमधाचरे एयाचरवा तुजने योग्यनथी ॥ ५ ॥ यदिजियाथै रिह शर्मबिंदवद्यदर्णवत्स्वःशिवगं परत्र च ॥ तयो र्मियोस्ति प्रतिपदता कृतिन् विशेषदृष्ट्यान्यतरदाण तत् ॥३॥ अर्थ ॥ हवेसंसारिकसुखनी अल्पतादेखाडेले हेचतुरथात्मा इहलोकनेविषे ६ पियार्थजे शब्दादिक तेणेकरीने वेध्युंजे तुन्डसुख थनेवलीजे परलोकें अर्णवकेस मुसरिखं स्वःशिवगंके० देवलोक अनेमुक्तिसंबंधीजेसुख तेसुखने मिथःके० मा होमांहें प्रतिपदता एटलेशत्रुनाव केमके जिहाडियार्थ-सुखडे तिहामुक्तिसुख नथी अनेजिहां मुक्तिसुखबेतिहां इंडियार्थसुखनथी तेमाटेविशेषदृष्टियेंकरी तेबेदुमा जेहनेतुंरुडोजाणे तेहने ग्रहणकर ॥ ३ ॥ नुक्ते कयं नारकतिर्यगादि दुःखानिदेदीत्यवधेदि शास्त्रैः॥ निवर्तते ते विषयेषु तृष्णा बिनेषि पापप्रचयाच्च येन ॥४॥ अर्थ ॥ हवेतेहिजविशेषे देखाडेने हेयात्मा देहवंतप्राणी नरकतिर्यचगतीनाः ख केवाप्रकारेंनोगवेडे एटबुंतुं शास्त्रमाथी जोइने अवधेहिके ० निश्चयकर तोतुजने निश्चेथकी विषयनेविषे तृमानीनिवर्तिथासे अनेपापना संचवाथकीतुंबीहेतोरदिश. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री ममत्वमोचनाधिकार. गर्भवासनरकादिवेदना पश्यतोनवरतं श्रुतेः ॥ नो कपायविषयेषु मानसं श्लिष्यते बुध विचिंतयेति ताः ॥ ५ ॥ ० ० अर्थ | वजीते ही कहे हेपंमितप्राणी अनवरत के निरंतर श्रुतजे शास्त्रतेरु पी के नेत्रे करीनेगर्नावास तथानरक यादिशन्दथी निगोद एकेंड्रियादिक तेसं बंधी वेदनाप्रजोता थकां ताहरुं मानसके० चित्तते कषाय तथा विषयनेविषें नो श्लिष्यते के० अशक्तनथाय एहेतुमाटे पूर्वोक्तवेदनाउने सम्यकरीतेंविचारीसतो ता हरुंचित्त विषयकषायथकी किंचितमात्र उनिनथाय ॥ ५ ॥ वधस्य चोरस्य यथा पशोर्वा संप्राप्यमाणस्य पदं वधस्य ॥ शनैः शनैरेति मतिः समीपं तथाखिलस्येति कथं प्रमादः ॥ ६ ॥ शल अर्थ | वजी मृत्युनय देखामी प्रमादत्यजवानुं प्रतिबोधकरे जेमवधकरवाने का ढया एहवाजे चोरतथा बोकडाप्रमुखजेपशु तेहनेवधनास्थान के लड्जतां जेमजेमव धना स्थानकतरफ पगलानरे तेमतेमथोडेथोडे मृत्युपरानजीक यावे तेहनीपरें स प्राने थोडेथोडे घडी पहोर दिवस मास वर्षादिकने जावेकरी मृत्युहुकडो थावे कारणमाटे यात्मानाहितसाधनने विषे विलंब के मकरियें अर्थात् प्रमादत्य जीने सर्वथाधर्मविषे तत्परथातुं ॥ ६ ॥ बिनेषि जंतो यदिङः खराशे स्तदिद्वियार्थेषु रतिं कृथा मा ॥ तवं नश्यति शर्म या नाशे च तस्य ध्रुवमेव दुःखं ॥ ७ ॥ अर्थ || हवेसुखनो शीघ्रके तुरतनाशपणुंदेवाडीने जीवनेप्रतिबोधक हेजी वजोतु दुःखनासमूहथकी बीहेबे तो इंडियार्थजे शब्दा दितेहने विषे रतिके० रागकेमक रेम इंडियानुंजे शर्म के सुखतेागु के बतावलोज नाशपामेळे नेते हनानाशपति दुःखतो ध्रुवके० निश्चल चिरकाललगें निश्चितले जेमप्रकाशनेयं ते अंध कार निश्की होय तेमसुखनेयंते दुःखपए निवेंथ की जहोय ॥ ७ ॥ मृतः किमु प्रेतपतिरामया गताः दयं किं नरकाश्च मुदिताः ॥ ध्रुवाः किमायुर्धनदेहबंधवः सकौतुको यधिषयैर्विमुह्यसि ॥ ८ ॥ अर्थ ॥ वलीप्रकारांतरेजीवने सुखनाप्रतिबंधकदेखाढेबे देयात्मा प्रेतपतिजे यममृत्युलक्षण तेसुंमुखो के जतोरह्यो तथाष्टकारी ग्रामयके० रोग यक्तं रो गाडी हवं पंचैव लरकाडसही ॥ नवनवइसहस्सा बच्चासयाचेव पणयाली Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अध्यात्मकल्पम. १५६७एएए६४५ खासे सासे जरे दाहे कुनिसूले नगंदरे॥अरसा अजीर्ण दीहि मुहसूले अरोयए ॥ १॥ अविवेयण कंम् अकणबाधाजलोयरे ॥ कुडे एमाश्वा रो गा पीलयंति सरीरिणं ॥ २ ॥ एसोलरोग महोटाकह्याने तेदेहनेत्राश्रयीजरह्याने ते सुंक्यपाम्या तथासातनरक तेहनाबारणातेसुं मुश्तिाके ढंकाणा बंधथया तथा आयुष धन देह अनेस्वजनजे बंधुतेसुंध्रुवके० निश्चलशाश्वता जेमाटेतुं सकौतु कके सहर्षवंतथको विषयनेविषे मोहपामेले एटलेमृत्यु रोग अने नरक एत्रण नयतो विद्यमान अने यायु धन देह स्वजन एतोअस्थिर तोतुंसहर्षपणुंते शा कारणीधरे तेकांइसमजातुनथी॥ ७ ॥ विमोह्यसे किं विषयप्रमादै र्धमात्सुखस्यायतिखराशेः॥ तगर्धमुक्तस्य हि यत्सुखं ते गतोपमं चायतिमुक्तिदं तत्॥॥ अर्थ॥ हवे विषयसुखते निदानफुःखरूपले तेकही जीवनेप्रतिबोधे देयात्मातुजने विषयनेप्रमादेमिलीने निदान उःखराशीके ० दुःखनासमूह तेहने सुखनाचमथकी वि मोह्यसेके मोहपमाडे एटलेखनासमूहनेविषे सुखनीत्रांतियें जेतुंमोहपामेले तेमात्र विषयप्रमादना वशथकीजपामे एनावार्थ तेमाटे गईमुक्तके तृमारहि त एहवोयकोतुजने उपशमलणरूप गतोपमके अनुपमसुखते आयतिके नि दानमुक्तिदातार तेमाटे तृष्भारहित निरिहतासुखनेादर ए इतिश्रीअध्यात्मकल्प जुमे विषयावशतोपदेशः षष्टोधिकारः ॥ ५ ॥ अथ कषयाः॥रे जीव सेहिथ सदिष्यसि च व्यथास्ता स्त्वं नारकादि पु परानवनूः कषायैः॥ मुग्धोदितैः कुवचनादि निरप्य तः किं क्रोधान्निहंसि निजपुण्यधनं उरापं ॥१॥ अर्थ ॥ हवेसातमेंअधिकारें कपायादिक त्यजवाथाश्री उपदेशकरेने त्यांप्रथम कषाय-फलकहेडे हेजीवतुं कषायजे क्रोधादिकतेनाहेतुथी नरकादिकनेविषे परानव जेपीडा तेहनो नाजन थको तें माहा कुःसह वेदनायो सहनकरी अनेवलीपण सहीश तेमाटेमुग्धजे अजाणलोकनाकहेला जे कुवचन गालप्रमुख इत्यादिकतुबकार गोनेवास्ते उर्लनएबुंजेपोतानुं पुण्यरूपीयुंधन तेनेक्रोधीगुंहणेने एटलेअल्पकारण माटे कषायकरीने उर्लनजेपुण्यरूप धनतेनेहरे तेमाटेकषायनकर, ॥ १ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायत्यागाधिकार. पराभिभूता यदि मानमुक्ति स्ततस्तपोखंडमतः शिवं च ॥ मानाह तिर्वचनादिनिश्च तपःक्षयस्तन्नरकादिःखं ॥ २ ॥ वैरादियात्रेति विचार्य लानालानौ कृतिन्नानवसंजविन्यां ॥ 0 तपोऽथवा मानमवानिभूताविहास्ति नूनं हि गतिर्द्विधैव ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ अर्थ || हवेमानमुकवानुं अनेराखवानुं फलकवे हेयात्मा परजेान्यजन तेथी अनि ति अपमान आक्रोशादिकनपजेयके मानजेयहंकार तेनेमुकीत्र्याप जेणे ardhaपथी मोक्षप्राप्तिथाय यनेडुरवचनादिकेंकरी जोमानच्यादरीशतो तपनो कृपया तपथके नरकादिकडुःखथाशे तथायालोकेपण वैर धनहानि मरणा दिकःखया से माटे निपुणात्मा एमपूर्वोक्तप्रकारें मानमुक्या थी लाजले अनेमान यादव एवातोविचारीने खानवके० एकनव संबंधिनी निनू तिजेपरा नव ते पजे ते पण तपनेराख अथवामाननेराख केमकेएकार्यमां बेजनपायले पण तेमां नितिनुं तो एकजनवनु दुःखले नेमानकस्याथीतो तपचयथाशे तेवारें नवो वेंडःख माटेमानत्यजाने तपनेराख एबेकाव्य नोर्थएकोले ॥ २ ॥ ३ ॥ श्रुला कोशान् यो मुदा पूरितः स्यात् लौष्टाद्यैर्यश्वाढतो लोमदप ॥ यः प्राणांतेप्यन्यदोषं न पश्यत्येष श्रेयो ग् लतेव योगी ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ हवेकपायतज्याथी मुक्तिफलले तेकहेले जेयोगीसाधु याक्रोश गाल प्रमुख सांजलीने यानंदपामी विचारेंजे एगा निनुं निधेय में नंतिवार अनुनयुंबे एम चिंत वी वीजेलोह पाषाणादिकें हणायोथकोप जेनुं रोमांचित हर्षितथाय अनेएम चिंतवेजे याजमाहरे विशेष निर्जराथ एमजाली वीजेसाधुप्राणांतेपण अन्यना दोष तथा गुणनदेखे पण पोतानोजदोष देखे एहवोजेयोगीश्वर मन वचन खने का योगवंत ते तावलोज श्रेयजेमोद तेनेपामे ॥ ४ ॥ गुणस्तव कदाच कषायै निर्ममे नजसि नित्यमिमान् यत् ॥ किं न पश्यसि च दोषममीषां तापमत्र नरकं च परत्र ॥ ५ ॥ ३१ ॥ हवेयुक्तिक कषायमां गुणनो नाव देखाडेबे हेयात्मा कषायजेक्रोधा दिक तेजनेकोवारें कोइप गुणकखोने के जे थकीतुं एकषायने नित्यप्रत्यें सेवेने व लालोकें संताप ने परलोके नरकनाडुःखयापनार एवोजे कषायनोदोष तेनेतुंन श्रीदेखतसुं जे निश्चितथको कषायनेसेवेबे ॥ ५ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अध्यात्म कल्पडुम. यत्कषायजनितं तव सौख्यं यत्कषायपरिक्षाणि नवंति ॥ तधिशेषमथवैतदर्क संविभाव्य जज धीर विशिष्टं ॥ ६ ॥ अर्थ ॥वजी प्रकारांतरें कषायत्यजतुं उपदेशेने हेयात्मा तुजनेकषायथी उपनुंजेसु व अनेकषायना परित्यागथी उपनुंजे सुख एबेनु विशेषजे अधिकपणुं तथा उदर्कके ० निंदानो विपाकजेफल तेसम्यक प्रकारें विचारीने पढे हेधीरपंमित एमांजेतुजने विशि उत्तमजावा मांत्र्यावे तेनेतुं यादरांगीकारकर ॥ ६ ॥ सुखेन साध्या तपसां प्रवृत्ति र्यथातथा नैव तु मानमुक्तिः ॥ खाद्या न दत्तेपि शिवं परा तु निदर्शनाद्वादुलबले प्रदत्ते ॥७॥ सम्यग विचार्येति विज्ञाय मानं रक्षन डुरापाणि तपांसि यत्नात् ॥ मुदा मनीषी सहतेऽभिभूतीः शूरः क्ष्मायामपिनीचजातिः॥८॥ ॥ हवेत करवाथी मानत्यागनी दुष्करता देखाडे हेखात्मा जेम तपनीप्रवृ नितेसुखसाध्य तेममानमुक्तिजे माननुत्यजवं तेसुखेसाध्यनथी तो श्राद्याके० पहेली कहीजे तपप्रवृनितेमुक्तियापवा समर्थनथी अने बीजोजेमानमुक्ति तेयद्यपिङः साध्यवे तोप मुक्तियापवाने समर्थ बाहुबलनेदृष्टांतें जेमबाहुबलने मानमुक्तिविना मात्र तपथकीज केवलज्ञान उपनुंनही अनेमानमुक्युं तेवारें तत्कालज्ञान उपनुं एवं सम्यग् विचारीने मानत्यजी ने यत्ने करीडर्लन एहवोजेतप तेनेराखतोयको कमाने विषे शूर एवोजे मनीषीके पंमित ते नीच जननो करेलो अनि ति जेपराभव तेनेपण मुदा ० हर्षे करीनेस हेबे ॥ ७ ॥ ८ ॥ एबेकाव्यनोर्थएकोले. परानिनृत्याल्पिकयापि कुप्यस्यधैरपीमां प्रतिकर्तुमिच्छन् ॥ न वेत्सि तिर्यङ्नरकादिकेषु तास्तैरनंतास्त्वतुला नवित्रीः ॥ए ॥ अर्थ || बजीएपरिसह सहेवा श्राश्रीज उपदेशेबे हेयात्मातुं थोडीपण परनी करे लीजे निनूति पीडादिक तेोकरी निनूतिना करनारजे पुरुषते पर कोपेढे अने वली पापकरीने तेहना प्रतिकारने वांलेले एटले पूर्वजन्मांतरना पापविपाकथकी प राजवपामे अनेवली तेहनो प्रतिकारपण पापेकरीनेज वांबेले परंतुतेपापेकरीने तुं अनि तिजेपीडायो तेतियैचनरकादिक गतिने विषे अनंततथाथतुल मोहोटी एवि वित्रीकहेतां पीडाथाशे एवंकांनथी जाणतो ॥ ५ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायत्यागाधिकार. धत्से कृतिन् यद्यपकारकेषु क्रोधं ततो धेारिषएव ॥ थोपकारिष्वपि तवार्तिकृत् कर्महन्मित्रवहिर्द्विषत्सु ॥ १० ॥ ॥ हवेोधकरat तेवैरीनेज वियुक्तले तेकले हेपंमितात्मा जोतुं प्रपकारक शत्रुविषे कोरेतो तेनेबदजेताहरा अंतरंगनाजे क्रोध मान माया लोन राग द्वेष मलीने तेहनेविषेज क्रोधधर केमके शत्रुथी बीजोको तुमने वधारेःखदाइनथी अथवा उपकारक मित्रनेविषे जोतुंक्रोधधरतोनथी तेवारेंतुं सं सारमा यतिकारी एहवाज्ञानावर्णादिक कर्म तेनोहरण करनाराजे उपसर्गादिकना करनार शत्रु तेनापसर्गनेकरवेकरी बाह्यदृष्टियेंतोते ताहराशत्रू पराकर्मदयकर arti परलोकना अनंत सुखनीप्राप्तिकरवामां साह्यकारीथया माटे तत्वदृष्टियें जोतां अन्यंतरपणे ते मित्रनावेज परिणम्या तेथी उपसर्गका रकशत्रुने तत्वदृष्टीयें मित्रतुल्य जोइने तेमित्रने विषे क्रोधनधरवो एनावार्थबे ॥ १० ॥ अधीत्यनुष्टानतपः शमाद्यान् धर्मान् विचित्रान् विदधत्समायान् ॥ न लप्स्यसे तत्फलमात्मदेहक्लेशाधिकं तांश्च भवांतरेषु ॥ ११ ॥ अर्थ || हवेमायात्यजवा श्रीपदेशे यत्मातुं प्रधीतिके०जणवं तथा नुष्टानजे क्रियायावश्यकादिक तथातपउपशमादिक नानाविधधर्म ते मायाके० कपटसहित करतोथको मात्रतुं पोतानादेहने कष्टप्रापेले पण तेथी व्यतिरिकके० बीजूंफलकां नवांतरने विषे पामीसनही वली जवांतरनेविषे ते धर्मनेपणपामीसन ही मायावी बोधीपामवीर्लनहोय ॥ ११॥ सुखाय धत्से यदि लोनमात्मनो ज्ञानादिरनत्रितये विधेहि तत् ॥ दुःखाय चेदत्र परत्र वा कृतिन् परिग्रहे तद्वदिरांतरेपि च ॥ १२ ॥ अर्थ || हवेलो त्यजवायाची उपदेशकरे हेयात्माजोतुं पोतानासुखने * लोकरे तोज्ञानादिक जे ज्ञानदर्शनने चारित्र एत्ररत्ननेविषे लोनकर बी जीवनधान्यादिक असारवस्तुथी कांहिसुखनथाय माटेहेचतुरखात्मा तुखालोके दुःखने बाह्यश्रीधनधान्यादिक ने अंतरंगथी क्रोधमानादिक परिग्रहने विषे लोन करिसनही ॥ १२॥ करोषि यत्प्रेत्य हिताय किंचित्कदाचिदल्पं सुकृतं कथंचित् ॥ माजी रस्तन्मदमत्सराद्यैर्विना च तन्मां नरकातिथिः ॥ १३ ॥ अर्थ || हवेजीवने सुरुतरखवायाश्रयी उपदेशेने हेयात्मातुं कोइकाले कथंचित् घ ૫ ३३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अध्यात्मकल्पषुम. | ऐकष्टेकरीने काइएक अल्पके० थोडंपणसुरूत जेदानादिक तथातपसंयमादिकते प्रेत्यके परलोकना हितनेयर्थेकरेले तेसुकतने मद मत्सर क्रोध लोनादिकें करीने हारिसनही अनेवली तेसुकृतविना सातनरकनो अतिथिके परोणो थशनही एटले सुकत खोयाथी नरकगतिथशे तेमाटे मदमत्सरादिकने निवारीनेसुस्तराखजे॥१३ पुरापि पापैः पतितोसि संसृतौ दधासि रे किं गुणिमत्सरं पुनः ॥ न वेत्सि किं घोरजले निपात्यस नियंत्र्यसे शृंखलया च सर्वतः ॥१४॥ । अर्थविली मत्सरत्यजवायाश्री उपदेशेने हेयात्मातुं पूर्वेपण पापेंकरीने संसारमा पड्यो अनेवलीगुणवंतने विषे अ॒मत्सरधरेले एमकांनथीजाणतोजे एमत्सरतोमु जने घोरके अगाधःवरूपियुं जेमां जलवे एहवा संसाररूपीया समुश्मानाखेडे अनेवली ताहरा सर्वांगने निकांचित कर्मरूप सांकलेकरीबांधे ॥ १४ ॥ कष्टेन धर्मो लवशो मिलत्ययं दयं कषायैर्युगपत्प्रयाति च ॥ अतिप्रपन्नार्जितमर्जुनं ततः किमड़ा ही हारयसे ननस्वता॥१५॥ अर्थहवेत्रात्माने कटेंनपर्जितधर्म राखवानो उपदेशकहेले हेयात्मातुंधर्मनुं एकल वलेशमात्रपण कटेंकरीने संचयकर केजेथकीताहरो कषायेकरीने युगपतके समकाले घणाकालनो संचित करेलुंजेक्लेशते एकवारेंज झ्यपामे तेमाटेहेमूर्ख घणाग्द्यमे उपा युएहवं अर्जुनजे सुवर्ण ते वायुएकरीने हाइतिखेदे झुंहारी जाय एटलेसुवर्णरस वायुयें हास्यानीपरें कप्टेंनपायोजेधर्म तेनेकपायरूपवायुयें हरावे तेयुक्तनथी ॥१५ शनवंति सुहृदः कलुषीनवंति धर्मा यशांसि नि चिता यशसीनवंति॥स्निाति नैव पितरोपि च बांध वाश्च लोकक्ष्येपि विपदो नविनां कपायैः ॥ १६ ॥ अर्थ ॥हवेकषायथी श्याश्याअवगुणथाय तेकहेले संसारीजीवने कषायेंकरी ने मित्रतेशत्रूथाय वलीधर्मजे तपदानादिक तेमेलाथाय वलीचिरकालनोसंचेलोयश तेपण अपयशसरखोथाय वलीमातापिता तथा बीजास्वजनादिक तेपणको स्नेह नकरे तेमाटेप्राणीने कषायेंकरी आलोकें अनेपरलोकेंपण आपदाथाय. ॥ १६ ॥ रूपलानकुलविक्रमविद्या श्रीतपोवितरणप्रनुतायैः॥ किं मदं वदसि वेत्सि न मूढानंतशः स्वनृशलाघवःखं ॥२७॥ अर्थ ॥ हवेजीवने मदनिवारवायाश्री उपदेशकहेले हेयात्मातुं रूप लान कु ल पराक्रम विद्या लक्ष्मी तप दान ऐश्वर्य तथाादिशब्दथी जाति परिवार स्त्री मं| - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायत्यागाधिकार. ३५ दिर इत्यादिकें करीने मद अहंकार गुंवहे? हेमूर्खधनंतिवार पोताना अतिशये लाघवपणानुजे दुःख तेकेमनथी विचारतो? तुंपोतेंज अनंतिवार कुरूप लानरहि त हीनकुल निर्बल मूर्ख दरिही तपकरवाने अशक्त कृपण दास किंकर एहवो अवतस्यो हतो त्यांपणसर्ववातें हीनपणुं अनुनव्यु तोबाजइहां मुमदकरेले ॥१७॥ विना कषायान्ननवार्तिराशि नवेनवे देव च तेषु सत्सु ॥ मूलं हि संसारतरोः कषायास्तत्तान् विदायैव सुखी नवात्मन् ॥२॥ अर्थ ॥ वलीफरीने कषायनत्यजज इढेले. देशात्मासंसारमा कषाय विना संसार संबंधीनी बार्तिनोसमूह होयजनही अनेतेकषायेंकरी विद्यमानते नवार्तिनीराशि दोयज केमके संसाररूपीया वृदनुमूल तेकषायज. माटेतेकषायनेबांझीनेसुखीथा. शांतिसुखनेपाम.॥ १७॥ समीदय तिर्यङ्नरकादिवेदनाः श्रुतेक्षणैर्धर्मरापतां तथा॥ प्रमोदसे यविषयैः सकौतुकै स्ततस्तवात्मन् विफलैव चेतना॥२॥ अर्थ ॥ हवेजेविषयने त्यजीशक्तोनथी तेप्राणीने शास्त्रनण्यो तेपणअफल ते आश्रीकहे देवात्मा श्रुतजेसिकांत तेनेजोवेकरीने तिर्यच नरक प्रमुखनी वेदनाने तथासर्वज्ञनापित धर्म-उलनपणुंडे एमतेसम्यक्प्रकारेंजाणीने पणजोतुं कौतुकस हितयको विषयमांराचे तेवारें ताहारो चेतनाजे ज्ञानदृष्टि तेनिस्फल केमके तुंन रकादिकनाउःखने जाणतोबतोपण उर्लनधर्मपामिने धर्मकरतोनथी ॥ १ ॥ चौरैस्तथा कर्मकरैर्ग्रहीते उष्टैः स्वमात्रेप्युपतप्यसे खं ॥ पुष्टैः । प्रमादेस्तनुनिश्च पुण्यधनं न किंवेत्स्यसि लुग्यमानं ॥ २० ॥ अर्थ॥ हवेधर्मरूपधन तेलुटातुंनथी तेयाश्रीजीवने उपदेशकहे देयात्माचोर लोको तथा उष्टकुलक्षणकर्मकर जेदासादिकतेणे स्वमात्रके मात्र बाह्यधनने अप हस्याङतां तुंपरितापकरेले पणपोतानापोष्या एवाजेप्रमाद तथा तनुके शरीर तेणेचो रनीपेठे खुटयु एहजे ताहरूं पुण्यरूप धन तेसर्वखंटाइजाय माटेतेहनी रक्षाकर केजेथीतुं नवांतरेंसुखीथाय ॥ २० ॥ मृत्योः कोपि न रहितो न जगतो दारिद्यमुत्रासितं रोगास्तेननृपादि जा न च नियोनिर्णाशिताः षोडश॥ विध्वस्ता नरका न नापि सुखिता धर्मेस्त्रिलोकी सदा तत्कोनाम गुणोमदश्च विनुता का ते स्तुतीला च का? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U अध्यात्मकल्पऽप. A अर्थ ॥ वलीयात्माने गुणरहितपणुंदेखाडी मदांमवा उपदेशकरे हेयात्मा जोतें मृत्युनामुखथी कोप्राणीराख्योनथी तथा जमतजे विश्वतेनुं दारिश्नाशपमो डथुनथी वलीसोलेरोगजे कासादिक तथाराजाने चोरप्रमुखनालय तेनाशपमाड्या नथी वलीसातजेनरक तेपणनिवास्थानथी तथाधर्मेकरीने त्रिनुवनने सदासुखीकीधुन थी इत्यादिकगुणमाहेलो एकगुणजोताहरामानथी तेवारताहारोगुणतेस्यो, अनेतेगु विना मदतेश्यो, तथा विजुताके मोहोटाश्तेशी, तथास्तुति प्रशंसानीवांना तेप पशी, एटलेपूर्वोक्त तथाविध कोश्गुणजोताहरामांहोयतो मदकरवोपएघटे पण तेविना तोजेमदकरवीतेसर्वे निर्थको तेमाटे मदमत्सरा दिकत्यजवा २१ इतिश्री अध्यात्मकल्पमेविषयकषायाद्यवशताधिकारः सप्तमः संपूर्णम्मः ॥ अथशास्त्राण्यानित्योपदेशः॥शिलातलाने हदि ते वहति विशंति सिद्धांत रसा न चांतः॥यदत्र नो जीवदयाता ते न नावनांकूरततिश्च लन्या॥१॥ थर्थ ॥ हवेवाग्मेंअधिकारे शास्त्रगुणकेहे त्यांप्रथमनपमानेशिकांतरेचित्तनुक ठिणपणुंदेखाडे हेआत्मा शिलाना तलियासरवा ताहराहृदयमां सिमांतरूपिया रसवहेले पणतेथीतारोअंतःकरण लिगारेनेदातोनथी केमकेएहृदयमां जीवदया रूप गीकोमलता तथानावनाजे अनित्यत्वादिक तेरूपीयाअंकूरनी श्रेणी देखाती न थी कोमलप्टथ्वी जेम जलप्रवाहनेयोगें आईतापामे तथात्यां अनेकअंकुरादिप्रगटे तेमवासनलिक्षिकजीवने सिमांतनायोगथी हृदयमा कोमलताथाय तथानावनाप्र मुख गुनपरिणामपणउपजे अनेउरसिदिकजीवने तोए शिलातल-दृष्टांतजाणवू. यस्यागमांनोदरसैन धौतःप्रमादपंकः स कथं शिवेच्छुः॥ . रसायनैर्यस्य गदाः दता नो सुर्खनं जीवितमस्य नूनं ॥२॥ अर्थ॥ हवेनक्तिविशेषेकरी सिमांतनुं माहात्म्यकहे जेप्राणिने आगमजेसिकांत तेरूपीया मेघनेरसेंकरी प्रमादरूपीयो पंकजेकचरो तेधोवाणोनथी तेवाप्राणिमुक्ति ध्रुवां एटले जेने सिद्धांतजाणवाथीपण प्रमादमट्योनही तेप्राणिपजे श्याथीप्र मादरहितय मुक्तिपामशे केमके सिक्षांतथीयधिक बीजोको प्रमाद परिहारनो नपायनथी तेनपरदृष्टांतकहे जेपुरुषने रसायनजेपारदादिक तेथीपण रोगक्ष्यन पाम्यो तेनेजिवतव्य तेघपुजलन एमश्हापणजे सिद्धांतजाणीने प्रमादरहितन थाय तोतेनेमुक्तिपामवी घणीज उर्लन ॥ २ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रगुणाधिकार. अधीतिनो दिकृते जिनागमः प्रमादिनो जगतिपापतेर्मुधा॥ ज्योतिर्विमूढस्य हि दीपपातिनो गुणाय कस्मै शलनस्य चतुष॥३॥ अर्थ ॥ हवेजे पुरुषसिमांतलणिनेपण प्रमादवंतने तोतेदनुजणवृथानेते कहे जे जेपुरुषप्रमादवंत सर्वथा उर्गतिनोपडनार तेय दिके केवलप्रजासत्कारादिक नेजअर्थे सिद्धांतनणे एवोहोयतेहनु नण्यु मुधाके निष्फलजाणवू तेनपर दृष्टां तकहे ज्योतिके प्रकाशेंकरीनेज मुंफाणोथकोदीवामांजश्पडे एवोजे शलनके० पतंग तेहनांच एजेनेत्र तेकेवागुणनायथैहोय एतोउलटायवगुणकारीजथाय तेमप्र मादिजीवरूपजे पतंगते अर्चासत्कारादिक ज्योतिमां मुंजाणोथको उर्गतिरूप दीप ज्वालामांपडे त्यांसिक्षांतरूपचतुतेकांईकामनावे सामोमोहकारीथाय ॥३॥ मोदंते बढतर्कतर्कणचणाः केचिजयाशादिनांकाव्यैः केचन कल्पि तार्थघटनैस्तुष्टाः कविख्यातितः ॥ ज्योतिर्नाटकनीतिलक्षणधनुर्वे दादिशास्त्रैः परे ब्रूमःप्रेत्य दिते तु कर्मणि जडान कुदंबरीनेव तान्॥४॥ अर्थ ॥ हवेतत्वज्ञान विना घणुंनग्योपण व्यर्थडे तेदेखाडे केटलाएकपुरुष घ पातर्कजेप्रमाण प्रमेयादिन्याय तेहनातर्कविचारने विषे चणके प्रतिष्टित एवाढता प रवा दिने जीपवाथकी हर्षपामेले तथावलीकेटलाक चिंतव्याअर्थनी रचनाएरयां एहवेकाव्येंकरीने कवीपणानीप्रसिदिथकी संतोषपामे वलीकेटलाएक ज्योतिष नाट क नीतिके व्यवहार शास्त्र लक्षणके सामुहिक तथाअश्व गजलहणादिक धनुर्वे दकेण्यायुध अन्यासनांशास्त्र आदिशब्दथी शकुन गारुमि इत्यादिक शास्त्रेकरीने सं तोषपामे पणपरलोकनेविषे हितकारीएवाजे संयमादिककर्मतेहनेविषेजो जडके. थज्ञानतोतेसर्वेने अध्यात्मशास्त्रने अनुसारे अमेंपेटनरा कहियें बैयें एटलेअध्या स्मशास्त्रनेमूकीबीजासर्वजे पापश्रुतादिशास्त्र तेपेटनराश्नाज ॥ ४ ॥ किं मोदसे पंडितनाममात्रात् शास्त्रवधीती जनरंजकेषु ॥ तल्कि चनाधीष्व कुरुष्व चाशु न ते नवेद्येन नवाब्धिपातः॥५॥ अर्थ ॥ वलीतेहिजढे हेपंमिततुं जनके लोकनेरंजनना करनार एहवाजे शंगार नाटककाव्यादिशास्त्र तेहने विषेप्रवीणथको नाममात्रपंमितपणाथी मुहर्षपा मै एलोकरंजकशास्त्रथी काश्यात्मार्थनीसिदिनथी पणतुंशास्त्रनेजाणिने शीघ्रपणे कांस्कएहवीकरणीकर केजेणेकरीने तुजनेसंसार समुश्मा बुझवुनथाय एटलेजिनाग मनगिने तेहनेअनुसारें संयमाराध ॥ ५ ॥ - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. धिगागमैर्माद्यसि रंजयन् जनान् नोयबसि प्रेत्य हिताय संयमे॥ दधासि कुदिंनरिमात्रतां मुने व ते क्वतत् क्वैष च ते नवांतर ॥६॥ अर्थ ॥ हवेक्रियाविना केवल आगमनणq तेपण अर्थसाधकनथी तेकडे हेमुनितनेधिःकारले केमकेतुं आगमसिहांत तेणेकरीने लोकने रीजवेडे पणपरलो कना हितनेमाटे संयमनविषेन्द्यमवंत नथीथातो तेमाटेतुकेवल पेटनराइजकरे पणताहरेयादराखqके नवांतरनेविषे तेजिनागमकिहां अनेलोकरीऊवकुंपणकिहां तथासंयमपणकिहां एटले नवांतरेएवीगतिपामिश के जिहांएमाहेलोएकेतुजनेनहोय. धन्याः केप्यनधीतिनोपि सदनुष्ठानेषु बहादरा दुःसाध्येषु परोपदे शलवतः श्रधानशुधाशयाः ॥ केचित्त्वागमपाग्निोपि दधतस्तत्पु स्तकान् येऽलसा अत्रामुत्र हितेषु कर्मसु कथं ते नाविनः प्रेत्यहाः॥७॥ अर्थ ॥ हवेथोडोजणावाथीपण किहांक क्रियानो उत्कर्षदेखामे केटलाकप्रा णी अल्पश्रुतवंततापण श्रमानजे सम्यक्ततेणेकरीने शुभाशयके निर्मलपरिणा मवंतहोयतेनेधन्यजे केमकेतेपारकानपदेशना लेशमात्रयीपण कुःखेसाध्य एवांजे जलाअनुष्ठान तपसंयमादिक्रियाविशेष तेहनेविष आदरवंतने अनेहाइतिखेर्दैकेट लाकतो आगमना नणनारबतां तथाआगमना पुस्तकधरतांबतांपण आलोक अने परलोकनेविषे हितकारीकर्म जेसंयमादिक तेहनेविषे निरादरकरेले ते पुरुषनेपरनवने विषेशृंथाशे एटलेपरनवेतेनी शीगतीयाशे अर्थात् ते माहाकुःखपामशे ॥ ७ ॥ धन्यः समुग्धमतिरप्युदिताईदाझारागेण यः सृजति पुण्यमऽर्विकल्पःपान किं व्यसनतोस्य तु उर्विकल्पै यो उस्थितोत्र सदनुष्ठितिषु प्रमादी॥७॥इतिवापाठः॥ अर्थ॥ वलीअर्थातरें एहिजढे जेअल्पश्रुतवंतथको पणकदाग्रहरहितहोय ते हने मुग्धमतिकहिये तेपणनखंजाण, केमकेजे उदितके सिक्षांतोक्त एहवीजे अ रिहंतनी आझातेना रागेकरीने रखेजिनाझानोनंगथाय एवीबुझिये कुविकल्परहित थको पुण्यकरेले अनेजेपतितथकोपण कदायहेंग्रस्तहोयतो तेनेघपुनस्येपण शोगुण जेलोकनेविषे द्यूतादिव्यसनथी कुविकल्पेंकरी उषित एटलेकांक पूजासत्कारादि कना लोनल्युथकुं पण व्यसनादिकें आसक्तपणेकरी कुविकल्पचिंतवे एटलेकेहेनेरी जर्व केहेनेमोहपमाडु केमकरि परीग्रहमेल एवीबुधिये रात्रदिवस खितथको रहे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० चतुर्गत्याश्रीतोपदेश. अनेनलायनुष्टान जेगुजक्रियातेनेविषे प्रमादवंतने तोतेहनण्युपण निष्फल था | काव्यपेहेलाकाव्यनुं पाठांतर ॥ ७ ॥ अधीतिमात्रेण फलंति नागमाः समीदितैर्जीवसुखैनवांतरे ॥ स्वनुष्ठितैः किंनु तदीरितैः खरो न यत्सिताया वहनश्रमात्सुख॥॥ अर्थ ॥ वलीतेजदृढकरेने हेअात्मा केवलनण्यामात्रथकीज आगमसिक्षांतते नवांतरनेविषे वांबितसुखेकरी फलेनही इष्टफलदायकनहोय पणतेसिक्षांतनेविषे कह्यांजे स्वनुष्टितके जलाअनुष्टान तपसंयमादिक तेनेबाराध्येबते आगमफलदायक होय तेनपरदृष्टांतकहे जेमरवरजेरासन तेसाकरनोनार नपाडवामात्रथी सुखी नहोय साकरनापरिनोगनुं सुखनपामे तेमागमनणवामात्रथीज आंगमोक्त क्रिया जनित फलपामेनही॥॥इतिश्री अध्यात्मकल्पद्रुमे शास्त्रगुणाधिकारोऽष्ठमःसंपूर्णः॥ अथचतुर्गत्याश्रितोपदेशः॥पुगंधतो यदणुतोपि पुरस्य मृत्युरायूं पिसागरमितान्यनुपक्रमाणि॥ स्पर्शः खरः क्रकचतोतितमामित श्व उखावनंतगुणितौ नृशशैत्यतापौ॥॥तीव्रा व्यथाः सुरकृता विविधाश्च यत्रानंदारवैः सततमभ्रनतोप्यमुष्मात् ॥ किं नाविनो... न नरकान् कुमते बिषि यन्मोदसे दणसुखैविषयैः कषाययुग्मं अर्थहवे एपूर्वोक्तशास्त्रधारांतर्गत चतुर्गत्याश्रीतउपदेशकहे। तेमांप्रथम शास्त्रोक्त नरकगतिनापुःखकहेडे निधेकरी नरकना एकपरमाणुमात्रना दुर्गधथी पुरवासिस मस्तलोक मृत्युथाय एहवामहाऽगंधमय नरकनापुमल वलीजिहां निरुपक्रमके अपवर्तनरहित निकांचित् अने सागरोपमेप्रमित एकसागरोपमथी मामीने तेत्रीस सागरोपम पर्यंत एहवाधाकषा केमके देवतायने नारकीनाआनषा सदाइ निरु पकमहोय वलीजिहां स्पर्शतेपण करवतनीधाराथी कर्कश वलीइहाथकी अनंत गुणफुःखदायी महाशीत तथा महातापजे एमदत्रवेदनाकहीने हवेपरमाधामीनी करेलीवेदनाकहेडे वलीजिहां देवताजे पन्नरने परमाधामीतेहुनीकरेली अतितीव्र कगेरजे वेदना तेविविधप्रकारना बेदन विदारणादिकहोय एप्रकारे निरंतर आनंद रुदनने शब्दकरी आकाशनेपुरतो एहवोजे नविष्यमाण नरक तेहथकी हेकुमतिवं| तात्मातुं केमनथीबिहितो माटे कषायसहितथको क्षणमात्रसुखनाकारक एह वाविषयजे शब्दादिक तेणेकरी हर्षनेपामेले एबेकाव्यनो अर्थएकोले ॥ १ ॥२॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अध्यात्मकल्प डुम. - बंधोऽनिशं वाहनताडनानि तृट्रामातपशीतवाताः ॥ निजान्यजातीयनयापमृत्यु दुःखानि तिर्यदिवति डुः सदा नि॥ ३ ॥ अर्थ || हवेतिर्यचगतिखा श्री दुःखदेखाडेबे निशके० नित्यबंधन तथा वाहन के ० ० जारनुनपाडवुं तथापराणादिकना प्रहारेकरी ताडन वली कुधा तृषा डुरामके ० sष्टरोग प्रातप तडको तथाटाढ्य वायुइत्यादिक तथावलीस्वजातीनोनय जेम म दिषने महिषनोनय तथा हस्तिने हस्तिनोनय तथा अन्यजातीयनय ते जेम मृगादि कने व्याघ्रादिकनोनय तथा पमृत्युजे कुमरण खम्‌प्रहारथी तथायाहेडी प्रमुख थी तथाजन दावानल विषमादिकयोगथी कुधातृषादिक गाढवेदना आकांतपणे अकालमृत्यु इत्यादिकप्रकारें तिर्यंचगतिमां जयंकरकठीन दुःखहोय ॥ ३ ॥ सुधान्यदास्याभिनवान्यसूया नियोंतगर्भस्थितगतीनां ॥ एवं सुरेष्वप्यसुखानि नित्यं किंतत्सुखैर्वा परिणामडुःखैः॥ ४ ॥ || वेदेवगतिश्रीः खकले नित्यप्रतें मुधाके० फोकट अन्यके० पारकी सेवा करवी केमके मनुष्यतो धननाजोने तथायाजीविकादिक कारणथी परनीसेवा करे देवतात तेवोको निमित्तनथी तोपणसदाकालें इंड्रादिकनी सेवाकरवी त थाप्रानवें वज्रप्रहारादिकनी पीडा ने निसूयाके परस्परें ईर्षा द्वेषादिकमां वलि अंतके ० ० चवननुंजय केमके सरवार्थसिद्धिना देवतानेपण चवननुंजयले तथागर्ना वासनुनय वलीदुर्गतिजे चांमाजादिककुलें अथवा तिर्यचनुंअवतारलेवं ते संबंधी नय इत्यादिक प्रकारें देवतानानवमांपण घणाप्रकारें प्रमुखले तेमाटेपरिणामें दुःखकारी एहवाजे देवतासंबंधी सुख तो ते सुखें सुंधाय माटेते सुखनेपण सुखकरी जाणवा ॥४॥ सप्तनीत्यभिनवेष्टविप्लवानिष्टयोगगददुः सुतादिचिः ॥ ० स्याच्चिरं विरसता नृजन्मनः पुण्यतः सरसतां तदानय ॥ ५ ॥ अर्थ || हवेमनुष्यगतिया श्री दुःखकले धुंवके० निवेंकरीने सातनीतिजे १ इह लोक २ परलोक ३ यादान ४ आकस्मिक ५ याजीविका ६ मरण ७ अपयश एसातनय तथा अभिनवके० राजा चोर डुर्ज्जनादिकथी पराभव तथा इष्टजे वस्त्र जन स्त्री पुत्रादिकनो वियोग शत्रुप्रमुखनो योगके० संबंध तथा गदके० रोग वली ः सुतके ० ० कुपुत्र यादिशब्दश्री कुमार्याप्रमुख इत्यादिकप्रकारेकरीने मनुष्यजन्मनु पण विरसपथाय तेकारणमाढे पुण्येकरीने मनुष्यजन्मनु सुरसपणुकरतुं ॥ ५ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तदमनाधिकार.. ४१ इति चतुर्गतिःखततीः कृतिन्नतिनयास्त्वमनंतमनेदसं ॥ हदि विनाव्य जिनोक्तकृतांततः कुरु तथा न यथास्युरिमास्तव ॥६॥ । अर्थ॥हवेनपसंहारकहे देपंमितमात्मा एप्रकारें अनंतकालसुधी अतिशय जयनीकरनार एहवीचारगतिसंबंधीजे फुःखनीश्रेणी तेप्रते जिनोक्त श्रीसर्वज्ञप्रणि त कृतांतजे सिद्धांत तेथकी त्वृदयमां विचारीने जेम ए चारगतिना सुःखनीश्रेणीयो तुजने कोश्वारें प्राप्तनथाप तेवो उपाय कर ॥ ६ ॥ आत्मन् परस्त्वमसि साहसिकः श्रुताय नाविनं चिरचतुर्गतिःखराशिः। पश्यन्नपीह न बिनेषि ततो न तस्य विच्छित्तये च यतसे विपरीतकार।। अर्थ ॥ हवेयात्मा चारगतीना मुःखजाणतोयकोपण धर्मनेविषे तत्परथातुं नथी तेवास्तेपरमअविचारीपणुं देखाडे हेत्रात्मातुं अविचारमाहमुख्यडो केमके आसंसारमा चिरकाललगें नावीएहवोजे चारगतिनाउःखनोसमूहतेदने श्रुतसिद्धांत रूपनेत्रेकरी देखतोबतोपण बीकपामतोनथी वलीतेछुःखना समूहनोविजेद करवा नेपण उजमालथातुंनथी माटेतुं उपरावांकर्मनुकरनारबो केमके उखल्नेद कर्मकर वानेबदले मुवक्षिकारीकर्मकरेजे॥७॥इति शास्त्रोपदेशांतरगतचतुर्गत्याधिकारसमाप्त अथमनः॥ कुकर्मजालैः कुविकल्पसूत्रजै र्निबध्य गाढं नरकाग्निनिश्चिरं॥ विसारवत्पदयति जीव दे मनः कैवर्तकस्त्वामिति मास्य विश्वसीः ॥॥ • अर्थ ॥ हवेचित्तदमन नामानवनमोहार कहे तेमांप्रथम आत्माने मनरूपशत्रु नु विश्वासकरवुनिषेधेने हेजीवतुजने मनरूपी धीवर तेकुविकल्परूप सूत्रगुंथ्या ए हवाजे कुकर्मरूपी जालो तेणेकरीगाढोबांधीने नरकरूप अग्निकरी मत्सोनीपरें चि रकाललगें पचावसे जेमधीवरपण मत्सने सूत्रनीजाले गाढोबांधीनेपले अग्नीमांप चावे तेमहांपण एउपनयजाणवू माटेतुंताहरामनरूप धीवरनोविश्वासकरीसनही जेम ते मनरूप धीवरनाबनावेला कुकर्मरूपजालमांपडेनही एवीरीतेंवर्त्तजे ॥ १ ॥ चेतोऽर्थये मयि चिरत्नसख प्रसीद किं उर्विकल्पनिकरैः क्षिपसे नवे मां॥ बों जलिः कुरु कृपांनज सविकल्पान् मैत्री कृतार्थय यतोनरकाबिनेमिय ___ अर्थ ॥ हवेधात्माबीहितोयको मनरूपमित्रने विनंतीकरे हेचिरकालनामित्रतुं चेतहैयामांहे हेघणाकालना सहचारीतुं महारानपर प्रसादकरीने एमाठा विकल्पने समूहेकरीने मुजने आसंसारमा सुनमावेडे तुजनेढुं हाथजोमीने कटुडं जेतुंमहारा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ अध्यात्मकल्पद्रुम. नपर कृपाकरीने गुनविकल्पजे धर्म ध्यानलक्षण तेहनीनजनाकरी थापणीमैत्री स फलकर केमकेतुं हवे नरकना छःखथी बीहूं ॥ २॥ स्वर्गापवर्गौ नरकं तयांतर्मुहूर्त्तमात्रेण वशावशं यत् ॥ ददाति जंतोः सततं प्रयत्नाशं तदंतःकरणं कुरुष्व ॥ ३ ॥ अर्थ ॥ हवेयात्माने मनवशकरवायाश्री उपदेशापेने हेयात्माजे अंतःकरण वशतथा अवशथको जीवने अंतरमुहूर्त्तमात्रमाज स्वर्गमोदा दिकना सुखप्रतेयापे अनेनरकनी प्राप्तिपणकरावे एटलेमनवशथको जीर्णशेठ तथाप्रश्नचंदराजर्षि इत्या दिकनीपरें स्वर्गमोदादिकापे अने मनअवशथको तालमत्स्यादिकनीपरें अंतर मुहूर्तमात्रमा नरकप्रतेआपे तेमाटेतुंताहरा अंतःकरणनेज सर्वथाप्रकारेवशकर ॥३॥ सुखाय जुःखाय च नैव देवा न चापि कालः सुहृदोरयो वा ॥ नवेत्परं मानसमेव जंतोः संसारचक्रभ्रमणैकहेतु ॥४॥ अर्थ ॥ हवेतेहिजकहे जीवने देवता तथा वर्षा शीत ग्रीष्मादिककाल तथा मित्र शत्रुतेकोपण सुखदायी तथादुःखदाश्नहोय पणएकमन तेहिजजीवने सुख दायी तथा कुखदायीहोय हवे तेमनकहेवूछे तेकहेले संसारसमुश्मा ब्रमणजे ज न्ममरणादिक तेह-एकहेतुले एवचन संझीपंचेंडी आश्रीजाणवू अन्यथा असंझीने मनना अनावे पण संसारमा व्रमण देखायले ॥४॥ वशं मनो यस्य समादितं स्यात् किं तस्य कार्य नियमैर्यमैश्च॥ दतं मनो यस्य च उर्विकल्पैः किं तस्य कार्य नियमैर्यमैश्च ॥५॥ अर्थ ॥ जेप्राणीनेपोतार्नुमन समाधिवंतबतो वशवर्तिहोय तेहने नियमजे ? शौच ५ संतोष ३ स्वाध्याय ४ तप ५ देवताप्रणिधानादिक लक्षण तथायमजे प्राणातिपात विरमणादिक पांचमहाव्रत तेहyसुंकार्य केमकेतेतोसर्वे मनवशकर वाना उपायले अनेजेवारेंते मनवशथयुं तेवारेतो ते सर्वगुण प्रथमजयाव्या अनेजे प्राणीनु मन मानविकल्पेंकरी हतप्रहतले तोतेदने नियमयमें करीने पणसुंथवानुंडे जेमबालीना गलाना स्तनधाव्याथी कां अर्थसिदि नथाय तेमज मनवश थयाविना यम नियमादिक पण व्यर्थ जाणवा ॥ ५ ॥ दानं श्रुतध्यानतपोर्चनादि तथा मनोनिग्रहमंतरेण ॥ कषाय चिंताकुलतोशितस्य परो हि योगो मनसोवशवं ॥६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तदमनाधिकार. ४३ अर्थ ॥ जीवनेएक मनवशथयाविना दानतथा श्रुतसिक्षांतनण, तथाध्यान तथा अर्चनजे देवपूजा आदिशब्दथी प्रासाद देवप्रतिष्ठादिक क्रिया तेसर्वत्थाजा एवी पण तेमोक्षफलनी देनारनथाय केमके कषायजेक्रोधादिक तेसंबंधीनीचिंता थकी नपनीजे असाता तेणेकरीरहित एहजेमन तेहतुंवशवर्तिपणुं तेहिजपरम योग अने तेहिज अष्टांग योगर्नु सर्वस्व ॥ ६ ॥ जपो न मुक्त्यै न तपोदिनेदं न संयमो नापि दमो न मौनं ॥ न साधनायं पवनादिकस्य किं खेकमंतःकरणं सदांतं ॥७॥ अर्थ ॥ जीवने नवकारादिकनोजप तथा बाह्य अन्यंतर बेप्रकारनुतप तथासंयम चारित्र तथा दमजे इंडियदमन तथामौनजे वचन-संवर तथा पवनादिक-साधन आदिशब्दथी चोरासी योगासनप्रमुख तेकाश्मुक्तिना देवावाला थायनही तेवारे तुजने किंतुके मुक्तिप्राप्तिनो शोनपायडे तेकहेले जेणेरुडीरीते पोतानुंअंतःकरणजे मनतेहने वशकयुं तोतेहिज एकमुक्तिनुं दातार होय ॥ ७ ॥ लब्ध्वापि धर्म सकलं जिनोदितं सुदुर्लनं पोतनिनं विहाय च ॥ मनःपिशाचग्रहिलीकृतः पतन् नवांबुधौ नायतिहग्जमो जनः॥G अर्थ ॥ जडके हेअज्ञानीप्राणी अतिशयेंकरीपामवुलन प्रवहणसरिखो एह वोएसर्वज्ञप्रणीत संपूर्णधर्म तेप्रतेंपामिने वलीतेहनेबांझिने मनरूपियो पिशाचके. नूततेणेघहेलोकस्योथको संसारसमुश्मांपमता आयतिहगूके नत्तरकालनो विचार करतानथी एटलेएमनथी विचारतोजे प्रवहणरूप धर्मनेबांमी संसारसमुश्मा जंपापा तखानु तेथी पागलें हवे महारी शीगति थासे ॥ ७ ॥ सुदुर्जयं दी रिपवत्यदोमनो रिपूकरोत्येव च वाक्तन अपि ॥ त्रिनिहतस्तपुिनिः करोतु किं पदीनवनर्विपदा पदे पदे॥॥ थर्थ ॥ हेयात्माअतिशय उर्जयएहजे ताहरुमन तेपोतेंशत्रुपणुं आचरेले थ नेवली वचनतथाकायानेपण शत्रुकरे मनअष्टथके वचनतथा कायानाव्यापारपण पुष्टथाय तेकारणमाटे मन वचन तथाकाया एत्रणेशत्रुयें परानव्यो एहवोतुंपगेंपगें पुष्ट विपदा जे नरकादिक तेहतुं नाजनथातोथको तुंसंकेरे एटलेताहरोकांचालतुं नथी॥ रेचित्त वैरि तव किं नु मया ऽपराईयदुर्गतौदिपसि मां कुविकल्पजालजा नासिमामयमपास्य शिवेस्तिगंता तल्किंन संति तव वासपदंडसंख्याः१० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अध्यात्मकल्पाम. . अर्थ ॥ हेचित्तरूपवैरी में ताहरोशो अपराधकीधोने केतुंमुजने विकल्परूपजालें बांधीने उर्गतिमांनाखेले जोतुंएमजाणतोहोयजे एजीवमुजनेपरिहरीने मुक्तिजनार तोपणताहरे वशकरवानास्थानक वलीमहाराशिवाय बीजायसंख्याता संसारीजी वसुंनथी एटले एकदुंजतोरह्यो तोपण ताहरेबीजानीशीखोटले ॥ १० ॥ पूतिश्रुतिःश्वेव रतर्विदूरे कुष्ठीव संपत्सुदृशामनईः ॥ श्वपाकवत्सजतिमंदिरेषु नात्प्रवेशं कुमनोहतोंगी ॥ ११ ॥ अर्थ ॥ हवेमननाअवशपणाथकी बदुप्रकारना अवगुणथायतेदेखाडे अष्ट मनेकरीसंतापंपाम्यो एहवोजेप्राणी तेकुंद्याकाननां कुतरानीपरें रतिजेनिवृत्तितेहथी वेगेलोहोय जेम कीखाधो एहवोजे कुतरोते किहांपणकणमात्र रतिपामेनहीतेम कुविकल्पचित्तनोधणी तेपणरतिरहितहोय वत्तीकोढीयानीपरें संपदारूपणीजे सुह शायोरूप मुत्तमकन्यायो तेहेनेवरवाअयोग्यहोय जेमकोढीयानेकोऽपण उत्तमक न्याघरवावांनही तेमदुष्टचित्तवंतप्राणीने सौनाग्यादिक कोश्पणसंपदाथाश्रयेनही वलीसद्गतिरूपजेमंदिर तेहनेविषे श्वपाकके चंडालनीपरें प्रवेशकरवानपामे॥११ तपोजपाद्याः स्वफलाय धर्मा न उर्विकल्पैर्हतचेतसः स्युः ॥ तत्खाद्यपेयैः सुनृतेपि गेहे दुधातृषान्यां प्रियते स्वदोषात्॥१२॥ अर्थ ॥ माटेविकल्पेकरी जेहचित्तपीडाणुंडे एहवाप्राणीने तपजपप्रमुखजेधर्म तेपोतपोताना फल-देवावालोनथाय अने कुविकल्पचित्तनोधणी धर्मक्रियाकरतोथ कोपण मोक्षफलपामेनही तेनपरदृष्टांतकहे जेमको अपुण्यवंतप्राणी खानपाना दिकें नरेलाघरमापण पोताना कृपणताद्यादिकदोषथी नुखवृष्णायेंपीडाय तेमहां पण कुविकल्पचित्तवंतप्राणीते बतेधर्मेपण परनवेंसीदाय ॥ १५ ॥ अक–साध्यं मनसो वशीकृतात् परं च पुण्यं न तु यस्य तशं ॥ स वंचितः पुण्यचयैस्तनवैः फलैश्च दीदी हतकः करोतु किं॥१३॥ अर्थ ॥ एकमनना वशकरवाथी बीजॅसर्वपुण्यते सुखेसाध्यने अनेते मन जेहनेव शनथी तेप्राणी पुण्यनेसमूहें तयातेपुस्यजनितफलेंकरीने वांछित तेफोकट एट जेमनवशविना पुण्यनी तथापुण्यजन्यक फलनी फोकट आशाराखेडे तेमाटे हीही इतिखेदे एबापडो प्राणी संकरे पड़े तेहने एके गतिनथी ॥ १३ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तदमनाधिकार. ४५ अकारणं यस्य सुर्विकल्पैर्दतं मनः शास्त्रविदोपि नित्यं॥ घोरैरनिश्चितनारकायुमत्यौ प्रयाता नरके स ननं ॥१४॥ अर्थ ॥ यद्यपिसिनांतनोनणनार तथापिजेहनुमन अकारणके उपसर्गादि ककारणविना पण नित्ये अतिशयेंकुविकल्पेंकरी पीमित तेपुरुषमहारौपापेंकरीने दृढकीधुंडे नरकायुजेणे एहqथकोते सर्वथा मुआपढ़ी नरकमांजजशे ॥ १४॥ योगस्य देतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपसश्च योगः॥ तपश्च मूलं शिवशर्मवल्या मनःसमाधि नज तत् कथंचित्॥१५॥ अर्थ ॥ मननीसमाधिजे एकाग्रता तेहिज योग-हेतुळे अनेवलीयोगजे अष्टांग सदण तेतपर्नुपरम उत्कष्टकारण अनेतेतपतो मोदसुखरूपणी वेलीनुमूल मा टेदेयात्मा जेतेउपाय करीने मननीसमाधिनेसादर केमके मननीसमाधिथी योग अने योगथी तप तथा तपथीमोदसुख एमपरंपरायें सर्वसिदिपामे ॥ १५ ॥ स्वाध्याययोगैश्चरणक्रियासु व्यापारणैर्वादशनावनानिः ॥ सुधीस्त्रियोगी सदसत्पत्तिः फलोपयोगैश्च मनो निरंध्यात् ॥१६॥ अर्थ ॥ हवेमनसमाधिना उपायकहेले स्वाध्यायजे जिनागमतेहनायोगनुं वहे आंबिलादिक तपविशेष तेणेकरीने तथाचारित्रसंबंधीनी क्रियाने विष प्रवर्त्तवेकरी वलीअनित्यादिक बारनावनायेंकरीने वली त्रियोगीजे मन वचन कायानायोग ते होनी सदसप्रवृत्तिके नलोपने मूंडोव्यापार तेहना फलनुं उपयोगजे विचारणा एटलेत्रियोगना शुनव्यापारनो शो फलले एहवी विचारणा अने अशुनव्यापारनोशो फल एहवाजे उपयोगदेवा इत्यादिक प्रकारेकरी मननेवशकरई ॥ १६ ॥ नावनापरिणामेषु सिंदेष्विव मनोवने ॥ सदा जाग्रत्सु दुर्ध्यानसूकरा न विशंत्यपि ॥१७॥ अर्थ ॥ हवेवली एसर्वप्रकारमा पण नावनापरिणामने विशेषदेखाडे मनरूपी श्रावननेविषे सिंहसरिखाजे नावनाना परिणाम तेमासर्वदासावधानरहेथके उर्ध्या नजे थार्नरौध्यान तेरूपजे सूथरोते प्रवेशपणकरीशकेनही तोतिहां तेतूघरो वासकरवानेतो सर्वथानजपामे ॥ १७ ॥ इति श्रीअध्यात्मकल्पमे चित्तदमनानि धानो नाम नवमोअधिकार संपूर्ण थयो. ॥ ए॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. अथ सामान्यतो वैराग्यधर्मोपदेशः॥ किं जीव मायसि दसस्य यमीहसेऽान् कामांश्च खेलसि तथा कुतुकैरशंकः ॥ चिदि प्सु घोरनरकावटकोटरे वा मन्यापतल्लघु विनावय मृत्युरदः॥१॥ अर्थ ॥ दवेसामान्यथी वैरागोपदेशनामा दसमोयधिकारकहे तेमांप्रथमजीव ने मरणसंबंधीनयदेखाडे हेजीवतुं मदशानोकरे तथासुंदशेने वली अर्थजेसुव र्णरूपादिक तेहनेसुंवां तथावली निःशंकडतो कौतुकेकरीने कामजे शब्दादिक विषय तेप्रतेसुरमे तुजनेतो नयंकर नरकरूपजे खाइ तेमांनाखवावांबतो एवो म त्युरूपजे रादस तेउतावलुं तारेसन्मुखधावतुं सांजलीने निःशंकरहिशनही॥१॥ आलंबनं तव लवादिकुगरघातादिति जीविततरं न ___हि यावदात्मन् ॥ तावद्यतस्व परिणामहिताय तस्मि न निन्ने हि कः क्वच कथं नविता स्वतंत्रः ॥ २ ॥ अर्थ ॥ हवेधानविद्यमानबते जीवनेधर्मकर उपदेशेने हेयात्माताहरो था लंबनाधारनूत एहवोजे जीवितव्यरूपवृद तेप्रते लवादिकजे लव लेश क्षण घ डी मुहूर्तप्रमुखकालमान तेरूपीया कुहामानाघाव जाहालगेंदेनही तेहथीपहेला ज परिणामहितजे निदानहितकारी तपसंयमादिक तेहनेअर्थेनद्यमकर जेथ कोताहरो जीवतव्यरूप वृदद्यापछि फरीतेहने नवपनवकरवाने किहांक कोइकन कारें पण मंत्रउपायथासे जेणेकरीतुं जीवतव्यरूपतरुने नवपन्नवकरीस एटलेद ऐक्षणे जीवतव्यरूप वृददातुंजायजे तेबेदागयापनि फरीसङकरवानु कोश्नपा यनथी तेमाटे आत्महितनेविषे तत्परथायूँ एहिजश्रेष्ठउपाय ॥ ५ ॥ • त्वमेव माग्धा मतिमान् त्वमात्मन्नेष्टाप्यनेष्टा सखदुःखयोस्वं ॥ दाता च नोक्ता च तयोस्त्वमेव तच्चेष्टसे किंन यथाहिताप्ति॥३॥ अर्थ ॥ दवेसर्वकरणीते आत्मानेाधीन एहवंकहिने विशेषेप्रेरेले हेयात्मातुं मोग्धाके मूढतासहितको अने मतिमान्के ज्ञातापणतुंबो वलीसुखनुं वांडक अ नेउःखनुधवांडकपणतुंगो तथासुखथनेःखद्वंदाता अनेनोक्तापणतुंजडो केमके सु खःखते स्वरूतकर्मथीजथायडे यउक्तं श्रीनत्तराध्ययने अप्पानईवेयरणि अप्पामे कूमसामली अप्पाकामघाधेj अप्पामेनंदणंवणं अप्पाकत्ताविकत्ताय इत्यादिक माटे जेरीतें ताहरीयात्माने हितनीपजे तेमजकांनथीकरतो ॥३॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्योपदेशाधिकार. कस्ते निरंजन चिरं जनरंजनेन धीमन् गणोस्ति परमार्थदृशेति पश्य ॥ तं रंजयाशु चरितैर्विशदैर्नवाब्धौ यस्त्वां पतंतमबलं परिपातुमीष्टे ॥४॥ अर्थ ॥ हवेल कनेरीजवतो थको आत्मापोतानुं हितकांकरतोनथी तेयाश्रयीन पदेशे हेनिरंजन हेनिरलेपयात्मा बुद्धिवंत हे हिताहित विवेकनाजाण चिरकाल जावजीवलगे लोकनुंरीजवनुं एटलेमलीनवस्त्र धारणकरी बाह्यक्रिया देखामीने शू न्यचित्तें मेगमें उपदेशव्यापीने लोकनुंमनरीजवनुं तेथीतुजने शोगुणले एटलुंत स्वदृष्टे विचारी परमार्थदृष्टीयेंजोतां लोकरीजव्याथी यात्माने यर्थसिद्धिकाइनथी तेमाटे लोकरंजनत्यजीने उतावलोथयी विशदके० निर्मलजे चारित्र तपसंयमादिक चरण तेणेकरीने श्रीवीतराग तथातेमनानाषेलाधर्मनेरीजव जेथकीतुजने बलंके परजवें संबलेंरहित संसारसमुड्मांपडता थकां रखवानेसमर्थथाय केमके संसारमांपडता एकधर्माधार यापशे पणलोककोइ याधारयापशेनही ॥४॥ विधानहं सकललब्धिरदं नृपोदं दाताहमतगुणोदमहं गरीयान् ॥ इत्याद्यहंकृतिवशात् परितोषमेषि नो वेत्सि किं परनवे लघुतां नवित्री ॥५ ० 0 अर्थ || हवेअहंकार निवारवा उपदेशेने देयात्मा पंमितनुं दुसर्वजकीये स हितकुं दुराजानुं दातारनुं तगुणवंतनुं तथामहोटो इत्यादिकजे पोता नामनकल्पित अहंकार तेहनावशथकी तुं परितोषके हर्षपामेले पणजन्मांतरें नाविनी एहवीतेपदार्थोनी लघुताप्रते कां विचारतोनथी जेजेपदार्थनेतुं यानवमां डुंपदेकरे तेतेपदार्थनीतुं परजवेंहीनतापामिस इतिभावः ॥ यदुक्तं योगशास्त्रे ॥ जाति लान कुनैश्वर्य बलरूपतपः श्रुतैः ॥ कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि जन्यते जन इति ॥ ५ ॥ वेत्सि स्वरूपफलसाधनबाधनानि धर्मस्य तं प्रभवसि स्ववशश्च कर्त्तु ॥ तस्मिन् यतस्व मतिमन्नधुनेत्यमुत्र किंचित्वया दिनदि सेत्स्यति जोत्स्यते वा ॥ ६ ॥ ४७ अर्थ || हवेप्रात्माने इहनवेंधर्मकरवानी प्रेरणाकरे हे बुद्धिवंत प्राणी तुधर्मनुं स्वरूपजे कांत्यादिकदशविध लक्षण तथाधर्मनुंफलजे मोहादिक तथाधर्मनुंसाधन जे मनुष्यजन्म यार्यक्षेत्रादिक तथाधर्मना बाधकजे कुजन्म कुक्षेत्र प्रमाद मिथ्या व इत्यादि सर्वप्रकारने वेत्सिके० जावे अनेवली स्ववशके० पोतानेवरोंथको ध करवाने समर्थपणो पणतिर्थंच नारकीनीपरें परवश तथाधर्मकरवाने असमर्थ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अध्यात्मकल्प डुम. नथ तेमाटे खानवमांज धर्मनेविषे उद्यमकर केमकेफरी परनवेंते कांइ सीजेनही तथा तुजने तेवा धर्मनुं फरीकांइ जाणपणुपण नहीथारों माटे ॥ ६ ॥ धर्मस्यावसरोस्ति पुजल परावत्तैरनं तैस्तथा यातः संप्रति जीव दे प्रस हतो दुःखान्यनतान्ययम् ॥ स्वल्पाहः पुनरेष दुर्लनतमश्चास्मिन् य तस्वादेतो धर्मकर्तमिमं विना हिनदि ते दुःखदयः कर्दिचित् ॥ ७ ॥ अर्थ || हवेयात्मा धर्मनुंत्र्यवसरजणावेळे हेजीवअनंताडुःख सहित तुजने अनंते पुलपरावर्ते संसारमांनटकतां संप्रतिके. हमणा यानवमां धर्म करवानुश्रव सरयाव्योवे अनंतनत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी प्रमाण एक पुलपरावर्त्त थाय ते हनुंस्वरूप ग्रंथांतरथी जाणवं एधर्मनुयवसरते थोडाज दिवसलगणने फरीपामं घ sad मावसरें श्रीजिनोक्तधर्म करवाने उद्यमकर केमके एजिनोक्तधर्म विना तादरे किवारेंपण जन्ममरणादिकना दुःखनो दयथवानुंनथी माटेजोडुःख नुं तकरवाने वांतोहोयतो एअवसर पामिने धर्मकरवाने तत्परथा ॥ ७ ॥ गुणस्तुतिर्वासि निर्गुणोपि सुखप्रतिष्ठादि विनापि पुण्यं ॥ अष्टांगयोगं च विनापि सिद्धिवतलता कापि न वा तवात्मन् ॥८॥ अर्थ ॥ हवेrयुक्तांकपणाथी जीवनुं बाहुलाप देखाडे हे श्रात्मातुंज्ञानदर्शन चारित्रादिकगुरहितथकोपण गुणस्तुतिजे पोतानी प्रशंसा लोकनामुखथी कीर्त्तिना वरनने वांबे तथापुण्य विनापण सुखने तथा प्रतिष्ठाके० गौरवपणानेवांबेले व tal ष्टांगयोग यम नियम यासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि rataयोगविना पण सिद्धिष्टकर्मक्ष्यलक्षण सिनात्रा गुण अथवा सिद्धिते अष्टमहासिद्धि लघिमा वशिता ईशिता प्राकाम्य महिमा अणिमा यत्नकामावसायि ता प्राप्ति प्रवालेले माटेदेयात्मा एताहरो बाहुजापते को पूर्वनकुंजदेखा केमके कारणनी सामग्रीविनाज कार्य नीपजाववानी अभिलाषाकरेले ॥ ८ ॥ पदे पदे जीव परानिभूतीः पश्यन् किमीयस्यधमः परेन्यः ॥ पुष्यमात्मानमवैषि किं न तनोषि किंवा न हि पुष्यमेव ॥ ॥ अर्थ || हवेबीजाना करेला अपमानथी जीवईर्षा करेले तेयाश्रीउपदेशकरे हे जीवतुं पुष्यरहितपणाथी अधमके० नीचयवस्थापाम्योथकोपण परोंपगें बीजानी करेली जे निनूतिके अपमान आक्रोशादिकते देखीने परेन्यः के० तेलोकउपरें सुं ईर्षाके० क्रोधकरेले पणपोताना श्रात्मानेज पुष्यहीन केमजाणतोनथी जेपुएयर ס Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्योपदेसाधिकार. ए हितहोय तेहनेतो पगेंपगें परानवथाय तेमांसुं महोटीवातले एमकांविचारतोनथीथ थवानिश्चेंथी पुण्यजकेमकरतोनथी केजेथकी कोपरानवनथाय ॥ ए॥ किमर्दयनिर्दयमंगिनो लघून विचेष्टसे कर्मसु दि प्रमोदतः ॥ ... यदेकशोप्यन्यकृतार्दनः सदत्यनंतशोप्यंग्ययमर्दनं नवे ॥१०॥ अर्थ ॥ हवेधात्माप्रतें परनेपीडा- फलकहे हेयात्मातुं निर्दयपणेकरी ताहरा यकी लघुके० निर्बल एहवाजे अंगीके० प्राणी तेहनेपीडतोथको तुं प्रमोदतःके हर्षेकरी पापकर्मविर्षे सुंप्रवर्ते केमके एकवारपण जेप्राणियें अन्यजीवने पीडाउ पजावीहोय तेप्राणीअनंतिवार संसारमांपीडासहे यउक्तं तिवयरेनपनसे सयगुणि उसयसहस्सकोडिगुणा ॥ कोडाकोडिगुणोवादुङ विवागो बदुतरो वा इति ॥१०॥ यथा सर्पमखस्थोपिनेको जंतनि नदयेत् ॥ ___ तथा मृत्युमुखस्थोपि किमात्मन्नाईसेंऽगिनः ॥११॥ अर्थ ॥ हवेतेनपर दृष्टांतकहे जेम नेकजे मेडको तेसर्पनामुखमा रह्यो अग्रसित थको पण जंतुजेन्दाना कुजीवतेप्रतेखाय तेम हेयात्मा तुंपणमृत्युना मुखमां र ह्योथको पण अन्यप्राणीयोने सुंपीडाआपेठे ॥ ११ ॥ आत्मानमल्पैरिद वंचयित्वा प्रकल्पितैर्वा तनुचित्तसौख्यैः॥ नवाधमे किं जन सागराणि सोढासि ही नारकःखराशीन् ॥ १२॥ अर्थ ॥ हवेशहनवें हिंसाजनित अल्पमात्रसुखथी परनवें अनंतामुःख सहेवा पडशे तेकहेले हेजन संसारीप्राणी प्रकल्पितके० तेताहरी कल्पनामात्रथी दुःख नेज सुखकरीमान्या तेपणवली अल्प तुन कण स्थायी एहवाजे मनवचनकाया संबंधीसुख तेणेकरी शहनवें तुंगायोडतो हाहाइतिखेदे नवजे चारगतिरूपसंसार तेमां अधमजे नरकतेहनेविर्षे घणाक सागरोपमसुधी नारकीनाजेकुःखसमूह तेसहे वाने सुंतत्परथायडे ए विषय सुखते मुःखजले पणकल्पनामात्रथी एनेजीवसुख करीमाने ॥१॥ यदाह नर्तृहरिः॥ तृषा गुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वाऊ सुरनि कुधात. सन् शालीन् कवलयति मांसाज्यकवलान् ॥ प्रदीप्ते रागानौ सुदृढतरमा श्लिष्यति वधू प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः॥ १ ॥ नरभ्रकाकिएयदबिंदकाम्र वणिकत्रयीशाकटनिकायैः ॥ निदर्शनैर्दारितमय॑जन्मा फुःखी प्रमादैबंदु शोचिताऽसि ॥१३॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अध्यात्मकल्पज्म. | अर्थ ॥ वलीतेहिजअर्थ नत्तराध्ययनसूत्रना दृष्टांतेकरी ढकरे हेयात्मातुं प्र मादजे मद्यादिकपांच तेनावशथकी मनुष्यअवतारहारीने पडेपरनवेंःखीयोथको उरचजेबोकडो कागिणी उदकबिंदु आम्रवातकीराजा वणिकत्रयीजे त्रणव्यापारी शाकटजे गामावाहक निकजेरांक इत्यादिकोनादृष्टांतेतुंपण घणुंशोचनाकरीस ॥१३ इहांसंदेपथी नरनादिकना दृष्टांतलिखेले तेमांप्रथम उरचनदृष्टांतकहे जेम कोगाममां कोकनाघरमध्ये एकबोकडोहतो तेकोश्क प्राहुणोावसे तेवारें ए हनुमांस काममांसावशे एमचिंतवीने तेघरनामाणसो तेबोकडाने अन्नादिकेंपोषे अनुक्रमेंते बोकडो घणुपुष्टशारोथयो हवेतेहनेतेहवोदेखीने एकवाबडो मनमांखेद पाम्योथको क्रोधधरीने दोहतांशेषरयुंजे पोतानीमातानुंध तेहनेधावेनही तेवारें मातायें क्रोध-कारणपुथके कहेवालागो हेमाताजूसोने आबोकडो यथेष्ट अ नादिकरवाय तेथीकहेवो पुष्टथइरह्योने एहने पुत्रनीपरपालेले नानाप्रकारना अ संकारपहेरावे अनेमुजनेतो पोतानीमातानुंध तेपणको पीवादेतोनथी तथासुका तृणतेपण वखतउपर पूरामजतानथी एहQसांजली मातायेंकयुं यानरचिणाई पया जाश्चरसिनंदिन॥सुक्कतिणेहलातेहि एवं दीहानलररकणं. १॥हेवत्स जेमरोगी मरवापड्योहोय तेहनेजेकांइ खावामांगे तेत्रापे तथाफुलनीमाला प्रमुखपहरावे तेम एबोकडानेपण वध्यममननीपरें शृंगारादिककरेले पोषेले पणकोप्रादुणायावसे तेवा रेपरीदाजगासे तेसांजली वत्सबानोरह्यो पकोइकदिवशे तेहनेघरेंप्रादुणासाव्या तेवारेंतेबोकडानेबांधी चंचूकरी घणुतडफडतो जीनकाढतो दीनस्वरे आरडतो मृत्युप माइयो तेहनामांसने खंडोखंडकरी पचावीने प्रादुणासहितसकुटुंबें घरधणिये ना | की, तेवृत्तांतदेखीने वाढडो जयपाम्योथको नुख्योतरम्योथकोपण मातानुंधपीये नही तेवारेंमातायें पुथके वत्सबोल्यो हेमातामें बोकडानीएहवी नूमीअवस्थादीठी तेथीमुजने धाववानीपण वांडाथातिनथी एमश्हांपणएनपनय जोमवो जेमतेबोक डोजीवतव्यनीवांबायें निर्जयपणे यथेष्टपुष्टथातुंथको प्रादुणाआवे मृत्युपाम्यो तेमहेयात्मातुंपण प्रमादेपुष्टथको यथावायें विचरेठे पणमृत्युआवेथके मनुष्य जन्महारीनरकादिकना दुःखपामि घणुशोचपामीस.. हवेबीजुकांगणी-दृष्टांतकडे जेमकोइकरांक परदेशेजइ मजूरीकरीने एकहजार सोनैया कमायो पढेपोतानादेश तरफचाल्यो तेवारेरस्तामांवरचीसारं एकरूपकवटा वी तेहनी (०) कागणीसाथेराखी बीजासर्वव्यनी वांसलीनरी सीवीनेराखी एक दिवसें किहांकमार्गमां विश्रामस्थानकें एककांगणीवीसरी ते सथवारासाथै आगो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्योपदेसाधिकार. जातांसांनरी तेवारेंरांकेविचायुंजे एककांगणीनीखोटे रखेनेबीजुरूपक वटावqपडे मचिंतवी सथवारोमकी व्यनीवांसली किहांकगोपवीने तेकांगणीलेवा पानोव ल्यो आवीनेजुएलेतो कांगणीकोश्कलगडे अनेपाफरीनेजूएतो वांसलीपण को कलेगयुं पले निराशथयो अतोन्रष्ट ततोन्रष्टथको घणुशोच करवालागो जेमतेरा के एककांगणीनालोनथी हजारसोनैयानीवांसली अनेतेकांगए। बेन्हे खोने घ पाशोचनुनाजनथयो तेमात्मापणपूर्वे अप्राप्तकामनोगथको बहुमूलचारित्रपा मिने वलतुंकांगणीतुल्य कामनोगनीलालसायें चारित्रत्यजीने कामनोगगवेषतोथको कामनोगपणनपामें अनेचारित्रपणनपामे एमन्नयन्त्रष्टथयोथको तेरांकनीपरें घ पुशोचपांमे इहां कांगणी ते एक मासानु चोथोनाग अथवावीसकोमी अथवा एकरूपैयाy (10) मुंनागजाणवो. .. हवेत्रीजं उदकबिंऽनुदृष्टांतकहे कोकवनमा कोश्तृषातुरने कोकदेवतायें क रुणाकरीने दीरसमुश्नेकांतेजश्मुक्यो तेमू तिहांपाणीपीथूनही अनेदेवतानेकाजे हेस्वामि महारागामनीसीममांकुने तेहनेउपकांते माननेअग्रेबमान एकजलविं मुले तेखरीपडशे माटेमुजनेतिहांमूकोतो बिंडोपी तेसानली तेहनेमूर्खनि ग्य जाणी देवतायें तिहांमूक्यो देवतापोताने स्थानकेंगयो पतेडियोपण खरीपडयो तेदेखीतेमूर्ख ननयन्रष्टथयो थको शोचकरवालागो तेमश्हांतृषातुरतेजीवहीरसमु इतेचारित्र देवतातेसजरु जलबिंयारूप कामनोगनासुख एम नपनयजाण. हवेचोथुप्रानदृष्टांतकहे कोकराजाने आंबानाफलघणुज वन्ननहता एकदिव शे घणायाम्रफलनाखावाथकी अजीर्णविषुचिकाथयो पवैद्येयनेक औषधेकरीघ पीकष्टेनिरोगीकीधो वलतुंवैयेकह्यु हवेजोयाम्रफलखासोतो मरणपामसो एमकही सर्वथावास्यो राजायेंपणपोतानादेशमाथी आंबानासर्ववनडेदावीनाख्या हवेकोश्क दिवसेराजा बाहेडेनिकल्यो तिहांपुष्टया अपहखां एहवाप्रधान अनेराजाबेदुजण घणदूरपंथें किहांकथटवीमांजश्पहोता सैन्यसर्वपाउलरह्यं राजाप्रधान बन्नेजण थ श्वथीनतरी अांबानीबायायेंबेठा तेथांबानीचेफलपमयादेखी राजानेघणादिवसें थ निलाषथयो प्रधानेघणुवायो तोपणतेफलखांधु एटलेतत्काल मृत्युअवस्थातुल्यथ योथको घणुशोचवालागो जेमतेराजा आम्रनास्वादेलुब्ध्योथको प्रधानेवास्योथकोप ण ते फलखाइ राजा जीव्यत्वनी आशातजीने मरतांमहाशोकपाम्यो तेमश्हापण विषयलुब्धकजीव विषयने परवशयको जिनाझायणमानतो कामनोगासक्तथयी संयम अने मनुष्यजन्म बेदुहारीने पडे पश्चात्ताप करशे. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पडुप. हवेपांचव शिकनुं दृष्टांतकडे एकव सिकनेत्रण पुत्रहता तेत्रणेनेहजार हजार सौनैया थापापीनेकयुंजे एटलाइ व्यतमे व्यापारकरीने अवधि परेंयाववुं हवे नेत्रजण नीमे नीमे मूललेइने जुदेजूदेनगरेचाल्या तेमांपहेलोनाइसर्वव्यसनरहित पव्ययकरतो थको व्यापारकरवालागोतेमां घलोकमाएं अनेबीजो हजारसौन याकायम राखीने लानयावेतेवावरे एरीतेंते मूल व्यनेराखीरह्युं अनेत्री जे व्यापारकी धुंनही खवेश्यादिनाव्यसनमां सर्वमूल व्यवावरीनाख्यं अनुक्रमेंतेत्र रोजण पो तानाघरेंथाव्या तेव्होनुव्यतिकरजाणीने त्रीजापुत्रनें मूलनी मेंप एनराख्योमाटे फि तायें घर बारकामी मूक्यो लोकमांनिंदनिकथयो दासपणुंपाम्यो जेमतेत्री जो पुत्र नीमूनेहारीने निंदावस्थापाम्यो तेमात्मा विषयलुब्धथको पूर्वजन्म पुण्यरूप मूल नीमेंहारीने जन्मांतरें दुर्गतिना दुःखपाम्योथको घणुंशोचपामेले. ५२ Cast शाकं दृष्टांतक जेमकोइक गामानुवाहक सम विषम मार्गजाणतो थको पण विषममार्गे गामानेलेइगयो पबेधुसरूनांगेथके शोचकरवामांमधुं तेमइ हांपण जीवपुंख्यपापादिक मार्गनेजाणतोथको पण प्रमादना परवशपणाथकी कु मार्गे चालतो कुगतीमांपमसे तेवारेंशोच पामसे. हवेसात निकुकनुं दृष्टांतक कोइकगामडीयानो रहेवासी पुरुषदा निर्देपरा नव्यथको देशांतरेंज निकामांगे पणपुण्यरहितपणाथको निदानपाम्यो तेवारे फरीपोतानां घरतरफचालवा निकल्यो मार्गमांकोइकगामे पाल पाठकपाशे एकदेवलले मां राजसुतो तेदेवलमांथी एक सिद्ध चित्रे लुंकामकुंन हाथ मांलेइ निकल्यो पबेएक बाजुरही घडानेकहेवालागो हेकुंनइहांमंदिरकर एटजेतिहां मंदिरथयुं एम तिहांय्यादिक जोगसामग्री सर्वकीधी पबेस्त्रीसहित रात्रे जोगनोगवी प्रनातें सर्व सं द तेदेखीने निक्के चिंतव्यं जेयाजनगणहुं फोकट पृथ्वीमांनम्यो हवेजोएसि सेतो माह सर्वश्राश्याफजे एम चिंतवीते पानी सेवाकरी एकदिवशेते पापप्र सन्नथबोल्यो जेतुं सुंमागे तेवारेनिकुंबोल्युं जेताहरापशायथी ढुंपण एहवोजोगपामुं पाणेकयुंतुजने गमेतो एकुंनजेश्जा नेगमेतो एकुंनप्रतिष्ठानी विद्यालेश्जा ते वारे निकुक बोल्यो जे स्वामी विद्यातो कष्टकरीसाधुं तेवारेंफले तेमाटे विद्यासि-5कुं ad तेहिजमने थापो तोकष्टकिधा विनाज जोगसिद्धिपामु पढेतेपाघमोयाप्यो ह वेगामडी घटनेने घयाव्यो घटनेप्रतापें उज्वलघरनीपजावी विविधनोगसामग्री मेलवी पोताना सर्व कुटुंबसहित मनोवांबित विलास जोगववालागो पोताना सक नादिकने खेतीप्रमुख श्राजीविकाना उपाय सर्वमूकाव्या ढोरप्रमुखचतुष्पद सर्वो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्योपदेशाधिकार. ५३ डोमूक्या एकदिवशे ते ग्रामीणमद्यपाने बाकटोथश्ने मनमाहर्षधरतो तेविद्याकुंन खानानपरलेश्ने नाचवालागो मद्यपानना परवशपणाथकी घटपडीने नांगीगयो तेथी विद्यायें करेलुं वैनव सर्वमटीगयो पडेग्रामीणकुटुंबसहित आजीविकायें दुःखीययोथको शोचकरवालागोके हाहाइतिखेदे जोमेघटसिदिनी विद्यालीधीहती तोसुखीथात एरीते जेमतेयामिकनिहु परिघटनकरतां दैववशात् कामकुंनपामिने | वलीमद्यपाननी परवशताथकी कुंननागीनाखीने विद्यानुशोचपाम्यु तेमएजीवपण फुलन जिनधर्म पामिने प्रमादपरवशताथी धर्मदारीने कुगतीयेंगयोथको धर्मसा मग्रीविना शोचपामे एसातदृष्टांतना संबंधजाणवा तेमांपहेलापांचदृष्टांततो श्रीस तराध्ययनना सातमां अध्ययनथी तथानोदृष्टांत पांचमांअध्ययनथी अने सा तमोदृष्टांत बहाअध्ययनथी लज्युंडे श्लोकमां आद्यशब्दकह्यो तेथीबीजापण द रिश्कुिटुंबादिक एहवादृष्टांत घणाले तेग्रंथांतरथी जाणवा. पतंगनंगेणखगादिमीनधिपधिपारिप्रमुखाः प्रमादैः॥शोच्या यथा स्युर्मतिबंधवैश्चिरायनावी त्वमपीति जंतो ॥१४॥ अहिवेवली ग्रंथकार प्रमादीजीवने दृष्टांतेकरी नावीःखदेखाडे हेयात्मा जेम पतंगीयो तथा जमरो मृग तथा खगके पारेवाप्रमुखपदी तथासर्पधने मानलो तथा हस्तिव्याघ्रइत्यादिक सर्वजीवते प्रमादजे शब्दादिकविषय तेहनावशथकी मरणसंबं धीःखेकरीने शोचनीयथायडे तेमांपतंगते नेत्रनाविषयथी दीपशिखायेंमोह्योथको मृत्युपामे अने नमरोघ्राणेंझ्यिनाविषयथकी कमलमध्येमुशाश्मरेले मृगशब्दविष यथा नादनुमोह्यो पाराधीथकी मरणपामेले पदीशालप्रमुखकणनेलोनें रसनेडियना वशथकी जालमांपळे सर्पकाननाविषयथीमदुअरनानादनोमोझो बंधनपामेले अने मत्स बडिशनामांसनीलालचे रसनेडियना वशथीमरेले हस्तिहस्तणीनामोहथी स्प शेनेंयिनावशे बंधनमरणादिपामेले व्याघ्रपिंजरामांरहेला बोकडानामांसनीला लचे रसनेडियनावशेमृत्यु बंधनादिकपामे इत्यादिकबीजापण चित्राप्रमुखना ह ष्टांतजाणवा तेमाटेहेआत्मा तुंपणतेपतंगादिकनीपरें प्रमादनावशयकी चिरकालल में शोचनीय थाश्स. ॥ १४ ॥ पुरापि पापैः पतितोसि उःखराशौ पुनर्मूढ करोषि तानि ॥ मङ न्मदापंकिलवारिपूरे शिला निजे मूर्ध्नि गले च धत्से ॥ २५ ॥ अर्थ ॥ हवेप्रमादर्नु पापरूपपणुंदेखाडी तेहनोपरिहारकरेले हेमूर्खतुंपूर्वेपण पा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. करीनेजऊःखसमूहमांपडयोचे अनेफरीपण तेहिजपापनेकरेले तेथीतुंघणाकदिवस हितजलनापूरमां बुडतोथको पोतानामस्तकनेविषे अने गलानेविषे शिलाधरे॥१५ . पुनःपुनर्जीव तवोपदिश्यते बिनेषि उःखात् सुखमीहसे चेत् ॥ कुरुष्व तत्किंचन येन वांबितं नवेत्तवास्तेऽवसरोयमेव यत्॥१६॥ अर्थ ॥ हवेजीवने प्रमादपरिहारनुएहिजअवसर तेकडे हेजीवतुजने फरीफ रीने उपदेशकढुंडं केजोतुंःवथीबीहे अनेसुरखनेवाले तोतुं एवंकांक सुरुत करके जेथकीताहरु वांबुंसुख तुजनेमिले अनेतेसुरूतकरवानो अवसर एहिज हांफरीनेनपदेशदीधो माटेपुनरुक्तदोषनही यमुक्तं सझायजाणतवन सहेसुनवएस थुईपयाणेसु ॥ संतगुणकित्तणेसुन दुति पुणरुत्तदोसा॥ १६ ॥ धनांगसौख्यस्वजनानसूनपि त्यज त्यजैकं न च धर्ममाईते ॥ नवंति धर्मादि नवे नवेथिता न्यमून्यमीनिः पुनरेष उर्लनः॥१७॥ अर्थ हवेधर्मनीउर्लनतादेखाडीने धर्मावसरनेज दृढकरेने हेजीवतुं धनतथाशरीर अनेसुख तथास्वजनकुटुंब तथाप्राणजे जीवितव्यपणुं तेसर्वनोत्यागकर पणएकश्रीस वज्ञप्रणीतजे धर्म तेहनेकोश्वारेंपण त्यजीशनही केमकेएधनादिक सर्ववस्तुतेधर्मथकी जतुजनेनवनवने विषे वांनितमलशे पणधनादिकेकरी जिनोक्तधर्ममल उर्लन १७ दुःखं यथा बढुविधं सहसेप्यऽकामः कामं तथा सहसि चेत्करुणादिनावैः॥ अल्पीयसापि तव तेन नवांतरेस्या दात्यंतिकी सकलदुःख निवृत्तिरेव १७ . अर्थहवेत्रात्माने अकामःखनासहेवाने बदले सकामःखसहेवुते नलुंएमकहे ने हेयात्मातुंजेम अकामकेश्वारहित परवशथको बहुविध जुख तृप्मा वध बंधनादि कःखप्रतेसहेले तेमज जोकरुणादिक जेमैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ एपरिणामेकरी ने सकामके निर्जरानीबुधियें तुंःखसहनकरे तो तेवायोडापणःखने सहवेकरीने नवांतरनेविषे आत्यंतिकीके पुनःप्राउ रहित एहवी समस्तऊरखनी निवृत्तिते नि श्चयथाय एटले मोदपद पामे ॥ १७ ॥ प्रगल्नसे कर्मसु पापकेष्वरे यदाशया शर्म न तदिनानितं॥ विनावयंस्तच्च विनश्वरं कृतं बिनेपि किं दुर्गतिदुःखतो न दि॥४॥ अर्थ ॥ दवेधर्मत्यजीने आत्मापापकर्ममा निपुणताकरेने तेथाश्रीकहेले बरेमू खंजीवतुं सुखनीयास्यायेंकरी पापनानुत्पादकजेकर्म तेहनेविषे प्रगल्नसेके० माहा पणकरेले पण ते धनस्वजनादिकनासुख तो प्राणितके जीवतव्यविना नोगवायनही . ... Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराग्यापदेशाधिकार. अने ताहरो जीवतव्यतो शीघ्रके नतावलु विनाशशीलने एवीरीतेजाणतोयकोपण तुं उर्गतीनाऊःखथी केमबीहितोनथी ॥ १५ ॥ कर्माणि रेजीव करोषि तानि यैस्ते नवित्र्यो विपदो ह्यनंताः॥ तान्यो निया तदधसे ऽधुना किं संभावितान्योपि नशाकुलत्वं॥३०॥ अर्थविलीप्रकारांतरेतेहिजकहेले हेजीवजोतुं तेहवाज हिंसा मृषावादादिककर्म करेले जेकमैकरीतुजने अनंतिआपदाओथाशे तेवारेहमणाजते आपदायोसंगारेथके पण अतिशेनयेंकरीने आकुलताकेमपामे जोपापनाफलजाणतोथकोपण तुंपापक मकरवानेप्रवर्तेले तेवारेंवली नरकादिकनाडुःखसानलीनेसावास्ते जयपामे निश्चेतु जनेतेःखनोगवाजपडशे एमांसंशयसुंडे एनावार्थडे ॥ २० ॥ __ ये पालिता शिमिताः सदैव स्निग्धा नशस्नेहपदं च ये ते ॥ यमेन तानप्यदयं गृहीतान् ज्ञात्वापि कि न त्वरसे हिताय॥२॥ अर्थ ॥ वतीजीवने हीतार्थनेविषेप्रेरे हेजीवजेस्वजन मित्रादिक तथापुत्रादिक तेपाल्यापोष्या तथाजे तुजसायवृदिपाम्या महोटाथया वतीतेताहरा अतिशयस्नेह पात्रथया तेदुनेपण यमराजायें निर्दयपणेग्रस्या तेजाणीनेपणतुं आत्महितकरवानेके | मजमालयतुंनथी केमके तेदुनेजो यमेंग्रस्यतो तुंशीरीतेस्थिररहिस एनावार्थ ॥१॥ यैः क्लिश्यसे वं धनबंध्वपत्य यशःप्रनुवादिनिराशयस्यैः॥ कियानिह प्रेत्य च तैर्गुणस्ते साध्यः किमायुश्च विचारयैवं ॥श्शा अर्थ ॥ हवेजेतुक्तेशसहेजे तेहथीतुजने काश्गुणनथी तेकडे हेयात्मन्तुं या शयस्थके केवलकल्पितमात्र एहवाजेधन बंधु स्वजन अपत्यके संतान तथा य श कीर्ति अने प्रचुत्व स्वामिपणुं इत्यादिकनिमित्तेकरी क्विश्यसेके0 कष्टनोगवे ते धनस्वजनादिरी तुजनेश्हनवें तथा परनवें केटलुक गुणसाधलेएटले ते तुजने सुंगुणकरसे अनेकषोते केटलुकले एमविचारी धनादिकर्नु ममत्व करतां करतांज थायुष पुरोथश्जासे अने नवांतरेंकोइपण ताहरेकामेश्रावसेनही ॥ २२ ॥ किमु मुह्यसि गत्वरैः पृथक् कृपणेबंधुवपुःपरिग्रदैः॥ विमृश स्व हितोपयोगिनो ऽवसरेऽस्मिन् परलोकपांथ रे ॥ २३ ॥ अर्थ॥ हेपरलोकेंजनार पंथीजीव तुं कपण दीन सरणदेवाने असमर्थ एहवा थ ने पृथगत्वरके जूदाजूदावेराजासे एहवाजे बंधु स्वजन तथा वपुजेशरीर तथा ध नधान्यादिक परिग्रह तेणेकरी सुमुंजाय एकोइपण ताहरासार्थे यावेनही एनावा - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अध्यात्मकल्पाम. र्थले माटेएधर्मकरवायोग अवसरनेविषे पोतानाहितोपयोगी परलोकना सहायनूत एहवाजे ज्ञानादिकगुण तेहोने चित्तमांराख ॥ २३ ॥ सुखमास्से सुखं शेषे मुंद पिबसि खेलसि ॥ न जाने त्वग्रतः पुण्यैर्विना ते कि नविष्यति ॥२४॥ अर्थ ॥ हवे हमणातुंसुखेविलशेले पण आगलताहरी सीगतिथासे तेकहेजे हेया स्मातुं हमणापूर्वोपार्जित पुण्यफलना उपायथी सुंसुखेबेशीरहे तथासुखेनोजनक रेले सुखेंमद्यादिकपानकरेले सुखेंद्यूतादिक्रमे पणागल परनवें तुजनेपुण्यविना | सुंथवानुढे तेसुनथीजाणतो एटलेपुण्यविना घणुजवीयश्स ॥ २४ ॥ शीतात्तापान्मक्षिकाकत्तृणादि स्पर्शाद्युत्यात्कष्टतोल्पादिनेषि॥ता स्ताश्चैनिः कर्मनिःस्वीकरोषि श्वभ्रादीनां वेदना धिर धियं ते॥३५॥ अर्थ ॥ हवेथोडाकष्टथी बीहतोथको घणुकष्टअंगीकारकरे तेकहे देवात्मातुं ताढथी तापथी तथामांखीप्रमुख तृण मानप्रमुखना स्पर्शादिकथी उपमुंजे अल्प मात्रकष्ट तेथीबीले कायरथाय अनेएवापापकर्मैकरीने श्वनके नरकादिकना प्र कारनीजे महावेदनाओ तेप्रतेअंगीकारकरे तोताहरीबुदिने धिःकारले ॥२५॥ क्वचित्कषायैः क्वचन प्रमादैः कदाग्रहैः क्वापि च मत्सरायैः॥ मानमात्मन् कलुषीकरोषि बिन्नेषि धिङ्नो नरकादधर्मा ॥२६॥ अर्थ ॥ वलीतेहिजकहेजे हेआत्मातुं किहांक परीषदादिकमां कषायेंकरीने वली किहांक क्रियानुष्टानादिकनेविषे प्रमादेकरीने वलीकिहांक उपदेशादिकमां कदाग्रहेंक रीने किहांकगुणवंतनी अनुमोदनानेविषे मत्सरादिकेंकरीने पोतानीअात्माने मलीन करेले पणतुंधर्मरहितयको नरकथीबीहितोनथी माटेतुजने धिःकारले ॥ २६ ॥ इति श्रीअध्यात्मकल्पमे सामान्यतो वेराग्योपदेशाख्यो दशमोधिकार समाप्त. अधधर्मशुध्युपदेशः॥नवेभवापायविनाशनाय तमझधर्म कलुषीकरोषि किं ॥ प्रमा दमानोपधिमत्सरादिनिन मिश्रितं ह्यौषधमामयापदं ॥१॥ ___ अर्थ ॥ हवेधर्मशुदिनपदेशनामें ग्यारमो अधिकारकहे तिहांप्रथम धर्मनी ताज थापे जेधर्मते नवके० संसारसंबंधी अपायजे जन्ममरणादिक तेहनो वि नाशकरवाने समर्थथाय एहवाधर्मने हेमूर्खयात्मा प्रमादजे मद्यादिक तथामान अहंकार उपधि कपट तथामत्सर इत्यादिकेंकरीने सुं मलीमकरेले हवेतेउपर दृष्टां तकहेले दियस्मात्के मिश्रितऔषध आमयापहनस्यात् एटले विरुषव्यमिश्रित - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशुध्युपदेशाधिकार. ७ जे औषध तेकाइरोगनिवारकनहोय अनेतेमजतेऔषधनीपरें धर्मपणजोप्रमादादि के मिश्रितहोयतो संसारना अपायजे दुःखतेनो निवारकनहोय ॥ १ ॥ यतः॥ शैथिल्यमात्सर्यकदाग्रहक्रुधोनुतापदंनाविधिगौरवाणि च ॥ प्रमादमानौ कुगुरुः कुसंगतिः श्लाघार्थिता वा सुकृते मला इमे ॥२॥ अर्थ ॥ हवेधर्मनेविषे मलसरिवाजेटलादोपळे तेटलापूर्वाचार्यना वचनथीदेखाडे बे सुकृतजेधर्मकार्यतेमां शैथिल्यके० धर्मनेविषे अनादरता मात्सर्यके गुणवंतनेविषे देषनुंधरवु तथाकदाग्रहके 0 जूगवचननुहठ क्रुधके । क्रोध वली अनुतापके सुक तकरीनेपले हाइतिखेदेमें फोकटदानदी, फोकटतपस्याकीधी इत्यादिकपश्चात्तापर्नु कर q तथादंनके ० कपट अने अविधिके । शास्त्रोक्तविधिये रहित क्रियानुंकर तथागौर वके० ९महाधर्मिष्ट इत्यादिक महोटाइनुचिंतव, वलीप्रमादजे धर्ममां असावधा नपणुं अने मानजेअहंकार वलीकुगुरुजे लोहशिलातुल्य अने कुसंगतिजे ऊत्सूत्र नाषी एहवामिथ्यात्वी प्रमुखनोसंग तथा श्लाघार्थिताके लोकनामुखथी पोतानी कीर्ति-वांग, एटलाप्रकारेकरी धर्ममलीनथाय धर्म,यथोक्तफलनथाय ॥ ५ ॥ यथा तवेष्टा स्वगुणप्रशंसा तथा परेषामिति मत्सरोशी॥ तेषामिमां संतनु यल्लनेयास्तां नेष्टदानादिविनेष्टलानः॥३॥ अर्थ ॥ दवेआत्मापोतानागुणनी प्रशंसावांचे तेश्राश्रीनपदेशेने हेयात्माजेम तुजने पोतानागुणनी प्रशंसावल्लन तेमपरजे अन्यजन तेहनेपणपोताना गुणनीप्र शंसावन्ननले एहजाणीने मत्सररहितथको तेअन्यजननी इमांके ७ गुणनीप्रशंसाप्र तें विस्तारीनेकहे जेमतुंपणतेप्रशंसाप्रपामें केमके कोइने वांबितदानदीधाविनापोता नेपण वांनितलाननथाय एटलेपारकागुणनो प्रशंसाकरीयेतो पोतेपण प्रशंसनीयौ जनेषु गृह्णत्सु गुणान् प्रमोदसे ततो नवित्री गुणरिक्तता तवागृहत्सु दोषान् परितप्यसे चरे भवंतु दोषास्त्वयि सुस्थिरास्ततः॥४॥ अर्थ ॥ हवेकेटलाक काव्यनेविषे गुणप्रशंसानीवांनाथकी अवगुणदेखामेने हे थात्माजोताहरागुण लोकेंग्रहणकयाथकां तुंहर्षपामेडे तोतेहर्षपामवाथी ताहरे गुणनी रिक्तताथासे अनेजोलोकें अवगुणबोलतेबते तुं परितापके० खेदपामे तो तेखेदपामवाथी ताहराविषे अवगुणते निश्चलथइरहेसे तेमाटे गुणकह्याथी हर्ष थ नेदोषकह्याथी खेद एबेदुवाना तुंकरीसनही ॥४॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पद्रुमः - - प्रमोदसे स्वस्य यथाऽन्यनिर्मितै स्तवैस्तथा चेत्प्रतिपंथिनामपि ॥ विगर्हणैः स्वस्य यथोपतप्यसे तथा रिपूणामपि चेत्ततोसि वित्॥५॥ अर्थ ॥ हेयात्मातुं जेमलोकनामुखें पोतानागुण स्तवसांजलीने प्रमोदपामे तेम शत्रुनापण गुणस्तवसांजलीने जोप्रमोदपामें अने पोताने विगर्हणैः के अवर्णवादें करीने जेमपरीतापकरेले तेमजजो शत्रुनापण अवर्णवाद सांजलीने तुंपरीताप करे तेवारें एम जाणिजे तुंझाताबो ॥ ५॥ अथवा ॥ स्तवैर्यथा स्वस्य विगर्हणैश्च प्रमोदतापो नजसे तथा चेत्॥ इमौ परेषामपि तैश्चतुर्वप्युदासतो वासि ततोऽर्थवेदी॥६॥ इतिवापाठः अर्थ ॥ वली पाठांतरेकरी एहिजअर्थकहेले हेयात्मातुंजेम पोतानीस्तुतियेंकरी ने तथापोतानेविगर्हणेकरीने प्रमोदतापौके ० हर्षयनेशोकप्रतेनजेने तेमज पोतानी स्तवना तथा निंदा अने परनीस्तवना तथा परनीनिंदा एचारेनेविषेजो उदास ताके० मध्यस्थानावनेनजे तेवारेंतुं अर्थवेदीके० परमार्थ-जाणडो एमजाणियें एकाव्य पहेलाकाव्यनुं पाठांतरजाणवू ॥ ६ ॥ नवेन्न कोपि स्तुतिमात्रतो गुणी ख्यात्या न बव्ह्यापि दितं परत्र च ॥ तदिबुरीयादिनिरायति ततो मुग्धाभिमानग्रहिलो निसि किं ॥७॥ अर्थ ॥ हेयात्माकेवल एकलीस्तुतिमात्रथीज कोइगुणवंतनथाय अनेवली जग तमा ख्यातिकीर्तिजोघणीहोय तोपण तेथी कांपरजवनु हितनथाय तेमाटेपरलो के हितवांडक एहजेतुंते मुधाके फोकट अनिमानेकरी घहेलोथयो थको ईर्षा दिकेंकरीने यायतिजे उत्तरकाल तेहने सावास्ते बगाडे एटलेईर्षा करवाथी ताहरो परनव®हित विणसीजाय इतिनाव ॥ ७ ॥ . सृजंति के के न बहिर्मुखा जनाः प्रमादमात्सर्यकुबोधविप्लुताः ॥ 'दानादिधर्माणि मलीमसान्यम् न्युपेदाशुद्धं सुकृतं चराएवपि ॥७॥ अर्थ ॥ हवेदानादिककर्मने जे मलीनकरे तेहनेकहेने हेत्रात्मा प्रमादजे मद्या दिक पांचप्रकारें तथामात्सर्य एटले पारकीसंपदानी अदेखाइ तथाकुबोधजे मि थ्यादर्शन दृष्टिराग तेणेकरी विप्लुतके० परानव्या एदवा बहिरमुखजे स्वचित्तक ल्पित मार्गनास्थापक कुतीर्थकलोकते मलीमसके। महाभारंनादिकें दूःषत एह वादानप्रमुख ते धर्मकार्यमां कोणकोणनथीकरता अर्थातमिथ्यात्वीलोकपण सर्वपो Jain Education Interational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशुध्युपदेशाधिकार. तपोताना मननीरुचियें दानप्रमुख धर्मकार्यकरे पण तेप्रमादादिकें दूषितथका य थोक्तफलदायकनयाय तेमाटेतेमलीन धर्मकार्य उवेषीने योकुंपण शुधर्मकर॥॥ आच्गदितानि सुकृतानि यथा दधते सोनाग्यमत्र न तथा प्रकटीकृतानि ॥ ब्रीडानताननसरोजसरोजनेत्रा वदःस्थलानि कलितानि यथा ज्कूलैः ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ हवेप्रशंसारहितधर्मनुं विशेषफलदेखाडेने इहांश्रीजिनशासननेविषे या बादितके प्रशंसानेढाक्याथका एटलेजेप्राणी प्रशंसायेरहित थका एहवाजे सुरुत के धर्मकार्य तेथीजेहवी सुनगतानेपामे तेहवी प्रकटितके जेसुरुतकरीने लोक यागले प्रशंसाकरावे ते सुनगतानेनपामे तेहनुंदृष्टांतकहेले जेम ब्रीडाजेलजा ते ऐकरीने नतके ० नम्र आननसरोजके मुखकमलजेहन एहवीजे सरोजनेत्राके कमलनयना एटले उत्तमस्त्री तेहना वक्षःस्थलजे स्तनमंडलते उकूलजे वस्त्रतेणेकरी सहितथका जेहवी सुनगताप्रतें पामे तेहवा उघाडाथका सुनगताप्रतेनपामे ॥५॥ स्तुतैः श्रुतैर्वाप्यपरैर्निरीदितै गुणस्तवात्मन् सुकृत कश्चन ॥ फलंति नैव प्रकटीकृतैर्नवो द्रुमा दि मूलैर्निपतंत्यपि वध ॥२०॥ थर्थ ॥ हेयात्मा ताहरासुकृतजे धर्मकार्य ते श्रन्यलोकें स्तुतके० वखाणेथके तथा अन्यलोकें सांनोथके तथा अन्यलोकेंदेखेथके तेथीतुजने कोश्गुणनथी तेल परदृष्टांतकडे जेमनूमीमांहेंथी मूलप्रगटकरेगते उमजेदतेफलेनहीपण उलटाहे गपडे तेम सुरूतपण कघाडाकस्याथका फलदायक न थाय ॥ १० ॥ तपःक्रियावश्यकदानपूजनैः शिवं न गंता गुणमत्सरी जनः॥ अपथ्यनोजी न निरामयो नवेज्सायनैरप्यतुलैर्यदातुरः॥१२॥ अर्थ ॥ हवेगुणवंतनुं मत्सरकरवुनिषेधेने गुणजेपारका तपसंयमदानादिक तेह नेविषे मत्सरनुंकरनार एहवोजे मनुष्यते तपतथा क्रिया जे यावश्यक दान तथापूजन जे जिनबिंब पुस्तकप्रमुखनीपूजा इत्यादिक सर्वप्रकारेकरीपण मोदपामेनही ते उपर दृष्टांतकहे जेम थातुरजे रोगीपुरुषते श्रपथ्यनोजन करतोथको अनोपम महामू ला एहवाजे रसायन पारदादिक औषध तेणेकरी रोगरहितनथाय इहां रोगीतेथा त्मा थने तपप्रमुखते रसायण अनेगुणवंतउपर मत्सरते थपथ्यनोजन तथा मुक्ति ते निरोगता जाणवी एउपनयकडं ॥ ११ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्प डुम. मंत्रप्रनारत्नरसायनादि निदर्शनादल्पमपीहि शुद्धं ॥ दाना नावश्यक पौषधादि महाफलं पुष्यमितोन्यथाऽन्यत् ॥ १२॥ अर्थ ॥ वली प्रकारांतरे तेहिजकले इहांश्रीजिनशासनमां दान देवपूजा श्रावश्य क पोसहप्रमुखजे पुण्य तेथोकुंपण शुद्ध दोषरहितकीधोंहोयतो मंत्रजे जांगुलीप्र मुख तथा रत्नजे सूर्यकांत चंडकांतादिक तथा रसायनजे पारादिक तेहनीपरें म हाफ कारीया जेममंत्र थोडाक्षरनुंहोय तोपा विषप्रहारादिकनेहरी महागुणक रे तथा सूर्यकांतादिक रत्नन्हानुंहोयतोपण महाप्रकाशकरे अने रसायण यो कुंपण म होटारोगहरे तेमदोषरहित पुण्यजो थोमुंहोयतोपण महाफलदायकयाय अने तेहथी विपरीतजे पुण्यकार्य ते अन्यथा के० घणुंहोयतोपण अल्पफलदायकथाय ॥ १२॥ दीपो थाल्पोपि तमांसि दंति लवोपि रोगान् हरते सुधायाः ॥ तृणं ददत्याशु कोपि चाग्नेर्धर्मस्य लेशोप्यमनस्तथादः ॥ १३ ॥ दीपकल्पके० न्हानोहोयतोपण अंधकारटालेबे वलीजेम अमृ तनो एक बिंडुमात्रतेपण सर्वरोगनेहरे वलीजेम अग्नीनुएककलीयुंमात्रतेपण तृणा बालीनाखे ते निर्मलदोषरहित एहवोधर्मनुं लेशमात्रतेपण पापनेटाले ॥ १३ ॥ जावोपयोगशून्याः कुर्वन्नावश्यकीः क्रियाः सर्वाः ॥ || ६० देहक्वेशं जनसे फलमाप्स्यसि नैव पुनरासां ॥ १४ ॥ अर्थ || हवेसर्व क्रियानी सफलताते जावसहितकरवाथ जहोय तेकहेने देथा त्मातुं नावजे श्रद्धा तेहनाजपयोगकरी शून्यके० रहित एहवासर्व अवश्य करवा योग्य जे पडिकमणुं पडिलेहाप्रमुख क्रिया तेप्रते करतोयको पण तेथी केवल शरीरने क्लेशमात्र पजाव तेहिजफलपामेवे पणते क्रियानुं मुख्यफलजे मोक्षलक्षण ते सर्व थानही पामे केमके नावयकी शून्यक्रियाजो घणी करीतोपण निःफलयाय ॥ १४ इतिश्रीध्यात्म कल्प मे धर्म शुध्युपदेशाख्य एकादशोधिकार समाप्त ॥ ११ ॥ श्रीदेवगुरुधर्मशुद्धिमधिकृत्य किंचिदुपदेशः ॥ तत्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानं हितार्थधर्मा हि तपक्तिसाध्याः॥ श्रयंस्तमेवेत्यपरीक्ष्य मूढ धर्मप्रयासान् कुरुषे वृथैव ॥ १ ॥ अर्थ || हवेबारमें धिकारें देव गुरु धर्म एत्रणतत्वनी शुद्धिकहेसे तिहांप्रथमतो जो शुद्धगुरुमजे तोज शुद्ध देव तथाशुदधर्मपामियें तेमाटेप्रथम गुरुतत्वनी शुद्धि कहे हे आत्मासर्वतत्वमां मुख्यतत्वते गुरु केमके हितार्थके० मोनेखर्थे धर्म Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगुरुधर्मशुध्यधिकार. साधवोहोयतो ते गुरुनावचनथकीसधाय तेमाटेतुं मूढथको परीक्षाकस्याविनाज गु| रुने धाश्रयतोथको धर्मनेनिमितेंजे प्रयासकरेले तेवृथाके० फोकटने ॥ १ ॥ नवी न धर्फरविधिप्रयुक्त र्गमी शिवं येषु गुरुर्न शुचः॥ रोगीहि कल्पो न रसायनैस्तै र्येषां प्रयोक्ता निषगेव मूढ॥२॥ थर्थ ॥ हवेगुरुअशुभहोयतोधर्मपण अशुध्थाय तेकडे नवीजे संसारीजीव तेणे थविधियेकीधाएहवाजे दानादिकधर्म तेहथीजीव मोगामीनथाय केमकेजे धर्मनेविषे शुभके निर्दोषपणुं नथी तेधर्मवृथाले तेनपरदृष्टांत कहे जेमरसायननुं करनार वैद्यते गुणागुण- अजाणमूर्खहोयतो रोगीपुरुष ते रसायनेकरी निरोगीन थाय तेमहारोगी तेयात्मा औषधतेधर्म मूर्खवैद्य ते कुगुरु जाणवो ॥ २ ॥ समाश्रितस्तारकबक्षितो यो यस्यास्त्वहो मऊयिता स एव ॥ ओघंतरीता विषमं कथं स तथैव जंतुः कुगुरोर्नवाब्धिं ॥३॥ . अर्थ ॥ हवेकुगुरुबने कुंतारकनुंदृष्टांतकहे जेप्राणियें तारकबुद्धियेंकरीने तार कनेयाश्रयोडे अनेतेतारकज आश्रीतप्राणीने बुझाडनारदोय तोतेप्राणी विषम स्तर एहवो उघजे समुनापाणीनो प्रवाह तेशीरीतेंतरसे तेमज जेथकी तरवानीया शाराखिये तेहिज जेवारे बोडे तिवारें समुइनुं पारते केमपामियें तेमज कुगुरुथी जवसमुश्पण जाणवू केमके जेगुरुप्रतें तारकजाणीने संसारसमुह तरवानी बाशा ये तेहने थाश्रयियें अनेतेगुरुतो उन्मार्गने देखाडवेकरी पाश्रीतप्राणीने संसारसमु इमा बोडे तेवारे ते प्राणी संसारसमुझ्नो पारकेमपामे एनावार्थडे ॥३॥ गजाश्वपोतोदरथान् यथेष्टपदाप्तये न निजान् परान् वा ॥ नजति विज्ञाः सुगुणान् नजैवं शिवाय शुशान् गुरुदेवधर्मान्॥४॥ अर्थ ॥ तेमाटेशुभदेवगुरुधर्मने बादरवुतेकडे जेमविज्ञजे निपुणपुरुष तेवा वितस्थानकें पहोचवानेअर्थे पोताना अथवापारका हाथी घोडा तथा वाहण उठब लद रथ तेयापापणेगुरोसहितसुलक्षणाजोग्ने अादरे केमकेजो निरीक्षण वाहन होयतो तेहथीवांडित स्थानकेंपहोचायनही माटेहेसरलप्राणी एरीतेतुंपण मोक्षस्था नक पामवानेगर्थे शुदगुणोपेत एवाजे देव गुरु धर्मतेप्रतेनज जेथकीमोपदपामे फलावृथा स्युः कुगुरूपदेशतः कृतादि धर्मार्थमपीह सूयमाः॥ तदृष्टिरागं परिमुच्य न दे गुरुं विशुद्धंनज चेचितार्थ्यसि ॥५॥ अर्थ ॥ हवेकुगुरुनाउपदेश्याधर्म फलदायकनहोय तेकहेजे इहांश्रीजिनशासनने | Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पऽम. विषे कुगुरुनाउपदेशथकी धर्मनेयर्थेपणजे नलाउद्यमकरेलाहोय तेफलदायकनयाय माटेहेनश्कजोतुं मोक्षफलनोयर्थीलो तोदृष्टिरागांमीने शुरूपरुपकगुरुनेनज ॥५॥ न्यस्ता मुक्तिपथस्य वादकतया श्रीवीर ये प्राक् त्वयालु टाकास्त्वदृतेऽनवन् बहुतरास्ववासनं ते कलौ॥ बिधा णा यतिनाम तत्तनुधियां मुष्णति पुण्यश्रियः फूत्कुर्मः किमराजके ह्यपि तलारदा न किं दस्यवः ॥ ६ ॥ अर्थ ॥ हवेदृष्टांतेकर। कुगुरुनीऽष्टताकहेडे हेश्रीमहावीर पूर्वेतुमेजे सुधर्मास्वा मिप्रमुख मोक्षमार्गना चसावनारामूक्याहता तेपडे कलियुगमां तुजविना ताहराशा सननेविषे पट्टपरंपरा सुविहिताचार्यथी अलगाथइने पोतानाकुमतने प्रवविवेकरी ने भुटाकके लूटाराथया हवेतेहy ©टारापणुंकहे जेनणी तेयतिनामधरावताथ का स्वल्पबुधिलोक जेकुगुरुनीपरिक्षाकरीसकतानथी तेहोनी पुस्यरूपजे लक्ष्मीतेप्रतें खूटे एहवातेउत्सूत्रनाषनार कुगुरुनीवाततो अर्थिजीव किहांजश्पोकारे केमकेवि शेषज्ञानीविना पोकारकस्या, कोगमनथी एटले अराजकके राजानेबनावें त सारकजे कोटवाल तेपणचोरनथायसुं एटलेराजानहोय तेवारेजे रखवालाहोय तेहिजचोरीकरे तेमहाराजाते श्रीवीरपरमात्मा तेनोमार्ग प्रवर्तकतेसुधर्मादिकगण धर अराजकतेकलिकाल लूंटाकते कुमतना प्रवर्तक इत्यादिक उपनयजाणवू ॥६॥ दमाद्यस्य शुधिगुरुदेवधमै धिंग दृष्टिरागेण गुणानपदः ॥ अमुत्र शोचिष्यसि तत्फले तु कुपटयनोजीव मदामयातः॥ ॥ अर्थ ॥ हवेधशुरुदेवगुरुधर्मपामिने हर्षधरेनहीतेकहेले हेयात्मातुं अनुदेव गुरुधर्मप्रतेंपामवाथकी गुणनीयपेदारहित थयोथको दृष्टिरागेंकरी हर्षपामे तेमा टेतुजने धिःकारले पण जेवारे तेहनुंफल उदयश्रावशे तेवारेंतुंनरकादिकनेविषे घणो शोचपामिस तेद-दृष्टांत कहे जेम महारोगीओ पुरुष स्वादना वशथकी कुपथ्य जोजन करीने पढेरोगवधेतिवारें घणु शोचकरे तेमतुंपण दृष्टिरागें करी कुगुरुकुदेव कुधर्म सेवीने पळे उर्गति पामेथके घपुसोचपामिस ॥ ७ ॥ नानं सुसिक्तोपि ददाति निंबकः पुष्टा रसैर्वध्यगवी पयो न च ॥ उःस्थोनृपो नैव सुसेवितः श्रियं धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः॥॥ अर्थ। दवेकुगुरुनीसेवा गुनफलनीदेनारीनथाय तेकहे जेमलिंबडोनलीपरेंसी सोथकोपण यांबानुंफलनापे तयारसजे घीतेलप्रमुख पुष्टकारीवस्तुथकीपणवांज - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगुरुधर्मशुध्यधिकार. ६३ एली गायकां धथापेनही वलीदेशष्टविपमश्रवस्थानेपाम्यो जेराजातेने जलीपरेंसे व्यथकोप लक्ष्मीपे तेमकुगुरुनेपण सेव्योथको धर्म अथवा मोहप्रतेनापे कुलं न जातिः पितरो गणोवा विद्या च बंधुश्च गुरुर्धनं वा ॥ हिताय जंतोने परं न किंचित् किंवाहताः सजरुदेयधर्माः ॥ ॥ || सर्वपदार्थ देवगुरुधर्माधिकनेते कले जंतुके जीवने कुनजे‍ दवांगकुलप्रमुख तथाजातिजे मातानुपद पितर के० पितामहप्रमुख तथागणजे स रखासरखामित्रनीटोली तथा विद्याते षमंगीप्रमुख तथाबंधुजे स्वजन वलीगुरुजे कु विद्याध्यापक ने धनतेसुवर्णादिक तथाबीजाजेकां देश ग्राम मंदिरप्रमुख सर्व हिताय के परलोकना हितनेार्थे को इयायनदीपण सत्के० गु६ एहवा देव गुरुधर्म एत्रणनेप्रादस्याथकां परलोकना हितने प्रथाय ॥ ए ॥ 0 माता पिता स्वः सुगुरुश्च तत्वात् प्रबोध्य यो योजति शुद्धधर्मे ॥ न तत्समोरिः पिते नवाब्धौ यो धर्मविघ्नादिकृतेश्च जीव॥१०॥ अर्थ | वेजे धर्ममांजोने ते पुरुषनीप्रशंसाकरेने जे पुरुषजेहने तत्वदेखाडी प्र तीबोध माडीने ६धर्ममांजोडे तेहनेते हिजपुरुष माता तेहिजपिता तेहिजस्वज न नेते हिज गुरुजाणवुं खनेजेजीव हरेकप्राणिने धर्मनु अंतरायादिक करीने संसा रसमुड्मांनाखेता तेसरिखोने कोई बीजो शत्रुनयी ॥ १० ॥ दा दिएलजे गुरुदेवपूजा पित्रादिनक्तिः सुकाभिलाषः ॥ परोपकारी व्यवहारशुद्धि नृणामिहामुत्र च संपदे स्युः॥ ११२ ॥ अर्थ || हवेपुरुषने संपदानाकारण केटलाने तेकहेले दाक्षिण ताजे अनुकूलता त्याला अनेदेवगुरुनी पूजा तथापितामाता काकोकाकी महोटानाई इत्यादिकजे कोइ गुरुस्थान कियाहोय तेहनीनक्ति तथापरनेचपकारनुं करवुं तथाव्यवहारशु६ते लहेादेवामां साचापराख एटलाप्रकार तेपुरुषने इहलोकें अथवापरलोके प ए संपदादेवाना कारणनूतथाय ॥ ११ ॥ जिनेष्वनक्तिर्यमिनामवज्ञा कर्मस्वनौचित्यमधर्म संगः॥ पत्रापेक्षा परवंचनं च सृजति पुंसां विपदः समंतात् ॥ १२ ॥ अर्थ || हवेपूर्वोक्तप्रकारेथी विपरीतपणे प्रवर्त्ततां प्राणीने थापदाहोय तेकदेवे जिनन तिरहितपणुं तथासाधुनीवगणना ने कर्मजे साधु ने श्रावकनी क्रिया तेहने विषे अनुचितपणुं तथा अधर्मजे धर्मरहित एहवानवविह नास्तिकप्रमुख श्र . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पम. थवाविरुषमिते मिथ्यात्वी कुमतिप्रमुख तेहनीमित्राश्ते विवाहव्यापार प्रमुखेंकरी परिचयकर तथापिताप्रमुखनी अवगणना अनेपरने कुमालेख कुमानामा कुडा माप कुडातोलप्रमुखेंकरोने उगवू एटलासर्वप्रकारेकरी पुरुषनेआपदाउपजे ॥१॥ नक्त्यैव नार्चसि जिनं सुगुरोश्च धर्म नाकर्णयस्यविरतं विरतिर्न धत्से ॥ साथै निरर्थमपि च प्रचिनोष्यघानि मूल्येन केन तदमुत्र समीदसे शं१३ अर्थ॥ वलीप्रकारांतरेकहे देवात्मातुं नक्तियेंकरी जिनपूजाकरतोनथी अनेकदा पिपूजेतोपण कुलकर्मादिक परवशपणायकी पूजेले पणनक्तिथीपूजतोनथी तपास द्गुरुपासेथी धर्मसांजलतोनथी तथानिरंतर अढारपापस्थानक पन्नरकर्मादान प्रमु खथीसंवरनुकरवू इत्यादिकविरतीपणुं तेपणनथीयादरतो तथासार्थकके पोताने थ थवाकुटुंबादिकनेअर्थ अनेनिरर्थकके स्वार्थविनापण अपथ्य अनाचरित पापोपदेश हिंसाप्रदान प्रमादाचरित एपांचप्रकारेकरी कारणविना पापनेमेलवेडे तोपरलोकें तुं शामूलेंकरी सुखनी वांबाकरे इहां मूलरूपते पुण्यजाणवू ॥ १३ ॥ चतुष्पदैः सिंहश्व स्वजात्यैर्मिल निमांस्तारयतीदि कश्चित्॥ सदैव तैर्मजति कोपिउर्गे शृगालवच्चेत्यमिलन् वरं सः॥१४॥ थर्थ ॥ हवेसुगुरुनेसिंहनीनपमा अनेकुगुरुने सीयालनीनपमाकहीने उपदेशेडे पोतानीजातीनाजे चतुःपदम्रगप्रमुख तेसाथेमल्या सिंहनीपरें एसंसारमांजे सद्गुरु तेपोतानी जातीना नव्यपंचेंश्यिसंझीमनुष्यइत्यादिकसाथें मल्योयको बाश्रीतजीव नेतारे जेमसिंहनिजाश्रितचतुःपदने कूपगादिकथीतारे तेमसुगुरुपए निजाश्रितन व्यजीवने संसारसमुस्थीतारे अनेकुगुरुतेसीयालनीपरें स्वजातीयजे मनुष्यादिकथ नेविजातीयजे चतुःपद तेहनेसाईंलेजश्ने उगजेनरकप्रमुख वलीउगजे कूपादिकते मांबुमाडे तेमाटेजेकुगुरुतेनमव्योथकोजसारो जेमपंचाख्यानमां कोकवन्नमां बीजा वाघसिंहादिक-नयटालवाने अर्थे सर्वचतुःपर्नेमली एकबलवंतसिंहने राजाकरी थाप्यो अनेसर्वचतुःपद तेहनीसेवाकरवालागा एकदिवसेतेवन्नमां अग्नीलागी तेवारें तेसर्वचतुःपद सिंहनेसरणेगया तेसर्वनेसिंहेपोताने पुंबडेवलगामी एकफालेकरी को श्कमहानदी नतरीपहेलेपार पहोचाड्या वलीकेटलाकदिवसे दावानलमिटयो वन्न नवपन्नवययुं तेवारेंतेसर्वचतुःपदने पालापोतानेगमे पहोचाडया एहवोते सिंहनोप राक्रमदेखी कोइकर्बुदिसीयालेपण केटलाक होनसत्व निर्जाग्य ससलाप्रमुखजीवने पोतानासेवककीधा वलीकालांतरें दवलागो तेवारे सीयाले निजाश्रित सर्वचतुःपदने Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगुरुधर्मशुध्यधिकार. - पुंबडेवलगामी फालनरीनदी उतरवा लागो तेवारे सर्वजीवसहित पोतेपण अ गाधजलमांबुमो इहांसिंहते सुगुरु अनेसीयालते कुगुरु महानदीते कुर्गति बने आश्रितजीवते धर्मार्थी मनुष्य एमउपनयलेवो ॥ १४ ॥ पूर्ण तटाके तृषितः सदैव नतेपि गेहे तुधितः स मूढः ॥ क ल्पद्रुमे सत्यपि ही दरिशे गुर्वादियोगेपि हि यः प्रमादी ॥१५॥ अर्थ ॥ हवेगुर्वादिक योगबतेप्रमाद करवुनही तेदृष्टांतदेऽनेकहेजे निश्चेकरीजे प्राणी देवगुरुधर्मनुं योगबतेपण प्रमादवंतथाय तो हाहाइतिखेदेतेप्राणीनस्यातला वेंपण सदाश्तरस्यो वली ते पुरुष सुखडी प्रमुखे नयाथका घरमां पण नुख्यो वली घरमांबते कल्पवृदं पण दरिदीने तेमाटे गुर्वादिकनो योगबते प्रमादत्यजीने धर्मसाधनकरवु तेहिजसार्थकडे ॥ १५ ॥ न धर्मचिंतागुरुदेवनक्ति र्येषां न वैराग्यलवोपि चित्ते॥तेषां प्रसूक्लेशफलः पशूना मिवो भवः स्याउदरंनरीणां ॥१६॥ अर्थ ॥हवेप्रकारांतरेंतेहिजकहे आजमेंगुं धर्मकीधोयनेहवे नित्य प्रत्यशोधर्म करवानुंडे एहवीजेने विचारणानथी यउक्तं उत्थायोत्थाय चिंतेयं किमद्य सुकृतं कृत। आयुषः खममादाय रविरस्तमयं गतः ॥१॥तथा जेने गुरुयने देवनीनक्तिनथी वली वैरागनुलेशमात्रपणनथी एहवाजेपेटनराप्राणी तेहोर्नुजन्मते पशु नुंम कुंतराप्रमु खनीपरें केवल माताने गर्नधारणादिकक्लेश करवामात्रज फलहोय ॥ १६ ॥ . नदेवकार्ये न च संघकार्ये येषां धनं नश्वरमाश तेषां॥ तदर्ज नाद्यैर्टजिनर्नवांधौ पतिष्यतां किं लवलंबनं स्यात् ॥ २७॥ अर्थ ॥ हवेप्रकारांतरें सुपात्रेधनवावरवानी सफलतादेखाडे जेधनवंतप्राणीन धन देवकार्यजे प्रासादकराववा अथवाजीर्णोधार बिंबप्रतिष्टा इत्यादिकनेविष तथा संघकार्यजे चतुर्विधसंघmपोषवू तथासाधर्मिनीवत्सलताते हीन अने दीनजे साधर्मि कहोयतेनीचिंताकरवी तथा पुस्तकलखववा इत्यादिक कार्योमांउपयोगीनहोय तेषा णीनुं विनाशशील एहजेधन तेनपार्जनादिकनापापेकरी संसारकूपमांपडताने तेधन सुंकां आधारनूतथाय अर्थातकांइनथाय एटलेसुपात्रेव्ययविना अन्यथाकोश्कामेना वे॥१७॥ति श्रीअध्यात्मकल्पधुमेदेवगुरुधर्मशुदीनामा दादशोधिकारः समाप्त॥१७॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पमः तेतीर्णा नववारिधिं मुनिवरास्तेन्यो नमस्कुर्मदे येषां नो विषयेषु निग ध्यति मनो नो वा कषायैः प्लुतं॥ रागवेषविमुग् प्रशांतकलुषं साम्याप्त शर्माक्ष्यं नित्यं खेलति चाप्तसंयमगणाक्रीम नजनावनाः ॥ १ ॥ अर्थ ॥ हवेयतिशिदोपदेशनामा तेरमोअधिकारकहेले तेमांप्रथमयतिनुं स्वरूपक हेजे जेमुनीमन विषयमा आसक्तपामतुंनथी तथाक्रोधादिककषायमां व्याप्तुं नथी एहवाजेमहानुनाव संसारसमुथीतस्या तेहनेनमस्कारकरियें ये जेमुनिराज रागरहित थइने कलुषताजे पापाचरणतेहने शांतपमाड्यो वलीसमतायेंकरीय नुपमसुखपाम्यो एहqथश्ने पांचमहाव्रतनी पचवीसनावना तथा अनित्यादिक बारनावनानेनजे वलीजिनप्रणीतजे संयमनागुण दमादिकरूप उद्याननेविषे खेले एहजेहनुमनहोय तेहनेज तत्वथकी मुनिकहियें एनावार्थडे ॥ १ ॥ स्वाध्यायमादित्ससि नो प्रमादैः शुद्धा न गुप्तीः समितीश्च धत्से॥ त पोधिा नार्जसि देहमोदा दल्पे हि देतो दधसे कषायान् ॥२॥ प रीसहन्नो सहसे न चोप सर्गान्न शीलांगधरोपि वाऽसि॥तन्मोदमा पोपि नवाधि पारं मुने कथं यास्यविशेषमात्रात् ॥३॥ युग्मं ॥ अर्थ ॥ हवेसाधुनावेषमात्रथकीज अर्थसिदिनथाय तेकहेले हेमुनितुंप्रमादक रीसिशायथ्यानकरवा वांडतोनथी तथाशु-निर्मल मनादिकत्रगुप्ति अने र्यादि कपांचसुमतीने धारणकरतोनथी वलीशरीरनामोहथी बाह्यअन्यंतर बेप्रकारेंतपप ण करतोनथी तथाथोमोपण कषायनुकारणनपनाथी कषायधरे ॥२॥ तथाकुधा दिक बावीसपरिसह अने देवता प्रमुखनाकरेला उपसर्ग तेप्रतेनथीसहेतो तथा य ढारसहस्त्ररूप शोलांगरथने पणधरतोनथी अनेकेवल वेषमात्रथीज मोदनेवाले प गएरीतेंतोतुं संसारसमुनोपारकेमपामीस ॥ ३ ॥ एबेकाव्यनोअर्थ एकोले.. आजीविकार्थमिह यद्यतिवेषमेव धत्से चरित्रममलं न तु कष्ट नीरुः॥ त त्सि किं न न बिनेति जगजिघृकुर्मत्युः कुतोपि नरकश्च न वेषमात्रात्। अथवलीतेहिजकहेले हेसाधुतुंआसंसारमा आजीविकानेश्रर्थे जे यतिनोवेषध रेले अनेकष्टकरवाथी बीहितोथको निर्मल निरतिचार जेचारित्रतेप्रते धरतोनथी तो तेवारे तुं एमकांनथीजाणतो जे जगतनुग्रासकरनार एहवोजेमृत्यु ते कोथीबीहतोन थी वलीसाधुनोवेषमात्र धस्यांथकी तो नरकपणबीहितोनथी एटले मृत्यु अने नरक एबेवाना सर्वथा तुजनेयावशेज पण ताहाराथी डरसेनही इतिनाव ॥ ४ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिशिदोपदेशाधिकार. वषेण माद्यसि यते चरणं विनात्मन् पूजां च वांसि जनाबद्धोपधिं च॥ मुग्धप्रतारणनवे नरके ऽसि गंता न्यायं बिनर्षि तदजागलकर्तरीयं॥५॥ अर्थ ॥ हेअत्मातुंचारित्रविना यतिनेवेषेकरीहर्षपामेले अनेलोकथकी बदुप्रकार नीपूजा वंदन सत्कारप्रमुख तथानपधिजे वस्त्रपात्र पुस्तकादिकप्रतेवांचे पणपतुं एमुग्ध लोकने प्रतारणके कपटक्रियायें उगाश्करी तेहथीनपार्कोजेनरकतिहांज रहीश तेमाटेतुं अजागले कतरीना न्यायप्रतेंधरेने जेमकोई खाटकियें एकबकरीहा वानेअर्थे वधकरवानेस्थानकेंयाणी कातीयेंधारचडावी सऊकरी तेबकरीनेपासेका तिमूकी एटलामांकोऽकामनेअर्थे पोतेबरमांगयो पळवाडेबकरीये पोतानापगेंकरीनू मीखोदितेमांकातिदाटी नेविचायुंजे रखेखाटकीयावेतिवारेंदेखे एमजाणीतेहनान परसुती दैवयोगथी कंठतलेकातीनीधारयावी तेथीगखंदबागयुं अनेमृत्युपामि तेमहे यात्मातुंपण तेबकरीनीपरें अज्ञानीथश्ने कातीरूपनरकने ढांकिराखेने पणतेअवश्य नाविपणाथी उदयाव्याविना रहेसेजनही तेमाटेप्रथमथीज अज्ञानत्यजीने साव धानरहेजे एन्यायग्रंथातरें बीजेप्रकारेंपण लरव्युंडे ॥ ५॥ जानेऽस्ति संयमतपोनिरमीनिरात्मन्नस्य प्रतिग्रहनरस्य न निष्क्रियोपि॥ किंर्गतौ निपततः शरणं तवास्ते सौख्यं च दास्यति परत्र किमित्यवेदि। अर्थ ॥ हेयात्माएलोकरंजन निमित्तेंजे संयमतथातप तेणेकरीने गृहस्थोपा सेंथी अहार औषध वस्त्रपात्रादिक-लेवु ते तो संयमतपादिकना समूह वक्रयके० मूलपणनथयुं तेवारेंतुजने ऽर्गतिमांपळतां शरणतेसुंने अनेपरलोकें सुखतें कोणा पसे तेविचारीजो एतोलोकोनाप्रतिग्रहनु मूलमात्रपण ताहरूंसुरुतनथी माटेतुजने नरकेपडतां उधार अनेपरलोकनेविषे सुखतेशाथकीयासे एनावार्थडे ॥ ६ ॥ किं लोकसत्कृतिनमस्करणार्चनायै रे मुग्ध तुष्यसि विनापि विशुचयोगान् कृतन् नवांधुपतने तव यत्प्रमादो बोधिद्रुमाश्रयमिमानि करोति पर्शन्॥ _ अर्थ ॥ हवेलोकसत्कारादिकदेखी राचवूनहीतेकडे हेमूढात्मा गुहनिर्मल दोषरहित एहवाजे मनवचनकायानायोग तेविनालोकोनो सत्कारजे अन्युत्थाना दिक तथानमस्कारवंदना अर्चना जेनवांगपूजा विलेपनादिक तेणेकरीने सुंदर्षपामे बे केमकेएप्रमादते ताहरेसंसारकूपमां पडतांबोधरूप वृदनाथालंबनने देदवाने ए लोकसत्कारते कुहाडारूपडे एटलेताहरोप्रमादरूपवैरीते तुजने संसाररूपकुवामा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. नाखवासारं बोधश्रालंबनरूपवृदने लोकसत्काररूप कुहाडेकरी देने एटलेहमणा तो सत्कारपामिमनमा हर्षधरेले पणागले बोधपामवो उर्लनयासे ॥ ७ ॥ गुणांस्तवाश्रित्य नमंत्यमी जना ददत्युपध्यालयनैदशिष्यकान् ॥ विना गुणान् वेषभूषेबिनर्षि चेत् त तष्ठकानां तव नाविनी गतिः।त॥ अर्थ।।हेसाधो धर्मार्थिलोकतो तहारागुणाश्रीने तुजनेनमे तथा उपधि वस्त्र पात्रादिक बालय वस्ति नैषज अन्नपानादिक अनेशिष्य तुजनेयापेले अनेतुंजोगुण विनाज मात्र वेषधरे तेवारे ताहरीधूतनी गति थाशे जेमगारा कृत्रिम नवानवा वेष करीलोकना धनगीलिये पडेकोश्कदिवसें तेहनाविपाकथी वध बंधनादिक पा मे तेम ताहरा हवालपण तेहनीपरे थासे ॥ ७ ॥ 'नाजीविकाप्रणयिनी तनयादिचिंता नो राजनीश्च नगवत्समयं च वे सि॥ नो राजनीधरसि वाऽऽ गमपुस्तकानिइत्यपि पापनाशुक्षेतथा पि चरणे यतसे न निदो तत्ते प्रतिग्रहनरो नरकार्थमेव ॥॥ अर्थ ॥ हवेसाधुपणानुं सुखदेखाडे हेनिहुकतेंघरबारपरिग्रहतोमूक्या माटे याजीविका तथापुत्रादिकनी चिंतानथी तेमराजासंबंधीनयपणनथी वत्तीजिनप्रणी त सिक्षांतपणजाणेने अथवाजैनसिक्षांतना पुस्तकधरेले तोपणशुचारित्रनेविषे मद्यमकरतोनथी तेवारेताहरूं वस्त्रपात्रादिकर्नुले, तेहyनारते नरकनेअथजबे ॥ए शास्त्रझोपि दृढव्रतोपि गृहिणीपुत्रादिबंधोन्कितोप्यंगी यद्यतते प्रमादवशगो न प्रेत्य सौख्यश्रिये।तन्मोदविषतस्त्रिलोकजयिनः काचित् परा पुष्टता बचायुष्कतया स वा नरपशुनूनं गमीऽर्गतौ॥१॥ अर्थ ॥ हवेडतेयोगेपणजीव धर्मकरतोनथी तेहनाबेकारणदेखाडे लौकिकथ ने लोकोत्तरशास्त्रने जाणतोथको तथा पंचमहाव्रतधारीथको तथास्त्रीपुत्रादिकना प्रतिबंधेरहितथको पण जेप्राणीप्रमादवशे पमयोथको परलोकनासुखनी संपदारूप ध मैकार्यनेविषेन्द्यम करतोनथी तोतिहां त्रणलोकर्नु जीपनारजे मोहरूपशत्रु तेहनी न कोइक अलक्ष्यमहाउष्टताजाणवी अथवाते नररूपपशुबापडो पूर्वेनरकादिकना आयुषाना बांधवाथकी उर्गतिमांज जनारले एमजाणीबैयें ॥ १० ॥ नचारयस्यनुदिनं न करोमि सर्व सावद्यमित्यसकृदेतदयो करोषि ॥ नित्यं मृषोक्तिजिनवंचननारिता तत्सावद्यतो नरकमेव विनावये ते Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिशिदोपदेशाधिकार. ६ अर्थ || हवे तनावेषमां नित्येंमृषावादिपणुं देखाडेले जेय तिबीजा लोकोने ठगवा सारं सर्वथासावय करूनही एकही नेपले वारंवार सावधकर्म सचितश्रारंनप्रमु खरे तेमाटे नित्येंमृषावार्देकरी नारीथयुं एहवुंजे सावद्ययारंनादिककर्म तेहथी तुजने नरकेंजजसंनवेळे जुदुंबोलीने सावद्यकरवायी निवेंनरकगतिथाय ॥ ११॥ वेषोपदेशाद्युपधिप्रतारिता ददत्यनीष्टानृजवो धुना जनाः ॥ सुंदे च शेषे च सुखं विचेष्टसे नवांतरे ज्ञास्यसि तत्फलं पुनः ॥ १२ ॥ अर्थ | वजीते हिजकदेवे हेसाधुहमणायानवमातुं कालामेला कपमाप्रमुखना वेषे तथालोकरंजवाप्रमुखनेर्थे उपदेशव्यापी कपटवैरागपोषीने धर्मकथाकलेले इ त्यादिककपटेंकरी जेनोलालोकते तुजने वांबित अन्न पान वस्त्र पात्र वसति सिझा दिकाने तेथी सुखेखायडे सुखेसुबे सुखेरमतो फिरेले पणते सुखनोगव्यानुं फल परनवें नरकादिकनाडुःखविना बीजोकांइजाली सनही ॥ १२ ॥ आजीविका दिविविधातिं नृशानिशातः कृछ्रेण केपि महतैव सृजति धर्मान् तेज्योपि निर्दय जिघृक्ष सि सर्वमिष्टं नो संयमे च यतसे नविता कथं दी१३ अर्थ | वली प्रकारांतरे तेहिजकले केटलाक श्रावको खाजीविकाजे उदरवृत्ति यादिशब्दथी वस्त्र प्रारण राजदंम पुत्रादिकविवाद इत्यादिकचिंतायेकरी सदा कालव्याकुलयका घणी कष्टेंकरीने धर्मजेदानप्रमुख तेकरेले ने हे निर्दयवेषनाधरना र तेवापाशेथीपण अन्नपानादिक सर्ववांठितवस्तु देवानेवाले असंयममां न यमकरोनी माटे हाइतिखेदेताहरी तेसीगतीथासे ॥ १३ ॥ आराधितो वा गुणवान् स्वयं तरन् भवाब्धिमस्मानपि तारयिष्यति ॥ श्रयंति ये त्वामिति निक्तिभिः फलं तवैषां च किमस्ति निर्गुण ॥१४॥ अर्थ | गुणवंत एसंयमगुणेसहितले एमहानुभावले एनेयाराध्यायको पोतेसं सारसमुझतरेवे ते आपण नेपण तारसे एहवी बुद्धियें घीन क्तियें करी तेप्राणियें तु जनेश्राश्रयो थनेतुंतोपोते निर्गुढो माटेतुजने अथवाते श्राश्रयकरनारने एमांशो फल एटजेतुंबुतो को तेप्रालीनेपण बोडेबे एनावार्थ ॥ १४ ॥ स्वयं प्रमादैर्निपतन् नवबधौ कथंस्वनक्तानपि तारयिष्यसि ॥ प्र तारयन् स्वार्थमृजून शिवार्थिनः स्वतोन्यतश्चैव विलुप्य सेंऽदसा ॥ १५॥ ॥ मुनिपोर्ते प्रमादेकरीने बुमतोडतो पोतानानकजे सेवक लोक तेने शीतारीश केमके पोताने अन्नपानादिकमले तेनेार्थे सरलजे मोहार्थिलोक ते Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ go अध्यात्मकल्पम. हनेवंचतोषको तुंफरेले एटलेपोताना प्रमादाचरणथी अनेबीजोलोकने उगवाथी एबन्नेप्रकारना पापेकरीने तुंलोपाय ॥ १५ ॥ गृह्मासि शय्याहृतिपुस्तकोपधीन सदा परेच्यस्तपसस्वियं स्थितिः॥ तत्ते प्रमादारितात्प्रतिग्रहै ईणार्णमन्नस्य परत्र का गतिः ॥१६॥ अर्थ ॥ हे वेषना धरनारयति तुं लोकोपासेथी शय्या वस्ति यहार तथापुस्तक झानोपकरण तथाउपधि वस्त्रपात्रादिकजे नित्यलिये तेतो तपसीलोकनी स्थिति जे परंतु तुंतो प्रत्यक्ष्प्रमादमा मग्नथको कांइपणतपस्यादिक करतोनथी तेमाटे प्र तिग्रहने नियवेकरी नारीययुं एहबुंजेप्रमाद तेथकीउपायुजे लेणो ते लेणाने विषे मन्मथको खुतोबोएहदुंबतो ताहरीपरनवें सीअवस्थाथासे एटलेप्रथमतुं चारित्रले इने प्रमादसेवेने तेलेगोकरेले तेवारपने तपसंयमादिकविना लोकोपासे थीशय्यादि क प्रतेलीयेठे तेबीजोलेणो एमएबेप्रकारना लेणामांखूतोथको ताहरीसी अब स्थाथासे अर्थात उष्टयवस्थाज पामीस इतिनाव ॥ १६ ॥ न कापि सिनि च तेतिशायि मुने क्रियायोगतपःश्रुतादि॥ तथा प्यहंकारकदर्थितस्त्वं ख्यातीच्च्या ताम्यसि धिङ् मुधा किं॥१७॥ अर्थ ॥ हवेतथाविधगुणविना कीर्तिनेसुंबांडे हेमुनिताहरेविषेको विद्यामंत्रा दिक सिदिनथी वलीवांदणा खमासमणाप्रमुख नष्ट क्रियानथी तथामनवचन कायाना योगनी गुनप्रवृत्तिनथी तथाबाह्यान्यंतरतपनथीकरतो तथाश्रुतज्ञान था दिशब्दथी प्रनाविकपणुं राजाप्रमुखतुं प्रतिबोधQ इत्यादिकगुणतेपणनथी तोपणतुं अहंकारे कदर्थितयको ख्यातिजे प्रसिदितेहनी वांबायेकरीने फोकटशोपरीतापकरे ने माटेतुजने धिःकारथाउताहरामा जो कोअतिशयगुणहोय तेवारेंतो ख्यातिनी वांबापणयुक्तले अनेतेविनाज प्रख्यातीनेवांले माटेतुं धिक्कारवायोग्यजो ॥ १७॥ हीनोप्यरे नाग्यगुणैर्मुधात्मन् वांबस्तवार्चायनवाप्नुवंश्च ॥ ईय॑न् परेन्यो लनसेऽतितापमिदापि यातो कुगतिं परत्र॥१०॥ अर्थ ॥ फरोतेहिजकहेजे अरेनि ग्य निःपुस्यकथात्मातुं गुणरहितथको फो कटस्तवनापूजाप्रमुखने वांडतो जोपूजास्तवनानथायतो वलीलोकोनपरकोधकरतो थको इहलोकेपण अतिशय तापसंतापपामेले अनेपरलोकेपणऽर्गतियेंजश्श॥१॥ गुणैर्विहीनोपि जनानतिस्तुति प्रतिग्रहान् यन्मुदितः प्रतीबसि ॥ लुलायगोश्वोष्ट्रखरादिजन्मनि विना ततस्ते नविता न निष्क्रयः॥२॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिशिक्तोपदेशाधिकार. || हवेकुगतिमांपडवाविषे उपदेशकरीने प्रतिबोधेवे हेयतिवेषनाधारक तुं गुरहितको हर्षवंतथयीने लोकथी नमस्कारादिक स्तवना वस्त्रपात्रयन्नादि कलेवावाले तेहथीजने जुजायजे पामोपाणी व देवायोग्य अथवा गोजेबलदीयो हल गाडा यंत्र कोल प्रमुख वहेवायोग्य अथवात्र्यश्वते स्वारीकरवायोग्य तथा उंट खररासन अनेकविधनारवदेवायोग्य इत्यादिकञ्प्रवतार पाम्याविना तेप्रतिग्रहादि कनुं मूलनाय केमके गुण विनापण लोकोपासेथी प्रतिग्रहादिक कल्पेले ते हनुंजेलो पामा प्रमुखना अवतारपामि नारवहीनेछूटवुंबे एनावार्थ ॥ १९ ॥ गुणेषु नोच्छसि चेन्मुने ततः प्रगीय से यैरपि वंद्यसेऽर्च्यसे ॥जु गुप्सितां प्रेत्य गतिं गतो ऽपि तैर्दसिष्य से चाऽनिनविष्यसेऽपि ॥ दानमाननुतिवंदनापरे मोंदसे निकृतिरंजितैर्जनैः ॥ नववैपि सुकृतस्य चैल्लवः कोपि सोपि तव लुव्यते दितैः॥ २२ ॥ अर्थ | वजीते हिजप्रकारांतरेकहेने हेमुनिजोतुंगुणने विषे उद्यमकरतोनथी ते वाहनवेंजे तुजने श्रावकादिक गीतनासप्रमुखेकरीगायले तथावली द्वादशावर्त्त वां दायें करी वांदे सुगंधलेपनादिकेंकरी पूजेबे तेतुंपरनवें निंदनीक कुरूप दरिश्तादि क पाम्याथका तेहिजताहराउपर इससे तथानानाप्रकारनीपीमा उपजावसे एटले स्वामिपणे तरसे नेतुंदासपणेथाइस तिहां जातो लाठीप्रमुखना प्रहारेकरी तुजपीडसे || २० || हेमुनितुं कपट क्रियायें करी लोकरीजवीने ते होने दानसन्मान स्तवन वंदनाने विषे तत्पर देखीने हर्षपामेढे पण एम नथाजाणतो जे ताहरो जेश मात्र तेहने लोकलुटेबे ॥ २१ ॥ वेणी मुग्धकृतैर्नहि स्तवै र्न ख्यातिदानार्चनवंदनादिनिः ॥ वि ना गुणान्नो नवदुःखसंक्षय स्ततो गुणानर्जय कि स्तवादिनिः॥१२ अर्थ ॥ हवेस्तवनादिकनी वांबामकीने गुणनुपोषकर कुंतेकदेने हेमुनितुं विशेषाविशे नाजा हवा मुग्धलोकनी करेलीजे स्तुतितथाख्याति प्रशंसादिक तेणेकरी गुणवं तनथाय वली गुणजे ज्ञानादिक तेहनीप्राप्तिविना संसारनोविनाश ने मुक्तिनी प्राप्तिन या तेमाटे केवल गुणने जनपार्जनकर पलस्तुतिकराववाथी कांइयर्थसिद्धिनथी२२ येषि शास्त्रं सदसद्दिचित्रा लापादिनिस्ताम्यसि वा समा यैः॥ येषां जनानामिह रंजनाय जवांतरे ते क्व मुने क्व च त्वं॥ २३ ॥ अर्थ || हवेजोकरी जववामाटेतुं शास्त्रनोले पणजवांतरेतुं किहां घनेरीजनारजो ܐܕ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अध्यात्मकल्पम. ककिहां तेदेखाडे हेमुनितुंजे लोकरीजववानिमित्ते सत्के नलोजिनागम तथा असत्के विरुदबौक्षादिकशास्त्रते प्रतेनणे अनेवली कपटसहित नानाप्रकार नाबालापसंलापादिक तेणेकरीने घऍप्रयासकरेले पणनवांतरें तेलोककिदागतिमा | जशे अनेतुं केगतियेंजश एटलेवानवें जावजीवशुद्धीजे जीव तें रीजव्याहशे तेपरजवेंकोपण ताहरे कामेावेसेनही ॥ २३ ॥ परिग्रहं वं व्यजहादादे स्तत्कि न धर्मोपकृतिबलात्तं ॥ करोषि शय्योपधिपुस्तकादे गरोपि नामांतरतोपि दंता॥५॥ अर्थ ॥ हवेपरिग्रहत्यजवा पाश्रीनपदेशेने हेमुनितेंपूर्व घरप्रमुख-परिग्रहबां डथु अनेवती धर्मोपकरणने मीसेंकरीने शय्या वस्ति उपधि वस्त्र पात्रादिक पुस्त क आदिशब्दयी पाठा चाबखी पोथी बांधणा जपमाला प्रमुखनपकरणनो परिग्रह सुंकरे धर्मोपकरणजेकांश बदमलो ममतानावशथकी वधारेराखियेंते परिग्रहजजा वो केमके गरके० विष तेहनेंनामांतरकस्याथकी एटलेनामफेरवीनारख्याथीप ए हंताके० मृत्युकारकहोयज जोविषने साकर अमृत इत्यादिककहियेंतोपण खांधु थकुं प्राणहरणकरे तेमपरिग्रहने धर्मोपकरण निमित्ते राख्योथकोपण धुर्गतियापे परिग्रहात्स्वीकृतधर्मसाधनानिधानमात्रास्किम मूढ तुष्यसि ॥ न वेत्सि हेनाप्यतिनारिता तरी निमज्जयत्यंगिनमंबुधौ द्रुतं ॥श्य॥ अर्थ ॥वलीतेहिजकहेने हेमूर्खसाधोतुं स्वीकृतके प्रमाणकिधुंडे धर्मसाधनके धर्मोपकरण एहनाममात्रजेहन एहवोपरिग्रह पाम्याथी सुंहर्ष पामेले हेमवतुंन थीजाणतोजे अतिशयनारी एहवोजेसुवर्ण तेणेकरीनरी एहवीतरीजे होडी तेजेम अंगीनके बेशनारमनुष्यने बोडे तेमतुजनेपण धर्मोपकरणनेमीसें मल्योएहवो जे अतिपरिग्रहतेनवसमुमा बोडशे इतिनावः ॥ २५॥ येहःकषायकलिकर्मनिबंधनाजनं स्युः पुस्तकादिनिरपीहितधर्मसाधनैः॥ तेषां रसायनवरैरपि सर्पदामयै रात्मिनांगदत्हतेः सुखकृत्तु किं नवेत्२६ ___ अर्थ ॥ जेमुनि हितके वांग्युंजे धर्मनुंसाधनजेथकी एहवाजे पुस्तकाविकते ऐकरीनेपण अंहजेपाप तथाकषायजे क्रोधादिक तथा कलिजेकलहतेना करवा थकी कर्मजे झानावरणियादिक तेनानिकांचित्बंधनाजनथाय तेहनेबीजोको सुखकार्य निवृत्तिनुंकरनारनथाय एटलेजेहनेधर्मोपकरणतेहिज ममत्वनावशथकी परिग्रहपणे परिणम्याडे तोतेहनेअर्थ क्लेशकषायादिकने करवेकरीकर्मवृद्धिकरे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ यतिशिदोपदेशाधिकार. तोतेदनेसंतोषते पडे फरीबीजाशाथकीयासे एनावार्थ तेहदृष्टांतकहे जेम रसा यनजे मृगांगपारादिक तेहनोसेवनकरवाथीज उलटोमांदापडयो एटलेरसायनथ कीपण जेहनेरोगवध्यो तोपतेहनारोगनुं निवारकबीजोसुखकारी कोश्नथी ॥२६॥ रदार्थ खलु संयमस्य गदिता येऽर्था यतीनां जिनै वासःपुस्तकपात्र कप्रनृतयो धर्मोपकृत्यात्मकाः॥ मूर्जन्मोहवशात्त एव कुधिया संसा रपाताय धिक् स्वं स्वस्यैव वधाय शस्त्रमधियां यहुःप्रयुक्तं नवेत्॥ अर्थ ॥ निश्चेकरीनेजे वस्त्रपुस्तकप्रमुख पदार्थतेश्रीजिनेश्वरें साधुनेसंयमनी रक्षा नेयर्थे धर्मोपकरण स्वरूपेकह्याने तोहाहा इतिखेदे तेहिजपदार्थ कुबुधिनाधणीने अतिशय मोहनावशथकी उलटासंसारमांबूडावनारनाकारण थपडेले तेहदृष्टां त जेम बुद्धिहीनपुरुष पोतानु अस्त्रजेखङ्गादिक तेविपरीतपणे राख्युंहोय तोपो तानेजवधकारीथाय तेहनीपरे जाण ॥ २७॥ .. संयमोपकरणबलात्परान् नारयन् यदसि पुस्तकादिनिः॥ गोखरोष्टमहिषादिरूपनत्तच्चिरं त्वमपि भारयिष्यसे॥श्न॥ अर्थ ॥ हेमुनितुं जे परप्राणीनारवाहक पोढी बलद गंटप्रमुखने संयमनानपकरण नेमीसेकरी पुस्तकादिक- नारवहेवरावेडे तेमाटेतेप्राणीतुजनेपण बलद उंट रास.. न पामाप्रमुखना अवतारपाम्याथका चिरकाललगें नारवहेवरावशे ॥ २ ॥ वस्त्रपात्रतनुपुस्तकादिनः शोनया न खलु संयमस्य सा॥ आदिमा च ददते नवं परा मुक्तिमाश्रय तदिबयैकिकरण अर्थ ॥ हवेवस्त्रपात्रादिकथी संयमनीशोनानथीतेकहे हेमुनि वस्त्रपात्रतथाश रीर पुस्तकश्त्यादिकनी शोनाकीधेयके निश्चेकरी संयमनीशोनानथाय एटलेवस्त्रादि कनीशोनाते संयमने अशोनाकारणीने तेमांपणवली आदिमके पहेलीजे वस्त्रादि कनीशोनाते नवन्रमणजथापे अने परके बीजीजे संयमनीशोनाते मोदजापे ते माटेजोसंसारनी वांबाहोयतो वस्त्रादिकनी शोनाथादर घनेजो मुक्तिनोवांग तुजने होय तो संयमनीशोनाबादर ॥ ॥ वस्त्रपात्रतनुपुस्कादिनः शोनया न खलु संयमस्य सा॥ तां तदत्र प रिदाय संयमे किं यते न यतसे शिवार्थ्यपि ॥तिचोत्तराईमावः ॥३॥ अर्थ ॥ वस्त्रपात्रेति एपागंतर एश्लोक-पूर्वाद पूर्वनीपरेजाणवू अनेउत्तरार्थनी - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ក្នុង अध्यात्मकल्पद्रुम. व्याख्याकहे तस्मात्कारणात् तेकारणमाटेहेसाधो ते वस्त्रादिकनी शोनानांमीने जोमुक्तिनोअर्थीबोतो जिनप्रणीत चारित्रनेविषे केमन्द्यमकरतोनथी ॥ ३० ॥ शीतातपाद्यान्नमनागपीद परीषदाश्चत्तमसे विसोढुं ॥ कथं ततोनारकगर्नवास छुःखानिसोढासि नवांतरे त्वं ॥३॥ अर्थ ॥ हवेपरीषद सहेवाथाश्री उपदेशधापेडे हेमुनिजोतुं संयमनेविषे टाहाड तापप्रमुख थोडापणपरीषह सहेवानेसमर्थनथी अनेकायरथाय तोनवांतरेनेविषे नरकतथा गर्नवासनाकुःख केम सहीस एटले नरकादिकना फुःखसहेवाथीतो परीष हनाउःखसहेवुनचुंडे एमजाण ॥ ३१ ॥ मुने न किं नश्वरमस्वदेद मृप्तिंडमेनं सुतपोव्रताद्यैः॥ निपी ड्य नीतीनवदुखराशे दित्वात्मसाजैवसुखं करोषि ॥३॥ अर्थ ॥ हवेसाधुने तपप्रमुखD उद्यमकरकुंकहेले हेसाधु एविनाशशील तथा था खरपोतानुनही एहवोजेदेहरूप माटिनुपिम तेहने नताजिनाझासहित तपव्रतप्रमुखे करी दमीने संसारनाङःखसंबंधी सर्वनयबांमिने मुक्तिसंबंधी सुरखतें पोतानेवश केमनथीकरतो ॥ ३२ ॥ यदत्र कष्टं चरणस्य पालने परत्र तिर्यङ्नरकेषु यत्पुनः॥तयोमि थः सप्रतिपक्हता स्थिता विशेषदृष्ट्यान्यतरं जदीदि तत् ॥३३॥ अर्थ ॥ हेसाधुजेश्हां श्रीजिनशासनेविषे चारित्रपालवानीकष्टले बनेपरनवे ति यंचनरकादिकनेविषेजे कष्टने तेबेदुकष्टने परस्परें प्रतिपदपणुंरदेडे एटलेजिहां चा रित्रकष्ट तिहांतियंचनरकनु कष्टनथी अनेजिहां तिर्यंचनरकादिकना कष्ट तिहां चारित्र कष्टनथी तेमाटेविशेषदृष्टियें विचारी तेबेमांथी एककष्टनेमूक ॥ ३३ ॥ शमत्र यहिजरिव प्रमादजं परत्र यच्चाब्धिरिव द्युमुक्तिगं ॥ तयोर्मि थः सप्रतिपदता स्थिता विशेषदृष्ट्यान्यतरगृहाण तत् ॥३०॥ अर्थ ॥ हवेसुखनुग्रहकहेडे हेसाधोश्हां चारित्रमांप्रमादकरवाथीजे सुख ते बिजेटबुंडे अनेसंयमना पालवायकीजे देवलोकमुक्तिनासुख तेसमुइसरवाडे तेबन्देसुखने परस्परप्रतिपक्ष्पणुं जिहांप्रमादसुखतिहां मुक्तिसुखनथी अने जिहां मुक्तिसुख तिहांप्रमादसुखनथी माटेविशेषे विचारी बेमाथी सारजाणेतेने आदर॥३४॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतिशिदोपदेशाधिकार. अथवा नियंत्रणायाचरणेऽत्र तिर्यक् स्त्रीगर्नकुंनीनरकेषु या च ॥ तयोमिथः सप्रतिपदानावा शेिषदृष्ट्याऽन्यतरां गृहाण ॥३५॥ अर्थ ॥ हवेगुरुपारतंत्राश्रयीकहेडे हेसाधुश्हांजिनशासनमां चारित्रनेविषेजे गुरुपारतंत्र्यादिकत्रणप्रकारनो परवशपणुं अने तिर्यंचनाअवतारमा तथास्त्रीनागर्न मां तथा कुंनीतेघणोजसांकमामुखजुनारकीने उपजवानुंस्थानकतेमां उपनाजेनार कीते खंडोखंडथयी बाहेर निकले तेहने विषेजे परवशतापण्डे तेबेहुने परस्परप्रति पदीपाले एटले जिहांचारित्रनी नियंत्रणाहोय तिहांतिर्यंच स्त्रीयने नरकादिकनी नियंत्रणानहोय अनेजिहां तिर्यचस्त्रीनरकादिकनी नियंत्रणाहोय तिहां चारित्रनी नियंत्रणानहोय माटेविशेषदृष्टि विचारीने तेबेमांथी एकनियंत्रणानेश्रादर ॥३५॥ सहतपोयमसंयमयंत्रणां स्ववशतासहने दि गुणो महान्॥शिवं गुण इति वा पाठः ॥ परवशस्त्वतिनूरिस हिण्यसे न च गणं बदमाप्स्यसि कं च न ॥ ३६ ॥ अर्थ ॥ हवेपरवशेषुःखसहेवाकरता पोतानावशेउःखसहेवुनलुं तेकहे हेसा धुतुं चोथप्रमुखतप तथा नियमनिग्रहादिक ते यम तथासत्तरनेदें संयमसंबंधी एत्रण नियंत्रणाउंछेतेनुंसहनकर केमके एत्रण नियंत्रणाश्रोते पोताने स्वाधीनपणे सहनकरवी ते महोटो गुण तथापागंतरे एथकी शिवंगुणके मुक्तिरूपीयोगुण होय अने जे अतिपरवशपणे एकेडियादिकमां पराधीनथको घणीजनियंत्रणायो सहीस तिहां अकामनिर्धारासिवाय अधिकुंगुणमात्र कांपणपामीसनही ॥३६ ॥ अणीयसासाम्यनियंत्रणानुवा मुनेत्र कष्टेन चरित्रजेन च॥ यदि दयो ऽगतिगर्नवासगा सुखावलेस्तत्किमवापि नार्थितं॥३७॥ अर्थ ॥ वलीप्रकांतरेतेहिजकहेडे हेसाधो आजन्ममां समतारूपनियंत्रणातेसं बंधीकष्ट तथाचारित्रसंबंधीजे अल्पमात्रकष्ट तेणेकरी उर्गति अने गर्नावाससंबंधी असुखनासमूह क्यथायडे तोतेथी सुवांडितपणुंतुनपाम्यो अर्थात्पाम्योज ॥३॥ त्यज स्पृहां स्वः शिवशर्मलाने स्वीकृत्य तिर्यङ्नरकादि जुःखं ॥ सुखाणुनिश्चेविषयादिजातैः संतोप्यते संयमकष्टनीरुः ॥ ३ ॥ . अर्थ ॥ हवेप्रमादवंतने रीसेक कहेडे हेसाधुतुं जो विषयादिकथानपनोजे सुख नोलेश तेणेकरी संतोषपामे थने संयमनाकष्टथीबीदेले एरीतेतो तें तिर्यंच तथा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अध्यात्मकल्पहुम. नरकः खकबुलकरीने स्वर्गमोहना सुखपामवान वांछासूकीदीधी एटलेअणुमात्र सुख उपर राज्योथको स्वर्गमोदनुं अतुल्यसुखहारे एनावार्थबे ॥ ३८ ॥ समग्रचिंतार्तिहृतेरिदापि यस्मिन् सुखं स्यात्परमं रतानां ॥ परत्र चेंजादिमहोदय श्रीः प्रमाद्यसीदापि कथं चरित्रे ॥ ३५ ॥ अर्थ || हवेचारित्रयी इहलोकेंतथा परलोकेंसुखले तेकहेने चारित्रमरिक्तथयला एहवाजेनावसाधु तेहने सर्वचिंताना निवारवाथकी इहलोकेपण परमअनुपमसुख दो परलोकैंप ड्रादिकनी संपदा तथा मोहनीसंपदाहोय तोहेसाधो एहजे चारित्रतेने विषे रह्यो कोतुं सुंप्रमादकरेले यतः देवलोकसमाणो परियाज महेसि पं ॥ रयाधरयाणंच महाणरयसारिसा ॥ १ ॥ पुनः नच राजनयं नच चोरजयं न च वृत्तिनयं न वियोग ॥ इह लोकसुखं परलोकहितं श्रमणत्वमिदं रमणीयतरं ॥ २ ॥ महातपोध्यानपरीषदादि न सत्वसाध्य यदि धर्तुमीश ॥ तद्भावनाः किं समितीच गुप्ती से शिवार्थिन् न मनःप्रसाध्याः ॥ ४० ॥ अनित्यताद्या मज नावनाः सदा यतस्व दुःसाध्यगुणेऽपि संयमे ॥ जि घत्सया ते त्वरते ह्ययं यमः श्रयन् प्रमादान्न नवाद्विनेषि किं ॥ ४२ ॥ अर्थ | वेजे बहुकष्टकरी शकेनदी तोते सुखसाध्यधर्म करे तेकहेबे साधु तुं पराक्र मवंतपुरुषने साधवायोग्य एहवाजे मासखमणप्रमुख महातप तथा प्राणायामादिक ध्यान तथा धादिकपरिसह धरवानेसमर्थनथी तोहेमोनावालक केवलमनेकरीज साधिसकी एवीजे नित्यादिकनावनातेनुं सेवनकर ॥ ४० ॥ तथावली प्रकारांत रेक साधतुं नित्यताप्रमुख बारनावना ने सदानज खनेदुःखें साधवायोग्य मूलोत्तरगुणबे जेना एवासंयमने विषेषण सुकुमालपणुंबांमीद्यमकर केमके मृ त्युते तुजने ग्रासकरवानी वढायें उतावलुंथायले दिनदिनप्रतें करूंयावेळे मा प्रमादसेवतो कोण मनेकरी संसारथकी बीहितोर हेजे ॥ ४१ ॥ तं मनस्ते कुविकल्पजाले र्वचोप्यवयैश्च वपुः प्रमादैः ॥ लब्धी श्व सिद्धीश्च तथापि वांछन मनोरथैरेव ढदा दतोसि ॥४२ ॥ दग्धं मनो मे कुविकल्पजालैर्वचोप्य वयैश्च वपुः प्रमादैः ॥ लब्धीश्च सि तथापि वन मनोरथै रेव ढढा विदन्ये ॥ इतिवापाठः ॥४३॥ अर्थ || हवेसामग्री विनापण महोटामोटा मनोरथकरवा फल तेक देने हे Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UN यतिशिदोपदेशाधिकार. साधुताहरोमनतें मागविकल्पनासमूहें विणसाडयुं अनेवचनपण मृषानाषणादि क पापेकरीविणसाडघु वलीशरीरपण प्रमादजेमद्यादिकतेणेकरी विणसाडयुं एरीतें मनवचनकायारूप त्रगुप्तिविणसाडी तोपण ग्रामोसहीप्रमुखलब्धि तथामंत्रधि यादिकसिधिने वांडे माटे हाइतिखेदे मनोरथेकरीज पीडायः जेमशाली बुध खां मप्रमुख सामग्रीविनापण कोशमूर्खहीरनानोजननुं मनोरथधरतो अहर्निशविकल्पें ज पीडाय तेमतुंपणपीडाय ॥४२॥ तथावलीपागंतरें माहरुमन कुविकल्पजालें विणास्युं तथा अवद्यके मृषानाषणादिकपा वचनविणास्युं अनेप्रमादेकरीशरीर विणास्युं तोपण लब्धि भने सिद्धि प्रतें वांडतो थको हाइतिखेदे टुं मनोरथमात्र ज सुंपीमार्नु इत्यादिक पहेलाकाव्यनुं पागंतर काव्यजाणवू ॥ ४३ ॥ मनोवशस्ते सुखःखसंगमो मनो मिलेयैस्तु तदात्मकं नवेत् ॥ प्रमादचारैरिति वार्यतां मिलडीलांगमित्रैरनुषंजयानिशं ॥४४॥ अर्थ ॥ हवेमननेसतसंगमांजोडq तेकहेले हेसाधुताहरे सुखधने कुःखनोजे मि लाप तेमननेवश केमकेमनजेहनीसामिले तेरूपीथाय जेम तैलने जेहवाफूलनो संगमिले तेहवीवासनामयथाय माटेमननेप्रमादरूपचोरसायमलतो वारीने नित्ये शी लांगरथरूपजेमित्र तेनीसामेलव जेथकीतुजने सर्वथासुखसार्थेज मिलापथाय ॥४॥ ध्रुवः प्रमादैर्नववारिधौ मुने तव प्रपातः परमत्सरः पुनः॥ गले न बोरुशिलोपमोस्ति चे कथं तदोन्मज्जनमव्यवाप्स्यसि॥४॥ अर्थ ॥ हवेयुक्तिविशेषेकरी प्रमादनोपरिहारकहेले हेसाधुप्रमादनाहेतुयेंकरी तु जनेसंसारमांपडतो निश्चय थकी केमकेप्रमाद अनेसंसारने अग्मिधुमादिकनीपरें नित्यबंध अनेवलीजो गलेबांधिमोटी शिलासरिखं परप्राणीनपरमत्सरतुजनेले तेवा रे संसारसंमुमाथी तरीनिकल केमपामिस माटेप्रमादयने मत्सरबेदुत्यज॥४५॥ महर्षयः केपि सदंत्युदीर्या प्युग्रातपादीन्यदि निर्जरार्थ ॥ कष्टं प्रसंगागतमप्यपीयोपीचन् शिवं किं सहसे न निदो॥ ४६॥ अर्थ ॥ हवेकष्टसहेवाथाश्री उपदेशापे केटलाकमहाकृषी तेनश्वादुस्खा मी दीक्षितचार व्यवहारीपुत्रनीपरें शीतादिक परिसहनासहनारा वली नग्रके य गोकठिण घातपके० तडकाप्रमुख कष्टने तदरीनेपण निर्जरानेबर्थसहेजे तेवारेंहे साधुतुं मुक्तिनेतोवांजे तेवारें प्रसंगथी उदयथाव्युं एहवोस्वल्पमात्र कष्टप्रतेकांन पीलहेतो अनेकष्टसह्याविना मुक्तिकेमपामिस एनावार्थ ॥ ६ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. यो दानमानस्तुतिवंदनादिनिन मोदतेऽन्यैर्न तु उर्मनायते॥अला जलानादिपरीषदान् जयन् यतिः सतत्वादपरो विम्बकः ॥४॥ अर्थ ॥ हवेअसाधुपणा तथा साधुपणानो नेददेखाडे जेलानथलानादिक प रिषहनेजीपतोथको ग्रहस्थाप्यो अहारउपधिप्रमुखदान तथासत्कारस्तुतिप्रमु खमान इत्यादिकेकरी हर्षपामेनही अनेघलान अपमान प्रहारादिके उहवायनही तेहिजपरमार्थथी यतिजाणवो अने अपरके बीजाजेदान वंदनादिकथी हर्षपामे तथा अलाननंदादिकथी उहवाय तेयतिनावेषे विडंबकके ० नटरूपजाणवा ॥४॥ दधगृहस्थेषु ममत्वबुद्धिं तदीय तप्त्या परितप्यमानः ॥ अ निर्वृतांतःकरणः सदा स्वै स्तेषां च पापैर्धमिता नवेसिाधना अर्थ ॥ हवेमनोगुप्तिराखवानेबर्थे यति ग्रहस्थनी चिंताकरवीनही तेकडे हेसाधुतुंग्रहस्थनेविष ममत्वनीबुदिधरतोथको अनेग्रहस्थनीचिंतायें तपतोथको पोतानापापें तथाग्रहस्थनापापें निरंतरव्याकुलचित्तवंतथको संसारमांनमीस॥४॥ त्यक्त्वा गृहं स्वं परगेचिंता तप्तस्य को नाम गुणस्तवर्षे ॥ आजीवि काऽस्ते यतिवेषतोऽत्र सुर्गतिःप्रेत्य तु निवारा ॥४॥ अर्थ ॥ हेसाधु पोतानुघरमूकीने वलीपारका श्रावकादिकनाघरनी चिंतायेंकरी तुजनेशोगुण एकघरमकी घणाघरनीचिंतायें कोइगुणनथीयानवमांतोतुजने यति वेषनाप्रतापथी आजीविकाचाले पणपरनवेंतो तुजने अतिशयतिनिवारक एहवा नरकादिक पणपरनवें उर्गतिनोवारनारकोश्नथी एनावार्थ ॥ ४ ॥ कुर्वे न सावधमिति प्रतिज्ञां वदन्नकुर्वन्नपि देदमात्रात् ॥ शय्या दिकत्येषु नुदन् गृहस्थान् हृदा गिरा वाऽसि कथं मुमुक्दुः॥ ५॥ अर्थ ॥ हवेतुंकायामात्रथीसाधुडो पणमनवचनथीसाधुनथी तेकहेले हेमुक्तिवां बकसाधुतुं नित्यप्रतें यावश्यककरतां सवं सावऊजोगं पञ्चरखामि जा जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं इत्यादिकपाठकहीने ढुंसर्वसावद्यकरुनही एहवीप्र तिज्ञाकरतोथको तेसावद्यमात्र शरीरथीज थणकरतोथकोथयो पणशय्या जेउपाश्र यप्रमुख कार्यनेविषे ग्रहस्थनेप्रेरतोथकोडो तो तेमांमनथी थनेवचनथी मुमुदु तेशा नो एटले मन वचन कायायेंकरी सावद्यमूके तेहनेमुमुटु कहियें अनेतुंतोकायामा तथीज सावद्यकरतोनथी पणमनथी सावद्यचिंतवेने अनेवचनथी सावद्यकर्मप्रेरेनें तेमाटेमनथी तथा वचनथी मुमुकुनथी मात्रकायाधीज मुमुकुले एनावार्थ इहांप्रेर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिशिदोपदेशाधिकार. जाए णाते आदेशदेवामात्रजजाणवी बीजीप्रवर्तनरूपप्रकरण इत्यादिकप्रेरणीयचे एटले पूर्वेपणश्रावकें एकतकस्यांचे लाजकारणले इत्यादिकप्रेरणाकस्यानुतो साधुनेव्यवहा रमेज यथाश्रीरायप्रश्नीयसूत्रे जुत्तमेयंसुरियाना पुराणमेयंसुरियाना किव्वमेयंसुरिया ना करणिजमेयंसुरियाना थाइणमेयंसुरियाना बनानायमेयंसुरियाना इत्यादिक विधिवाक्यदेखाय तेप्रेरणाजाणवी ॥ ५० ॥ कथं ममत्वाय ममत्वतोवा सावद्यमित्रस्यपि संघलोके ॥ न दे ममय्यप्युदरे हि शस्त्री क्षिप्ताक्षिणोति दणतोप्यसून किं॥५१॥ अर्थ ॥ वलीतेहजकहेजे हेसाधोतुं साधुसाध्वी श्रावकश्राविकारूप चतुर्विधसंघ मां अमुकागीतार्थनावखतमा बाचैत्यकराव्युं एहवीमहोटापामवानेअर्थे तथाथा अमारागठनो चैत्यनपाश्रयादिकडे इत्यादिकममत्वथकी सुंसावद्यकर्मवांलेले संसा रीनीपरे सारंनकार्यसर्वमाथेलेशने करवामुंवांचे अथवासंघमां महत्वपामवानेअर्थ तथाममत्वथकोज सावयजे धनप्राप्ति प्रमुखतेसुंबांबेजे जेमाटे सोनानीबुरीपण पे टमांचापीपकी सुंप्राणहरणनथीकरतीके. एटलेसोनानीबुरीपण पेटमांमारीथको प्रा गहरे तेमसंघनिमित्तपण अविधिये सावद्यकर्मकीधुंते संयमरूपमाणनेहरे ५१॥ रंकः कोपि जनानिनतिपदवीं त्यक्त्वा प्रसादा जुरोर्वेषं प्राप्य यतेः कथंचन किंयबास्त्रं पदं कोपि च ॥ मौखर्यादिवशीकृतर्जुजनतादा नार्चनैर्गर्वना गात्मानं गणयन्नरेमिव धिग्गंता जुतं उर्गतौ॥५॥ अर्थ ॥ हवेत्रात्माने नक्षतपणुंनिवारवा उपदेशे कोश्कपुरुषपूर्वे ग्रहस्थाव सतायें राकहोय अनेलोकोने उपहास्यकरवायोग्य निंदाकरवायोग्य विविधप्रकारनी लोकोनीसेवा करवायोग्यहोय पळेगुरुनापशायथी तेअवस्थात्यजी यतिनोवेषपा मीतथाघणाकटें कांस्कशास्त्रनुनणवूपामी तथातेमांवली कोश्काचार्यउपाध्याया दिकपदीपामिने वाचालपणा प्रमुखकलायें नोलालोकोनेवशकरी तेहनाकरेला जे दानपूजा सत्कारादिक तेरोकरीने अहंकारधरतो थको पोताना थात्माने राजातु व्यगणे पण एमनजाणेजे दंते शीगणतिमा एसर्व दानपूजादिक जे थाय तेतो श्रीजिनेश्वरना मार्गने थाय तेमाटेहाइतिखेदे तेप्राणी सतावलुंऊर्गतिजे नरकादिक तेमांजाशे माटेगर्वनकरदुं ॥ ५५ ॥ प्राप्यापि चारित्रमिदं पुरापं स्वदोषजैश्चेविषयप्रमादैः॥नवां ..... बुधौ धिक् पतितासि निदो दतोऽसि खैस्तदनंतकाल॥५३॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO अध्यात्मकल्पम. - अर्थ ॥ हवेऽर्लनचारित्रपामिने विषयप्रमादत्यजवा तेप्रकारांतरेकहेले हेनिछ उर्लनएहर्बुजे चारित्रतेपामिने जोपोतानावांकथीउपना एहवाजे विषयप्रमाद तेणे करीतुंसंसारसमुश्मांपमीश तेवारे ते अनंताकालसुधी चारगतिसंबंधीनाःखेकरीने पीडाश तेमाटेधिःकारतुजने जेतुंचारित्रनेविष उजमालथातोनथी ॥ ५३ ॥ कथमपि समवाप्य बोधिरत्नं युगसमिलादिनिदर्शनादुरापं ॥ कुरु कुरु रिपुवश्यतामगबन् किमपि हितं लनसे यतोऽर्थितं ॥४॥ अर्थ ॥ हवेदृष्टांतसहित बोधनुंसनपणुंकहेले हेसाधुतुंयुगसमिलादिक दशदृष्टां तेंकरी उर्जनएह समकेतरूपरत्न तेघणेकष्टंपामिने आगोवदयमाण विषयादिक शत्रु तेहyाधीनपणुंत्यजतुंथको कांशकथात्मानुहितजे संयमादिकतेकर जेथकीवां बितसुखपामे. चुल्नग पासग धन्ने जूए रयणेय सुमिण चक्केथ ॥चम्मजूगे परमाणु दस दिता मायने॥१॥एदशदृष्टांतनानामजावा ॥ पुवं तेदुङाजुर्ग अवरं ते तस्त हु ऊसमिला॥जुगनिर्बुमि पवेसो इय संस मणुअलंनो ॥१॥ इत्यावश्यके ॥५॥ विषस्विमे ते विषयप्रमादा असंटता मानसदेहवाचः॥ असं यमाः सप्तदशापि दास्या दयश्चबिन्यच्चर नित्यमेन्यः॥५॥ अर्थ ॥ हवेनामथकी शत्रुदेवामीने तेथीदूररहेवानो उपदेशथापेले हेसाधो वि षयजेशब्दादिकपांच तथाप्रमादजे मद्यादिक पांच अने असंतृतकहेतां मोकसामू क्या एवाजे मनवचनकायानायोग तथा प्राणातिपातादिक पांघअव्रत अनेपांचेंदि यचं अजीतवु तथाक्रोधादिक चारकषायनो अपरिहार अनेमनवचनकाया एत्र पयोगने ःप्रवर्तियें प्रवर्त्तावq एसर्वमलीसत्तर असंयमनास्थानक तथावली हास्य रति धरति जय शोक उगहा ए हास्यषट्क एटलां ताहाराशत्रुडे तेमाटेएथकी सदाकाल बीहीतोथको विचरजे ॥ ५५ ॥ गुरूनवाप्याप्यपहाय गेह मधीत्य शास्त्रएयपि तत्ववांचि ॥ निर्वादचिंतादिनरायनावे प्यूषेन किं प्रेत्य हिताय यत्नः॥५॥ अर्थ ॥ हवेसर्वसामग्री मल्याळतांपण आत्महितकांनथीकरतो तेकहेले हेषितुं घरतांझीने गुरुजेधर्माचार्य तेहनेपामीने तथातत्वप्ररूपक शास्त्रजेसिकांत तेनपीने पण तथा निर्वाहजेश्राजीविका तेहनीचिंता अनेयादिशब्दथी वस्वपात्र वसतिप्रमुख नीचिंता अनेराजनय चौरनय इत्यादिकतेहनो नरजेसमूह तथावलीयादिशब्दथी गृह राज देशांतर जलपंथ प्रमुखव्यापार तेहनोधनावडता पण परलोकना हितने Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिशिदोपदेशाधिकार. अर्थं कांनद्यमनथीकरतो एटले सकलसामग्रीने योगेपण जोधात्महितनथी साध तो तोपडे घणोज शोचकरीश एनावार्थडे ॥ ५६ ॥ विराधितैः संयमसर्वयोगैः पतिष्यतस्ते नवजःखराशौ॥शास्त्रा णि शिष्योपधिपुस्तकाद्या नक्ताश्च लोकाः शरणाय नालं॥५॥ अर्थ ॥ हवेसंयमग्रहीने संयमविराधनानकरवी तेकहे हेयतितेंविराध्या एहवा जे संयमनासर्वयोग एटले मूलगुणवत्तरगुणादिकविराध्यातेहेतुयेंकरीने संसारना मुःखसमूहमांपडतातुजने शास्त्रजेागमादिक तथा शिष्यजे नपधीपुस्तकप्रमुख तथा वलीनतलोकजे श्रावकश्राविकादिक तेकोशरणापवाने समर्थनहीथाय पण एक संयम मात्रज अविराध्यो थको शरणदाश्थाशे ॥ ५ ॥ यस्य दाणोपि सुरधामसुखानि पल्यकोटीनणां दिन वती ह्यधिकां ददाति॥ किं दारयस्यधम संयमजीवि तं तत् दा दा प्रमत्त पुनरस्य कुतस्तवाप्तिः ॥७॥ अर्थ ॥ हवेसंयमेंजीवितर्नु फलदेखाडी प्रमादनोपरिहार उपदेशे हेसाधो संय मजीवितर्नु हणजेमुहूर्तमात्र तेपणपुरुषनेनिश्चयथी साधिक बाणोकोझिपल्योपमल में देवलोकनासुखयापे यमुक्तं प्रतिक्रमणसूत्रवृत्ती सामाश्यंकुएंतो समनावंसा वअघडियगं॥ आसुरेसु बंध इत्तिय मित्ताइ पलियाई ॥१॥ बाणवईकोडी। लरकगुणसहिसहस्सपणवीसं॥ नवसयपणवीसाए सतिहा अडनाग पलियस्स ॥॥ इति बाणुकरोड भोगणसातलाख पचीसहजार नवसेंपचीश एटलापव्योपम अनेएक पव्योपमना नवनागकरीयें एहवााउनवमांश अनेतेपरवली एकनवमांशनो एक तृतीयांश एटलुदेवायु बेघमीना एकसामाश्कथीबंधाय ते आंके करी लिखियें.यें एएए २५ ए २५, ७१. तो हाहाइतिखेदे हेअधमनीचप्राणी तुं संयमेंजीवितने के महारेले हेप्रमादवंतफरीनेतुजने एसंयमनीप्राप्ति क्याथीथाशे ॥ ५ ॥ नाम्नापि यस्येति जनेऽसि पूज्यः शुशात्ततो नेष्टसुखानि कानि॥ त संयमेऽस्मिन् यतसे मुमुदो ऽनुनूयमानोरुफलेपि किं न ॥५॥ अर्थ हवेधारसमाप्तिना मंगलनेअर्थे संयमनाशुनफल देखाडी शिक्षाकहे हे मोदार्थासाधु जेसंयमना केवलनाममात्रयीज एटलेसंयमी एहबुनाममात्र धराव्या थीज प्रत्यक्ष प्रकारे करी लोकनेविषे तुं पूजनीकथयोडो तोगुहनिर्मल संयमथी शाशास्वर्गमोदादिक वांनितसुखनहोय एटलेसंयमथी अनीष्टसुख होयज तेमाटेप Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. । त्यदृश्यमान जेह महाफलअनुनवायडे एहवाए संयमनेविषे तुं कांउद्यम नथी करतो सर्वथा उद्यमकरवोज युक्तले ॥५॥ इति श्री अध्यात्मकल्पमे यतिशि झानिधानोनाम त्रयोदशोधिकार. संपूर्णः ॥ अथ सामन्यतो यतीन् विशेषधर्मस्थगृहिणश्चाश्रित्य मिथ्यात्वादिसं वरोपदेशः॥मिथ्यालयोगा विरतिप्रमादा नात्मन्सदा संरणु सौख्य मिन् ॥ असंहता यनवतापमेते सुसंता मुक्तिरमां च दद्युः॥१॥ अर्थ। हवे यतिने तथासम्यक्तमूलबारवृत्तधारक श्रावकने साधारण मिथ्यात्वावति कषाय योग निरोधोपदेश तथा संवरोपदेश नामाचौदमो अधिकारकहे तिहांप्रथमक मबंधनातुजे मिथ्यात्वादिकतेहर्नुसंवरकहेले हेयात्मातुं सुखनेवांबतो होयतोमिथ्या त्वजे अनियहिकादिकपांच तेमांअनियहिक तेपोतानाशास्त्रादिकनां ममत्वथी कदाय हकरवो तेकुतीधिपाखंडादिक बीजुधनानियहिक ते सर्वे देवाः सर्वे गुरुवः सर्वे धर्मा श्व आराध्याः एहवोअनिप्राय जेसामान्यप्राकृतलोकोनोते त्रीमुंभानिनिवेशिक ते व स्तुनु यथास्थित स्वरूपजाणेथके पण कोष्टानिनिवेशना वशथी पोतानुं मतथा पवानेअर्थे गोष्टीमाहिलादिकनीपेठे असत्यरूपणानुकरवू चोथोसांशयिक ते देवादि कतत्वने विषे आसाचूंके आसाचूं एमसंदेहधरवो पांचमुं अनानोगिकते अनाजोग नावशथकी एकेडियादिकनेवि जीवादिकतत्वनुं अजाणवू ५ एपांचमिथ्यात्व तथा अगुनमनोयोगादिकत्रण अनेअविरतिते प्राणातिपातादिकपांच तथाप्रमाद जे मद्यादिक पांच एचारेनेसदाकाललगे संवरकुंकेमके एचारेंने अगसंवस्याथका संसा रनातापप्रत्ये आपे अने संवयाथका मुक्तिरूपिणी लक्ष्मीनेापे ॥ १ ॥ मनः संतृणु दे विन्नसंटतमना यतः ॥ ___ याति तंउलमत्स्यो ज्ञाक् सप्तमी नरकावनीं ॥२॥ अर्थ ॥ हवेप्रथमथी मन-संवरनपदेशेले हेपंमितात्मा तुंतारामननेसंवर केमके मनने संवरे रहित एबुंजे तंउलमत्स्य तेउतावलुं थोडाकालमांज सातमांनरकप्टथ्वीयें जश्ववतरे एमत्स्यसमुश्माहेला महोटामत्स्योनी पाखनीपापणमांहे सूक्ष्ममत्सिने गर्ने सातमीनरकथीचवीनेअवतरेले तेमत्स्य तंडुलप्रमाणगर्नजथाय पडेतेमहाम त्स्यना मुखनाफाडमा पेसतांनिकलता एहवाअनेकन्दाना मत्स्यादिकदेखीने तेतंउल मत्स्यएहचिंतवेजे हाहाइतिखेदेजो माहारी आवडीमोहोटी कायाथश्होततो दुंआ सर्वजीवनाकोलियाकलं पणएमांथीएकेनेजावानापुं एQमहाान चिंतवतोथको अंतर्मुहूर्तप्रमाण वायुनोगवीने एकमुहर्तने अंतरेंवली सातमीनरकप्टथ्वी जय - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वादिनिरोधोपदेशाधिकार. वतरे एरीतेंजीवते वचन तथाकायायें अशक्तथकोहोयतो पण मात्रएकमननाज अ | संवरथकी तंउलमत्स्यनीपेठे उर्गतिगामीयाय ॥ २ ॥ . प्रसन्नचंजराजर्षे मनःप्रसरसंवरौ॥नरक स्य शिवस्यापि हेतुनूतौ दाणादपि ॥ ३ ॥ अर्थ ॥ वलीतेनपरज दृष्टांतकहेले हेप्राणि मन-प्रसरजे डाननीप्रवृत्तिधने सं वरजे दुर्थ्यानथीनिवृत्ति तेबेद एकक्षणमात्रमांजेम प्रसन्नचंराजाषिनेनरकनां अने मुक्तिनापण कारणथया केमकेतेने मननाउानथी एकदणमात्रमा सातमांनरकनुंद लमेलव्यु अने तेजमनना संवरथी एकदणमां केवलझानपण उपायं. ॥३॥ हवेसंदेपथीतेप्रश्नचंडाजर्षिनोसबंधलखीयेबै ये क्षितिप्रतिष्टितपुरमा प्रसन्नचं राजा राज्यकरताहता अन्यदातिहां श्रीवीरस्वामी समोसस्या प्रसन्नचंताजा सह परिवारें वांदवाश्राव्यो देशनासांजली वैराग्यपाम्यो पुत्रनेराज्यस्थापी श्रीवीरपासें पोतेदीकालीधी अनुक्रमेगीतार्थथयो अन्यदाविहारकरतो राजगृहनगरेंयाव्यो ति हांजिनकल्पीनी तुल्यनानेयर्थे स्मशानमां कासग्गधरीरह्यो एटलामांश्रीवीरस्वा मीराजगृहनगरेसमोसस्थाले नगरलोकसर्व नगवंतने वांदवाजायने एटलामांकोइए क वेवणिक तेदितिप्रतिष्ठितनगरथीपाव्याडे तेमांथीएकवणिक प्रसन्नचंराजर्षिने जोश्बोच्यो केधन्यव्यापणाराजानेजे राज्यलक्ष्मीतृणनीमाफकत्यजीने ध्यानाधिरूढथ को नयतपकरेने तेसानलीबीजोवणिकबोल्यो केअहोधिःकार।एनातपने एनुमुखजो वायोग्यनथी केमकेएबापडाबालकपुत्रने राज्यापी मूढथनिकल्यो अनेपालतो सीमाडेबीजाराजायेंावीनेबालकनुराज्यहरीलेवानगरघेखुडे नगरतथादेशनालोकसर्व अनाथथयाथका बहुतलपेडे माटेदेशनांगसे घjअनर्थथाशे तेथीएतेंडुंधर्मधाराधे ते सांजलीप्रसन्नचंराजर्षि ध्यानथीचूकीने चिंतववालागो केअहोमुजबेग माहार राज्यले एवोकोणने एमरोड्थ्यानमा व्याप्तथइने मनसाथेंज महासंग्रामकरवामांमयो तेसमयेंश्रेणिकराजा श्रीवीरने वांदवाजातांमार्गमां तेकानसग्गधरसाधुदेखी नक्ति पूर्वकवांदी तेहनीनग्रतपस्याने अनुमोदतो समोसरणेपहोतो त्यांश्रीवीरनेवादिनेषु ब्युं जेस्वामीएप्रसन्नचंड्राजर्षि ध्यानाधिरूढअवस्थामां मेंवांद्यो तेश्रवस्थाने समय काल करतो शोगतिपामें जगवंतेंकयुं सातमीनरकपामें तेसांनलिश्रेणिकसंत्रांतथइर ह्यो हवेप्रसन्नचंड्राजर्षियें मनथीसंग्रामकरतां सर्वशत्रुहस्या अनेएककोइमहोटा श त्रुनीसाथेयुक्षकरता यायुधसर्वनष्टथयाने त्यारेजाण्युजे माथेंलोहनोटोपपहेयोने ते लग्नेशत्रूनेमारुं एमचिंतवी माथेहायनाख्यो एटलेमस्तकतत्कालतुं लोचितमुंमदेखी - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अध्यात्म कल्पडुम. ने मनमांसंवेगपाम्यो पश्चात्तापकरवालाग्यो हाहाश्रामेधुंडुयन चितव्यं मिष्ठामिडुक्क देवालागो एवामांफी श्रेणी के वीरने पुढचं हेस्वामीयासमये राजर्षिकालकरेतोशीग तिपामे भगवंतेयनुत्तर विमानकयुं तेसांनजी विस्मितथइने श्रेणिकेपुढधुं कहोवा मी पश्तो नरकको तेएतपस्वीनेकेमसंनवे अनेएक मुहूर्त नेत्र्यांतरे अनु तर विमानकत्युं तेपण समंजस अथवा चांतेकरीनेमें अन्यथासांनल्युं तेवारेंन गवंते यथास्थित सर्ववृत्तांतेंकरी श्रेणिकनोसंदेह टाक्यो एटलामां देव निनो नादांनी पुढधुं हेस्वामि श्रामहोत्सवक्यांथायने नगवंतेकयुंजे प्रस नचंद्र राजर्षिने केवलज्ञान पनुं त्यांदेवता महोत्सव करेले एमए प्रसन्नचंद्र राजर्षिने एकमुहूर्त्तनेअंतरे मननोव्यापार नरकहेते अनेमुक्ति हेतेपणथयो । मनोऽप्रवृत्तिमात्रेण ध्यानं नैकेंद्रियादिषु ॥ धर्म्य शुक्रमनः स्थैर्य नाजस्तु ध्यायिनः स्तुमः ॥ ४ ॥ ४॥ अर्थ || हवेपवनसाधनादिकथी मननोरोध निरर्थकले तेकहेबे केवलमननी प्र वृत्तिजे मनोव्यापाररहितपणुं तेोकरीने एकेंड्रियादिकजे एकेंड्रिय बेंड्रिय तेंयि चौ रेडिय असं शिपंचेंयि तेहने विषेध्यानजे मनोरोध लक्षण ते शुंनथी एटलेपवनसा धनादिक मनोरोधकरवाथी जोध्यानथायतो एकें प्रियादिकने विषेयाय केमके ते हनेस्व नावथीज मननेानावेंकरी मनोव्यापारनीप्रवृत्तिनथी तेथीपवनसाधनादिकतेकोइस माधिलक्षण ध्याननोपयोगीनथी श्वासरोधादिक क्लिष्टकर्मथ साहमुं मनप्रार्तियें व्याकुलयाय पणजे धर्म ध्यान अनेशुक्लध्यान तेोकरीने मननीस्थिरतानेनजे एवाजे ध्याननाकरनार तेनेज स्तवियेंबेयें एटलेध्यानते तेनुंजप्रमाणले इतिनावः ॥ ४ ॥ साथै निरर्थकं वा यन्मनः सध्यानयंत्रितं ॥ विरतं दुर्विकल्पेन्यः पारगांस्तां स्तवे यतीन् ॥ ५ ॥ अर्थ !! हवेध्यानेकरी जेहनुंमनसार्थक के ० सफलबे अथवा निरर्थक के ० निष्फलले तोपण शुनध्यानेकरियंत्रित एटले सांकलूंथकुं डुर्विकल्पजे गुनकार्यनामनोरथ ते हथी विरम्यूंबे तो ते सदा ध्यानजबे एहवाजे संसारनापारगामी साधुतेहने ढुंस्तकुंकुं ॥५ वचोऽप्रवृत्तिमात्रेण मौनं के के न बिभ्रते ॥ निर वद्यं वचो येषां वचोगुप्तांस्तु तांस्तुवे ॥ ६ ॥ अर्थ ॥ हवेवचनयोगनुं संवरजपदेशेबे केवलवचननी प्रवृत्ति एटलेमात्र वच नने चरवेकरीने कोणकोणएकेंदियादिक तथा पंचेंद्रियमांपण रोग विशे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वादिनिरोधोपदेशाधिकार. त्य पथी तथामनुष्यमांपण मुंगाबोबडाप्रमुखप्राणी मौनपणानेनथीधरतासुं एटलेतेस मी नपलोजधरे तो तेथी तेहने वचनगुप्तिवंतनकहियें पण जे हनुवचन निरवद्यके० पाप रहित होय एटलेवचन बोल्यानी शक्तिबतांपण सर्वथासावद्यवचननबोले तेनेवचनगुप्ति वंतकहियें वास्तवुंकुं पण मात्र मौनपणोज धयायी वचनगुप्तिवंतनकहियें ॥ ६ ॥ निरवद्यं वचो वृद्धि सावद्यवचनैर्यतः ॥ प्रया ता नरकं घोरं वसुराजादयोद्रुतं ॥ ७ ॥ अर्थ | वेदृष्टांतेरीने सावद्यवचननुं अनिष्टफलदेखाडे हेप्राणितुं पापरहि तवचनबोल केमके सावद्यवचनेकरीने वसुराजा प्रमुख ते घोररौ एहवोजे नरक | तेने पाम्यां तेवसुराजानोसंबंध श्रीमाचार्यकृत रामचरित्रमाथी विस्तारेंजोइलेवो ए मजाली असत्यवचन सावद्यवचननो परिहारकरवो ॥ ७ ॥ इहामुत्र च वैराय डर्वाचो नरकाय च ॥ निद प्ररोदति वदग्धाः पुनर्नदि ॥ ८ ॥ अर्थ | वली हिजकले जेर्वचनो तेयानवमां प्रनेपरनवमांपण वैरकारीथा नेवजी नरकदा पाथाय जेमाटे मियेकरीदाधाजेवृद्धादिक तेफरीनवपल्लवथा य पण दुर्वचननादाधा जेमनुष्य तेनवपल्लवनथाय एटस्नेहांकुर तेनेप्रगटेनही केम केरवचनथी उपनोजे वैरनाव तेजन्मांतरेपणनमटे इतिभावः ॥ ८ ॥ तएव जिना दीक्षा कालादा केवलो जवं ॥ अव द्यादिनिया ब्रूयु र्झनत्रय नृतोपि न ॥ ॥ ॥ || एटलामाटे दीवालीधापत्रे केवलज्ञान उपजेंतिहांलगें जिनजेतीर्थंकरदेव तेति श्रुत अवधि एत्रज्ञानना धारकबत पण अवद्यजेपाप तथाच्या दिशन्दथी वचनते ध्यानविघातादिकले एमजाली तेहनानयथी बोजेनही यद्यपि जगवंतने ब थप मनपर्यवज्ञाननी सत्ताहोय तथा पिइहांत्रज्ञानना धारककह्या तेजाणि वैजे मनपर्यवज्ञाननुंतो मात्र मननो पर्यायजाणवानुंज साम्यर्थबे तेमाटेखा चायें इहांकनही अनेउपाध्याय श्री रत्नचं गणिकृत एजग्रंथनी टीकामांपल एम जलख्ने वली विशेषबुद्धिवंते विचार ॥ ॥ कृपया संवृणु स्वांगं कर्मा ज्ञाननिदर्शनात् ॥ सं वृतासंवृतांगा यत् सुखदुःखान्यवाप्नुयुः ॥ १० ॥ अर्थ || हवेकायसंवरकबे हेप्राणि तुंकरुणायेंकरीने कांचबानादृष्टांतनानि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. दर्शनथकी पोतानीकायानेसंवर केमके कायानासंवरवंत अने असंवरवंतते अनुक्रमे सुखअनेकुःखपामे एटकायाना संवरवंततेसुखपामे अनेअसंवरवंतते फुःखपामे जे मबेकाचबाहता तेमाथीएकेपोताना अंगसंवख्यातो पापीशीयालथीमृत्युनपाम्यो अ ने बीजेपोतानाअंगसंवस्यानही तो पापीशीयालथी अकालमृत्युपाम्यो एदृष्टांत सवि स्तरपणे श्रीझातासूत्रना चोथाअध्येनथी जाणवं ॥ १० ॥ कायस्तंनान्न के के स्यु स्तरुस्तंनादयो यतः॥शि वहेतुःक्रिया येषां कायस्तांस्तु स्तुवे यतीन् ॥११॥ अर्थ ॥ केवलकायने स्थिरतामात्रथीतोतरुजे वद तथा अचेतनजे स्तनादिक ते कोणकोणसंवरवंतनथी अर्थातजेको कायव्यापारना असमर्थडे तेसर्वकायसंवरवं तजले पणजेहनी क्रियाजे कायव्यापार तेमोक्नेयर्थे होय तेहने कायगुप्तिवंत कहियें बैयें जेकायव्यापारने बतेसामर्थे पण अगुनकायव्यापारने रुंधे अनेगुनक्रियानो खप करे तेहने कायगुप्तिवंतकहियें इतिनावः ॥ ११ ॥ श्रुतिसंयममात्रण शब्दान्कान् के त्यति न॥ श्ष्टानिष्टेषु चैतेषु रागषौ त्यजन्मुनिः॥१२॥ अर्थहवेपंचेंडियनुं संवरकहे तेमांप्रथम श्रोत्रंडियधाश्री कहे केवलकानना व्यापारना निरोधथकीज कोणकोणएडिय बेंडिय तेंयि चोरेंड्रिय तथापंचेंहियति र्यच अनेमनुष्यमध्येपण बेहेराप्रमुखजे श्रोत्रहियें विकल होय तेशब्दनाविषयने नथी त्यजतासुं अर्थातत्यजेजले पणजेवारेंइष्टजे मृदंगादिवाजित्र तथास्त्रीकोयलप्रमुखना शब्द अनेअनिष्टजे खर तथाघूक प्रमुखनाशब्द नेविषे रागअनेषत्यजे तेवारेंमुनियाय चतुःसंवरमात्रात्के रूपालोकास्त्यति न ॥ इष्टानिष्टेषु चैतेषु रागषौ त्यजन्मुनिः॥१३॥ अर्थ ॥ केवलनेत्रव्यापारनेज तजवाथकी कोणकोण एकेंयि बेंझिय तेंहिय त था अंध मनुष्यादिक तेदृष्टिविषयने नथीत्यजतासुंअर्थातत्यजेजले पणशष्टजे स्त्रीनां कटाद नाटकप्रमुख तथाअनिष्टजे अमेध्य बीनत्सप्रमुख एवाजेएदृष्टिनाविषय तेद | नेविषे राग अने देषने त्यजे तेवारे ते मुनिथाय ॥ १३ ॥ घ्राणसंयममात्रेण गंधान कान् के त्यति न ॥ इष्टानिष्टेषु चैतेषु रागद्येषौ त्यजन्मुनिः ॥१४॥ अर्थ ॥ केवलनाकना व्यापाररहितपणाथी कोणकोण शुनाशुनगंधने एकेंश्यि | - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वादिनिरोधोपदेशाधिकार. ra - बेंझ्यिादिक तथाबीजापण घ्राणेंहिये विकलथयेला प्राणि नथीत्यजता अर्थातत्य जेज पणश्ष्टजे फुलप्रमुख अनेअनिष्टजे अमेध्यादिक एवाजेगंध तेहेनेविषे राग अने देषत्यजे तेवारे तेमुनिथाय ॥ १४ ॥ जिव्हासंयममात्रेण रसान्कान्के त्यजति न ॥ मनसा त्यज तानिष्टान् यदीबसि तपःफलं ॥१५॥ अर्थ ॥ केवलजिव्हाना संवरमात्रयीज कोणकोणशुनागुन रसने पृथ्वीकायादिक एकेश्यि तथाबीजापण नावरसनेंझ्यिथी विकलथयेलाप्राणी ते नथीत्यजतासुं अ तत्यजेज पणहेत्रात्माजो तुं तपनुंफलवांडे तो तेजेश्ष्टवांनित मधुरादिकरस तेने मनसाकहेतां मनोयोगपूर्वक समता परिणामेकरीनेत्यज ॥ १५ ॥ त्वचःसंयममात्रेण स्पर्शान् काम्के त्यति न ॥ इष्टानिष्टेषु चैतेषु रागद्वेषो त्यजन्मुनिः ॥१६॥ अर्थ ॥ केवलत्वचाजे स्पर्शनेडिय तेहनो संयमजे स्पर्शझानना नलेवानी शून्यता तेणेकरीने कोणकोणप्राणी गुनागुनस्पर्शने नथीत्यजता अर्थातत्यजेजले यद्यपि एकेंझ्यिादिक सर्वजीवने स्पर्श विषयहोय तथापिकुष्टादिक रोगनावशथकी | त्वचानीबहिरिनाधणीने स्पर्श-झाननजहोय एनाव पणश्ष्टजेस्त्रीस्पर्शादिक तथा अनिष्टजे ताप शीत मांस मसा प्रमुखनेविषे राग देषनेत्यजे तेवारेंजमुनियाय॥१६ बस्तिसंयममात्रेण ब्रह्म के के न बिभ्रते ॥ मनःसंयमतो धेहि धीर चेत्तत्फलार्थ्यसि॥१७॥. अर्थ ॥ हवेवलीस्पर्शनेंशियमा विशेषकहे बस्तिके ० मूत्राशय एटलेगुह्येडिय ते नासंवरमात्रथोज ब्रह्मचर्यधारणनथीकरतां सुं एटले नारकी संमूर्बिमपंचेंशिय प्रमुख तथा पुरुषरूपनपुंसक अने स्त्रीरूपनपुंसक इत्यादिक कोणकोणप्राणी मैथुननीअश क्तिथी शोलधारणनथीकरता एटलेतेसर्व ब्रह्मचर्यवंतज पणपरिणामविना असक्ति थीपाल, तेनिष्फल माटेहेधीरआत्मा जो तुंब्रह्मव्रतनाफलनो अर्थीहोयतो मनने संवरेंकरीने बतीशक्त ब्रह्मव्रतधारणकर ॥ १७ ॥ विषयज्यिसंयोगा नावाके के न संयताः॥ राग - देषमनोयोगनावाद्येतु स्तवीमि तान् ॥ १७ ॥ अर्थ ॥ हवेसामान्यथी सर्वइंडियादिक तेहनोसंयोगजे एकत्रमलते हनाअना वथी कोणकोणसंवरवंतनहोय एटलेविषयनोयोग मल्याविनासर्वेसंवरवंतजले पण Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम... जेमहापुरुष ते तो विषयादिकनो योगतांपण रागदेष अने मनयोगना अनावथी एटलेजेमनथकी रागवेषरहितपणे संवरवंतने तेश्रोनेढुंस्तबुलु ॥ १७ ॥ कषायान् संवृणु प्राज्ञ नरकं यदसंचरात्॥ महातपस्विनोप्यापुः करटोत्करटादयः॥२॥ अर्थ ॥ एमश्यियाश्रित संवरकहीने हवेकषाययाश्रितकडे प्राइके ० देवि वेकीप्राणी कषायजे क्रोधादिक तेनुंतुसंवरकर केमकेएकषायना असंवरथकी करम अने नक्करम प्रमुख महातपस्वी महानुनाव तेपणनरकनेपाम्या एकरड अनेनक्करड बे ब्राह्मणमासीयाइ नाइहता ते वैराग्यथकी दीदाला मयतपकरी अन्यदाकुणालान गरियें कोटनाघरनालामा चोमासुंरह्या तिहानगरना जलप्रवाहने साधुरखेतणा इजाय एमजाणीदेवतायें कुणालानगरीनपर वरसादयंनाव्यो कुणालाशिवायबीजे सर्वत्रवर्षादवरस्यु केटलेक दहाडे तेवातजाणी नगरलोकें ताडनातजनाकरी तेसाधु नेकाढया तेवारें क्रोधशेखर करमबोल्यो वर्षमेघकुणलायां तेवारें उकरमबोल्यो दि नानि दश पंच च वलीकरमबोल्यो मुशलप्रमाणधारानिः वलीउक्करमबोल्यो यथारात्रौ तया दिवा तेवचनथी अहोरात्रमुशलधारायें कुणालानगरीनपर मेघवूतो तेहथीकु णालानगरी लोकसहिततणाग महाअनर्थथयो तेवारपर्नु त्रीजेवर्षे साकेतपूरे ते पापनेवणालोवेबते करमअनेटक्करडबेमरीने सातमीनरके कालनामा नरकावास मां बत्रीससागरोपमनेत्रायुधे नारकीपणे अवतस्या एमजाणी कषायनोसंवरकरवो. यस्यास्ति किंचिन्न तपोयमादि ब्रूयात् स य त्तत्तुदतां परान् वाय स्यास्तिकष्टाप्तमिदं तु किं न तघ्शनीः संरणुते स योगान् ॥३॥ अहवेवलीमनोयोगादिकनो संवरकहे जेप्राणिनेकांइ तपसंयमादिकनथी अ | विरति तेप्राणिजेमतेम असंबंधबोले तथाअन्यजीवनेपीडाकरे एटले अव्रती जेजेथ रुत्यकरे तेतेघटे पणविरतिवंतप्राणितो एतपसंयमादिक घणुंजकटेंप्राप्तिथायडे ए मजागी तभ्रंशनी के रखेमहारांतपसंयमनो विनाशथाय एमबीहीतोथको मनोयो गादिकने केमनसंवरे एटलेविरतिवंतने सर्वथासंवरकरवुज एनावार्थडे ॥ २०॥ .. नवेत्समग्रेष्वपि संवरेषुपरं निदानं शिवसंपदा यः॥ त्यजन् कषायादिजउर्विकल्पान् कुर्यान्मनःसंवरमिधीस्तं ॥२१॥ · अर्थ ॥ हवेवलीमननासंवरन आधिक्यतापणुंकहे जेमननो संवर ते बीजा जेटला संवरले तेसर्वमां मोक्षसंपदानुं परमकारण ते माटे विशेषबुद्धिवंत Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभप्रवृतिशिदोपदेशाधिकार. पुरुषतो कषायादिकथीपनाजे कुविकल्पते त्यजतोथको मननोसंवरकरे एटले मु तिनुं मुख्यकारणजाणीने विवेकी पुरुष प्रथममननुं संवरकर इतिभावः ॥ २१॥ तदेवमात्मा कृतसंवरः स्यात् निःसंगताचाक् सततं सुखेन ॥ निःसंगनावादथ संवरस्तद्द्यं शिवार्थी युगपनजेत ॥ २२॥ अर्थ ॥ हवे अधिकारनो उपसंहारक देवे तेमाटे एमपूर्वोप्रकारें कृतसंवरके ० संव रवंत जे खात्मा सदाका लें सुखेकरीने निःसंगपणानेन जे अथवा वली निःसंगपणाथी संवरथाय एटले एबेदुनो अन्योन्यकार्यकारण भावजालवो केमके कोइकने निःसंग पाथी संवरावे कोइनेसंवरथी निःसंगतापावे माटेमोक्षार्थी पुरुष ते संव र निःसंगता एवेने समकालेसेवे ॥ २२ ॥ इति श्रीप्रध्यात्म कल्प मे मिथ्यात्वादि संवरोपदेशाख्य चतुर्दशोधिकार समाप्त ॥ १४ ॥ अथ शुनवृत्तिशितोपदेशः । प्रावश्यकेष्वातनु यत्नमाप्तौ दितेषु शुद्धेषु त मोपदेषु ॥ न दंव्यमुक्तं हि न चाप्यशुद्धं वैद्योक्तमप्यौषधमामयापहं ॥ १ ॥ ॥ वेनप्रवृतिशिका एहवेनामे पन्नरमोअधिकारकदेवे एयधिकारमां य तियोग्य शिक्षा यतीने जाणवी अनेश्रावकयोग्य शिक्षा श्रावकने जाएणवी इहांप्रथम या वश्यक करवायोग्य जाणीने व्यावश्यकत्र्याश्रयी उपदेशेकलेले हेसाधु तथा हे श्रावक तुं पापना निवारक सर्वज्ञनाषित एवांजे शुद्ध निर्मल आवश्यक सामायिकादिक तथावश्यकरणीय पोसह उपवास खालोयणादिक तेहने विषेउद्यमकर तेनानपर दृष्टांत जे वैद्यनुकत्युंजेश्रौषध तेनखाधुंकुं तथाऽजेकाचुं हरितालप्रमुख तेखाja कुंपण रोगनिवारक नथाय तेम सर्वज्ञनाषित यावश्यकजाएगीने पण तेह नीकियानकरीयें अथवा शुद्ध क्रियाकरियें तोतेहथी कर्मक्ष्यनथाय तेमाटे दोषरहित शुद्ध क्रियायें करी आवश्यकादिकनो उघमकरवो एवपनयते इहांप्रसंगथी सामायिकना दोषज खिये ये १ वस्त्रे तथानुजायेंकरीने पलांतीबांधे २ खासनयाघुपा बुंफेरवे ३ चपलपणे सर्व दिशायें जोवे ४ गृहसंबंधी सावद्यकर्मकरें ए जिंतीस्थंनादिकेंप्रोउंगीबे से ६ अंगोपांगमोडे 9 आलसमोडे तथाधर्मकार्येयालसकरे हाथपगेंकरकड़ा व जाडे । शरीरनोमेल उतारे १० खाजिखो ११ विसामणकरावे १२ निड़ाकरे ए बारदोषकाय थकीजालवा तथा १ कुवचन कोइनुमर्मनिंदादिकबोजे २ सहसात्कारे विचारबोले ३ प्रार्तिमय विसंस्थलवचनबोजे ४ पदें बोले ५ सूत्रनणतो פה १२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पाम. थवानवकारगुणतो वचनसंदेपकरे ६ कलह विवादकरे ७ राजकथादिकविकथाकरे हास्यनावचनकहे ए संपदारहितसूत्रनणे १० जावाधाववानाबादेश आपे एद शदोषवचनथीजावा वली निर्विवेकीमनेकरे २ यशकीर्तिनीवांडायेंकरे ३ धनला जनेअर्थकरे ४ गर्वथाकरे ए नयथीकरे ६ धनपुत्रादिनेअर्थेनियाjकरे ७ सामायि कनाफलनो संदेहकरे रीसधरीसामायिककरे ए विनयरहितसामायिकककरे १० नक्तिरहितसामायिककरे एदशदोषमनथीनपजे एम मन वचन अने कायाना मतीने बत्रीशदोषसामायिकनात्यजवा तथावांदणाना ३२ दोष अने कानसग्गना १ए दो ष ते नाष्यादिक ग्रंथथी जाणीने त्यजवा ॥ १ ॥ तपांसि तन्याविविधानि नित्यं मुखे कटून्यायतिसुंदराणि ॥ वि। नंति तान्येव कुकर्मराशिं रसायनानीव उरामयान् यत् ॥शा अर्थ ॥ हवेतपप्रवृत्तियाश्रयीनपदेशे मुखके प्रथमकरतीवेलायेंतो मुखवृषादि कसहेवांपडे तेमाटे कडवा पण आयतिके नत्तरकालें सुखनाकरनार एहवांजेवि विधप्रकारना बन अवम दशमादिक तप तेनित्येकरवां केमकेतेतपज कर्मनासमूहने निवारेले तेनपरदृष्टांतकहेजे जेमरसायन पारो हरिताल सुवर्णादिक औषधियो तेहिज ज्वरअनेदयादिक उष्टरोगोनेनिवारे तेम श्हांपण नपनयलेबु ॥ २ ॥ विशधशीलांगसहस्त्रधारी नवानिशं निर्मितयोगसिद्धिः॥ सहोपसर्गास्तनुनिर्ममः सन् नजस्व गुप्तीः समितीश्च सम्यक्॥३॥ अर्थ ॥ हवेतपकरनार प्रायेंशीलवंतजोयें तेमाटेशीलयाश्रयीनपदेशेने हेसाधु तुविशुद्धनिर्मजएवाजे अढारसहस्र शीलांगरथतेने धरतोयको नित्य निर्मित योग सिक्केि निपजावी अष्टांगयोगनीसिदिजेणे अथवायोगजे मनोयोगादिक तेह नाःप्रणिधानना निवारवारूप समाधिनी सिद्धिकर एटलेशीलांगधरतोथको मनव चनकायाना योगवशकर एनावार्थः वलीदेहनेविषे ममत्वरहितथको देवादिकनाक रेला नपसर्ग तेनेसहनकर अनेपांचसमिति तथात्रगुणगुप्ती तेहनेज ॥ ३ ॥ . स्वाध्याययोगेषु दधस्व यत्नं मध्यस्थवृत्त्यानुसरागमार्थान् ॥ अगारवो नैदमटाविषादी देतौ विशुधे वशितेज्यिौघः॥४॥ अर्थ ॥ हवेशीलवंतने मनस्थिरकरवानिमित्त जेसिद्धांतादिकनुं स्वाध्याय नणर्बु - - - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुनप्रवृत्तिशिक्षापदशाधिकार. amraj तेनुं योगजे मनवचन कायायें करी नित्यान्यास करवाने विषे उद्यमकरे वली श्रागमनाजे अर्थ तेमध्यस्थवृत्तियें कदाग्रहरहितपणे अनुसरे एटले कदाग्रहें करीने जनवचनानी परुपणाजूटीनकरे वली अगारवके० रुड्गाव रसगा रव सातगाव तेरहितकुं विशुद्ध निर्मज हेतुजे मोक्षसाधन तेहनेविषे वि पादरहितयकुं एटले ६ क्रियाकरतां य विपिन्नचित्तयकुं अनेवलीवशकी धोने इंडिय नोसमूहजे एहकुंकुं नैदेजेउंचनीचकुल युद्धमानयाहारतेहनी गवेषणाकरे || ४ स्वधर्मार्थतयैव धर्म्यान् सदोपदेशान् स्वपरादिसाम्यात् ॥ जगतेिषी नवनिश्व कल्पै ग्रीमे कुले वा विहराप्रमत्तः ॥ ५ ॥ अर्थ || हवेसझायनुंफलते गुनउपदेशले तेमाटेगुनोपदेशच्या श्रीकहेने हेसाधो पोताना नेपारकाने विषे समानपणे उपदेशकर एटले यामाहारोनकडे दाताने धावाधर्मकहुं अथवा श्रा मिथ्यात्वी रुपपदरिडीने एहवाने उपदेशको maa scarदिककल्पना त्यजी केवलधर्मार्थीपणेकरीनेज पण आहारवस्त्रादिकने प्रकारें नित्यधर्मसंबंधीयाजे उपदेशते कहेतोर हे अनेवली सर्वसंसारीजी caiantest नवकल्पेकरीने ग्रामनगरादिकने विषे गुन उपदेशकरतोरहे त याविहार करवानी शक्तें कुलके० ग्रामनगरादिकनो एकप्रदेशतेनेविषे प्रमादरहित कुं विहारकर इहांकल्पते माग सिरप्रमुख यामास जेरुतुब-६ काल तेहनाश्रावकल्प श्रावणादिक चारमास चोमासना तेनोएकल्प एरीते सर्वमलीने नवकल्प जाणवा a कृताकृतं स्वस्य तपोजपादि शक्तीरशक्तीः सुकृतेतरे च ॥ सदा समीकस्व हृदाऽथ साध्ये यतस्व देयं त्यज चाव्ययार्थी ॥६॥ ए? ॥ हवेनोपदेशनाकहेनारने कृत्याकृत्यनोविचारजोइयें तेमाटेतेश्राश्रयी कहे साधु तथा श्रावक पोतानुं तप जप प्रमुखजेकर्म ते कृत्याकृत्यक हेतां एटनुक धुं एटमेन थी कीधुं हविवेचन तथाशक्ति यनेयशक्ति तथापोतानुंसुकृत नेः कृत एटलांवाना पोताना मनसा थेंसदाय विचारीने तेवारपबे मोहार्थीयकं साध्यजे . साधवायोग्य तपोनुष्ठानादिक तेहने विषेउद्यमकर यनेवली हेयकहेतां त्यजवायोग्य विषपायादिक तेनेत्यज सत्पुरुषने चित्तरूपिणीनू मिनेविषे गुरुपदेश तेबीज वृरूप होय पतेमा विचाररूप जलनासिंचवाथी सुकृतरूपवृक्ष विस्तारपामेते माटे मोक्षार्थियें नपादेयज्ञेयना विचारपूर्वक धर्मोद्यमकरवो ॥ ६ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए‍ अध्यात्म कल्पद्रुम. परस्य पीमा परिवर्जनात्ते त्रिधा त्रियोग्यप्यमला सदाऽस्तु ॥ साम्यैकलीनं गतडुर्विकल्पं मनोवचश्चाप्यनघत्रवृत्ति ॥ ७ ॥ अर्थ || हवेजे विचारवंत होयते त्रियोगी निर्मलजोइयें तेमाटेतेप्राश्रयी कहेने हेा त्मा त्रियोगीजे मनवचनकायाना त्रणेयोग तेोकरी सदाईनिर्मलया एटजेसर्वजीवनप रें हितबुद्धिराखीने मनवचनकायानायोग निर्मलकर एनावार्थले केमके परनेपीडा व farma काययोगतो निर्मलययोज नेते काययोगनी निर्मलताथी मनपणसमता aria नेर्विकल्परहितथाय तथावचनपण पापव्यवहाररहितथाय इहांयाचा काययोग सुगमले माटे जुदोकरीने नको ॥ ७ ॥ मैत्री प्रमोदं करुणां च सम्यक् मध्यस्थतांचानय साम्यमात्मन् ॥ सनावनास्वात्मलयं प्रयत्नात् कृताविरामं रमयस्व चेतः ॥ ८ ॥ अर्थ || हवे त्रियोगी ने निर्मलताते मैत्र्यादिनावनाथीथाय तेमादेतेकवे या मातुं मैत्रीतथाप्रमोद तथाकारुण्य अनेमध्यस्थता ए चारनावना तेयात्माने विषे प्राण नेवली नावनायेंकरी सम्यक्प्रकारें समताप्राण वली प्रयत्नात्के० पॅकि तवीर्यफोरवाथी चित्तने यात्मलयके० ध्यानलीन अनेध्यानथी य विषिन्न एहवं ययुं कुं गुननावनाजे नित्यादिक तेहने विषेरमाड ॥ ८ ॥ कुर्यान्न कुत्रापि ममवावं न च प्रनो रत्यरती कषायान् ॥ इहापि सौख्यं लनसेप्यनीहो ह्यनुत्तरामर्थ्य सुखानमात्मन् ॥ ॥ समर्थ अर्थ || हवेनावनाते ममत्वनात्यागथीहोय ते मातेप्राश्रयी कहे खात्मा जो कोइवस्तुनेविषे ममत्वनकरें अनेवली रति रति अनेकषाय नकरे ए वो वनारहितको रहेतो यानवेंज अनुत्तर विमानवासी देवतानाजेवुं सुखपा मैं म नुत्तरवासी देवतामां स्वामिसेवकनो व्यवहारनथी तेमाटे संसारिक सुख जोतां अनुत्तरविमाननो सुखते सर्वोत्कृष्टजालवं ॥ ॥ इति यतिवरशिक्षां योऽवधार्य व्रतस्यश्चरणकरणयो गानेकचित्तः श्रयेत ॥ सपदि नवमहाब्धिकेशराशि सती विलसति शिवसौख्यानंत्य सायुज्यमाप्य ॥१०॥ अर्थं ॥ हवेअधिकारनो उपसंहारक हेबे एप्रकारें यतिवरजे नलासाधु उपलक्ष Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साम्यसर्वस्वाधिकार. णथी नलाश्रावकपणलेवा तेसंबंधीनीजे शिक्षा तेनेचित्तमांधरीने एकाग्रचित्तथकुं चर णकरणयोगजे चरणसित्तरी अनेकरणसित्तरीनागुण तेनेजेसेवे तेसाधु तथा ते श्रावक शीघ्रके० उताव क्लेशकुःखना समूहरूपजे संसारमहासमु तेथकीतरीने मोक्षसु खनुं अनंतपणुं तेहनु सायुज्यके ० जेसहचारीपणुं तेपामीने वलीमोक्नायविनाशीसु खनीपरे पोतेपणत्यां अविनाशीनावपामी विलसतिके ० सर्वदासुरखनेअनुनवे ॥१॥ इति श्रीअध्यात्मकल्पमेऽशुनप्रवृत्तिशिदोपदेशारख्यः पंचदशोथधिकारसमाप्त. अथ ग्रंथोपसंदाराय साम्यसर्वस्वं ॥ एवं सदान्या सवशेन सात्म्यं नयस्व साम्यं परमार्थवेदिन् ॥ यतः करस्थाः शिवसंपदस्ते नवंति सयो नवनीतिनेत्तुः॥१॥ . अर्थ ॥ हवेग्रंथनानपसंहारनेर्थे साम्यसर्वस्वनामें सोलमोअधिकारकहेने हेप रमार्थनाजाण विवेकीपुरुष तुंएमपूर्वोक्तप्रकारें अन्यासवशंकरीने साम्यजेसमता ते हने सात्म्यकहेतां आत्मासाथे ऐक्यपमाड जेसमताथी नवनीतजे संसारसंबंधी जय तेहनेनेदवावांबतो एवोजेतुं तेतुजने मोदनी संपदाओ ते तत्कालमात्र करस्था कहेता हस्तप्राप्तथाय ॥ १ ॥ त्वमेव फुःखं नरकस्त्वमेव त्वमेव शर्मापि शिवं त्वमेव ॥ त्व मेव कर्माणि मनस्त्वमेव जहीह्यवझा मवधेहि चात्मन् ॥२॥ अर्थ ॥ दवेआत्माने अविद्यानोपरिहार अनेसमतानुंधरवु कहेने हेयात्मातुंः खनेकारणे प्रवयों माटे फुःखतेतुंजले एमागलपण सगलीवस्तुनुं यात्माजकार णरूपजाणवू वलीनरकर्नुकारणतेपणतुंज वलीसुरवपणतुंडे अनेमुक्तिपणतुंडे व लोकर्मपणतुं अने मनोव्यापारना प्रकाशकपणाथी मनपणतुं तेकारणमाटे अव झाजेधर्मकार्यनेविषे अनादरकरवो एटलेहमणा धर्मनथीथातो तोपत्रेकरीश इत्यादि क कल्पना त्यजोने अवधेहिकहेतां धर्मकार्यनेविषे सावधानरहे ॥ २ ॥ निःसंगतामेहि सदा तदात्मन्नर्थेष्वशेष्वपि साम्यनावात्॥ अवेदि विघन्ममतैव मूलं शुचां सुखानां समतैव चेति ॥ ३॥ थर्थ ॥ हवेसर्वत्रपणे निःसंगपणानुं प्राध्यान्यपणुंकहेले हेयात्मा तेकारणमाटे सकलपदार्थनेविषे समतानावणी सदाय निःसंगपणाने पाम थनेवली हेनिपुणप्राणि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए अध्यात्मकल्पजुम. सकलशोक-मूल ते ममताजने अनेसकलसुरखनुमूलते समताजले एहq जाणीने म मताने त्यज अने समताने आदर इतिनावः ॥ ३ ॥ स्त्रीषु धूलिषु निजे च परे वा संपदि प्रसरदापदि चात्मन् ॥ त __ त्वमेदि समतां ममतामुक् येन शाश्वतसुखाध्यमेपि ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ जेनिःसंगताते ममत्वमुकवाथीजथायचे तेमाटेममतात्यजवानुं उपदेशे बे हेआत्मा ते पूर्वोक्तकारणथी तुंममतारहितयको स्त्रीनेविषे अनेधूलिनेविषे वली स्वजननेविषे अनेपरशत्रूने विष तथा वलि संपत्तिने विषे अने विस्तारपामतीयापदाने विषे समतानेपामवेकरीने सरखोपरिणामरावजे एटलेमोदसुखनोनोक्ताथाइश ॥४ तमेव सेवस्व गुरुं प्रयत्ना दधीव शास्त्राण्यपि तानि विघ्न्॥न दे वतत्वं परिनावयात्मन येभ्यो नवेत्साम्यसुधोपनोगः ॥५॥ अर्थ ॥ दवेसमतातेज सकलपदार्थनो सारकरीनेउपदेशेने हेविक्षन् हेात्मन् तुंउद्यमकरीने तेहिजगुरुनेसेव थनेगुरुसेवनाकरीनेशास्त्रपण तेहिजनण तथाशास्त्र नगीने तत्वरहस्यपण तेजचित्तमांचिंतव केजेगुरुथी अनेशास्त्रथी तथाजेतत्वथी सम तारूपीयुं जेयमृत तेनोउपनोग आस्वादपामे एटलेजेजेपदार्थनेतुं समता-कारणजा णे तेतेपदार्थनुस्वरूपकर केमकेबीजासर्वपदार्थ तेनिरर्थकडे ॥ ५ ॥ समग्रसत्रास्त्रमहाणेवन्यः समुतः साम्यसुधारसोऽयं ॥निपी यतां दे विबुधा लनेव मिहापि मुक्तेः सुखवर्णिकां यत् ॥६॥ अर्थ ॥ हवेत्राचार्यग्रंथने उपसंहरतो ग्रंथनीनपादेयतादेखाडे हेपंमितजनो तमेसमग्र जलांजे धर्मशास्त्र तेरूपीयो जेमहासमु तेहथीउधस्युंजे एसमतारूपियुं सुधारसके० अमृतरसतेप्रत्ये तुमें पीयतांकहेतां आदरसहितसांजलो तथानणो जे थी तमेवालोकेपण मुक्तिनासुखनी वर्णिकाकहेतां वानगीनेपामो केमकेसमतारस मय जीवते यालोकेपण मुक्तिसुरखने अनुनवेडे ॥ ६ ॥ शांतरसनावनात्मा मुनिसुंदरसूरिनिः कृतो ग्रंथः ॥ ब्रह्मस्पृहया ध्येयः स्वपरहितोध्यात्मकल्पतरुरेषः॥७॥ थर्थ ॥ दवेग्रंथनेनेडे आचार्यपोतानाम अनेग्रंथनाम जणाववाकहे स्व परहितकहेतां ग्रंथकर्त्ताने तथापरजेश्रोताप्रमुख एबेहुनेहितकारी एवोजेवाअध्या Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्यसर्वस्वाधिकार. त्मकल्पडुमनामेग्रंथ तेतपगबाधिराज श्रीमुनिसुंदरसूरियेंकीधो ते एग्रंथ पंमितें व्र मजेझान तेहनी वांबायें नणवू अथवा ब्रह्मजे मुक्ति तेहनीवांबायें चिंतव, ॥ ७॥ इममिति मतिमानधीत्य चित्ते रमयति यो विरमत्ययं नवाजाक्॥स च नियतमतो रमेत चास्मिन् सह नववैरिजयश्रिया शिवश्रीत॥ अर्थ ॥ हवेफलोपदर्शन बारें मंगलगनित उपसंहार वाक्यकहे जेमतिवंत पुरुष अध्यात्मकल्पजुमनामे ग्रंथनेनणि पोताना चित्तनेविषेरमाडे रात्रदिवस चिंतवे तेपुरुष संसारथकी थोडाकालमां विरक्तथाय अनेवलीएहनाज चिंतनथी तेपुरुषनेविषे सं साररूपीया शत्रुनीजे जयलक्ष्मी तेणेसहित शिवश्रीजेमोहलक्ष्मी तेमां रमिकेण्ाश्र योनेरहे एटलेतेसंसाररूप शत्रुनेजीतीने मोदरूपलक्ष्मीपामे. इतिअध्यात्मकल्पमे साम्यसर्वस्वनामा षोडशोधिकारः समाप्तः॥ १६ ॥ ए श्रीअध्यात्मकल्पद्रुमनामे ग्रंथनो बालावबोधार्थ नपाध्यायश्री रत्नचंगणिकत तथानपाध्यायश्री विद्यासागरगणिकृत एबेटीकाजोड़ने में महारीबुझिने अनुसारें मुज सरखा स्वल्पबुद्धिवंत प्राणिना उपकारने अर्थ लेशमात्र लख्यो तेमां अनानोगथी तथाअझानथी तथाघ्रांतिथी जेकांसूत्रना तथाटीकाना अनुसारथी ओबुंथधकुं अयुक्त लखाणुहोय तेहगें मिलामीछक्क अथवाकिहांएक सुगमपणानेअथै किहांएक साहचर्यथी किहांएकरूढिथी जेकांश विनक्ति वचन लिंग कारक अन्वय प्रमुखनो विपर्यास कीधो होय तेअपराध बहुश्रुत गीतार्थेरखमवो तथा उपकारबुद्धे अशुभ टालिने गुरूकरवं. अथ प्रशस्तिः॥ श्रीमत्तपगणगगनां गणनासनतरुणतरणिनिनः॥श्रीराजविजयसू रिर्बनूव नुवि नरि वितानयशाः॥ १ ॥योत्यादीदिनवं घनं सुविहितानुष्टानबहादरो लोकं कोकमिव प्रबोधमनयजोनिश्च गोस्वामिवत्॥बित्वादीकिटदर्पमुज्वलपटांश्चके वि शेषोज्वलान् यो वाचालितमालवेश्वरसितत्रप्रनावोज्वलः ॥२॥ रत्नत्रयप्रथितसंय मनृत्तदीय पट्टेष्वरत्न विजयाव्हयसुरिरासीत् ॥ येन प्रशांतरजसा प्रशमार्णवेन रत्ना करायितमनल्पगुणोघरंजैः ॥३॥ तस्यान्वये निखिलनूतलगीतकीर्तिः श्रीहीररत्न इतिसूरिवरो विरेजे ॥ स्वर्गगतोप्य खिलनक्तसमीहितानि योद्यापि पूरयति नव्य वाम रपुः ॥४॥ तत्पडनूषणमणिर्जयरत्नसूरिः सर्वाग्रणी णिषु नूरिगुणाश्रयोऽनूत् ॥ श्री नावरत्न इति नावविदां वरेण्य स्तत्पडनृऊयति संप्रति सूरिराजः॥५॥ श्रीहीररत्नसूरे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकल्पजुम. मुख्याः शिष्याः सुनिर्मलानिख्याः॥ श्रीलब्धिरत्नविबुधाः शास्त्रार्णवपारदृश्वानः॥६॥ श्रीसिधिरत्ननाम्ना पाठकवर्यास्तदन्वये तदनु ॥ श्रीहर्षरत्नवाचक, वरा वरीयोगुणवं द्याः ॥ ७ ॥ लक्ष्मीरत्नगणीशाासन उर्वादिदनुजलक्ष्मीशाः ॥ श्रीज्ञानरत्नगणयस्त दाश्रवाः सांप्रतं जयंतु चिरं ॥७॥ तच्चरणकमलसेवा नंगस्तत्संगसमयतरंगः॥ सुविहि तकल्याणविमल गणिवर विहितार्थिनीनुन्नः॥ ५ ॥ बालावबोधवार्ता मध्यात्मसुरद्रु मारख्यशास्त्रस्य ॥ मुनिहंसरत्न एता मतनोत्तनुबुद्धिसत्वहितां ॥१०॥ शोध्यं सुतत्ववि निर्यथो ऽयं धीधनैः प्रवाच्यमानश्च॥ सन्नावसंपदाढ्यै राचंज्ञक चिरं जयतात्॥११॥ इति श्रीमुनिसुंदरसूरिकतअऽध्यात्म कल्पद्रुमो बालावबोधसहितः संपूर्णः ॥ अथ श्री सीतलनाथष्टकं ॥ वृषनतुल्यगतिं वृषदं सदा व्यजितदर्पकर्णकन्नेदकं ॥ अमितशंनवनीतिविवर्जितं जिनमहं प्रणमामि सुशीतलं ॥ १ ॥ दृढरथाख्यकुनागनिनंदनं सुमतिधाम विचद गपुंगवं ॥ बवि विनिर्जितपद्मप्रनं वरं जिनमहं० ॥॥ यमसुपार्श्वविनूषितविग्रहं विशदचंप्रनाननबंधुरं ॥ सुविधिरंजितनव्यजनवजं जिन ॥ ३ ॥ विबुधमोदकशि तलवाग्जरं सकल श्रेयसिकामकुटोपमं ॥ सुवसुपूज्यपदं शिवदायकं जिन॥ ४ ॥ वि मलनीरजपत्रविलोचनं गृहमनतगुणस्य रुपापरं ॥ सदयधर्मप्रवृत्ति प्ररूपकं ॥ जिन ॥ ५॥जगति शांतिविताननिपादकं धृतशमं किल कुस्थमनिंदितं ॥ विगतदो पमरं नविनौनिनं ॥ जिन॥६॥युगकषायजयप्रतिमननं कनकवर्णधरं मुनिसुव्रतं ॥ नमत दानवमानवराजितं ॥ जिन ॥ ७॥ विततधर्मरथांगकनेमिकं निखिलविष्टप पार्श्वमदूषणं ॥ सबलमोहविनाशनवीरकं ॥ जिन ॥ ७॥ इति स्तुतः श्रीजिनशीत लाख्यः स्थितः पुरे रायधनानिधाने ॥ श्रीवीरचंऽस्य मनूकचं नाना विनेयेन वशां श्रिये स्तात् ॥ ए ॥ इति श्रीमहीतलनाथारख्यदशमतीर्थाधिपतेरष्टकं समाप्तम् ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्तोत्र. ॥ अथ श्री कल्याणसागरसूरिकृत माणिक्यस्वामिस्तवनप्रारंनः॥ नमःसिन्यः॥स्त्रग्धराबंदः॥स्वामी माणिक्यपूर्वस्त्रिनुवनतिलकश्चिंतितश्रीसुरादि स्त्रै लोकोद्योतकर्ता प्रथिततरयशा चित्रनाममंत्रः ॥ श्रीमन्नानानिनूपान्वयगगनरवि मंचकल्याणकांती राष्ट्रे सदहिणाख्ये निरुपममहिमा ख्यातिकारिप्रतापः॥ १ ॥ जुत विलंबितलंदः॥ प्रवरधर्मधनार्पणकामगौ रमृतवाग्गुणरंजितनागरः॥रिपुसमूहनिवार सनटो वृषनचिन्हितपादकुशेशयः॥॥ हरिणीबंदः॥ गुनमतिकरश्चादित्याधिको तरनास्वर स्त्रिनुवनमणि विश्वाधारो धरेश्वरकीर्तितः ॥ उपशमरसासक्तस्वांतोप्यनंत चतुष्टयी गुणमणिखनिनटारिष्टामयाधिजराव्यथः ॥ ३ ॥ पंचचामरत्वंदः ॥ अखर्व देहराजितो यतीश्वरो घुणाप्रशीतमानसः कलाधरः ॥ अनेकलब्धिमंडितो तृषाकरः शिवाधिक्षिचंमा नतासुरः ॥४॥ जुजंगप्रयातछंदः॥प्रचारुदेवश्विदाल्दादली नः सदाचारतीलाविलासातिशाली ॥महामोहमातंगपंचास्यकदो हितार्थी कलाशि ल्पविज्ञाननाषी ॥ ५ ॥ मातिनीलंदः॥ जलधिनिनगनीरः सारसारंगघोषो जितविष यविकारो ज्ञानबुद्धिप्रदाता॥ खलसमिरप्टदाकुर्देवदेवाधिराजः समवसरणशोनासिंधु पूरोघमेघः ॥६॥ नारायछंदः ॥ श्वेतातपत्रचामरैर्युक्तो मनोज्ञपुजलैः॥ नव्यांगिराशि वंदितो धर्मार्थमोदसाधकः ॥ ७॥ आर्याबंदः।। देवैयेयो विमलः सुंदरवंशो नृषूसरा त्मापि ॥ मान्यः सतामजलं सदोदयो वरातिशयधरः ॥७॥ गीतिबंदः ॥ त्रैलोक्या वाप्तविनुः समस्तगुणरत्नकलितसाधुमनाः ॥ एनस्तमोनिशेशः सुश्लोकैर्धवलिता श आशादः ॥ ए ॥ नगस्वरूपिणीबंदः ॥ सदार्यमार्गदेशको प्यमेयनाग्यधारकः ॥ प्रनूतसत्वपालको विवेकनीतिकारकः॥१०॥ माणवकलंदः॥ कुखहरो नाकिनुत स्त्य क्तमहादोषनरः ॥ पारगतस्तीर्थकरः शीलशाली झानधनः ॥११॥ तोटकबंदः॥ कम लाननमोहितसन्यजनः समयार्थनिरूपणरम्यसुधीः ॥ नृशिलीमुखखेलनतामरसः पु रुषोत्तमपुरयनिधिर्वरदः ॥ १२ ॥ मणिमध्यवंदः॥ सदएणपतया सारतनु निजितमा यालोनकलिः ॥ आहतसाध्वाचाररतिः सादरदेवाधीशपतिः ॥ १३ ॥ चंपकमालाड दः॥ केवलयुग्मालोकितलोका लोकविजागः संयमिसेव्यः ॥ इंघियबाणानेदितचेता श्चंपकमालामंडितगात्रः॥१४॥ हंसीबंदः॥ प्राप्तानंदो जुवनमुकुट स्तीर्थस्वामी विस्तृत नयनः ॥ सश्रीकात्मा सुरुतनिलयो योगीशे वै विजितकपटः ॥ १५ ॥ शालिनी दः॥ आदेयाख्यो मुक्तिजस्फारसौख्यो विश्वोत्तंसो उष्टकर्मारिहंता ॥ चक्रेश्वर्याराधितो गोमुखेशः कांताकारश्चोप्तधर्माधिकारः॥१६॥ केकीरवहंदः॥जगतीशपूज्यो जयताकि १३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. नेशः कुशलार्थवनोततिवारिधारः ॥ विशदावदातावलिचित्तनामा नववादिपोतः कु लपाकनाथः ॥१७॥ कुलकं।इंश्वनाबंदः।।एवं मया संस्तुत आदिदेवो नूयात् सदा संघगणस्य नूत्यै ॥ देमंकरो विश्वजगत्सुदीपः कल्याणमांगल्यकलापकोशः॥ १७ ॥ ॥अथ सूर्यपुरीयश्रीसंनवजिनस्तवनप्रारंनः॥ वसंततिलकाबंदः ॥ कामं नमोऽस्तु सततं जिनसंनवाय चंशननाय कमलामल लोचनाय ॥ देहप्रनास्थगितलोकचमत्कराय उर्थ्यानपादपविजेदनसिंधुराय ॥ १ ॥ देवैः स्तुताय नवसागरपारगाय कीर्तिप्रसूनसुरनीकतविष्टपाय ॥ सन्मूर्तिकांतिततिरं जितमानवाय सेनांगकुदिवरगुक्तिकमौक्तिकाय ॥ २॥अब्जोपमाय जिनशासनदीप काय सूर्याख्यबंदरमनोरममंडनाय ॥ जव्याब्जकाननविनासननास्कराय नानार्थ दानहरिचंदनसन्निनाय॥३॥आदेयनामकलिताय गुनाशयाय सिध्यंगनामिलनसादर लोलुपाय ॥राक्षांतहाईकथनोत्तरकोविदाय तेजःप्रनावयशसामवनीश्वराय ॥ ४ ॥ अज्ञानमोहनयसंज्वरजेषजाय सौनाग्यनाग्यगुणरत्नकरंडकाय ॥ अष्टापदानतनुव र्णविराजिताय निर्लोनहंसरतिखेलनमानसाय ॥५॥ श्राव्हानमंत्रविनिवारितपातका य कल्याणसागरतरंगकलाधराय ॥ उष्टारिचालवणांबुधरोपमाय वाचासुधाश्रवणह र्षितनागराय॥ ६ ॥ समर्ममार्गविधिदेशनदेशिकाय दुःखौघवारणमृगेंऽपराकमाय॥ लोकातिशायिमहिमाचलनूषणाये गंधर्वलंबनसुशोनितपत्कजाय॥७॥ सस्यौघक्षिक रणाय जितेंडियाय शुक्षान्वयोन्नतिकराय कपालयाय॥मिथ्यात्वतापशशिचंदनपादपा य पुष्कर्मवायुचुजगाय नरार्चिताय॥॥ संकल्पकल्पनविवर्जितमानसाय गांनीर्यधै | र्यमणिसंनवरोहणाय ॥सज्ञानबुदिघरदाय गुणाकराय कौशल्यवदिनपरिवईनमंडपा य ॥ ए ॥ इंश्वंशाबंदः ॥ स्तोत्रं चतुर्युतविनक्तिसंयुतं ध्यायति ये संनवदेवरागि गः ॥ तिष्ठंति तदानि गुनाः समृक्ष्यः कल्याणसंपादनकामधेनवः ॥ १० ॥ शा दूलविक्रीडितहंदः॥ लक्ष्मीकेलिगृहं सदावलिनतं श्रीसंनवाख्यं जिनं सन्मार्तडपुरा मजाचलवरोमोपे नवाब्धौ तटं। देवाधीशनरेशशेषपटलैः संसेवितं कामहं मुक्तिस्त्री सुखरंगलोनमनिशं सेवे मुदा सिक्ष्ये ॥११॥ ॥अथ श्रीसुविधिजिनस्तवनप्रारंनः॥ द्रुतविलंबितछंदः ।। सुविधिनायजिनं नयनामृतं सुविधिनायजिनं महिमालयं॥ सुविधिनाथ जिनं नररंजनं सुविधिनाथजिनं वरकेवलं ॥ १ ॥ सुविधिनाथजिनं कम लाकर सुविधिनाथजिनं नवदं परं ॥ सुविधिनाथ जिनं ह्यतिकीर्तिदं सुविधिनायजिनं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. हम - सुविधिप्रदं ॥ २ ॥ सुविधिनाथजिनं रजतमवि सुविधिनाजिनं जडताप ॥ सुवि धिनायजिनं मकरांकितंसुविधिनाथ जिनं जगदंचितं ॥ ३ ॥ सुविधिनाथजिनं रजता हितं सुविधिनाथ जिनं परमेश्वरं ॥ सुविधिनाथ जिनं श्रुतसूरिणं सुविधिनाथजिनं शि वपारगं ॥ ४ ॥ सुविधिनाजिनं गुनदर्शनं सुविधिनाथ जिनं जनतानतं ॥सुविधिना थजिनं वरदं विउँ सुविधिनाथ जिनं नमितासुरं ॥ ५ ॥ अनुष्टुप्लंदः ॥ सितेतरपुरा धीशः सुविधिर्नवमो जिनः ॥ संघस्य सुखदो नूयात् कल्याणसूरिणा स्तुतः ॥६॥ ॥अथ श्रीशांतिनाथजिनस्तवनप्रारंनः ॥ पुतविलंबितवंदः॥सकलदेवनरेश्वरवंदितं विबुधमानवसंस्तुतपूजित।कमललोचनरंजि तनागरं नविकपातकतामसनास्करं॥१॥ निखिलवांबितदानसुरागमं विदितशास्त्रविचा रनयागम।कतिनकर्मदवानलनीरदं परमशांतिरदामृतशांतिदं॥॥विविधलक्षणरंजित संचरं सुविधिमार्गप्रकाशनतत्परं॥चपलमत्तमतंगजगामिनं कमलकोमलमांसलपाणि नं॥३॥ दलितदनमहाधतिविग्रहं विहितमोहमहाबलिनिग्रहं॥ दृढपरीषहवायुनुजंग मं किल गुनंयुमनीष्टसमागमं ॥ ४ ॥ नविचकोरसुखाय कलानिधि विनयधैर्यगुणो त्करशेवधिं ॥ मुनिषडंन्दिनिवासकुशेशयं विधुसुधामधुसारतराशयं ॥ ५ ॥ कुसुमस निनदंतविराजितं सुनगनाग्यसुखाकरशोजितं ॥ निजजाबलसाधितराष्टकं जित विपदगणं नतराजकं ॥ ६ ॥ कुशलकेलिविलासनुवं परं विशदकीर्तिविका शिदिगंत रंगकुमतसिंधुर सिंधुरवैरिणं सुमतिकामितसजतिकारणं ॥७॥ वरसुवर्णसवर्णसुवर्ण जितहषीकमधर्मनिवारकं ॥ हरिणसे वितपादकजं जिनं हितकरं स्तुतनिरसऊ नं ॥ ॥ प्रवरवार्षिकदानगुणैर्वरं हतदारिश्परं परमेश्वरं ॥ समधरीकतमेरुसुरमैः प्रचुरसर्वगुणादधिकोत्तमैः ॥ ५ ॥ विकटर्जयमन्मथशंकरं जनकलापिघनं विगतो तरं ॥ लपननिर्जितचंमसं नृशं विगतदोषकलिं च महौजसं ॥ १० ॥ अशिवविघ्न घनाघनमारुतं विषयतापवशं जनतामतं ॥ शिववधूपरिरंनणसोलुपं विमलकेवलि साधुकुलाधिपं ॥ ११ ॥ जजत शांतिजिनं तु शिवंकरं कुशलसागरवृद्धिकलाधरं ॥थ तुलरूपवशीकृतमानवं प्रणतसादरकिन्नरदानवं ॥ १२॥ दादशनिः कुलकम् ॥ मा लिनोलंदः।।नुवननलिननानोः शांतिदेवस्य न नवजलनिधिसेतो ईखदारिश्यहर्नुः॥ निजहृदयविशुझ्या स्तोत्रमेतत्पठति प्रतिदिनमपि ये ते संपदः प्राप्नुवंति ॥१३॥ ॥अथ श्रीशांतिजिनस्तवनप्रारंनः॥ स्रग्धराबंदः ॥ दद्याद्रीशांतिदेवो.वरकनकतनुः सारसौख्यानि शवभक्तानां नक्ति Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० स्तोत्र. नाजा त्रिभुवननगरे स्फारकोटीरहीरः ॥ चार्वाकारेः प्रणेता प्रणतहितकरः काम दो मारिवारः सर्वज्ञाख्यातनामा प्रकटितमदिमा प्राप्तकर्मारिपारः १ ॥ तोटकहंदः॥ सुरमानवपूजितपाणिकजः कमलोदयकारकधर्मधनः ॥ विगतामयदूषणजन्मततिः गुनसागरसोमनिनो विमलः ॥ ॥ इति प्रथमांतविनक्तिकाव्य युग्मं ॥ नुजंगप्रयात चंदः ॥ अजय्यं विलु विश्वपूज्यं प्रसन्नं जिनं सत्प्रनं शंकरं देवदेवं ॥ सदाझानव हनीतती मेघमेकं स्तुवे शांतिनाथं कलौ कामकुंन॥३॥ हरिणीबंदः॥ कमलवदनं प्रा तानंदं नताशुनचंचतं गजपतिगतिं विश्वाधारं सुरेश्वरवंदित।सदयहृदयं त्यक्तातकं वि निर्जितशोचनं परमपददं ज्ञातार्थोघं त्रिकालविदंचितं ॥ ४ ॥ इंश्वंशाबंदः ॥ अर्च ति देवा नवपारगं जिनं कल्याणकारं मुंनियंदसेवितं ॥ त्रादिसनवालदितं कि तावानंदसंदोहकरं सुधामयं ॥ ५ ॥ इति वितीयांतविनक्तिकाव्यत्रिकं ॥ शालिनी वः॥ प्राज्यं राज्यं चक्रवर्तित्वसंगं त्यक्त्वा दत्वा स्वर्णरूप्यादिदान।श्रुत्वा वाक्यं ब्रह्म लोकांतिकानां येनावाप्तं संयमं मुक्तियोग्यं ॥ ६ ॥ द्रुतविलंबितहंदः ॥अमितपुण्य वता जनतावता कुगतिवारणतत्परसजिरा ॥ नतनरामर किन्नरशालिना जगवता अवि शर्म विधायिना॥७॥इति तृतीयांतविनक्तिकाव्य क्ष्य।इंश्वचाबंदः॥श्रीशांतिदेवाय नमोऽस्तु नेत्रे विघ्नौयह शिवमार्गदात्रे ॥ चक्रांकहस्ताय समस्तनत्रै शंखेंऽदारोज्ज्व सशक्तकः ॥ ७ ॥रयोक्ताबंदः ॥ दर्शनामृतनिलीनजंतवे विश्वशास्त्रनयनीतिहेत वेलोनसागरसुवेलसेतवे वापरावलितमित्रनानवे गए। इति चतुर्थी विनक्तिकाव्ययु ग्मं ॥ उपेंश्वबाबंदः ॥ थधानि नश्यंति पुराकतानि प्रशस्तनाम्नातिशयप्रसत्तेः ॥ अनेकसंसारनिबंधितानि प्रगाढबंधस्थितिसंचितानि ॥ १०॥ मालिनीबंदः ॥ नव ति सुखमनंतं शांतिनाथप्रसादाहरिणशरणदातुर्विश्वसेनांगजातात् ॥ नतनविकज नानां प्रीतिराजाप्रकामं निरवधिजिनरागे लग्रसन्मानसानां ॥ ११ ॥ इति पंचम्यं तविनक्तिकाव्यक्ष्यं ॥ शिखरिणीबंदः ॥ सदा ध्यानं शांतेरखिलगुणधानः शुनवतो धरति श्रीकारं सुमतिमतिकारं नयहरं ॥ नरा नव्याः शक्त्या विगतमदतंज्ञः श्रुतप रास्त्रिसंध्यं सयानं प्रबलतरनाग्योदयमतः ॥१२॥ विद्युन्मालाबंदः॥ शांतेः शांतेः पाद६६ नवा नवा सश्रीकाः स्युः। नोनोः श्राक्षाआयुष्मंतस्तुष्टयानंदं कृत्वा कृत्वा॥ १३ ॥ इति षष्टीविनक्तिकाव्यदिकं ॥ वसंततिलकाबंदः ॥ चेतोस्ति चेनवपयोनिधि पारमाप्त तीर्थकरे जिनपतौ किल शांतिदेवे ॥ नक्तिं कुरुष्व सततं विपुलामुदारां हत्या प्रमादमपि कर्मविशेषजन्यं ॥ १४ ॥ दोधकचंदः ॥ऊर्गतिसागरपीतसमुनि चलसंयमपालनमेरो ॥ शारदाक्षसुधाकरवकं शंखसमाननिरंजनचिते ॥ १५॥ ना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. राचछंदः ॥ कारुण्यरंगरंजिते कार्पस्यदोषवर्जिते ॥ देवाधिपेऽचिरासुते लोकोपकारक मठे ॥ १६ ॥ इति सप्तमीविनक्तिकाव्य त्रिकं ॥ वंशस्थबंदः ॥ स्वकीयवंशांबरनास्कर प्रनो विशालगंगाजलशुनकीर्ते ॥ अपारसंसारनयाच सत्वरं रूपापरस्त्वं परिरह सेवकान् ॥ १७ ॥ इति संबोधनविनक्तिकाव्यमेकं ॥ मंदाक्रांताबंदः ॥ कल्याणोक्तं कुशलजननं सर्वसंघस्य नित्यं नानावृत्तैः प्रकलितमिदं स्तोत्रमेतत्रिकाल।मुक्त्वाऽऽल स्यं नाति मनुजो नाविनानावितात्मा गेहे लक्ष्मीनवति दृढता तस्य दीर्घायुष श्व ॥ १७॥ शार्दूलविक्रीडितबंदः॥ कल्याणोदधिवनं कलिहरं कौशव्यमालास्पदं सौनाग्योधकरं विनक्तिकलितं कायैर्विनिनः परं ॥ श्रीशांतेः स्तवनं पति नविनः सत्पुल्यपल्यालयास्तेषां धानि शुने निवासमतुलाः कुबैति संपत्तयः ॥ १५ ॥ ॥ अथ श्रीअंतरिक्षपार्श्वस्तवनप्रारंनः॥ वजाबंदः॥विश्वेश्वरं विश्वजनेशपूज्यं सर्वार्थ निष्पादनकामकुंन। प्रख्यातिमंत महिमोघलदम्या पार्श्व नजे संस्थितमंतरिदे ॥१॥ कल्याणमालागृहमंगिदेव विद्या धराधीशनुतांन्हिपद्मं ॥ सर्वत्र राष्ट्रेषु विशालकीर्ति पार्श्व॥॥ रोगाधिचिंतार्तिसमू हतापनैषज्यमाचारविचारसूरि ॥ सन्नीलरत्ननविनूषितांगं पार्श्व०॥३॥ संसारसिंधौ वरयानपात्रं मुक्यंगनासक्तहदं शरस्यं ॥ वामांगजातं जगतीप्रदीपं पार्श्व०॥४॥ श्री पार्श्वयाधिपमहितोयं श्रीशालिनं सेरपुरावर्तसं ॥ वाचासुधाकर्षितसन्यलोकं पा ० ॥ ५ ॥ त्रैलोक्यकोटीरमनाथनाथं दारिद्र्यवाताहिमनंतशक्तिं ॥ शास्त्रार्थनैपु स्यनिधि दयालु पार्श्व० ॥६॥ पद्मावतीसेवितपादयुग्म मंहोनरध्वांतदिनेशमाशु॥ लावस्यसोनाग्ययशोनिराढ्यं पार्व० ॥ ७ ॥ ज्ञानादिधर्माचरणं वरेस्यं सहोधदाना || दिकमार्गपाथं यानंदवनीततिवारिधारं पाच ॥ ७ ॥ कलशः ॥ स्त्रग्धराबंदः इत्थं ये देववंद्यं विविधसुखकरं चांतरिकाख्यपाच नित्यं ध्यायति नक्त्या हृदयरति युजो नाग्यवंतो नरोपि ॥लक्ष्मीस्तेषां निकाय्ये वसति दृढतया सर्वदा कामकी क व्याणश्रेणिक नुवि विदिततरा सर्वसंपत्तिकांता ॥॥ ॥ अथ श्रीगौमिकपार्थाष्टकप्रारंनः ॥ शार्दूलविक्रीडितबंदावामेयं मरुदेशनूषणतरंश्रीपार्श्वयार्चित कल्याणावलिवहिन सिंचनपनं श्रीक्ष्वाकुवंशोमवाबाराष्ट्रसमागतैर्नरवरैः संसेवितं नित्यशः श्रीमतीकर गौडिकानिधधरं पार्श्व सुपार्श्व नजे॥१॥नानासाधुजनौघपंकजवने माडबिंबायिक वि प्रव्यूह निवारकं कलियुगे प्राप्तप्रतापालयं॥ विश्वस्यां प्रपितावदाननिकर निर्दोषपुल्लो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ स्तोत्र. - ज्वलं श्रीमती॥॥संपाणिसुदानकामकलशं त्रैलोक्यचिंतामणिं समाचामृतरंजि | तामरनरं समर्मबोधप्रदं ॥ सौनाग्यानुतकांतकीर्तियशसा संपूरिताशांतरं श्रीम ही० ॥३॥ मार्गे चांतरनीतिवारिनिचिते देमंकरं सर्वदा दारिद्याशिनिपातनात्तकुति शं चिंतातिरोगापहं ॥ उरवत्राससमीरणौषनुजगं नागांकमंहोमथं श्रीमती॥ ४ ॥ कारुण्यांचितचारुचित्तकमलं सत्वेषु संसारिषु सर्वैर्यादिगुणैरसंस्ततनुं लावस्यलीला स्पदं ॥ संसारार्णवपीतवारिधिसमं मुक्त्यंगनावन्ननं श्रीमती० ॥ ५ ॥ त्रैलोक्ये ति |लकायितं निरुपमं नव्यैर्न निः पूजितं पुष्टानां निजसत्वदर्शनपरं क्षिप्रं सतां कामदं॥ नाना ध्वस्तसमस्तवैरिनिचयं राक्षांतनिर्देशक श्रीमती० ॥ ६ ॥ नूयिष्टामलनक्ति शक्तिकलितैर्देवैश्वतुर्दा नतं सर्वाशाकरणैककल्पफलदं सर्वागिचूडामणिं ॥ शिष्टानं तचतुष्टयीवरतरं श्रीमेरुतुंगं जिनं श्रीमती० ॥ ७ ॥ स्फाराकारनिराजितांगमतुलं स वस्यहेमाकरं विश्वव्याप्ततरं प्रवाससदनं गंनीरतासागरं ॥ नासोद्योतितविश्वविश्वम वनौ कल्याणसिंधौ विधुं श्रीमती० ॥ ॥ अष्टनिः कुलकं ॥ अनुष्टुपलंदः । निन्न माले सदाश्रेष्ठे गुणवब्दनूषिते।पुष्पमालेऽतरानिये नेकवीहारसंयुते ॥ ५ ॥ श्री मतः पार्श्वनाथस्य स्तवनं जगतोऽवन।कल्याणसागराधीशैः सूरिनी रचितं मुदा॥१०॥ ॥स्त्रग्धराबंदः ॥ ध्येयं श्रीपार्श्वदेवं नजत किल जना गोमिकग्रामराजं शश्वत्सर्वार्थ सिक्ष्यै विहितगुनहितं विष्टपे चैत्रपूर्वे।सानंदोबासलष्टाः कुशलगविबुधाः सर्वलोके विशिष्टानिर्दोषाचारपुष्टा जिनपपतिषु रता प्राप्तकल्याणतुष्टाः ॥ ११ ॥ ॥ अथ श्रीगोमीपार्श्वनाथस्तवनप्रारंनः॥ मालिनीबंदः॥जयति जगति चंद्रः पार्श्वनामा जिनेंशे विकचकमलदृष्ट्या नंदिताम य॑मर्त्यः ।। अकलितमहिमाघस्तोर्णसंसारसिंधुर्नुजगकलितपादः पुण्यपीयूषपुष्टः॥१ स्रग्धराबंदः॥ श्रीपार्श्व गोडिकाख्यं नजत नविगणे कल्पदं सुगोत्रं नानादेशेषु ल ब्धातिशयमहितताव्यूहवारं सुमूर्ति ॥श्रीमंतं नीलरत्नाधिकतरवपुषं स्फारलावण्यशा लं मोहानोरा शिकुंनोनवममरनुतं पार्श्वयदार्चितांहिं ॥२॥ पंचचामरबंदः ॥नमं ति पाचमंगिनो नरालसा धृतातपत्रचामरैः सुरैः स्तुतं ॥ अनंतशक्तिमालिनं गतामयं विवेकरत्नरोहणं दयाकरं ॥२॥ वसंततिलकाबंदः॥ करीकृतं व्रतमनुत्तरमंगिनेत्रा द त्वा ऽशु येन वरवार्षिकदानराशिं ॥वामोहेन मुनिनायकनायकेन कल्याणकेलिनि लयेन शुनाशयेन ॥ ४ ॥ जुतविलंबितहंदः॥ मम नमोस्त्ववते परमात्मने नगवते शिवशर्म विधायिने ॥ अमितशौर्यतिरस्कृतमेरवे गुनदशेरकमंडलमौलये॥॥ हरि Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. - णीबंदः॥ अमृतरसताधिक्यानाष्टान्नरोत्तमसंगतानुवनसुनगात्पाङनिख्याधिनश्यति पातकं ॥ प्रसरति च वै कीर्तिर्दि कु प्रसूनवउज्वला प्रनवति पुनः शीघ्र लीलाजयो नतिवईनं ॥६॥ शादूलविक्रीडितहंदः ॥ आकृत्या नरदेवदेवमनुषां संतुष्टिकर्तुस्सदा चेतोवननकामसार्थददतः कर्मारिहर्तुनृशं ॥ आनंदौघसरःप्रवृद्धिकरणे पानीयदा तुर्मुदा पार्श्वस्यास्ति नतिः समृदिजननी कल्याण विस्तारिणी॥७॥तोटकलंदः।नरल कणनूषितवन्युपुरे मुखनीरजरंजित विश्वजने॥श्रुतदेशनदर्शितधर्मपथे जिननेतरिति पति नाग्यरमा॥णानुजंगप्रयातबंदः॥ सुराधीशचकैः स्तुत ज्ञानसिंधो जगन्नाथ नेतः कपालोकबंधो ॥ विनो पाहि मां सर्वदा नक्तिनाज स्मरं तं चिरं त्वत्पदांनोजनूंगं ॥ ए॥ शार्दूलविक्रीडतबंदः ॥ स्तोत्रं पार्वजिनेश्वरस्य सततं ये प्राणिनो ना वतः सहचापि पति हृद्यमनसस्तेषां गृहे संपदः ॥ स्युर्नित्यं स्थिरनावशोन नतरा धर्मार्थ निष्पादिकाः कल्याणार्णवसूरिनिर्विरचितं मांगल्यमालाकरं ॥१॥ शिखरिणीबंदः।। सदा धाय॑ चिते स्तवनमनवयं नयहरं नरैनूनं सिधै कुशलवन राजौ घननिनं ॥ अवंध्यं नक्तानां जिनगुणरतानां स्मृतिमतां समेषां नव्यानां प्रमु दकरणं कामितकरं ॥ १२ ॥ ॥ अथ श्रीदादापार्श्वनाथस्तवनप्रारंनः॥ ॥ श्वजाबंदः ॥ कल्याणगेहं गुणरत्नराजं सहेहकात्याजितनीलरत्नं ॥स्तोष्ये मुदाशंकरमंगिवंद्यं दादानिधं श्रीवरपार्श्वनाथं ॥ १ ॥ समर्मलीनाशयमाशु विज्ञ काष्टदावानलवारिधारं ॥ संसारपायोनिधिकर्णधारं दादा० ॥ ॥ आचारव नीततिधिनोरं सत्कीर्तिपुष्पतवासिताशं ॥ नानार्थराज्ञांतविचारददं दाद ॥ ॥ ३ ॥ वैराग्यरंगार्पितचारुचित्तं सदोधिदातारमनीहसेव्यं ॥ नागेंइसंसेवि तपादपद्मं दादा० ॥ ४ ॥त्रैलोक्यचूडामणिमृदिशोनं सौनाग्यनाग्यावलिपूर्ण देहं ॥ नव्यौघराजीवदिनेशमेकं ॥ दादा ॥ ५ ॥ सर्वांगिनेतारमनीष्टवाचं विश्वे श्वरं रंजितसन्यलोकं ॥ लोकार्त्तिचिंतानयकुःखवारं दादा० ॥६॥ हृद्यारुतिं कृत्तजरा घिदोषं नरामरें; स्तुतमर्त्यसंघ ॥ सन्नागचिन्हं कुशलार्थकारं दादा० ॥७॥ सर्वत्र वि ख्याततरप्रतापं कारुण्यसत्रं वि शिष्टगोत्रं ॥ अज्ञानमिष्यात्वतमिस्रदीपं दादा ॥ ॥ अष्टनिः कुलकं ॥ शार्दूलविक्रीडितबंदः ॥ श्रीमतीवटपश्ननगरे शृंगार हारोपमं कल्याणांबुजनानुचंड्मसमं वामांगजातं परं ॥ दादाख्यं जिनपावदेवमन घं ध्यायति ये नित्यशस्तेषां धानि रमा निवासमनिशं कुर्वति कल्याणतः ॥ ए॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ स्तोत्र.. ॥ अथ श्रीकलिकुंडपार्थाष्टकप्रारंभः॥ ॥ विबुधादिराजैनतपादपद्मं बदुलाग्यसौनाग्यलतौघमेघ ॥ कमठोपसर्गाचल धैर्यनिति कलिकुंमपार्श्व सुचिरं नजेऽहं ॥ १ ॥ कमलाप्रदाने हरिचंदनांगं सपयोधिदेशानुतलब्धकीर्ति ॥ रुचिरारुतौ रंजितविश्वविश्वं कलिकुंम० ॥ ५ ॥ महिमावदातोत्तमनाममंत्रं समतानिरामं कमलानिनेत्रं ॥ अनिलाषदं सिद्धि विलासयंत्रं कति ॥ ३ ॥ उरितांधकारारुणसन्निकाशं करुणाशयं उखवने पु दावं ॥ नरदेवपूज्यं सुखदं सुमूर्ति कलि० ॥ ४ ॥ कनकादिदातारमनंतशक्तिं वरनीलरत्नाधिकदेहवर्ण ॥ शिवशर्मराज जनतानिवंद्य कति ॥ ५ ॥ अनघं सदा सजुणकेलिपालं गुनलणालंकतवर्यगात्रं ॥ कुलनूषणं शत्रुतणौधदात्रं कलिन ॥ ६ ॥ जगतीश्वरं कर्मविमुक्तसंगं विषमायुधालग्नमनःस्वरूपं ॥ धरणेपार्श्वार्चित पादयुग्मं कलि ॥ ७॥ शुनसिंधुतौ शशिनं वरेण्यं वचसा सुधानेन सहर्षस न्यं ॥ श्रुतसूरिणं पुस्य विराजमानं कलि ॥७॥ अष्टनिः कुलकं ॥ इंश्ववादः॥ | एवं स्तुतः श्रीकलिकुंडपावः कल्याणनाना मयका नितांत॥ ये प्राणिनः स्तोत्रमिदं पति तमानि लक्मीविलसत्यवश्यं ॥ ५ ॥ ॥ अथ श्रीरावणपाचीष्टकप्रारंनः॥ ॥ श्वनाबंदः ॥ देवाधिदेवं कृतपार्श्वसेवं नागाधिराजेन नतान्हिपद्मं ॥ पद्मावतीसंस्तुतनामधेयं सेवे सदा रावणपार्श्वनाथं ॥ १ ॥आनंदकंदोदय वधिमे मेघध्वनिध्वानविशेषराज ॥ जितारिद्वंदं विगताधिमोहं सेवे ॥ २ ॥ वामांगजातं कुलनंदिकारं ध्वस्तोपसर्गोत्कटकुष्टरोगं ॥ प्रख्यातिमंतं नुवने प्रना वैः सेवे॥ ३ ॥ सन्नीलनासा हसितेंड्नीलं सत्कांतकांत्या रमणीयरूपं ॥प्रावीम्यना नातिशयैः प्रधान सेवे० ॥ ४ ॥ संजीतिहारमंनतसौरव्यं विश्वेश्वरं द्योतितविश्व लोकं ॥ पद्मार्थदाने सुररत्नदं सेवे ॥ ५ ॥ अज्ञानमिथ्यात्वतमिस्रनानुं नामं मलालंरुतमौलिष्टष्ठं ॥ वाणीसुधामोदितसन्यसंघ सेवे० ॥६॥ कौशल्यमांगव्यनिवा सगेहं पूर्णीरूतानीष्टपदार्थराशिं त्रैलोक्यदीपं वरसिदिनाज सेवे० ॥ ७ ॥ संसार रत्नाकरयानपात्रं निःशेषदोपोशितधर्ममार्ग॥थादेयसौनाग्ययशःसुपात्रं सेवे॥॥ अष्टभिः कुलकंमालिनीबंदः ॥ अलवरपुररत्नं रावणं पार्श्वदेवं प्रणतनसमुई कामदं देवदेवं ॥ अमितगुणनिधाना ये नरः संस्तुति जगति विदितसारा ना ग्यवंतो नवंति ॥ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ अथ श्री गोडीपुरपार्श्वजिनस्तवनप्रारंभः ॥ रागेणगीयते।गौडिपुरप्रनुपाइर्वममंदं दर्शनदर्शनपरमानंद नमितसुरासुरवृंद॥१॥ श्रीजिनशासनचारुशंगारं अंतरंगरिपुवृक्षकुठारं सकलजगदाधारं। शानिरुपमरूपविरा जितदेहं विदलितनानाजनसंदेहं अमितगुणधनगेहं॥३॥ऽरितकाननदनदात्रं रुचि रलक्षणविनूषितगात्रं वारितकुमतकुपात्रं ॥४॥ धनघजिनवरगोत्रसुगोत्रं कामकुंनम | णिनिर्जरगोत्रं संयमदृढतागोत्रं ॥५॥दितनवनयमरणारिष्टं प्रकटितमहिमातिशयव | रिष्ठं जगदैश्वर्यगरिष्ठं ॥६॥ विहिताखिलनविजनकल्याणं पालितयथारल्यातकल्याणं दत्समार्गकल्याणं ॥ ७ ॥ श्राधिबंधवधगदर्तारं वांजितकुशलसौख्यकर्तारं नुव नत्रयनारं ॥ ॥ विकटकष्ट निवारणशूरं बागमनयप्रकाशनसूरं नारतीगंगापू रं ॥ ए ॥ धृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मीगण विश्वं केवलयुगलालोकितविश्वं प्राप्तजनेप्सित विश्वं ॥१०॥सेवकमनोनीष्टदातारं रंजितदेवनरनेतारं यनुनूतकुलत्रातारं ॥ ११॥ इंश्नीलमणिवर्णसुवर्ण निखिलदेशविख्यातसुवर्ण वाक्सुधासारसुवर्ण ॥ १२ ॥ मु क्तिसीमंतिनीसंगमलुब्धं चंचल विषयसुखसंगालुब्धं कर्मपरा विप्रलुब्धं ॥१३॥ वंदि तामरमौलिकुटीरं विषमकषायदवानलनीरं उत्कटपरीषहधीरं ॥१४॥ अंचलगानी रधिसारंग कीर्तिलतावईनसारंगं उर्जनशलनसारंगं ॥ १५॥ वंदेऽनंतचतुष्टयिराज पूजितसुरपतिमानवराज प्रवरतीर्थाधिराजं ॥१६॥षोडशनिः कुलकं। शिवतातिपार्व वरदवरपार्व मोहतमिस्त्रसवितारं नागराजराज त्रिनुवनपूज्यं लब्धनवोदधिपारं ॥ शुजसागरनित्यप्रथितगरिमाणं ये ध्यायंति विनुं मुदा लक्ष्मीस्तान् समुपैति सखर मतुला सर्वार्थसिक्षिप्रदा ॥ १७ ॥ ॥ अथ श्रीपार्श्वजिनस्तवनप्रारंनः ॥ तोटकईदः ॥ नविकांबुजनासननानुनिनं नवतापसमावनवारिधरं ॥रचितागम शास्त्रविचारनयं जय मंगलकीर्तियशोनिचयं ॥ १ ॥ कमलामलकेलिगृहं विमलं लसदाशयमुसितसंतमसं ॥ शुनसागरवईनचंमसं सकलामरपूजितपादकजं ॥२॥ विकटोत्कटकर्ममृगेनरिपुं खगनागनरेश्वरदेवनतं ॥ तरसा जितमोहरिपुं विनयं | यमसंवरसंहितसाधुहितं ॥ ३ ॥ शुनलालक्तिहस्तयुगं गजराजगति गतविघ्न रुज ॥ जडतामयनेषजमीशवरं दशनद्युतियोतितचारुमुखं ॥४॥ कनकाचलधीरम जीष्टतरं रसनारसरंजितसर्वसनं ।।नुवनत्रयमंडलमोघतरं रुचिराकतिमोहितदेवजनं ॥॥अरिहंतमनुत्तरतीर्थकरं रचितं वरबुध्धिनं जिनपं ॥पुरुषोत्तममस्मरमर्थनिधिं धू - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ स्तोत्र. |तिकांतिनिकेतन मंगिनुतं ॥ ६ ॥ निजवंशवतंसकमार्तिहरं रवनिर्जितमेघनदं शिवदं । । दयितं वि विश्वजनीनतमं नतनूतगणं जितलोननटं ॥ ७ ॥ शरणाश्रितपालकमु तिपदं दधतं वरशांतरसं नवमं ॥ महसें मणिप्रनदेहधरं धरणें निषेवितपार्श्वयुगं ॥८॥ श्रममं नुतपाइर्वजिनं सततं तपसा हृतसिद्ध मनंतबलं ॥ जलनाजन संग विरक्त मलं मलवर्जितमुत्तर सौख्यधरं ||नवनिः कुलकं ॥ सुरराज खेचरनाग पुरंदरधर गिरा जसु सेवितं श्री पार्श्वजिनेश्वरं नमित सुरेश्वरपद्मावती संस्तुतं ॥ येऽनंतनतया विशुद्धश तया संस्तुवंति जिनं मुदा युनसागरपठनाद्भविकरमासमेतं ते लनंति सुखं सदा ॥ १० ॥ ॥ अथ श्रीमदुरपार्श्वाष्टकप्रारंभः ॥ द्रुतविलंबितछंदः ॥ विबुधमानवमानसनंदनं विभवदानविधौ हरिचंदनं ॥ नि खिलसन्यजनैः कृतवंदनं नजत पार्श्वजिनं मदुरानिधं ॥ १ ॥ युगल कौशिकसा म्यतराशयं भुवननानुनिवासघनाश्रयं ॥ विषयवार केसरिसन्निनं नजत ० ॥ ॥ रुकोटिविजाधिकनास्वरं कुमुदबांधवशुतराननं ॥ वरगनीरगुणोत्तमसागरं नजत ० || ३ || नविकपद्मविनासननास्करं जगति जावप्रकाशनदीपकं ॥ नयनपाठव पावनतंत्रकं नजत ० ||४|| रचितकामतवारिद संचयैर खिजधैर्यसमन्वित चेतसं ॥ विकट कर्मसमोर जोगिनं जजत० ॥ ५ ॥ कमवनिर्मित पांशुकदंब कैः स्थिरतरोत्कटनाव विराजितं ॥ जगति डुजेनसर्पविषापहं नजत ० ॥ ६ ॥ प्रशमनूषणभूषणनूघनं सुनग नाग्यगुणाव निमंदिरं ॥ धवलकीर्तियशोंबरघासितं नजत ० ॥ ७ ॥ सकल संघसमीहि तक कं निचितविनपराजवहर्तृकं ॥ अतिशयाद्भुतचारुचरित्रकं नजत० ॥ ८ ॥ हरि एपी बंदः ॥ महुर जिनपं नित्यं वंदे शिवोदधिवर्द्धनं शशिनमनिशं किएवध्वांते दिनेश महोदयं ॥ स्तवननणने चिताल्हादेः कृतादरसेवके विविधधनदं विश्वे विश्वे जिनेश नतानने || || द्रुतविलंबित बंदः ॥ मदुरपार्व जिनेश्वरसंस्तवं पठति यः सुधियोषसि नित्यशः ॥ वसति तस्य गृहे कमला ऽखिला स्थिरतरासुमतां वरदायिनी ॥ १० ॥ ॥ अथ सत्यपरीय श्रीमदावीरस्तवनप्रारंभः ॥ द्रुतविलंबितछंदः ॥ त्वमसि सगुणनंदन मंदरस्त्वम सिमेरुल ताव निमंमपः ॥ त्वमसि खेचरना किनरस्तुतस्त्वमसि रूपवशीकृत विष्टपः ॥ १ ॥ त्वमसि योगिजनी शिरोमस्त्विमसि कांतिविकाशित दिग्गणः ॥ त्वमसि नापितरंजितनागर स्त्वम सिसिद्धिवशारतिमोहितः ॥ २ ॥ त्वमसि नङ्करः करुणालयस्त्वमसि नक्तचकोर निशाकरः ॥ त्वमसि दर्शन हर्षितमान वस्त्वमसि संसृतिसागरपोतकः ॥ ३ ॥ त्वमसि मोहमहोरुहमुजरस्त्वमसि धर्मधनो धनकामदः ॥ त्वमसि संशयवायुज्जुजंगम Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. २०७ nane स्त्वमसि दर्शितजीवदयापथः ॥ ४ ॥ त्वमसि धारितशीलविनूषणस्त्वमसि कामि तदामसुरद्रुमः ॥ त्वमसि देवनराधिपवंदितस्त्वमसि जाडयतमिस्त्रननोमणिः ॥५॥ त्वमसि कर्मवनावनिपावकस्त्वमसि सेवकपूजितपंकजः ॥ त्वमसि जन्मजरामतिवा रणस्त्वमसि शाश्वतमोदपदस्थितः ॥ ६ ॥ त्वमसि मंजुलसत्कुलदीपकस्त्वम सि सर्वपदार्थविशारद. ॥ त्वमसि लोकनतो नतवत्सल स्त्वमसि देवशिलीमुख पुष्करः ॥ ७ ॥ त्वमसि नाथमनोहरलक्षणस्त्वमसि संमतजीवगणः सदा॥ त्वमसि संवरमार्गविधायकस्त्वमसि दानगुणाल्पितकल्पकः ॥ ७॥ त्वमसि चित्रकराति शयांचितस्त्वमसि सूरिततीश्वरसेवितः॥ त्वमसि खिजनावनतत्परस्त्वमसि हारनि नः दितिमंडले ॥ ५ ॥ त्वमसि शिष्टनरामरसंगतस्त्वमसि लोकचमत्कृतनिर्म. मः ॥ त्वमसि केवलिसाधुनतो मुदा त्वमसि कुग्रहदोष निवारकः ॥ १० ॥ त्वमसि सद्रतनारवृषोपमस्त्वमसि वीतमदो विशदाशयः ।। त्वमसि तीर्थपते रु चिराव्हयस्त्वमसि गुप्तिपवित्रितमानसः ॥ ११ ॥ त्वमसि बुदिपराजितगीःप ति स्त्वमसि हाटकसन्निनविग्रहः ॥ त्वमसि नाग्यविनाश निकेतनस्त्वमसिलोन महीधरवजकः ॥ १२ ॥ त्वमसि सप्तजयार्णवतारकस्त्वमसि उघेटसत्यनयाध्व गः॥ त्वमसि सम्मदसंततिकारकस्त्वमसि सिदिकरो वरदायकः॥१३॥त्वमसि विश्व जगजनवननस्त्वमसि रहितनूतकदंबकः ॥ त्वमसि पुर्नगऽस्थहरोनिशं त्वमसि वि स्तृतलोचनरंजकः ॥१४॥ त्वमसि विश्वपतिः श्रितबांधवस्त्वमसि वऋतिरस्कृतचं माः ॥ त्वमसि वैरिसमुघटोद्भवस्त्वमसि तीर्थकरः प्रतिबोधदः ॥ १५ ॥ त्वमसि नव्यशिखंडिबलाहकस्त्वमसि बंधुरमूर्तिधरोऽजरः ॥ त्वमसि सर्वविनुर्विग तातुरस्त्वमसि संयममंडनमंडितः ॥ १६ ॥ त्वमसि शांतरसाश्रितचेतनस्त्वमसि पौरुषनिहितकार्मणः ॥ त्वमसि उर्जनबोधिनिबंधनस्त्वमसि कामघाधिकदानदः ॥ १७॥ त्वमसि संचितपुण्यनिधिः परस्त्वमसि विघ्नसरीसृपगारुडः ॥ त्वमसि शु ब्रयशोनरमंदिरस्त्वमसि संघजयोन्नतिहर्षदः ॥ १७ ॥ त्वमसि सत्वहितो मतिव ईनस्त्वमसि धर्मसरोजसरःसमः ॥ त्वमसि चक्रिनतो नविशेखरस्त्वमसि पारग तः परमेश्वरः ॥ १ए ॥ त्वमसि सत्यपुरामजनूषणस्त्वमसि संश्रितपादमृगाधि पः ॥ त्वमसि केवलयुग्मविराजितस्त्वमसि वीरजिनो जिननायकः ॥ २० ॥ त्वमसि शासनपोतनियामकस्त्वमसि साधुदयालुलनामकः॥त्वमसि सौख्यकर स्त्रिश लांगजस्वमति विश्वगुरुः शुनसागरः ॥ २१॥ हरिणीबंदः॥ जयति सततं वीरः शं तुर्नवोदधिपारगो जगति तिलकः पापध्वांते गनस्तिरनुसरः ॥ कुशल निलयस्तीर्थस्वा Jain Education Interational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० स्तोत्र. मी सुरासुरसंस्तुतो विदितमहिनां विश्वे विश्वेश्वरार्चितपत्कजः।।२।। वंशरथचंदः॥ कुलावतंसं यतिधर्मदेशकं कलंदिकापारगमंगिपालकं ।। नवीमि वीरं मतिदं हिता क्दं मनोर्थसंपादनकामकुंनकं ॥ २३ ॥ नुजंगप्रयातबंदः ।। प्रनुं देववंद्यं जिनं वि श्वनाथं जगचारुचूडामणिं वीरनाथं ॥ स्तुवेऽहं जितारिं नतस्वर्गिनाथं सदा शांति कारं नरेंाधिनाथं ॥ २४ ॥ स्त्रग्धराखंदः ।। श्रीराज वीरदेवं प्रणतसुरमणि देवमा धिराज कल्याणांनोधित की विमलशशधरं जाग्यसौनाग्यकारं ।। ये नव्याः संस्तुवं ति प्रतिदिनमनघं चारुनक्त्या त्रिसंध्यं प्रख्यातिं ते लनंते त्रिजुवनविदितां कीर्तिप्रा ग्नारकत्री ।। २५ ॥ तुन्यं नमः समयधर्मनिवेदकाय तुल्यं नमस्त्रिनुवनेश्वरशेख राय ॥ तुज्यं नमः सुरनरामरसेविताय तुन्यं नमो जिनजनार्चितपत्कजाय ॥१॥ तु न्यं नमोऽनिलषते हरिचंदनाय तुन्यं नमो वरकुलांबरनास्कराय।।तुज्यं नमः प्रणतदे वनराधिपाय तुन्यं नमः प्रवररूपमनोहराय ॥ २ ॥ तुज्यं नमो हरिणनायकनाय काय तुन्यं नमो यतिततिप्रतिपालकाय ॥ तुन्यं नमो विकचनीरजलोचनाय तुन्यं नमस्तनितनादविराजिताय ।। ३ ॥ तुन्यं नमः कुशलमार्गविधायकाय तुन्यं नमोवि कटकष्टनिषेधकाय ॥ तुन्यं नमो उरितरोगचिकित्सकाय' तुन्यं नमस्त्रिजगतो हदि जूषणाय ॥ ४ ॥ तुज्यं नमो दलितमोहतमोजराय तुल्यं नमः कनकसन्निननूघना य ।। तुन्यं नमोप्य खिलसद्गुणमंदिराय तुन्यं नमो मुखकलादितचंडिकाय ॥ ५ ॥ तुज्यं नमोऽतिशयराजिविनूषिताय तुन्यं नमः कुमतितापसुनंजनाय ॥ तुन्यं न मो मुखपयोधिवहित्रकाय तुज्यं नमो विगतकैतवमत्सराय ॥ ६॥ तुज्यं नमो विदि तनव्यजनाशयाय तुन्यं नमो निखिलसंशयवारकाय ॥ तुज्यं नमः प्रथितकीर्तिय शोन्विताय तुज्यं नमो जितहषीकमुनीश्वराय ॥ ७ ॥ तुन्यं नमोप्रमितपुतनिर्मि ताय तुन्यं नमः सकलवाङ्मयपारगाय ॥ तुज्यं नमो नविकचातकनीरदाय तुल्यं नमश्चरणवैनवदायकाय ॥ ७ ॥कुलकम् ॥ वीराष्टकं पठति यः सततं त्रिसंध्यं त्य क्त्वा सदा प्रबलमीहजःप्रमादं ।। तदानि मंतु कुरुते कमला निवासं कल्याणसा गर जुवामसतामनीष्टं ॥ ए॥ ॥ अथ श्रीलोडणपार्श्वनाथस्तवनप्रारंनः ॥ श्रीकर कष्टहर्तारं विधिवादप्रकाशकं ॥ धिया तर्जितवागीशं परमात्मानमन्वहं ॥१॥ क्षमागारं रूपापात्रं गताधिव्याधिदूषणं ॥ कं तु सर्वकार्येषु श्रीप्रदं दलितामय।।।। धनधान्यकरं लोके रमाकेलिपदं परं ॥ मर्मतामदमा नौघमूर्खतादोषवर्जितं ॥३॥ बार्तिसंतापजेतारं सूरिश्रेणिशिरोमणिं ॥ रिपुसारंगसारंग मेंगिनाथनिषेवितं ॥४॥ - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. १०० तेजसा मंदिरं रम्यं वारिताशेषर्जनं ॥ निःसीम सर्वगोत्राणां श्रीमंत गुणसागरं ॥५॥ कथिताचारमार्गौघं कल्याणकमले विधुं ॥ प्रणताशेषदेवेशं शासनं कांतनूप नं ॥ ६ ॥ गदिताममसंदोहं रसनामृतसुंदरं ॥ सूराधिकप्रतापानि रिक्थदं दमितेंडि यं ॥ ७॥ नागें विबुधैः सेव्यं लोकानां शांतिकारकं। जडताया विवेत्तारं नयनाल्हा दकारणं ॥॥ पालकं सर्वसत्वानां पाश्र्वयदेण पूजितं ।। नाकिमानववंद्यांन्हिं नाथ नाथं जगत्प्रनुं ॥ ए ॥ क्रियासंततिनेतारं त्रासितानेकदोषकं ॥ कृतांतार्थ विचारइं तारतारुण्यराजितं ।। १०॥ संसारसागरे पोतं घस्मराधिविवर्जितं ॥ सर्वशं मेघगंनी रं हितं विश्वस्य सर्वदा ॥ ११ ॥ तेजोनिधिं मुदा पाश्र्व नवीमि लोमणानिधं ॥ क व्याणसागराख्येन संस्तुतं ह्यादिमादरैः ॥ १२ ॥ बादशनिः कुलकं ॥ श्रीमझोडण पाश्र्वनाथमवनौ विख्यातगोत्रानिधे ये नव्या वरनावनक्तिसहिताः पूजंति सौख्या र्थिनः॥ ते सत्वाः सुखमानकीर्निकलिताः कल्याणतुंगाः परा जायते नुवने प्रतापरु चिरा आदेयवाचः सदा ।। १३ ।। ॥अथ श्रीसेरीशपार्थाष्टकप्रारंनः॥ कामोधकर्तारमशेषदेवाधीशैस्सदाचर्चितपादप ॥ कल्याणकारं वरनीलवर्ण सेरी शपाश्र्वं नुथ लोडणारख्यं ॥ १॥ सत्पुस्यवदनीवनवारिधारं निःशेषनव्यावतिपूरिता शं ॥ त्रैलोक्यनत्रं नुवनाधिनाथं सेरी ॥२॥ सारंगवाणी जितचित्तदाढय सारंगगंनी रनिनादकांत ॥ सारंगसारांबकयुग्मराजं सेरी० ॥३॥ विश्वेषु सत्वेषु कृपानिधानं स म्यक्त्वरत्नानरणांकितांगं॥ःस्वांगपशु दलितारिवर्ग सेरी० ॥॥ अपारसंसारसमुह पोत सर्वज्ञमाचारपवित्रवंशारामांतशास्त्रार्थरहस्यददं सेरी॥५॥ वाणीरसानंदितवि श्वविश्वं तीर्थकरं नागपुरेशपूज्यं ॥ सर्वत्र विख्यातयशोनिरामं सेरी० ॥६॥ तेजोनिधि कामितकामकुंनं सौजन्यसौहार्द विलासपात्रं ।। कल्याणसूर्यादिवितानहेतुं सेरी० ॥ ॥ ७ ॥ आदित्यचंज्ञाधिकदेहनासं सत्प्रातिहार्याष्टकरा जिराज ।। स्फारामती मोहि तदेवदेवं सेरी० ॥॥ कलशः॥ एवं कल्याणवंयं त्रिनुवनतिलकं लोडणार्ह सुपार्श्व कृत्वैकाय्यं स्वचित्ते नवसफलरुते झानसंपत्तिसिक्ष्यै। नित्यं ध्यायति नव्या जिनसमय रताः शुचलेश्यानिरामास्तेषां हर्षात्प्रकामं नवति च सदने मंजुपद्मानिवासः ॥ ए ।। ॥अथ श्रीसंनवनाथाष्टकप्रारंनः॥ लावल्यगेहं कलहेमवर्ण उद्मोशितं सुंदरवाहचिन्हं ॥ लक्ष्मीकलापार्णवधि ब्ल्यनाथं देवन्तं संनवनाथमीडे ॥१॥ श्येनांगजं दारुणकर्मशत्रौ वीरं वरं पू |तचरित्रशोनं ॥ देमास्पदं सजुणरत्नखानि देवैः ॥२॥ इक्ष्वाकुवंशं वरतिग्मर दिम Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सूक्तमुक्तावली. राकेंवत्रं गतवक्रमांद्यं ॥ अज्ञानवैश्वानरशांतिनीरं देवैः ॥ ३ ॥ खोदधौ पीत समुइमि ॥ सत्प्रातिहार्याष्टकरा जिराजं ॥ दमानिधिं विस्तृत पुण्यमूर्ति ॥ दे वै० ।। ४ ॥ नव्यैर्मुदा सेवितपादपद्मं सजानवजाहतमोहनूधरं ।। संसारदावाकुल मर्त्यमेधं देवै०॥॥सत्कीर्तिपात्रं उरितारिसेव्यं जगजनानंदकरं शरण्यं ॥ कारुण्यसं युक्तपवित्रचित्तं देवै०॥६।। कुंदाईदंतं कजलोचनं वै वपुः श्रियातर्जितसूर्यकांतिं ।। पापांधकारे ऽमलदीपकं तं देवै ॥ ७ ॥ प्रसादनातत्परसेवकस्येप्सितार्थदाने सुर देवदं । सुखैरनेकैर्युतचारुदेहं देवै० ।।७।। कलशः ॥ इत्यष्टकं श्रीजिनसंनवस्य पति ये मंजुलनावयुक्या।।तेषां गृहे पुण्यनिधाननव्याः कल्याणकाराश्च नवंति ज्ञ इयः॥॥इति श्रीमङिननायकस्य श्रीसूर्यपुरनूषणस्य श्रीसंनवनाथस्याष्टकं संपूर्ण। ॥ अथ श्रीसूक्तमुक्तावली प्रारंनः॥ मालिनी बंदः ॥ सकलसुरुतवल्लीवंदजीमतमालां निजमनसि निधाय श्रीजि नेइस्य मूर्ति ॥ ललितवचनलीलालोकनापानिबरिद कतिपयपद्यैः सूक्तमाला तनोमि ॥ ॥ अथक्रमसंग्रहकाव्यं ॥ शार्दूलविक्रीडितबंदः ॥ तत्त्वज्ञानमनुष्य सजनगुणान्यायप्रतिज्ञामा चित्ताद्यं च कुनं विवेकविनयो विद्योपकारोद्यमाः॥ दानकोधदयादितोषविषयाः साक्षात्प्रमादस्तथा साधुश्रावकधर्मवर्गविषये झेया प्रसंगाह्यमी ॥ २ ॥ अथदेवतत्व विषेः मालिनीबंदः ॥ सकल करमवारी मोक्षमार्गा धिकारी ॥ त्रिनुवन नपगारी केवलझानधारी ॥नविजन नित सेवो देव ए नक्तिना वे ॥ इहिज जिन नजंतां सर्व संपत्ति आवे ॥ ३ ॥ जिनवरपदसेवा सर्वसंपत्तिदा ई॥ निशिदिन सुखदाई कल्पवानी सहाई॥नमि विनमिलहीजे सर्व विद्या वडाई ॥ षन जिनह सेवा साधतां तेह पाई ॥ ४ ॥ अथगुरुविषेः ॥ स्वपरसमयजाणे ध मेवाणी वखाणे ॥ परम गुरुकह्याथ तत्व नीशंक माणे॥ नविककज विकाशे ना नुज्यू तेज नासे ॥ इहज गुरु नजो जे गुदमार्ग प्रकाशे ॥ ५॥ सुगुरुवचनसंगे निस्तरेजीवरंगे ॥ निरमल नर थाए जेम गंगाप्रसंगे ॥ सुणिय सुगुरु केशी॥ वाणि रायप्रदेशी ॥ लहि सुरजव वासी जे हसे मोदवाशी ॥ ६ ॥ अथधर्मविषे ॥ जलनि धि जलवेला चंथी जेम वाधे ॥ सकल विनवलीला धर्मथी तेम साधे ॥ मनुथ जनमकेरो सार ते धर्म जाणी ॥ नजिनजि नवि नावे धर्म ते सौख्य खाणी ॥७॥ इह धरम पसाये विक्रमे सत्य साध्यो ॥ इह धरम पसाये शालिनो साक वाध्यो। जस नर गज वाजी मृनिकाना जिकेई ॥ रणसमय थया ते जीव साचा तिकेई ॥ ॥ ७ ॥ अथज्ञानविषः ॥ तन धन ठकुराई सर्व ए जीवने ॥ पण इक उहिलं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तमुक्तावली. ॥ ज्ञान संसारमां बे ॥ नवजलनिधि तारे सर्व जे दुःख वारे ॥ निजपरहित हेते ज्ञान ते कां न धारे ॥ ए ॥ यवऋषि इक गाथा बोधथी नै निवास्यो || इक पदथि चिलातीपुत्र संसार वास्यो ॥ श्रुतनात सुज्ञानी मास तुंबादि थावे ॥ श्रुतथि अन य हाथे रोहिल्यो चोर नावे ॥ १० ॥ श्रथमनुष्यजन्मविषेः ॥ नवजलनधि नमंतां कोइ वेला विशेषे ॥ मनुजजनम लाधो डुल्नहो रत्न लेखे || सफल कर सुधर्मा ज जन्म ते धर्मयोगे || परनवसुख जेथी मोक्षलक्ष्मी प्रनोगे ॥ ११ ॥ मनुजजनम पा मी खालसे जे गमे ॥ शशिनृपतिपरे ते शोचनाथी नमेवे || डुलह दश कथा यूं मानुखोजन्म ए बे | जिनधरम विशेषे जोड़तां सार्थ ते बे ॥ १२ ॥ अथसन विषेः ॥ सदयमन सदाई ः खियां जे सहाई ॥ परहित मतिदाई जास वाणी मि ठाई ॥ गुणकर गहराई मेरुज्यूं धीरताई ॥ सुजनजन सदाई तेह यानंददाई ॥ १३ ॥ जर पुरजन लोके दूहव्या दोष देई || मनमलिन न थाए सज्जना तेह तेई ॥ डुप वजनकपुत्री अंजना कष्टयोगे ॥ कनकजिम कशोटी ते तिली शोल जोगे ॥ १४ ॥ अथ विषेः ॥ गुणगहि गुण जेमां ते बहू मान पावे ॥ नर सुरनिगुणे ज्यूं फूल शीशे चढावे ॥ गुणकरि बहु माने लोक ज्यूं चंड्माने ॥ प्रति कृश जिम माने पू ने त्यूं न माने ॥ १५ ॥ मलयगिरि कडे जे जंबुलिंबादि सोई । मलयजतरु संगे चंदना ते होई ॥ इम लहिय वडाइयूँ कीजिये संग रंगे || गजशिरचडि बेठी ज्यूं प्रजा सिंहसंगे ॥ १६ ॥ अथन्यायविषे ॥ जग सुजस सुवासे न्यायनी उपासे ॥ व्यसन रित नासे न्यायथी लोक वासे ॥ इम इदय विमासी न्याय अंगी करी जे ॥ न परिहारी जे विश्वने वश्य कीजे ॥ १७ ॥ पशु पण तस सेवे न्यायथी जें न चूके ॥ अनयपथ चले जे नाइ ते तास मूके ॥ कपिकुल मिलि सेव्यो रामने सीस नामी ॥ नयकरि तज्यो ज्यूं जाइए लैकस्वामी ॥ १ ८॥ हय गय न सहाई युद्ध कीर्ती सदाई || रिपुविजय वधाई न्याय ते धर्मदा ॥ धरमनय धरे जे ते सुखे वैरि जी || धरमनय विणा तेहने वैरि कोपे ॥ १७ ॥ धरमनय पसाये पांगवा पंच तेई || करि युधे जय पाम्या राज्यतीला लहेई || धरमनय विदूष्णा कौरवा गर्व माता रणसमय विगूता पांमवा तेह जीत्या ॥ २० ॥ अथप्रतिज्ञाविषेः ॥ ܐܐܐ न यन जिकांई श्रादयुं जे निवाहे || रवि पण तस जोवा व्योम जाणी वगाहे ॥ करिगहन तिवाहे तास निस्संत आपे ॥ मलिन तनु पखाले सिंधुमां सूर खावे ॥ २१ ॥ पुरुषरयण मोटा जे गणीजे धराये ॥ जिए जिम प डिवज्यूं ते न ढांडे पराये ॥ गिरिश विष धरयो जे ते न अद्यापि नाख्यो ॥ दुर Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सूक्त मूक्तावली. गति नर लेई विक्रमादित्य राख्यो ॥ २२ ॥ अथ उपशमविषेः ॥ उपशम हित कारी सर्वदा लोकमांही ॥ नुपशम धर प्राणी ए समो सौख्य नाही ॥ तप ज प सुर सेवा सर्व जे आदरे ने ॥ उपशमविण जे ते वारि मंथा करे ले ॥ २३ ॥ उपशम रस लोला जास चित्ते विराजी ॥ किम नर नव केरी रिधिमा तेह रा जी॥ गज मुनिवर जेहा धन्य ते ज्ञान गेहा ॥ तपकरि कृश देहा शांति पीयू ष मेहा ॥४॥ अथ त्रिकरणशुदिविषः ॥ जग जन सुखदाई चित्त एवं सदाई॥ मुखे अति मधुराई साच वाचा सुहाई ॥ वपु परहित हेते त्रण्य ए गुम जेने ॥ तप जप व्रत सेवा तीर्थ ते सर्व तेने ॥ २५ ॥ मण वच तनु त्रस्ये गंगज्यूं गुरू जेने ॥ निज घर निवसंतां निर्जरा धर्म तेने ॥ जिम त्रिकरण गुदे औप दी अंब वाव्यो ॥ घर सफल फलंतो शील धर्मे सुहाव्यो ॥ १६ ॥ श्रथ कुलविषे सहज गुण वशे ज्यूं शंखमां श्वेतताई ॥ अमृत मधुरताई चश्मां शीतलाई कुवलय सुरनाई इदुमा ज्यूं मिठाई ॥ कुलज मनुजकेरी त्यूं सुनावे नलाई ।। ॥२७ । जिण घर वर विद्या जो दुवे तो न दि॥ जिण घर उय लाने तो न सौजन्य वृद्धि ॥ सुकुल जनम योगे ते त्रणे जो लहीजे ॥ अजय कुमर ज्यूं तो जन्म साफल्य कीजे ॥ २७ ॥ अथ विवेक विषे ॥ हृदय घर विवेके प्राणि जो दीप वासे ।। सकल नव तणो तो मोह अंधार नाशे ।। परम धरम वस्तु त त्व प्रत्यक्ष नासे ।। करम नर पतंगा स्वांग तेने विधंसे ॥ श्ए । विकल नर कहीजे जे विवेके विहीना ।। सकल गुण नया जे ते विवेके विलीना ।। जिम सुम ति पुरोधा नूमि गेहे वसंते ।। नगति जुगति कीधी जे विवेके नगंते. ॥ ३० ॥ अथ विनय विषे ॥ निशिविण शशि सोहे ज्यू न शोले कलाई ॥ विनयविण न सोहे यूं न विद्या वमाई ॥ विनयवहि सदाई जेह विद्या सहाई ॥ विनय विण न कोई लोकमां सञ्चताई ॥३१॥ विनय गुण वहीजे जेहथी श्री वरीजे ।। सुर नर पति लीला जेह हेला लहीजे ॥ पर तणय शरीरे पेशवा जे सुविद्या ।। विनय गुणथि लाधी विक्रमे तेह विद्या ॥ ३२ ॥ अथ विद्याविषे ॥ थगम म ति प्रज्ये विद्ययें कोन गंजे ॥ रिपु दल बल नंजे विद्ययें विश्व रंजे ॥ धनथि बखय विद्या सीव एणे तमासे ॥ गुरुमुख नणि विद्या दीपका जेम नासे ॥ ३३ ॥ सुर नर सुप्रसंसे विद्ययें वैरि नाशे ॥ जगि सुजस सुवासे जेह वि द्या मपासे ॥ जिकरि नप रंज्यो नोज बाणे मयूरे ॥ जिणकरि कुमरिंदो रीजव्यो हेम सूरे ॥ ३४ ॥अथनपकार विषेः॥ तन धन तरुणाई श्रायु ए चंचला ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तमुक्तावली. परहित करि ले जे ताहरो ए समे ले ॥ जब जनम जरा जां लागशे कंठ साई ॥ कहि न तिण समे तो कोण थाशे सहाई ॥ ३५ ॥ नहि त रु फल खावे ना नदी नीर पीवे । जस धन परअर्थे सो नले जीव जीवे ।। नल करण नरिंदा विक्रमा राम जेवा ।। परहित करवा जे उद्यमी दद तेवा ॥३६॥ ॥अथ नद्यम विषे ॥रयण निहितरी ने उद्यमे लबियाणे ॥ गुरु नगति हरीने न द्यमे शास्त्र जाणे ॥ सुख समय सहाई नद्यमे वे जलाई ॥ अति अलस तजी ने उद्यमे लाग नाई ॥ ३७॥ नृपशिर निपतती वीज जात्कारकारी ॥ नदम क रि सुबुद्धी मंत्रिए ते निवारी ॥ तिम निज सुतकेरी आवती उर्दशाने ॥ नदम करि निवारी ज्ञानगर्न प्रधाने ॥ ३ ॥ अथ दानविषे ॥ थिर नहि धन राख्यो तेम नाख्यो न जाए ॥ इणि पर धन जोतां एव गत्या जणाए ॥ इह सुगुण सु पात्रे जेह दे नक्ति नावे ॥ निधि जिम धन आगे साथ तेहीज आवे ॥ ३ ॥ नल बलि हरिचंदा नोज जे जे गवाए ॥ प्रह समय सदा ते दानकेरे पसाए ॥ इम त्दृदय विमासी सर्वथा दान दीजे ॥ धन सफल करीजे जन्मनो लादु ली जे ॥ ४० ॥ अथ शीलविषे॥ अगुन करम घाले शील शोना दिवाले ॥ गुणगण अजुआले आपदा सर्व टाले ॥ तस नर बहु जीवी रूप लावण्य देई॥ परनव शि व होई शील पाले जिकेई ॥४१॥ इण जग जिनदास श्रेष्ट शीले सुहायो ॥ ति म निरमल शीले शील गंगेव गायो॥ कलि करण नरिंदा ए समां ने जिकोई॥ परनव शिव पामे शील पाले तिकोई ॥४२॥ अथ तपविषे ॥ तरणि किरणथी ज्यूं सर्व अंधार जाए॥ तपकरि तपथी त्यं कुःख ते दूर थाए ॥ वलि मलिन थ यूं जे कर्मचंमाल तीरे ॥ किम तनु न परवाले ते तपस्वर्ण नीरे. ॥४३॥ तपविण नवि थाए नाश कर्म केरो ॥ तपविण न टले जे जन्म संसार फेरो ॥ तपब लि लहि लब्धी गोतमे नंदिरखेणे ।। तप बलि वपु कीधु विष्णु वैक्रीय जेणे ॥४४॥ अथ नावविषे ॥ मनविण मिलवो ज्यूं चाववो दंतहीणे ॥ गुरुविण नणवो ज्यूं जीमवो ज्यू अजूणे ॥ जसविण बदु जीवी जीव ते ज्यूं न सोहे ॥ तिम धरम न-सोहे नावना जो न होहे. ॥ ४५ ॥ जरत नृप इलाची जीरणश्रेष्ठि नावे ॥ वति वलकल चीरी केवल ज्ञान पावे ॥ बलनद हरिणो जे पंचमे स्वर्ग जाए ॥ इहज गुण पसाये तास निस्तार थाए ॥ ४६॥ अथ क्रोधविषे ॥ तृण दहन दे हंतो वस्तु ज्यूं सर्व बाले ।। गुण करण जरी यू क्रोध काया प्रजाले । प्रसमज लद धारा वन्दि ते क्रोध वारो ।। तप जप व्रत सेवा प्रीतिवन्नी वधारो. ॥ ४ ॥ DD .............. .. . . .. . . . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सूक्तमुक्तावली. धरणि परशुरामे कोधि निदात्रि कीधी ॥ धरणि सुनुमराये कोधि निब्रह्मि सा धी॥ नरकगति सहायी कोध ए सुख दाई । वरज वरज नाई प्रीति दे जे वधा ई ।। ४७ ॥ अथ मानविषे ॥ विनय वनतणी जे मूल शाखा विमोडे ।। सुगुण क नककेरी श्रृंखलाबंध तोडे ।। मनमद करि दोडे मान ते मत्त हाथी ।। निजवश करि ले जे अन्यथा दूर एथी॥ ४५ ॥ विषद विष समो ए मान ते सर्प जाणो मनुज विकल होवे एण मंके जडाणो । इह न परिहयो जो मान मुर्योधने तो॥ निज कुल विणसाड्यो मानने जे वहंतो ॥ ५० ॥ अथ मायाविषे ॥ नितुरपणु निवारी हीयडे हेज धारी। परिहर बल माया जे असंतोषकारी ।। मधुर मयुर बोले तोहि विश्वास नाणे । अहि गिलण प्रमाणे मायिने लोक जाणे ॥ ५१ ॥ म कर म कर माया दंन दोषठ्ठ बाया ॥ नरय तिरिय केरा जन्म दे जेह माया ॥ बलि नृप बलवाने विमु माया वहंतां ॥ जयपण लयूं जे वामनारूप लेतां. ॥ ५५ ॥ अथ लोनविषे ॥ सुण वयण सयाणे चित्तमां लोन माणे॥ सकल व्य सनकेरो मार्ग ए लोन जाणे ॥ इक खिण पण एने संग रंगे म लागे ॥ नव जव उरख दे ए लोनने दूर त्यागे ॥ ५३ ॥ कनकगिरि कराया लोनयी नंदराये ॥ निज अरथ न आया ते हस्या देवताये ॥ सयल निधि लही जे स्वाय ते विश्व कीजे ॥ मन तनह वरीजे लोन तृमा न बीजे ॥ ५५ ॥ अथ दयाविषे ॥ सुरूत क लप वेली लति विद्या सहेली ॥ विरतिरमण केली शांति राजा महेली ॥ सकल गुण नलेरी जे दया जीव केरी ॥ निज त्दृदय धरी ते साधिए मुक्ति सेरी ॥ ५५॥ निज सरण परेवो शेनथी जेण राख्यो ॥ षट दशम जिने ते ए दया धर्म दा ख्यो । तिह हृदय धरीने जो दया धर्म कीजे ॥ नवजलधि तरीजे छःख दूरे करी जे ॥ ५६ ॥ श्रथ सत्यविषे ॥ गरज अमृत वाणी साचथी अनि पाणी ॥ सूज सम अहिराणी साच विश्वास खाणी ॥ सुपसन सुर कीजे साचथी ते तरीजे ॥ त्रिण अलिक तजीजे साचवाणी वदीजे ॥ ५७ ॥ जग अपजश वाधे कूडवाणी वदतां ॥ वसु नृपति कुगत्ये साख कूडी नरंतां ॥ असत वचन वारी साचने चि त धारी॥ वद वचन विचारी जे सदा सौख्यकारी ॥ ५॥ अथ चोरीविषे ॥ पर धन थपहारे स्वार्थ चोर हारे ॥ कुल अजस वधारे बंध घातादि धारे ॥ पर धन तिण हेते सर्प ज्यूं दूर वारी ॥ जग जन हितकारी होय संतोष धारी ॥ ५ ॥ निशिदिन नर पामे जेहथी फुःख कोडी ॥ तज तज धन चोरी कष्टनी जेह ओरी ॥ पर विनव हरंतो रोहिणीचोर रंगे ॥ इह अनय कुमारे ते ग्रह्यो बुद्धि संगे॥६० ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तमुक्तावली. ११५ अथ कुशीलविषे ॥ यश पमह वागे लोकमां नीद जागे ॥ दुरजन बहु जागे जे कुले लाज लागे ॥ सजन पण विरागे मां रमे एल रागे ॥ परतिय रस रागे दो कोड जागे || ६१ || परतिय रसरागे नाश लंकेश पायो । परतिय रस त्या गे शील गंगेव गायो ॥ द्रुपद जनक पुत्री विश्व विश्वे विदीत ॥ सुर नर मिलि सेवी 'शीलने जे धरती ॥ ६२ ॥ अथ परिग्रहविषे ॥ शशिनदय वधे ज्यूं सिंधु वेला नजेरी ॥ ॥ धनकर मन साए तेम वाधे घरी ॥ इरित नरग सेरी तूं करे ए परेरी ॥ ममकर अधि केरी प्रीति एकेरी ॥ ६३ ॥ मनुज जनम हारे ॥ दुःखनी कोडि धारे ॥ परिय ह ममता ए स्वर्गना सोख्य वारे ॥ अधिक धरणि लेवा धातकी खंम केरी ॥ सुनुम, कुगति पामी चकिराये घणेरी ॥ ६४ ॥ अथ संतोषविषे ॥ सकल सुख नराए विश्व तावश्य था । जवजलधि तराए दुःख दूरे पलाए । निज जनम सुधारे यापदा दूर वारे ॥ निज धरम वधारे जेह संतोष धारे ॥ ६५ ॥ सकल सुखतो ते सार संतोष जाणे ॥ कनक रमणिकेरी जेह इब्बा न खाये ॥ रजनि कपिल बांध्यो स्व नी लोलताए । नमर कमल बांध्यो ते असंतोषताए ॥ ६६ ॥ अथ विषय विषे ॥ शिवपद यदि वांले जेह खानंद दाई ॥ विवसम विषया तो बांमि दे दुःखदाई मधुर अमृत धारा दूधनी जो नहीजे ॥ प्रति विरस सदा तो कांजिका संग्रही जे ॥ ६७ ॥ विषय विकल ताली कीचके नीम नार्या ॥ दशमुख पहारी जा नकी रामाय ॥ रति धरि रहनेमी क्रीडवा नेमि नार्या । जिस विषय न वर्ज्या तेह जाणो अनार्या ॥ ६८ ॥ अथ इंडियविषे ॥ गज मगर पतंगा जेह लूंगा कुरं गा || इक इक विषयार्थी ते लहे दुःख चंगा ॥ जस परवश पावे तेहनुं यूं कही जे || इम दृदय विमासी इंड़ि पांचे दमीजे ॥ ६९ ॥ विषय वन चरंतां इंडि जे डाए || निज वश नवि राखे तेह दे दुखडा ए॥ श्रवश करण मृत्यू ज्यूं गुप्तें दि पामे ॥ स्ववश सुख लह्या ज्यूं कुर्म गुप्तींदि नामे ॥ ७० ॥ अथ प्रमादवि ॥ सदु मन सुख वांबे दुःखने को न वांबे ॥ नहि धरम विना ते सौख्य ए संपजे ॥ इह सुधरम पामी कां प्रमादे गमीजे ॥ प्रति अलश तजीने उद्यमे धर्म की जे ॥ ७१ ॥ इह दिवश गया जे तेह पाठा न आवे ॥ धरम समय खाले को प्र मादे गावे ॥ धरम नवि करे जे खायु याले वहावे ॥ शशि नृपतिपरे त्युं सोच ना पावे ॥ ७२ ॥ अथ साधुधर्मविषे ॥ शार्दूल विक्रीडित छंदः ॥ जे पंच व्रत मेरु नार निवहे, निःसंग रंगे रहे । पंचाचार घरे प्रमाद न करे, जे दुःपरिस्सा सहे ॥ पांचे इंडि तुरंगमा वश करे, मोक्षार्थने संग्रहे ॥ एवो डुष्कर साधु धर्म धन ते, जे Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सूक्तमुक्तावली. ज्यूं ग्रहे त्यं वहे ॥ ७३ ॥ मालिनीबंद ॥ मयण सरव मोमी कामिनी संग लोम॥ तजिय कनक कोडी मुक्तिसूं प्रीति जोडी ॥ नव नव नय वामी गुरू चारित्र पामी ॥ इह जग शिवगामी ते नमो जंबु स्वामी ॥ ४ ॥ अथ श्रावकधर्म विषे ॥ शा दूलविक्रीडितबंद ॥ जे सम्यक्त लही सदा व्रत धरे, सर्वज्ञ सेवा करे ॥ संध्या वश्य क आदरे गुरु नजे, दानादि धर्माचरे ॥ नित्ये सद्गुरु सेवना मनधरे. एवो जि नाधीशरे ॥ नारख्यो श्रावकधर्म दोय दशधा, जे आदरे ते तरे ॥ ५॥ मालिनी बंद ॥ निशिदिन जिनकेरी जे करे शुद्ध सेवा ॥ अषु व्रत धरि जे ते काम आनंद देवा।। चरम जिन वरिंदे जे सुधर्मे सुवास्या ॥ समकित सतवंता श्रावका ते प्रसं स्या ॥ ७६ ॥ इम अरथ रसाला जे रची सूक्तमाला ।। धरम नपति बाला मालि नी बंद शाला ॥ धरम मति धरंतां ए इहां पुण्य वाध्यो॥प्रथम धरम केरो सार ए वर्ग साध्यो ।। ७७ ॥ इति श्रीमत्सूक्त मुक्तावव्यां धर्मवर्गःप्रथमः समाप्तः ॥१॥ ॥अथ अर्थवर्ग प्रारंनः॥ नवजाबंदः॥ अथार्थवर्गे हितचिंतनं श्रीमितंपचार्थ्यस्व महीशसेवा ॥ खलादिमैत्री व्यसनादि चैव: मिहावधार्याः कतिचित्प्रसंगाः ॥ १ ॥ अथ अर्थ विषेः मालिनी बंद ॥ अरथ अरजि जेणे स्वायते विश्व होवे ॥ जिण विण गु ण विद्या रूपने कोण जोवे ॥ अनिनव सुखकेरो सार ए अर्थ जाणी ॥ सकल धरम एथी साधिए चित्त आणी ॥ २ ॥ अरथ विण कवनो जेह वेश्याइ ना ख्यो ॥ अरथ विण वसिष्टे राम जातो नवेख्यो ॥ सुंकत सुजस कारी अर्थ ते ए उपार्जी॥ कुवराज उपजतो अर्थ ते दूर व| ॥३॥ अथ हित चिंतनवि ः॥ परहित करवा जे चित्त नबाह धारे ॥ परकत हितहीये जे न कोई विसारे ॥ प्रति हित परथी ते जे न वांजे कदाई ॥ पुरुप रयण सोई वंदिए सो सदाई ॥४॥ निज उख न गणीने पारकू उःख वारे ॥ तिहतणि बलिहारे जाइए कोडि वा रे ॥ जिम विषनर जेणे मंक पीडा सहीने ॥ विषधर जिनवीरे बूजव्यो ते वहीने ॥ ५ ॥ अथ लक्ष्मी विषहरि सुत रति रंगे जे रमे रात सारी॥ शिवतनय कुमा रो ब्रह्म पुत्री कुमारी ॥ हितकरि दृगलीला जेहने लबि जोवे ॥ सकल सुख ल हे सो सोहि विख्यात होवे ॥ ६ ॥ लखमि बलि यशोदा नंदने विश्व मोहे ॥ ल खमि विण विरूपी संनु नितू न सोहे ॥ लखमि लहिय रांके जे शिलादित्य नां ज्यो ॥ लखमि लहिय शाके विक्रमे विश्व रंज्यो ॥ ७ ॥ अथ कृपणविषेः॥ कण Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तमुक्तावलो. ११७ कण जिम संचे कीटिका धान्यकेरो ॥ मधुकर मधु संचे जोगवे को अनेरो ॥ ति म धन रुपणकेरो नोपकारे दिवाये ॥ इमहि विलय जाए अन्यथा अन्य खाए॥ G॥ कृपण पषु धरतां जे नवे नंद राया ॥ कनक गिरि कराया ते तिहां अर्थ नाया । इम मनत करंतां दु:ख वासे वसीजे ॥ कृपण पणु तजीजे मेघज्यूं दा न दीजे ॥ ॥ ॥ अथ याचनविषेः ॥ निरमल गुण राजी त्यां लगे लोक राजी ॥ तब लग कहि जीजी त्यां लगे प्रीति काजी ॥ सुजन जन सनेही त्यां लगे मि त्र तेही ॥ मुख थकि न कहीजे ज्यां लगे देहि देही ॥ १० ॥ ज वडपण वांडे मांगजे तो न कांई ॥लङ पण जिण होवे केम कीजे तिकाई॥ जिम लघु थइ सोनें वीरथी दान ली७ ॥ हरि बल नप आगे वामना रूप कीबूं ॥ ११ ॥ अथ नि र्धनविषेः ॥ धनविण निज बंधू तेहने दूर डंडे ॥ धनविण गृह नार्या तेह सेवा न मंडे ॥ निरजल सरजेवो देह निर्जीव जेवो ॥ निरधन तृण जेवो लोकमें ते गणे वो ॥ १२ ॥ सरवर जिम सोहे नीर पूरे जरायो ॥ धन करि नर सोहे तेम नीते उपायो॥धनकरिय सुहंतो माघ जे जाण दूतो॥ धनविण पग सूजी तेह दीगे मरं तो ॥१३॥ अथ राज सेवाविषेः॥ सुजनसुं हित कीजे उर्जना सीख दीजे ॥ जग जन वश कीजे चित्त वांडा वरीजे ॥ निज गुण प्रगटीजे विश्वना कार्य कीजे ॥ प्रनु सम विचरीजे जो प्रनूसेव कीजे ॥ १४॥ नगतिकरि वडानी सेब कीजे जिकाई ॥ अधिक फल न आपे कर्मथी ते तिकाई ॥ जलधि तरिय लंका सीत संदेस लावे ॥ हनुमत करमे ते राम कबोट पावे ॥ १५ ॥ अथ खलताविषे॥ रस विर स नजे ज्यूं अंब निंब प्रसंगे ॥ खल मिलण दुवे त्यूं अंतरंग प्रसंगे ॥ सुण सु ण ससनेही जाणि ले रीति जेही ॥ खल जन निसनेही तेहरों प्रीति केही ॥१६ मगर जल वसंतो ते कपीराय दीगे ॥ मधुर फल चखावी ते कस्यो मित्र मीठो ॥ कपि कलिज नखेवा मत्स खेली खलाई॥जलमहिं कपि बुद्धी बामि दे ते नला ई॥ १७ ॥ अथ अविश्वाश विषे ॥ उपजाति बंद ॥ विश्वासिसाथे न बले रमीजे॥न वैरि विश्वास कदापि कीजे ॥ जो चित्त ए धीर गुणे धरीजे ॥ तो लचिलीला ज गमां वरीजे॥१॥ इंश्वजाबंद।। चाणायके ज्यूं निज काज सायो॥जे राज नागी नप तेह मास्यो ॥ जो घूअडे काक विश्वास कीधो॥तो वायसे घूकने दाह दीधी ॥१॥ अथ मैत्रीविषे ॥ मालिनीबंद ॥ करि कनक सरीसी साधु मैत्री सदाई ॥ घसि कसि तप वेधे जास वाणी सवाई ॥ अहव करहि मैत्री चंमा सिंधु जेही ॥ घट घट वध वाधे सारखा बेसनेही ॥२०॥ इह सहज सनेहे जे वधे मित्रताई ॥ रवि प Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तमुक्तावली. रि न चले ते काजज्यूं बंधुताई || हरि हलधर मैत्री कृष्णने जे बमासे ॥ हलधर नि जखंधे से फिस्यो जीवि खासे ॥ २१ ॥ अथ व्यसन विषे ॥ नलिन मलिन शोना सां थी जेम थाए ॥ इह कुवसनथी त्यूं संपदा कीर्त्ति जाए ॥ कुविसन तिए हेते स वथा दूर कीजे ॥ जनम सफल कीजे कीर्त्ति कांता वरीजे ॥ २२ ॥ श्रथ द्यूत विषे ॥ डु तविलंबित बंद || सुगुरु देव जिहां नवि लेखवे ॥धनविला सहुए जिस खेलवे ॥ जव नवे जमवूं जिल कवठें ॥ कहिनि को रमे तिसा जूवटें ॥ २३ ॥ अथमांस नक्षण विषे ॥ उपजातिछंद ॥ जे मांस लुब्धा नर ते न होवे ॥ ते राक्षसा मानुषरूप सोवै ॥ श्रथ चोरी विषेः ॥ जे लोकमां नर्ग निवास करी ॥ निवारीए ते परव्यचोरी ॥ २४ ॥ श्रथ म विषेः ॥ यंगप्रयातबंद ॥ सुरापानथी चित्त संत्रांत थाये ॥ गले लाज गंभीरता शी ल जाये ॥ जिहां ज्ञान विज्ञान सूके न बूजे ॥ इशू मय जाली न पीजे न दीजे ॥ ॥ २५॥ अथ वेश्याविषेः ॥ कहो कोण वेश्या तणो अंग सेवे ॥ जिसे अर्थनी लाजनी हाणि होवे ॥ जिणे कोश सिंहा गुफाये निवासी ॥ उब्यो साधु ने पालग्यो कंबलासी ॥ २६ ॥ अथ खेटक विषेः॥ छंद ॥ मृगयाने तज जीव घात जे || सघले जीव दया सदा नजे ॥ मृगयाथी दुख जे लह्या नवां ॥ हरि रामादि नरेंड् जे हवा || २७ ॥ परस्त्रीविषेः चौपाईछंद || स्वर्ग सौख्यनणि जो मन श्राशा ॥ बांडे तो परनारि विलासा || जेण एव निज जन्म दुःखए ॥ सर्वथा न परलोक सुखए ॥ २८ ॥ अथ ए विषयोना उदाहरणो ॥ शार्दूलविक्रीडित छंदः ॥ जूवा खेलण पांवा वन जम्या, मद्ये बली द्वारिका ॥ मांसे श्रेणिक नारकी दुख लह्या, बांध्या नरे चोरि का || खेटे दशरथपुत्र विरही, केवन्न वेश्या घरे || लंकास्वामि परत्रिया रस रमे, जे ए तजे ते तरे ॥ २५॥ अथ कीर्त्तिविषेः ॥ मालिनी छंदः ॥ दिशि दिशि पसरं ती चंड्मा ज्योति जैसी || श्रवण सुणत लागे जाण मीठी सुधासी ॥ निशिदिन जनगाये रामराजिंद जेवी || इणि कलि बहु पुष्ये पामियें कीर्त्ति एवी ॥३०॥ अथ प्रधान विषेः ॥ सकल व्यसन वारे स्वामिसूं नक्तिधारे ॥ स्वपरहित वधारे राज्यना का ज सारे ॥ नय नय विचारे कुड़ता दूर वारे ॥ निजसुत जिम धारे राज्य लक्ष्मी वधारे ॥ ३१ ॥ अथ कलाविषे ॥ चतुर कर कलानो संग्रहो सौख्यकारी ॥ इ गुण जिलाधी डॉल संपत्ति सारी ॥ त्रिपुर विजय कर्त्ता जे कलाने प्रसंगे ॥ हि मकर मनरंगे से धो उत्तमांगे ॥ ३२॥ अथ मूर्खताविषेः ॥ वचन रस न भेदे मूर्ख वार्त्ता न वेदे ॥ तस कुंवचन खेदे तेहने सीख जे दे ॥ नृपशिर रज नाखी जेल मू र्खे वने ॥ हित कहत हणीज्युं वानरे सुग्रहीने ॥३३॥ श्रथ लाविषेः ॥ निज ܢܵܐܐ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूक्तमुक्तावली. वचन निवाहे लाज ग्युराज्य वाले ॥ व्रत नय कुलरीतें मातज्यू लाज पाले ॥ सक ल गुण सुहावे लाजथी नावदेवे ॥ व्रत नियम लह्यो जे नाइलजा प्रनावे ॥३॥ शालिनी बंद ॥ एवा जे जे रूयडा नाव राजे ॥ एरोविश्वे अर्थथी तेह बाजे ॥ एवं जागी सार ए सौख्य केरो ॥ ते धोरा जे अर्थ अर्जे जलेरो ॥ ३५ ॥ इतिश्री सूक्त मुक्तावल्या अर्थवर्गो दितीयः समाप्तः॥ २ ॥ ॥अथ कामवर्ग प्रारंनः॥ उपजाति बंदः॥ ग्राह्याः किर्यतः किल कामवर्गे कामो ननार्यो गुणदोषनाजः॥ सुलक्षण योगवियोगयुक्तः समातृपितृप्रमुखाः प्रसंगाः ॥ ॥अथ कामविषेः॥ कंदर्प पंचानन तेज आगे ॥ कुरंग जेवा जगजीव नागे ॥ स्त्रीशस्त्र लेई जग जे व दीता ॥ तिएण देवा जनवंद जीता ॥ २ ॥ मालिनी बंदः॥ मनमथ जगमाहे 5 जयीजे अद्यापी ॥ त्रिनुवन सुरराजी जासशस्त्रे सतापी ॥जलज विधि उपासे वा दिजा विष्णु सेवे ॥ हर हिम गिरिजाने जेण बर्दाग देवे ॥ ३ ॥शार्दूलविक्रीडित बंदः॥ निन्नीनाव चल्यो महेश उमया, जे काम रागे करी ॥ पुत्री देखि चल्यो चतुर्मु ख हरी, बाहेरिका आदरी ॥ २ गोतमनी त्रिया विलसिने, संनोग ते ओलव्या॥ कामे एम महंत देव जग जे, ते जोलव्या रोलव्या ॥ ४ ॥ मालिनी बंदः ॥ नल नृ पद वदंती देखि चारित्र चाले ॥अरह नरहनेमी ते तपस्या विटाले ॥ चरम जिन मुनी ते चिन्नणारूप मोहे ॥ मयण सर व्यथाना एह उन्माद सोहे ॥ ५॥ अथ गुणदोषोनावनविषे ॥ रथोताबंदः ॥ नत्तमा पण नरा न संनवे॥ मध्यमा तिम न योषिता दुवे ॥ एह नत्तमिक मध्यमी पणो॥ बेदुमांहि गुणदोषनो गियो ॥६॥ तत्र पुरुषगुणा यथा ॥ शार्दूलविक्रीडितबंदः॥ जे नित्ये गुण वृंद ले परतणा, दोषां न जे दाखवे ॥ जे विश्वे उपगारिने उपकरे, वाणीसुधा जे लवे ॥ पूरा पूनिम चंद जेम सुगुणा, जे धीर मेरुसमामा जेह गंजीर सायर जिस्या, ते मानवा उत्तमा ॥७॥ धनुष्टुप बंदः।।रूप सौनाग्य संपन्नाः सत्वादिगुणशोननाः ॥ ते लोके विरला धीराः श्रीराम सहशा नराः॥७॥ अथ पुरुष दोषा यथा ॥ शार्दूलविक्रीडितबंदः ॥ संकासामि हरंति राम तजि जे, शीतातणी एवकी ॥ स्त्रीवेची हरिचंद पांमव नृपे, क ब्णा नराखी सको ॥ रात्रं बांमि निज स्त्रिया नल नपे, ए दोष मोटा जणी। जोवो नत्तम मांहि दोष गणना, का वात बीजातणी॥ ॥ अथ स्त्रीगुणा यथा ॥उपजा तिबंदः॥ सुसीख आले प्रिय चित्त चाले ॥ जे शील पाले गृह चिंत टाले ॥ दाना - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सूक्तमुक्तावली. दि जेणे गृहधर्म होई ॥ ते गेहि नित्ये घरलनि सोई॥ १० ॥ अथ स्त्रीदोषा यथा ॥ उपजातिबंद ॥ जो हरयो जे पति मारकायें ॥ नारख्यो नदीमा गुक मालिका ये ॥ सुदर्शनश्रेष्टि सुशील राख्यो ॥ ते बाल देई अनयाय दारव्यो ॥ ११॥ वसं ततिलका बंदः ॥ मायो प्रदेशि सुरिकांति विषयावलीए ॥ राजा यशोधर हरयो न यनावलीए ॥ दुःखी कस्यो स्वसुर नूपुर पंडिताए ॥ दोषी त्रिया इम जणी शण दोषताए ॥ १२॥ अथ सुलदणी स्त्रीविषेः--शार्दूलविक्रीडितबंद ॥ रूडी रूपवती सुशील सुगुणी, लावण्य अंगे लसे ॥ लजालु प्रियवादिनी प्रियतणे, चित्ते सदा जे वसे ॥ लीला यौवन ननसे नरवसी, जाणे नलोके वशी ॥ एवी पुस्यतणे पसाय लहिये, रामे रमा सारशी ॥१३॥ उपजातिबंदः॥ सीता सुना नलराय रा णी ॥ जे शेपदी शीलवती वखाणी ॥ जे एहवी शीलगुणे समाणी ॥ सुलक्षणा ते जगमांही जाणी ॥१४॥ अथसंयोगविषेः॥ मालिनी बंदः प्रियसखि प्रिययोगे उन्न से नेत्र रंगे ॥ हसित मुख शशीज्युं सर्व रोमांच उंगे ॥ कुच इक मुक वैरी नम्रता जे न दाखे ॥ प्रिय मिलण समे जे अंतरो तेह राखे ॥ १५ ॥ अथ वियोगविषेः दिन वरस समाणे रैणि कल्पांत जाणे ॥ हिम रज कदली जे तेह काला प्रमाणे ॥ शशिरसिकरसो जे सरसो सोइ लागे ॥ प्रिय विरह प्रियाने दुःख शं शं न जागे ॥१६॥अथ माता विषे॥ इंश्वजाबंदः ॥जे मातनो बोल कदा न लोपे॥जे विश्वमा सू रज जेम ओपे ॥ ज्यां धर्म चर्या बहुधा परीखी ॥ त्यां मातपूजा सदुमां सरीखी ॥१॥ जे मात मोहें जिन एम कोधो ॥ गर्ने वसंतां व्रत नेम लीधो ॥ जे मात न ज्ञा वयणे प्रबुझो ॥ शीला तपंते अरहन्न सीधो॥१॥अथपिताविषेः॥ जे बाल ना वे सुतने रमाडे॥ विद्या नणावे सरखं जमाडे।ते तातनो प्रत्युपकार एही॥जे तेह नी नक्ति हिये वहेही ॥१५॥ मालिनीबंदः ॥ निषध सगर राया जे हरीन चं श॥ तिम दशरथ राया जे प्रसन्ना मुनि ॥ मनक जनक जेते पुत्रने मोह ना स्या ॥ स्वसुत हित करीते तेहना काज सास्या ॥॥ अथ पुत्रविषेः॥स्वागताबंदः मात तातपद पंकज सेवा ॥ जे करे तस सुपुत्र कहेवा॥जेह कीर्ति कुललाज वधा रे ॥ सूर्य जेम जगि तेज सधारे॥ २१ ॥ शालिनीनंदः ॥ गंगापुत्रे विश्वमा कीर्ति रोपी ॥ याज्ञा जेणे तातरीन लोपी॥ ते धन्या जे अंजनापुत्र जेवां ॥ जेणे की धी जानकी नाथ सेवा ॥ २२ ॥तोटकबंदः ॥ इम काम विलास उलास तए ॥ र सरीति हृदे अनुनावतए ॥ जिमचंदन अंग विलेप तए ॥ हिय होय सदा सुख संपतए ॥ २३ ॥ इति श्रीसूक्त मुक्तावव्यां काम वर्गस्तृतीयः समाप्तः ॥ - - - - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तमुक्तावली. अथ मोदवर्ग प्रारंनः उपजातिबंदः ॥ ग्राह्याःकियंतः किल मोदवर्गे कर्मक्षयासंयमनावनाद्याः॥वि वेकनिर्वेद निजप्रबोधा इत्येवमेते प्रवरप्रसंगाः ॥ १ ॥ मोदार्थविषे मालिनी दः ॥ इह नव सुख हेते के प्रवर्ते नसेरा॥ परनव सुखदेते जे प्रवर्ते अनेरा ॥अव र अरथ मी मुक्ति पंथा अराधे ॥ परम पुरुष सोई जेह मोदार्थ साधे ॥ २॥ तजिय जरत केरी जेण वे खंड नूमी॥ शिवपथ जिण साध्यो सोलमे सांति सामी॥ गजमुनि सुप्रसिक्षा जेम प्रत्येक बुझा ॥ अवर अर्थ बंडी धन्य ते मोद लुहा॥३॥ अथ कमेविषे ॥ करम नृपति कोपे दुःख आपे घणेरा।। नरय तिरय केरा जन्म ज न्मे अनेरा ॥ गुन परिणति होवे जीवने कर्म तेवे ॥ सुरनरपतिकरी संपदा सो देवे ॥ ४ ॥ करम शशि कलंकी कर्म नितू पिनाकी ॥ करम बलि नरें प्रार्थना विष्णुरांकी ॥ करम वश विधाता इंश सूर्यादि होई ॥ सबल करम सोई, कर्म जेवो न कोई ॥ ५॥ अथ दमाविषे ॥ऽरित जर निवारे जे क्षमा कर्म वारे ॥ सकल तप सधारे पुन्य लक्ष्मी वधारे ॥ श्रुत सकल अराधे जे दमा मोद साधे ॥ जिण निज गुण वाधे ते दमा कां न साधे ॥ ६ ॥ सुगति लहि खिमाए खंध सूरास सोसा ॥ सुगति दृढ प्रहारे कूरग मुनीसा ॥ गज मुनिस खिमाए मु क्ति पंथा अराधे ॥ तिम सुगति खिमाए साधु मैतार्य साधे ॥ ७॥ अथ संयमविषे स्वागता बंद ॥ पूर्व कर्म सवि संयम वारे॥ जन्म वारिनिधि पार उतारे ॥ तेह संयम न केम धरीजे ॥ जेण मुक्ति रमणी वश कीजे ॥ ७ ॥ तुंग शैल बलदेव सुहायो॥ जे ण सिंह मृग बोध बतायो । तेम संयम लहीय अरायो। जेण पंचम सुरालय पायो ॥ ॥ अथ दादश नावनाविषे.॥तत्र प्रथम अनित्य नावना ॥मालिनी बंदाधरण कण तनु जीवी वीज जात्कार जेवी ॥ सुजन तरुण मैत्री स्वप्न जेवी गणेवी ॥ अहमत ममताए मूढता कांइ मार्च ॥ अथिर अरथ जागी एणशं कोण राचे ॥ १० ॥ धरणि तरु गिरिंदा देखिए नाव जेई॥ सुर धनुष परे ते नंगुरा नाव तेई इम त्दृदय विमासी कारमी देह बाया॥तजिय नरतराया चित्त योगे लगाया ॥११॥ वितीय असरण नावना ॥ परम पुरुष जेवा संहस्सा जे कृतांते ॥ अवर सरण के नुं लीजिये तेह अंते ॥ प्रिय सुत्द कुटंबा पाश बेठा जिकोई ॥ मरण समय राखे जीवने ते न कोई ॥ १२ ॥ सुर गण नर कोडी जे करे जास सेवा ॥ मरण नय न लूटा तेह इंज्ञादि देवा ॥ जगत जन हरंतो एम जाणी अनाथी ॥ व्रत ग्रहिय वि लूटो जेह संसारमाथी॥ १३ ॥ तृतीय संसार नावना ॥ शार्दूलविक्रीडितबंदः ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सूक्तमुक्तावली. तिर्यंचादि निगोद नारकितणी, जे योनि योनी रह्यां ॥ जीवे दुःख अनेक मुर्गतित गा, कर्मप्रनावे लह्यां ॥ या संयोग वियोग रोग बहुधा, या जन्म जन्मे उरखी ॥ ते संसार असार जाणि इहवो, जे ए तजे सो सुखी ॥ १४ ॥ इंश्वजा बंदः ॥जे हीन ते उत्तम जाति जाए ॥ जे उच्च ते मध्यम जाति थाए ॥ ज्यूं मोदमेतार्य मुनी जाए ॥ त्यूं मंगु सूरी पुरयद थाए ॥ १५ ॥ चतुर्थ एकत्वनावना पुण्ये अकेलो जिव स्वर्ग जाए ॥ पापे अकेलो जिव नर्क जाए ॥ ए जीव जा था व करेयकेलो॥ ए जाणिने ते ममता महेलो ॥१६॥ उपजाति वंदः॥ ए एकलो जी व कुटंब योगे॥ सुखी सुखी ते तस विप्रयोगे॥ स्त्री हाथ देखी वलयो अकेलो॥न मी प्रबोध्यो तिणथी वहेलो ॥१७॥ पंचम अन्यत्वनावना ॥ जो आपणो देहज ए न होई ॥ तो अन्यको थापण मित्त कोई ॥जे सर्व ते अन्य इहां नणीजे ॥ केहो ति हां हर्ष विषाद कीजे ॥ १७ ॥ देहादि जे जीवथकी अनेरां ॥ श्यो कुःख कीजे तस नासकेरां ॥ ते जाणिने वाघणिने प्रबोधी॥ सुकोसले स्वांगन सारकीधी॥१॥ अथ अशुचिनावना ॥ काया महा एह अचिताई ॥ जिहां नवकार वहे सदाई ॥ कस्तू रिकर्पूर सुव्य सोई ॥ ते काय संयोग मलीन होई ॥२०॥अशूचि देही नर नारि के। ॥ मराच जे ए मलमूत्र सेरी॥ए कारमी देह असार देख॥चतुर्थ चक्रिय पण ते उवेखी ॥२१॥सप्तमी याश्रवनावनामालिनीबंदः॥ इह यविरति मिथ्या योग पापादि साधे शण नण नव जीवा आश्वे कर्म बांधे ॥ करम जनक जेने आश्रवा जे न रुंधे ॥ स मर समय आत्मा संवरी सो प्रबुद्धे ॥२॥ इंश्वजाबंदः ।। जेकुंडरीके व्रतबांडि दी, नाश्त; तेवलि राज्य लीधुं।तेछुःख पाम्या नरके घणेरा।।तेहेतु एवाश्रवदोषकेरा।२३ अष्टमी संवरनावनाजे सर्वथाथाश्रवने निरुंधे। तेसंवरी संवरनाव साधे॥ ते नाववंदो गुरुवज स्वामी॥जेणे त्रिया कंचन कोडिवामी ॥२४॥ नवमीनिर्जरा नावना ॥मालिनी बंदः॥ज्यदस तपनेदे कर्म ए निर्जराए।उतपति थिति नाशे लोक नावा नराए।उरलन जग बोधीऽलना धर्मबुद्धानव हरणि विनावो नावना एहगुह॥२५॥नपजातिहंदः॥ बे निर्जरा काम सकाम तेही॥अकाम जे ते मरुदेवि जेही ॥ ते ज्ञानथी कर्मह निर्ज राजे ॥ दृढ प्रहारी परि तो तरीजे ॥२६॥ दशमी लोकनावना॥ मालिनी बंदः॥ जिम पुरुष विलोये ए अधो लोक तेवो ॥ तिरिय पण विराजे थाल स्योरस जे वो ॥ उरध मुरज जेवो लोकनाले प्रकास्यो ॥ तिमज नवन नानूं केवली ज्ञान नास्यो ॥ २७ ॥ एकादश बोधिदुर्खननावना ॥ स्वागता बंदः ॥ बोधि बीज लहि जेह अराधे ॥ ते श्लासुत परे शिव साधे ॥ धर्म नावन सही नवि जावो ॥ राय - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 सूक्तमुक्तावली. संप्रति परे सुख पावो ॥ २७ ॥ अथ रागविषे ॥ इंश्वज्जा बंदः ।। रागे म राचे नव बंध जाणजे जाण ते राग वशे अनाणीगौरी तणे राग महेस रागीयर्धाग देवा नि जबुद्धिजागी ॥२॥ अथ षविषे ॥रेजीव विदेष मने म ाणे॥ विष संसार निदान जाणे ।। सासू नणंदे मिलि कूड कीबूं ॥ जूवं सुना शिर थाल दीडूं ॥३०॥ अथ संतोषविषे॥ वसंततिलका बंदः ॥ संतोष तृप्त जनने सुरख होय जेवू ॥ ते इव्य लुब्ध जनने सुख नाहि तेवू ॥ संतोषवंत जनने सद्ध लोक सेवे ॥ राजेंड रंक सरि खा करि जेह जोवे ॥३१॥अथ विवेकविषे॥ उपजाति बंदः ॥जो जेह चित्ते सुवि वेक नासे ॥ तो मोह अंधार विकार नाशे ॥ विवेक विज्ञानतणे प्रमाणे॥जीवादि जे वस्तु स्वनाव जाणे ॥ ३२ ॥ इंश्वजा बंदः॥ बाला पणे संयम योग धारी॥ वर्षाश्ते काचलि जेण तारी॥ श्रीवीरकेरो अयमन तेई ।। सुझान पाम्यो सु विवेक लेई ॥ ३३ ॥ अथ निर्वेद विषशार्दूलविक्रीडितबंदः॥जे बंधूजन कर्म बंधन जि सा, नोगा नुजंगा गिणे ॥ जाणंतो विषसारिखी विषयता, संसारता ते हणे ॥ जे सं सारह रागहेतु जनने, संसार नावा दुवे॥ नावो ते विरागवंत जनने, वैराग्यता दाखवे ॥३४॥ वसंततिलकाबंदः॥निर्वेद ते प्रबल उनर बंदिखाणो ॥जे बोडवा मनधरे बुध तेह जाणो। निर्वेदथी तजिय राज विवेक लीधो योगी नर्तहरि सं यम योग लोधो ॥३५॥ अथ आत्मबोधविषे॥ए मोहनींद तजि केवल बोध हेते॥ ते ध्यान शुरु झदि नावनि एक चित्ते ॥ ज्यूं निःप्रपंच निज ज्योति स्वरूप पावे ॥ निर्बोध जे अखय मोत सुखार्थ यावे ॥३६॥ मालिनी बंदः॥ नवि विषयतणा जे चंचला सौरव्य जाणी॥प्रियतम प्रिय योगा नंगुरा चित्त पाणी॥ करमदल खपे ई केवल ज्ञान लेई॥ धन धन नर तेई मोद साधे जिकई ॥ ३७ ॥ इति मोदव र्गः चतुर्थः समाप्तः ॥ ___ उपजाति वृत्तं ॥ इत्येवमुक्ता किल सूक्तमाला विनूषिता वर्गचतुष्टयेन ॥ तनोतु शोना मधिकं जनानां कंस्थिता मौक्तिकमालिकेव ॥१॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ आसीत्सगुणसिंधुपार्वणशशी श्रीमत्तपागलपः सूरिः श्रीविजयप्रनानिधगुरुर्बुध्या जित स्वर्गुरुः ॥ तत्पट्टोदयनूधरो विजयते नास्वानिवोद्यत्प्रनः सूरिश्रीविजयादिर नसुगुरुर्विजनानंदनूः ॥२॥ आर्यावृत्तं ।। विख्यातास्ताज्ये, प्राझाः श्रीशांतिवि मलनामानः॥ तत्सोदरा बनवुःप्राज्ञाः श्रीकनकविमलाव्हाः॥३॥ तेषामुनी विनेयो विधान कल्याणविमल इत्याव्हः।तत्सोदरोक्तिीयः केसरविमलानिधो ऽवरजः ॥४॥ || तेन चतुर्निवं गैं,रचितानाषानिबरुचिरेयं ॥ सूक्तानामिह माला, मनोविनोदाय | - । - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ शातसुधारस.. बालानां ॥ ५॥ वेदेश्यिर्षि चं, प्रमिते श्रीविक्रमाहृते वर्षे ॥ अग्रंथि सूक्तमाला केसर विमलेन विबुधेन॥६॥इति श्रीसूक्तमुक्तावली संपूर्ण. ॥ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः॥ अथ श्री विनयविजयजी उपाध्यायकृत शांतसुधारस ग्रंथ अर्थसहित प्रारंनः शार्दूलविक्रीडितबंदः॥नीरंध्रे नवकानने परिगलत्पंचाश्र वांनोधरे नानाकर्मलतावितानगहने मोहांधकारोथुरे ॥ भ्रांतानामिद देहिनां स्थिरकृते कारुण्यपुण्यात्मनिस्तीर्थ शैः प्रथितास्सुधारसकिरो रम्या गिरः पातु वः ॥१॥ अर्थ ॥ प्रथमग्रंथकर्ता ग्रंथनेयादें श्रीतीर्थकरदेवनी वाणीनी स्तुतिकरी मंग लाचरणकरे हेनव्यो जेमां कोऽबिश्नथी एटलेनिकलवानो बारणोनथी वलीजेमां समस्तप्रकारें पांचधाश्रवरूप मेघ वरसीरह्यं तथानानाप्रकारना ज्ञानावरणीयादि क कौनीप्रतिरूप वेलियेकरीव्याप्त अनेमोहरूप अंधकारेकरीयुक्त एहवोथासं साररूपवन तेमांफिरनाराजे प्राणीयो तेने स्थिरकरवानेअथै करुणायेंकरीपवित्रले अंतःकरणजेहनो एहवा चतुर्विधसंघरूप तीर्थनाईश्वरजे श्रीतीर्थकरदेव तेणेउपदे सेली अमृतरसने वरसती एहवीरमणीयजेवाणी ते तमारूं रक्षणकरो ॥१॥ द्रुतविलंबितं त्तत्रयस्फुरति चेतसि नावनया विना न वि उषामपि शांतसुधारसः॥ न च सुखं कृशमप्यमुना विना जगति मोहविषादविषाकुले ॥२॥ यदि नवभ्रमखेदप राङ्मुखं यदि च चित्तमनंतसुखोन्मुखं ॥ शृणुत तत्सुधि यः शुननावनानृतरसं मम शांतसुधारसं ॥ ३ ॥ सुम नसो मनसि श्रुतपावना निदधतां यधिका दश नावनाः॥ यदिह रोदति मोहतिरोहिताभुतगतिविदिता समतालता अर्थ ॥ हवेजेशांतसुधारसते नावनायोविना स्फुरतोनथी तेकहे विज्ञानलोको Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. १२५ ना अंतःकरण मां शांतिरूपमृतनोरस तेनावविना स्फुरतोनथी धने मोह तथा खेद तद्रूपविषेकरी व्याप्त एहवोजेजगत तेमां शांतसुधारसविना किंचित्मात्र थोमोपखनी || || माटेवाशांतसुधारसनामा ग्रंथसांनलवानो उपदेशकरेले हेमंत जोतमा मन संसारभ्रमण करवाना खेदेकरी पराङ्मुख उपरांतूं थयोहोय जेमां अनंत सुखले एहवोजेमोक् तेनासुखपामवाने विषे सन्मुखथयो होय तोजेमां मनोहरनावनानो रसन रेलोबे एवोमारो खाशांतसुधारसनामा ग्रंथसांजलो ॥ ३ ॥ वे नवनाथ समताप्रगटथायतेक देवे हेपंमितजनो आसंसारमा जेनुंश्रवणमा करवाथीज पवित्रतानेकरनारी एहवीबारनावनाले तो तेने धारणकरनारो जेजीव तेनादयमा मोहजे ज्ञान तेने याचादितकरनारी अनेजेहनी अनुतगतिबे एहवी प्रख्यात समतारूप वेलीप्रगटथशे ॥ ४ ॥ रथो६तावृत्तं॥आर्तरौऽपरिणामपावक लष्टभावुक विवेक सौष्ठवे ॥ मानसे विषयलोलुपात्मना व प्ररोहतितमां समांकुरः ॥ ५ ॥ अर्थ || हवेसमतापामवाने जे योग्यहोयतेकडे जेनुंमन पांचेंड्रियना वीस विषयाने विषे लोलुप एहवा प्राणने या रोड़ध्यानेकरीने उत्पन्न थयेली एह वीजे माठापरिणामरूप अग्नि तेोकरीने जावनाना रसनेविषे जे चतुरपुरुषोढे तेना विचाररूप रूडापणुं जेमांथीबलीगयुंबे एहवाप्राणीखोना मनमां समतानोअंकुर कहांथी उत्पन्नयाय अर्थातनजथाय ॥ ५॥ वसंततिलकावृत्तं ॥ यस्याशयं श्रुतकृतातिशयं विवेकपी यूषवर्षरमणीयरमं श्रयंते ॥ सद्भावना सुरलता नदि तस्य दूरे लोकोत्तर प्रशमसौख्यफलप्रसूतिः ॥ ६ ॥ अर्थ || हवेसमतापामाने योग्य होय तेकहेने सिद्धांतश्रवणादिकेकरीने अत्यं तपणे संपूर्ण नरेला वृद्धिपामेला तथा विवेकरूप अमृतवृष्टीनी रमणीयजेक्रीडा ते करीने रम्यके० मनोहर शोभायमान एहवांजेनां अंतःकरणले तेवां अंतःकरणो मां सावना श्रयं के प्रवेशकरेबे तेथीतेपुरुषने लोकोत्तरजे प्रशमके० शांतर सनासुख अर्थात्मसुख तेनाफलने प्रसवनारी एहवीजे सुरलताके० कल्पलता ते दूरनथी अर्थात् तेहने मोह दूरनथी ॥ ६ ॥ ० Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. अनुष्टुत्त६ ॥ नित्यताशरणते नवमेकत्वमन्यतां ॥ शौच माश्रवं चात्मन् संवरं परिभावय ॥७॥ कर्मणो निर्जरां धर्म सुकृतां लोकपतिं ॥ बोधिर्लनतामेता जावयन्मुच्यसे नवात् ॥ ८ ॥ अर्थ || हवेवे श्लोकेंकर। श्राग्रंथमांनाववानी बारजावनानां नामकले १ अनित्यनावना २ अशरणनावना ३ संसारनावना ४ एकत्वनावना ५ अ न्यत्वावना ६ चिनावना ७ श्राश्रवनावना संवरनावना ॥ श्रात्मातुं एना arrat विचारकर ॥ ७ ॥ ए कर्मनिर्जरानावना १० धर्मभावना ११ रूडाप्रका रनी लोकस्वरूप जावना १२ बोधिडुर्लन जावना ॥ श्रात्मातुं एबारनावनाओ नो वि चारकरतोयको संसारथकी मुक्तथइस ॥ ८ ॥ १२६ पुष्पिताग्रावृत्तं ॥ वपुरवपुरिदं विदवलीलापरिचितमप्यतिनंगुरं नरा णां ॥ तदतिभिरयौवनाविनीतं भवति कथं विदुषां महोदयाय ॥ ए ॥ अर्थ || हवेप्रथमत्र्यनित्यभावना नावतां शरीरतुं अनित्यपदेखाडेढे देवि ६ न्जन श्रजगतमां अलीलानीपरें कलनंगुर खनेजेहनो जयकरवो अत्यंत कठी na meat तरुणवस्थायेंकरी उन्मत्त मदनजे कामदेव तेनाजेदतुं सुंदर एह जे मनुष्योनुंशरीरते विद्वान्जे पंमितलोक तेनापल महोटा उदयकरवानुं कारण शीरीतेंथाय पितुनहीजाय ॥ ए ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तध्यं ॥ त्र्यायुवीयुतरत्तरं गतरलं लग्नाप दः संपदः सर्वे पीडियगोचराश्च चटुलाः संध्याभ्ररागादिवत्॥ मित्र स्त्री स्वजनादिसंगमसुखं स्वप्नेऽजालोपमं तत्किं वस्तुन वे नवेदिद मदामालंबनं यत्सतां ॥ १० ॥ प्रातर्भ्रातरिहाव दातरुचयो ये चेतनाचेतना दृष्टा विश्वमनः प्रमोद विडरा जा वाः स्वतः सुंदराः॥ तांस्तत्रैव दिने विपाकविरसात् हा नश्य तः पश्यतश्चैतः प्रेतदतं जहाति न नवप्रेमानुबंधं मम ॥ ११ ॥ || हवेबेकाव्येंकरी संसारनो नित्यपदेखामेले हेप्राणी यासंसारमां वा करी चंचलययला एहवाजे पाणीनातरंग तेहनीपरें आयुषपणचंचलबे वली विचित्रप्रकारनी संपत्ति तेपण विपत्तियेंकरीयुक्त धने समस्त रूपरसादिकजे Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. विषयचे ते संध्याकालना आकाराजेवासुंदर एटले संध्याना अन्ररागनीपरें सुंदर तो पण अन्त्ररागनीपरें थोडीवारपनि विनाशशील तथा मित्र स्त्री स्वजन इत्या दिकोनोजे समागम तेणेकरीने थयेधुंजेसुख तेस्वप्नसरी किंवाजालसरखं ते वारें आसंसारमा सत्पुरुषोने आश्रयकरवायोग्य कश्वस्तुबेवारुं, अर्थात्कोजनथी सर्वविनाशशील अनित्य इतिनाव ॥ १०॥ वली चातके हेनाई आजगतमा जे प्रजातसमयें स्वहकांतिवान तथा अत्यंतपणे जगतने आनंद आपनारा थने स्वतासुंदरजे चेतनपदार्थ अने अचेतनपदार्थना नावदीवाहोय तेपदार्थोनो काल परिपाक थयाथी तेहिजदिवसें शोनायेंकरी हीन थजायने अने नाशपामेले ए हवापदार्थोने जोनारो एहवो महारूं हतके नष्टथय जे अंतःकरण ते संसार संबंधने मूकतुंनथी ए कहेवी महोटी खेदनीवात ॥ ११ ॥ ॥ प्रथमनावनाष्टकं रामगिरिरागण गीयते ॥ मूढ मुह्यसि मुधा ॥ मूढ मुह्यसि मुधा ॥धुवपदं ॥ विनव मनुचिंत्य हृदि सपरिवारं ॥ कुशशिरसि नीरमिव गलद निलकंपितं ॥ विनय जानीदि जीवितमसारं ॥ मू॥१॥ अर्थ॥ हवेवलीविशेष अनित्यनावना नावतोथको संसार- अनित्यपणुं देखाडे जे हेमूर्खशिष्य तुं परिवारसहित पोतानीसंपत्तिनुं चिंतनकरीने मुव्यर्थमोहपामेले वायुयें हलाव्योथको कंपायमानथयीने गलीजनारो एहवो दर्जनाअयनागें रहेना रोजे पाणी, बिंडो तेनीपरें देविनय था तहारुंजीवितव्य असार एमजाण एरीतें विनयविजयजीनपाध्याय पोतेपोताने प्रतिबोधकरतो बीजानेपण उपदेशकरे ॥१॥ पश्य नंगुरमिदं विषयसुखसौहृदं पश्यतामेव नश्यति सहासं ॥ एतदनुहरति संसाररूपं रयाज्वलकालदबालिकारुचिविलास।मूणार अर्थ ॥ वलीहेमित्रतुं जो के याविषयसुखते दणनंगुर जेमकोई हाथतालीदेई ने हसतांहसतांज नाशीजाय तेनीपरें विषयसुखपण जोतांजोतांज नहता एह वाजायजे वली था संसारनु स्वरूपते वेगेकरीने जनारी एहवीजे वाजली तेना जबुकानी कांतीनुं अनुकरण करे एटले एसंसारनुं स्वरूपते वीजलीनीपरें चंचल। हंत हतयौवनं पुबमिव शौवनं ॥ कुटिलमति तदपि लघु दृष्टनष्टं ॥ तेन बत परवशापरवशा हतधियः॥ कटुकमिह किं न कलयंति कष्टम्॥मूण॥३ | Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ शांतसुधारस. अर्थ ॥ या एकमहोटी खेदनीवात के पुष्टतारुण्यपणुंते कुतरानी पुरडीसरिखो वांको अने जेहने जोतावारज तुरतनहीएवोथईजाय अर्थात् नाशपामीजाय एह वा तारुम्यपणाने परवशाके० पराधीनथयला हतधियके नष्टबुद्धिवंतजे पुरुषोळे ते संसारमा परवशाके ० स्त्रीयो ते कष्टकारी कडवाफलनीयापनारी एहवं जाण तानथी माटे बतइतिखेदे एपणएकमहोटुं खेदनोज कारण ॥ ३ ॥ यदपि पिण्याकतामंगमिदमुपगतं ॥ जुवन यजरापीतसारं॥ तदपि गतलज्जमुमतिमनो नांगिनां वितथमतिकुथितमन्मथविकारामूणा॥ अर्थ ॥ जोपण त्रलोकना प्राणीयो जेने जीतवाने अत्यंतअसमर्थ एहवीजे जरायवस्था तेणेकरीने जेपुरुषy सारके० सत्वपणुं जतुरझुंडे एटले जरायेंकरी शरीरदीपथरंगयुंजे एहवं एशरीर कुर्बल थयुं होय तोपण निलप्राणीयोनां मन निष्फल बुद्धिथी उत्पन्नथयला कामविकारने मूकतानथी ॥ ४ ॥ सुखमनुत्तरसुरावधि यदतिमेरं॥कालतस्तदपि कलयति विरामक तरदितरत्तदा वस्तु सांसारिकंस्थिरतरं नवति चिंतय निकामं ॥मय अर्थ ॥ जुयोके पांचयनुत्तर विमाननां घणाज पुष्टकारीसुख तेनीपण मर्यादा ने ते पणकालेंकरी मर्यादापुरीथयाथी विरामपामे तो पांच अनुत्तरविमान करतां एवी बीजीकवस्तुळे जेसंसारमा वधारेस्थिरीनूतथसे एवातनोतुं महोटोविचारकर यैः समं कीमिता ये च नशमी मिता यैः सहाकृष्मदि प्रीतिवाद।तान् जनान्वीदय बत नस्मनूयंगतानिर्विशंकाः स्म इति धिप्रमादाम अर्थ ॥ जेनीसाथे आपणे हरहमेस रमता खेलता क्रीमाकरता तथा जेनीया पणे अत्यंत स्तुतिकरतां अने जेनीसाथें आपरोंप्रीतीयेंकरी बोलताहता तेहिजप्रा णीने जस्मनत थरंगयला देखीने पण जोअमें निशंक रहियें बयें तो बतइतिखेदे एवोजे अमारो प्रमाद तेप्रमादने धिःकारहोजो ॥ ६ ॥ असकदुन्मिष्य निमिषंति सिंधूमिवच्चेतनाचेतनाः सर्वनावाः॥इंजा लोपमाः स्वजनधनसंगमास्तेषु रज्यंति मूढस्वनावाः ॥ म ॥ ७ ॥ अर्थ ॥ जेम समुना कनोल वारंवार उत्पन्नथयीने नाशपामे तेमज जगत मां स्थावर अने जंगमपदार्थोना नावडे एमजाणवु अने जगतमां इव्यादिकनो जेसं बंधने तेसर्व इंजाल सरिखोले तो एहवा पदार्थोउपर हेमूर्वप्राणीतुं छूराजपामेले ७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. १२ कवलयन्नविरतं जंगमाजंगम जगदहो नैव तृप्यति कृतांतः ॥ मुखग तान् खादतस्तस्य करतलगतैर्न कथमुपलप्स्यतेऽस्मानिरंतः ॥ मू०॥८॥ अर्थ ॥ वली स्थावर ने जंगमात्मक जगतने निरंतर नए करनारो एहवोजे क तांतके० यमते तृप्तथातोनर्थ। एमहोटोग्राश्वर्यवे तोमुखमां याव्याप्राणीनो नक राजे कालतेनाजहाथमा रहेनारा मेबैये ते श्रमारोमृत्यु केवीरीतेनथाय॥ ८ ॥ नित्यमेकं चिदानंदमय मात्मनोरूपमनिरूप्य सुखमनुभवेयं ॥ प्रशमरसनवसुधापान विनयोत्सवो भवतु सततं सतामिद न वेऽयं ॥ ( ॥ इतिमहोपाध्याय श्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपा ध्याय श्रीविनय विजयगणिविरचिते शांतसुधारसगेयकाव्ये अनित्यभावना विनावनो नाम प्रथमः प्रकाशः ॥ अर्थ | तेमाटे नित्य एकचिदानंदमय जे महारोयात्मा तेहनुं स्वरूपजोईने सु खनो अनुtव हुंकरीश इहां विनयविजयजी उपाध्यायक हेबेके या मनुष्यनवमां शांतिरसरूपजे नूतनमृत तेहनेपानकरवानो उत्साह सत्पुरुषोने निरंतर होजो ए इति श्रीमन्महोपाध्याय श्रीकीर्त्तिविजयगणि शिष्योपाध्याय श्रीविनयविजयगण विरचिते शांत सुधार सेगेय काव्ये अनित्यनावना विनावनोनाम प्रथमः प्रकाशः ॥ शार्दूलविक्रीतं वृत्तं ॥ पखंडमदीमदीनतरसा निर्जित्य बभ्राजिरे ये च स्वर्गभुजो जोर्जितमदा मेर्मुदामेराः ॥ तेपि क्रूरकृतांतवक्करदनैर्निर्द व्यमाना दादत्राणाः शरणाय हा दश दिशः प्रेत दीनाननाः ॥ १ ॥ अर्थ || हवेबीजी अशरणनावना नावेबे यासंसारमा मृत्युावेथ के कोने को ईनुं शरणनथी एमदेखाडेले हाइतिखेदे जेपुरुष महोटापराक्रमेकर बखमष्टथवी जीति शोभानेपाम्या एहवा चक्रवर्ती तथा जेहर्षेकरी पुष्टथयला अने जेहनी जात्रोमा उत्कृष्टबलले एटले स्वर्गना सुखनोगवीने आनंदपाम्याने हवा देवताओ नेपण जेवायें क्रूर हृदयवंत जे यम तेपोताना मुखमांलेई दांतोना बलात्कारेकरी न करे तेवारें तेrरण थयाथका दीनमुखकरी कोईनुशरण लेवानेन्ार्थं वशे दिशायें जूसले तोपणतेने कालनादांतमांथी मूकाववाने कोई समर्थनथाय ॥ १ ॥ स्वागतावृत्तं ॥ तावदेव मदविभ्रममाली तावदेव गुणगौरवशा ली ॥ यावदत्तमकृतांतकटानेंदितो विशरणो नरकीटः ॥ २ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० शांतसुधारसं. अर्थ ॥ माटेजेनो रक्षणकरनार कोईनथी एहवो एमनुष्यरूपीओ कीटजेकीडो ते हनेजिहांसुधि सहनकरवाने उलन एहवोजेकाल तेणे पोताना कटाकरी जोयुन थी तिहांसुधी मदजे अहंकार तेनाविलासेकरी शोनेले अने तिहांसुधीज गुणोनो गौरवपणुं धारणकरे ॥ २॥ शिखरिणीवृत्तं ॥प्रतापैक्पन्नं गलितमथ तेजोनिरुदितैर्गतं धैर्योद्योगैः श्लथितमथ पुष्टेन वपुषा॥प्रत्तं तद्रव्यग्रहणविषये बांधवजनैर्जने कीनाशेन प्रसनमुपनीते निजवशं ॥ ३ ॥ अर्थ ॥ पण जेप्राणीने जेवारें यमराजायें पोताने स्वाधीनकस्यो तेवारें तेप्राणी नो प्रतापपण नाशपाम्यो अने उदितथयजेतेज हतुं तेपणगलीगयुं तथा धैर्य थ ने उद्योग पण जतुंरघु वली शरीरपुष्टहतो तेपण शिथिलथईगयुं अनेतेपुरुष एकतुं करेलु इव्य लेवाने अर्थ बांधवजन जे नाईयो प्रमुख हता ते प्रवर्तयया ॥३॥ दीतीयनावनाष्टकं मारुणीरागण गीयते स्वजनजनो बहुधा हितकामं प्रीतिरसैरनिराम।मरणदशावशमुपगत वंतं रदति कोपि न संतं ॥१॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मः शरणं॥ अनुसंधीयतां रे शुचितरचरणस्मरणं ॥ विण ॥२॥ध्रुवपदं। अर्थ ॥ फिरि सम्यकदृष्टीजीवें विशेषेकरी अशरणनावनाने आवीरीतें नाववीते कहे जेपोताना स्वजनलोक तेघगुंज हितनावांबक तथा प्रीतिनाराखनार इत्या दिकरीते घणाप्रकारें रूडाचे पणतेसर्व स्वार्थनिमित्तेजाणवा ए तात्पर्य परंतु हेस स्पुरुषो जेवारें जीव मरणअवस्था पामवाने तैयारथयो तेवारेंतेनुं संरक्षण करना र कोईनथी॥१॥ तेमाटेग्रंथनाका श्रीविनय विजयजी उपाध्यायकहेले के हेवि नय तुं श्रीजिनधर्मनु शरणकर अने पवित्र एहजे चारित्रतेनुं स्मरणकर ॥ ३ ॥ तुरगरथेननरातिकलितं दधतं बलमस्खलितं ॥ दर ति यमो नरपतिमपि दीनं मैनिकश्व लघुमीनं ॥ वि० ॥३॥ श्रर्थ ॥ घोडा रथ हाथी पायदल एचतुरंगणी सेनायेंकरीयुक्त तथा पोतेपण यस्खलित बलने धारणकरनारो एटलेकोईकालें खलनापामेनही एहवो महापरा क्रमवंत राजा तेनेपण जेरीतें मैनिकके० माबसानोमारनार जटदेईने लघुमी नके न्हाना दीनमानलाओने पकडीलिये तेरीतें यम पकझीलिये ॥ ३॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. प्रविशति वजमये यदि सदने तृणमथ घटयति वदने । तदपि न मुंचति हतसमवर्ती निर्दयपौरुषनर्ती ॥ वि० ॥४॥ अर्थजो वजमय एटले वजनाज परमाणुयें बनावेला घरमांप्रवेशकरे अथवा मुखमा तृपषलाधारणकरे परंतु निर्दय अने पराकमेंकरी नाचनारो तथाजेहनी सर्वेनेविर्षे समानघातकरवानीजत्तिने एहवोजेयम ते तेनेपण मूकतोनयी ॥४॥ विद्यामंत्रमहौषधिसेवां सृजतु वशीकृतदेवां ॥ रसतु रसायनमुपचयकरणं तदपि न मुंचति मरणं । वि० ॥५॥ अर्थ ॥ हेप्राणी जो देवतानुसाधनकरी पोतानेस्वाधीनकरो अथवा महोटीम होटी विद्यायो साधनकरो मंत्रसाधनकरो तथा महोटी औषधियोसाधी शरीरपु ष्टी करवानेअर्थे आरोगो तोपण मरण मूकतुंनथी॥ ५ ॥ वपुषि चिरं निरुणधि समीरं पतति जलधिपरतीरं ॥ शिर सि गिरेरधिरोहति तरसा तदपि स जीर्यति जरसावि॥॥ अर्थ ॥हेनव्यो जो समाधीचडावी शरीरने घणाकालसुधी वायुनोरोधकरो अथ वा समुज्ने पहेलाकांठे जईबेशो अथवा बलात्कारें पर्वतनाशिखरनपर चडीबेशो तोपण जराअवस्थाथी दीपथ ते काईबंधथतुनथी॥ ६ ॥ सृजतीमसितशिरोरुहललितं मनुजशिरोवलिपलितं ॥ को विदधानां धनमरसं प्रनवति रोकुंजरसं ॥ वि० ॥७॥ अर्थ ॥ कालाकेशेंकरीने घणोजसुंदर एहवो मनुष्यनो कालोमस्तक तेने सपेतप पानी करनारी तथा शरीरना मांसनोनाशकरनारी खोखरासरीखोकरी नशोनसने जदीकरीदेखाडनारी पृथवीनपर मेघसमान शरीरतेने शुष्ककरीनारखनारी एहवीजरा अवस्था जेवारें प्राणीने प्रावशे तेवारें तेनोरोधकरवाने कोण सहायनूतथले थ र्थात् कोईपण वृक्षावस्थानो रोधकरवाने समर्थनथाय ॥ ७ ॥ नयत नग्ररुजा जनकायः कः स्यात्तत्र सहायः ॥ एकोऽ ननवति विधुरुपरागं विनजति कोपिन नागं ॥वि० ॥७॥ अर्थ ॥ हेयात्मा जेवरखतें ताहरूंशरीर नगरोगेकरी व्याप्तथाशे तेवखतें तुजने कोणसहायथाशे ! जूथो जेमचंमा एकलोपोतेज राहुना ग्रहणनी पीडाजोगवे प Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ शांतसुधारस. रंतु नक्षत्र अथवा ताराकोईपण तेनाऊःखमांविनागलेतानथी तेम तुजनेपण जेवारें रोगादिक पुःखप्राप्तथशे तेवारें ताहरोकोऽपण संबंधी तेछुःखमांविनागनारनथी॥५ शरणमेकमनुसर चतुरंगं परिहर ममतासंगं ॥ विनय रचय शिव सौख्य निधानं शांतसुधारसपानं ॥वि० ॥ए॥ इति श्रीशांतिसुधार स गेयकाव्ये अशरणनावनाविनावनो नाम वितीयः प्रकाशः॥ अर्थ ॥ माटे दान शील तप अने नाव एचार अंग जेहना एहवाएक धर्मनुंज तुं शरएकर अने ममत्वनो संग परिहर हेविनय तुं शिवसुरखनो निधान एहवो जे शांतसुधारस तेनुपानकर ॥ ए ॥ इति श्री शांतसुधारसगेयकाव्ये अशरणत्वमा वना विनावनोनाम दितीयः प्रकाशः॥ शिखरिणीटत्तत्रयं ॥ श्तो लोनः होनं जनयति पुरंतो दवश्वो लसल्लानांनोनिः कथमपि न शक्यः शमयितुं ॥ इतस्तृष्णाऽदा णां तुदति मृगतृष्णव विफला कथं स्वस्थैः स्येयं विविधनयनी मे नववने ॥१॥ गलत्येका चिंता नवति पुनरन्या तदधिका मनोवाक्काये दा विकृतिरतिरोषात्तरजसः॥ विपतीवर्ते ऊटिति पतयालोः प्रतिपदं न जंतोः संसारे नवत्ति कथमप्यतिविरतिः॥ ॥२॥ सदित्त्वा संतापानशुचिजननीकुदिकुहरे ततो जन्म प्राप्य प्रचुरतरकष्टक्रमहतः ॥ सुखानासैर्यावस्पृशति कयमप्यर्तिवि रति जरा तावत्कायं कवलयति मृत्योः सहचरी ॥३॥ ॥ हवे त्रीजी संसारनावना नावेने आ संसारमा पुरंतके घणोमहोटो जेहनो अंतनथी अनेदावानल सरिखो अर्थात् वनअग्नीसरखो एडवोजेलोन तेनेकोईपणरी तें उदयनेपामनारो जे लोनरूप अंनोनिःके उदकते शांतकरी शक्तोनथी पणउलटो दोनने उत्पन्नकरे वलीइहां संसारमा मृगतृष्मा जेवीरीतेविफल तेवोरीतेइंझियोनी तृमा प्रेरणाकरेने तेपणविफल तोएहवा अनेकप्रकारना नानाविधनयेंकरी बिहा मणा संसाररूप अरण्यमां शीरीतें स्वस्थपणे रहिश कियें ॥ १ ॥ संसारमा एक चिंतामटिजाय तोफरी तेकरतांपण अधिक बीजीचिंताधावी उत्पन्नथायडे वलीम न वचन अने कायानाव्यापारेकरी विकारथाय तथाअत्यंतक्रोधना योगेंकरी रजो गुणने पामवाप[प्राप्तथायडे एरीतेंसंसारमा विपत्तिरूप खाश्नापाणीनी चमरीमा 3 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. पगजेपगले पडनारा प्राणीयोने कोईवारेकुःखनो अंतश्रावतोनथी ॥२॥ वली पहे लातो अपवित्रमाताना उदरनेविषे नानाप्रकारना उदरसंबंधी संतापोने सहनकर तो कष्टनीपरंपरायेंकरी तामनतर्जनायेयुक्तथको रहेने अने जन्मपाम्यापले जेटलामां सुरखानास करवानेश्रर्थे कोइपणपोताने यतीपीमायो दूरकरेले परंतु एटलामांतो मृ त्युनी सहचारिणी एहवीजे जराअवस्था ते आवीने प्राणीनादेहनो ग्रासकरे ते वारें संसारमा सुखतेसुंबे अर्थात् काजिनथी ॥ ३ ॥ उपजातिहत्तं ॥ विश्रांतचित्तो बत बंभ्रमीति पदीव रुचस्तन पंजरेंगी ॥ नुन्नो नियत्याऽतनुकर्मतंतुसंदानितः सन्निहितां तकौतुः ॥ ४ ॥ अनुष्टुब्वृत्तं ॥ अनंतान् पुजलावर्ताननंतानं तरूपनत् ॥ अनंतशो भ्रमत्येव जीवोऽनादिनवार्णवे ॥५॥ अर्थ ॥ प्रारब्धे प्रेरणाकरेलो महोटाकर्मरूप तंतुयेंकरी बांधेलो कालरूप बिना डानीपासें बेतेलो एहवोप्राणी बतइतिखेदे शरीररूप पिंजरामां पदीनीपरें संध्योथ को ब्रांतिवंत चित्तेकरीफिरे ॥४॥ एरीतेंअनंतानंत शरीरोनोधारणकरनारो एजी वअनंतीवार अनादिकालनो संसारसमुश्मा अनंता पुजलपरावर्तरूप पाणीनी व मरीमा प्रतिघ्रमण करतोथको फिरे ॥ ५॥ ॥ तृतीयनावनाष्टकं केदारारागेण गीयते शांतसुधारसकुंमेमां एदेशी ॥ कलय संसारमतिदारुणं जन्ममरणादिनयनीत रे ॥मो हरिपुणेद सगलग्रहं प्रतिपदं विपदमुपनीत रे॥कण॥१॥ अर्थ ॥ वलीविशेषप्रकारे संसारनावनानावतो संसारनीबीकदेखाडेले मोहरूप शत्रुयें गलोयोदेश्ने पकडयुं तेणेकरी पगले पगले विपत्तीनेपामेला अरेजीव या संसारते जन्ममरणादिकना नयेंकरी अत्यंतनयंकरने एवं तुं जाण॥ १ ॥ स्वजनतनयादिपरिचयगुणैरिद मुधा बध्यसे मूढरे ॥प्रति पदं नवनवै रनुनवैः परिनवै रसकृउपगूढ रे ॥क०॥२॥ अर्थ ॥ हेमूर्खयात्मातुं स्वजन अने पुत्र इत्यादिकोनां परिचयगुणेकरीने गुंथा संसारमा व्यर्थबंधायचे वली पगलेपगले नवानवा अनुनवेकरी थने नवानवा परा नवेकरी वारंवारतुं थालिंगितबो एटले युक्तबो ॥ २ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ शांतसुधारस. घटयसि कचन मदमुन्नतेः क्वचिदहो दोनतादीन रे ॥ प्र तिनवं रूपमपरापरं वदसि बत कर्मणाधीन रे॥क०॥३॥ थर्थ ॥ हेयात्मातुं किहांकतो राजलक्ष्मीप्रमुख संपत्तीनामदने धारणकरेले वलोकिहांकतो हीनतापामी रांकजेवो नीखारीथई दीनतापणाने धारणकरेले ए वाआश्चर्य हेजीवतुं कर्माधीनथको जन्मजन्मप्रतें अपरअपरके नवानवाज रूपध रेले कोईनवेनीरवार को नवराजा कोइनवेतिर्यच कोनवेंनारकी वलीएकनवमांपण राजारंकपणुंप्रमुख अनेकरूपधारणकरे ए केहेवो महोटो खेदनोहेतु ॥ ३ ॥ जातु शैशवदशापरवशो ॥ जातु तारुण्यमदमत्त रे॥ जातु उर्जयजराजर्जरो ॥ जातु पितृपतिकरायत्तरे ॥कण॥४॥ अर्थ ॥ अरेजीवतुं एकजनवमांपण कोईकवारेंतो बालकथवस्थाने आधीनर हे अने कोईकवारेंतो तारुण्यअवस्थाना मदेकरी उन्मत्तथायने वलीकोईकवारें उर्जय जरा अवस्थायें करी कुखवंतथायडे अनेकोईकवारें यमराजाना हाथमां सप डाजायडे एहवी अवस्थाओने पामे ॥ ४ ॥ व्रजति तनयोपि ननु जनकतां ॥ तनयतां व्रजति पुनरेष रे ॥नाव यन् विकृतिमिति नवगते ॥ स्त्यजतमां नृनवशुनशेष कण॥५॥ अर्थ ॥ हेयात्मा बासंसारमां कोईनवमांतो दीकरोते बापथाय फरीकोईक नवमां बापतेदीकरो थायडे एहवी संसारी पुरुषोनी गतियोनी फजेतीजोईने मनु ष्यजन्ममा जेना पुण्यशेषरह्याने एदवो तुं श्रासंसारने मूकीबाप ॥ ५ ॥ यत्र सुःखातिगददवलवैरनुदिनं दह्यसे जीव रे॥ हंत तत्रैव रज्यसि चिरं मोहमदिरामददीब रे ॥ क॥६॥ अर्थ ॥ अरेजीव आसंसारमा दुःख तथा आरतिजेचिंता थने रोगरूप दावान लेंकरीने तुं नित्यनित्यप्रते दाजेले तोपणमोहरूप मदिराना मदेकरी उन्मत्तथईने तेमा जघणाकालसुधी अनुरक्तथायजे माटेबतइतिखेदे मोहनाफंदेज जीवपुःखीथायजे॥६ दर्शयन् किमपि सुखवैनवं ॥ संहरंस्तदथ सहसैव रे ॥ विष लंनयति शिशुमिव जनं ॥ कालबटुको ऽयमत्रैव रे ॥॥॥ अर्थ ॥ अरेजीव जेमकोइलघुबालकने उगवासारु कोश्कचीजतेनाहाथमा या पीपाजी जीनवीलये तेम दंततिखेदे अाजगतमां कालरूपीओ बट्टकके चोर ते Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शातसुधारस. १३५ तुजने काइकसुख ऐश्वर्यादिक देखाडीने अकस्मात् तेसुरखने जाणेनजहता तेवा करीनाखेडे एम बोकराने उगवानी रीतें कालरूपबटुक लोकोने ठगेले ॥ ७ ॥ सकल संसारनयनेदकं ॥ जिनवचो मनसि निबधान रे ॥ विनय परिण मय निःश्रेयसं॥विहितशमरससुधापान रे॥॥ इति श्री शांतसुधारस गेयकाव्ये संसारनावना विनावनो नाम तृतीयः प्रकाशः॥ अर्थ ॥ तेमाटे अरेविनयतुं शांतिसुधारसनुपानकरी समस्तसंसारिकनयना नाशकरनार एहवा जिन श्री वीतरागनावचनने मनमांधारणकर अने मोपाम एरीतें विनयविजयजीनपाध्याय पोतेजपोताना आत्मानेसीवामण आपेले ॥ इतिश्रीशांतसुधारसगेयकाव्ये संसारनावना विनावनोनाम तृतीयःप्रकाशः ॥ ३ ॥ स्वागतासत्ताएक एव नगवानयमात्मा झानदर्शनतरंगसरंगः ॥ सर्वमन्यउपकल्पितमेतत् व्याकुलीकरणमेव ममत्वम् ॥ १ ॥ अर्थ।। हवेचोथी एकत्वनावना नावेजे एकज नगवानते आआत्माले अने ज्ञानदर्श न तथा चारित्ररूप तरंगेकरीने सरंगके० विलासोने पणते बात्मासिवाय बीजाजे काई कल्पितपुजनादिकले तेसर्व ममतास्पदमांज व्याकुलकरनाराजे ॥ १ ॥ प्रबोधतावृत्तत्रय।अबुधैः परनावलालसालसदझानदशा वशात्मनिः॥ परवस्तुषु हा स्वकीयता विषयावेशवशाशि कल्प्यते ॥ २॥ कृतिनां दयितेति चिंतनं परदारेषु यथा विपत्तयविविधार्तिनयावदं तथा परनावेषु ममत्वनावन। ३ ॥अधुना परनावसंततिं दर चेतः परितोवगुंक्तितण मात्मविचारचंदनद्रुमवातोर्मिरसाः स्पृशंतु मां ॥४॥ अर्थ ॥ परवस्तुनपर रहेलीअत्यंतशबाना योगेकरी उपनीजे अज्ञानयवस्थानी आधीनता ते जेना अंतःकरणमा व्यापीछे एहवामूल्ने जे परकीयवस्तुनपर स्वकी यपणुंकल्पेढे तेमात्र शब्द रूप रसादिकविषयोना आवेशेकरीजकल्प्योजाय ए ए क महोटुं खेदनूकारण ॥ ५ ॥ पुण्यवानपुरुष परस्त्रीने पोतानीस्त्रीकरी चिंतवनक रवं तेजेमविपत्नीनू कारणथायडे तेमज परकीयवस्तुउपर जे ममत्वकर, तेपण | नानाप्रकारनीपीमा, धने अनेकप्रकारना जयतुं कारणथायडे ॥३॥ माटेहेया - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. स्मा हवे चारेबाजुयें विंटेली परवस्तुनी संवृति जे आबादन तेनेतूंदूरकर अने श्रात्मवि चाररूप चंदनवृद उपरना वायुनीलहेरीनुंजे रस तेनुएकदणमात्र स्पर्शकर ॥४॥ __ अनुष्टुब्वृत्तं ॥ एकतां समतोपेतामेनामात्मन् वि नावय ॥ लनस्व परमानंदसंपदं नमिराजवत् ॥५॥ __ अर्थ ॥ अरेजीव आसमतायेंकरीयुक्त एहर्बुजे एकत्वपणुं तेने तुं पोताना था त्मामा विचारीजोईशतो नेमिराजऋषीनाजेवो परमानंद संपदानेपामिश ॥ ५ ॥ ॥ चतुर्थनावनाष्टकं परजीयारागेणगीयते ॥ विनय चिंतय वस्तुतत्वं जगति निजमिद कस्यकिं॥नवति मतिरिति यस्य हृदये उरितमुदयति तस्य किं॥ विण ॥१॥ एक उत्पद्यते तनुमानक एव विपद्यते ॥ एक एव हि कर्म चिनुते ॥ सककः फलमश्नुते ॥ वि० ॥ ३ ॥ अर्थ ॥ हवेवलीविशेषे एकत्वनावनानावे इहांश्री विनयविजयजी उपाध्याय पोतेज पोतानीवात्माने उपदेशे के हेविनय तुं वस्तुतत्वजे आत्मज्ञान तेनुं चिंत वनके विचारकर आजगतमा कोश्नोस्वकीयपणुंठेकेगुं एहवीबुदि जेनाक्रदयमां तत्पन्नथायडे तेप्राणीने उरितपापादिक उदयपामे सुं अपितुतेने पापोदयपामतुंज नथी॥ १ ॥ हेअात्मा ताहरोजीव एकलोज उपजे एकलोज मरणपामे एक लोज कर्मनेबांधे अने तेबंधायला कर्मोनाफलनेपण एकलोज नोगवे ॥ २ ॥ यस्य यावान्परपरिग्रहः ॥ विविधममतावावधः॥ जलधि विनिहितपोतयुक्त्या पतति तावद सावधः॥ वि० ॥ ३ ॥ स्वस्वनावं मद्यमुदिते नवि विलुप्य विचेष्टते ॥दृश्यतां प परजावघटनात्पतति विलुपति जूंनते ॥ वि० ॥४॥ अर्थ ॥ जिहांसुधी जेप्राणीनेमाथे परपरिग्रहनपर नानाप्रकारनी जे ममत्व त दूपनारपडयो तिहांसुधी तो पचराप्रमुख वजनदारवस्तुयेंनरेलो जिहाज जेम समुश् नातलियामां जश्बेसेडे तेम तेप्राणी पण संसाररूप समुन्ना तलियामां पमेलोजा गईं ॥३॥ जेम मदेकरी नन्मत्तथयलो पुरुष स्वकीयस्वनाव एटले मूल स्वना वने लोपी जमीननपरपमी चेष्टाकरेने तेमज परवस्तुनी घटनायेंकरी उन्मत्तथयलो पुरुष संसाररूप जमिनमांपडे लोटेले अने जंजायमान थयोथकोरहेडे ॥ ४ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. १३७ पश्य कांचन मित्तरपुजलमिलितमंचति कां दशां ॥ केवलस्य तु तस्य रूपं विदितमेव भवादृशां ॥वि० ॥५॥ एवमात्मनि कर्मवशतो भवति रूपमनेकधा ॥ कर्म मलरदिते तु भगवति नासते कांचन विधा॥वि॥६॥ अर्थ || मसुवर्णमां बीजाधातुनी मिश्रताथवाथी विपरीतदशानेपामेबे ने सुवर्णना शुद्ध स्वरूपनीतो हेजीव तहाराजेवाने खबरजबे ॥ ५ ॥ तेमजश्रात्मा विषे कर्मरूप न्यधातुना बरोंकरी नानाप्रकारना रूपथायडे पणकर्ममलरहित शुद्धज्ञानस्वरूपी यात्मातो सुवर्णसरखो देदीप्यमाननासे ॥ ६ ॥ ज्ञानदर्शनचरणपर्यव परिवृतः परमेश्वरः ॥ एक एवानुभवसदने सर मतामविनश्वरः॥वि०॥ ॥ इति रुचिरसमतामृतरसं कणमुदितमास्वाद य मुदा ॥ विनय विषयातीत सुखरसरतिरुदंचतु ते सदा॥वि०॥नाइतिश्री शांत सुधारसगेयकाव्ये एकत्वनावनाविभावनोनाम चतुर्थः प्रकाशः ॥ात्मा ज्ञान दर्शनाने चारित्रना पर्यायेंकरीयुक्त एहवो यविनाशीजे एकपर मेश्वर महारा अनुभवगृहमां रम्यमाणथजो ॥ ७ ॥ माटे हेयात्मा प्राप्तथयलो एहवो य तिसुंदर समतारूप अमृतरस तेनोएकमात्र पण संतोषेंकरी खास्वादनकर ने हे विनय सर्वकाल विषयसुखथी प्रतीत एटजेजूदा एहवाजे शांतिसुख रस तेना उपर ताह प्रीति होजो ॥ ८ ॥ ३० शांतसुधारस गेयकाव्ये एकत्वनावना विनावनोनामचतुर्थः प्रकाशः उपजातिवृत्तं ॥ परः प्रविष्टः कुरुते विनाशं लोकोक्तिरेपा न मृषेति मन्ये ॥ निर्विश्यकर्मापुनिरस्य किं किं ज्ञानात्मनो नो समपादि कष्टं ॥ १ ॥ || हवे पांचमी अन्यत्वनावना नावतोयको श्रीविनयविजयजी उपाध्यायकहे Maharani बीजाप्रवेशकस्यो एटजे पहेलानोनाशकरेबे एहवं लोकोनुं बोलवु मने खोला गतुंनथी केमके महाराश्रात्मा ज्ञानस्वरूपी तेमां कर्मरूप परमाणुयें प्र वेशक ने आत्माने कोणकोण कष्टोन थीपी अर्थात् सर्वकष्टोयापीजले ॥ १ ॥ स्वागतावृत्तम्॥ खिद्य से ननु किमन्यकथातः सर्वदैव ममता परतंत्रः ॥ चिंतयस्यनपमान्कथमात्मन्नात्मनो गणमणीन्न कदापि ॥ २ ॥ अर्थ ॥ जीवतुं सर्वकाल ममताने स्वाधीनथई अन्यजे पुजलादिक तेनीज गोष्टी पीडितको कांखेदपामेले ने जेहनीकोइनपमाजनथी एवा तारी श्रात्मा ना गुरूपजे मणीरत्न तेनुंकोवारेंपण चिंतन केमकरतोनथी एकेटनुं प्रयुक्तले २ ॥ १८ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ शांतसुधारस. शार्दूलविक्रीडितं वृत्तक्ष्यम् ॥यस्मै वं यतसे बिनेषि च यतो यत्रा निशं मोदसे ययबोचसि यदिवसि हृदा यत्प्राप्य पेप्रीयसे ॥ स्निग्धो येषु निजस्वनावममलं निर्लोठ्य लालप्यसे तत्सर्वं पर कीयमेव नगवन्नात्मन्न किंचित्तव ॥ ३ ॥ उष्टाः कष्टकदीनाः क तिन ताः सोढारवया संसृतौ तिर्यङ्नारकयोनिषु प्रतिहतचिन्नो विनिन्नो मुहुः ॥ सर्व तत्परकीयउर्विलसितं विस्मृत्य तेष्वेव हा रज्यन्मुह्यसि मूढ तानुपचरन्नात्मन् न किं लज्जसे ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ हेयात्मातुं जेनेवास्ते घणीयत्नकरेले अने जेनाथको घणोबीहितोरहे। तथा जेथकी सर्वकाल आनंदपामे वली जेनाअर्थघणुंशोचकरे अथवा जेनेतुं ताहरादयमां हरहमेस इबे वली जेनादेखवाथी अत्यंतप्रीतिपामेले जेनेविषे तुं घणुंस्नेहराखी पोताना निर्मल झानादिक स्वनावनो नाशकरीलालनपालनकरे ३ त्यादिकक्रियाते सर्वपरकीयजले पण हेात्मस्वरूपी नगवन् एमांस्वकीय ताहरोकां इनथी॥३॥अरेजीवतुंपूर्वोक्तप्रकारेकरतोथको आसंसारमा तिर्यच अने नारकीनी योनीमां अत्यंतउष्ट एहवी अनेककदर्थनायो तेंनोगवीनथीकेसुं अपितु नोगवीतोले ज केमके मुहुके वारंवार नरकादिकयोनीयोमा हणाणुं बेदाणुं नेदाणुं एहवीएह वी तहारी अवस्थाशोथ तोपणहेमूर्ख तेसर्व परकीय एटले स्वरूपविना पुजलनासंग थी उर्विलासथया तेने विस्मृतकरी फरितेनानपरज प्रेमधरीने मोहपामे अंनेतेहनु ज सेवनकरतोयको केमलजातोनथी माटे हाइतिखेदे एपणमहोटी खेदनीजवात अनुष्टुब्वृत्तं ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रकेतनाचेतनां विना ॥ सर्वमन्यविनिश्चित्य यतस्व स्वहिताप्तये ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ हेात्मातुं ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी आश्रयनूतजे चेतना तेविना बीजाजे विनाविक पदार्थोडे तेसर्वने निश्चय थकी तहाराथी अन्यके जूदाजाणीने पोताना हितने अर्थेयत्नकर ॥५॥ ॥ पंचमनावनाष्टकं श्रीरागेण गीयते ॥ तुजगुणपारनहिसूषणोएदेशी ॥ विनय निनालय निजनवनं तनुधनसुतसदनस्वजनादिषु किं नि जमिह कुगतेरवनं ॥वि॥॥येन सदाश्रयसे ऽतिविमोहादिदमदमि त्यविनेदं तदपि शरीरं नियतमधीत्यजति नवंतं धृतखेद।विण्॥ - - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शातसुधारस. अथी।हवे विशेषे अन्यत्वनावनानावता श्रीविनयविजयजी उपाध्याय पोतानेउप देशकरेले के हेविनय तुंतहारापोताना आत्मारूपघरने जो अने यासंसारमा शरीर इव्य पुत्र घर स्वजनादिकमां कोणतुजने दुर्गतिथी रहाण करवालो अर्थात्कोज नथी एटजेतुं स्वजनादिकनेयर्थे मागकर्मकरेले तेकर्मनायोगथी जेवारें नरकादिक उर्गतिमांजइस तेवारें तहारोहाथपकमीने तुजने कोइउर्गतिथी वारीराखशेनही॥१॥ बीजातोदररह्या पणजेनीसाथे तुं अत्यंतमोहनावशयकी ऐकपणुंकरे एहवंजे शरीरतेपण निश्चयथीअधीरोजे सेवट खेदकरावी तुजने मूकीचाल्योजसे अथवा खेद नोकरनारतुंडो एहवा तुजनेमूकी चाल्योजसे ॥ २ ॥ जन्मनि जन्मनि विविधपरिग्रदमुपचिनुषे च कुटुंब॥ तेषु नवं तं परनवगमने नानुसरति कृशमपि सुंबं ॥ वि० ॥३॥ त्यज ममतापरितापनिदानं ॥परपरिचयपरिणामं ॥ नज निस्संगत या विशदीकृतमनुनवसुखरसमनिरामं ॥ वि० ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ हेप्राणीतुं जन्म जन्मने विषे विविधप्रकारना परिग्रहने संपादनकरेले तेमज नानाप्रकारना कुटुंबने संपादनकरेले परंतु जन्मांतरेंजाता ते पूर्वेकपरिग्रह मांथी एकदोकडो पण ताहरीसाथेयावतोनथी ॥३॥ माटे ममतानायोगेंकरी अ त्यंततीव्रतापन मुख्यकारण एवो परकीयवस्तुनो परिणाम तेनोत्यागकर अने निःसंग त्वपणेकरी स्वजथयऱ्या आल्हादनोकरनार एहजेअनुनवसुख तेनुंसेवनकर ॥४॥ पथि पथि विविधपयैः पथिकैः सह कुरुते कः प्रतिबंधं ॥ निजनिजकर्मवशैः स्वजने सह किं करूपे ममताबंधविण प्रणयविहीने दधदनिपंगं ॥ सहते बहुसंतापं ॥ त्वयि निः प्रणये पुजलनिचये वहसि मुधा ममतातापं ॥ वि० ॥६॥ अर्थ ॥ जेमपंथीमाणसने जूदेजूदेस्थानकें मार्गमार्गमां वाटालुलोकनुं मिलाप थतोजायचे पणते वाटमार्गनीसाथें कोप्रतिबंधकरतोनथी तेमजपोतपोताना कर्म नेवशे आवीमल्या एहवावाटमार्गुतुव्य जे तारास्वजनलोक तेनीसाथेतुं ममत्वनो प्रतिबंधकांकरे ॥५॥ जेमकोइ स्नेहशून्यपदार्थहोय अथवामनुष्यहोय तेनाउपर स्नेहधरनाराप्राणी बहुसंतापने सहनकरेले तेमज तुंपण ताहाराउपर निस्नेही ए हवोजे पुजलनोसमुदाय एटलेपोतानुशरीर तेपणपुजल यनेजेस्वजनादिक शरीरी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० . शांतसुधारस. जीव तेपण पुजलजले तथा नवविधपरिग्रह तेपणपुजलने एहवापुजलना समुदायउप र व्यर्थ ममता रूप ताप धारण करीने संताप सहन करे ॥ ६ ॥ त्यज संयोगं नियतवियोगं ॥ कुरु निर्मलमवधानं ॥ नहिविद धानःकथमपि तृप्यसिामृगतृष्णाघनरसपानं ॥विणाानज जिनपतिमसहायसहायं ॥ शिवगतिसुगमोपायं ॥ पिब गद शमनं परिहतवमनं॥शांतसुधारसमनपायं ॥ वि० ॥ ७ ॥ इशांतसुधारसगेय काव्ये अन्यत्वनावनाविनावनो नाम पंचमः प्रकाशः __ अर्थ ॥ माटेनिश्चयेंकरी जेहनो वियोगथवानोले एहवापुजलादिकसाथे जे तें सं योगकखुले तेनोत्यागकर अनेनिर्मल एडवोजेपोतानो शुक्षात्मनावतेनेविषे अवधान के० स्वस्थथ एकाग्रपणेलक्षाख केमकेकोपणप्राणी मृगतृस्मारूप जलनुपानक रीने कदापिकालें तृप्तथवानोनथी तेमतुंपण परवस्तुनपर ममत्वराखी कोकालें श्रात्मरतिमां तृप्तिपामनारनथी ॥ ७ ॥ माटेरेयात्मा तुं असहायने सहायनाकर नार एटलेषशरणने शरणनूत एहवातीर्थकरदेव तेनुंसेवनकर अनेनिरदोष मोद गतिमांजवानुं जे सुगमोपाय अथवा जेमांथी परिश्तके नाशपाम्युंडे वमनंके मोक्षनासुखनो वमवापणुं वली गदशमनके० संसाररूप रोगनो समावनार एहवो जे शांतनामा सुधारसके० अमृतरस तेनो पिबके पानकर ॥ ७॥ इतिश्रीशांतसु धारसगेयकाव्ये अन्यत्वनावनाविनावनो नाम पंचमः प्रकाशः शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ सचिशे मदिराघटः परिगलत्तल्लेश संगाशुचिः शुच्या मुद्यमृदा बहिः स वदुशो धौतोपि गंगो दकैः ॥ नाधत्ते शुचितां यथा तन्नतां कायो निकायो महाबी नत्सास्थिपुरीषमूत्ररजसां नायं तथा शुक्ष्यति ॥ १ ॥ अर्थ ॥ हवेबही अशुचि नावना नावे जेम मदिरा गालवा-यंत्र जारीनीमाफ क बिकरी सहितथाय तेनिशेमांथी मदिरागलावे तेथी तेनिशेमा मदिराना कणियानुं अंशरहोजायचे तेलेशमात्र पण मदिरानासंगेकरीने अपवित्रथयखं एहवोजे मदिराना नाजननो बिइ तेनेपवित्रकरवाने अर्थ बाहिरथी माटीसाथे गसी ने पडे गंगानदीना पाणीयेंकरी घणावखत धोधोग्ने साफकरवामांमियें तोपणते मदिरागालबाना बिशे कोश्वारें पवित्र थायनही तेमज मनुष्यनो अत्यंत बीनत्स - - Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. shareरवायोग्य हाम रक्त मल मूत्रनोस्थानकरूप शरीर तेने माटीयेंगसवाथी अथवा गंगादिकनापालीये नवराव्याथी पणपूर्वोक्त दृष्टांतेकोवारें शुथातुंनथी १ मंदाक्रांता ॥स्नायं स्नायं पुनरपि पुनः स्नांति शुधाभिरनिर्वा रं वारं बत मलतनुं चंदनैरर्चयते ॥ मूढात्मानो वय मपमलाः प्री तिमित्याश्रयंते नो शुड्यं कथमवकरः शक्यते शोङ्कुमेवं ॥ २ ॥ अर्थ ॥ माटेजगतमां जेनुंअंतःकरण मूढथयुंबे एहवालोक स्नानकरीने वा रंवार शरीरशुद्धि करवानेयर्थे फरिपण स्नानकरेबे तथा वारंवार मलनास्थान करू प शरीरने चंदनेकरीचर्चेले ने मेंनिर्मलथया एकहीने प्रीतिकरेले पण एम न थी जाणताजे एशरीर तो किवारेपण शुद्ध यातुंनथी केमके खात्रनुं उकरडो तेको इरीते शुद्ध थायसुं अर्थात् नजथाय ॥ २ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ कर्पूरादिनिरर्चितोपि लशुनो नो गादते सौरनं नाजन्मोपकृतोपि दंत पिशुनः सौजन्यमा लंबते ॥ देदोप्येष तथा जहाति न नृणां स्वाभाविकीं विस्त्र तां नान्यक्तोपि विभूषितोपि बहुधा पुष्टोपि विश्वस्यते॥ ३ ॥ अर्थ ॥ जेमलसमा कर्पूरादिकपदार्थोनो नेलकस्यो तोपण नसणकां सुगंधी वंत थायनही तथा जन्मपर्यंत उपकारकस्योहोय तोप दुर्जन पुरुष कांइ सौजन्यता धारण करतोनथी तो हंतइतिखेदे यामनुष्यनुंशरीर तेपण स्वनावसिद्ध दुर्गधने मूकर्तुथी शरीरने विविधप्रकारना सुगंधी ते जेंकरीमसव्यो वस्त्रालंकारेकरी नूषितकस्यो तथा खवरावी पीवरावीने अत्यंत पुष्टकस्यो तोप विश्वासनोपात्र था यही एटले एशरीर हवेसास्थयुं एहवो विश्वास कदापि नही || ३ || १४१ नपेंश्वज्ञावृत्तं ॥ यदीयसंसर्गमवाप्य सद्यो नवेच्छुचीनामशुचित्वमु चैः ॥ प्रमेध्ययोनेर्ववप्रपोस्य शौचसंकल्पमोदोयमदो महीयान् ॥४॥ अर्थ | शरीरनोसंबंधपामिने पवित्रपदार्थोने पण अपवित्रतापणुं यावेळे केम के शरीरने उत्तमजातिना चंदनादिकें मर्दनकरो तो तेचंदनादिक थोडीजवारमां पोतानुं सुगंधतापंमूकीने दुर्गंधतानेधारणकरेने तेमज उत्तमप्रकार नानोजन खव राव्याथी तेपण तुरत नरगमय थयीजायबे एवो या अपवित्रवस्तुने उत्पत्तिनुंकार जेशरीर तेनेपवित्रपणुं करवाना संकल्पनो मोहराख एमहोटोश्राश्वर्यकारी ने ४ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. स्वागतावृत्तं ॥ इत्यवेत्य शचिवादमतथ्यं पथ्यमेव जगदेकपवित्रं ॥ शोधनं सकलदोषमलानां धर्ममेव हृदये निदधीयाः ॥ ५ ॥ अर्थ || रीतें शरीरने पवित्रकरवानोवाद वोटोजाणीने जगतमा एकपवित्र पथ्य तो समस्तदोषरूपमलनो शोधक एहवोजेधर्म तेहने कदमांध ॥ ५ ॥ ॥ षष्टनावनाष्टकं व्यासावरीरागेण गीयते कागारे तनुचुनिचुनिजावे देशी. ॥ जावय रे वपुरिदमतिमलिनं विनय विबोधय मानसनलिनं ॥ पावनमनुचिंतय विमेकं । परमम दोमय मुदित विवेक ॥ना ॥ १ ॥ दम्पतिरेतोरुधिर विवर्ते किं शुभमिद मलकर मलगते । नृशम ० पिपिहितः स्रवति विरूपं को बढ़मनतेऽ वस्करकूपं ॥ ना ॥२॥ अर्थ || हवे विनय विजयजी उपाध्याय पोतेंपोताने उपदेशकरतो प्रशुचिप जावे हेविनय शरीरनेतुं घणुजमलीनजाणीने पोतानुंमनरूपकमल प्रफुल्लित कर ली परमतेजस्वी खनेजेनाथकी उत्तमविचार उत्पन्नथाय एहवो एकपवित्र परमात्मानुं चितवनकर ॥ १ ॥ स्त्रीनोरक्त खने पुरुषनो रेत तेनापरिणाम स्वरूपथी उत्पन्नथयुं एवं मनमयजे कश्मलके चीखलतेनी गर्ताके० खाइ रूप या शरीर तेमांससारंबे जोयाशरीरने अत्यंतढाकीराख्यं तोपणतेमांथी विरूपप ये मागे गंधज स्रवेबे तोएवांकचराना कूवाने कोणरुडोकरी माननारले यर्थात् कोप करडारूप कचरायेंकरी नरेला कूवाने ननुंमानसेनही ॥ २ ॥ नजति सचं शुचि तांबूलं ॥ कर्तुं मुखमारुतमनुकूलं ॥तिष्ठ ति सुरभि कियं कालं ॥ मुखमसुगंधि जुगुप्सितलालं ॥ ना० ॥ ३ ॥ च्प्रसुरनिगंधव होंतरचारी ॥ च्वरितुं शक्यो न विकारी ॥ वपुरूप जिघ्रसि वारंवारं ॥ दसति बुधस्तव शौचाचारं ॥ ना०४॥ अर्थ ॥ सुंदरतांबूलमा कर्पूरप्रमुखनाखीने मुखसंबंधी वायु अनुकूल करवानेच थ arra परंतु निंदाकरवायोग्य नेघलीज डुगडा करवायोग्यले लालजेनी वली प वित्रजेनोगंध एहवा तहारामुखनी सुगंधीते केटलोक वखतरहसे ॥३॥ शरीरमांचाल ना विविधप्रकारा विकारेकरीसहित असुरनिगंधनो वहेनारो जे ताहरामुखनो वा तेने ढांकी मूकवाने समर्थथयोनही तोताहराचंगने सुगंधी पदार्थोनो लेपकरी वारं वार तेहनो सुवासलिये ए तारो पवित्रतानो खाचारजोइने पंडितलोकोहसेबे ॥ ४ ॥ १४२ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. २४३ छादश नव रंध्राणि निकामं ॥ गलदशुचीनि न यांति विराम।। यत्र वपुषि तत्कलयसि पूत।मन्ये तव नूतनमाकूताना॥ अशितमुपस्करसंस्कृतमन्नं जगति जुगुप्सां जनयति हन्न।' सवनं धैनवमपि लीढं नवति विर्दितमति जनमीढ़ाना॥६॥ अर्थ ॥ अतिशयेंकरी जेमांथी रात्रदिवस अपवित्रवस्तुश्रवेळे पणकोश्वारें विरा मपामतिनथी एहवास्त्रीना बारबि अने पुरुषनानवनि तेबिकरीसहित एहवा शरीरने तुंपवित्रपणेजाणेले माटेए ताहरोको नवोज आचारजणायजे ॥ ५ ॥ ना नाप्रकारे वगारप्रमुखना संस्कारेकरी संस्कृतकरेलुं पचावेलुं एहजे अन्न तेपण या शरीरमा आरोग्याथकी हनके विष्टारूपथइजायचे तेणेकरी जगतमां जुगुप्सा के० उगबानत्पन्नकरे वनी आशरीरने वीर्यनीवृद्धिकरनारूं गायतुंध प्राशनक रीने फरीतेपुरुष मूत्रितकयोथको तेपणअत्यंत निंदाकरवायोग्य थपडे ॥ ६ ॥ केवलमलमयपुजलनिचये अशुचीकृतशुचिनोजनसिचये ॥वपु पि विचिंतय परमिदसारं शिवसाधनसामर्थ्यमुदा॥ ना॥७॥ येन विराजितमिदमतिपुण्यं तचिंतय चेतननैपुण्यं॥विशदागमम धिगम्य निपानं विरचय शांतसुधारसपानं ॥नानातिश्री शांतसुधारसगेयकाव्ये अशौचनावनाविनावनोनाम षष्ठः प्रकाशः अर्थ ॥ माटे केवलमलरूप पुजलनोसमूह अने पवित्रनोजनने अपवित्रपणु या पनार एहवाशरीरमा मात्रएक मोदसाधन करवानुजे सामर्थ्य एहिजमहोटो सार नूतजाण ॥ ७ ॥ मोदसाधनेकरी नूषितकस्योथको ए शरीरपवित्रथाय तेचेतना नीज चातुर्यताजाणवी पणजेमां निर्मलसिक्षांतरूप जलमिलेले एहवो जलस्थान कजोड्ने शांतसुधारसनोपानकर ॥ ॥ इतिश्री शांतसुधारसगेयकाव्ये अशुचिना वनाविनावनोनाम पष्टः प्रकाशः नुजंगप्रयातं वृत्त।यथा सर्वतो निरै रापतनिःप्रपूर्यत सद्यः पयोनिस्त टाकः।तथैवाश्रवैः कर्मनिःसंनृतोंगीनवेद्याकुलश्चंचलः पंकिलश्च ॥२॥ अर्थ ॥ हवेसातमी आश्रवनावना नावेले जेम सर्वबाजुथी पमता पाणीना निजरणायेंकरी तत्कालतलाव जराजाय पडे पाणीनातरंगेंकरी चंचलथायने ते ---- - Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ शांतसुधारस. मज कादववधेने इत्यादिके व्याकुलथाय तेम आश्रवेंकरीयुक्तप्राणी कर्मरूपपाणी थी नरपूरथई व्याकुल अने चंचलथको पापरूपकादवें सहितथायडे ॥ १॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ यावत्किंचिदिवानुनूय तरसा कर्मेद निर्जीर्यते तावच्चाश्रवशत्रवोऽनुसमयं सिंचंति नूयोपि तत् ॥ हा कष्टं कयमाश्रवप्रतिनटाः शक्या निरोशें मया संसा रादतिनीषणान्मम दहा मुक्तिः कथं नाविनी ॥२॥ अर्थ ॥ ते जेटलामा अनुनवले ने बलात्कारेकरी महारा अत्मामांथी काश्कक मैने ढुं शुष्ककरूंढे तेटलामांवली आश्रवरूपशत्रु समयसमयप्रतें कर्मोने फरी सी चनकरेले माटे हाइतिखेदे मने एवं कठणलागे के हुँ आश्रवरूपशत्रुने केवीरीते जीतिशकुं अने एरीतेंतो अत्यंतनयंकर संसारथकी महारोबूटको पण सोरीतेंथसे॥२॥ प्रहर्षणीवृत्त। मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगसंझाश्चत्वारः सुकृतिनिराश्रवाः प्रदिष्टाः ॥ कर्माणि प्रतिसमयं स्फुटैरमीनिर्बनंतो भ्रमवशतो भ्रमति जीवाः ॥ ३॥ अर्थ ॥ पुण्यवंतपुरुषोए १ मिथ्यात्व २ अति ३ कषाय योग एचारनाम ना चाराश्रवकह्याने ते समयसमयप्रतें एचारधाश्रवना योगेकरी कर्मोने बांध नारा जीवो ते चमेकरी चारगतिरूप संसारमांनमे ॥३॥ रथोचतावृत्तं ॥ इंडियाव्रतकषाययोगजाःपंच पंच चतुरन्वितास्त्र यः॥ पंचविंशतिरसक्रिया इति नेत्रवेदपरिसंख्यया ऽप्यमी॥४॥ अर्थ ॥ पांचडियो तथा प्राणातिपातादिक पांचअव्रत अने क्रोधादिक चारक षाय वली मनादिक त्रयोग तथा कायिकादिक पचीस असत्क्रिया एरीते सर्व मलीने आश्रव बेतालीस प्रकारचेंडे ॥ ४ ॥ इंश्वनावृत्तं॥ इत्याश्रवाणामधिगम्य तत्वं निश्चित्य सत्वं श्रुतिसन्निधा नात्॥एषां निरोधे विगलविरोधे सर्वात्मना जाग्यतितव्यमात्मन् ॥ अर्थ ॥ एहवं आश्रवनुं तत्वजाणीने निश्चयथकी शास्त्रसन्निधानपणुं एटले आगम सिद्धांतरूप शास्त्रनुं बतापणुं तेजेनाथकी विरोधगयुंडे एहवा आश्रवरूप शत्रुनो निरोधकरवा विषे हेयात्मातुं तुरत यत्नकर ॥ ५ ॥ - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. सप्तमनावनाष्टकं धनाश्रीरागेण गीयते ॥ जोलीमारेहंसारेविषयनराचियें एदेशी॥ परिहरणीया रे सुकृतिनिराश्रवा हदि शमतामवधाय।प्रनवं त्येते रे नृशमुच्छ्खला विनुगुणविनववधाय ॥ परि ॥१॥ कुगुरु नियुक्ता रे कुमतिपरिप्लुताः ॥ शिवपुरपथमपहाय प्रयतंतेऽमीरे क्रियया उष्टया प्रत्युत शिव विरहाय॥परिणाशा अर्थ ॥ सुरुतवंतपुरुचे हृदयमा समताधारणकरी याश्रवनोपरिहारकरवो अरे जीव ा लोखदना शांकलनीपरें बांधीराखनारो जे श्राश्रव ते विलुजे परमात्मा तेनागुणरूप ऐश्वर्यतानो नाशकरवाने समर्थथायडे ॥ १ ॥ कुगुरुयेंकरेलीप्रेरणा अने कुमतियेंकरी युक्तथयला हेउष्टजीव तुं कायिकादिक उष्टक्रियामां प्रवसवे करी मोदपुरीयें जवानो मार्गमूकीने उलटोमोदमार्गनो नाशकरवाज यत्नकरे ॥२॥ अविरतचित्ता रे विषयवशीकृता विपदंते विततानि ॥ श्द परलोके रे कर्मविपाकजान्यविरलःखशतानि॥ परिण॥३॥ करिऊषमधुपा रे शलनमृगादयो विषयविनोदरसेन ॥ दंत लनंते रे विविधा वेदना बत परिणतिविरसेन॥परि० ॥४॥ अर्थ ।। जेनाचित्तमां वैराग्यनथी एहवा विषयने पराधीनथयलाप्राणी इहलोकें तथा परलोकेपण निरंतरपणे कर्मनापरिणामोथी मुत्पन्नथयलां शैकमासुःखोजें सहनकरे ।। ३ ।। हस्ति मत्स्य चमर पतंग अने मृग एवा पांचजातना प्राणीयो अनुक्रमेंस्पर्श रस गंध रूप शब्द ए एकेकाविषयना विनोदरसेकरी नानाप्रकारनी वेदनायोने एविषयोना परिणाम जे विरस एटले मानारस तेणेकरीपामेडे ए महो टुंखेदनुं कारण ॥ ४ ॥ नदितकषाया रे विषयवशीकृता यांति महानरकेपु परिव तते रे नियतमनंतशो जन्मजरामरकेष ॥ परि०॥५॥ मनसा वाचा रे वपुषा चंचला उर्जयपुरितनरेण ॥नपलि प्यंतेरे तत श्रवजये यततां कृतमपरेण ॥परि॥६॥ अर्थ ॥ अने क्रोधादिक कपाय नदयमांधाव्याने तेप्राणीयो पांचयिोना विषयोने स्वाधीनथयला तेणेकरी महोटा नरकमा जाय अने अनंतिवार जन्म जरामरणकरे ॥५॥ यावेंकरी चंचल थयला प्राणी मन वचन अने कायाना Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ शांतसुधारसः योगें पुर्जय एहजेपाप तेणेकरी युक्तथायले माटे चतुरपुरुषे आश्रवने जीतवानु प्रयत्नकर, अने नवा कर्म बांधवानही ॥ ६ ॥ शुझायोगा रे यदपि यतात्मनां स्त्रवते शुभकर्माणि ॥ कांचन निगडांस्तान्यपि जानीयात् हतनितिशर्माणि ॥ परि० ॥७॥ मोदस्वैवं रे सावपाप्मनां रोधे धियमाधाय॥शांतसुधारसपा नमनारतं विनय विधाय विधाय ॥ ॥ इतिश्री शांतसुधा रस गेयकाव्ये आश्रवनावनाविनावनोनाम सप्तमः प्रकाशः थर्थ ।। जेणेपोतानुं मनस्वाधीनकयुं तेनाशुक्ष्योगजे ले ते शुक्ष्योग जोपण शुनकर्मोनेज सवेले एटले गुनकर्मोनीज प्राप्तिकरावेले परंतु तेकर्मोपण मोक्षसुख ना नाशकरवाने शोनानीबेडीसरखा जाणवा ॥॥ माटे विनयविजयजी उपाध्याय पोते पोतानेकहेने के घरेविनय थावाप्रकारेकरी पाश्रवसहित जेपाप तेनोनि रोधकरवा सपर बुधिराखी वारंवार शांतिसुधारसनो पानकरीकरीने थानंदपाम॥ इतिश्रीशांतसुधारस गेयकाव्ये आश्रवनावनाविनावनो नाम सप्तमः प्रकाशः स्वागतात्तध्यं ॥ येन येन य इदाश्रवरोधः संनवेनियतमौ पयिकेन॥ आश्यिस्व विनयोद्यतचेतास्तत्तदांतरदृशा परिना व्य ॥१॥ संयमेन विषयाविरतत्वे दर्शनेन वितथानिनिवे शंाध्यानमार्तमथ रौजमजस्त्रं चेतसः स्थिरतया च निसंध्याः॥२॥ अर्थ ॥ हवेचाउमी संवरनावनानावेजे अरेविनय थाजगतमा जे जे उपायेंकरी निश्चयथी आश्रवनोरोध थतोहोय ते ते उपाय ताहरी अंतरदृष्टियेंजो तेनेविषे चित्त लगामीने तेनेस्वीकारकर ॥१॥ एटले संयमेंकरीने विषयमपर वैरागकर सम्यक्त दर्शनेकरीने थनिनिवेशके० मिथ्यात्वनो आग्रहमूकीयाप थने चित्तना स्थिरपरिणाम पणे करीने आर्त तथा रौड़ एवे ध्यानतुं निरंतर रुंधनकर ॥ ॥ शालिनीटत्तं ॥ क्रोधं दांत्या मार्दवेनानिमानं दन्या मायामार्जवेनी ज्वलेनालोनं वारांराशिरौई निरंध्याः संतोषेण प्रांशुना सेतुनेव॥३॥ अर्थ ॥ कमायेंकरी क्रोधनो जयकर माईवेंकरी अनिमाननो जयकर सरलपणे करी मायाजेकपट तेने हणीनाख वलीसमुजेवो पुष्कर जे लोन तेहनो उंचो सेतु सरिखोजे संतोष तेणेकरी रोधकर ॥ ३ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. स्वागतावृत्तं ॥ गुप्तिनिस्तिसृभिरेवमजय्यान् त्रीन् विजित्य तरसाऽधमयो गान् ॥ साधुसंवरपथे प्रयतेथा लप्स्यसे दितमनीदितमिदं ॥ ४ ॥ अर्थ | मज मनगुप्ति वचनगुप्ति ने कायगुप्ति एत्रण गुप्तियेंकरीने जे जीत वाने घणजलेन निंदनीक एहवा त्रण कुष्ठयोग्य तेने जीती रूडासंवर मार्गने वि षे यत्नकर एटले प्रकाशवंत देदीप्यमान घने कोइकालें विनाशने न पामनारा एह वा जे हितार्थ तेने पामीस धर्थात् मोक्षसुखने पामीस ॥ ४ ॥ मंदाक्रांतातं ॥ एवं रुद्वेष्वमलहृदयैराश्रवेष्वाप्तवाक्यश्रवाचंच त्सितपटपटुः सुप्रतिष्ठानशाली ॥ शुधैर्योगैर्जवनपवनैः प्रेरितो जीवपोतः स्त्रोतस्ती जवजलनिधेर्याति निर्वाणपुर्या ॥ ५ ॥ २४७ अर्थ | वाप्रकारेकरी स्वष्ठदयवंत पुरुष याश्रवनो रोधकरवो पले खातके ० पोताना दितवांतक तीर्थकरादिक पुरुषोना वाक्योन्तपर जेश्राराखवी तेजालीयें वाहने विषे एकसुंदर अनेकज्वल वावटोचडाव्यो एहवो नूतनपीवबंध थयो थको मनोयोग शुद्धवचनयोग शुद्ध काययोग एत्रणयोग तेहिज जाणियें कोइक वेग वानवायरो तेणेकरी प्रयोथको जीवरूपीओ जहाज ते संसारसमुड्नो प्रवाहत ने तुरत मोक्षरूप नगरियें जइपहोचेले ॥ ५ ॥ ॥ अष्टमनावनाष्टकं नटरागेण गीयते महावीरमेरो लालन एवेशी ॥ शृणु शिवसुखसाधन सडपायं सडपायं रे सडपायं ॥ शृणु शिवस खसाधनसडुपायं ॥ ज्ञानादिकपावनरत्नत्रयपरमाराधनमनपायें ॥ ० ॥ १ ॥ ॥ विषयविकारमपाकुरु दूरं क्रोधं मानं समायं ॥ लोनं रिपुंच विजित्य सहेलं ॥ नज संयमगुणमकषायं ॥ शृ० ॥२॥ अर्थ || हे विनय तुं मोक्षसाधननो रूडोउपाय सांभल एकतो निर्दोषपवित्र ज्ञानादिक रत्नत्रयनुं धाराधनकर बीजो पांचें डियोना विषयसंबंधीजे विकारोले ते हनेदूरकर त्री जोमायासहित क्रोध मान अलोनरूप शत्रुधनी हेलनाकरी सहेज मां श्रमबिना एचारेकषायने हलकटजेवा जाणी जीती जेइने कषायथी शून्यथयतो एहवोजे संयमरूप गुण तेनुंसेवनकर ॥ २ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४त शांतसुधारसः नपशमरसमनुशीलय मनसा रोषदहनजलदप्रायं ॥ कलय विरागं धृतपरनागं हृदि विनयं नायं नायं ॥ श० ॥ ३॥ आर्त रोई ध्यानं मार्जय ॥ दह विकल्परचनानायं ॥ यदियमरुधा मानसवीय॥ तत्वविदः पंथा नायं ॥शु० ॥४॥ अर्थ ॥ क्रोधरूपयनीने शमाववा मेघनीपरें शांतिनोकरनार एहवोजे उपशम रस तेहने तुं मनमा धारणकर हे विनय रुदयमा धारणकरेलोजे परपुजलादिक संबंधी नाग तेहने तहारारुदयमांथी नीत्वानीत्वाकें काढीकाढीने अत्यंत गुणवा नजे वैराग्य तेने धारणकर वली आर्तध्यान अनेरौऽध्यानने धारणकरीसनही॥३॥ तथा संकल्प विकल्पनीजेजालो तेने बाली जस्मकरीनारख कारणके मनो योगना मार्गने रुंधी न राखवो एवोकांश तत्व वेत्तानो मार्गनथी तत्ववेत्ता पुरुष नेतो मनोयोग मोकलो राखर्बुज नहीं ॥ ४ ॥ संयमयोगैरवदितमानसशुद्या चरितार्थयकायं ॥ नानामत रुचिगदने नुवने निश्चिनु शुभपथं नायं ॥॥॥ ब्रह्म व्रतमंगीकुरु विमलं बिभ्राणं गुणसमवायं ॥ नदितं गुरुवदनाउपदेशं संगृहाण शुचिमिव रायं ॥ २० ॥६॥ अर्थ ॥ संयमनायोगथी थयलीजेमननीशुद्धि तेणेकरीने कांपण कृतार्थकर नानाप्रकारनी रुचिसहीत विचित्रप्रकारना मतेकरी गहन एटलेव्याप्त एहवो आज गतमा नयरूप शुक्ष्मार्ग एटले स्या दाद शैलीरूपजे जैनमार्ग तेनोशोधकर ॥ ५॥ वली गुणना समुदायने धरनार अत्यंतनिर्मल एहवाब्रह्मचर्यव्रत ने स्वीकारकर अने गुरुयेंकरलाउपदेशने जेरीतें शुक्ष्व्य नो संग्रहकरियें तेरीतेंसंग्रहकर ॥६॥ संयमवाङ्मयकुसुमरसैरति सुरनय निजमध्यवसायं ॥ चेतन मुपलक्ष्य कृतलदणझानचरणगुणपर्यायं ॥ ॥ ७॥ वदन मलंकुरु पावनरसनं जिनचरितं गायं गायं ॥ सविनय शांतिसु धारसमेनं चिरं नंद पायं पायं ॥ ॥ ॥ इति श्रीशांतसुधा रसगेयकाव्ये संवरनावनाविनावनो नाम अष्टमः प्रकाशः थर्थ ॥ संयमना प्रतिपादन करनारा एहवा परमेश्वरनी वाणीमय जेपुष्प ते पुष्पोना रसनीसुगंधी पोताना अध्यवसायनेअत्यंतपणेकर अने ज्ञानादिक गुणपर्या - Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. २४ए यरूप लक्षणनो करनारूं एहवोजे तहारं चैतन तेने तुं अोलख ॥ ७॥ पवित्र अने नलारसेंकरी सहित एह परमेश्वरनाचरित्रोनुं गायन करीकरीने पोताना मु खने अलंकतके शोनितकर (नूषितकर ) वली विनयसहित था शांतिसुधारसनो पान करी करीने घणाकाल सुधी पानंद मनमा रहे ॥ इतिश्री शांतिगुधारस गेयका व्ये संवरनावनाविनावनो नाम अष्टमः प्रकाशः॥ इंज्ववाटत्तायनिर्जरा दशधा निरुक्ता तत् हादशानां तपसां विने दात्॥ हेतुप्रनेदादिद कार्यनेदः स्वातंत्र्यतस्त्वेकविधैव सा स्यात् ॥२॥ अर्थ ॥ हवे निर्जरा नावनानावे निर्जराजे बारप्रकारनी कही तेबारप्रकारना तपने जेकरीथाय इहां कारणनेनेदें कार्यनो नेदथाय तेणेकरी बारप्रकार कहेवाय नहीका स्वतंत्रपणेतो निर्जरा एकप्रकारनीज ॥१॥ अनुष्टब्सत्तक्ष्यकाष्ठोपलादिरूपाणां निदानानां विनेदतः॥वन्दि र्यथैकरूपोपि पृथग्रूरूपो विवयते॥॥ निर्जरापि घादशधा तपो नेदैस्तथोदिता॥ कर्मनिर्जरा णात्मा तु सैकरूपैव वस्तुतः॥ ३ ॥ अर्थ ॥जेम कारणरूप काष्ट बने पारवाणना जूदाजूदा नेदले तेनानेदेकरी यद्य पि अग्निएकरूपले तथापि निन्ननिन्नरूप देखायले एटले था अमुक काटनीयनि अथवा या अमुक पाखाणनी अग्नि इत्यादिक अग्निना नेदकहेवाय ॥२॥ ते मज तपनानेदेकरी निर्जरा बारप्रकारनीकही पण वस्तुतत्वें विचारतां कर्मनिर्ज रा स्वरूप जे जे तेतो एक रूपज ॥ ३ ॥ पेंश्ववाटतं॥ निकाचितानामपि कर्मणां यजरीयसां नूधरधराणां। विनेदने वजमिवातितीव्र नमोस्तु तस्मै तपसेऽजुताय ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ पर्वतजेवा उदर एहवा महोटा निकाचितकर्मोनो नेदकरवाविषे वजनी परें अत्यंततीव्र एहqअनुतजे तप तेने महारो नमस्कार होजो ॥ ४ ॥ उपजातियत्तं॥किमुच्यते सत्तपसः प्रनावः कगेरकर्मार्जितकिल्बि पोपि ॥ दृढप्रदारीव निदत्य पापं यतो ऽपवर्ग लनतेऽ चिरेण॥५॥ यथा सुवर्णस्यशुचि स्वरूपं दीप्तः कृशानुः प्रकटीकरोति ॥ तथात्मनः कर्मरजो निदत्य ज्योतिस्तपस्तशिदीकरोति ॥६॥ अर्थ ॥ तपना रूमापनावर्नु केटलुं वखाण करियें जेटलुं वखाणकरिथें तेटलुं Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २५० शांतसुधारस. थोमुंज केमके दृढप्रहारी जेवा पुरुषोए महोटा कठोर कर्मे करीने अत्यंत पापोनो संपादान कहतो तेपण तपस्याना प्रनावें समस्त पापोनो नाशकरीने थोडाज का समां मोद प्रतें पाम्या ॥ ५ ॥ जेम प्रदीप्तपनि सुवर्णतुं पवित्रस्वरूप प्रगटकरेने तेमज तपजे तेपण आत्मामाथी कर्मरूप रजनो नाशकरीने साक्षात् यात्मानुं ज्योतिस्वरूप प्रगटकरे ॥ ६ ॥ स्रग्धरावृत्त। बाह्येनान्यंतरेण प्रथितबदुनिदा जीयते येन शत्रुश्रेणी बाह्यांतरंगा भरतनपतिवत् नावलब्धजढिम्ना॥ यस्मात्प्राउनवेयुः प्रकटितविनवा लब्धयः सिक्ष्यश्च वं दे स्वर्गापवर्गार्पणपटु सततं तत्तपो विश्ववंयं ॥ ७॥ थर्थ ॥ जेना बाह्य थने अन्यंतर नेदेकरी घणानंद प्रख्यातले एहवा तपना उपर विशेषनावना योगेंकरी जेहने दृढपणुं लब्धके० प्राप्तथायतो ते तकरी उस | मनादिक बाह्यशत्रु थने रागादिक धंतरंग शत्रु तेनीजे श्रेणीके पंक्ति तेने जरत राजानीपरें जीतीजवायडे वली जेतपथकी ऐश्वर्यताने प्रगटकरनारी अग्यावीसल ब्धीश्रो थने आसिदियो प्रगटथायजे तथा जे स्वर्ग अने मोदना सुखथापवामा कुशल वलीजगतने पूजवायोग्य एहवोजेतप तेहनेहुँ निरंतर नमस्कारकरूंबु ॥७॥ अथनवमनावनाष्टकं सारंगरागेण गीयते ॥ जिणंदरायसरण तिहारे आयोएदेश। विनावय विनय तपोमहिमानं॥ध्रुवपदं॥बदुनवसंचित प्कृतममुना ॥ जनतेलघुलघिमानं ॥ वि०॥१॥ याति घनापि घनाघनपटली ॥ खरपवनेन विरामं ॥नजति त था तपसा उरिताली ॥ क्षणभंगुरपरिणामं वि०॥२॥ थर्थ ॥ विनयविजयजी पोताने उपदेशकरके थरेविनय तुं तपनामहिमानी जावनाकर जेनायोगथकी घणानवर्नु संचितकरेलु पाप तुरतज हलकापणुंपामे ॥ १ ॥जेम तीक्षणवायुयें करी महोटी महोटी मेघनीपंक्तियो नाशपामे तेमज तकरीने महोटीमहोटी पापनीपंक्तियो एक क्षणमात्रमा नष्टथइजायजे ॥ २ ॥ वांबितमाकर्षति दूरादपि रिपुमपि व्रजति वयस्य॥ तप श्दमाश्र य निर्मलनावादागमपरमरहस्यं॥३॥अनशनमूनोदरतां वृत्ति हा सं रसपरिदारं नज सांलीन्यं कायक्लेशं तप इति बाह्यमुदारं॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. २५१ थर्थ ॥ वली जे वांनितार्थ घणुंदूरहोय तेनेपण नजीकथाणीवापेले तथाशत्रु नेपण मित्रकरे एहवाएतपने शास्त्रनुं परमरहस्य जाणीने निर्मलनावें श्रादर ॥ ॥३॥ तेतपनाबारनेद १ अनशन २ ननोदरी ३ वृत्तिहास एटले वृत्तिसं क्षेप ४ रसपरिदार ५ सालीन्यता एटले इंडियोनोरोध, एकांतेंबेस, ६ कायक्लेश एउप्रकार, महोटुं बाह्यतपले तेनुं तुं सेवनकर ॥ ४ ॥ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं स्वाध्यायं विनयं च ॥ कायोत्सर्ग शुनध्यानं आन्यंतरमिदमचाविणाशमयति तापं गमयति पापं रमयति मानसदंसाहरति विमोदं दूरारोदं तप इति विगताशंसंः॥विण॥॥ अर्थ ॥ १ प्रायश्चित्त २ वेयावच्च ३ स्वाध्याय विनय ५ कायोत्सर्ग ६ शुन ध्यान एबप्रकारना धान्यंतर तप तेनेसेव ॥ ५ ॥ एतप अनेकप्रकारना संसारी कतापनी शांतिकरे अनेपापनोनाशकरेने तथा मनरूपहंसने रमाडे वली निःसं शयपणे थाजगतमां दुःखोनेदूरकरवा असमर्थ एहवोजे मोहतेनो नाशकरे ॥६॥ संयमकमलाकार्मणमुज्वलशिवसुखसत्यंकारं चिंतितचिंतामणिमाराध य तप इह वारं वारं ॥विणा॥ कर्मगदौषधमिदमिदमस्य च जिनपति मतमनुपानविनय समाचर सौख्यनिधानं शांतिसुधारसपानाविणात इतिश्रीशांतसुधारसगेयकाव्ये निर्जरानावनाविनावनोनामनवमःप्रकाशः __ अर्थ ॥ वलीएतपते चारित्ररूप लक्ष्मीने वशकरवानी विद्या तथा सुंदर मो दना सुखथापवाने विशारद वली चिंतितार्थ देवाने चिंतामणीरत्नसरखोले एह वा तपने आजगतमा हेविनय तुं वारंवार अंगीकारकर ॥ ७ ॥ हेविनय कर्मरूप रोगनु औषध अने तीर्थकरोनो जे मत तेले अनुपानजेहन तथा समस्त सुखर्नु निधान एहवोजे शांतसुधारस ते-तुंपानकर ॥ ७ ॥ इतिश्रीशांतसुधारस गेयकाव्ये निर्जरानावनाविनावनो नाम नवमः प्रकाशः नपजातिटत्तं ॥ दानं च शीलं च तपश्च नावो धर्मश्चतुर्धा जिनवां धवेन।निरूपितो यो जगतांदिताय स मानसे मे रमतामजस्त्रं॥१॥ अर्थ ॥ हवेदशमी धर्मनावना नावे तीर्थकरदेवें लोकहितार्थे दानशील तपथ ने नाव एरीतें चारप्रकारनो धर्मकह्यो तेधर्ममारामनमा सर्वकालरहो ॥ १॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. वात्तत्रयं॥ सत्यक्तमामार्दवशौचसंगत्यागार्जवब्रह्मविमुक्तियु क्तः॥ यः संयमः किंच ततोपगूढश्चारित्रधर्मो दशधायमुक्तः॥ २ ॥ य स्य प्रभावादिह पुष्पदंतौ विश्वोपकाराय सदोदये ते ॥ ग्रीष्मोष्मजी मामुदितस्त मिलान् काले समावासयत्ति दितिं च ॥ ३ ॥ नलो लकल्लोलकलाविलासैर्नाप्लावयत्यंबुनिधिः क्षितिं यत् ॥ न घ्नंति यत् व्याघ्रमरुद्दवाद्या धर्मस्य सर्वोप्यनुनाव एषः ॥ ४ ॥ १५२ अर्थ ॥ १ सत्य २ मा ३ माईव ४ शौच ५ तपधर्म ६ संगत्याग ब्रह्मचर्य विशेषप्रकारें मुक्किएटले निर्दोनतापणुं ए संयम १० अकिंचनता तेणेकरीयुक्त ए तें दस प्रकार चारित्रधर्म कयुंबे ॥ २ ॥ जे धर्मनापसायेंकरी जगतमां चंड्सूर्य पण सर्वप्राणीमात्रने उपकार करवाने व्यर्थे नित्यउदयपणुं पामेळे वली ग्रीष्मकतुम नी अत्यंत तप्तथयली जमोनने वर्षाऋतुमां मेघ वर्षादकरीने ठंमिकरेळे ॥ ३ ॥ त या समुपोताना महोटाकलोलेंकरी पृथ्वीने बुडावतोनथी अने व्याघ्र तथा दावा नल ने पवन इत्यादिकोकोने मारतानथी एप्रतापसर्व धर्मनोजबे ॥ ४ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तयं ॥ यस्मिन्नेव पिता दिताय यतते भ्राता च माता सुतः सैन्यं दैन्यमुपैति चापचपलं यत्रा फलं दौर्बलं ॥ तस्मिन्कष्टदशाविपाकसमये धर्मस्तु संवार्म तः सज्जः सज्जन एष सर्वजगतस्त्राणाय बोद्यमः ॥ ५ ॥ त्रैलोक्यं सचराचरं विजयते यस्य प्रसादादिदं योत्रामु त्र हितावहस्तनुतां सर्वार्थसिद्धिप्रदः ॥ येनानर्थकदर्थ ना निजमहः स्सामर्थ्यतो व्यर्थिता तस्मै कारुणिकाय ध विनवे भक्तिप्रणामोऽस्तु मे ॥ ६ ॥ अर्थ || जेवखत पोतानाहितने बाप नाइ माता पुत्र अत्यंत उद्योगकरेले पण धर्मनोजप्रताप जावो अनेवली धनुष्यनायोगें करी चपलथलो जे सैन्यके ० लशकर तेपण दैन्यके दीनपणाने पामेवे तथा जेवखतपोतानी मुजाश्रोतुंबल निष्फलयायले एवी कष्टप्रबस्थाना परिणामकालें पण सनएहबुंजे याधर्मरूप मित्रते पोताना अंगमां बख्तर जेवुंबई जाणे एक धर्मरूप बख्तरज पहेसुंहोमनी एट Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. ले यांगमां बरस्तरपदेया नीपरेंथयीने सर्वजगतना रक्षणार्थे उद्योगकरे ॥ ५ ॥ वली जेहनापसायथकी स्थावर अने जंगमसहित जगत शोने तथा जे बालोकें प्राणीयोने हितकरवाने योग्यथयीने सर्वअर्थनी सिताने पमाडेले जेणेपोताना तेजस्वीसामर्थंकरी पापरूपविटंबनानो नाशकरीनारख्यने एहवो जे दयावंत धर्मरूप प्रनु तेने महारो नमस्कार होजो ॥ ६ ॥ मंदाक्रांतारत्तं ॥ प्राज्यं राज्यं सुनगदयिता नंदनानंदनानां रम्यं रूपं सरसकविता चातुरी सुस्वरत्वं ॥ नीरोगत्वं गुणपरिचयः सङनत्वं सुबुद्धिं किंतु ब्रूमः फलपरिणति धर्मकल्पद्रुमस्य ॥७॥ अर्थ ॥ महोटुंराज्य सुंदरस्त्री पुत्र पुत्रीयो रमणीकरूप घणीज सरस कविता करवानी चतुराई सुस्वरपणुं आरोग्यतापणुं गुणोनोपरिचय तथासङनपणुं अने रूडीबुदि एसर्ववाना ते धर्मरूप कल्पवृक्ना फल ॥ ७ ॥ ॥अथ दशमनावनाष्टकं वसंतरागेण गीयते नवितुमेवंदोरेहीर विजयसूरिराया एदेश। पालय पालय रे पालय मां जिनधर्म ॥ मंगलकमलाकेलिनिके तन करुणाकेतन धीर ॥ शिवसुखसाधन नवनयबाधन जगदा धार गंनीर॥पा॥१॥ सिंचति पयसा जलधरपटलीनूतलममृत मयेन ॥ सूर्याचंमसावुदयेते तव महिमातिशयेत ॥पा०॥२॥ अर्थ ॥ हे जैनधर्म तुं महारुंरदणकर महारूं रक्षणकर तुं मांगलिकरूप लक्ष्मी गें कीमागृहबो वलीकरुणानो स्थानकडो तथा मोदसुखन साधनो अने संसा रना समस्तनयनो नाशकरनारको तेमज जगतना जीवोने याश्रयनूतबो अनेषतिगं जीरो ॥१॥ जे मेघनो समूहते पृथ्वीतलने अमृत सरखा पाणीयें करीने सिंचन करेले अने चंद सूर्य जे नित्य नगे तेसर्व ताहरोज महिमा ॥ २ ॥ निरालंबमियमसदाधारा तिष्ठति वसुधा येनातं विश्वस्थितिमूलस्तं नंतं सेवे विनयेन।पा॥३॥दानशीलशुननावतपोमुखचरितार्थीऽक तलोकः॥शरणस्मरणकृतामिद नविनां दूरीकृतनयशोकः॥पा० ॥ अर्थ ॥ निरालंब पृथ्वीनेको आधार नबतां जेनाआधारथकी रहे एहवो जग तनीस्थितीनो मूलस्तंन जे धर्म तेने ढुं निल्यप्रतें विनय एटले नक्तिये करी सेq॥ दान शील गुननाव अने तप एचारप्रकारेकरी लोकोने चारित्रार्थनो करनारो अने Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ शांतसुधारस. जे प्राणी या जगतमां ए धर्मनो स्मरण करेबे तथा याश्रय करेबे ते प्राणीना नय तथा शोक दूर करनारो एहवो ए धर्मले ॥ ४ ॥ क्षमासत्यसंतोषदयादिकसुनगसकलपरिवारः || देवासुरनरपूजित शासन कृतबहुजवपरिहारः ॥ पा॥५॥ बंधुरबंधुजनस्य दिवानिशमस हायस्य सहायः ॥ भ्राम्यति जीमे जवगढ़नेंगी त्वां बांधव मपदाय पाण्६ अर्थ || जेनो क्षमा सत्य संतोष दया यावेवेने समस्तपरिवार सुंदरने वली देवता वैत्य ने मनुष्योए जेनी खाज्ञामान्यकरीबे तथा अनेक जन्म जरा मरण नो परिहार करनारो ते ए धर्मजढे ॥५॥ वली हे धर्मतुं जेनेकोइ जाइनथी तेनोना इ तथा जेनेको सहायनथी तेने रात्रदिवस सहायनो करनार बांधव रूपलो तेम ता बांधवरूप तुज मूकीने प्राणीयो संसाररूप अरण्यमां फिरेवे ।। ६ ।। गति गढ़नं जलति कृशानुः स्थलति जलधिरचिरेण तव कृपयाऽखिल कामितसिना किंतु परेण ॥ प० ॥७॥ इद यच्चसि सुखमुदितदशांगं प्रेत्यादिपदानि ॥क्रमतोज्ञानादीनि च वितरसि निःश्रेयस सुखदानि ॥८ अर्थ॥ हे धर्मरूपमित्र तहारीकृपाथकी खारस्य ते महोटा नगर जेवो थाय तथा पाणीसरखीयायाने समुते स्थल सरखो तुरतयइजाने वधारे सुं कर्तुं तहारी कृपा की प्राणीमात्रना सर्व मनोरथ पूर्णथायबे ॥ ७ ॥ यालोकमां जेना यंगनेविषे दयारूप धर्म उदययाव्यवे तो तेने इहांपण पूर्वोक्तप्रकारें सुखाले परवेज्ञादिक देवतायोनी पदवीप्रापेले वली क्रमेकरी मोक्षसुखने याप नारा हवा ज्ञानादिक गुणा ॥ ८ ॥ सर्वतंत्र नवनीत सनातन सिविसदनसोपान ॥ जय जय वि नयवतां प्रतिलंबितशांतसुधारसपान ॥ पा० ॥ ॥ इतिशांत सुधारस यकाव्ये धर्मभावनाविभावनो नाम दशमः प्रकाशः अर्थ || सर्वशास्त्रोमां नवनीत एटले माखणजेवो सारनूत ने सनातनके० शा श्वत तथा सिद्धिरूपगृहनो सोपान एटले निसरणीरूप खाने जे विनयवंत शिष्यो ने शांतिसुधारस पान करावे एहवोजे धर्म ते जयपामो जयपामो ॥ ए ॥ इतिश्री शांतसुधारस गेयकाव्ये धर्मभावना विनावनो नाम दशमः प्रकाशः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. २५५ मालिनी वृत्तं ॥ सप्ताधोधो विस्तृता याः पृथिव्यरत्राकाराःसंतिरत्नप्रना याः॥तानिः पूर्णो योस्त्यधोलोक एतौ पादौ यस्य व्यायतौ सप्तरजः॥र अर्थ ॥ हवे ग्यारमी लोकस्वरूप नावनानावे सातअधोधो एटले एकबी जाने नीचेंनीचें विस्तीर्ण बत्राकारें रत्नप्रनादिक सातटथ्वीयोडे तेणेकरी परिपू र्ण एवा अधोलोकरूप सातरज्जुप्रमाणे जेना महोटाबेपग ॥ १ ॥ तिर्यग्लोको विस्तृतो रज्जुमेकां पूर्णो दीपैरणवांतरसंख्यैः ॥ यस्य ज्योतिश्चक्रकांचोकलापं मध्ये कार्य श्रीविचित्रं कटित्रं ॥२॥ अर्थ ॥ अने एक रज्जु प्रमाण विस्तारवंत असंख्याता दीपसमुकरी व्याप्त एह वो तिर्यग्लोकमां कशपणानी शोनायेंकरी युक्तले वली ज्योतिष चक्ररूप कांचीक लापायें युक्त जेनुं सुंदर कणदोरोने ॥ २ ॥ लोकोऽथोर्चे ब्रह्मलोके धुलोके यस्य व्याप्तौ कूर्परौ पंच रज ॥ लोक स्यांतो विस्तृतो रङ्गुमेकां सिधज्योतिश्चित्रको यस्य मौलिः ॥ ३ ॥ अर्थ ॥ जेनो कर्वलोकें ब्रह्मनामा देवलोक पांचरज्जुप्रमाणे व्याप्त ते कोपरास रखो कूरपर घने जेनुं लोकनेयंते एकरज्जुविस्तारपणेजे सि-६ शिलातेमस्तक॥ यो वैशाखस्थानकस्थायिपादः श्रोणीदेशे न्यस्तदस्तक्ष्यश्च ॥ का लेऽनादौ शश्वदूर्वदमत्वाद्विभ्राणोपि श्रांतमुमखिन्नः ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ जेना मथनकरवाना दंडने स्थानकेंपगडे एटले बासमथन करवाना दमनी परें जेना पगपसरेला जेणे पोतानी कटीउपर बेहाथ राखेलाले एहवोथको धना दिकालतुं निरंतर कदमपणे जितेंझ्यिथको शांतमुझधरीरह्यो पण खिन्ननथी॥४ सोयं ज्ञेयः पूरुषो लोकनामा षड्व्यात्माऽ कृत्रिमोनाद्यनंतः॥ धर्माधर्माकाशकालात्मसंझै ईव्यैः पूर्णः सर्वतः पुजलैश्च॥ ५॥ थर्थ ॥ षटव्यरूप जेना आत्मानुं स्वरूपले जेनेकोश्य कस्योनथी जेनो जन्म अथवा मृत्युथयोनथी वली धर्म अधर्म याकाश काल जीव अने पुजल एपांच व्येकरी सर्वस्थले परिपूर्ण एवो था चनदराज लोकनामा पुरुषजाणवो ॥ ५ ॥ रंगस्थानं पुजलानां नटानां नानारूपैर्नृत्यतामात्मनां च ॥ का लोद्योगस्वस्वनावादिनावैः कर्मातोयैनर्तितानां नियत्या ॥ ६॥ अर्थ ॥ वली जे काल उद्योग स्वस्वनावादिकनावें कर्मरूपवाजिरें नियतियेक - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ शांतसुधारस. री नानाप्रकारना रूपेकरी नचावेला जीवोनुं अने नाचनारोजे पुशलरूप नाटकी यो तेनुं रंगस्थान एटले रंगमंझपने एवो एच-दराज लोकनामा पुरुषले ॥ ६ ॥ एवं लोको नाव्यमानो विविक्त्या विज्ञानां स्यान्मानसस्थैर्य हेतुः॥ स्थैर्य प्राप्ते मानसे चात्मनीना सुप्राप्येवा ऽध्यात्मसौख्यप्रसूतिः॥७॥ अर्थ ॥ एरीतेलोकने विवक्त एटले जूदोउदो स्पष्टपणे नाव्यो थको विज्ञानीपुरुषो नामनने स्थिरकरवानो कारण तेहीजथायडे जेवारें मन स्थिरथयो तेवारें यात्माने हितकरनारी अध्यात्मिक सुखनी प्राप्तिसुलनथाय ॥७॥ सप्तनिर्मालनीस्त्तैः कुलकं ॥ अथ एकादशनावनाष्टकं काफीरागेणगीयते आजसखीमनमोहनो॥ एदेशी विनय विनावय शाश्वतं ॥ हृदि लोकाकाशं ॥ सकलचराचरधा रणे परिणमदवकाशं वि०॥॥लसदलोकपरिवेष्टितं गणनाति गमानं ॥ पंचनिरपि धर्मादिनिः सुघटितसीमानं ॥ वि० ॥२॥ थर्थ ॥ विनयविजयजी उपाध्याय पोताने समजावेजे अरेविनय शाश्वतो चिरकाल रहेनारो एहवो लोकाकाशतुं ताहरा हृदयमा धारणकर जेमां समस्त स्थावर अनेजंगमपदार्थोने धरवाविषे पूर्णधवकाश ॥ १ ॥ वलीशोनायमान थ लोकेंकरी वेष्टितके० विटयु तथा जे गणनाके० परिमाण मूकीने रह्यो केमके असंख्यातो लोकाकाश माटे, वली जेनीसीमाधमोदिक पांचव्यंक। सुघटितके रूमीरचनायें करी रचित एहवो ए चन्दराज लोकनामा पुरुषले ॥ २ ॥ समवघातसमये जिनैः परिपूरितदेहं ॥ असुमदणुकविविधक्रिया गुणगौरवगेदं॥विण॥३॥ एकरूपमपि पुजलैः कृतविविधविवर्त ॥ कांचनशैलशिखरोन्नतं कचिदवनतगर्त ॥ वि० ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ वली लोकनामा पुरुपनेविषे श्रीतीर्थकरदेव समुजातना समयें पोतानी यात्माना प्रदेशेकरीने चनदेराजलोकना समस्तनाग परिपूर्णकरे तथा असुंमत्के प्राणी अने अणुके० परमाणु तेमनी नानाप्रकारनी जेक्रिया अनेगुण तेनागौरवप पार्नु स्थानकजाणवु ॥ ३ ॥ वली ए लोकाकाश पुरुषमा यद्यपि रूपने धारणकर नारुं एक पुगनव्य तेणे नानाप्रकारना करेला एहवा किहांक मेरूना शिखरप्र माणेचा सुवर्णमयपर्वतोडे वलीकिहांकतो गर्ता एटले खामायोजे ॥ ४॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. २५७ वचन तविषमणिमंदिरैरुदितोदितरूपं ॥ घोरतिमिरनरकादिनिः क्वचनातिविरूपं ॥ वि० ॥५॥ कचिउत्सवमयमुज्वलं जयमंगल नादं ॥ क्वचिदमंददाहारवं ॥ पृथुशोकविषादं ॥ वि० ॥ ६ ॥ अर्थ॥ वली किहांक तो देवतायोना नुवन तेनी सूर्यकांत मणीरत्ननी शोनायें करी सुंदररूप पणाना उदयने पाम्योडे एटचे उदितोदित रूपनेपाम्योने वली किहांक नयंकर अंधकार भने नरकादिकें अत्यंत विरूप एटले मागरूप पणाने पा म्यो ॥५॥ वली किहांकतो उत्सवमय एटले उज्वल जयमंगलना वाजित्र ना नार्वेकरी युक्त तथा किहांकतो अत्यंतशोक अने खेदे करीयुक्त जेमांथी महो टो हाहाकार शब्द निकलीरह्योडे एह पुजल व्यले ॥ ६ ॥ बढुपरिचितमनंतशो निखिलैरपिसत्वैः जन्ममरणपरिवर्तिनिः कृ तमुक्तममत्वैः ॥ वि० ॥ इहपर्यटनपराङ्मुखाः ॥ प्रणमत नगवं तं ॥ शांतसुधारसपानतो धृतविनयमवंतं ॥ ॥ इतिश्रीशांतसु धारसगेयकाव्ये लोकस्वरूपनावनाविनावनो नामैकादशः प्रकाशः अर्थ ॥ वली लोकमां पुजलनो स्वरूप विशेषे कहे जेने जन्म मरणाना योगेंक री फिरनारा प्राणी पूर्वपूर्व ममत्वनी परंपरायेंकरी अनंति अनंतिवार श्लेशनेम क्योडे अनेजेनुं सर्वप्राणीयोए अनंतिवार घणुंपरिचित कयुं एहए पुजलव्य ॥ ७ ॥ माटे हेजीव तुंजो बालोकरूप पुरुषमा फिरवाने विष पराङ्मुख थयो होय तो शांतिसुधारसना पानेकरी विनय धारण करनाराषोनुं रक्षण करवा वाला जे जगवंत परमात्मा तेने नमस्कारकर ॥ ॥ इतिश्री शांतसुधारस गेयकाव्ये लोक स्वरूपनावनाविनावनो नाम एकादशः प्रकाशः मंदाक्रांतादृत्त।यस्माधिस्मापयितसुमनःस्वर्गसंपदिलासप्राप्तोल्ला साः पुनरपि जनिः सत्कुले नूरिनोगे॥ ब्रह्माक्षतप्रगुणपदवीप्राप कं निःसपत्नं तदुष्प्रापं नृशमुरुधियः सेव्यतां बोधिरत्नं ॥१॥ थर्थ ॥ दवेबारमी बोधिलन नावनानावेने जेनाथकी देवतायोपण वि स्मयपामे एहवो स्वर्गसंपत्तिनो विलास पामीने जीव यानंद पामनार थायले व लीजेनाथकी अनेकप्रकारना अत्यंत नोगेंकरी युक्त एहवा रूमाकुलमा पुनःपुनः ज Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ शांत सुधारस. मथाय तथा परंपरायें द्वैत ब्रह्मपदवी पाडवामां जेनेको शत्रुनथी जेनीप्राप्ति पामवी अत्यंत कठीण एहवुंजे बोधरूपरत्न तेनोबुद्धिमंतो तमेसेवनकरो ॥ १ ॥ जुजंगप्रयातवृत्तत्रयं ॥ अनादौ निगोदांधकूपे स्थितानामजस्त्रं जनर्मृ त्युः खार्दितानां ॥ परीणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्याद्यया दंत तस्मादि निर्याति जीवाः ॥ १ ॥ ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वं त्रसत्वं पुनर्लनं देहनाजां ॥ त्रसत्वेपि पंचाक्षपर्याप्तसंज्ञिस्थिरायुष्कवत्वं दुर्लभं मानु पत्वं ॥३॥ तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो महामोह मिथ्यात्वमायोपगूढः॥ भ्रमन्दुरमग्नो नवागाधगर्ते पुनः क्व प्रपद्येत तोधिरत्नं ॥ ४ ॥ अर्थ | पण अनादि कालना निगोदरूप अंधकार तद्रूप कुवामां रहेनारा निरं तर जन्म मरणना दुःखेकरी पीडायला प्राणीखोने तेवी परिणामशुद्धि केमथाय केमके जेथकी महोटा यानंदे सहित जीव निगोद रूप अंधकार कुवामांथी बा हेरपडे ॥ २ ॥ ते निगोदमांथी नीकलीने पण स्थावरमां उपजकुंथाय केमके प्राणीने त्रसपणुं पामतो दुर्लनबे वली त्रसपणामां पण पंचेंड्रियपणुं पामकुं 5 न तेमां वलीपर्याप्तिपणुं पामकुं दूर्लनबे तेमांपण संज्ञी पंचेंश्यिपं दीर्घायु श्र ने मनुष्यपणुं पामतो परमदुर्लनबे ॥ ३॥ महामोह मिथ्यात्व तथा माया एकरी युक्त को मूर्खप्राणी या मनुष्यपणुं पामीने संसाररूप अगाध खाडामा फिरतो फिरतो बुडयोथको रहेबे तेप्राणीने बोधिरत्न फरीने शीरीतें प्राप्तयसे ॥ ४ ॥ शिखरिणीवृत्तं । विभिन्नाः पंथानः प्रतिपदमनल्पाश्च मतिनः कुयुक्ति व्यासंगैर्निज निजमतोल्लासर सिकाः ॥ न देवाः सान्निध्यं विदधति न वा कोप्यरसिकस्तदेवं कालेऽस्मिन् य इह दृढधर्मा स सुकृती ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ धर्मोना निन्ननिन्न मार्ग अने निन्नभिन्न स्थानकें कुयुक्तिना व्यासंगें ए टले यासें करीने पोतपोताना मतना उदय विषेरसिक एहवा घणामतवाला श्रा कालमांबे जो देवताने पूलवाजइयेंतो देव कां कोइपासें यावतोनथी एमजएह वो अतिशय वालपण कोइनथीके जेने पूरि निर्णय करीयें तो एवा या दुष्करकाल मां प्राणी धर्म पर दृढता राखे तेज प्राणी पुण्यवान जाणवो ॥ ५ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. १५ए शार्दूलविक्रीडितरत्त॥ यावदेहमिदं गदैर्न मृदितं नोवा जराजर्जरं याव त्वतकदंबकं स्वविषयझानावगाहदम॥ यावच्चायुरनंगुरं निजहिते ता व(धैर्यत्यतां कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते ॥६॥ अर्थ ॥ जिहांसुधा श्राशरीर रोगाक्रांत थयोनथी तेमज जिहांसुधी थाशरीर जरायेंकरी जर्जरीनूतथयोनथी तथा जिहांसुधी था पांचंडियनो समूह पोतपोता ना विषयो लेवाने समर्थडे अने जिहांसुधी आयुष्य वीणथयुनथी तिहासुधी हेजीव तुं पोताना कल्याणविषे यत्नकर केमके तलोफुटीने पाणी बाहेर नीकली जसे तोपडे पालते केवी बांधीस ॥ ६ ॥ अनुष्टुत्तं ॥ विविधोपवं देहमायुश्च क्षणभंगुरं ॥ कामालंब्य धृति मढैः स्वश्रेयसि विलंब्यते ॥ ७ ॥ अर्थ ॥ श्राशरीर नानाप्रकारना उपवेंकरी युक्त आयुष कणभंगुरले एमडता कोणमूर्ख तेनाउपर संतोष राखी पोताना कल्याणथवाना कार्यमा विलंब करे। ॥वादशनावनाष्टकं धनश्रीरागेणगीयते॥हीचेरेहीचेरेपीयाहिंडोलडेएदेशी॥ बुध्यतां बुध्यतां बोधिरतिलना ॥ जलधिजलपतितसुररत्नयु तया सम्यगाराध्यतां स्वदितमिद साध्यतां ॥ बाध्यताम धरगतिरात्मशक्त्या ॥ बु० ॥१॥ चक्रिनोज्यादिरिव न रनवो पुर्खनो भ्राम्यतां घोरसंसारकते ॥ बदुनिगोदादिका यस्थितिव्यायते ॥ मोहमिथ्यात्वमुखचोरलदे ॥ बु० ॥२॥ अर्थ ॥ जेम समुनापाणीमां पमोगयतुं चिंतामणीरत्न पागेहाथमा थावतुं अतिद्धन तेम बोधिपामवीपण अतिउर्लन माटेरूमीरीतें बोधिनुं धाराधनकरी पोतानुं हितसाधq बनेपोतानी शक्तीयेंकरी उर्गतिनो बाधकरवो ॥१॥ घणी नि गोदादिक कायस्थितियें करी विशाल अने मोह मिथ्यात्वप्रमुख लाखोगमे चोरटा ये युक्त एहवो आ घोर संसाररूप अरण्यमा फिरनारा जीवोने चक्रवर्तिना भोजन सरखो मनुष्य जन्म पामवो उर्लन ॥ २॥ लब्ध श्द नरनवो ऽनार्यदेशेषु यः स नवति प्रत्युतानर्थकारी ॥ जी वहिंसादिपापाश्रवव्यसनिनां माघवत्यादिमार्गानुसारी॥बु० ॥ ३ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० शांतसुधारस. आर्यदेशस्टशामपि सुकुलजन्मनां॥ उर्लना विविदिषा धर्मतत्वे ॥र तपरिग्रहनयादारसंझावर्तिनि हंत मग्नं जगहुस्थितत्वे ॥ बु॥४॥ अर्थ ॥ जो था जगतमां प्राणी अनार्यदेशमां मनुष्यनव पाम्योतो उलटो अन र्थन कारणथाय केमके जीवहिंसादिक पापाश्रवना व्यसनवाला जीवोतो माधव ति जे सातमी नरकादिको तेना मार्गनुं कारण थाय ॥३॥ रूडाकुलमा जन्म पामेलो होय अनेवली आर्यदेशमा रहेनार होय तेनेपण धर्मतत्व जाणवानी श्वा थवीउनन कारणके रतके ० मैथुन परिग्रह नय अने अहार ए चार नामना 5 स्थितपणामां सर्वजगत बमोपडयोले ॥४॥ विविदिषायामपि श्रवणमतिउर्लनं धर्मशास्त्रस्य गुरुसन्निधाने ॥ वित यविकथादितत्तसावेशतो विविधविक्षेपमलिनेऽवधाने ॥ बु० ॥ ॥५॥ धर्ममाकर्ण्य संबुध्य तत्रोद्यम कुर्वतो वैरिवर्गोऽतरंगाराग पश्रमालस्यनिज्ञादिको बाधते निहतसुकृतप्रसंगः ॥ बु० ॥६॥ अर्थ ॥ कदाचकोइने धर्मतत्व जाणवानी बाहोय अने गुरुसंनिध बेठोहोय तोपण वृथा विकथारसना आवेशथी नानाप्रकारना विकेकरी जोतेनुअंतःकरण मलीन थयुंहोयतो धर्मशास्त्रोनुं श्रवण उर्जनहोय ॥ ५ ॥ वली जेप्राणी धर्मने सांजली धर्मनेपाम्यो अने धर्मनेविषे उद्योगपण करवाबेगे तेवा प्राणीनेपण पुण्य रूप प्रसंगना नाशकरनारा जे रागदेष श्रम आलस निश इत्यादिक अंतरंग शत्रु नो समूहले तेपीडाकरे तेथीतेने धर्मपाम उर्जनथाय ॥ ६ ॥ चतुरशीतावदो योनिलदेष्वियं क त्वया कर्णिता धर्मवाती ॥ प्राय शो जगति जनतां मियो विवदते झद्धिरसशातगुरुगौरवार्ता॥७॥ एवमतिउलनात्प्राप्य उर्लनतमं बोधिरत्नं सकलगुणनिधान।कुरु गुरु प्राज्यविनयप्रसादोदितं ॥ शांतरससरसपीयूपपानं ॥ बु० ॥७॥ ३० शांतसुधारसगेयकाव्ये बोधिनावनाविनावनो नामहादशःप्रकाशः अर्थ ॥ माटे अहोइति आश्चर्य हेजीव चोरासीलद जीवा योनीमां किहां पण तें धर्मनीवात सांजली हसेके अर्थात् नहीज सांजली हसे केमके घणुकरीने था जगतमा धिगारव रसगारव सातागारव एत्रण महोटा गारवेंकरी पीडायला लोकोतो परस्पर एकबीजा साथे वादकरे पणधर्मनी वातोसानली धर्ममार्गे प्रव Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. तानयी ॥७॥ एम अतिनन वस्तु करतां पण विशेष उर्लन अने समस्त गुणनु निधानएवं जे बोधिरत्न ते पामीने गुरुनो अत्यंत विनयकस्यो तेरोकरीने प्राप्तथयु ए हवं जे शांतिसुधारस रूप जलोअमृत तेनु तुं पानकर एमांक यें पोतानाम पणसु चव्युं ॥ ॥ इतिश्री शांतसुधारस गेयकाव्ये बोधिनावनाविनावनोनाम दादशःप्र काशः एरीतें अनित्यादिक बारनावनामोनो अधिकार संपूर्णथयो॥ अनुष्ट्रबत्तं ॥ सर्मध्यानसंध्यानदेतवः श्रीजिनेश्वरैः॥ मैत्रीप्रनतयः प्रोक्ताश्चतस्रो नावनाः पराः॥१॥ तथादुः॥मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्य स्थानि नियोजयेत् ॥ धर्मध्यानमुपस्कर्तुं तद्धि तस्य रसायनं ॥२॥ अर्थ ॥ हवे मैत्र्यादिक घारनावनायो नावे श्रीतीर्थकरदेवें सत्यधर्मध्याननी धारानी हेतुनूत मैत्रीश्रादेदेश्ने बीजी चारनावनायो कहीले ॥१॥ तेश्रीतीर्थकरदेवें कही तेमज नावियेबैये १ मैत्री प्रमोद ३ कारुण्य बने ४ माध्यस्थ्य एचारनाव नाते धर्मध्यानना नूषणार्थे एटले धर्मध्याननी शोनानेअर्थे योजना करीथकी ध्या वनारने चारनावनायुक्त जे धर्म ते रसायन (औषधी) तुल्य थायले ॥ २ ॥ उपजातिटत्तामैत्री परेषां हितचिंतनं यत् नवेत्प्रमोदो गुणपत्नपातः॥ कारुण्यमागिरुजां जिदीत्युपेदणं उष्टधियामुपेदा ॥ ३ ॥सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पयात्मन् चिंत्यो जगत्यत्र न कोपि शत्रुः ॥ कियदिन स्थायिनि जीविते ऽस्मिन् किं खिद्यते वैरिधिया परस्मिन् ॥ ४ ॥ सर्वेप्यमी बंधुतया ऽनुनूताः सहस्रशोऽस्मिन्नवता नवाब्धौ ॥ जी वास्ततो बंधव एव सर्वे न कोपि ते शत्रुरिति प्रतीदि ॥ ५ ॥ सर्वे पितृभ्रातृपितृव्यमापुत्रांगजास्त्रीनगिनीस्नुपात्वं ॥ जी वाः प्रपन्नाबदुशस्तदेतत्कुटुंबमेवेति परो न कश्चित् ॥ ६ ॥ अर्थ ॥ जे बीजानाहित, चिंतनकरवू ते मैत्रीनावना जाणवी गुणीनो पदपा तकर ते प्रमोदनावना जाणवी सुखीप्राणीना उख उरकरवानी बाराखवी ते का रुण्यनावना इष्टबुद्धीवंत प्राणीउपर उपेदाकरवी ते उपेवणनावना ॥ ३ ॥ हेया मातुं सर्वत्र मैत्रीतापणुंकर एटले श्राजगतमा कोइपण महारो शत्रुडे एहवो तुं ताहरा मनमा बीलकुल लावीसनही केमके थोडादिवस रहेनारो अल्पमात्र ताह रो जीवतव्यपषुले तेमां बीजाउपर शत्रुबुदि राखीने सुं वृथा खिन्नथायडे ॥ ४ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ शांत सुधारस. जीव संसारसमुइमां ए समस्त प्राणी सायें हजारोवखत तें नाइपणो अनुन व्यो तेमाटे एसर्व ताहरा नाइयोजले पण कोइ तहारो शत्रुनथी एवीरीतें तुंजाए ॥ ५ ॥ सर्वजीवो मात्र, संसारमां माता पिता बंधु काको पुत्र पुत्री स्त्री, बहेन ढोकरानीस्त्री इत्यादिकरीतें ताहरीसाथे शेकडो वखत सगप करीचुकाले तेमा सर्व ताहारो कुटुंब पण एमांकोइ परकीयनथी एमविचारी सर्वजंतु उपर मै त्रिता पशुं खादर ॥ ६ ॥ इंज्वावृत्यं ॥ एकेडियाद्या अपि ढंत जीवा. पंचेंशियत्वाद्यधि गत्य सम्यक् ॥बोधिं समाराध्य कदा लनंते नूयो नवभ्रांतिनियां विरामं ॥ ७ ॥ या रागरोषादिरुजो जनानां शाम्यंतु वाक्काय मनोजढस्ताः ॥ सर्वेप्युदासीनरसंरसंत सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवंतु ॥८॥ अर्थ | फिर जीव तु एवो विचारकर के या संसारमा जे एकेंड्रियादिक जीवोबे तेपण रूडाप्रकारें पर्चेड़ियादिकपणु पामीने ज्ञानाराधनाकर कोइकालेंप ए संसारमा नमवारूप नयनुं अंतकरसे एवंजाणीने तेजीवोनी साथै पण मित्रता कर ॥ ७ ॥ वलीजे प्राणीखोने रागद्वेषादिरूप पीडा मन वचन कायाना गुनयो गोनो sोहकरेले ते सर्वप्राणी उदाशीनतापणुं पामीने सर्वलोक सुखीथाओ एवोमै त्रीपणुं तुं सर्वजीवो उपर राख ॥ ८ ॥ ॥ श्रथ त्रयोदशनावनाष्टकं देशाखरागेणगीयते रेजीवजिनधर्मकीजियें एवेशी ॥ विनय विचिंतय मित्रतां ॥ त्रिजगति जनतासु ॥ कर्मविचित्रतया गतिं विविधां गमितासु ॥वि० ॥ १ ॥ सर्वेते प्रियबांधवा नहि रिपुरिद कोपि ॥ माकुरु कलिकलुषं मनो निजसुकृतविलोपि ॥ विन० ॥२॥ अर्थ | विनय या त्रस्यलोकमां कर्मनी विचित्रतायेंकरी नानाप्रकारनी तिथे चादिक गतिने पामेलाप्राणी जे बे तेसर्वप्राणीमात्रना समूहउपर तुं मित्र ताव राख के सर्व ताहरा परमप्रिय बांधवजबे पण एमांको तहारोशत्रु नयी माटे फोकटमनने शेकरी कलुषता मकर कारणके क्रोधजेबे ते तहारा पोताना पुनो नाशकरनारो ॥ १ ॥ २ ॥ ए बेकाव्यनो अर्थएकोले. यदि कोपं करुते परो निजकर्मवशेन ॥ यपि भवता किं नूयते हृदि रोषवशेन ॥ वि० ॥३॥ अनुचितमिद कलं सतां ॥ त्यज समरसमीन ॥ नज विवेक कलहंसतां ॥ गुणपरिचयपीन॥वि॥४॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसधारस. २६३ अर्थ ॥ माटे जो बीजोकोऽ पोताना कर्माधीनपणाथकी ताहरानपर कोधकरे ने तो तुंपण तहाराहृदयमा तेनानपर क्रोध शावास्ते करेले ॥ ३ ॥ अरेजीवतुं स मतारूप पाणीना तलावतुं मत्सथश्ने सत्पुरुषोने अयोग्य एहर्बुजे कलह तेनेम् कीयाप अनेगुणोनो परिचय करवाने पुष्टकारी एहवोजे विवेकरूप सरोवर तेमां रमण करवाने हंस जेवो था ॥ ४ ॥ शत्रुजनाः सुखिनः समे मत्सरमपहाय ॥ संतु गंतुमनसोप्यमी शिवसौख्यगृहाय॥ विसकृदपि यदि समतालवं हृदयेन लि दंति ॥ विदितरसास्तत इह रतिं स्वत एव वहंति ॥ वि०॥६॥ अर्थ ॥ हेजीवतुं समस्त शत्रुलोकोनी मंमलीउपर मत्सरतानावनो त्यागकरी ने परमसुखीथा अने मोदरूप सुखना घरने जाणवाने ताहरु मनकर ॥ ५॥ जोए कवारपण समताना लवर्नु ताहरा हृदयमा आस्वादन करीस तो रसझथइने सम्य तनपर पोतानी मेलेज प्रीतिकरीस ॥ ६ ॥ किमुत कुमतमदमूर्बितां जरितेषु पतंति जिनवचनानि कथंद दा न रसाउपयंतिावि॥॥ परमात्मनि विमलात्मनां परिणम्य वसं तु॥विनय समामृतपानतो जनता विलसंतु॥विजानातिश्रीशांत सुधारसगेयकाव्ये मैत्रीनावनाविनावनोनाम त्रयोदशः प्रकाशः अर्थ ॥ हे जीवतुं शावास्ते कुमतायेंकरी मूर्जितथश्ने नरकमांपडे थने शांत रसथीज नरेला श्रीतीर्थकरदेवना वचनोनु केम संरक्षण करतोनथी ॥ 9 ॥ निर्म लअंतःकरणवाला जीवोनामन परमात्माना स्वरूपनेविषेज परिणत थ रहो बने लोकोनासमूह ते समतारूपी अमृतना पानेकरी विनयनो विलासपामो॥॥ इतिश्री शांतसुधारस गेयकाव्ये मैत्रीनावनाविनावनो नाम त्रयोदशः प्रकाशः स्रग्धरात्त।धन्यास्ते वीतरागाःदपकपथगतिहीणकर्मो परागास्त्रैलोक्ये गंधनागाः सहजसमुदितज्ञानजाग्रद्विरा गाः॥अध्यारुह्यात्मशध्या सकलशशिकलानिर्मलध्यानधा रामारान्मुक्तः प्रपन्नाः कृतसुकृतशतोपार्जितात्यलदमी ॥॥तेषां कर्मयोत्थैरतनुगुणगणै निर्मलात्मस्वनावैर्गायं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. गायं पुनीम स्तवन परिणतैरष्टवर्णास्पदानि ॥धन्यां मन्ये र सज्ञा जगति भवतस्तोत्रवाणीरसज्ञामज्ञां मन्ये तदन्यां वितयजनकथाकार्य मौखर्यमनां ॥ २ ॥ निर्यथास्तेपि ध न्या गिरिगहन गुहागन्दरांतर्निविष्टा धर्मध्यानावधानाः समरससुदिताः पक्षमासोपवासाः ॥ येन्येपि ज्ञानवंतः श्रुतविततधियो दत्तधर्मोपदेशाः शांता दांता जिताक्का जगति जिनपतेः शासनं नासयंति ॥ ३ ॥ दानं शीलं तो ये विदधति गृहिणो जावनां जावयंति धर्म धन्या चतुर्धा श्रुतसमुपचितश्रच्या राधयंति ॥ साध्व्यः श्राध्य श्र धन्याः श्रुतविदशधिया शीलमुद्रावयंव्यस्तान्सर्वान् मुक्तगर्वाः प्रतिदिनमसकृद्भाग्यनाजः स्तुवंति ॥ ४ ॥ अर्थ || हवे प्रमोद नावना नावेले रुपक श्रेणीना मार्गमां प्रवेशकरवाने कर्म रूपमलने जेणे ही कस्बे ने लोकमां गंधहस्तिसरखा स्वस्वनावमां रमण करनारा सहज ने पामेला केवलज्ञानेकरी जागृतथयुंळे वैराग्यजेहनुं एहवा श्रीवीतराग एटले तीर्थकरनेधन्यले केमके जे यात्मशुद्धिकरीने पूर्ण चंकलास रिखी निर्मल जे ध्यानधारा तडूप अनंतपुण्यना समूहेंकरी संपादन करेली तीर्थ करीलक्ष्मी तेनुं श्राराधनकरी मुक्तिनेप्राप्त थायले || १ || श्रीविनय विजयजी उपा ध्याय के हुं ते तीर्थकरोना कर्मक्षय की उत्पन्नथयाजे घणा गुणना समूह स्तुतिकरवाविषे जेहना परिणामहोयबे एवा खात्माना निर्मलस्वनायें सहित १६४ स्तुति करीरीने वरना व्यावस्थानको प्रतें पवित्रकं खने या जग तमां तीर्थकरोनी स्तुतिना रसने जाणनारी जिव्हाने धन्यमानुंनुं तेविना बीजीजे निष्फल लोकवार्ता ने कार्योना वाचालपणामां वर्तनारी जिव्हाने मूर्खतुल्य मानुं ॥ २ ॥ वली पर्वतमां धरल्यमां गुफागुहिरमां निवासकरीने धर्मध्यान पर एकाग्रचित्त राखनारा तथा सम्यक्तरूप रसेकरी संतुष्टथयला वली पक्ष मास विगेरेना उपवास करनारा एहवा जे निग्रंथसाधु तेनेपण धन्यबे तथा वली बी जाजे ज्ञानी पुरुषो शास्त्र पर पसरेली बुद्धियेंकर धर्मोपदेशापे खने शांतगुणी दांतगुणी जितेंयि एहवा महापुरुष जे जगतमां प्रवर्त्तताथका श्री तीर्थंकरदेवना Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. २६५ शासनने प्रकाशितकरेले तेनेपण धन्यजे ॥ ३ ॥ वलीजे गृहस्थावासमा रह्याथका पण सुपात्रने दानापेले शीलपाले तपकरे नावनायो नावे तथा चारप्रका रें करी धर्मध्यानने बाराधेळे अने पुष्टश्रदायें शास्त्र, आराधन करेले तेनेपण धन्य वलीजे साध्वी तथा श्राविकायो शास्त्रथकी स्वल्लथयली बुड़िये शीलपाले ने तेनेपण धन्य एरीतें हे नाग्यवंत नव्यपुरुषो तमे सर्वथा गर्वमूकीने ए पूर्वोक्त समस्त उत्तमपुरुषोनी नित्यप्रतें निरंतर स्तुतिकरो के जेथकी तमारु कल्याणथाय॥४॥ उपजातिटत्त। मिट्याशामप्युपकारसारं संतोपसत्यादिगुणप्रसा रं॥ वदान्यतावैन यकप्रकारं मार्गानुसारीत्यनुमोदयामः ॥ ५ ॥ अर्थ ॥ ए पूर्वोक्त सम्यक् दृष्टी जीवनी स्तुति करवी ते तो श्रेष्ठजले परंतु अमें मिथ्यादृष्टीनो पण नत्तम उपकार जाणीयबै कारणके जो तेमनो संतोष सत्या दिक गुणनो प्रसार तथा दातारपाणु अने विनयना प्रकार एटलावाना मार्गानुं सारीले तो एहवोजाणीने तेनीपण अनुमोदना करियेंडे ॥ ५॥ स्रग्धरात्तं ॥ जिव्हे प्रव्ही नव वं सुकृतिसुचरितोच्चारणे सु प्रसन्ना नूयास्तामन्यकीर्तिश्रुतिरसिकतया मेऽद्य कर्णौ सुक # ॥ वीदयान्यप्रौढलहमी द्रुतमुपचिनुतं लोचने रोचनलं संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति नवतां जन्मनो मुख्यमेव ॥६॥ अर्थ ॥ हेजीवो जो तमे सरलबो अने पुण्यवान पुरुषोना पुण्यनो नचार कर वाने प्रसन्नतो एटले आज अमारा कान बीजा पुण्यवान पुरुषोनी कीर्ति श्रवण ना रसिकपणे करी सुकर्णरहो अने बीजानी प्रौढ ऐश्वर्यताजोइने अमारी च? प्रकाशपणाने धारणकरो एहवा जो तमारा विचार तो था संसारमा एज तमारा जन्म सफल पणानो मुख्य फल ॥ ६ ॥ उपजातियत्तं ॥ प्रमोदमासाद्य गुणैः परेषां येषां मतिः सऊति सा म्यसिंधौ ॥ देदीप्यते तेषु मनःप्रसादे गुणास्तथैते विशदीनवंति॥ अर्थ ॥ बीजाना गुणो सांजली संतोषपामिने जेनीबुदि. समतारसरूप समुह थी संहननथायडे तेप्राणीना मननो प्रसाद देदीप्यमान थायडे तेमज तेना पोता ना गुण पण सर्व स्वज थाय ॥ ७ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ शांतसुधारस. ॥ अथ चतुर्दश नावनाष्टकं टोडीरागेणगीयते रुपनकीमेरेमननगतिवशी एदेशी ॥ विनय विनावय गुणपरितोषं ॥ ध्रुवपदं ॥ निजसुकृता प्तवरेषु परेषु॥ परिहर दूरं मत्सरदोषं ॥ वि० ॥१॥ अर्थ ॥ हेविनय तुं गुणीपुरुषनागुण नपर संतोष करवु मनमालाव अने पो | ताना पुण्यप्राप्तिनावखतें बीजानपर मत्सरकरवापणाना दोषने दूरकर ॥ १ ॥ दिष्ट्यायं वितरति बदुदानं वरमयमिद लनते बहुमानं ॥ किमिति न विमृशसि परपरमागं ॥ यक्ष्निजसि तत्सुकृतविनागं वि॥॥ अर्थ ॥ अमुक मनुष्य अत्यंत दानथापे एबहु कल्याणकारक कामकरे अथ वा अमुकपुरुष अमुकस्थानके बहुमानपामे. एपणघणुजरूॉडे एहवो रूडोविचार तुं केमकरतोनथी ठेकाणेकाणे लोकोना गुणोत्कर्ष करवा एहिज सुरूत विनागडेश येषां मन इह विगतविकारं ॥ये विदधति नुवि जगउपकारं॥ तेषां वयमुचिताचरितानां ॥ नाम जपामो वारंवारं ॥ ३ ॥ अर्थ ॥ था जगतमां जेना मननेविषे कोइप्रकारनो विकारनथी एटले निर्विका रीता पृथ्वीनेविपे लोकोनो उपकारकरे एहवा पवित्र सदाचारी पुरुषोना नाम यमें वारंवार जपियें.यें ॥ ३ ॥ अदद तितिहागुणमसमानं ॥ पश्यत नगवति मुक्तिनिदान॥ येन रुषा सह लसदनिमानं ॥ ऊटिति विघटते कर्मवितानं ॥विण ॥४॥ अर्थ ॥ जेनीबराबरी करवाने कोई समर्थनथी एहवो मुक्तिनुं कारणजे क्षमा गुण ते श्रीतीर्थकरदेव नोयो के जेणेकरी क्रोधसहित अनिमानेकरी शोनना रो एहवोजे कर्मनो समूह ते तुरत नाशपामेले ॥ ४ ॥ अदधुः केचन शीलमुदारं ॥ गृहिणोपि परिहतपरदारं ॥ यश श्द संप्रत्यपि शुचि तेषां ॥ विलसति फलिताफलसहकारं॥विण॥५॥ अर्थ ॥ जेगृहस्थो परस्त्री, त्यागकरी महोटुं शीलव्रतपाले ते हमणापण था जगतमा पवित्र यशे फलीभूत थयाथका सफल थांबाना वृदसरिखाशोनेले ॥५॥ या वनिता अपि यशसा साकं कुलयूगलं विदधति सपताकं॥ तासां सुचरितसंचितराकं ॥ दर्शनमपि कृतसुकृतविपाकं॥वि॥॥ अर्थ ॥ वलीजे स्त्रीअोपण शील पालीने पोताना मावित्र तथा ससरा बन्ने कु Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. लोने यशनी सुपताकके ध्वजाकरे एवीस्त्रीओनो पुण्य परिपाके करी प्राप्तय येशुं जेदर्शन ते पण पुण्यरूप धननुज संपादकले ॥ ६ ॥ तात्विकसात्विकसुजनवतंसाः॥केचन युक्तिविवेचनहंसाः॥ अलम कृपत किल नुवनानोगं ॥ स्मरणमनीषां कृतशुनयोगं॥वि॥७॥ अर्थ ॥ खरेखरा सत्वगुणने धारणकरनारा सऊनलोकोना मस्तकना नूपणस मान अने जेम हंस दूध तथापाणीनो विवेचनकरे तेनीपरें युक्तियेंकरी विवेचन नाकरनारा एहवा जे सर्वोत्कृष्टप्राणी ते आ प्रणेनुवनने शोजायमान करवाने तत्पर तो तेवापुरुषोनुं स्मरणकरवू ते पण शुनयोगनो करनारथाय ॥ ७ ॥ इति परगुणपरिनावनसारं ॥ सफलय सततं निजमवतारं ॥ कुरु सुविदितगुणनिधिगुणगान विरचय शांतसुधारसपान।।विणात॥ इति श्री शांतसुधारसगेयकाव्ये प्रमोदनावनाविनावनोनामचतुर्दशः प्रकाशः __अर्थ ॥ हे आत्मा एपूर्वोक्तरीतें परनागुणनो विचार करवू एहिज जेमा सार ने एवं आ तहारो पोतानो अवतार तेने तुं निरंतर परनागुणो स्मरणकरीने सफ लकर तथा शुदगुणोना निधि एहवाजे मनुष्यो तेना गुणोनु गायनकर बने शां तसुधारसमुं पानकर ॥७॥ इतिश्री शांतसुधारसगेयकाव्ये प्रमोदनावना वि नावनो नाम चतुर्दशः प्रकाशः ॥ मालिनीटत्त॥ प्रथममशनपानप्राप्तिवांगविदस्ता स्तदनु वस नवेश्मालंकृतिव्यग्रचित्ताः ॥ परिणयनमपत्यावाप्तिमिष्टेंडि यार्थान्सततमनिलपतंः स्वस्थतां क्वास्सुतीरन् ॥ १ ॥ अर्थ ॥ हवे कारुण्यनावना नावे प्रथमतो अशनपान प्राप्तिकरवानी श्वा ये व्याकुलथयला तदनंतर वस्त्र घर अलंकार इत्यादिकोनी प्राप्ति करवाने विषे जे मनुचित्त व्यग्रथयुंजे तेवारपनि लगकरवानी श्वा तेपनि पुत्रपुत्री प्राप्त करवानी जा थने इंडियार्थजे पांचइंडियोना वीस विषयोतेप्रतें इनार एहवाजे संसार वासी जीवो तेकेवीरीतें स्वस्थ थाय ॥ १ ॥ शिखरिणीरत्तं ॥ नपायानां लहैः कथमपि समासाद्य विनवं नवा न्यासात्तत्र ध्रुवमिति निबध्नाति हृदय॥ अथाकस्मादस्मिन्विकिर ति रजः क्रुरहदयो रिपुर्वा रोगो वा नयमुत जरा मृत्युरथवा॥२॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ शांतसुधारस. अर्थ || हे प्राणी या जगतमां लक्षावधि उपायोकरीने कोइपारीतें ऐश्वर्य ता मेलवी जन्मोजन्मना श्रन्यासेंकर तेहनानपरज मनने स्थिर राखे पण एना उपरतो एथीनंतर जे अकस्मातिक क्रूर हृदयवंत शत्रु किंवा रोगप्राप्ति जय जरा अथवा मृत्यु एटलावाना धुलनाखे ॥ २ ॥ स्त्रग्धरावृत्तं ॥ स्पर्धेते केपि केचिद्दधति हृदि मिथो मत्सरं क्रोधदग्धा युध्यंत केरुप्या धनयुवतिपशु क्षेत्रपादिदेतोः॥ के चलते विपदमनुपदं दूरदेशानर्टतः ॥ किं कुर्मः किं वदामो नृशमरतिशतैर्व्याकुलं विश्वमेतत् ॥ ३ ॥ अर्थ || कोइ क्रोधेकरी दग्धथयाथका देषकरेले कोइ परस्पर हृदयमां मत्सर dahara कोइना संध्यानबता स्वबंदपणे इव्य स्त्री पशु खेत्र गाम इत्यादिको ने वास्ते जडे वली कोइक लोनेंकरी विपत्तिये जोगित थयाथका दूर देशांतरोमां रटन करीकरीने व्यामूढथायळे तो हवे सुं करिये धने सुं बोलियें या जगत तो अत्यंत शेकडा दुःखेकरी व्याकुलबे ॥ ३ ॥ उपजातिवृत्तत्रयं ॥ स्वयं खनंतः स्वकरेण गर्तान्मध्ये स्वयं तत्र य या पतंति ॥ तथा ततो निष्क्रमणं तु दूरे ऽधोदः प्रपातादिरमंति नैव ॥ ४ ॥ प्रकल्पयन्नास्तिकतादिवादमिदं प्रमादं परिशीलयंतः ॥ मग्ना निगोदादिषु दोपदग्धा दुरंत डः खानि ददा सढ़ते ॥ ५ ॥ एवंति येनैव हितोपदेशं न धर्मलेशं मनसा स्टशति ॥ रुजः कथंकारमथापनेयास्तेषामुपायस्त्वयमेक एव ॥ ६ ॥ ॥ प्राणीपोतें पोताने हायें खाडोखोदीने तेमां एवीरीतें पडेलेके फरीकोइ प्रकारें तेमांथी नीकलबुंतो दूररत्युं परंतु उलटो नीचेनीचें जइपडवुं तेनुं किवारे अंतज श्रावनार नथी एटलो नंडोखाडो खोदेबे ॥ ४ ॥ जे नास्तिकादिक वादक पीने प्रमादनो यन्यासकरनारा दोषेकरी दग्धथयीने निगोदादिकमां बुमारह्या थका जेनोत घणुंमागे एहवा महा क्लेशकारी दुःखोने सोसेढे तो हाहा इतिखे दे एवात केली खेदन रेलीवे ॥ ५ ॥ जेप्राणी हितोपदेश सांनजतोनथी ने धर्म श्याने तो मनेकरीपण स्पर्श करतोनथी तेप्राणीना दुःखो सीरीते दूरकरीयें तेनो या एकज उपायले प्रागलना श्लोकमां कहेबे ॥ ६ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. अनुष्टुववृत्तं ॥ परःखप्रतीकारमेवं ध्यायति ये हदि ॥ लनंत निर्विकारं ते सुखमायतिसुंदरं ॥ ७ ॥ अर्थ ॥ जेप्राणी पूर्वोक्तप्रकारें बीजाना दुःखोनो प्रतीकार हृदयमा धरेने तेणे करीजेना परिणाम सुंदरथायडे तेने निर्विकारी सुख प्राप्तथाय ॥ ७ ॥ ॥ पंचदशनावनाष्टकं रामकुलीरागण गीयते ॥ हमारो अंबरदेदुमुरारी एदेशी॥ सुजना नजत मुदा नगवंतं सुजनानजत मुदा नगवंतं॥ध्रुवपदं॥ शरणागतजनमिह निष्कारणकरुणावंतमवंतंरे ॥ सुज० ॥१॥ अर्थ ॥ हेसऊनो था जगतमां कारणविना दयाना पालनारा अने जे पोताने शरणे आव्यो तेनीरदाना करनारा जे जगवंत तेने तुमे हर्षेकरी नजो॥१॥ हणमुपधाय मनः स्थिरतायां पिबत जिनागमसारं॥ का पयघटनाविकृतविचारं त्यजत कृतांतमसारं रे॥ सुज ॥॥ अर्थ ॥ एकणमात्र पोतानो मनस्थिरकरी जैनागमना सारनुं पानकरो अने | जे कृत्योमा कुत्सित मार्गनी घटनायें करी आपणो विवेक विकारवंत थाय एवा असार निंदनिक कृत्यनो त्यागकरो ॥ ३ ॥ परिदरणीयो गुरुरविवेकी भ्रमयति यो मतिमंद।सुगुरुवचः सकृदपि परिपीतं प्रथयति परमानंदं रे ॥ सुज ॥ ३ ॥ अर्थअविचारितगुरुनो संगमूको केमके जे गुरुओ मंदबुद्धिवंत पुरुषोने ब्रांति सहि त करेले अने सुगुरुना वचनो जो एक वरवत सांजव्या तोपणपरमानंद उत्पन्नकरेले ३ कुमततमोजरमीलितनयनं किमु पृच्छत पंथानं ॥ दधिबुध्या नर जलमंथन्यां किमु निदधत मंधानं रे ॥ सुज० ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ कुमतरूपी अंधारेकरी जेनी अांखोढका गयली तेवाप्राणीने मोव मार्गनो रस्तोसुं पूबवं हेलोको तमे दहीनी बुड़िये पाणीनेविषे मथनिकाने केम नाखोडो केमके ए पाणीमाथी कांड मारवण निकलवानु नथी ॥ ४ ॥ अनिरुद्धं मन एव जनानां ॥ जनयति विविधातंकं ॥ सप दि सुखानि तदेव विधत्ते॥ आत्माराममशंकं रे ॥ सुजण॥॥ अर्थ ॥ पोतामन पोताने स्वाधीन न राख्यो बता तेहिज पोताने नानाप्रकार Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० शांतसुधारस. नाखो नत्पन्नकरेजे अने तेहिज मनपोताने स्वाधीन राख्योउता आत्मारामने निशंकपणे विविध प्रकारना सुखापेजे ॥ ५ ॥ परिदरताश्रवविकथागौरवं मदनमनादिवयस्यं ॥क्रियतां सांवरसाप्तपदीनं ॥ध्रुवमिदमेव रहस्यम् रे। सुज०॥ ६ ॥ अर्थ ॥ हे सानो तमे आश्रव अने विकथानुजे गौरवपणुं तथा अनादिकालनु मित्रजे कामदेव तेनी साथै मित्रतानो त्याग नाव करीने संवररूप सन् मित्रकरो ए हिज एक गुप्त तत्व ॥ ६ ॥ सह्यत इह किं नवकांतारे ॥ गदनिकुरंबमपारं ॥ अनुस रतादितजगउपकारं जिनपतिमगदंकारं रे॥ सुज०॥७॥ · अर्थ ॥ हेजीव या संसाररूप अरण्यमां रागदेषादिक अपाररोगना समूहने तुं सोसे तेनो त्यागकरी ने जगतना उपकार करनार अने संसारीजीवोने राग देष मद मत्सर इत्यादिक रोगोनो निवारणकरी निरोगताना आपनार एहवा श्री तीर्थकरदेवरूप औषधनी सेवनाकर ॥ ७ ॥ शणुतैकं विनयोदितवचनं नियतायतिदितरचनं ॥ रचयत सुकृत सुखशतसंधानं शांतसुधारसपानं रे ॥सुजात॥इति श्रीशांतसु धारसगेयकाव्ये कारुण्य नावनाविनावनो नाम पंचदशः प्रकाशः॥ अर्थ ॥ माटेहे नव्यो विनयविजयजीना कहेला अथवा विनयेंकरीने कहेला आ ग्रंथमाहेला वाक्यो तेने एक नियमें करी एटले तदाकार वृत्तियें करी बराबर ध्यानराखीने सनिलो ए वचनो सानलवाथी उत्तरफलनी प्राप्तिथवाना कालनेविषे हित रंजनना करनाराने एहजाणीने ए वाक्यो ते एकनियमथी सोनलो॥७॥ इति श्रीशांतसुधारस गेयकाव्ये कारुण्यनावनाविनावनो नाम पंचदशः प्रकाशः ॥ पंचापि शालिनीटत्तानि॥श्रांता यस्मिन् विश्रमं संश्रयंते रुग्णाः प्री तिं यत्समासाद्य सद्यः॥ लन्यं रागद्वेषविषिरोधादौदासीन्यं सर्व दातत्प्रियं नः॥॥लोके लोका निन्ननिन्नस्वरूपा निन्नैनिन्नैः कर्म निर्ममनिनिारम्यारम्यैश्चेष्टितैःकस्य कस्यतविभिस्तूयते रुष्यते वा॥२॥मिथ्याशंसन्वीरतीर्येश्वरेण रोर्बु शेके न स्वशिष्यो जमा लिः॥ अन्यः कोवा रोत्स्यते केन पापात्तस्मादौदासीन्यमेवात्मनी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस. नं॥३॥ अतोपि प्राज्यशक्तिस्पृशः किं धर्मोद्योगं कारयेयुः प्र सह्य ॥ दद्युः शुद्धं किंतु धर्मोपदेशं यत्कुर्वाणा उस्तरं निस्तरंति।। तस्मादौदासीन्यपीयूषसारं वारंवारं दंत संतो लिहंतु ॥ आनंदा नामुत्तरंगत्तरंगै वयिनुज्यते मुक्तिसौख्यं ॥ ५॥ अर्थ ॥ हवे सोलमी माध्यस्थ नावना नावे जेमकोप्राणीने थाकचडेलो होयते प्राणी विश्रांतिनास्थानकें विश्रांतिलेले तेमज उदासीनता जेते संसार रूप अरण्यमा चमणकरनारा प्राणीने विश्रांतिलेवानुं स्थानको अने जेनेजो रोगीपुरुप तत्काल प्रीतिवंतथायले एटले गमेतेवा रोगेकरी पीडितहोय तथापि जेने उदासीनता पणुं प्राप्तथयुं तो तेने ते रोगनी व्याधि कांइपण जाणवामां न आवता उलटो हर्षवधेने वली जेनीप्राप्ति राग अने देषरूप शत्रुनो रोधकरवाथी यायले एहवीजे उदासीनता ते अमोने सर्वकाल प्रियले ॥१॥ भाजगतमांना लोको अंतरना आशयेकरी मर्मनाजेदे निन्ननिन्न कर्मेकरी अने रम्यारभ्य व्या पारेकरी निन्ननिन्न स्वरूपवंत पण बधाप्राणीनी एकप्रकृति तो नथीज तिवारें हवे विधानपुरुषे केनीकेनी रम्यारम्य चेष्टा नपर संतुष्टथा किंवा रुष्टथा अथों त् विज्ञान पुरुषेतो सर्वप्राणी उपर संतुष्ट अथवा रुष्टनथता समदृष्टीज राखवी नली ॥ ५ ॥ जूझोकेश्री वीरनगवान पोते तीर्थकर बता मिथ्यासहित बोलना रो पोतानो शिष्य जमाली तेने सँधीशक्यानही तो बीजो कोण कोइने पण पाप थकी रंधीराखनारले माटे उदासीनपणुं राखतेहीज थात्मानु हितकारी एम जाणवु ॥ ३ ॥ जूधोके श्रीतीर्थकरदेव अत्यंत शक्तिना धरनारहता तथापिते कोइने बलात्कारेकरी धर्मोद्योग करवाने प्रवर्तावताहता केसुं ते तो जेणेकरी न व्यपुरुषो उम्तर संसार समुश्मांथी तरी पारपामे एहवो केवल शुरुधर्मनोज उपदेश मात्र आपताहता ॥ ४ ॥ तेकारणे हेसत्पुरुषो तमेवारंवार हर्षेसहित औदासीन्य तारूप सारनूत अमृतनो आस्वादनकरो के जेथकी जीव आनंदना वहेनारा मो जायेंकरी सहित मोदसुख जोगवे ॥ ५ ॥ ॥ षोडशनावनाष्टकं प्रनातिरागेण गीयते ॥ आदरजीवक्ष्मागुणादर ॥ एदेशी अनुनय विनय सदासुखमनुनव ॥ औदासीन्यमुदारं रे ॥ कु शलसमागममागमसारं ॥ कामितफलमंदारं रे ॥ अनु० ॥१॥ . Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ शांतसुधारस. परिदर परचिंतापरिवारं ॥ चिंतय निजमविकारं रे ॥ वदति को पि चिनोति करीरं ॥ चिनुतेऽन्यः सहकारं रे ॥ अनु० ॥२॥ अर्थ ॥ वली विशेषप्रकारे माध्यस्थपणुं नावे हे विनयतुं सर्वकाल सुखनो अनुनवकर जेम वांबित पदार्थो श्रापवामां कल्पवृहमुख्य तेम वांडित मोदसु | खनी पमाडनारी अने सर्वशास्त्रोमां महोटी सारनूत एहवीजे उदासीनता तेज तुंसेवनकर ॥ १ ॥ अरेजीव तुं बीजा विकारीपदार्थोनी चितवनानो करावनारोजे ताहरो परिवार तेनोत्यागकर अने पोताना अधिकारि स्वरूपy चिंतनकर ॥ २ ॥ योपि न सहते हितमुपदेशं ॥ तपरि माकुरु कोपं रे ॥ निष्फ लया किं परजनतप्त्या॥कुरुषे निजसुखलोपं रे॥अनु० ३॥ सूत्र मपास्य जडा नापते ॥ केचन मतमुत्सूत्रं रे ॥ किंकुर्मस्ते प रिहतपयसो यदि पीयंते मूत्रं रे ॥ अनु० ॥ ४ ॥ अर्थ ॥ जोपणकोइ हितकारी उपदेश सांजलतो नथी तोपण तेनानपर क्रोधक रीसनही निष्फल लोकोउपर संतापकरी पोताना सुरखनो लोपकांकरे ॥३॥ केट लाक मूर्ख सूत्र त्यजीने बोले केटलाक उत्सूत्र नाषणकरेले एवीरीतना बोल नारा जोनिर्मलपाणीने मूकी लघुनीतर्नु पान करवालागा तोतेने अमेसुंकरिये ॥ ४ ॥ पश्यति किं न मनःपरिणामं निजनिजगत्यनुसारं । येन जनेन यथा नवितव्यं तभवता वीरं रे ॥ अनु० ॥५॥ रमय हृदा हृदयंगमसमतां ॥ संदणु मायाजालं रे॥ तथा वहसि पुजलपरवशतामायुःपरिमितकालं रे॥अनु॥६॥ अर्थ ॥ हेजीव पोतपोतानी गत्यनुसारें सर्वजीवोनामननो परिणाम जूदोजूदो के तेतुं केमजोतोनथी केमके जेप्राणीने जेवी नवितव्यताले तेना मननो परिणाम पण तेहवोज तो ते तहाराथी उरिने एटले तहाराथी वारीशकाय तेमनथी॥५॥ माटे हृदयने आनंद आपनारीएवीजे समतातेने मनमा धारणकरी आनंदनेपाम अने मायाजालने त्यागकर व्यर्थ पुजलने परवश कांथायने केमके तहारोबायुष प रिमितकाल एटले प्रमाणसहित तेनेटतां वारलागसेनही ॥ ६ ॥ अनुपमतीर्थमिदं स्मर चेतनमंतस्थितमनिरामरे॥चिरंजीव विश दपरिणामं ॥ लनसे सुखमविरामं रे ॥ अनु० ॥॥ परब्रह्मपरि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ शांतसुधारस. णामनिदानं ॥ स्फुटकेवल विज्ञानं रे ॥ विरचय विनय विवेचित झानं ॥ शांतसुधारसपानं रे॥ अनु०॥ ॥ इतिश्री शांतसुधार स गेयकाव्ये माध्यस्थ्यनावनाविनावनो नाम पोमशः प्रकाशः॥ अर्थ ॥ हेनव्यो तमे मनमा रहेनालं आनंदनुं कारण एहवं अनोपम उदा सीनपणारूप तीर्थनुं स्मरणकरो अने जे कोकालेंपण विराम पामतानथी एहवा मोक्षसुखपामि चिरकाल स्वबपरिणामेरहो ॥ ७ ॥ अने परब्रह्मतारूप परिणामोनुं जे निदान तड्प विज्ञानने जे प्रगटकरेले एहवं विवेचननुंकरनारंजेमां ज्ञान बे एहवा शांतसुधारसनुं पान ते हे विनयतुं निरंतरकर ॥ ७ ॥ इति श्रीशांतसुधार स गेयकाव्येमाध्यस्थ्यनावना विनावनोनाम षोडशः प्रकाशः॥ स्त्रग्धरात्तध्यं ॥ एवं सनावनानिः सुरनितहृदयाः संशयाती तगीतोनीतस्फीतात्मतत्त्वास्त्वरितमपसरन्मोदनिजाममत्वाः॥ गत्त्वा सत्त्वा ममत्त्वातिशयमनुपमां चक्रिशक्राधिकानां सौख्या नां मंहु लदमीं परिचितविनयाः स्फारकीर्ति श्रयते ॥१॥ उर्ध्यानप्रेतपीमा प्रनवति न मनाक् काचिदईसौख्यस्फा तिः प्रीणाति चित्तं प्रसरति परितः सौख्यसौहित्यसिंधुः ॥ दीयंते रागरोषप्रनतिरिपुनटाः सिदिसाम्राज्यलक्ष्मीः स्याछ श्या यन्महिम्ना विनयशुचिधियो नावनास्ताः श्रयध्वं ॥२॥ अर्थ ॥ हवे श्रीविनयविजयजी उपाध्याय आग्रंथ समाप्तकरीने उपदेशरूप पोताना आनिप्रायनुं कथनकरे. आवीरीतें पूर्वोक्तप्रकारें सन्नावनाधोनी सुगंधियें जेनाहृदयमा संशयरहित गायनकरवाथी तार्किककखुडे स्पष्ट आत्मतत्वजेणे अने जे नामोह निशा अने ममत्व तुरत नाशपाम्या के एवाप्राणी ममतानु अतिशय पणुं मूकीने चक्रवर्ति तथा इंसादिकोनासुखोथकी पण अधिक एवा विनयधरनारा थ नुपम सुखोनी पुष्कल कीर्तिवंत लक्ष्मीने पामे ॥ १ ॥ जेहना महिमायेंकरी ऽर्थ्यानरूप प्रेतनीपीडा लगारमात्रपण थातीनथी पण कोइएक अपूर्व थ६६ सौ ख्यनी वृद्धिथायडे अने चित्तप्रीतिवंतथायदे अने यात्माने चारे बाजुथी सौख्य तृ प्तिनी नदीपसरेले वली रागक्षेषरूपशत्रु दीपथइजाय सिद्धिरूप साम्राज्यलक्ष्मी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ शांतसुधारस. वशथायडे एहवीजे जावनाथो तेने हे नव्य लोको तमारी विनयेंकरी पवित्रबु दियश्कता ते नावनाओर्नु आश्रयकरो ॥ २ ॥ पथ्यावृत्तं ॥ श्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यो सोदरावनूतां ॥ श्रीसोम विजयवाचकवाचकवरकीर्ति विजयाख्यौ॥३॥ अर्थ ॥ श्रीहीरविजय सूरीश्वरना शिष्यबेनाइहता तेमां एक सोमविजयवाच क अने बीजा कीर्तिविजयवाचक ॥ ३ ॥ गीतिक्ष्यं ॥ तत्र च कीर्ति विजयवाचकशिष्योपाध्यायविनय विजयेन।शांतसुधारसनामा संदृष्टो नावनाप्रबोधो ऽयं॥४ शिखिनयनसिंधुशशिमितवर्षे हर्पण गंधपुरनगरे ॥ श्री विजयप्रनसूरिप्रसादतो यत्न एप सफलो ऽनूत् ॥५॥ अर्थ । तेमां कीर्ति विजय वाचकना शिष्य श्रीविनयविजयजी नपाध्याय तेणे शांतसुधारस नामा नावनानो प्रबोधकस्यो ॥४॥ या प्रयत्न संवत सतरसोने त्रेवीसना वर्षे श्रीगांधार नगरमां श्रीविजयप्रनसूरिना प्रसादथकी हर्षसहित सफलथयुं ॥ ५॥ नपजातिटत्तं ॥ यथा विधुः षोडशनिः कलानिः संपूर्णतामेत्य जग त्पुनीते॥ग्रंथस्तथा षोडशनिः प्रकाशैरयं समग्रैः शिवमातनोतु॥६॥ अर्थ ॥ जेम चश्मा सोकलाये पूर्णतापामी जगतने पवित्रकरेले तेम आ ग्रंथपण सोलकलारूप सोलप्रकाशेकरी जगतनुंकव्याणकरोएवोमहारोआशीर्वाद६ इंज्ववाटतं ॥ यावज्जगत्येष सहस्रनानुः पीयूषनानुश्च सदोदये ते॥ तावत्सतामेतदपि प्रमोदं ज्योतिः स्फुरबाङ्मयमातनोतु॥॥ अर्थ ॥ जेकालपर्यंत जगतमां चंसूर्य नगे तिहांसुधी जेमांप्रकाशमान वा पी मयरूप ज्योतिने एहवो आ शास्त्र ते सत्पुरुषोने श्रानंद बापो ॥ ७ ॥ -- - इति श्रीमन्महोपाध्याय श्री कीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्याय श्री विनयविजयगणिविरचिते शांतसुधारसग्रंथे पोमशः प्रकाशोऽर्थस हितः समाप्तिमगमत. TRENER28828 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ अथ श्रीजिनप्रनसूरिकृतचतुर्विंशतिजिनस्तवनं ॥ पात्वादिदेवो दशकल्पवृदा यस्मादधीत्येहितदानविद्याम् ॥ अपपुजन् यच्चरणौ नखातिव्याजेन नूनं नवपन्नवैः स्वैः ॥ १ ॥ गत्या विजित्य दिरदं स्वसेवां चिन्ह बुलान्वश्वदचीकरद्यः ॥ यस्योदये हव्यनुजा नृणां वो बनूव नूमा नुवि सोऽजि तोऽव्यात् ॥ २ ।' सद्यः स निद्यानवसंनवं वः श्रीशंनवो यस्य पितुर्जितारेः ॥ रा जाधिराजत्वजुषोपि सेनापतित्वमेवानिमतं बतानूत् ॥ ३ ॥ जातोपि यः संवरतः स्वयं यदजीजनत् संवरमनुतं तत् ॥ स कीशकेतुर्जितमीनकेतुर्जितोऽनिनंद्यादनिनं दनो वः ॥ ४ ॥ सुननं मेघनवस्य यस्य मुक्ताफलस्येव न दर्शनं कैः ॥ चंशव दातं सुमतिं तमार्याः सर्वश्रियामाश्रयमाश्रयध्वं ॥ ५ ॥ न नेजिवान् वक्रगति क दाचित् नचातिचारं सततं च सौम्य ॥ पद्मप्रनः शोणतनुप्रनोपि नव्य श्रिये को पि धरांगजन्मा ॥ ६ ॥ पृथ्व्यां प्रसूतः सुमनोनिरर्त्यः सुपर्णकांतिर्बदुकव्युपास्यः ॥ श्रेयःफलश्रीर्जयताउदग्रस्कंधः सुपार्श्वगुरपास्ततापः ॥ ७ ॥ चंप्रनोऽव्यात् वपुरं गुजालैरालिंगितांगीजनता यदीयैः ॥ प्रसेननिर्वाणरमाविमुक्तकटादलदस्नपितेव नाति ॥ ७ ॥ नावाहवे पुष्पशरं विजित्य नश्यध्वजं यो मकरं गृहीत्वा ॥ आरोप यन्नापदे ध्रुवं स स्वनृत्यतां मे सुविधिर्विधेयात् ॥ ए॥ पित्रंगदाहप्रशमेन नाव दाहप्रमाथेपि खलु स्वशक्तिं ॥ अजिपर्नगतोपि विज्ञान् यस्तं स्तुमः शीतलमब शीलं ॥ १० ॥ श्रेयान् श्रिये दौहृदि मातृरुवात् गर्नस्थिते यत्र महार्हतल्पात् ॥ ऽयंतरीशक् प्रानाशमोहराजाय पूत्कर्तुमिवाहितोत्थः ॥ ११ ॥नव्यांगिनां यस्य रुचिप्रपंचैरंगानि चेतांसि च रंजितानि ॥ स वासुपूज्यो जगदेकपूज्यः संपूज्यतां नि र्जितउर्जयारिः ॥ ११ ॥ दमानरं धर्तुमशिदितांकडलेन सेवां प्रतिपद्य यस्मात् ॥ धत्ते ततस्तं स किलादिकोलः कांपिढ्यजन्मा विमलः स जीयात् ॥ १३ ॥ अनंत जिन्नंतुरनंतसौख्यप्रदोऽस्तु दोस्तंनितवैरिवारः ॥ यत्नांजनं श्येनमपि प्रदृश्य विश्व स्य नश्यंत्यथ वर्तिकौघाः ॥१४॥पापानिजमुदीक्ष्य दीप्रं यन्त्रणं नक्तिचिकीरु पेतः ॥ तद्वंशशंकी मुहुरालुलोके शक्रः स्वपाणिं स धिनोतु धर्मः॥१५॥ अरातिरम्ये | प्यनरातिरम्ये सन्नानियोगेऽपि दृढानियोगे॥ चक्रे स्थिता यस्य सुखं जयश्रीः स पातु वः पंचमचक्रवर्ती ॥ १६ ॥ बागं ध्वजं यस्य तनौ विलोक्य तत्प्रेमतो हव्यनुजा ध्रुवं यः ॥ सर्वांगमालिगिसुवर्णवर्णनाः सुपूरदंनात्स मुदेऽस्तु कुंथुः ॥१७॥ सुदर्शना Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ स्तोत्र. जात इति प्रसह्य दं व्यधाद्यस्तमसः खवृत्तेः ॥ पितुः क्रमं पालयितुं किलासौ स्तानः कलासौष्टवरुङिनोरः ॥ १७ ॥ यस्य प्रिया नो विहितारिलोपामुश नव द्यो न पपौ नदीनं ॥ निस्तारकात्मा नयमालयस्थो नव्यः श्रिये कुंजनवः स महिनः ॥ १५ ॥ यस्यांगरोचिःपटलं समंतात्प्रसत्वरं नंगकुलानिरामं ॥ उच्चाटनध्यानमि वास साक्षाजावदिषां नंदतु सुव्रतोऽसौ ॥ २० ॥ यलोचनस्पदिविधेर्विदित्वा स्वं सापराधं जगदेकनाथः ॥ यो लालक्ष्याबरणं श्रितो शक नीलोत्पलेनास्तु नमः स नूत्यै ॥ २१॥ यक्ष्क्रयोगात्सुनगं विदन् स्वं महाशयोत्पन्नतया कृतः ॥ यं के बुरझकिमिषात्सिषेवे तं नेमिमध्येमि यप्रकांडं ॥ २२ ॥ यद्देहदीप्तिं तुलितेंड्नील प्रनां चिरं चारुनिनालयंतः ॥ नैर्मल्यकोटिं घटयंति दृष्टेः शिष्टा अनिष्टं स पिनष्टु पार्श्वः ॥ २३ ॥ प्राच्यं विमोच्यास्पदमुद्भवात्प्राक् स्थानांतरे रोपितवान् हरियं ॥ प्राचीकसत्सगुणशालिनूयं यस्याघमस्यान्नमतां स वीरः ॥ २४ ॥ जयंति गर्नागम जन्मदीदा ज्ञानापवर्गोत्सववासराणि ॥ जैनानि नाकायितनूतलानि त्रैलोक्य लोकप्रमदप्रदानि ॥२५॥ यदाप्लवांनः शिरसाऽनिवंद्य सुमेरुराजनि गोत्रमुख्यः॥ तीर्थाधिनाथाः प्रथयंतु सेवाहेवा किनां ते कुपथप्रमाथं ॥ २६ ॥ कुवादिवत्राश्गुि हांतरान्न प्रयोगघकालिरलं निरेतुं ॥ यस्मिस्तपत्यस्ततमःसमूहे श्रीवीरसिमांतरविः स जीयात् ॥ २७ ॥ व्यामोहनूपालवरं विजित्य तस्मापातं तु सितातपत्रं ॥ य स्याः करे राजति पुंझरीकं सा नारती यवतु वांवितं वः ॥ २७ ॥ इति जिनप्रनसू रिनिरीडिता जिनवराश्चतुरुत्तरविंशतिः ॥ नरतवर्षनवा नुवनेश्वराः स्वरससिदिसु खं वितरंतु नः॥ २॥ ॥ इति श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ इति श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तवनं समाप्तम् ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. ॥ श्री वीतरागायनमः ॥ ॥ अथ श्री चास्तिक तथा नास्तिकनो संवाद प्रारंभः ॥ १ नास्तिकः:-या जगत ने तेमांना पदार्थो सर्व शून्यबे; एने ससलानां शींगडां, याकाशनां फूल तथा वांजणीना पुत्र वगैरे जे पदार्थोनी त्रणे कालमां सिद्ध ता यती नथी, तेवा पदार्थोनी उपमा देवाय कदाच तमे कहेशो के, जेम शशशृं गादिक देखतां नथी, तेम ए पदार्थो पण देखाया न जोइये, तेम तो नथी. जग ततो प्रत्यक्ष देखाय; तेने ए उपमा केम देवाय; प्रत्यक्ष प्रमाणवडे सिद्ध पदार्थ ने शून्य केम कहेवाय ? एनो उत्तर ए के, जे ए पदार्थोने देखे बे, ते चमिष्ट बे. जे पुरुषने म यो होय, तेने एकनुं बीजुं नाशे; तेम तमने पण थयुं कहेवा शे. तमे ए दृष्टांतोनो मर्म समजी शकता नथी, त्यारे तमारा ध्यानमां सहेज या वे एवो बीजो दृष्टांत कहुं हुं ते सांनलो; या जगत स्वप्नसमान बे. जेम स्वप्न अस बे, तेम जगत पण सत्य बे ने स्वप्नना पदार्थोनी पठे या जगतना पदार्थो पण सत्य बे. जे देखाय बे ते स्वप्ननी पठे भ्रम मात्र बे: एमां संशय नथी. प्रास्तिकः - अरे नास्तिक, हुं तने एटलुंज पुहुं हुं के तारा सिद्धांतनो कहेनार जीव 295 जीव, एनो उत्तर ताराथी शुं देवाशे ? जीव अथवा खजीव कह्याविना चाल शेज नही. जो तुं कहीश के ते चमरूप में, तो ते एक रीते व्यवहार दृष्टीए योग्य कवाशे खरं, केम के जे पोते चमरूप होय तेने बधुं चमरूप नाशे. जो एम हो य तो मारो कांई बांधो नथी; पण जो तारो सिद्धांती चमरूप ठरशे नही, तो जेवो ठरशे तेवा बीजा पदार्थो पण कबूल करवा पडशे अने कबूल कस्याविना चालनार नथी; केम के, बीजुं बधुं भ्रमरूप होय धने तारो सिद्धांतीज मात्र यत्रम होय एम संनवे नही. त्यारे एक सिद्धांती ने एक सिद्धांत ए वे पदार्थ मानवा जोइये बे. ए वे पदार्थ जो तुं माने तो जीव ने जीवपणुं सिद्ध थाय बे के नहीं ! एवी रीते जगतमां पण घटपटादिक जे वस्तु बे ते वस्तुज बे व्यवस्तु नथी. तेमज घटते घट बे, ने पट ते पट बे. घट पट नथी, ने पट घट नयी. एक पदार्थमां बीजा पदार्थनो नाव होय बे, पण घट घटपणे नावरूपें बे; ने पट पटपणे ना रूपें . इत्यादिक सर्व पदार्थो विषे जाली जेवुं. जे नावरूप होय ते सत्यज होय बे. ए रीतें या जगत नावरूप होवाथी सत्य बे. केम के सर्व वस्तु पोतपोताना रू २३ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ आस्तिक नास्तिक संवाद. |पें अनादि सिह , अने जेनो अंत नथी तेने शशलाना शिंगडां प्रमुखनी उपमा देवी ए केवी मूर्खता जे वारु ! माटे ए बोलवू बालकना जेवू कहेवाय. - जो स्वप्नजेवं जगत मानशो, तो तमारा पोताने महोडे पोते बंधाशो. स्वप्न जे ले ते स्वप्नपणे नावरूप अनेजाग्रतपणेअनावरूपडे;तेमजागृत जे जे ते जागृतपणे नावरूप अने स्वप्नपणे अनावरूपडे; पण केवल अनावरूपें कोई पदार्थ कहेवाय नही. ज्यारे स्वप्ननावरूप डे त्यारे तेना जेवो जे जगत तमे कहोडो ते केम अनावरूप कहेवाय, अने स्वप्नने जो अनावरूप कहेशो तो देखाय ले केम? जे अनावरूप ते तो दे रखाय नहीं; अने स्वप्न तो रात्रे दीतुं ते रात्रे दीतुंकहेवायजे.अने दिवसें दीतुं ते दीवसें दी तुं कहेवाय: माटे जे वरखते स्वप्न देखाय ते वरखते ते देखावारूपे अने संप्राप्तरूपेंस त्य ले. अने जागृत असत्य बे. तेमज ज्यारे जागृत देखाय ने त्यारे स्वप्न असत्यने एम नावानावरूप पदार्थ होय ते साद्यंत होय . वली विशेष एवं समजवू जो ये डे के, यद्यपि स्वप्न तो साद्यंत जे पण स्वप्ननो जे विकल्प डे ते श्राद्यंतरहित शा श्वत ले. तेमांथी कोईक समये स्वप्न ननव थाय . माटे स्वप्ननुं देखq कोई काले डे तेमज यद्यपि जगतमांना पदार्थोने पलटवापणे नत्पाद व्ययनी अपेक्षायें पर्यायप णे साद्यंत जे. तथापि व्यरूपे सदा शाश्वत ध्रुव जे. केमके पर्यायपणे धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव अने पुजल ए बए इव्य शाश्वत : जो पण बेला त्रण व्यना पर्याय अशाश्वत कहेवाय , तो पण स्वरूपें इव्यपर्याय सदा शाश्वतज डे; तेने असत्य केम कहेवाय ? अरे भ्रमिष्ट, तमे जीवने मानो बो के नही? जो ना कहेशो तोआ बोले लेते कोण ? अने जगत असत्य कोण तेरावे ? जे पोतेज असत्य होय ते बीजाने गुं सत्यासत्य कहेवानोने ? जे पोतेसत्य होय ते बीजाने सत्य अथवा असत्य कहेवाने समर्थ याय. माटे जीव पदार्थ नथीज एम जो कहेशो तो तमे पोतेज काईक पदार्थ जो ए वात तमाराथी ना कहेवाशे नही. अने जगतने असत्य मानो बो तेवारे तमें पोते तो सत्य उरशोज; केमके जे पोताथी अतिरिक्त वस्तुने असत्य माने ते पोते ते ना जेवो असत्य होतो नथी, किंतु तेनाकरतां विपरीत स्वनाववालो सत्य होय. ते नो पा प्रत्यद दाखलो डे के, जगतने तमे स्वप्नजे गणोबो, त्यारे तमे पोते जागृत बो के नही ? केमके तमे पोते जागृत अवस्थामां न हो तो स्वप्नने स्वप्न कहो नही स्वप्नावस्थानो तमे पोते अनुनव करेलो , त्यारेज तेनाविषे कथन करी शको बो, ते Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. १७ मज जगतविषे पण तमे अनुनव करीने कथन करो बो, तेथकी जगतथी जुदा थ नुनव कर्ता बो माटे जीव बो. अने जो जीवन होय तो गतागतनाग, नाव, जापा, कार्य तथा कारण इत्यादिक विषयोनो अनुनय करवो, पांच इंडियोनो निग्रह करवो, त्रणयोगे शरीरनी चाल ना करवी इत्यादिक चेष्टा करनारो कोण ? ए चेष्टा चैतन्य शक्तिथी थाय ने एथी चेतना लक्षणवान जीव जाणवो. ज्यारे शरीरमांथी चेतना नीकली जाय जे त्यारे चेष्टा थती दीठामा श्रावती नथी; माटे ते अजीव कहिये. एवी रीते जीव अने अजीव ए बन्ने पदार्थ डे एम सिह थाय ले. सर्व वस्तुना बे प्रकार थाय , एक पक्ष्यने बीजो प्रतिपक्ष्य. जीव पदी अने अजीव प्रतिपदी अथवा अजीव पदी ने जीव प्रतिपक्षी ले. अर्थात् जीव तथा अजीव ए बे पदार्थो सदा शाश्वत अविनाशी , एवं केवलीनुं वचन , ते अवश्य मान्य करवू जोये. दोहा, खरी शीख ए मानजो, मनमा राखी नाव; सदहाण जिन वचन, करो धरी चित चाव. १ २ नास्तिकः- जीव अने अजीव नही मननारा मूर्ख ले. केमके, जीव तो पांच महानूतोना संमेलनथी नत्पन्न थाय ले. ज्यारे पांच माहानूतोनुं प्रथककरण एटले जुउँथवापणुं थाय ले. त्यारे जीवनो नाश थाय ने ए वात साची जे. आस्तिकः- पांच महानतोथी तो तमारा मतप्रमाणे पांच जुदाजुदा पदार्थोनी उत्पत्ति थाय बे. ते याप्रमाणेः- पृथ्वीथी अस्थि, जलयको रुधिर, अमिथकी जन राग्नि, वायुथकी श्वासोश्वास अने आकाशथको शून्यता थाय बे. ए बधाथी जीव तो जुदो जे, ते शाथकी नुत्पन्न थायो वारु ? चैतन्यने नत्पन्न करवानी शक्ति कया नूतमां ? चैतन्य कयानूतना अंसथकी नत्पन्न थयुं ? ते कहो. पांचे महा जूत पोते जड : ते चैतन्यने केम करी शकशे ? माटे ए पांच महानूतनुं समेल न जीवनी नत्पत्ति करे जे एम तमे कह्यु डे ते पण संनवे नही; केमके, संमेलन कोई एवो पदार्थ नथी के जेथी कोई पदार्थ उत्पन्न थई शके. माटे जीवनो नत्पन्न करनारो कोई नथी, पण ए तो अनादि पंच महाभूतथकी जुदोजले. दोहा,जिनवच नामृत पान करि, पामो अमर स्वरूप; जीव अनादी अनुनवो, ए डे शीख अनूप.२ ३ नास्तिकः- सर्व जाणे वे के जीव ते शाश्वत पदार्थ ले, तेनी मुत्पत्ति केम संनवे ! ज्यारे उत्पत्ति कहेशो त्यारे नाश पण थशे. अने चेतन तो नत्पत्ति. त Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. था नारा रहित बे; तो चेतनलक्षणवंत जीवने नूतथी उपनो कहिये ते युक्त नथी केमके पांच महानूतना अंसथी तो मात्र शरीरनी उत्पत्ति थाय बे. प्रास्तिक:- ए वात पण कल्पित बे. यद्यपि जीवविषे तो तारा सारा विचार ज बे, तथापि जहांधी जिनोक्त वचनजन्य ज्ञान नथी ययुं, तहांशुधी सर्व मि ra. एक जीवने शाश्वत जाल्यो तेथी गुं ययुं ! कोई जाना मुखयकी नव कार प्रमुख जेवा तादृश्य अहरोनो अचानक उच्चार थाय तेथी गुंतेने तेना फ aal प्राप्ति थाय बे! तेम तें जीवने शाश्वत जाएयो तेथी शुं सम्यक्त ज्ञानवान क देवा ! कदी नही. ने शरीर पंच महाभूतो की उत्पन्न याय बे; एवं जे तें युं ते सत्य बे. शरीरनी उत्पत्ति तो पुलथकी थाय बे. बीजा संवादमां प्रस्थया दिकनी उत्पत्ति महानूतथी कही ने ते पण मिय्यावे; केमके, अस्थि जे बे ते पृथ्वी नो अंश नयी, पण पृथ्वीना जेवा कठण वे: रुधीर बे तेजलनो अंस नथी, पण जल न पठे प्रवाही बिंधारा याय बे; जठराग्नि जे बे ते अग्निनो अंश नथी, पण अग्नीनीप ठे हम बे, शांखोश्वास जे बे ते वायुनो अंश नथी, पण वायुनी पठे पुरुषनो विका र; आकाश ते आकाश नाजन बे. तेम बतां शरीर पंचमहाभूतो की उत्पन्न या बे एम कहेशो तो ए पंचमहाभूतोमांना पृथ्वी, अप, तेज ने वायु ए नां शरीर शाथक उत्पन्न याय ले ? ए पृथ्व्यादिकपण जीवरूप बे: अने तेस्रो शरीर सहित बे. जेम काची माटी सजीवन ले माटेज तेमां वनस्पति उगे बे; यने जे कार नूनि जीव बे तेमां वनस्पति उत्पन्न यती नथी. तेमज ए पंच महानूत ते सर्व सजीव तथा निर्जीव ए बन्ने रूपें बे, माटे जो जगत उपजवानां कारण ए पांच महानूतने कहेशो तो पांचमहाभूत शाथ की पेदा थया कहेशो ? माटे एनाथी शरीर अथवा जगतनी उत्पत्ति संनवे नही. जीव ने जड ए बन्ने पदार्थोथी जग तनी प्रवर्त्ति ने एम जाणवुं. दोहा, यागम अगम अगाधकृत, ज्ञान लह्यो नर जे ह; बेशि वचन जिनकल्पतरु, जहे चाह फल तेह. ३ ४ नास्तिकः -- जीव तो ईश्वरना अंशथकी उत्पन्न यायले एम जणाय बे. प्रास्तिक:-- जो ईश्वरमा अंशथकी जीव थाय बे तो ईश्वर पोते खखं रूप बे ते घटघटप्रते खंडखंड नावने पामशे. ईश्वर निर्लेप ने तो कर्मलेप सहित केमथाय बे? जन्मरोग जरारोग खने मरणरोग रहित बे ते जन्मादिक सहित केमथाय बे ? नि रावर ते सावरण केम थाय बे ? एहवो मूढतो जगतमां कोई नथी जे प्रधानपद मूकी अधमपद यादरे ! माटे परमेश्वरने एवी बुद्धि केम थई जे परमेश्वरपद मूकी १८० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. १८१ ने जगत वाशी जीव थयो. केमके सर्व मतमतांतर वाला परमपदनी वांडनाये पो तपोताना मार्गनी क्रिया करे बे. पोताना ग्रात्माने निर्लेपपणुं चाहे वे तो स्वमेव ईश्वरपद जन्म जरा मरण रहितपणुं पामीने वली जन्ममरण सहित उपाधिपं मादरे बे ? माटे ए तमारा वचन विरुद्ध जणाय बे. ५ नास्तिक:-- कांई नवी युक्ति कहाडीने बोले ते. या बीजायोनी मति तो मारी मग ते के बे. जीवने कोई शाश्वत कहे बे, ने कोई अशाश्वत कहे बे. वगैरे जेना मनमां जेम यावे बे ते तेम महोडेथी बोले बे. पण मर्म कोई जाए तो नयी यापणे प्रत्यक्ष अनुभव करेलुं बे ने यांखे देखीए बैए के जीव पदार्थ उत्प त्तिवान बे, ने कोईक समये तेनो अंत पण थाय बे. स्त्रीपुरुषनो संयोग थयाथी ते खोना रज तथा वीर्यथी माताना उदरनेविषे शरीररूप एक पिंम बंधाय बे, ने पी नियमित समये तेमां चेतना शक्ति खावे बे, तेने जीव कहे बे. वली शरीर कांई रो गादिकने वश मरण पामे बे, त्यारे जीव पण तेनी शाथे नाश थाय बे, ए प्रत्यक्ष ara a. हाथना कांकणने खारीचं शासारु जोये. माटे जीव पदार्थ कोईकानें न वो पेदा थाय बे, तेथीजीवनी यादि बे एम जलाय बे वास्तिक :- नाई, तुं तो वली बधाथी दाह्यो देखाय बे ! चेतननी उत्पत्ति तथा नाश संजवे नही. कर्मना वशे जीवने जन्मांतर थाय बे, तेथी नवुं शरीर धारण करे बे; पण जीव नवुं यतुं नथी. वली शरीरनो नाश थयाथी जीवनो नाश प यतो नथी. जीव तो बीजा शरीरने धारण करे बे. तेम बतां जो वधारे याग्रह करी श, तो या मारा प्रश्ननो उत्तर खाप के, जीव कई वस्तु पलटीने तेमांथी उत्पन्न था ? अथवा कई वस्तुनो परिणाम बे ? केमके कारण विना कार्यनी उत्पत्ति थाय नही वो नियम बे; एटनुं समजाव्या बतां पण जो नही मानीश, तो तुं पोते जीव नयी पण जड हो एवं वरशे. त्यारे जडनी साथे कोण माथाकूट करे ! ६ नास्तिकः - कदाच जड वस्तुनो परिणाम जीव ने जीवनो परिणाम जड यावे, एम कहीए तो कांई दोष यावे के ? घटितघटनापटीयशी माया बे, ते Hing in a माटे मे तो एम मानीए बैए के, जड वस्तु बदलीने तेथी जी वनी उत्पत्ति था . आस्तिकः - नाई, ए तमारुं बोलवं केवल अविचारनुं बे, एम तो कोई अज्ञानी प माननार नथी जे जड वस्तुथी जीवनी उत्पत्ति थाय; एक स्वनाववाला पदार्थ थी बीजा स्वनाववाला पदार्थोनी उत्पत्ति थाय नहीं एवो नियम बे. जेम के, मा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आस्तिक नास्तिक संवाद. टीना मिथकी पट थाय नही अने तंतुना पुंजयकी घट थाय नही. तेम अजीवथी जीव नत्पन्न थाय नही अने जीवथी अजीव उत्पन्न थाय नही. जे अचेतन होय तेने जड कहे जे अने जे चेतन होय तेने जीव कहे . ए बन्ने पदार्थ परस्पर स्वनावे अमिलित , तेम बतां जड वस्तुथकी जीवनी नत्पत्ति कहेवी, एना जेवी बीजी मूर्ख ता कई ! गुं कोईक एवो मसालो हशे के जो ते जड वस्तुमां पडे तो तेमाथी चेतन पेदा थाय ? एवी कांई चीज तमे शोधी कहाडी होय तो थमने देखमावो नी ! माटे ए अज्ञानरूप अंधारूं हृदयमांथी कहाडी नारखो, ने शुक्ष धर्मने अंगीकार करो. दोहा शुः धर्म जन जे लहे, ते पामे पद मोद:प्रगट वस्तुने मूकिने,कां जन ज्रमे परोक्ष नास्तिकः- स्वबंदीना जेवी मुखमुझ करीने बोलवा लाग्यो के, जीवने कर्म लागे डे के नही ? ए विषे विचार करवो जोइये. अमारा मतप्रमाणे जी वने कर्म लागतां नथी. __ आस्तिकः- तमे तो वली बधाना शिरताज थया जणाथो बो! पण कर्मविना काई बनतुंज नथी; एम मान्याविना चालशे नही. कर्मने तो सर्व अंगीकार करे बे,एमां कोई वांधो कहाडे एवं नथी. जो कमें न होय तो पापपुण्यनु फल थर्बु न जोश्ये: ते तो प्रत्यद दीगमां श्रावे : जेणे पाप कयुं ते फुःखी , ने जेणे पुण्य का ले ते सुरवी; वली जो एम होय तो, दान, ध्यान, स्नान त था पूजा प्रमुख जे सत्कर्म बे, ते सर्व मतवालाथो शासारु करे ? तमारा क ह्याप्रमाणे तेनुं फल तो कांई थनार नथी; पण ते शुन कमें जाएगीने लोको था दरे जे. ज्यारे कर्म नथी त्यारे जन्म धारण करवानुं हुं प्रयोजन ? माटे जोज न्ममरण तथा सुखरप , तो कर्म पण होवां जोश्ये. कर्म ले ते जीवने रज रूप ले. रागादिकथी बंधाय ने, ने जोगव्यापली बूटे जे. जहांलगि कर्म ने तहांल गि संसारी जीव कहेवाय ने, कर्मोनो क्ष्य थवाथी मुक्त थयो कहेवाय जे. माटे तमारे निश्चय मान जोश्ये ले के जीवने अवश्य कर्म लागे . दोहा, कर्मथकीआ जीवने, सुख दुःख सघलां थाय ; कृत्य शुनागुन जेहथी, शफल थया कहेवाय. नास्तिकः--तमे कहो बो के, जीव नवांतर थकी आवीने थाहिं नपजे . त्यारे एक नवनी वात बीजा नवमां केम करतो नथी ? जो नवांतर होय तो ते नीस्मृति जरूर थवी जोश्ये; ते तो कोईने पण यती नथी. त्यारे नवांतर जे एम शानपरथी समजाय? थास्तिकः-धागला नवनी स्मृति थती नथी ते उपरथी नवांतरनो धनाव ले ए Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. २७३ म जाणवू नही. बागला नवनी वात तो रही, पण या नवमांज मद्यादिक पदा र्थना योगे, गया दिवसनी वात पूबवाथी माणस बराबर कही शकतो नथी जु ओ के, कोई मनुष्य ताडनादिकना योगे मूर्जावान थयो होय, कोई पुरुषे सुरापान कडे होय, अथवा निावश थयो होय, त्यारे गया दिवसनी स्मृति रहेती नथी; तेनुं कारण मद्यादिक पदार्थोनुं आवरण ले तेम जीवने ज्ञानावरणी कर्मना उदयथी पूर्व नवना वातनी स्मति थती नथी. वली जेम था नवमांज माताना न दरमां नाना प्रकारना कुःख सहन करेला होय, ते वात जन्म्यापली कांई कही शक तो नथी: तो नवांतरनी वात केम कही शके ? माटे नवांतरनी वात तो विशेष ज्ञा नीविना बीजो कोई जाणी शकेज नही, एम समजवु. दोहा, झानावरणी कर्मथीन वविस्मृति थइ जाय: विशेष ज्ञानी कहि शके, पूर्व जन्म महिमाय ६ ___ए नास्तिकः-अनिमानयुक्त मुज्ञ करीने बोले बे-तमे एम मानो बो, के जीवने कर्मनो लेप लागे .ने वली एम पण कहो बो के, जीव वास्तविक स्वरूपे गुम . त्यारे जे गुम होय तेने लेप केम लागे? माटे जीव गुज डेतेने कोई कर्मनो लेप लागतो नयी एम मानवं जोश्ये. वास्तिकः-ट्रंकामांज समाधान करने के, यद्यपि जीवन वास्तविक स्वरूप गुच बे, तथापि युनायुन कर्मने योगे तेने लेप लागे जे; तेथीज जीव बंध कहेवाय डे अने जेने कर्मनो लेप नथी, ते मुक्त कहेवाय जे. मुक्ति तो सिमता पाम्याविना संन वेनही अने जहांसुधी मुक्तिनो अनाव डे, तहांसुधी बंधनी कल्पना अवश्य कर वी जोश्ये. ते बंध जीवने अनादि कालथी चाल्यो आवे जे. जेम धानने तूस ला गेलाज होय बे तेम जीवने कर्म अने कर्मजन्य शरीर लागेलुंज होय . जेम धा नने तूस लागवानुं कारण बोतरां होय . तेम जीवने कर्मबंध जागवान का रण मिथ्यात्व तथा रागवेषादिक होय जे. जेम धान्यमांथी तूस तथा तत्संबंधी बो तरांरूप बंध हेतु पदार्थना अनावथी शुरू करा देखाय : तेम जीवमांथी मि थ्यात्व तथा राग देषादिक कर्मबंध हेतुनो अनाव थयाथी शुक्ष निर्मल थाय बे. जेम अनाजनो शुद्ध थयनुं दाणुं उगे नही. तेम जीवपण शुक्ष निर्मल थया यो जन्ममरण पामे नही. दोहा, कर्म लेपना योगथी, बंध जीवने होय; कर्म खपे मुक्ती लहे, जन्म मरण नहि कोय. ७ १० नास्तिकः-संमा विचारमा पडेला जेवी मुशथी बोलवा लागे ने.कर्म पोते तो जड पदार्थ जे. तेश्रोनो जीवनी साथे स्वतंत्र संबंध संनवे नही. कोई पण प्रेरक होवो | . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आस्तिक नास्तिक संवाद. जोये. माटे ईश्वरेबाथी जीवने कर्म बंध थाय जे; अने तेज प्रेरक वे एम जाणवू. आस्तिकः-लगारेक हास्य करीने बोले . ईश्वरे पोताना अंशरूप जीवने उत्पन्न कस्या के तेथी जीव ईश्वरनो अंश कहेवाय, ए उपरथी जीव तथा ईश्वरनो अंशांशीनाव संबंध तमारा कहेवा प्रमाणे ठरे ले. जो ईश्वर अंश जे एम मानीए,तो ईश्वरना जेवो जीव होवो जोये. केमके, अंशांअंशीमां नेद होतो नथी. तेथी ईश्वर नी पते जीव पण निर्मल ने, एम मानवं जोये. त्यारे एवा निर्मलस्वरूपी जीवने कर्म लगाडीने मलसहित करवानुं कारण झुंहतु! आपणे कोई शुभ वस्तु वाप रवाने अर्थे ज्यारे लावीए बैये, त्यारे जहांसुधी बने तहांसुधी तेने मलीन करवा देता नथी; अने स्वन्त राखवानो घणो प्रयत्न कस्या करीये बे. त्यारे पोताना अंश रूप जीवने जाणी जोईने मेल लगाडवू ए ईश्वरनेविषे संनवे नही. एम तो कोई साधारण मूर्ख मनुष्य पण करे नही, त्यारे ईश्वर ते तेम करे! अने जे पोता ना अंगनो तिरस्कार अथवा नाश करे ते आत्मघाती कहेवाय. तेम ईश्वरपण आत्मघाती कहेवाशे. कदाच तमे एम कहेशो के, ईश्वर पोते पण कर्मकलंकसहित ने त्यारे जे पोते कलंकसहित होय, ते बीजानो कलंक झुं मटाडी शकवानो हतो! अने ते ईश्वर पण शानो! माटे गमे तेवी मनकल्पना करीने निर्दोषी ईश्वरने दोष लागु करवो ए केटली मूर्खता ! माटे ईश्वरनी साथी कांई पण थतुं नथी. जे थाय ने ते कर्मयी थाय ने एम जाणवू. दोहा, कर्मबंध था जीवने, ईश्वर इबारूप; कहे एम ते मूर्ख , ईश अकीय अनूप. G ११ नास्तिकः-या जगतनी जे अभुत रचना देखाय , तेनो कर्ता कोई पण होवो जोये. केमके, एवी कति स्वानाविक थई शके नही. तेम कर्मादिक जड पदार्थोथी | पण जगतनी नुत्पत्ति संनवे नही. माटे जे जगतने नत्पन्न करे , तेनेज ईश्वर कहिये; अने एवी लोकवदंता पण बे, के जगत सर्व ईश्वर कृत्य . अस्तिकः-- जगतनो कर्ता ईश्वर होय, तो सर्व प्राणीमात्रनुं ईश्वर कारण थ यु. ने सर्व पदार्थो ईश्वरना कार्य थया. पिता जेम पुत्रनी उत्पत्ति करे ले तेमई श्वर सर्व प्राणी मात्रनी उत्पत्ति करे ले. त्यारे ईश्वर पितारूप अने सर्व पदार्थो पुत्ररूप मानवा जोये. पुत्रनी उपर पितानो प्यार होय ए स्वानाविक सि . तेम ईश्वर नो पण सर्वनी नपर प्यार होवो जोये. जो एम होय तो सर्व प्राणीमात्र सुखी होवा जोये. तेम तो दीवामां आवतुं नथी.कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई पापी, कोई पुण्यवान, कोई नरकगामी, तथा कोई स्वर्गगामी वगैरे सर्व जीवो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. १७५ नी वर्तणुक जुदी जुदी दीवामां आवे जे. एम केम कीजे ? वली जगतना जी वोने प्रवत्तविनारो ईश्वर , एम पण तमारा कह्या नपरथीज सिह थाय ने. त्यारे हिंषुए गायनी पूजा करवी, अने म्लेले तेनो वध करवो, ए बुद्धि पण ईश्वरे या पी कहेवाशे. जो एवी बुद्धि देनारो ईश्वर मानशो नही, तो बीजो कोई मानवो जोशे. केमके तमारा मत प्रमाणे प्रेरणा करनारो कोई जुदोज होय जे: अने जे प्रेरणा करे ले ते ईश्वर . त्यारे ते बीजो प्रेरणा करनारो ईश्वर मानवो पडशे. ईवी रीते ईश्वरनो ईश्वर तेनो ईश्वर इत्यादिक मानशो तो अनवस्था दोष प्राप्त थ शे. वली पोते पोताने फुःखी कोई पण करतो नथी. सर्व पोताने सुरखनी चाहना करे जे. तेमज पोताना संबंधीयोविषे पण सुखनी चाहना करे . तमारा केहेवा प्रमाणे तो जे जीव नरके जाय रे तेपण ईश्वरनो अंश, अने जे स्वर्गे जाय ते पण ईश्वर नोज अंश जे. एटले सुखी तथा छु:खी थाय ते सर्व ईश्वर पोतेज बे एम तयुं. ए प्रमाणे ईश्वर पोतेज संसारमा परिन्रमण करे. ते पोताना सेवकनां जन्म मरणादिक दुःख केम टाली शके! अने जीवोने नरकथी अथवा बीजी कुगतिथी केम बचावी शके ? इत्यादिक विचार करतां जगतनो कर्ता ईश्वर नथी; किंतु स्वानाविक सिहले. दोहा, ज |ग कर्ता ईश्वर कहे, ते विधान न होय; ईश्वरने कर्तव्यनहि, स्वनाव सिहज जोय. ।। १२ नास्तिकः- जगतनी नत्पत्तिकर्ता नले ईश्वर न होय, एमां दुं कशी वांधी लेतो नथी. पण ईश्वर सर्वव्यापक डे के नहीं ? आस्तिकः- जो ईश्वर सर्वव्यापक होय, तो जीव शिवाय बीजो कोई पदार्थ ज होवो न जोये. केमके, ईश्वरतो चेतनवंत जे; ते सर्वमा व्यापक होय, तो चेतना विना कोई जगा खाली न जोश्ये, के जे ठेकाणे बीजो पदार्थ रही शके; अने जगतमां तो जीव अजीव पदार्थो जुदा जुदा दोगामां आवे . एथी स्पष्ट सिह थाय के ईश्वर सर्व व्यापक नथी. वली ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा यूप, ए चार वर्ण अनुक्रमे श्रेष्ठता तथा कनिष्टता केम पाम्या जे! जेम के,ब्राह्मण सर्वथी श्रेष्ट, तेनाथी दत्रिय कनिष्ट, दत्रियथी वैश्य, अने वैश्यथी शूझ कनिष्ट ने, अने सर्वथी कनिष्ट चंमालादिक जाति ; तेश्रोमा श्रेष्ट कनिष्टता न थवी जोश्ये. के मके, ईश्वर तो सर्वमा एक अने समान बे; तेमां नत्तम मध्यमता प्रमुख संजवे नही: अने उत्तम मध्यम तो प्रत्यद दीठामां आवे . वली बीजा पण उदाहर ण अनेक ; जेम के, कोई पुरुष गुन कृत्य करे डे, ने कोई पुरुष अगुजकत्य क रे ,एम न थर्बु जोश्ये. ईश्वर तो बधामा व्यापक जे. तेथी गुनागुन कृत्य शासा २४ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद.. रु करे ? ए नपरथी एवो निश्चय थाय ने के, ईश्वर सर्व व्यापक नथी. दोहा, व्याप क ईश्वर जे कहे, तेह न जाणे मर्म; जर्मे जूट्या सर्व मत, विना एक जिनधर्म.१० १३ नास्तिक:- ईश्वर सर्व व्यापक हो के न हो, तेनी साथे अमारे जरूर नथी: पण आ जगतनो अधिपति ईश्वर अने जगतरूप तेनुं ऐश्वर्य : तेथीज ईश्व रताने पाम्यो बे. जे श्वर्यवालो होय तेने ईश्वर कहिये. आस्तिकः- जगतनुं बाधिपत्य लेवानुं ईश्वरने शुं कारण हतुं ! अने जगत रूप जैश्वर्य पण तेने शासारु जोतुं हतुं ! झुं जगतनी उत्पत्तिनी पूर्वे ते औश्वर्य ने पाम्यो न हतो! ऐश्वर्यविना ईश्वरता संनवे नही. ए नपरथी जे जगतनी उत्प तिनी प्रर्वे अनीश्वर हतो. ते उत्पत्ति करीने ईश्वरताने पाम्यो : एवो तमारो आशय जणाय ने नही वारु ! पण ए बधुं खोटुंबे. ईश्वरनेविषे एवी कल्पना करवीज नही जोये. जुत्रो के, तमारा कहेवा प्रमाणेज जेम प्रजानी अपेदाये राजा कहेवाय जे, अथवा धननी अपेदाये धनाढ्य कहेवाय बे: तेम जगतनी अपेदाये ईश्वर कहेवाय जे. एटले जेवारे जगतने नपजावे तेवारे जगतनुं ईश्वर पणुं कहिये; एथी जगतनी पूर्वे ईश्वर न हतो एम थडे: अने जेवारे जगतनो प्रलय थाय त्यारे ईश्वरनो पण अनाव थई जवो जोये. जो ए वात कबूल करशो तो जे कोई कालमां होय ने कोई कालमा न होय ते क्षणिक कहेवाशे. जो क्षणिक मानशो तो बीजा घणा दोष प्राप्त थशे; माटे ईश्वरने जगतनो एवी रीते अधिपति कहेवो ते योग्य नथी. दोहा, अधिपति जगनो जे कहे, ईश्वरने मतवादि ; ते एकांत कनिष्ट ने, नत्तम अनेक वादि. ११ १४ नास्तिकः- आटला संवाद थया, तेश्रोमां ईश्वरर्नु यथार्थ कारणपणुं कोइए कह्यु नथी. जगतनी उत्पत्तिनी पूर्वे ईश्वरने एवो संकल्प थयो के, माझं सामर्थ्य प्रगट करूं; ए वात वेदमां कही जे. ते आवी रीतेः- 'एकोहं बदुष्यामि' एटले एक ढुं बहु रूपे थानंएवा कारणथी जगतनी उत्पत्ति करी जे; तेथी ईश्व रने कारण कह्यो . आस्तिकः-- पोतार्नु सामर्थ्य प्रगट करवानी इला तो तेने थाय के, जेनेविषे अज्ञान होय. ईश्वरतो सर्वज्ञ ले, ते गुं पोतानुं सामर्थ्य जाणतो नहोतो! मा रामां केटलुं सामर्थ्य , एवो जेने संशय होय, ते ईश्वर शानो! साधारण मनु | ष्य प्राणी पण पोतानु सामथ्र्य जाएग। शके ले, तो ईश्वर केम न जागी शके ! Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. រ ៥១ माटे एम कहे ते मूर्खता बेः दोहा, निज समर्थने जाणवा, कयुं ईश जग एह; कारण वादी जे कहे, शतमूरख ले तेहः १२ १५ नास्तिकः-- ईश्वरे पोतानुं सामर्थ्य बताववा सारु जगतनी उत्पत्ति करी ने एम जाणवू जोश्ये. आस्तिकः-- कोने बताववा सारु जगतनी उत्पत्ति करी? जीव अने जड प पार्थो तो ईश्वरेज उत्पन्न कस्या दे, एम तमे कहो डो. त्यारे बीजो कोण जगतनी प्रर्वे हतो के, जेने देखाडवा सारु ईश्वरे या जगतनी उत्पत्ति कर ले ! माटे ए वात पण असत्य ले. दोहा, बीजाने देखाडवा, पोतानुं सामर्थ्य; जग उपजा व्यु ईश्वरे, एम कहे ते व्यर्थ. १३ १६ नास्तिकः--जेम माणस सवारमा ती वस्त्रादिक पहेरीने प्रारीसामां पोतानु स्वरूप देखे जे; ते सारूं देखाय तो आनंदित थाय , तेम ईश्वर पण पोते पोतार्नु स्वरूप जोवासारु या जगतरूप शृंगार करी पोता रूप विस्तारीने देखे ; एम जाणवू जोश्ये. आस्तिकः-माणस पोतानुं रूप आरीसामा जुवे , तेनुं कारण ए के, मारु रूप सारुं देखाशे नही, तो लोको हाशी करशे: अथवा कोई खोड काहाडशे: तेम ईश्वरे बीजा कोना नययी पोताना रूपनो विस्तार कस्यो ? ईश्वरना जेवो बीजो ईश्वर कोई नही; त्यारे जोनारो कोण! माटे ए वात पण जूठी ले. दोहा, पोते जोवा आपने, रच्यो जगत आ ईश; कोना जयथी ते कहो, मतवादी तजि रोश. १५ १७ नास्तिकः-- "एक एव हि नूतात्मा, नूते नूते व्यवस्थितः: एकधा बदुधा चेव, दृश्यंते जल चंवत्" एवीरीते अात्मा एक बतां सर्व प्राणीमात्रमा जुदो जुदो दी वामां यावे : जेम चंमा एक बतां अनेक जलस्थानकोमा प्रतिबिंब रूपे जुदो जुदो दीवामां आवे जे: तेम ईश्वर एकज ने पण घट घटमां जुदो जुदो देखाय के एटले ईश्वर बिंबले ने सर्व जीव प्रतिबिंब : एम जाणवू. __ आस्तिकः-- जेम एक चश्माना अनेक प्रतिबिंबो दोय जे, ते जेवो चश्मा होय तेवा देखाय . तथा काचना नुवनमां एक मनुष्य बतां अनेक प्रतिबिंब रूपे दीवामां आवे . तेमां मूल आकृतिथी जुदी आरुति देखाती नथी. जेमके, बीजथी ते पूर्णिमासुधी गमे तेवी चश्मानी आकति होय, तेवो प्रतिबिंब देखाय ; तथा काच नुवनमां मनुष्यनी जेवी पारुति होय तेवीज तादृश्य दे खाय ले. काणो होय तो काणो देखाय, आंधलो होय तो अांधलो देखाय; वगैरे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आस्तिक नास्तिक संवाद. बिंबना जेवोज प्रतिबिंब देखाय ले. तेम ईश्वर सर्व प्राणीयोमां सरखो देखातो नथी. कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई पापी, कोई पुण्यवान वगैरे अनेक प्रकारे दे खाय ले. त्यारे ईश्वरना प्रतिबिंब केम संनवे ? जे प्रतिबिंब होय, ते बिंबना जेवोज होय जे ? तेम तो ए नथी. वली जेम चंमानो उदय थतां प्रतिबिंब पण तेज व खते नत्पन्न थाय बे. अने चंमां अस्त थयाथी प्रतिबिंब पण मटी जाय जे. तेम ईश्वर अने जीवोनेविष यतुं नथी. ईश्वर उत्पत्ति नाश रहित बे; तेम जीव पण होवा जोये. ईश्वर जेम अक्रिय ले, तेम जीव पण कर्मविना होवा जोये. जेवो बिंब तेवा प्रतिबिंब होवा जोये. तेम तो ईश्वर अने जीव नथी; माटे चंबिंब नो दृष्टांत सर्वथा असत्य : केमके सर्व जीव पोताना कर्मोदयथी उत्तम मध्यम पणुं पामेडे. दोहा, बिंब अने प्रतिबिंबता, ईश्वर जीव प्रमान; चंद बिंबवत ए नही, तेथी सत्य न जान. १५ १७ नास्तिकः- जीव वर्णादिके करी सहित ; एम मान जोये. आस्तिकः- जीव वर्णादिके करी रहित , अने चेतन लक्षणवंत जे; अने कालु, रातुं, नीलु, पीलु, तथा धोलू ए पांच वर्ण; सुगंधि तथा जुर्गध ए बे गंध; तीर, क डवं, कशायचं, खाटूं तथा मीतुं ए पांच रस; शीत, नुन, निग्ध, लूवं, करकश, मृङ, गुरु, तथा लघु ए आठ फरस; अने परिमंगल, व्रत, त्रयांश, चनरंस तथा आयतन ए संस्थान प्रमुख सर्व जड पदार्थना गुण जे; ते चैतन्यमां नथी. चेतन नो आकार शरीरने आश्रये जे. जेम पाणीनो आकार जलाशयथी जणाय ने तेम चेतननो आकार पुजलथी जणाय . १ए नास्तिकः- जीव कर्मोने केम ग्रहण करतो दशे वारु ? आस्तिकः-जेम वस्त्रना तंतु ते वस्त्रना अंश जे; तेम जीवना प्रदेश ते जीव ना अंश जे; जेम वस्त्रांतर्गत तंतुना सूक्ष्म तंतु ले . तेम जीवना पर्यायजे. जेम वस्त्रनो वरण तेम जीवन सदूलहण जे. जेम वस्त्रने मेल लागवानुं कारण, तेमजीवने मिथ्या वादिक हेतुये रागष पाश्रवे कर्मरूप मेल लागवानुं कारण जे. जेम वस्त्रनो मल टा लनार धोबी तेम पोताना अंतरनो मल टालनार आत्मा पोते जे. जेम वस्त्रने साबुये करी मल टले , तेम जीवने गुनध्यानेकरी कर्मरूप मल टले जे.जेम वस्त्रने अग्नि, तेम जीवने तपस्या बे. इत्यादिक कस्याथी कर्मनो दय थाय ले. जे जीव कर्म सहि त होय तेने कर्म लागे, पण कर्मरहित होय, तेने नवां कर्म लागे नही. जेम सूत्रका तनारी नाडी काते, तेमाथी थोडी बाकी रहे, त्यारे तेनी साथे बीजी वलगा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यास्तिक नास्तिक संवाद. डे, पण पहेली होयज नही, तो तेनीसाथे बीजो संबंध साथी करे! तेम जीव प दिन कर्मसहित बे, अनादि जीवनुं एहवुंज स्वरूप चाल्युं खावे बे; माटे जहांधी कर्म सहित तहांसुधी नवां कर्म पण ग्रहण करे बे; पण प्रथमयी मुक वखतेज जीव नवां कर्म ग्रहण करी कर्ममल सहित थयो; एवी यादि नथी. २० नास्तिकः -- जीवने कर्म क्यारे जागां बे ? कर्म जागवानी कोई पल खाद्य जोयें जे पदार्थनो त यतो होय, तेनी यादि पण होबी जोये. ज्ञाने करी क मौनो त थाय बे. एम तमेज कहो बो. त्यारे याद्य पण कबुल करवी पडशे; ते दिनो समयको ठेरवशो? केम के, जीव प्रथम निर्मल होय तोज तेने कर्मरूप मन लाग्यो कहेवाय. प्रास्तिक:--ए वचन दूषण सहित बे. केमके, जीव प्रथम ज्यारे निर्मल हतो त्यारे तेने कर्म लागवाना परिणाम केम थया ? जे निर्मल होय ते पोताने मल सहित थवानी वा करे नही. तेम बतां जीवे कर्मोनी वांढा केम करी? माटे जीवनादिनो कर्म सहित बे. जीवनेविषे कर्म स्वनावे अनादिसिद्ध . दोहा, यदि जीव निर्मल हतो, पढि वलग्यां वे कर्म एम कहे ते ना लहे, जिन वच नोनो मर्म. १६ एम २१ नास्तिकः--सर्वमां व्यापक श्रात्मा एक बे; अने शरीरो जुदां जुदां बे; मानवुं जोइये. १८ प्रास्तिकः -- जो बधामां आत्मा एक होय तो माता, पिता, स्त्री, पुरुष, नाई, बेन, पुत्र, राजा, प्रजा, चोर, साहुकार, चंमाल, क्षत्रिय, उंच, नीच, नरक, देव ता, पुण्यवान, तथा पापी इत्यादिक निन्न निन्न केम देखाय बे ? सर्वमां आत्मा एक होवाथी तेज देखायुं जोइये; अने एके कीधेनुं पाप सर्वने लागनुं जोइये; ते मज एकेकीला पुल्पना सर्व नागीदार थवा जोइये; एकना मुक्त थयाथी सर्व मु त थवा जोइये; प्रत्येक माणसनुं जुड़े जुड़े अनुष्टान निष्फल यवुं जोइये; तेम तो तुं नथी. जे करेले ते जोगवे बे; ए कहेवत प्रमाणे बधायात्मा निन्न निन्न दे खा. माटे सर्वमां एक आत्मा व्यापकपणुं कहेवुं ते समीचीन नथी; एम जाणवुं. दोहा, चात्म सर्वमां एक बे, निन्न निन्न या देह; एम कहे एकांत म त; सत कहीजे तेह. १७ २२ नास्तिकः-- सर्व कार्य ने कार्य ईश्वरनी इचारूप ; अने ईश्वरनी 5 बीज सर्व या बे; एम जाणवुं जोइये. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रास्तिक नास्तिक संवाद. ? या स्तिकः -- जो एम होय, तो जन्म धारण करवामां मातापितानुं शुं काम विष खाधाथी मरण थाय बे, तेमां विषनुं सु वांक बे ? तेमज नो जनथी कुधानी निवृत्ति, पाणीथी तृपानी निवृत्ति, प्रमिथी शीतनिवृत्ति, व ली तापथी खेदोत्पत्ति, वर्षाथी धान्योत्पत्ति, पथी वैरोत्पत्ति, नम्रताथी स्नेहो त्पत्ति, चोरी करवायी ताडन, यारी थकी निर्लऊ, पापथकी नरक, पुण्ययकी स्वर्ग, इत्यादि सर्व कारणो ने कार्यो व्यर्थ थशे अने सर्व वस्तो स्वगुंण रहित कवी जो. राग करनारो स्नेही नही, तेम द्वेष करनारो वैरी नही कहेवाशे. न पकार प्रति उपकार करवानी कांई जरूर रहेशे नही. ने पाप पुण्य फलरहित A. केम के, सर्व कार्य करवानुं मूल कारण एक ईश्वर इवा थई, माटे सर्व ईश्व र बारूप बे, एम कहेतुं ते समीचीन नथी. तमारा कहेवा प्रमाणे पुण्य पापनुं कर्त्ता पण ईश्वर ने नोक्ता पण ईश्वर थयो. दोहा, ईश्वर इवारूप या कृत्य स जगमांहि एम कहे गुणता टले, सारासार न कांहि १८ २३ नास्तिकः-- यात्मा पंच नूतो थकी थयो बे; ए वात असत्य नथी, किंतु साची बे, एवं मने जगाय बे. प्रास्तिकः - नूत शब्दनो अर्थ त्र कालमा अस्तित्व थाय बे. एटले जे बे बे ने बे, तेने नूत कहियें. नूतनो तो कोई काले बेद यतो नथी; माटे ए अस्तित्वरूप नूतनो अंश तो संनवे नही; तेम प्राकाशादिक पंच महानूतनो अंश पण कही शकायें नहीं. वली पांच नूतना अंशे करी शरीरनी उत्पत्ति थाय बे, त्यारे ज्ञान चेतना का अंशथी उत्पन्न थयां ? माटे नूत शब्द ए भ्रमजाल बे. अने चिदानंद ज्ञानरूप आत्मा तो शाश्वत बे. ते कोई समये जूनो तथा नवो यतो नथी. ते जीव पूर्वोपार्जित कर्मे करी शरीर बांधे बे. ते जल पुद्गलनुं ग्रहण बे. तेमां नूतनुं कांई प्रयोजन नथी; नूत केवी वस्तु बे ? जीव बे के जड़ बे ? रूपी बे के रूपी बे ? ईश्वराश्रित ले के नवा प्रगट थाय बे ? बता रूप बे के संयोगे या बे ? ए विषे कांई विचार करी शकातो नथी; माटे नूत ए शब्दज व्यर्थ बे. ते नाथी जीवनी उत्पत्ति केम मनाय ! दोहा, जीव ऊपजे नूतथी, ए मत बे जम रूप; जीव चिदानंद सत्य बे, अनादि नाव अनूप. १० २४ नास्तिकः -- तमारा कह्या प्रमाणे जीवने नवांतर थाय बे. जवनी प्राप्ति क मीनुसार बे. जेवां कर्मों कस्यां होय तेवा नवनी प्राप्ति थाय बे. शुभ कर्मनुं फल सारो नव बे, घने गुन कर्मनुं फल नरशो जव बे. ते वात सत्य बे, परंतु को Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. ए ई जीवने एक खंडमां शरीर मूकीने बीजा खममां बीजं शरीर धारण करवू पमे. तो एटलो दूर जतां तेने केटलो वखत लागतो हो ! अने कोई जीवने एक श रीर मूकी तरत तेज गाममां उपज होय, तेने काई दूर जवु पडतुं नथी, तेथी कांई वधारे वरखत लागतो नही दशे, पण जेने दूर जवू पडतुं हशे तेने रस्तामां चालता वधारे करवत लागतो दशे नी! __ आस्तिकः- नजीक अथवा दूर नवांतर करवामां वधारे वखत लागतो नथी; सरखोज वखत लागे जे. जेम घाणी, रहेंटीयो अथवा बार| इत्यादिक ज्यारे फरे ले, त्यारे तेश्रोना माहेला तथा बाहेरना नागने फरतां सरखोज वखत लागे बे. यद्यपि अंदरनो देत्र थोडो होय डे, ने बाहेरनो घणो होय ; तथापि फरतां वरखतमां वधघट थती तथी. वली जेम दीपकने शलगावीए ते काणमांज प्रकाश करे. वचमां कोई अंतर पडतो नथी: तेम जे वरखते एक नव मूके के लागलोज बीजो नव पामे ; तेमां लगार पण अवकाश रहेतो नथी. ते नव पड़ी दूर देश धारण करवो होय, के नजीक देशमां धारण करवो होय, गमे त्यां नव धारण कर मांवामां वखतनो वार फेर थतो नथी. २५ नास्तिकः-जीवने कर्म केवी रीते लागे जे. आस्तिकः-आत्माना गुनागुन परिणामथी जीवने कर्म लागे जे. जो शुन परिणाम होय, तो सारा कर्म लागे जे; अने अगुन परिणाम होय, तो नरशां कर्म लागे बे. अने तेनां फल पण तेवां थाय ने. कर्मने कांई झान नथी, जे आ जीवे पाप कस्युं माटे हुँ एने पापरूप कर्म थई लागुं. . २६ नास्तिकः-कर्म तो जड बे. तेथी तेश्रोमां ज्ञान शक्ति नथी त्यारे जीवे नर शां अथवा सारां की कस्याथी पाप अथवा पुण्यरूप परिणाम केम थाय बे ? ए परिणाम तो छानविना थाय नही. तेथी एवं जणाय जे के कर्म लागवामां ईश्वर हेतु ले. कर्म करवापणुं जीवने ; ने तेनुं फल देवु ईश्वरने बे. - आस्तिकः-कर्म लागवामां ईश्वरनुं कांई काम नथी. कर्मोनो एवो स्वनावज ले के परिणामने पामवं. जेम कोई पुरुष विषमिश्रित नोजन करे, ते मरण पामे ने मरवु ए विषनो परिणाम : पण विष जम पदार्थ होवाथी तेने एवं झान नथी के मने जे खाय , ते मरीजायजे: तेम बतां तेथी तेवो परिणाम थायडे के नही! वली जेम कोई पुरुष मिष्टान्न नोजन करे, तेथी पुष्ट थाय ले पण ते नोजन एम नथी जाणतुं के, माराथकी आ शरीरनी पुष्ठी थाय . तेम बतां तेनो परिणाम Jain Education Interational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आस्तिक नास्तिक संवाद. | तेवो थाय . एतो एनो स्वनाव बे. तेम गुनागुन कर्मोने यद्यपि झान नथो, तोपण तेयोनो एवो स्वनावज , के फलरूपे पोते परिणामने पामवं. कर्मों नो एवो स्वनावजले के गुन कस्याथी पुण्यकर्म बंधाईने उत्तम गतिनी प्राप्ति थाय जे, तेमज अशुनविषे पण जाणी लेवु. एवो कोनो अनंत कालनो स्वनाव . वली जेम चमक पाहाण लोहने पोतानी तरफ खेंची लिये ले, तेनुं चमकने कांई पण ज्ञान नथी, के हुँ लोहन आकर्षण करूंबं: परंतु ते क्रिया स्वानाविक थाय बे. तेम जीव गुनागुन परिणामना उपयोगे गुनागुन कर्म आकर्षण करी था | त्मापणे लोलीनूत करे : एवो अनादि कालनो स्वनावज जे. एमां ईश्वरनुं कांई काम नथी. ___ २७ नास्तिकः- जीव एवो कोई पदार्थज नथी: बधुं शून्यज ले. त्यारे गुनाशुन कर्मो ते कोने लागवाना हता! ए बधो नर्म बे. जीव कोई वेज नही. आस्तिकः-नाई, तूं पाको बुझिनो देखाय ले. जीवनेज नराडी नाख्यो एटले बधी खटपट चूकी गई के नही वारु ! अरे मूढमति विचार तो कर, के जो शरीरमां जीव न होय, तो शरीरनी चेष्टा केम थई शके ? शरीर तो जम बे, तेमां चेतन शक्ति न होय तो क्रिया केम थाय? जो आत्मा न होय तो आ शरीर, हाय, पग, कान, नाक, जीन, अांख, मन, बुद्धि, धन, धान्य, राज्य, तथा संपत्ति प्रमुख सर्व पोताथी जुदा पदार्थोमां शरीर मारुं , धन मारूं , वगैरे एवो बोलनार कोण ! मारूं , एवं कहेनार पदार्थथी जुदो होय जे. एम तो कोई पण कहे तो नथी के ढुं शरीर , हुँ मन बूं वगैरे, माटे शरीरादिक सर्व वस्तुनो निन्न व्य वहार होवाथी जीव ले एवं ठरे ले शरीरमांथी जीव नीकली गया पडी विचार करवू, बोलवू, तथा चालवू वगैरे कांई पण क्रिया थई शकती नथी. तेथी शरीर थकी जीव जुदो कोईक जे एम नको जायजे. वली शरीरमां ज्यारे जीव डे त्यारे बोले , ने घट पटादिक पदार्थोमां जीव नथी त्यारे बोलता नथी. तेथी जीव व्य ते शरीर थकी निन्न डे एवं शिक्ष थयुं. तेने आज नही एम तुं केम माने ? जो जीव न होय तो व्यवहार केम चाले? माटे जीव अवश्य ले एम जाणवू. २७ नास्तिकः- जीव समय समयनेविषे नवो थाय ने. हमेश एक जीव रहे तो नथी. - आस्तिकः- ए वात तदन जुठी जे. जीवत्व नवं कोई समये यतुंज नथी. जीवना पर्याय इव्य, क्षेत्र, काल, नाव, तथा उदय नावाश्रित तो जुदा जुदा - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. २५३ होय , पण जीवपणुं नवं होतुं नथी. जीव समय समय प्रत्ये जो नवो थ तो होय, तो बालपणनी वात यौवनावस्थामां शांजलवी न जोये. तथा गत सम यतुं शांजलेलु, दीतेनुं, जोगवेलु, लीधेलु, तथा दीधेनुं प्रमुख काई पण स्मरणमा याव्युं न जोये. तेनी स्मृति तो थाय ले. तेथी जीव तेहिज . जो जीव नवो थतो होय तो एक जीवनुं करेलु कार्य बीजो जीव केम जाणी शके ? ए तो प्रसिद वात जे. तेथी जीव इव्य सदा सर डे; एमां कोई काले पण फेर पडतो नथी, एम जाणवू. ए नास्तिकः- जीव जे नाना प्रकारनां कर्मो करे ले, तेयोनो करावनार ईश्वर जे. ईश्वरनी प्रेरणा विना जीव थकी कर्म थाय नही, एम जाणवू. आस्तिकः- जो जीवने कर्म ईश्वर करावतो होय, तो कर्मनो कर्त्ताज ईश्वर ठरशे: केमके जे कीयानो प्रेरक होय , तेज कर्ता होय . जो ईश्वर कर्त्ता तेरा वगुं तो जे कर्ता होय , तेज नोक्ता होय जे. ए रीतथी ईश्वरने नोक्तापणुं पण आवशे. नोक्ता ईश्वर थयाथी पापपुण्य ईश्वरनेज लागे , एम मानवू पडशे. जेम कोई पुरुष पोताना हाथमां खड्ग लईने बीजाने मारे. तेनु पाप खडगने लागतुं नथी, पण ते खडगना मारनारने लागे . तेम पुरुषे कीधेनुं पाप पण ईश्वरने लागनार ले. कर्मनो करनार तो खडगना जेवो ; तेने कर्म लागवा न जोईए. तेथी कर्म ईश्वरने लागे जे एम सिह थयु. एम माननारने एटलुंज पूब जोये के, कर्मनो कर्त्ता तुं नथी, तेम कर्मनो नोक्ता पण तूं नथी; कर्ता जोक्ता ईश्वर ले. त्यारे सर्व मनुष्यो पोतपोताना मत प्रमाणे क्रिया करवानी बुद्धि केम करे ? मद्य मांशनो त्याग, अने स्नान, संध्या, स्त्रोत्र, तप, जप, वगैरे शासारु करे ? पोताने कोई पाप प्रमुख लाग्युंहोय तो तेनुं निवारण शासारु करे ? अकार्य शासा रु करता नथी ? पाप थकी शासाकै बीह ! कत्तों शो नोक्ता एम शासारूं कहे ? पोते करे ले, ते जोगवे बे; तेम बतां वली कहे जे के हे प्रनु, मारां पाप टालो. प || एम नथी कहेतो के प्रनु तमारां पाप टालो. जे चोरी करे तेने दंड थाय ने जे बेद करे तेनां प्राण जाय. अने हिंसा करे ते अवश्य नरक गामी थाय. वगैरे ए सर्व व्यर्थ मानवा जोशे. माटे कर्ता जीव ने ईश्वर नथी एम मानवु जोये. ३० नास्तिकः- अमे मान्य करेलु ईश्वर सर्वक के एम जाणवू. अने शास्त्रोमां पण “सर्वज्ञो ईश्वर.” एवां घणां वाक्यो दीवामां आवे जे; माटे ईश्वर बधुं जाणे . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. आस्तिक- यद्यपि तमे कहोबो के ईश्वर सर्वज्ञ बे, ए वात सत्य बे. तथापि ते सर्वज्ञतानी रीत कांक जूदीज बे. जे तमे मानो बो ते ईश्वर सर्वज्ञ नथी. अ एटलुंज पूढीए बैए के, ज्यारे ईश्वर सर्वज्ञ बे, त्यारे पोताने दुःख देनारा राव गादिकने ते शा सारु उत्पन्न करया ! ज्यारे ए राक्षसोनी उत्पत्ति पोते कीधी त्यारे पोतानेज युद्ध कर पड्युं. ए उपरथीज विचार करो के जो ईश्वर सर्व जाणतो होय, तो एवी नूल केम करे ? जो एम कहिये, के रासादिक प्राणी ईश्वर की जाणमां उत्पन्न थया जलाय बे: तो ईश्वरनेविषे अज्ञानरूप दूषण प्राप्त थशे. ने जो एम कहीशुं के जाली जोईने उत्पन्न करया बे; तो ई वरना जतने पण संग्राम उचित नथी; तो ईश्वरने ते केम संग्राम कार्य उचि त थयो ? माटे एम कहेतुं तदन संनवित बे. ३१ नास्तिकः - ईश्वर ज्यारे जगतनो संहार करेले, त्यारे पोते प्रागवमनां पांद siपर पोढे बे ने ज्यारे जगतनी उत्पत्ति करवानो संभव होय, त्यारे जागृत थाय बे: ए वात तो साची बे के नी ? १०४ प्रास्तिक. - ए वात ते वली जूठी होय ! पण हुं तमने पूहुं हुं के ते प्राग as धरकाशमां रहे बे के, पृथ्वी उपर होय बे ? तेमां अधर रहे बे, एम तो तमे कबूल करशो नही, केम के तमे वली एम पण मानो बो के, बधुं जलमय थई जाय बे; ने तेनी उपर मात्र प्रागवम देखाथ बे; त्यारे पृथ्वी पण कबूल क रवी पमशे. जो पाणी, पृथ्वी, तथा प्रागवम ए बधा पदार्थ महा प्रलय थया पढी पण रहे बें, त्यारे संहार ते शानो कस्यो कहेवाय ? जो एम होय तो सर्व पदार्थो शाश्वत थया एम जगाय बे. फरी ज्यारे ईश्वरे सृष्टि उत्पन्न करी, ते प हेल का प्रमाणे पांच महा नूत तथा प्रागवड हतो त्यारे नवुं ते गुं की धुं ए वगैरे विचार करवायी एम जलाय ने के, ए बधा गपाटा बे. जेना मनमां जेमायुं, ते तेम शास्त्रोमा लखी नाख्युं जगाय ते. ३२ नास्तिकः - ब्रह्मा, विष्णु, अने महेश ए त्रणे सर्वज्ञ ईश्वर बे; एम मे मा निये बैये. प्रास्तिकः - तमे गमे तेम मानो तेमां प्रमारुं गुं गयुं ! अमे तो जेम हशे ते म मान. तमे का ते त्रणे जो सर्वज्ञ होय तो ज्ञानने केम अंगीकार क रे ! जुवो के, महादेवे पोताना पुत्र गणेशनुं माधुं कापी नाख्यं तेनी खबर पो ताने केम न पडी ? रावण सीतानुं हरण करी गयो ते वखते राम सर्वज्ञ बत Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. शल्य पशु, पक्षी, तथा वृक्ष प्रमुखने केम पूछतो हतो ? अने ब्रह्मा पाथी राक्षसो वेद केम चोरी लई गया ? ए रीते ब्रह्मा, विष्णु बने शिव अज्ञानी ठरे बे. एवा ज्ञानी तेने ईश्वर केम कहिये ? ३३ नास्तिकः - सर्व योनियोमां मनुष्य योनि उत्तम बे एवं शास्त्रोमा कयुं बे ते सत्य बे ने वली अनुभव सिद्ध पण बे. क प्रास्तिकः - ना कोणे कयुं बे ? मनुष्य योनि तो उत्तमज बे. परंतु तमे तेम अंतःकरणपूर्वक मानता नथी देखाता. महोडाथीज मात्र कहो हो. केम के तमारे तो एथकी पण बीजी उत्तम योनियो मानवी जोइये बे. जे योनिने ई श्वरे अंगीकार करी बे, ते योनि तमारे पण सर्वोत्कृष्ट मानवी जोइये. मन्च, , तथा वराह, प्रमुख योनियोमा ईश्वरे अवतार लीधो बे; ते योनियो मनु ष्य योनिकरतां उत्तम मानवी जोइये. जो मनुष्य योनिज उत्तम होय तो ईश्व र पोते बीजी योनि म धारण करे ? माटे तमारा बोलवा प्रमाणे तो मनुष्य योनि करतां वराहादिक योनि उत्तम जगाय बे. ईश्वर ज्यारे पशुमां अवतार लिये बे, त्यारे पशुमुखी, पशुवाही, तथा पशुरूपी होय . तेने देव मानवो ते योग्य बे. याहार, अस्ति, त्र्यायुध, सवारी, तथा व्यावाश ए पांच पदार्थ ईश्वरना नक्तने पण त्याग करवा कयुं बे; तो ईश्वर पोते तेनुं केम ग्रहण करे ? माटे वराहादि योनि धारण करनारो ईश्वर मानो, तो मनुष्य योनि करतां ते योनि उत्तम कहेवी जोशे; जो तेम नही कहेशो तो ईश्वरने अपमान लागो. ३४ नास्तिकः - शरीरनो त्याग करीने जीव परलोके गया पतीपाठो या लोक मां केमावतो नथी ? जे बे तेने तो याव्युं जोइये. प्रास्तिक::- या संसारनो संबंध मटी गया पढी जीवनुं फरी यावतुं यतुं न थी; तेनुं कारण कर्म बे. जीवनुं श्रावतुं जनुं कर्माधीन बे. ज्यां कर्म नई जाय त्यां जीव जाय बे ने जे जे नव पामे बे ते ते जवना कार्य करे बे. यान मां पण हमेश एक रीत रेहेती नथी जेम के बालपणानी प्रीति होय ते कोई कामी जाय. घणा काल लक्ष्मीनो संबंध बतां कोई काजे तूटी जाय बे. त्यारे दारिद्र्य यावे . कोई कर्मना योगे प्राणी बंदीखानामां पडे, ते वारे तेनो अत्यं त स्नेही होय ते पण पासे यावतो नथी. कोई पुरुष एक स्त्रीउपर बीजी करे त्यारे प्रथम स्त्रीनी उपर प्रीति रहेती नथी; अने पूर्वनो संबंध पण तूटी गया जे बुं थाय बे. तो पूर्व जन्मना संबंध ते केम याद आवे ? ज्ञानावरणी कर्मना यो Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आस्तिक नास्तिक संवाद. गे बीजा नवनुं स्मरण पण थतुं नथी. ए विषयने मलती प्रदेश राजा अने के शी गुरुगी प्रमोत्तररूप चर्चा डे ते कडं बुं. प्रदेशी राजा:- मारो अधर्मी दादो नरकमां गयो जे, ते तमारा मतप्रमाणे त्यांथी श्रावीने मने अधर्म करतो वारे त्यारे हुँ मानु, के वात साची. __केशी गुरुः- तारी स्त्रीनी साथे कोई पुरुषने कामनोग करतो तने दीवामां आ वे, ने ते तारा हाथमां पाव्या पनी ते तारी वीनती करे के, मने थोडीक वार रजा आपो, तो ढुं मारा कुटंबने कही आईं के, कामनोग कस्याथी बावु ःख थाय ने तो ते वात कबूल करीने तेने तूं रजा आपीश ? राजाः- ना तेने एक क्षण पण बुटो मूकुं नही. ___ गुरुः- तेमज तारो दोदो पण पापसंची, गुनेहगार थई, नरकमां गया पनी, परमाधामी तेने केम मूके ? तेथी ते आवी शके नही. राजाः- मारी दादी स्वेबाचारी थई, जैनधर्मने अंगीकार करीने स्वर्गे गई, ते पाबी केम कहेवा आवी नही; ने आवे तो तेने झुं हरकत ले ? ___ गुरुः- कोई पुरुष स्नानकरी, कुशुम तथा धूप प्रमुख लई देवनी पूजा करवा जेतो होय, तेने कोई चांमाल संमाशमां जवाने कहे तो ते त्यां जाय के ? एवी क दी इबा पण करे ? राजाः-ना ते एवा खराब स्थले केम जाय ? कदी पण जाय नही. ___ गुरुः- तेम तारी दादी स्वर्गलोकमां गई , ते सेतखाना तुल्य था मनुष्य लो कमां केम आवे! या लोकमां आववानी ला पण थाय नही. राजाः- एक चोरे चोरी करी, तेनो इन्साफ करीने तेने लोहानी कोठीमां घा ली दीधो. तेनुं मुख बंध करीने उपर सारी रीते कलई करावी. तेमां पवन पण प्रवेश करी शके नही एबुं कयुं. पली ते चोर कोठीमां मरी गयो. तेनो जीव ते कोठीना क्या रस्तेथी नोकली गयो ? तेमां तो कोई बिश् दीवामां आव्यो नही. हवे जीव ते केम मनाय ? ___ गुरुः- मोटी शालामा एक पुरुषने नेरी सहित घालीने तेने चोतरफ बंध क री लीधी होय, तेमां ते नेरी वगाड्याथी तेनो अवाज बाहार शंनलाय . ते वि इविना बाहार केम आवे ? तेम जीव पण विविना बाहार निकली जाय . राजा:- एक चोरना कटका करी एक कुंजमा में नरी राख्याहता. तेनुं महोडुन परथी सारी रीते बांधी जी, हतुं, के जेमां पवन पण प्रवेश करी शके नही. ते Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. केटलाक काल पड़ी उघाडी जोयुं, तो तेमां अनेक क्रम पडेला देखायां. ते बिह विना क्याथी आव्यां ? ___ गुरु.- अग्निमां लोहनो गोलो नारख्यो होय तेमां निविना अग्नि केम प्रवेश करे! जे वस्तु अनिमां नाखीए तेमां बिइ नहोय, तो पण अनि प्रवेश करे . तेम जीवनो प्रवेश थवामां निश्चें कांई काम नथी. राजाः- एक चोरने में ते जीवतो हतो त्यारे तोड्यो, अने मरी गया पनी पण तोल्यो: त्यारे जीव नीकली गयो बतां नारमा कांई फेर पड्यो नही. तेनुं शु कारण होवु जोये? __ गुरुः- जेम खाली मशक तथा पवनथी नरेली मशक तोली जोतां वजनमां फेरफार थतो नथी. तेम जीव वायुरूप होवाथी ते शरीरमांथी नीकली गया प बीकांइ तोलमा फेर पडतो नथी. ___ राजा:- बालक अने यौवनना शरीरमा फेर ले पण जीवमा कांई फेर नथी. बन्ने वाणी सरखी बोले में ने तेनुं शब्द पणे कानमां सरखी रीते स्वर जाय ; तेम बतां उपयोग सरखो केम थतो नथी? युवान जे किया करी शके ते बाल कथी थती नथी तेनुं कारण गुं ते कहो. गुरुः- जेम जूनुं धनुष्य होय तेथी बाणनो उपयोग जुदी रीते थाय ने न बुं धनुष्य होय तो तेथी बाणनो नपयोग जुदी रीते थाय : धनुष्यमा फेर होवा थी बागनी क्रियामां फेर पडे बे. तेम बालक अने युवानना शरीरमा फेर होवा थी जीवनी क्रिया सरखी थाय नही. एटले बल वीर्य प्रमुखमां पण फेर फारथाय . राजा:-युवान अने वृक्ष माणशना शरीरमा जीव सरखो बतां युवाननी पते १६ केम नार उपाडी शकतो नथी? गुरुः-जेम कावडवडे जार नपाडनारो पुरुष सारी नवी कावड होय तो वधा रे नार उपामी शके डे, ने जूनी कावड होय तो कांईक थोडो नार नपाडी शके ने. तेम जीव तो तेज पण युवान शरीरं होय तो वधारे नार नपामी शके, ने वृक्ष शरीर थाय तो थोमो नार नपाडी शके . राजाः-एक चोरने मारीने तेना अनेक खंड कीधां, पण जीव तथा जीवना रहेवानुं वेकाएं दीवामां आव्युं नही; माटे जीव कोई बेज नही.... । गुरुः-जेम काष्टमां अग्नि रही जे, तेम शरीरमांजीव रह्यो डे, ते देखाय केम ? जो काष्टमां अग्नि देखाय तो शरीरमां जीव देखाय. काठीयारो हमेश लाकमा - - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रएन आस्तिक नास्तिक संवाद. कापेले पण तेने अग्नि कोई वखते पण दीवामां आवती नथी. ने ते अग्रिनुं र हेवार्नु ठेकाणुं पण दीनामां श्रावतुं नथी तेम जाणी लेवू. राजाः-मने प्रत्यक्ष जीव देखामी आपो के जेथी हूँ जीवने जाएं. गुरुः-तमे बादर वायु कायना जीवने जोई शकशो के ? तेने पण जोई शक शो नही तो जे अरूपी जीव ने तेने केम जोई शकशो? राजाः-हाथीमां अने कीमीमां जीव केम सरखो होय ले ? गुरुः-हाथीनुं तथा कीमोन शरीर महोटुं नानुं , पण जीवमां अधिक न्यून ता नथी जीव बन्नेमां सरखो ने. - राजा:-लोकमां जीव अने जड एक क्षेत्र अवगाही निरंतरपणे निराबाध केम रह्या ? ___ गुरुः-जेम धनी नरेली कडाईमां साकर. एलची, अने केशर नारखी होय ते केम समाई जाय ले ? दूधशुक्षां चारे वस्तु एक क्षेत्र अवगाही निरंतरपणे केम रहे ले ? एकज ठेकाणे चारे वस्तु अनिन्न नावे रहेली जे. एना वर्ण, गंध, रस, फरश निरंतर निराबाधपणे ः तेम जीव अने जड जगतमां निरंतर एक देत्र अवगाही निराबाधपणे रह्या ले. ३५ नास्तिकः- सर्व लोकमां जीव नरपूर ने त्यारे देखाता केम नथी ? आस्तिकः- जेम सूक्ष्म जीव सर्वत्र पूर्ण ले. ते ज्यारे दिवशे तडको पडे त्यारे घरमांना कोई विक्षारायें थोडोएक तडको घरमां आवे जे. ते तडका तरफ जोतां केटला एक परमाणु जेवा दीवामां आवे , ते बधा सूक्ष्म जीवो ले. ते बायमा मां तडको आवे त्यारे उडता देखाय जे, बीजी रीते देखाता नथी. तेम जीव अ ने जड सर्व लोकमां नरपूर उतां बद्मस्थने देखाय नही; किंतु केवल ज्ञानरूप ा तपना योगे देखायडे. अर्थात् केवल ज्ञानीज जाणी शकेले. ३६ नास्तिकः- चं, सूर्य, बाया, यातप, माता, पिता, स्वर्ग, नरक, जीव, जड, घट, पट, स्तंन, तथा कुंन प्रमुख सर्व चममात्र ; वस्तुरूप कंईजनयी. ___ आस्तिकः- जेम अंधकारमा आकाशनेविषे कोई पुरुष चाल्यो जाय, ते निरा बाधपणे जई शके जे; पण वचमां जो निंत आवीजाय तो आगल चलातुं नथी ने ते कार्यमां अपराबाधक थायजे. ए प्रत्यक्ष व्रम के सत्यले ? तथा कोई कोईने मारे, कूटे, दान दिये, ए वस्तु गत्ये सत्यजे: असत्य अने नमजाल तो स्वप्न अने संकल्पने कहिये. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए आस्तिक नास्तिक संवाद. ३७ नास्तिकः-सर्व जगतमा एकज ईश्वर ने. इश्वर विना बीजुं कांई नथी, ए म जाणवू जोये. यास्तिकः- जो सर्व जगतमां एक ईश्वर होय, तो दाननो देनार पण ईश्व र, अने लेनार पण ईश्वर कहिये. सेनार अने देनारमा काई नेद थयो नही. ई श्वरे पोते पोतानी पाशेयी दान लिधुं त्यारे दान दीधार्नु पुण्य कोने थयुं ? एथी दान तथा पुण्य व्यर्थ गया. वली मारनार पण ईश्वर ने मरनार पण ईश्वर कहेवो जोये: तो ईश्वरे ईश्वरने मास्यो तेनु पाप कोने लाग्युं ? धणी पण ईश्वर ने चोर | पण ईश्वर; तो ईश्वरनो माल ईश्वरे चोयो कहेवाय, त्यारे चोरीनी तपाश शासा रु करवी जोये ? पुण्ये करी स्वर्गमा गयो ते पण ईश्वर, तथा पापे करी नरकमां | गयो ते पण ईश्वर; त्यारे स्वर्गमां पुण्यवान जाय अने नरकमां पापी जाय; एमक हेतुं व्यर्थ जे. ए उपरथी तमारुं बोलअसंनवित ले. जगतमा एकज ईश्वर ने एम जे कहेतुं ते असत्य . घटघटप्रत्ये जीव जुदा जुदा ने, अने तेथोनी कर णी पण जुदी जुदी जाणवी. ३७ नास्तिकः- घट पटादिक सर्व पदार्थोमां ईश्वर एकज , एम जाणवू जोये. आस्तिकः- जो सर्वमा एक ईश्वर होय तो जात, कुल, राजा, तथा चंडा लनी निन्नता कही न जोये; कोई श्रेष्ट तथा नष्ट कहेवाय नही. एक पुण्य करे ते नुं फल सर्वने थq जोये, तेमज कोईएक पाप करे तेनुं फल पण सर्वने थ, जो ये. एके नोजन कस्याथी सर्वनी तृप्ति थवी जोये: एक नरकगामी थयाथी सगला न रके जवाजोये; एक स्वर्गगामी थयाथी सर्व स्वर्गमां जवा जोये; एकनो नोग सर्वने जोगव्यो जोये: कर्म जुदां जुदां नोगवां न जोये; तेम तो देखातुं नथी; जे करे ते जोगवे एवं स्पष्ट देखाय जे. त्यारे सर्वमा एक ईश्वर केम कहेवाय? माटे एम क हे ते समीचीन नथी; बधा जीव जुदा जुदा , एम कहे योग्य जे. ३ए नास्तिकः-स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, चंद, सूर्य, नदी, समुप, दीप, नर, नारी, नगर, ग्राम, तथा माता, पिता इत्यादिक चोराशी लद जीवयोनि प्रमु ख सर्व असत्य बे; एथोमां सत्य पदार्थ कोई नथी. आस्तिकः-सर्व पदार्थ सत्य बे. जलनी बुंद पण असत्य कहेवाय नही, तो स्वर्गादिक पदार्थो केम असत्य कहेवाय? जे वस्तु थाय त्यारे थई कहेवायडे, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आस्तिक नास्तिक संवाद. अने वणशे त्यारे नाश थई कहेवाय. ए प्रत्यक्ष प्रमाणे सिम बे; ते मूढ पण जाणे दे तो हे नास्तिक तूं केम जाणतो नथी! ४० नास्तिकः-जगत ईश्वर रचित ने. आस्तिकः-जो जगत ईश्वरकत होय, तो जेटला ईश्वरना नक्त जे. ते बधा सुखी होवा जोये; तेम तो दीवामां आवतुं नथी. हिंऽ तथा मुसलमान बधा सुखी तथा कुःखी देखायले; तेने पण पूंबिये तेवारे एम कहे जे सदु पोतपोतानी करणी प्रमाणे पामेले, एम कहीबूटे; त्यारे तमारा कहेवा प्रमाणे तो सुख तथा दुःखनो देनार कर्मविना कोई बीजो होवो जोये तेनो तो विचार थई शके नही, माटे हे मूर्खबुदि आ जगतनो कोई करता नथी; ए तो स्वनाव सिह . अने जी व जेवी करणी करे, ते प्रमाणे सुख तथा दुःख जोगवे. ४१ नास्तिकः-सुख सुःखनो देनारो ईश्वर बे, एम मानवं जोये. आस्तिकः-सुखःखनो कर्ता आपणो आत्मा , तेज सुखफुःखनो नोक्ता जाणवो. माटे सुखःखनो देनारो बीजो कोई समजवो नही.. ४२ नास्तिकः-(प्रत्यक्ष प्रमाण वादी) पुण्यथकी सारूं थायडे, ने पाप थकी नरगुं थायले; ते अमने प्रत्यद दृष्टिए देखाडो तो मानीए.. __ आस्तिकः-पुण्यपाप तो सदम पुगल समूहरूप. जेम शब्दना पुजल कानप्रत्येा वेत्यारे शब्दनुंझान थायजे; माटे ते सत्य जे. पण पावता देखाता नथी. तेम सुगं ध, उगंध, प्रमुखना पुजल इंडियो प्रत्ये यावता देखाता नथी; पण तेनुं ज्ञान थायडे; तेथी अनुमान प्रमाण वडे जणाय ने के ए सत्य बे. तथा शरीरमा वायु अने गरमी प्रमुख जे थायले, ते रोगना उदयथी जाण्यामां आवेळे, पण प्रत्यद दीनामां श्रावतांनथी. तेम पुण्य तथा पाप पण फल जोगव्याथकी जा एयामां आवेले. तेयोना पुजल बद्मस्थ दृष्टिए आवे नही. १३ नास्तिकः-बाल्यावस्था तथा तरुणावस्थामां जीव सरखो . तो ते बन्ने अवस्थामा विज्ञान, विद्या, नाषा, तथा पराक्रम सरखां केम नथी देखातां ? । आस्तिकः-जेम वृदना बीमां अनेक वृद, फल, फूल प्रमुख रहेला डे; परंतु जेवा साधनो मलेले, तेवी नानवताने पामेले. जेम के, देवनी नूमि सारी होय ने पाणीनी पण बराबर साह्यता होय, तो कृषि फलरूप धान्यनी नत्पत्ति सारी थायले. तेम सारा साधनोवडे जेम जेम शरीरनी वृद्धि थती जाय, तेम तेम नाषा पण प्रौढ ताने पामती जायजे; पण अवस्थांतर थयाथी बुद्धि बाहेरथी आवती नथी. किंतु Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यास्तिक नास्तिक संवाद. २०१ शरीरन पठे बुद्धि अवस्थांतर थायबे सर्व आत्मगुण श्रात्माने विषे सदा न वाजले. पण योग्य समयमां उद्भव मात्र थायले. कांई बाहेरथी नवा यावता नथी. जेम मयूरना शरीरमां अनेक रंग रहेलाबे, पण समय पामे प्रगट थायले. तेम बाल्यावस्थामां पण सर्व गुण सत्वनावे बे, परंतु जेवी रीते पुरुष बलवान ब तां धनुष्यविना बाण चलाववामां समर्थ थाय नही; गलोला, गोफण, तथा खड्ग प्रमुख बधा शस्त्र तेयोना उपकरणथी उपयोगी थायले, ते विना थाय नहीं; तेम जीव पण शरीरोपकरण अवस्थारूप सामग्री थकी सर्व कार्य साधी शकेले. चेत Hii फेरनी, चेतन सदासर्वदा सरखुंज बे. ४४ नास्तिक:- :- जगत सर्व ईश्वरकृत होवाथी सर्व पदार्थमां तथा सर्व जीवमां ई श्वरनी कला बे. प्रास्तिकः - जो एम होय तो घट, पट, स्तंन, कुंन, शास्त्र तथा भाषा इत्यादिक नेक वस्तु ज्ञान कोई एक जीवने बे, ने कोईएक जीवने नथी. जे जीवने शेय पदार्थं ज्ञान बे, तेने तो हे मूढमति, तूं ईश्वरनो अंश मानेबे, त्यारे श्वान, शूकर, रासन, मांजर, व्याघ्र, प्रमुख श्वापद चौपद जीवोने घटादिक पदार्थोनुं ज्ञान नथी तेथ तेोमांशुं ईश्वरनो अंश नथी ? तमे तो जीवमात्रने ईश्वरनो अंश मानो बो तेने बाध यावशे. जे ईश्वरनो अंश होय ते अज्ञानी केम होय ? एथी जगत न कर्त्ता ईश्वर विवेकी ठरेले ने सर्वमां ईश्वरनी कला बे, ए बोलवु पण सत्य बे; केमके जो एम होय तो सर्व सरखा ज्ञानी होवा जोये. तेम तो देखातुं नथी; माटे एवात पण मिय्या बे. तेम सर्व जीव ईश्वरना अंशरूप बे, एम जे तमे मानो बो, ते पण ज्ञानी होवाने लीधे मानोबो माटे संनवे नही. ४५ नास्तिक :- ईश्वर नक्तवत्सल बे ने स्वेवाथी जन्मधारण करे. प्रास्तिकः - जो एम होय, तो नक्तोने शरीर मूकतां वेदना केम थाय बे ? अ ने स्वजनादिकना कोलाहल शब्दो सांजलीने जक्कने वत्सलनावकारी आयुष्यवृद्धि केम नथी करतो ? मरणादिक क्रिया तो सर्व ईश्वरना स्वाधीन बे. ए यदि वि चार करतां तमारुं बोलतुं बधुं पोकल बे. जीव तो कर्मने खाधीन बे. जेम के फ लीजो प्राणी तेनी लहेरने स्वाधीन थई जायबे, तेम जीवविषे पण जाणी जेवुं. जन्ममरण पण कर्माधीन बे; तेने जे धारण करे ते ईश्वर शानो ! ते तो संसारीज कहेवाय. ईश्वर तो कर्मथी मुक्त होयबे, माटे तमारुं बोलवु बधुं व्यर्थले . ४६ नास्तिकः - या पंच महानूतोथी उत्पन्न यएलुं जे विश्व, ते महा प्रलयना २६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ आस्तिक नास्तिक संवाद. समये पोताना कारण पंच महाभूतोमा लीन थशे; ने पंच महाभूतो ईश्वरमां लीन थशे. आस्तिकः-जो एम होय तो ईश्वर जड मिश्रित थाय. अने ते समल तथा निर्मल ए बे अवस्थावालो कहेवाशे. त्यारे केवल ज्योतिस्वरूपपणुं क्यां गयुं ? जे पंच महाभूतोथकी जगतनी उत्पत्ति थई कहोडो ते तो सदा शाश्वत ले. ते अोमा पृथ्वी, आप, तेज तथा वायु: ए चारे नूतो पोतपोतानी क्रिया करे, के म के, वनस्पति घने जंगम सनी उत्पत्ति करे ते क्रियाविना थाय नही. एवी रीते तो जीवनी न खान शाश्वत सदा काल ले, त्यारे प्रलय ते शानो थयो ? जो एम कहेशो, के पंच महानतो जगत विनिर्मित क्रिया करता नथी, त्यारे तो ते नूतव्यरूप कथन मात्रज उरशे. अने हरेक वस्तु पोतपोताना गुणविना रहे नही एवो नियम ले. वली जो कहेशो के नूत तो अनंत कालना ले. त्यारे तो संसार पण अनंत कालनो तरशे. तेनी नुत्पत्ति तथा प्रलय केम कहेवाय ? ए तो जेम ले तेम ले. वली ईश्वर मनसा वाचा कर्मणा करि रहित बे, अने एक थी अनेक था एवी मननी इबा यई त्यारे जगतनी उत्पत्ति करी. ए बे वाक्यो नो परस्पर विरोध बे; केम के, प्रथम वाक्यप्रमाणे ईश्वर इनारहित तरे : ने बीजा वाक्यमा झासहित कहो बो: एवो पूर्वापर वचनविरोध होवाथी तमारूं बोलवू सर्व असमीचीन जे. __४ नास्तिकः- सर्व वस्तुनो ईश्वर अधिष्ठान जे. ईश्वरनी बाथी कृत तथा अळत सर्वे थायने. - थास्तिकः- जो एमवे तो घट ते पट केम थतो नथी ? पण तेम थाय नही; केमके, घटनुं कारण मृत्तिकानुं पिंक डे, तेमांथी घटज थायने. पण पटादि कार्य नथी थता. तेमज पटनुं कारण तंतु ले, तेथकी पटज थाय; पण घटादि क बीजा कार्यनी मुत्पत्ति थायनही. जो एम यतुं न होय तो कारणथी कार्य थायडे, ए प्रवृत्ति मिथ्या थाय. माटे ईश्वरना अधिष्ठितपणातले ईश्वरनी साथी कृत तथा अरूत सर्व थायने ए तमारूं कहे सर्व व्यर्थ ने. - नास्तिकः- जीवने नवांतर थाय ने खलं, पण वेदनो बेद थतो नथी. पुरुष वेद ते स्त्री वेद न थाय, स्त्रीवेद ते पुरुषवेद न थाय ; तेम स्त्री तथा पुरुष ते नपुंस क वेद न थाय ; अने नपुंसकवेद ते पुरुष तथा स्त्री वेद न थाय. एम जाणवू जोये आस्तिकः-पुजलना परिणामनो नियम नथी. एना पुनः पुनः रूपांतर थया क Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ आस्तिक नास्तिक संवाद. रेले. मात्र अवस्तुपएं पामता नथी, वस्तुपणे गमे ते रूपे थई जायजे. जेम नेंस ना शिंगमांथी केल थायजे; काशथकी सेरडी थायले, माखीना हिंगारथकी कद लीनी नाजी थायले. एवी रीते कर्मना परिणामे गत्यंतर थायले. श्रागामिक जव | नेविषे कायवेद पलटाईने ते नवा नवरूपे परिणमेले. जेम सोनीना योगे सुव | ण नाना प्रकारना आकाररूपे परिणामने पामेले. तेम जीव कर्मना योगे नाना विध गतिओ पामेले. ते तो रह्यु, प्रा नवमां पण एकसरखी स्थिति रहेती न थी. जेम के, राजा ते रंक थई जायले, ने, रंक ते राजा बनी जायले, सुरवी ते छः खी, तथा सुःखी ते सुखवान थई जाय. इत्यादिक या नवमां पण पर्याय पलटाई जायचे; तो नवांतरमा केम एकरूपे रहे ? कर्मना बंध सादिले, माटे जेवो कर्म नो नदय तेवा फलनी प्राप्ति थायने, एविषे कोई नियम थई शके नही. गमे ते वेद बदली ने गमे ते वेद कर्मना योगे थायने एम जाणवू. ___Yए नास्तिकः-एम कडं ले के ब्रह्माना मुखमांथी ब्राह्मणो नुत्पन्न थया, नुज थकी क्षत्रिय थया, तथा जंघा थकी वैश्य थया, माटे एत्रणे वर्ण उत्तम ,अ ने पादथकी शूझ उत्पन्न यया माटे अधम बे, एम जाणवू. आस्तिकः- ए वात निवित नथी. जुवो के, नबराना वृदमा पेड, दाल, तथा पत्रने विषे सरखां फल लागे. ते सर्व फलोन रूप सर होयचे; तथा ते श्रोमां रस पण सरखोज होय. तेश्रोमां कोई प्रकारे उत्तम तथा अधमता क हेवाय नही. तेमज ब्रह्माना शरीर थकी उत्पन्न थया जे चार वर्ण, ते सर्व चेतन रूप होवाथी सर्व जीव सरखा जाणवा. उत्तम मध्यम वगैरे सर्व लोकिक कार्य थकी कहेवायचे. पण चेतनपणे तो सर्व सरखा ले. एना उपर एक दृष्टांत कदं ७. चारे वर्णना मनुष्य एक तलावने कांठे बेशीने पाणी पिये जे; तेथी कोई वट लतो नथी. पण ते तलावमांथी पाणी नरीने पोतपोताना वासणोमां लीधा पनी हलका वर्णना वासणन पाणी नंचा वरणवालो माणस पीए तो वटने ले. फरी चारे वर्णना नरेला पाणीना वासणो मार्नु पाणी ते तलावमां नाखीने पी तां कोई वटलतुं नथी तेनुं कारण शुं ? माटे पाणीमां बटलवाप' नथी. ने वा सण तो सर्वनां सरखा ले. माटे वटल ए मननी मानीता : अने एवीलोक म र्यादा जे. ज्यां सुधी मननो मिथ्यानावले, त्यां सुधी निन्न पणुं ने एम जाणवं. Uo नास्तिकः- समदृष्टीने विषे मिथ्यानाव होतो नथी, तेम बतां ते निन्न नाव केम राखे ? Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आस्तिक नास्तिक संवाद. आम्तिकः-लोक मर्यादा लोपवी नही ए नीति के तेनो लोप करवो नही. जे कार्यनी जगत निंदा करे ते कार्य करवो नही एवं श्रेष्टोनुं वचन ले तेनो पण लोप करवो नही. तेथीज समदृष्टि पण तेवु आचरण करे पण मनयकी स म दृष्टिने का नथी. ५१ नास्तिकः- सर्व कार्यनो कर्ता ईश्वर , एम मानवु जोये के नही ? आस्तिकः- एम मानवू नही जोये. ए वचन प्रलाप जे. ईश्वरविषे कर्तत्व होयज नही. घट, पट, कृषि, संग्राम, खान, पान, दान, मान, स्नान, तप क्रिया, विनय तथा व्यावच इत्यादिक सर्व पदार्थोनां कारण काल, स्वनाव, नि यत, पूर्वकत कर्म, तथा पराक्रम ए पांच ले. जेम के, तंतुना पुंजमाथी पटनी न त्पत्ति थवानो जे समय ते काल समजवो; तंतुना पुंजने पटनी उत्पत्ति करवानीजे योग्यता ते स्वनाव जाणवो: तंतुना पुंजमांथी पटनी उत्पत्तिन जे निमित्त थ, ते पूर्व कर्म समजवू, अने तंतुना पुंजमाथी पटनी उत्पत्ति करवानो जे उद्यम करवो ते पराक्रम जाणवो: ए पांचमाथी एक प्रो होय तो वस्तुनी नत्पत्ति थई शके नही. ए पांचनां समुदायथी घटपटादिक सर्व कार्योनी नुत्पत्ति थाय: एगु६ मत जाण. __५१ नास्तिकः- जो कुन होता है, सो अनादुतालाके दुकमसें होता है; और किसीका किया कुन होता नही: यही बात रास्त है. __ आस्तिकः- जो ऐसे होवै, तो अल्लादुतालाने पैदा किये हुये, इमामे हसन औ दुसन, काफिरोंके हातसें कैसे मारे गये ? वे तो खुदाके प्यारे बंदे थे, तिनकू काफिरोने मारे, ये बड़ी अजायबकी बात है. तिनकू बचानेके वास्ते खुदा ना कौवत था ? इमाम किसीके गुनेहगारनी नही थे; वे क्यं मारे गये ? इसवास्ते जो होता है, सो तकदीरसें होता है. जो जैसा करता है, सो तैसा पावता है, तामें अनाहुतालाका कुब वास्ता नहीं है. यही बात रास्त है. ___५३ नास्तिकः- अनाहुतालाने इमामेंका दिल देखनेके वास्ते आजाब दियाथा. शास्तिकः- आजाब दिये शिवाय तिनोंके दिलकी वात खुदा नही जाणता था! जो कहोगे की नही जाणताथा, तो खुदामें खुदापना क्या रहा ! खुदा तो सब जानता है, ऐसे तुमारे कुरानेशरीफमें कहा है. एसे होके नो इमामोंकू मारनेकी दयानत जो काफरोने करीथी सो खुदा जानके नी कैसे चुप रहा ! सवास्ते ये बात नी गलत है. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. २०५ ___५४ नास्तिकः- आदमी मरगये बाद जीकू फिरस्त लेजाते हैं ये बात तो सच है की नही ? __ आस्तिकः- इस बातर्फे कौन फूठ कहता है ? लेकीन समजमें कुल फरक है. तुम कहेते हो की कोयामततक जीकू एक ठिकाने में रखते हैं, पीछे खुदाके पाश ने जाके इन्साफ करवाते हैं; ऐसे नही दोवै है. लेकीन नसीवरस्त जी अपनी त गदीरके लिये अजा या बुरा फल पावता है. तुमनी सुरव, फुःख, नेहेस्त श्री दोज क तो मानते हो ! सो जैसी जीने करनी करी होवै तेसी गति उसकु मलती है. ___ ५५ नास्तिकः- अनादुतालाने असे फरमाया है की जो किसीकू इजा देता है सो मारने लायक है. __आस्तिकः- कबू माबाप बोकरेकू इजा देते हैं, या कबु बोकरा माबापकू जा देता है; कबू पोर मुर्बिदकू इजा देता है, श्री कबू मुर्षिद पीरइजा देता है; कबू नौकर खाविंदकू इजा देता है, कबू खाविंद नोकरकू इजा देताहै; ऐसे खुदाकी खलकतमें जहांत के जी हैं, वे सब इजा देनेवाले होनेते जो सब मारने लायक हो वै तो खैर महिर कैसे रहेगी ! औ रहम करने लायक कोई भी नही रहेगां और इमामोकू जब काफरोने जा दी, तब तिनोकू कायके वास्ते इमामोने मारे नही इस वास्ते जो हो है सो तगदिरसें होवे एसे जानना चाहिये. ५६ नास्तिकः-मांसाबाहारी पापिष्ट कहे . या ऊनीयामां जलचर, स्थलचर, तथा खेचर प्रमुख जे नाना प्रकारना जीव , तेयोने वेशक मारी नाखवा, थने तेथोनुं मांस नक्षण कर. एम अमने साहेबे फरमाव्यं ने, ते प्रमाणे करवामां गुं गुनाह तथा पाप ? आस्तिकः-तमारा कह्या प्रमाणे जीवने मारवं ए खुदानो दुकम ले, ते कोई ए फेरववो जोये नही. जो फेरवीए तो गुनेहगार तरीए, एम सिह थायले ; त्यारे | कोई वाघ अथवा सिंह प्रमुख मनुष्यनो थाहार करनार जीव, तमने मारवा था वेडे, तेथी मरीने तमे केम नाशी जायोडो? थने ते प्राणीने नाना प्रकारना ह थीपार वगैरेनी सहायता व केम मारवा तैयार थायोडो? घने जो ते जीव तमारा दावमां श्रावी जाए तो केम मारीनारखो बो? जेम खुदाए तमने जीव मा रवाने फरमाव्यु ले तेम तेश्रोने पण मनुष्य मारवाने फरमाव्यु ! ते प्रमाणे तेश्रो पोतानुं कृत्य करेले; तेथोने मार लायक नथी. जो तेथोने मारवार्नु त मने लायक दीशतुं होय, तो जे जीवोने तमे मारोबो, तेश्रोए अथवा तेथोने वा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आस्तिक नास्तिक संवाद. स्ते कोई बीजा प्राणीए तमने मार, पण नालायक नथी ; लायकज बे. माटे जेम वाघ वगैरे प्राणीयो जीव घातक होवाथी मारवा योग्य ले. तेम तमे पण जी व घातक होवाथी मारवा योग्य बो. एम तमारे कबूल करवू जोशे. जो कबूल नही करशो, तो खुदाना गुनेहगार ठरशो माटे हे महामदीयन मुसलमीनो वगैरे, जीव मारवामां खुदानोदुकम होयज नही. जो एम होय तो खुदा रहम विनानो ठ रे. खुदा तो रहमदिल डे, एवं तमारा रसूलिलाए कुरानेशरीफमां फरमाव्यु : तेने बाध आवशे. ए नपरथी एबुं जणाय ने के, कोई एक पुरुषने कोई कारणने ली धे अचानक मांसनो आहार मली गयाथी, तेने तेनो स्वाद लागो तेथी, व्यसन पड़ी गयुं, ने पनी लोकापवादसारु खुदाए फरमाव्यु , एम कहीने बचारा खुदाने हिंसक ठेरव्यो जणाय छे. तेमां केटलो गुनाह ! एनो विचारतो करो! ते प्राणीप्रोने मार वाने खुदा फरमावे त्यारे बीजी अन्नादिक वस्तुओ पेदा शावास्ते करे ? ए नपरथी साफ जणायचे के, अन्नादिक वस्तु खावायोग्य , पण मांस खावायोग्य नथी. ते म बतां जे जीनना स्वादने अर्थ खायचे ते रादसतुव्य जाणवा. वली मुसलमीन प्रमुखने बीजुं युक्तिथी समजावे ले के, तमारा किताबोमां श्रा बने पाक वस्तु कहीने, अने पिशाबने नापाक वग्नु कहीने, पाक वस्तुथी जे पे दाश थायले, ते पाक कहेवायडे,अने नापाक वस्तुथी जे पेदाश थाय ते नापाक कहेवायचे. जेम के, अन्न वगैरे पदार्थों जे पाणी थी पेदा थायले, ते पाक थने पिशाबथी जे कीटकादिक पेदा थायडे, ते नापाक ले. एवं तमे पण मानो बो. परंतु तेम चालता नथी. केमके मांसाहार करो बो. जुधोके प्राणिमात्र पिशाबनी पेदाश ले. ते पिशाब ज्यारे नापाक त्यारे तेथी पेदा थयेला प्राणीयो केम पाक होय! ते ओना मांसने तमे पाक मानो हो, ए केटली बेवकूफी वारु ! जो मांसने पाक मा नशो तो पिशाबने नापाक कहेवाशे नही; ने जो पिशाबने नापाक मानो तो मांस ने पाक मानशे नही. जे, कारण तेवो कार्य एवो मुनीयामां नियम ले. ज्यारे पि शाब जेवो मांस बे, त्यारे तेनो थाहार कस्याथी दोजकमां गयाविना केम रहेशो! एनो पाको विचार करीने मांस नहाण मूकी द्यो; अने पाक पाणीनी पेदाश अन्न फल, तथा फूल वगैरे अनेक स्वादिष्ट पदार्थोनो याहार करोने ! परंतु तमे मानशो नही. केमके एतो जन्मनी आदत पडीगई ले. कयुं के, तहाड जाए रुए ने बाद त जाय मुए; तेम तमारी थादत हमणा जनार नथी; पण याद राखजो के किया मतने दहाडे जबाब देवो पडशे त्यारे अांखो, फाटीने पडोला थशे हो ! Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. २०७ ५७ नास्तिक:- याज्ञिक नास्तिको प्रश्न करे ले के, यज्ञनेविषे होम करवासारु जी वने मार योग्य. केम ए कृत्य शास्त्रविहित बे; माटे एमां पाप नथी; पण पुण्य बे. यज्ञार्थे जे जीव मरे बे. ते स्वर्गमां जायते; माटे ते केम न करवुं ? प्रास्तिकः- यज्ञादिकने अर्थे जे जीवनी हिंसा करवी ते योग्य नथी. केमके, हिंसानो परिणाम ते पुण्य होयज नहीं; किंतु पाप होय. एवो नियम बे. जे शा स्त्रोम पशु होमवानुं कयुं बे, ते शास्त्र नही पण कुशास्त्र बे ने तेनी रचना कर नारा मनुष्य नही पण मनुष्यरूपे राक्षस बे: एम निश्चय जाणवुं. जे पापने पुण्य माने तेना करतां बीजो पापी कोण ! यज्ञमां होमायनुं जीव जो स्वर्गमां जतुं होय तो यज्ञ करनारा तथा करावनारा पोते होमाईने केम स्वर्गमां जता नथी ! पोते एम करता नथी तेथीज जलाय ने के, ए कल्पित वचन बे; यज्ञमां पश्वादिकनो होम शिव, ब्रह्मा खने विष्णु व्यादिक देवताने यर्थे करेले. खने तेनो बली नोग ते देवताओ लिये. ए वात जो साची होय, तो ते देवताओ मांसाहारी ठरो. देवताने जो मांस भक्षण करवानी यादत होय, तो तेयो मनुष्यना हाथे शा सारु लीये ! गुंते पोते श्राहारने अर्थे मांस मेलवी शकता नथी ? तेस्रो तो मोटा सामर्थ्यवान कहेवायचे. ते सामर्थ्य केम फोरवता नथी ! जे जीवना मांसनो बलिदान खोने यापेढे, ते जीवोनी उत्पत्ति पण तेस्रो पोतेज करेबे; एम तमे मानो बो. पोते जीवोने उत्पन्न करी तेने मनुष्यना हाथे मरावीने तेनो बलिदान पोते जेवो ए चुं देवताखोने योग्य ते ! एम तो कोई साधारण माणस पण करे नही, ते कृत्य देवताने केम संजवे ? जो ते देवताओने मांस नक्षण करवानी होस होय, तो पोताने माटे जुदीज जातना कोई जीव विनाना एवाज स्वादवा ला पदार्थनी उत्पत्ति करी, ते पदार्थनो प्रहार करवाने गुं हरकत बे ? माटे धी वात मनकल्पित बे, उत्तम देवतायोनेविषे एवी कल्पना करवी योग्य नथी. जो ए वात तमारा कह्या प्रमाणे साची होय, तो ते उत्तम देव नही, पण श्रधम कवाय. याज्ञिक लोको होमादिकने अर्थे जीवघात करी, तेनो बलिदान दीधा यी पोताने जक्त समजे बे. पण एहवुं नक्तनुं लक्षण होय नहीं; देवनतनुं अंतःकरण शुद्ध होय. तेमां मलिन वासना उत्पन्न यायज नहीं. जो मलिन वासनावालाने नक्त कहिये, तो अनक कोने कहीभुं ! माटे एवं हिंसारूप कृत्य करनारने जक्त मानवो नही; पण अजक्त मानवो. अने ते निश्चय नरकगामी बे, एमां रंचमात्र संशय खापवो नही. ए ब Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ आस्तिक नास्तिक संवाद. ५७ नास्तिकः-कोइ वेदधर्मी प्रम करेले के, तमारा जैनमतमा जीवना स्वरूपा दिकनेविषे केवीरीते वर्णन करेलुंजे ? तेने उत्तर दिये ले के, सर्वज्ञ केवलीए आवी रीते कह्यु :-सर्व लोकनेविषेधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय थाकाशास्तिकाय,काल,जीवा स्तिकाय तथा पुजलास्तिकाय एब इव्य नरपूर जे. ए बए ऽव्य पोतपोताना गुण तथा पर्याये करी पूर्ण ने. सदा नावरूप ले. जगतनी स्थिति जेम वर्तमान कालमां , ते मज जूत कालमा हती. अने नविष्य कालमां पण एवीरीतेज जाणवी. ते मध्ये जीव अने पुद्गल अनंत काल लोलुपनूत . एटले जेम वीर तथा पाणी अने मृत्तिका तथा धातुनुं मिश्रण थयाथी एक रूप बनी जाय ले. तेम जीव तथा पु जलोपण एकरूपे रहे ले. समय समयने विषे नवां कर्म जीवबांधे जे. अने समय स मयने विषे पूर्व कर्म निजरीने छूटी पण जाय ले. कर्मोनी उत्पत्ति तथा नारामां ईश्वर- कांश कारण पणुं नथी ईश्वर तो अकर्ता ले, तेने विषे का पणुं कल्पाय नही. माटे ईश्वर कोईनुं कारण नथी. काल, स्वनाव, नियत, पूर्व कर्म, तथा पु रुषाकार ए पांच कारणो नत्पत्तिना कह्यां बे. एणे करीनेज पुण्य पाप जन्य स्व र्ग नरकने विषे गमनागमन थाय . अने दमकमां जे नरक, तिर्यच, मनुष्य त था देवतानी चोवीश गतियो कही जे. ते प्रमाणे नवपरंपराने पामेजे. अने पो ताना नपार्जेला शुनाशुन कर्म नोगवे . ते ते नवने विषे झानावरणादिक आ ठ कर्मने अनुसारे वर्ते जे. जेम माटीनी नरेली तूंबी जलमां नाखीए तो ते मा टीना नारने लीधे मूबी जाय जे. पी जेम जेम ते माटी, तेमांथीयोबी थती जा य तेम तेम ते तूंबी उपर आवती जाय . ज्यारे बधी माटी नीकली जाय त्यारे पा णीनी नपर तरती रहे ले. पण पाणीथी नपर जाय नही तेवी रीते जीव पाप कर्मथी पायो थको अधोगतिने पामे बे. पनी जेम जेम ते कर्मनी न्यूनता थती जाय तेम तेम ते कर्ध्व गतिने पामतो जाय जे, ज्यारे बधा कर्मानो नाश थ ई जाय ले. त्यारे ते जीव लोकायने विषे प्राप्त थाय छे; पण तेनी उपर अलोक मां गमन करतो नथी, जेवी रीते तुंबी जलना योगे तुंची आवे , तेम जीव ध मास्तिकायना योगे लोकांत रूप कवं गति पामेले. वादी धाशंका करे ले के, मनुष्य शाना बलथी सात राज लोक सुधी ऊर्ध्व ग मन करे ? जीव तो चौदमे गुणगाणे अयोगी याय जे. एनो उत्तर दिये ले के, जेम धनुष्यथी जे बाण बूटे बे. ते पूर्व जोरना बलथी चाले. तेने वचमां बीजो को ई चलावनारो जोई तो नथी, ज्यारे धनुष्यमाथी बाण लूटे , ते हणने विषेज नि - . - Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. यमित ठेकाणे पहोतो एम समजवू. ए विषय उपर बीजा पण त्रण दृष्टांतो . कुंनकारनो चक्र, अमिनो धूमाडो, तथा एरंडीयो ए चार दृष्टांत वडे जाणी लेवू. एए नास्तिकः-कर्मदय थया पनी जीव अलोकनेविष केम जतो नथी! जो जायतो वचमां तेने कोण रोकनारो ? आस्तिकः-चलन शक्तिने सहाय आपनारूं जे धर्मास्तिकाय इव्य, तेनुं त्यां आलंबन नथी. धर्मास्तिकाय इव्य लोक प्रमाणेज . ते थकी अधिक नथी. तेथी अलोकमां जवाने जीव तथा पुजलनी गति थती नथी. ___६० नास्तिकः-कर्मोनो क्यं करीने सिझावस्थाने पामेला जे सिह जीवो ते सिध्देत्रे समश्रेणीए जायले. पण स्थानांतरनेविषे जता नथी तेनुं कारण गुं ? __ आस्तिक--ते समयनेविषे कोई प्रेरक नथी. प्रेरणाविना चक्रनमण थाय नही, तेथी सिझना जीवो समश्रेणीए सिमसिला उपर जाय. ६१ नास्तिकः-सिने शरीरनो अनाव थायले. त्यारे अवगाहना केम कही ? आस्तिकः-जेम ढारानुं वासण बनाववाने अर्थे प्रथम तेना जेवो मेनो आ कार करवो पडेले. तेमां ते रस श्रोत्याथी ते धातुनो तेवो आकार थायजे. ते वासण मेणथी बूटू कस्या पली पण मेणनो आकार थाय. कदाच मेण गाली नारखीए तो पण ते आकारपणुं जतुं नथी, केमके वासणनो आकार जे कायम रहे. ते पण ते मेणना आकार जेवोज डे; तेथी आकारपणुं कायम रहे तेम जीव जे शरीराकारे थयो. ते शरीरनो अनाव थया पली पण सिम पुरु पनो आत्मा ते शरीरनी अवगाहनारूपे रहे. एटले आनखाने अंते जेवो सि बना शरीरनो आकार रहे. तेवोज जीवना प्रदेशोनो अरूपी श्राकार रहे. __६२ नास्तिकः--जेम जलमां जल मले ते एकरूपे थई जायजे. निन्नता देखा ती नथी, तेम अनंत सिह एकरूपे थई रहेछे के चेतन इव्यपणुं जुडं जुडं बे. __ आस्तिकः- ज्यारे जलना बिंओ मलीने एक जलनो पिंम थाय; त्यारे एक ज जल कहेवाय. पण ज्यारे जलना बिंड जुदा जुदा होय त्यारे बिंड कहेवा यले. एक जल कहेवाय नही. तेम सिह पणे सर्व एकज बे; परंतु चेतन ६ व्ये करी सर्व निन्न निन्न ले. ते उपर दृष्टांत; जेम अनेक शीपीयोथकी उत्पन्न थएला अनेक मोतीओ जुदा जुदा होयजे, तेथोमांना केटलाएक लईने एक मोटो ढगलो करिये. ने पढ़ी तेयो विषे विचार करिये के ए ढगलामा एकता अनेकता गुं ? तो तरत जणाशे के ते मोतीयो नज्वलता गुणरूपे सर्व एक बे. पण Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तिक नास्तिक संवाद. काररूपे सर्व जुदा . तेभ सिद्धो सर्व सिद्धतारूपे तो एक बे. पण चेतन इव्य रूपे जुदा, एविषे धान्यना पुंज वगैरे घणा दृष्टांतो बे तेथी विचार जेवुं. वली सर्व सोनुं सिद्धरूपपणुं एक सरखुं होवाथी जाति वाचकपणे तेस्रो एकज कहेवाय; पण इव्यपणे अनंता कहेवायवे, माटेज जगतमां एवी वदंता बेके, " प्रभु एकमां अनेक बे, घने अनेकमां एक बे” कोई सिद्ध मां मोटा नाहनाप नथी, सर्व समान बे मोटामां मोटापणुं तेनी पोतानी अपेक्षा ए नथी यतुं पण बीजा नाहनानी अपेक्षा ए थायले, मोटो पोताना स्वरूपे करी चुं मोटापएं पामेवे, जो मोटो कहेतुं तो कोई काले नाहानो थवानो संभव थशे अने नहा नो थयाथी स्वरूपमा अपूर्णता यज्ञे, माटे सिद्ध बधा सरखा बे. एम जाणवुं. खने सिद्ध जनना कर्मना अंश सर्व दय थई गयाथी पुनरपि जगतमां यागमन तुं नथी. जेम गुंजेला अनाजना दाणाने पृथ्वीमां वावीए तो ते उगे नही; तेम सि-६ पण पाढा संसारी जीव थाय नही. केमके संसारमां यावदुं कर्म विना यतुं नथी. ६३ नास्तिक:- ईश्वर पृथ्वीनो नार उतारवाने अर्थे अवतार धारण करेले ए वात सत्य के मिथ्या ? २१० प्रास्तिक:- ईश्वरने तो कोई शत्रु मित्र नाव नथी. तेम बतां दानवने मार वासारु तथा देवतायाने निर्भय सुखी करवासारु अवतार धारण करे तो दानव शत्रु ने देवता मित्र तया के नी! जेने शत्रु मित्र नाव होय तो ते ईश्वर शानो ! खने दानवोने प्रथम उत्पन्न शासारु कस्या के जेोने मारवासारु पो ताने माताना उदरमां यावी नाना प्रकारनी वेदना सहन करीरी संग्रामादिक आपत्ति वेठवी पडी ! वली दानव ने देवताओोनो ईश्वर तो एकज बे, सर्वमां तेज ईश्वरनी कला बे. तेम बतां दानवनी उत्पत्ति करी तेथी ईश्वरमां ज्ञानपएं वशे संसारमां त्रण प्रकारना जीव होय बे. एक धर्मी, बीजा पापी, त्रीजा महापापी. जे कोईने मारे नही ते धर्मी कहेवायले. जे बीजा जीवने मारे ते पापी कवायवे ने जे पोताना जीवनो घात करे ते महापापी कहेवायले. ईश्वरे देव तथा दानव वगैरेनी उत्पत्ति कर तेमां पोते अंशरूपे प्रवेश को aai तेने माखाथी आत्मघाती ठरशे ने तेम तस्याथी महापापी कहेवाशे. ६४ नास्तिकः - स्नाने करीने शुद्ध वुं ए मुक्तिनुं अंग बे. प्रास्तिकः - पेटमा रोग होय ने शरीरनी बाहेर लेप लगाडीए तो ते रोग कदी मटे नही. तेम श्रात्माना कर्म विकार ते शरीर गुचिथी कोई काले जाय नही. ए Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक संवाद. ११ उपर दृष्टांत कहूँ . जेम कोई मोटी हवेलीमा बालक मूतस्यो होय ते शुरू करवा ने जेटली नूमि बगमी होय तेटलीज धोवी जाइये. तेम शरीररूप हवेली कर्मे करी मलीन थई होय तेटलीज तपसायें करी शुरू करवी. पण आखा शरीरने स्नान, मऊन, स्वज वस्त्रादिक, तथा सुगंध्यादिक करवानु कांई काम नथी; स्नान तो सोल शृंगारमांनो प्रथम शृंगार .ते सर्व शृंगारनो त्याग करे त्यारे ब्रह्मचारी कहेवाय. कर्म निर्जराने अर्थे मुनिने ब्रह्मचर्य व्रत पालवो कह्यो तेथी पण स्नान करवू नही एवं सिह थाय . ६५ नास्तिकः-यह उनिया सब खुदाने पैदा करी है. आस्तिकः-यह ऽनिया सब खुदाकी करी होवै तो जो खुदाका बंदा हरवखत खुदाकी बंदगी करै, कुरान बांचे, नमाज करे, औ रोजा रखै, तिसीकू उनीयांकी नियामते जैसेकी आल औलाद श्रौ पैसा वगैरा मिलना चाहिये; औ हिंऽ व गैरा सब फकीरके माफक होना चाहिये. तैसे तो नही होता है. दूसरे नी थ बी सल्तीनत वाले आंखोके सामने मौजूद है. इस वास्ते ये बात रास्त नही है जो होवै है सो सब तकदीरसे होवै है. ६६ नास्तिकः-या संसार रामे उत्पन्न कस्यो बे. __ आस्तिकः- जो था जगत रामनु उपजावेखं होय. तो जेथो हमेश रामनीन क्ति करे. पुराण वांचेले. वंदना करे. तथा एकादशी आदिक व्रत राखे तेश्रोने सर्व व्यादिक संपत्ति मलवी जोये. बीजायोने विपत्ति होवी जोये. ते म तो दोगामां आवतुं नथी. बीजा मुसलमानादिक पण महा संपत्तिवान दीठा मां आवे ने तेथी बधुं कर्माधीन बे. __६७ नास्तिकः- अंगदान ( कन्यादान ) दीधाथी पुण्य थाय ने. केमके. स्त्रीपु रुष हलीमली मैथुन क्रियाना सुरखने पामे ले. तेनुं फल दानदेनाराने थायले. ___ आस्तिकः-नाई, तारा जेवो पूर्वपदी तो एके मल्यो नथी. तें तो आडो आंक वाल्यो. पण नाई, मैथुन किया तो सर्व थकी अगु६ : यवन लोको पण इमाम ना दशरानी क्रिया करे: त्यारे मैथुन सेव्याना वस्त्र पहेरीने करता नथी केमके ते वस्त्रने तेश्रो नापाक कहे. तेमज हिंड्यो देवपूजामां, व्रतने दिवशे तथा तीर्थयात्रामा मैथुननो त्याग करे. जे मुमुख (मुक्तिनी ना करतो होय) तेणे प्रथम मैथुननो त्याग करवो. ए कृत्य नरकनो हेतु दोवाथी सर्वथा निंदनीक ले. इति श्री बास्तिक नास्तिकनो संवाद संक्षिप्त रूपें समाप्तः Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सम्यक्त सडसम्बोल सकाय. ॥ श्री जिनाय नमः ॥ अथ श्रीयशोविजयजी उपाध्यायकृत सम्यक्तना सडसव बोलनी सजाय प्रारंभः ॥ ॥ ॥ दोहा ॥ सठ बोलनी । कहि I सुकृत वल्लिकादंबिनी । समरी सरसति मात ॥ समकित सड मधुरी वात ॥ १ ॥ समकित दायक गुरुतणो । पच्नुवयार न थाय ॥ नव कोडाकोडे करी । करतां सर्व उपाय ॥ २ ॥ दानादिक किरिया न दिये । समकित वि शिवशर्म ॥ तेमाटे समकित वडूं । जाणो प्रवचन मर्म ॥३॥ दर्शन मोह विनाशथी । जे निर्मल गुणगण || ते निश्चय समकित कह्यो । तेहना एहि ॥ ४ ॥ ॥ ढाल || देइ देइ दरसण आपणू, एदेशी ॥ ॥ चन सद्दहणा तिलिंग बे | दशविध विनय विचारोरे ॥ त्रि बुद्धि पण दूषण | खाव प्रजाविक धारोरे ॥ ५॥ चटक ॥ प्रनाविक प्रड पंच नूषण । पंच लक्षण जाणियें ॥ षट् जय पद् यागार नावन | विदा मन थापियें ॥ ५ ॥ षट वाल समकित तणा सडसव | नेद एह उदार ए ॥ एहनो तत्व विचार करतां । लहीजे नवपार ए ॥ ६ ॥ ढाल ॥ चदु विह सदहा तिहां । जीवादिक परमबोरे ॥ प्रवचनमां जे जाषिया । लीजे ते airat ॥ ७ ॥ e ॥ तेहनो अर्थ विचार करिये । प्रथम सहा खरी ॥ बीजी सहणा तेहना जे | जाए मुनिगुण जवहरी || संवेग रंग तरंग कीजे । मार्ग शुद्ध कहे बुधा || तेहनी सेवा कीजिये जिम । पीजिये समता सुधा ॥ ८ ॥ ढाल ॥ सम केत जेणे ही वमिकं । निन्हव ने बंदारे || पासबाने कुशीलिया ते । वेष विमंबक मंदारे ॥ ए ॥ त्रूटक ॥ मंदा खनाणी दूर ढंको । त्रीजी सणा ग्रही ॥ परद शनीनो संग तजिये । चोथी सहहणा कही || हीणातलो जे संग न तजे । तेनो गुण नवि रहे || ज्यूं जलधि जनमां नयूं गंगा | नीर जूपणू लहे ॥ १०॥ || ढाल || कपूर होवे प्रति कजलूं रे; एदेशी ॥ ॥ त्रण लिंग समकित तपारे । पहिलो श्रुत निलाष ॥ जेहथि श्रोता रस लहेरे । जेवो साकर खरे। प्राणी, धरियें समकित रंग । जिम लहिये सुख अनंग रे । प्राणी, टेक ॥ ११ ॥ तरुण सुखी स्त्री परिवखोरे चतुर सुणे सुरगीत || तेहथि रागे प्रति घणो रे । धर्म सुल्यानी री तरे । प्राणी० ॥ १२ ॥ नूख्यो घटवी तस्यो रे । जिम द्विज घेवर चंग || बे तिम जे धर्मने रे । तेहिज बीजूं लिंग रे । प्राणी० ॥ १३ ॥ वैयावच्च गुरु देवनूंं 1 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त सडसम्बोल सजाय. २१३ रे । त्रीजुं लिंग नदार ॥ विद्या साधक तणि परे रे । आलस नविय लगार रे । प्राणी॥१॥ ॥ ढाल ॥ प्रथम गोवालातणे नवेजी, ए देशी॥ ॥अरिहंत ते जि न विचरता जी ॥ कर्म खपी दुआ सि६ ॥ चेश्य जिण पडिमा कही जी। सूत्र सिद्धांत प्रसिः । चतुर नर, समको विनय प्रकार । जिम जहिये समकित सार। चतुर ॥ १५ ॥ धर्म खिमादिक नाखेयो जी। साधु तेहना गेह॥याचारय था चारना जी। दायक नायक जेह । चतुर ॥ १६ ॥ नपाध्याय ते शिष्यने जी। सूत्र नणावण हार ॥ प्रवचन संघ वखाणिये जी। दरसण समकित सार । च तुर ॥ १७॥ नगति बाह्य प्रतिपत्तिथी जी। हृदय प्रेम बहुमान ॥ गुण थुति अवगुण ढांकवा जी। आशातननी हाण । चतुर ॥ १७ ॥ पांच नेद ए दश त णो जी। विनय करे अनुकूल ॥सीचे तेह सुधा रसें जी। धर्म हद मूल । चतुर॥ ॥१॥ ढाल ॥ ॥धोबीडा तूं धोए मन, धोतीयू रे॥ ॥एदेशी॥ ॥त्रण दिसम किततणी रे । तिहाँ पहिली मन शुदिरे ॥ श्री जिनने जिनमत विना रे । फूठ स कल ए बुद्धि रे॥ चतुर विचारो चित्तमां रे । टेक ॥ २० ॥ जिन जगते जे नवि थयु रे । तेबीजाथि नवि थाय रे॥ एवं जे मुख नाखिये रे। ते वचन शुद्धि कहिवाय रे । च तुर० ॥ २१॥ळेद्यो नेद्यो वेदना रे । जे सहतो अनेक प्रकाररे ॥जिण विण पर सुर नवि नमे रे। तेहनी काया शुरू नदाररे । चतुर ॥२॥ ॥ढाल ॥मुनि जन मारगनी, ए देशी ॥ ॥ समकित दूषण परिहरो । तेमा पहिली ने शंका रे ॥ ते जिन वचन मां मत करो ॥ जेहने समनप रंकारे । समकित दूषण परि हरो ॥ टेक ॥ २३॥ कंखा कुमतनी वांडना । बीजूं दूषण तजिये ॥पामी सुरतरु परगडो। किमबागल नजिये ॥ समकित ॥ २४॥ संशय धर्मना फलतणो । वित्तिगिला नामे ॥ त्रीजूदूषण परिहरो। निज गुन परिणामे ॥ समकित० ॥ २५ ॥ मिथ्यामति गुण वर्णनो । टालो चोयो दोष॥ उन्मारगि शुगतां दुवे । उनमारग पोष ॥समकित० ॥ २६ ॥ पांचमो दोष मिथ्यामती। परिचय नवि कीजे ॥ श्म गुन मति अरविंदनी । न ली वासना लीजे ॥ समकित ॥ २७॥ ॥ ढाल ॥ नोलिडा हंसारे विषय न रा चीये, ए देशी ॥ आठ प्रनाविक प्रवचनना कह्या । पावयणी धुरि जाण ॥ व तमान श्रुतना जे अर्थनो । पार लहे गुण खाण ॥ धन धन शासन मंमन मु निवरा । टेक ॥ २७ ॥ धर्म कथी ते बीजो जाणिये । नंदिखेण परि जेह ॥ नि ज उपदेशेरे रंजे लोकने । जे हृदय संदेह । धन धन ॥श्ए॥ वादी त्रीजोरे त के निपुण नस्यो । मनवादी परि जेह ॥राजदारेरे जयकमला वरे । गाजतो जिम Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सम्यक्त सडसम्बोल सजाय. मेह । धन धन ॥ ३० ॥ नवादु परि जेह निमित्त कहे । परमत जीपण का ज ॥ तेह निमित्तीरे चोथो जाणिये । श्री जिनशासन राज । धन धन०॥३१॥ तप गुण कपर रोपे धर्मने । गोपे नवि जिन आण ॥ आश्रव लोपेरे नविकोपे क दा। पंचम तपसी जाण | धन धन ॥ ३२ ॥ तो विद्यारे मंत्र तणो बलि । जिम श्रीवयर मुणिंद ॥ सिम सातमोरे अंजन योगथी। जिम कालिक मुनि चंद । धन धन० ॥ ३३ ॥ काव्य सुधारस मधुर अर्थ नया । धर्म हेतु करि जेह ॥ सिइसेन परि नरपति रीजवे । अहम वर कवि तेह । धन धन ॥ ३५ ॥ जव नवि होवे प्र नाविक एहवा । तव विधि पूरव अनेक ॥ जात्रा पूजादिक करणी करे । तेह प्रनावि क क । धन धन ॥३५॥ढाल॥ सतीय सुनज्ञनी। ए देशी॥ ॥सोहे समकित जेहथी। सखि जिम आनरणे देह ॥ जूषण पांच ते मन वस्यां । सखी मन व स्यां । तेमां नदी संदेह । मुफ समकित रंग अचल होयो । टेक ॥३६॥ पहि खं कुशलपणुं तिहां । सखी वंदन ने पञ्चखाण ॥ किरियानो विधि अति घणो । सखी आचरे तेह सुजाण । मुफ ॥ ३७॥ बीजूं तीरथ सेवना। सखी तीरथ तारे जेह ॥ ते गीतारथ मुनिवरा । सखी तेहसू कीजे नेह । मुफ० ॥ ३७ ॥न गति करे गुरु देवनी । सखी त्रीजू नूषण होय ॥ किणहि चलाव्यो नवि चले । सखि चोथु नूषण जोय । मुफ० ॥ ३५ ॥ जिनशासन अनुमोदना । सखी जेह थी बदु जन ढुंत ॥ कीजे तेह प्रनावना । सखी पांच जूषणनी खंत । मुक० ॥४०॥ ॥ ढाल ॥ इम नवि कीजे हो, ए देशी॥ ॥ लक्षण पांच कह्यां स मकित तणा । धुर उपशम अनुकूल । सुगुण नर ॥ अपराधी सूं पण नवि चि तथकी। चिंतवियें प्रतिकूल । सुगुण नर । श्री जिननाषित वचन विचारिये । टेक० ॥४१॥ सुरनर सुख जे दुःख करि लेखवे । वंडे शिवसुरख एक ॥ सु० ॥ बीजूं लक्षण ते अंगीकरे । सार संवेग सुंटेक । सु श्रीजिन०॥४२॥ नारक चारक स मनव मनग्यो। तारक जाणिने धर्म । सु०॥चाहे निकल, निर्वेद ते । त्रीजू ल कृष्ण मर्म । सु० । श्री जिन ॥ ४३ ॥ इव्यथकी दुःखियानी जे दया । धर्मही पानी नाव । सु० ॥ चोथु लक्षण अनुकंपा कही । निज शकते मनल्याव । सु० श्रीजिन ४४ ॥ जे जिन नाख्यं ते नहि अन्यथा । एहवो जे दृढ रंग । सु० ते आस्तिकता लक्षण पांचमुं । करे कुमतिनो ए नंग । सु । श्रीजिन ॥१५॥ ॥ ढाल ॥ जिन जिन प्रति वंदन दिसे, ए देशी ॥ पर तीर्थी परना सुर तेणे । चै त्य ग्रह्यां वलि जेह ॥ वंदन प्रमुख तिहां नवि करवू । ते जयणा षट नेय रे । - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त सडसम्बोल सजाय. १५ नविका, समकित यतना कीजे । टेक ॥ १६ ॥ वंदन ते कर जोडन कहिये । न मन ते शीस नमाडे । दान इष्ट अन्नादिक देवू । गौरव जगति देखाडेरे । नवि का० ॥ ४७ ॥ अनुप्रदान ते तेहने कहिये। वार वार जे दान॥ दोष कुपात्रे पात्र मतिये । नहि अनुकंपा मान रे । नविका० ॥ ४० ॥ अण बोलावे जेह ना खवू । ते कहिये आलाप ॥ वार वार बालाप जे करवो । ते कहिये संलाप रे । नविका ॥४॥ ए जयणाथी समकित दीपे । वलि दीपे व्यवहार ॥ एमां पण कारणथी जयणा। तेना अनेक प्रकार रे । नविका० ॥ ५० ॥ ढाल ॥ ललना नीदेशी ॥ गुरू धरमथी नवि चले । अति दृढ गुण आधार ललना ॥ तो पण | जे नवि तेहवा । तेहने एह आगार । जलना ॥५१॥ बोल्यु तेहq पालिये। दंति दंत सम बोल । ललना ॥ सङनना उर्जन तणा । कन्डप कोटिने तोलाल लना।बो॥५॥राजा नगरादिक धणी । तस शासन अनियोग। ललना । तेहथी कार्तिकनी परे । नहि मिय्यात संयोग । ललना ॥बो॥५३॥मेलो जननो घण कह्यो। बल चोरादिक जाण । ललना ॥षेत्रपालादिक देवता । तातादिक गुरु वाण । ज सना॥बो॥५॥वृत्ति कुर्लन आजिविका । ते नीखण कंतार । ललना ॥ ते हेते दू षण नही। करतां अन्य याचार । ललना ॥बो॥५॥ढालाराग महार॥ नाविजे रेसमकित जेहथी रूअडूंते नावनारे नावो मनकरि परवडूं॥जो समकित रे ताजूं साजू मूल रे ॥ तो व्रत तरु रे दीर्य शिवपद अनुकूल रे॥५६॥त्रूटक॥ अनुकूल मू ल रसाल समकित । तेहविण मति अंध रे ॥ जे करे किरिया गर्व जरिया । तेह फूलो धंध रे॥ए प्रथम नावना गुणो रुपडी। सुणो बीजी नावना ॥ बार' समकि | त धर्मपुरनुं । एहवीते पावना॥५॥ढालात्रीजी नावना रे समकित पीठ जो दृढ स ही ॥ तो मोटो रे धर्म प्रासाद मगे नही ॥ पाश्ये खोटे रे मोटो मंमाण न शोनी ये ॥ तेह कारण रे समकितसूं चित थोनीयें ॥॥त्रूटक॥थोनीयें चित नित एम नावी । चोथी नावना नाविये ॥ समकित निधान समस्त गुणनुं । एह, मन ला वियें ॥ तेह विण बूटा रत्न सरिखा । मूल उत्तर गुण सवे ॥ किम रहे ताके जेह हरवा । चोर जोर नवे नवे ॥णाढाल॥नावो पंचमी रे नावना सम दम सार रे पृथवी परे रे समकित तस आधार रे ॥ बठी नावना रे नाजन समकित जो मि ले॥ श्रुत शीलनो रे तो रस तेहमां नवि ढले॥६॥त्रूटकानवि ढले समकित जाव ना रस । अमियसम संवरतणो ॥ षट नावना ए कही एहमां। करो आदर अ ति घणो ॥ इम नावता परमार्थ जलनिधि । होइ निनु ऊकजोल ए॥ घन पवन Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त सडसम्बोल सजाय. पुण्य प्रमाण प्रगटे।चिदानंद कलोल ए॥६१॥ढालाजे मुनिवेष सके नवी मी ए देश। ठरे जिहां समकित ते थानक । तेहना पट विध कहिये रे॥ तिहां पहिलं थानक क ने चेतन । लक्षण आतम लहियें रे ॥ खीर नीर परें पुजल मिश्रित । पण एहथी वे अलगो रे॥अनुनव हंस चंच जो लागे । तो नवि दीसे वलगो रे॥६॥ बीजू थानक नित्य आतमा । जे अनुभूत संनारे रे ॥ बालकने स्तन पान वासना । पूरव जव अनुसारे रे ॥ देव मनुज नरकादिक तेहना । जे अनित्य पर्याय रे ॥ इव्यथकी अविचलित अखंमित । निज गुण आतमराय रे ॥ ६३ ॥ त्रीजू थान क चेतन कर्ता । कर्मतणे ने योगे रे ॥ कुंनकार जिम कुंजतणो जे । दंमादि क संयोगे रे ॥ निश्चयथी निज गुणनो कर्ता । अनुपचरित व्यवहारे रे ॥ इव्य कर्मनो नगरादिकनो । ते उपचार प्रकारे रे ॥ ६४ ॥ चोथू थानक ते नोक्ता । पुण्य पाप फल केरो रे ॥ व्यवहारे निश्चय नय दृष्टं । चुंजे निज गुण नेरो रे ॥ पं चम थानक के परम पद । अचल अनंत सुख वासो रे ॥ आधि व्याधि तन म नथी लहिये । तसु अनावे सुख खासो रे ॥६५॥ तुं थानक मोदतणू । सं यम ज्ञान उपायो रे ॥ जोसहिजे लहिये तो सघले। कारण निःफलथायो रे ॥ कहे ज्ञान नय ज्ञानज साचूं । ते विण फूठीकिरिया रे ॥ न लहे रूपू रूपू जाणी । सीप जणी जे फिरियारे ॥ ६६ ॥ कहे किरियानय किरियाविण जे । ज्ञान तेह सूं करशे रे॥जल पेसी कर पद न हलावे । तारू ते किम तरसे रे॥ दूषण नूषण जे शहां बगुला । नय एकेकने वादे रे ॥ सिद्धांति ते बेहु नय साधे । ज्ञानवंत अ प्रमादे रे ॥ ६७ ॥ इणि परे सडसठ बोल विचारी । जे समकित बाराहे रे ॥ राग देष टाली मन वाली । ते समसुख अवगाहे रे ॥ जेहनो मन समकितमां निश्चल । कोई नही तस तोले रे ॥ श्री नय विजय विबुध पय सेवक । वाचक ज स इम बोले रे ॥ ६ ॥ 22. ICHAR 102) 10.20.CcCOG ॥ इति श्री सम्यक्त सडसम्बोल सजाय समाप्तः १R PAR CARA Ghorah, SNCU 55 CCC drabindu SHANT मल MHAPA CCC Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. ॐ श्री जिनाय नमः अथ श्री शंगारवैराग्यतरंगिणीप्रारंनः संस्कृतटीकाना को आरंनमा मंगलाचरण करे. नपजातिउत्तं ॥ श्रीपार्श्वनायं प्रणिपत्य नक्त्या पुरि स्थितं श्रीफलवचिकायां ॥ शंगारवैराग्यतरंगिणी या व्याख्याननाव्या क्रियते मया सा ॥१॥ अर्थः- श्रीफलवकिानामनी पुरीनेविषे स्थित श्रीपार्श्वनाथ नगवानने न क्तिवडे प्रणाम करीने शंगारवैराग्यतरंगिणी नदीनी नाविकारूप व्याख्या हुं करुंनु. __ अवतरण-श्रीसोमप्रनाचार्य, वैराग्यनी वासनावडे शृंगारने दूषित करनार | तां था शृंगारवैराग्यतरंगणी नामनो ग्रंथ करवानी कामनाएकर। स्त्रीरूप निं दा करवा योग्य वे एवं प्रतिपादन करे.॥ १ ॥ शार्दूलविक्रीडितंटत्तम् ॥ धर्मारामदवाग्निधूमलहरीलावण्य लीलाजुप स्तन्वंग्या यमितान्विलोक्य तददो वालान्किमु त्कंठसे ॥ व्यालान् दर्शनतोपि मुक्तिनगरप्रस्थानविघ्नद मान् मत्वा दूरममून् विमुंच कुशलं यद्यात्मनो वांबसि ॥२॥ अर्थः-अहो ! आ धर्मरूप वननेविषे दावाग्निना धुमाडानी पंक्तिना जेवा श्या मवर्णवाला, सूक्ष्मअंगयुक्त शरीरवाली स्त्रीयोना बांधेला जे वालो ने, तेने जोई। ने तूं केम आनंदने पामेले ? जो तूं पोतार्नु सारु थवानी इला करतो हो तो, जे ना दर्शनेकरी मुक्तिरूप नगरीना मार्गमां विघ्न थायडे, एवा वालोने व्याल (स प) रूप मानीने दूरथी त्याग कर. एणेकरी वैराग्यरस दावीने शंगारने दूषित कस्यो; जेम सर्प लांबा अने काला होय, तेमज स्त्रीना वाल पण लांबा अने काला होवाथी, तेश्रोतुं सादृश्यपणुं कझुंडे; जेम सर्पने जोतांज आपणे दूर नाशी जैये बैये. तेम ते वालोने जोतांज तेयोनो तिरस्कार करवो जोश्ये. शकुनशास्त्रमा कडंडे के, कोई बाहेर गाम कामे जतो होय ते वखते जो मा र्गमां साप मले तो ते काममा विघ्न पडतां ते कार्यनी सिदि थाय नही; तेमज Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. मुक्तिरूप नगरीना मार्गमां स्त्रोना वालरूप सर्प जो खाडे यावे एटले तेश्रोमां मोह उत्पन्न याय तो मोटो विघ्न थायले, माटे ए सर्वथा त्याग करवा योग्य d. उपर कं के, स्त्रीप्रना बांधेला वालने व्यालरूप जाए; ए ठेका कविए च मत्कार राख्यो ने के, वालशब्दमां यकार मल्याथी व्याजशब्द थायबे; माटे वा लने व्याल कहेतुं योग्य बे. एने श्लेषालंकार कहेले. या वृत्तमां, सर्प चालती वखते जेम वांकोचूको थई जायते; तेम स्त्रीना के श विडीयाला होय तेने कविलोको श्रेष्ठ कहेबे खने जेम सर्पनो रंग यति कालो होय, तेम स्त्रीना यति काला रंगवाला वाल होय, तो ते श्रेष्ट कहेवाय बे एवं रीते वालन] जे श्रेष्ठता बे, ते विषयक शृंगार रस दर्शाव्योबे, घने जे म मार्गमा सर्प ग्राम यावे तो कार्यसिद्धि थाय नही; तेम गुणस्थानक निसर fी चडतां पुरुषने वचमां स्त्रीना केशनो मोह उत्पन्न थयो तो तेथी श्रेणी यारो हनी सिद्धि यती नथी; एवी रीते वालनी जे निर्भर्त्सना कीधीले ते विषयक वैरा ग्य रस दर्शाव्यो. ॥ १ ॥ ये केशा लसिताः सरोरुददृशां चारित्रचं प्रनाभ्रंशां नोद सहोदरास्तव सखे चेतश्चमत्कारिणः ॥ केशान्मू र्त्तिमतोऽवगम्य नियतं दूरेण तानुत्सृजेनचेत् कष्टपरंप रापरिचितः शोच्यां दशामेष्यसि ॥ २ ॥ अर्थ :- हे सखा, कमलपत्रना जेवां नेत्रोवाली स्त्रीना देदीप्यमान केश, चा रित्ररूप चंड्नी ज्योतिनो नाश करवाविषे मेघजेवा बे; अने जे तारा अंतःकरणमां चमत्कार उत्पन्न करेबे, तेस्रो मूर्त्तिमान चतुरिंडियगम्य क्लेश बे; एम निश्चय जालीने दूर नाखी दे. जो एग्रोनो तुं त्याग करीश नही, तो तुं कष्टपरंपराएं युक्त rutunt शोक करवायोग्य व्यवस्थाने पामीश. या श्लोकमां स्त्रीना केशने क्लेशनुं सादृश्य कयुंबे, ते खावी रीते " लसित " ए शब्द मूलमां बे, एनो अर्थ लकारे कसित के तां युक्त, केशशब्दनी क्लेश शब्द थायले. या वृत्तमां, मेघना वर्णनी साथै स्त्रीना केशनी बराबरी करीबे. जेम या काशने विषे मेघ प्रति शोभायमान दीगमां यावे, तेम स्त्रीना मस्तकने विषे केश प्रति लसित एटले देदीप्यमान दीगमां श्रावे. स्त्रीनां केश जे चलकता हो यते श्रेष्ठ कहेवाय. ए मुख्य केशनी श्रेष्टतानो विषय कहेतां अंतरगत ते केश Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. धारण करनारी स्त्रीनां नेत्रोने कमलपत्र जेवां कह्यांठे ; ए बधो शृंगार रस जाण वो. अने स्त्रीना एवा केश जोईने पुरुषना अंतःकरणमा मदनादि विकाररूप चम त्कार उत्पन्न थायडे, माटे ते क्लेशरूप कह्याले; केमके, कामादि विकारो क्वेशरूप कह्याडे, क्लेशो अंतरना विषय होवाथी चढुना विषय नथी, तेथोएज जाणे केश रूप मूर्ति धारण करी होय नी ! एवी नत्प्रेक्षा थायले. एकारणथी स्त्रीना देदीप्य मान केशने क्वेशरूप आगीने तेनो तुं त्याग कर: एवडे वैराग्य रस दर्शाव्यो.॥२॥ वसंततिलकादत्तम्॥ ये शुबोधशशिखंडनरादुचंमाश्चित्तं हरंति तव वक्रकचा दृशांग्याः ॥ ते निश्चितं सुकृतमर्त्य - विवेकदेहनिर्दारणे ननु नवक्रकचाः स्फुरंति ॥ ३ ॥ अर्थः- हे पुरुष, निर्मल ज्ञानरूप चंन ग्रासन करवा विषे, स्त्रीना वांका के श, रादु जेवा क्रूर ले. ते तारा अंतःकरणमां चमत्कार उत्पन्न करेले. अर्थात् रा दु जेम चंइनो ग्रास करेले, तेम ए वांका केश तारा झाननो नाश करनारा ले. अने ते जाणे सुरूतरूप मनुष्यना विवेकरूप देहवें विदारण करवाने नवी कर्वत ज होयनी ! ए नत्प्रेक्षा ले. एमां “वक कच" एटले वांका केश ते “ नवकक च” एटले नवी करवतना जेवा जे. एमकह्याथी श्लेषरूप चमत्कार जाणवो. श्रा वृत्तमां, स्त्रीना वांका केश होय ते श्रेष्ट कह्याने. स्त्रीना वक्रकेश पुरुषना मनने मोहित करेले, एथीज अंतःकरणमां चमत्कार नत्पन्न करेले एम कर्दा जे, माटे ए शृंगार रस लेअने स्त्रीना वांका केशन दर्शन थतांज पुरुषy मन विव्हल थायजे, देहनी पण शुदि रहेती नथी, अने ज्ञाननो नाश थई जायने तेथी तेश्रोने राहुरूप कह्याले. तेमज विवेकरूप शरीरने कापवाने नवी कर्वत जेवा कह्याने, एवा जाणीने तेश्रोनो तुं त्याग कर. ए वैराग्य रस जाणवो. ॥३॥ नपजातिवृत्तम्॥अलंकृतं कुंतलनारमस्या विलोक्य लोकः कुरुते प्रमोदम्।।वैराग्यवीरच्चिरं पुरंत ममुं न किं पश्यसि कुंतनारम्॥४॥ अर्थः-हे पुरुष, पुष्पादिकेकरी गूंथेला स्त्रीना बांधेला केशोनो समूह एटाने आंबोडो जोईने लोक आनंदने पामेले; परंतु ए वैराग्यरूप वीरनुं छेदन करणा रुं प्रास नामक सुःसह शस्त्र ले. एम तूं कां जोतो तथी? अर्थात् स्त्रीना अलंकृत " कुंतलनार” एटले जे शणगारीने बांधेला केश ले, ते कुंतनार एटले प्रास नाम Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० शृंगारवैराग्यतरंगिणी. क शस्त्रज जे एम जाणवं. या तेकाणे असं एटले लकाररहित, कृत एटले करे लो, जे कुंतलनार शब्द, तेनो कुंतनार एवो शब्द थाय: ते योग्य ले. __ या वृत्तमां, पुष्पादिकेकरी शृंगारेलो स्त्रीना केशोनो अंबोमो पुरुषने एवो रम पीय लागे के, ते जोईने वैराग्यवान पुरुषनो वैराग्य पण मगी जाय; एवी श्रेष्टता कहीले, ते शृंगाररस ले. अने ते दुःखे करीने पण सहन न थाय एवा प्रास नामक शस्त्ररूप बतां वैराग्यनो नाशकरनारो : माटे तेनो त्याग कर: ए वैराग्य रस . ॥ ४ ॥ . वसंततिलकाटत्तम् ॥ कस्तूरिकातिलकितं तुलिताष्टमी चित्ते विचिंतयसि सौख्यानिमित्तमेकम् ॥ वामध्रुवां यदलिकं तददो अलीकमित्याख्ययैव परया प्रवदंति रूपम् ॥५॥ अर्थः-हे पुरुष, जेमां कस्तूरीनो तिलक कस्योरे, तेथी अष्टमीना चं जेवी जेनी सुंदर नृकुटी देखाय , ते अदितीय सौख्यनुं कारण , एवं तुं अंतःकरण मां चिंतन करे, ते व्यर्थ ले. अहो इत्याश्चर्ये! ते स्त्रीयो- अलिक एटले जेल लाट दे, तेने पंडित लोको अलीक एटले मिथ्या कहेले. अर्थात् अलिक एवां बे रूप ललाट वाचक डे; तेश्रोमांना पहेला रूपने बीजा रूपे करी जाण, एटले ल लाटने मिथ्या जाण; ए पण श्लेषज ले. - या वृत्तमां, अष्टमीनो चं अर्धगोलाकार बता बन्ने खूणाए सरखो देखायजे, तेना वचमां श्याम वर्णना चांदलाना जेवू देखायडे, तेथी ते अति शोनित लागेने, तेम स्त्री- पण वांकुं ललाट बतां तेमां कस्तूरीनो तिलक कस्यो होय. तो अति म नोहर देखायडे, ते जोईने पुरुषना मननेविषे घणो अानंद थाय; ते शृंगाररस बे. अने ए जे कस्तूरीना तिलक सहित स्त्री- ललाट अति शोनायमान देखायडे, तेमा कांई अर्थ नथी, किंतु व्यर्थ बे; माटे तेनो त्याग करवो ए वैराग्यरस वे. ॥५॥ उपजातिवृत्तम् ॥ न भूरियं पंकजलोचनायाश्चकास्ति शृंगाररसै - कपात्रम्॥नूः किंत्वसौ साधुतरा प्रसूते निबंधनं मोहविषमस्य॥६॥ अर्थः-हे पुरुष, कमलपत्रना जेवां लोचनवाली स्त्रीनी शोनायमान चुकुटी ने, ते जाण शृंगाररस, एक पात्रज डे; ते अतिशय श्रेष्ट नूमि डे केमके, एथकी मोह रूपविषना वृदनो प्रा व उत्पन्न थायडे: अर्थात् चू एटले चुकुटी, ते साधुतरा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. १२१ नू एटले भूमि थायडे, एम कयुं; तेमां खावी रीते श्लेष वे:- सा एटले प्रसिद्ध, धुतरा एटले रेफरहित एवो, चू शब्द भूमिवाचक शब्द थयो ते योग्य बे. य या वृत्तमां, स्त्रीनी जे शोभायमान चुकुटि, तेने शृंगार रसना पात्ररूपे कही बे, केमके, एने जोतांज पुरुषने मोह उत्पन्न थायले, माटे ए शृंगार रस बे; ने ए चुकुटि नथी पण मोहरूप विपना वृहने उत्पन्न करनारी सारी भूमि बे, एम कवाथ वैराग्य रस जाणवो. ॥ ६ ॥ मालिनीवृत्तम् ॥ नवकुवलयदामश्यामलान् दृष्टिपातान् कृत परमदनाशान् विचिपत्यायताही ॥ इति वदसि मुदं किं मोद राजप्रयुक्तान् प्रशमनटवधार्थं विद्यमनृष्टिपातान् ॥ ७ ॥ अर्थ :- हे पुरुष, विस्तीर्ण नेत्रोवाली स्त्रीना कुंवलयनी माला जेवा श्यामव वाला, अन्यमदना नाश करनारा जे कटाक्ष, ते मारा उपर नाखेडे, एम जाणीने तूं शासारु हर्षित थायबे ? अरे, ए जे दृष्टिपात ( कटाक्ष ) बे ते प्रशम रूप शूरवी रनो वध करवा सारु मोह राजाए प्रेरणा करेला कष्टिपात एटले तलवारना पात (घा) बे; एम जाए; ही दृष्टिपातनो इष्टिपात यावी रीते थयो बे:- दृष्टिपात शब्दनुं विशेषण मूलमां " कृतपरमदनाशान् "बे; एनो श्लेष करी यावो अर्थ थाय बे:- कृत एटले कस्यो, परम एटले प्रत्यंत, दनाश एटले दकारनो नाश थयाथी ऋष्टिपात शब्द थाय बे ते योग्य बे. या वृत्तमां, विस्तीर्ण नेत्रोवाली स्त्री कही बे, एथी स्त्रीना विशाल नेत्रोने कवीखो ए उत्तम कह्या बे, एम जाणवुं, एवा विशाल नेत्रोना जे कटाक्ष, ते कुवलयनी माला जेवा, ने अन्य मदना नाश करनारा कह्या बे; एटले जे पुरुष नपर कु वलयनी मालाना जेवा कटाक्ष पमे ते पुरुष बीजा गमे तेवा मदवालो होय तो पण तरत ते स्त्रीनी उपर मोहित थईने तेना किंकर जेवो थई रहेबे, खाने ते पोतानी उपर स्त्रीना कटा पडया जोइने प्रति आनंदित थायले, माटे ए शृंगा रस बे; खने एवो जुब्ध एलो पुरुष मोहरूप राजाने वश थयो थको दुःखी थायडे; केमके, नेत्रकटारूप तलवारना घाएकरी तेना प्रशमरूप शूरवीरपणानो वध थायले. तेनो तुं त्याग कर, ए वैराग्य रस बे ॥ ७ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ तस्याः कोपपदं यदाननमढोरा त्रं स्मरन्नात्मनः संतापं वितनोषि काननमही झाला स Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. खे तत्त्यजेः॥ एतस्मिन् वसता मनोनवमदासर्पण दष्टः पुमान् कार्याकार्यविवेकशून्यहृदयः कस्को न संजायते॥ अर्थः-हे सखा, कोपर्नु स्थान जे स्त्री, आनन एटले मुख, तेनुं रात्रदिवस स्म रण करीने तूं पोताने संताप करीले ,अहो इति खेदे ! ते थानन नथी पण कानन एटले वन : एम जाणीने मूकी दे, केमके, ए वनमा रहेनारो जे कामरूप सर्प, ते जे पुरुषने दंश करे, ते पुरुषनो हृदय कार्याकार्य विवेकथी शून्य थई जायजे, एवो कोण डे, के जे उक्त विवेकशून्य न थाय! किंतु सर्व थायज ले. सामान्य सर्पनाविषे करीने मूर्बित थएलो पुरुष पण शून्य हृदयवालो थई जाय, तो जेने सर्प दंश कस्यो होय तेनुं गुं कहे ! अहीं कोपपद आनन कानन . एम कयुंजे, तेथी कोपपद एटले ककार ने उपपद एटले समीपपद जेनो एवो आनन शद कानन शब्द थाय ने ते योग्य बे, एश्लेष ले. . आ वृत्तमां, स्त्रीनू मुख कोपायमान कर्यु तेनुं कारण ए के, स्त्रीनी मुखमुज्ञ यत्किचित् कोपायमान पुरुषने दीवामां आवे तो तेने कामविकार नत्पन्न थायने अथवा कोई कारणने लीधे स्त्रीने रीश आवीने पुरुषने पोतानी मुखमुज्ञ कोपाय मान करी देखाड्याथी तेने प्रीति उत्पन्न थायजे, अने विविध प्रकारे तेने सम ज्याव्यानी आतुरताने लोधे कामविकार नत्पन्न थायले ते अहीं शृंगाररस जाणवो, अने स्त्रीना मुखने वन जेवं कर्तुं , ने तेमां कामरूप सर्प रहे जे ते दंश करीने पुरु पना हृदयने शून्य करे एटले सारासार विवेकरहित करे ; अर्थात् मृतकतु व्य करे , तेथी तेनो तुं त्याग कर. ए वैराग्यरस जाणवो. ॥ ७ ॥ उपजातिटत्तम् ॥ साकारमालोक्य मुखं तरुण्यः किं मुग्धबुझे मुद मादधासि॥इदं हि चित्तभ्रमनाटकस्य विचरणैरामुखमाचच ॥॥ अर्थः- हेरूडीबुद्धिवान पुरुष, तरुण स्त्री, साकार एटले सुंदर मुख जोईने 'तु शासारु आनंदित थाय! ए मुखने विधान पुरुष निश्चये करी चित्त भ्रमरूप नाटकनु थामुख एटले आद्यारंन कहेले. अहीं साकार एटले आकार सहित जे मुख होय ते यामुख ले, ते योग्य वे. _ था वृत्तमा, तरुण स्त्रीने सुंदर मुख कयुं , तेनुं कारण ए के मुखनी सुंदरता तारुम्पपणाम होय. ते गमे तेवी सारीबुद्धिवाला पुरुषनी बुद्धिने विन्रम करे बे. एटले मोहित करेले. ए शृंगार रस ले. अने तरुण स्त्री, मुख चित्तविन्रमरूप Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. नाटकनो आद्यारंन . एटले स्त्रीनु मुख जोईने मोहनो आरंन थाय ले. जेम ना टकनो याद्यारंन सूत्रधार अने नटीप्रमुखना गायन मारा थायले, ते जोनारा पुरुषना चित्तने मोह उत्पन्न करेले. तेम ए पण जाणवू. तेनो तुं त्याग कर. ए वैराग्य रस डे. ॥ ए॥ वसंततिलकावृत्तम ॥कामज्वरातरमते तव सर्वदाऽऽस्यं वा मध्रुवां यदि कथंचिदवाप्तुमित्रा ॥ यत्नं विनाप्यखिलज न्मपरंपरासु तज्जातमेव नवतो ननु सर्वदास्यम् ॥ १० ॥ अर्थः- हे कामरूपज्वरथी पीडायमान थएली मतिवाला पुरुष, जो सर्वदा एटले सर्व काल सुंदर चुकुटिवाली स्त्रीने आस्य एटले मुख, कोई पण प्रकारेकरि तने प्राप्त थवानी इबा होय, तो निश्चयेकरि यत्नशिवाय संपूर्ण जन्मपरंपराने विषे सर्वदास्य एटले सर्वनुं दासपणुं तने थयझुंज डे, एम जाणवू. बाश्लोकमा बे ठेकाणे 'सर्वदास्य " ए शब्द आवेलो . ते बनेनो अर्थ निन्न निन्न थाय बे. तेथी अहिं यमक जाणवो. __ या वृत्तमां, सुंदर चुकुटीवालुं स्त्री, मुख कयुं , एथी जे स्त्रीनी त्रुकुटि सा री होय, ते सुरूप दीगमां आवेळे. तेनु मुख कामी पुरुषने अति प्रिय लागे. अने तेने जोतांज कामीपुरुषनी मति कामज्वरथी पीडायमान थायडे, एज शहां शृंगार रस डे. अने एवा स्त्रीना मुखनी प्राप्तिनी बा जे पुरुष करेले ते जन्मो जन्मने विष पराधीन रहे. माटे तेनो तूं त्याग कर ए वैराग्य रस जाणवो.॥१॥ शार्दूलविक्रीमितं उत्तम् ॥ तस्याः साधुरदं विलोक्य वद नं यः संश्रयत्यंजसा मुक्खा मुक्तिपथं दहा प्रविशति भ्रां त्या स उग वनम् ॥ तच्चात्यंतमचारुबश्वसतिर्येनात्र रा गादिनिश्चोरैर्धर्मधनापहारकरणात्कष्टं न किं प्राप्यते॥१२॥ अर्थः- ते स्त्रीनें “साधु रदं” एटले सारा दांतवालुं वदनं एटले मुख जो इने जे पुरुष वेगे करी तेनो आश्रय करेजे, एटले तेमां लुब्ध थायडे ते पुरुष, हा हा इति खेदे ! मुक्तिमार्गने मूकीने, वसतिने अरम्य करीने दुःखेकरि प ण गमन न थाय एवा वननेविषे ब्रांतिए करि प्रवेश करेजे. ते वन मर्यादारहि तले, तेमां गमन करनारा पुरुषतुं धर्मरूप धन रागादिक चोरो हरण करी जाय ने तेथी ये कष्टनी प्राप्ति थती नथी? अहिं साधुरदं वदन जे जे ते वन ने ए Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. मकं . ग्रामः- - साधुरदं ए शब्दनो पदच्छेद करिये तो साधुः खदं ए बे पद जुदा थायले एमांना यदं पदथकी दकार रहितपणुं यायले, एम वदननुं वन थायले, ते योग्य बे. या वृत्तमां, सारा दांतवाली स्त्रीनुं मुख जोतांज पुरुषनुं मन लुब्ध थई जा बे. मुक्तिनो मार्ग जे धर्मध्यानादिक तेने ते मूकी दे बे. जेने वसति सारी जा गती नथी, मदनने वश थयो थको वनादिक एकांत स्थलमां ते स्त्रीसहित अथवा स्त्रीना यागमननी वावान थयो थको वास करेबे, अने तेथी महाकष्ट सहन करेले, एवो स्त्रीना मुख दर्शननो जे प्रभाव ते यहिं शृंगार रस बे. अने स्त्रीना मु खरूप जे वन तेमां जे पुरुष प्रवेश करेले तेनुं धर्मरूप धन रागादिक चोर लूंटी जिये बे. माटे तेमां लुब्ध यवुं नहीं. ए यहिं वैराग्य रस बे. ॥ ११ ॥ पृथ्वीवृत्तम् | यियाससि नवोदधेर्यदितटं तदेणीदृशामदीनमधरं धरं परिहरेः परं दूरतः ॥ इदास्फुलनतोऽन्यथाविशदवासनानौ स्तव वजिष्यति विशीर्णतां न भविता ततो वांबितम् ॥ १२ ॥ अर्थः- हे पुरुष, जो तुं या संसार समुड्नो पार जेबानी इवा करतो हो, तो ह रिणी जेवां नेत्रोवाली स्त्रीयोना हीन एटले मृतादिवडे परिपूर्ण, अधर एटले प्रष्टरूप घर एटले पर्वत जे बे तेने तुं दूर नाखी दे. ते जो तुं नहीं मूकीश तो ते तना संघट्टनना योगे तारी निर्मल वासनारूप नोका नांगी जज्ञे. तेथी तारुं इवे लुं पार पडशे नही. जेम समुड्मां पर्वतना लागवाथी वहाण नांगी जाय तो जवा याववादिक इष्टसिद्धि यती नथी. ते प्रमाणे तुं पण या जब समुड्ने पहेले पार पहोची शकश नही. यहीं यहीन अधर जे वे ते घर एटले पर्वतज बे, एम कह्युं बे, ते ग्रामः- जे हीन एटजे प्रकारे करि हीन एटजे रहित अधर शब्द ते धर शब्द थाय बे, ते योग्य बे. प या वृत्तमां, स्त्रीनां नेत्रोने हरिणीनां नेत्रोनी बराबरी करीले, एटले हरिणी नां नेत्रो अति विशाल घने सुशोभित होय तेम स्त्रीना नेत्रो पण प्रति विशा ल तथा सुशोनित होवाथी पुरुषनुं मन खेंची लिये, तथा जे कामी पुरुष बे तेने स्त्रीना अधरामृतने विषे घणी प्रीति होयते, माटे अमृतेकरी पूर्ण अधर कह्यां बे, ते गार रस बेने ते अधर बे ते पर्वतज बे, केमके, जे पुरुष ते अध रविषे लुब्ध थायले ते संसारथी बूटी शकतो नथी. ए वैराग्य रस बे ॥ १२ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी.. २२५ शिखरिणीदत्तम् ॥ न जातीदं भ्रातः स्फुरदरुणरत्नौघकिरणप्रता नं तन्वंग्यास्तरलतरलं कुंडलयुगम्॥दम जुग्धं पुंसामिह विरहसं योगदशयोवलचोकानंगज्वलनयुगिदं कुंडयुगलम् ॥ १३ ॥ अर्थः- हे नाई, देदीप्यमान रक्तवर्ण रत्नोनो किरणसमूह ले जेनाविषे, तथा " तरल तरलं" एटले जे अत्यंत चंचल ले. एवा कृशांगी एटले पातला आंगवाली स्त्री ना जे “कुंमलयुगं" एटले जे बे कानना कुंमलबे ते शोजता नथी; किंतु विरहदशा अने संयोगदशामां शोक तथा कामाग्मिएकरी युक्तले एटले विरहावस्थामां शोकावि नाव, तथा स्त्रीपुरुषनी संयोगावस्थामां कामानिनो आविर्भाव थायले. अने या संसारनेविषे पुरुषना शांतिरूप दूधने बालवावाला ए कुंमयुगल एटले बे कुंम एम जाण. अहीं कुंमलयुग ते कुंमयुगल थाय बे. ते यावीरीतेः-कुंमलयुग शब्दनुं वि शेषण तरलतरलं एवं बे. एनो श्लेषार्थ आम :- तरलतर एटले चंचल ने.स एटले लकार जेमां एवो जे कुंमलयुग शब्द: तेमांनो लकार कहाडी नाखिये तो कुंमयुग शब्द थायडे; अने युग शब्द थया पनी तेना अंतमां लकार जोडीये तो कुंमयुगल शब्द थायले. ते योग्य . _ या वृत्तमां, स्त्रीना काननेविषे देदीप्यमान रत्नजडित जे बे कुंमल होय, ते स्त्रीना रूपमा अति वृद्धि करे. अने चंचल होवाथी अति सुशोनित देखायले तेमां पण कशांगी एटले पातला अांगवाली स्त्रीने अति शोने. ए शंगार .अ ने ए जे बे कुंमलबे ते शोनाकारक नथी पण विरहदशा तथा संयोगदशामां शो क तथा कामानिना नत्पन्न करनारा बे, ए पुरुषनी शांतिरूप दूधनो नाश करना रा ने तेथी कुंडरूप , तेनो तूं त्याग कर. ए वैराग्य रस . ॥ १३ ॥ अनुष्टुत्तम् ॥ ताडंकं सस्पृहं तस्याः पश्यन् मूढः परे , नवे ॥ नरो नरकपालेन्यस्ताडं कं न सहिष्यते ॥ १४॥ अर्थः- हे मूर्ख पुरुष, ते स्त्रीन सानिलाष “तामंकं ” एटले कर्णनूषण अव लोकन करतां आगल आवनारा नवमध्ये नरक पालन करनारा अधम परमाधा मी पुरुषोनी पाशेथी “कंताडं" एटले कोण आघात सहन करनार नथी? थ पितु सर्व आघात सहन करशे. अही “ताडकं” ए शब्द बे वार अाव्योडे, तेश्रो नो अर्थ निन्न निन्न . ए यमकालंकार . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ शंगारवैराग्यतरंगिणी. । आ वृत्तमां, स्त्रीना कानना कुंमल जोतांज पुरुषने एवी अनिलाषा थायने के ए कुंमलेकरी शोनायमान स्त्री मने प्राप्त थाय तो सालं. ए शंगार रस बे; अने अ जिलाषाए करी स्त्रीनां कुंडलोने जे पुरुष जुवे ने ते थावता नवमां नरकना पा लन करनारा परमाधामी देवतायोनी मार खायजे; माटे एनो त्याग करवो ए वै राग्य रस . ॥ १४ ॥ वसंततिलकाटत्तम् ॥ सारं गलं यमरविंदविलोचनाना मालोक्य चेतसि मुदं कलयंति मूढाः॥ दा निश्चितं रचि तमुक्तिपुरप्रवेशव्याषेधमर्गलममुं न विचारयति ॥ १५ ॥ अर्थः-- हे मूढ, कमलना जेवां नेत्रोवाली स्त्रीओनो जे सार एटले श्रेष्ट, गल एटले कंठ अवलोकन करीने पुरुषो अंतःकरणमां हर्ष पामेले. परंतु हा इति खे दे ! ए जे गल ले ते मुक्तिनगरीमा प्रवेश करवानेविषे प्रतिबंध करनार होवाथीय गेल डे, एवो विचार करता नथी. यहीं सार एटले अरसहित गल शब्द ते अर्गल शब्द थायले. ते योग्य ले. - आ वृत्तमां, स्त्रीना कंठनी श्रेष्टता कहीजे. जो स्त्रीनो कंत सारो होय तो ते ने जोतांज पुरुष आनंदित थायजे; अर्थात् कामनी या उत्पन्न घायले, ते अ ही शृंगार रस डे; अने एवा अनिताषी पुरुषोनो मुक्तिरूप नगरीमा प्रवेश थतो नथी. माटे तेनो त्याग करवो ए वैराग्य रस ले. ॥ १५ ॥ शिखरिणीत्तम् ॥ अलं प्राप्य स्पर्श कुचकलशयोः पंकजशां परां प्रीतिं प्रातः कलयसि सुधामनश्च किम्॥अवस्कंदं धर्मदितिप पकटके दातुमनसा प्रयुक्तं जानीयाः कलुपवरटेन स्पशमिम्॥१६॥ अर्थः- हे चात, जेना कमलनां पत्र जेवां नेत्र , एवी स्त्रीओना स्तनरूप जे कुंन , तेने असं एटले अत्यंत स्पर्श पामीने अमृतमा मग्न थई जनाराना जेवो जे तुं ते गुं नत्लष्ट प्रीतिने पामेले ? ए स्पर्श, धर्मरूप राजानी सैन्यने प्रहार क रवानुं के जेना मनमां, एवा कलुष एटले पापरूप नीले मोकलेलो स्पश एटले जासूद ; एम तुं जाण. अहीं असं स्पर्श जे जे ते स्पश डे; एम कझुं. रेफ अने सकार एकज होय : एवो नियम ले. माटे अलं एटले जेमां रेफ नथी एवो स्प शे शब्द जे जे ते स्पश शब्द थायडे ते योग्य बे. - - • Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. २२७ या वृत्तमां, स्त्रीता स्तननी उत्कृष्टता कहीले, एटले पुरुषने स्त्रीना स्तननो स्प ताज अमृतविषे मन थई गएला पुरुषनी पठे खानंद उत्पन्न थायडे; ए शृंगार रस बे; अने ए स्तन जे बे ते धर्मनो नाश करवाने पर्थे पापनो एक बा नो जासूद वे, माटे तेनो तुं त्याग कर. ए वैराग्य रस बे. ॥ १६ ॥ वसंततिलकावृत्तम् ॥ पीनोन्नतं स्तनतटं मृगलोचनाया लोकसे नरदितं यदपूर्वमेतत् ॥ मोहांधकारनिकरक्ष्य कारणस्य विद्यास्तदस्ततटमेव विवेकज्ञानो ॥ १७ ॥ अर्थः- मृगना जेवां लोचनवाली स्त्रीनां जे पुष्ट ने उन्नत स्तनतट एटले स्तनो ले, ते नरहित एटले पुरुषने हितकारक नासे, घने पूर्व एटले प्र तिण पुरुषने चमत्कार उत्पन्न करे बे; तेनुं तुं अवलोकन करेले; पण ते मोह रूप अंधकारनोदय करवानुं कारण विवेकरूप सूर्यना ग्रस्ततट बे. अर्थात् ए की ज्ञानरूप सूर्यनो प्रस्त थायले. या पद्यमां स्तनतट जे ले तेने तुं प्रस्ततट जाल एम कयुं, केमके, नरहित ने पूर्व ए वे स्तनतटनां विशेषणो ते, तेखो मांथी वो अर्थ निकले बे:- नरहित एटले नकारेकरी रहित ने पूर्व एटले जेनी खाद्यमां प्रकार बे, एम कस्याथी स्तनतटनो श्रस्ततट शब्द थायले ते योग्य बे. या वृत्तमां, मृगना जेवां लोचनवाली स्त्रीना मांसथी नरेला ने उंचा रहेला जे स्तन बे, ते पुरुषने अति सुख करनारा लागेले; खने पुरुषना मनमां कामवि कार उत्पन्न करे माटे ए शृंगार रस बे ने एज स्तनोनुं विलोकन करनारा पुरु षोनो विवेकनाश थई जायवे, एटले कामविव्हल थयो थको तेने कांई सुजतूं न थी तेथी एनो त्याग कर ए वैराग्य रस ते ॥ १७ ॥ शार्दूलविक्री मितं वृत्तम् ॥ कंदर्पद्विपकुंनचारुणि कुचद्वंद्वे मृ गादया मया न्यस्तो हस्त इति प्रमोदमदिरामाद्यन्मना मा स्मभूः ॥ किंवा जन्म यदर्जितं बहुविधामन्यस्य कष्टक्रियां दस्तोऽयं सुकृतस्य तस्य सहसाऽदायीति संचितयेः ॥ १८॥ ॥ हे सखा, कामरूप हस्तिना गंमस्थल जेवा मनोज्ञ जे मृगादी स्त्रीना बे स्तन, ते विषे में हस्तस्थापन कस्यां बे, एम जालीने हर्षरूप मंदिराएकरी मदो मत्तःकरणवालो तुं नहीं था. केमके, नाना प्रकारनी तपोनुष्ठानादिरूप जे क ष्टसाध्य क्रिया वे, तेनो अन्यास करोने जन्मेकरी संपादन करेला जे सुकत एटले Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. पुण्य, तेने तें या हाथ दीधुळे. जेमके, कोई बाहेरथी श्रावनारा पुरुषने हस्तप्र दानसंज्ञाएकरी निषेध करे, तेम कुच ६ ६ नेविषे हस्तप्रदानेकरीने सुकृतनो तें नि षेध करोळे. एवो जे तुं ते मनमां विचार कर. या पद्यमां स्तन उपर हाथ रा ख्j ने सुकृतने हाथ दीधुं एज चमत्कार बे. या वृत्तमां, कामरूप हस्ती कोबे ने तेना गंमस्थलरूप स्त्रीना बे स्तन क ह्यावे. ते ज्यारे पुरुष हाथनेविषे ग्रहण करेले त्यारे मदनातुर थयोथको म हाहने पांडे, ए गुंगार रस बे; अने नाना प्रकारे कष्ट करने संपादन करेजां सुकृतनो निषेध करेबे; माटे तेनो त्यागकर ए वैराग्य रस बे ॥ १८ ॥ वंशावृत्तम्॥ कंठोपकंठे लुलितं विभावयेर्भुजं युवत्या नुजगं गराजितम् ॥ एतस्य संस्पर्शवशादपि दणाद शेपचैतन्यमुपैति संक्तयम् ॥ १७ ॥ अर्थः- कंठनी पाशे वजेला गर एटले विषे करीने अजित एवा जे तरुण स्त्री नाज एटले बाहु, ते उजग एटले सर्पज बे; एम तुं जाए. सर्पना स्पर्शमा करी संपूर्णचैतन्य क्षणमात्रमां नाशने पामेले. जेम सर्वना स्पर्शेकर । चैतन्य नो नाश थायले; तेमज तरुण स्त्रीना नुजस्पर्शथी चैतन्यनाश थायले. नुज नो जग यावी रीते थायले:- नुज शब्दनुं विशेषण गराजित बे, तेनो अर्थ ग कार करेकरी राजित एटले युक्तथयाथी भुजग शब्द थायबे ; ते युक्त बे. या वृत्तमां, कंठनी पाशे वांका वजेला स्त्रीना वे हाथ पुरुषने थडकतांज पुरुष यति मोहित थयोथको पोताना शरीरनी शुद्धि पण रहेती नथी. ए शृंगार रस बे ने ए वे स्त्रीना हाथ वे ते साक्षात सर्परूप बे, केमके, एनो स्पर्श ययाथी पुरुष बेशुद्ध थई जायबे, माटे तेनो तुं त्याग कर. ए वैराग्य रस ते. ॥१९॥ उपजातिवृत्तम्॥ कंठावसक्ते कुपिते नवादौ वरं बहिः प्राणदरे प्रमो दः ॥ विध्वस्तधर्मांतरजीविते नः स्त्रैणे न वादौ विषां स युक्तः २० : अर्थः- बाह्य प्राणनो नाश करनारो क्रोधायमान जे नवाहौ एटले नवीन स र्प, ते पुरुषना गलामा संलग्न थाय ते सारं; परंतु धर्मरूप अत्यंतर जीवित नाश करनारा जे स्त्रीसंबंधी वाहौ एटले नुज, ते पुरुषना गलामा संलग्न थयाथी जे हर्ष थाले, ते पंमित पुरुषने योग्य नथी; केमके, सर्प, कंवसंलग्न बतां बाह्य प्रा नो नाश करे; पण स्त्रीयोना जे बाहुबे, ते कंठसंलग्न थयाथी अंतर प्राण Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. शए नो नाश करेले ; माटे स्त्रीए पोताना हाथथी करेलुं आलिंगन सर्प करतां पण व धिक फुःख देनारं . आ श्लोकमां नवादौ शब्द बे वखत याव्यो तेनो अर्थ जुदो . __ या वृत्तमां, स्त्री ज्यारे पोतानी नुजावडे पुरुषने आलिंगन करेले, त्यारे पुरुष पोताना प्रागनी पण परवा राखतो नथी, एवो कामातुर थायडे ; ए शृंगाररसले. अने सर्प गलामां बाकी प्राण लिये ते सारं, पण स्त्रीनुं आलिंगन नखं नही; के मके, तेथी माता कर्म बंधाईने अंतरात्मानो नाश थायवे. माटे तेनो त्याग कर वो नचित जे ए वैराग्यरस . ॥ २० ॥ इंवंशात्तम् ॥ कोयं विवेकस्तव यन्नतवां दोषावगूढः प्रमदं वि गाहसे॥यतः स्मरातंकपरीतचेतसां किं सुंदरासुंदरयोविवेचनं ॥२१॥ अर्थः- हे साधो, आ तारो कयो विवेक डे के, नम्र ले चुकुटि जेओनी एवी स्त्रीना दोषावगूढ एटले नुजाए आलिंगित थयो थको तूं नलष्ट मदने पामे ! केमके, कामरूप रोमेकरीने जेना अंतःकरण व्याप्त थयाडे, एवा पुरुषने सारा तथा नरसानुं विवेचन यतुं नथी. जेम अपस्मारादि (मरी) रोगवाला पुरुषने गु नाशुन ज्ञान होतुं नथी, तेम तने पण थयुंडे. अथवा तारो विवेक दोषावगूढ एटले दोषेकरीने युक्त ने एवो अर्थ पण थायडे, माटे ए तारो केवो विवेक जे एम कहेवं योग्यज . __ या वृत्तमां, पुरुषने स्त्रीए बालिंगन कखुडतां, ते गमे तेवो विवेकी दोय तो पण ते एक कोरे रहीने कामातुर थयोथको हर्षित थायले ; ए शृंगार रस ने; अने स्त्रीना आलिंगनथी पुरुषना विवेकनो नाश थायडे, बने अंतःकरणमा अ विवेक आवेने, माटे तेनो तुं त्याग कर ए वैराग्य रस जे. ॥ २१ ॥ वसंततिलकात्तम् ॥ हंदो विलोक्य परमंगदमंगनाना मानंदमुघदसि किं मदनांधबुझे ॥ सत्यं विवेकनिधनै कनिमित्तमेतत् मेधाविनो हि परमं गदमुझणंति ॥२२॥ अर्थः- हे कामेकरी अंधबुद्धिवाला पुरुष, स्त्रीयोना परमंगदं एटले उत्कृष्ट बाजूबंध जोईने झुं आनंद करेले ? पंमित लोको जे जे ते ए बाजूबंधने ज्ञाननोनाश करनारो परम एटले उत्कृष्ट गद एटले रोग कहे; ते सत्य जे. केमके, जेम रोग जीव ना नाशनो हेतु दे, तेम स्त्रीनो बादुनूषण पण ज्ञानना नाशनो हेतु . ए पद्यमां परमंगदं एबे वखत आव्यो, तेनो अर्थ जुदो जुदो ,एवो यमकरूप चमत्कार . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० शृंगारवैराग्यतरंगिणी. या वृत्तमां, स्त्रीना बाहुनुं भूषण जे बाजूबंध बे, ते पुरुषना मनने एवो मो हित कर लिये के पुरुष कामांध थयोथको महाहर्षने पामे. ए शृंगार रस बे; बने ए जे बाजूबंध बे ते आनंद करनारो नथी, पण जीवनो नाश करनारो मोटो रोग बे; एम जाणीने तेनो तूं त्याग कर. ए वैराग्य रस बे ॥ २२ ॥ यं जनो वलयनरं विलोकते मृगीदृशामधिनजवल्लि बालिशः ॥ न बुध्यते सुकृतचमूं जिगीपतः समुद्यतं बलनरमेन मेनसः ॥ २३ ॥ अर्थ :- अयं एटले प्रत्यक्ष मूर्ख जन जे बे, ते हरिणाची स्त्रीोना जुज लताने विषे वलयनरं एटले जे कंकणसमूह ले ते जुवेले परंतु ए वलय जे बे ते सुकृत जे शीजादिक, तेखोने जीतवानी इवावालो एवो पापनो सावधानीनूत बलर एटले सेनासमूह बे; एम जाए. या पद्यमां वजयनर जे बे, ते बलनर बे एम क; बकार ने वकारनुं ऐक्यले वलयनर शब्दनुं विशेषण त्र्यं ए शब्द बे. एनो अर्थ रहित यं थायबे ; तेथी वलयनर शब्द, बजनर थयो ते योग्य बे.. या वृत्तमां, स्त्रीधोना हाथमां जे कंकण होयळे, तेने जोईने जे मूर्ख जन बे ते नंदने पामे, एगार रस बे; अने ए जे कंकणनो समूह बे, ते शीलादिक नो नाश करनारो बे, माटे तेनो तुं त्याग कर. ए वैराग्य रस बे. ॥ २३ ॥ वसंततिलकावृत्तम् ॥ ये दृक्पथे तव पतंति नितंबिनीनां कांताः करा जमिपल्लवनप्रवीणाः॥नो वेत्सि तान् किमपव गंपुरप्रयाणप्रत्यूढकारणतया करकानवश्यम् ॥ २४ ॥ अर्थ :- हे जमताना प्रकटीकरण करवाविषे निपुण पुरुष, नितंबिनी स्त्रीयोना कांत एटले मनोज्ञ कर एटले हाथ तारी दृष्टिरूप मार्गमां खावे, तेथोने मोहरूप नगरी ते जतां करक एटले करानी पेठे विघ्न करनारा केम जाणतो नथी ! बाहेर जतां जो मार्गमां करानी वृष्टि थाय तो इबेला कार्यनी सिद्धि थाय नही, एवं श कुनशास्त्रमां कयुंबे. या पद्यमां स्त्रीना कर जे बे ते करकज एम कत्युं बे. ते या वी रीतेः - करशब्दनुं विशेषण कांत शब्द बे, एनो अर्थ क ले जेना अंतने विषे एवो थायले; अर्थात् कर शब्दना अंते ककार राखिये तो करक थाय ते योग्य बे. या वृत्तमां, जडतानुं प्रकटीकरण करवाविषे स्त्रीना हाथ निपुण बे, एटजे स्त्री ना हायवती पुरुषने स्पर्शादि यतांज ते गमे तेवो धर्मादिकने विषे सावध होय तो Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. २३१ पण दिग्मूढ एटले कामने वश थई जाय ने, ने तेमां ते पोताने परमानंद माने डे: ए शृंगार रस जे. अने स्त्रीना करस्पर्शादिकेकरी स्तब्ध बनी गएला पुरुषने मोदनो मार्ग जे धर्म, ते सूजतो नथी, माटे तेनो तुं त्याग कर. ए वैराग्य रस ले. उपजातिवृत्तम् ॥ नीव्याप्तमस्या हरिपदापाया यंवोदय दार हृदिह प्रमेषि॥विवेकपंकेरुहकाननस्य तमेव नीहारमुदादरंति ॥ ५ ॥ अर्थः--नीवी एटले वस्त्र, तेनी गांठ पर्यंत हरिणाची स्त्रीनो जे लंबायमान हा र, तेने जोईने तूं पोताना मनमा श्रानंदने पामेले, ते दारने पंमितलोक, ज्ञानरू पकमलना वनने नीहार एटले हिम कहेले. जेम हिम, कमलना वनने नाश कर नारो ने, तेम स्त्रीना हृदय ऊपरनो जे हार ते ज्ञानने नाश करनारो बे. या पद्यमा हारने नीहार कह्योले, ते थामः-हारशब्दनु विशेषण नीव्याप्त जे. एनो अर्थ था -नीशदेकरी व्याप्त एटले जे युक्त हारशब्द ते नीहारशब्द थायडे ते योग्य बे. या वृत्तमां, स्त्रीना हृदयनो जे लांबो हार ते जोतांज पुरुषने अति आनंद न त्पन्न थायडे; ए शृंगाररस जे; अने ते हार जे जे ते ज्ञानरूप कमलना वनने बा लवामां हिम जेवो में, एटले ते हारमा जुब्ध थएला पुरुष, ज्ञान नाश थई जाय बे, माटे तेनो तूं त्याग कर. ए वैराग्य रस जे. ॥ २५॥ वंशस्थत्तम्॥विलोक्य किं सुंदरमंगनोदरं करोपि मोदं मदनज्वरा तुर॥नो ईदसे उर्गतिपातसंनवं नवांतरे नाविनमंगनोदरम् ॥२६॥ अर्थः-कामज्वरवडे पीडाने पामेला हे पुरुष, सुंदर अंगना एटले स्त्रीन नदर जोईने तूं का मोहने पामेले ? अंग एटले हे पुरुष, ए उदर नयी पण जन्मांतरने विषे अने नरकने विषे पड्याथी उत्पन्न थनारा जे दर एटले नय; तेज डे; एवो का विचार करतो नथी ? आ पद्यमां अंगनोदर ए पद बे वरखत बे; तेश्रोनो पद विनागेकरी निन्न अर्थ बे, ते अहिं यमकरूप चमत्कार जाणवो. था वृत्तमां, स्त्रीनें उदर जोई पुरुष मोहने पामीने कामज्वरनी पीडाने पामेले ए शंगाररस; अने ए उदर नथी पण जन्मांतर तथा नरकमां थनारो जय ने, एम जाणीने तेनो तूं त्याग कर ए वैराग्य रस . ॥ २६ ॥ वसंततिलकावृत्तम् ॥ स्फूर्जन्मनोनवनुजंगमपाशनानी नानी कुरंगकदृशां दृशि यस्य लग्ना ॥ नानीमयं जगदशेषमुदी हतेऽसौ यो यत्र रज्यति स तन्मयमेव पश्येत् ॥ २७ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. अर्थः- देदीप्यमान कामरूप सर्प- पाशनानी एटले रहेवानुं स्थान जे हरि गादी स्त्रीयोनी नानी एटले अवयव विशेष: तेने विषे जे पुरुषनी दृष्टि लग्न एटले लागेली, ते पुरुष अनीमय एटले निर्नय अवलोकन करतो नथी, जे पुरुष जे ठेकाणे अनुरक्त थायडे ते पुरुष संपूर्ण तप थायजे. या पद्यमां दृष्टि संलग्न नानी, नानीमय संपूर्ण जुए. ए शब्दश्लेष चमत्कारः। ___ आ वृत्तमां, स्त्रीनी जे नानि ले ते कामने रहेवानुं स्थान में, एटले ते नानिने जो तांज पुरुषने कामविकार उत्पन्न थायजे, ए गंगार जे; अने जे पुरुष ए नानिनेवि थे थासक्त थायडे, ते अनेक नयने पामेले: माटे एनो तुं त्याग कर; ए वैराग्य ॥२७॥ नवजाटत्तम् ॥ जमोपयुक्तं जघनं मृगायाः समीदय किं तोषन रं तनोषि॥अमुं विशुशाध्यवसायहंसप्रवासहेतुं घनमेव विद्याः॥श्न॥ अर्थः- हे सखा, जम एटले मूर्ख, तेश्रोने उपयुक्त एटले योग्य, एवा हरि गादी स्त्रीना जे जघन एटले जांघ, जोईने तुं का आनंद पामेले ? ए जघन जे ने ते निर्मल चित्तानिप्रायरूप हंसना प्रवास ने कारण जत घन एटले मेघ बे: ए म तुं जाण. अर्थात् ज्यारे वर्षा पडेने त्यारे हंस पोतानुं स्थान मूकीने मानसस रोवर ऊपर जायजे. एप्रसिदले. तेम मनुष्यनी दृष्टिने विषे स्त्रीनी जंघा आवेने, त्यारे चित्तना निर्मल अनिप्राय मटी जायजे. श्रा पद्यमां जडोपयुक्त जवन जे जे ते घन , एम का , मकार अने लकार, सावर्ण्य होवाथी जडोपयुक्त शब्द नो जलोपयुक्त शब्द करवो एटले मकारना लोप सहित जे जघन ते घन थाय बे, ते योग्य. ॥ २ ॥ या वृत्तमां, स्त्रीनी जांघ मूर्ख कामी पुरुषोने अति प्रिय लागे जे ने ते तेमा लुब्ध होय ए शंगार रस ; अने निर्मल चित्तना अनिप्रायनो नाश करे , अर्थात् स्त्रीनी जंघा निरख्याथी पुरुषतुं चित्त मलिन थायडे, माटे त्याग करवा योग्य ए वैराग्य रस . ॥ २७ ॥ नपजातिटत्तम् ॥ नितंबमुल्लासिततापनोदं दिदृदसे यत्कमलेक्षणाना म्॥सर्वात्मनाऽत्यंतकटुं विदित्वा तं निंबमेव त्यज दूरतोपि ॥ २५ ॥ अर्थः- संतापनी प्रेरणा करनारा कमलनयना स्त्रीना जे नितंब, एटले कटि नो पाबलो नाग, जोवानी तुं जा करेजे: ते नितंब, पत्र, पुष्प तथा फल इत्या दिना समूहेकरी अत्यंत कडुवा फाडना जेवा , एम जाणीने दूर नारखी दे. अर्था Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. २३३ त् निंबर्नु फाड सर्व प्रकारे कडवू होय, तेम स्त्रीना नितंब सर्व प्रकारे ग्लानि करवा योग्य , तेनो तुं त्याग कर. या पद्यमा उनसित तापनो देनार जे नितंब ते निंबाज ने, एम कह्यु, ते आमः-ननसित एटले विकसित दे तकारनो अप नोद एटले नाश जेने विषे, एवो नितंब शब्द निंबशब्द थाय ते योग्य बे. _या वृत्तमां, कमलना जेवां नेत्रोवाली स्त्रीना जे बे नितंब , ते संतापनी प्रेर णा करनाराने, एटले स्त्रीनी कटिनो पाउलो नाग जोयाथी अत्यंत मदन विकार नत्पन्न थायले, ते इना पूर्ण न थयाथी तेना मनमां संताप थायडे, एवो ते नि तंबोनो जे प्रनाव ले, ते शंगार रस जे; अने स्त्रीयोना नितंब निंबडाना जाडजेवा कडवा , माटे एनो तुं त्याग कर; ए वैराग्य रस डे.॥ २ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥नूनं नूपुरमेतदायतदृशो रागादि विपिणां क्रीडार्थ परमित्यवेत्य न दृशाप्यालोकनीयं व चित् ॥ येनास्मिन् मुखमात्रचंगिमगुणैराकृप्य तैरुल्बणे इस्य प्रसनं चिरादपि सखे मुक्तिनवित्री न ते ॥ ३० ॥ अर्थः- हे सखा, नूनं एटले निश्चयेकरी विशालनेत्रोवाली स्त्रीयोनां जे था नूपुर एटले चरणनूषण, रागादिशत्रुने क्रीडा करवानुं पुर एटले नगर ; एम जाणीने क्यारे पण नजरेकरी जोईश नही. जेने पोतानुं सारं थवानी ना हो य, तेणे क्यारे पण शत्रुनु नगर जोवू नही. केमके, ए नगर प्रसि-६, नदार, त था मुख्यत्वे श्रेष्ट गुणे आकर्षण करी बलात्कारेकर। तने बांधीलेशे, तेथी फरी तूं बूटी शकनार नथी. अर्थात् ते नूपुरमा जो तुं अासक्त थशे तो, फसाई पड शे; आ पद्यमां स्त्रीओना नूपुरने शत्रुनुं नगर कह्यु, ते आमः-नूपुरशब्दनुं विशे पण जे नून ,तेनो अर्थ न शदेकरिकन एटले जे रहित , एवं नूपुर डे,एम जाणवू. या वृत्तमा' स्त्रीओना पगनां नूपुर पुरुषना मनन हरण करी लिए.ए शृंगाररस जे; अने ते नूपुर शत्रुनुं नगर के एम जाणीने तेनो त्याग करवो, ए वैराग्य रस बे. ३० उपजाति उत्तम्॥यास्त्रीतिनाम्ना बिनते शमादौ शस्त्री प्रबुद्धैरवबुध्यतां सा॥ एनां पुरस्कृत्य जगत्यनंगनटो यतः पुण्यनटं निन्नत्ति ॥३१॥ अर्थः-जे स्त्री एवं नाम तुं अंतःकरणमां धारण करेले, ते शमादौ एटले उपश मादि धर्म कर्मने विषे शस्त्री एटले एक आयुधविशेष डे, एम सुजाण पुरुषोए जा - Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. गवं.या संसारनेविषे कामरूप योदो, ए स्त्रीरूप शस्त्रीने पागल करीने धर्मरूपयो हार्नु नेदन करेले. जेम संग्रामनेविषे एक मोटो योको, पोताना शस्त्रेकरीने प्रति योक्षानुं नेदन करेले; तेम कामरूप यो हो स्त्रीरूप शस्त्रीए करी धर्मरूप योहान ने दन करे. या पद्यमा स्त्रीने शस्त्री कही, ते आमः-या स्त्री शमादौ बिजूते, ए टले जे स्त्री प्रथम शकार धारे, अर्थात् स्त्रीशब्दनी बाये शकार आव्याथी शस्त्री शब्द थायडे ते योग्य . ___ या वृत्तमां, प्रसि६ शंगाररस नथी, परंतु स्त्रीनी निर्ल्सना दारा वैराग्यांतर | गत शृंगारनी पण सूचना करी ॥ ३१ ॥ वसंततिलकाटत्तम् ॥ येयं वधूरवसिता हृदये प्रमोदसंपा दनव्यतिकरैक निबंधनं ते ॥ सा गजुर्गतिपथेन जगन्नि नोपोधूरेव मन्मथरथस्य विनावनीया ॥ ३२ ॥ अर्थः- हे पुरुष, ताराहदयनेविषे हर्षसमूह नत्पादन करवानुं कारण जे वधू एटले स्त्री, अवसिता एटले आवीने रही, ते स्त्रीने तुं जे हृदयने हर्ष उत्पन्न करनारी मानेले, ते वधू, अत्यंत उर्गम नरकना मार्गेकरी लेई जवाविषे इबा क रनारा कामरथनीधू एटले धुरी : एम तुं जाण. अर्थात् ए स्त्री नथी, किंतु नरक ना मार्गकरी संसारनेविषे लईजनारो जे कामरथ, तेनी धुरी . या पद्यमा व धू कामरथनी धुरी बे, एम कर्दा; मूलमां वधू शब्दनु विशेषण अवसिता शब्द , एनो अर्थ वकारेकरि सित एटले रहित थयाथी वधू शब्दनो धू शब्द थायडे ते योग्य वे. __ या वृत्तमां, स्त्रीने हर्षसमूह उत्पादन करनारी, अने पुरुषना मननेविषे रम ण करनारी कहीले, ए शृंगार रस बे; अने ए वधू नथी पण कामदेवना रथनी धुरी डे, एम जाणीने तुं त्याग कर, ए वैराग्य रस . ॥ ३२॥ मंदाक्रांतावृत्तम् ॥ प्रीति तन्वंत्यनलसदृशो यास्तरुण्य स्तवैता देवद्युत्या कनकनिनया घोतिताशा विवेकिन् ॥ सत्यं तासामनलसदृशां संयमारामराज्यां मानूः पा Nप्यसि यदि शिवावाप्तये बचबुद्धिः ॥ ३३ ॥ अर्थः- हे विवेकवान् पुरुष, जेनी अनलस एटले आलस्य रहित दृष्टि से, अने Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. २३५ जेनी सुवर्णना जेवी शरीरनी कांतीए दिशाओं प्रकाशित करीले, एवी तरुण स्त्रीश्रो तने हर्ष उत्पन्न करेले, ते अनलसदृश एटले अग्निना जेवी स्त्रीप्रोनी सत्ता संयम एटजे चारित्ररूप वनपरंपराविषे बे, एम जाए. अर्थात् जेम मिसंपर्केकरी वन द थायले, ते स्त्रीसंपर्केकरी चारित्र दग्ध थायले. जो मोक्षप्राप्तिनी बुद्धि तने थई होय, तो स्त्रीयोनी समीप पण जतो नही, या पद्यमां अनलसदृश पद बे वार याव्योवे, तेनो अर्थ नोखो नोखो बे, ए चमत्कार जाणवो. या वृत्तमां, चंचलदृष्टिवाजी स्त्रीना शरीरनो वर्ण सोना जेवो होय, तो पुरु ना मनमा यति आनंद उत्पन्न करें. ए शृंगार रस बे; अने स्त्री अग्नि जेवी बे, ते संयमादिक वनपरंपराने बाली नस्म करनारी बे, माटे एनो तुं त्याग कर, ए वैराग्य रस बे ॥ ३३ ॥ मालिनीवृत्तम ॥ क इह विषयनोगं पुण्यकर्मायशून्यं स्पृदय ति विषनोगं नावयेस्तत्वतस्त्वम् ॥ स्मरति न करणीयं मूर्ति तो येन जंतुः पतति कुगतिगतें नेक्कते मोक्तमार्गम् ॥ ३४ ॥ अर्थः- या संसारने विषे कयो पुरुष पुंण्यकर्मनो प्राय एटले लान, एकरी शून्य एटले रहित जे विषय जोग एटले पांच इंडियना सुखनी इवा करेबे, केमके ए जे विषयोग बे, ते विषनोग एटले विषनक्षण बे, जे विषयभोगना योगे मोहने पामेलो प्राणी, स्मरण करवायोग्य ते करतो नथी, तेथी नरकरूप खा डाम पडेले. ते फर मोहमार्गने पामतो नथी, जेम विष खानारा पुरुषने स्म रणादि रहेतां नथी, तेम विषयोपभोग करनाराने पण स्मरणादिक रहेतां नथी. या पद्यमां विषय जोग जे बे ते विषनोग बे, एम कयुं; ते ग्राम- विषयोपभोगी पदनुं यशून्यं ए विशेष वे, एनो अर्थ यकारेकरी शून्य एटले रहित थायले; एम यकाररहित जे विषयभोग ते विषजोग बे, ते योग्य बे. या वृत्तमां, पांचे विषयोनो तिरस्कार कस्बो बे, तेश्रोनुं मूल कारण स्त्री विषय सुख शास्त्रोमा कयुंबे, ते यश्लोकमां यद्यपि प्रगट कह्युं नथी तथापि अर्था तू सि६ यायले, तेथी ए शृंगार रस बे; प्रने विषयनोगने विषनोग कह्याने ए वैराग्य रस बे. ॥ ३४ ॥ नृपजातिवृत्तम् ॥ सखे सुखं वैषयिकं यदेतदाभासते तन्नरकां तमंतः ॥ सत्यं तत्सर्पदघ प्रबंध निबंधनत्वान्नरकांतमेव ॥ ३५ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. अर्थ :- हे सखा, या जे विषयसुख बे ते तारा अंतःकरणमां कांत एटले म नोहर लागेबे, ते सत्य बे, मिथ्या नथी, परंतु विस्तारने पामनारी जे पाप परंपरा, तेनुं ए कारण बे, माटे जेनो अंत नरक बे, एटले नरकने देनारा बे; एम जाण. या पद्यमां प्रथमना नर कांत ए वे शब्द जिन्न बे, अने पाठजना नरकांत एबे पद एकसारखा बे, ए काव्यचमत्कार जाणवो. या वृत्तमां, विषयसुख जे बे, ते पुरुषना मनने घणा सारा लागेले, एम कह्युं बे, ते शृंगार रस बे; ने ए विषयसुखथी पापपरंपरा विस्तारने पामेबे, माटे त्या ग करवा योग्य वे ए वैराग्य रस बे ॥ ३५ ॥ शिखरिणीवृत्तम् ॥ स्मरक्रीडावाप्यां वदनकमले पदमलदृशां दृढाऽ सक्तिर्येपामधरमधुपानं विदधताम् ॥ प्रदरस्था बंधव्यसनघटना शमती विदग्धानां तेषामिद मधुकराणामिव नृणाम् ॥ ३६ ॥ अर्थ :- कामनी क्रीडारूप जे वापी एटले कुवो बे, तेनेविषे स्त्रीना धरोष्ठरूप मधुपुष्परस पान करणारा जे पुरुष बे, जेथोनी स्त्रीना मुखकमलनेविषे दृढ या सक्ति बे; एवा मोह पामनारा जे पुरुष बे, तेश्रोने या स्त्रीना मुख कमलनेविषे जमरानी पठे शेकरी इःसह एवा बंधनोए व्यसन घटना एटले कष्टरचना समीप 'वर्त्तिनी : जेम मधुपान करनारा जमरायोनी कमलोनेविषे दृढाशक्ति बंधने करी क ष्ट देनारीबे, तेम अधररसपान करनारा पुरुषोने स्त्रीना मुख कमजनेविषे दृढ जे यासक्ति ते प्रेमबंधनेकरी कष्ट देनारी बे. या वृत्तमां, स्त्रीनो अधरामृत जमरायोनी पठे पुरुषोने प्रति प्रेम उत्पन्न कर नारो बे, ए शृंगार रस बे, अने तेथी ते जमरानी पठे बंधनने पामेबे, माटे त्याग करवा योग्य बे, ए वैराग्य रस बे. ॥ ३६ ॥ सखे संतोषांनः पिब चपलतामुत्सृज निजां शमारामे कामं विर चय रुचिं चित्तहरिण | हरंत्येतां तृष्णां न युवतिनितंब स्थलनु वो विमुक्ता नीरागैर्विपमशरसंपातविषमाः ॥ ३७ ॥ अर्थ :- हे सखा, या चित्त हरिणना जेवो बे, केमके, जेम हरिण प्रतियंचल होय, तेम चित्त पण महाचंचल होय; माटे मृग ने चित्तनुं सादृश्यत्व क बे; एवी चपलताने त्याग करीने संतोषरूप जलनुं पान कर; ने अत्यंत शम रूप वननी प्रीति कर. या जे युवती एटले तरुण स्त्रीयो बे, तेयोना नितंब एटले Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंगारवैराग्यतरंगिणी. २३७ जे केडनी पालनो नाग ले, ते स्थलनमिना जेवो जे, त्यां तारी तृषा मटनार न थी. ए स्थलनूमि केवी ने, नीर एटले पाणी अने अग एटले वृद, एणेकरी रहि त जे. जल अथवा वृदनी बायावडे तृषा निवारण थायले, ए बन्नेमांनो कोई ए स्थलनमिने विषे नथी. अने ए नूमिनेविषे व्याध्यादिक उष्ट पुरुष बाण नाखेने, ते वाग्याथी घणो संताप पामोने तारुं मरण थशे: पण तृषा मटवानी नथी. व ली ते नितंब नूमि केवी के ? के रागरहित पुरुषोए जेनो त्याग कस्यो, अने वि पमशर जे कामदेव, तेना बाणना संपातना योगे बिहामणी ले. माटे युक्तीना नितंबनी इला तुं नही कर. एवो चित्त प्रत्ये उपदेश . आ वृत्तमां, स्त्रीना नितंबर्नु वर्णन कयुं ले ; ए शृंगाररस डे; अने ते स्थलनूमि नी पते चित्तरूप चमरने पीडा करे. ए वैराग्यरस जे. ॥ ३७॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ चेतश्चापलमाकलय्य कुटिलाका रां कुरंगीहशो दृष्टा कुंतलराजिमंजनघनश्यामां किमुत्ता म्यसि ॥ धर्मध्यानमहानिधानमधुना स्वीकर्तुकामस्य मे प्रत्यूदार्थमुपस्थितेयमुरगश्रेणीति संचितयेः ॥ ३० ॥ अर्थः- हे चित्त, कुटिल एटले वक्र आकारवाला मेघना जेवा काला अथवा काजलना जेवा अत्यंत श्यामवर्ण, जे हरिणाही स्त्रीना केशनी पंक्ति जे. तेने जोई ने तुं शासारु व्याकुल थाय ? ए स्त्रीना केशनी पंक्ति जे जे ते धर्मचिंतनरूप म हानिधान स्वीकार करनारो तुं तेने सांप्रत कालनेविषे विघ्न करवासारू तैयार थई ले. एवी नरगश्रेणि एटले सर्पपंक्ति : एम जाण. कोई कार्य करवासारू नयुक्त पुरुषने सर्पदर्शन निषिद बे; अने निधान ग्रहणना समये तो अत्यंत अनिष्ट ने. माटे स्त्रीकेशपंक्तिरूप सर्पिणीन दर्शन तुं नही कर. केमके, एम कस्याथी धर्म चिंतनरूप निधानना ग्रहण समये तने विघ्न आवशे नही. __ या वृत्तमां, स्त्रीना केशनी पंक्तिने सर्पपंक्ति कही. अने तेनी श्यामताने मे घनी तथा काजलनी उपमा दीधीने; ए शृंगाररस : अने ते सर्पनी पत्रे विघ्नकारी होवाथी सर्वथा त्याग करवा योग्य : ए वैराग्यरस . ॥ ३ ॥ यातुं यद्यनुरुच्यते शिवपुरी रामानितंबस्थली मुंचेर्दूरमिमामनं गकलनक्रीडाविहारोचिताम् ॥ नोचेद्यौवनचंडवातविततव्यामो दधुलीकणक्लाम्यदृष्टिरदृष्टशाश्वतपथः प्राप्तोसि जन्माटवीम् ॥३॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. अर्थ :- हे पुरुष, जो तने मुक्तिरूप नगरी प्रत्ये जवानी अनिरुचि होय, तो तूं कामरूप गजशिने क्रीडाने अर्थे, विहारविषे योग्य एवा या स्त्री नितंबरूप स्थली एटले भूमि, तेने तूं दूर मूकीदे. जो तूं ए नूमिने मुकीश नही, तो यौवनरू प प्रबल वायुए कर विस्तारने पामेला व्यामोहरूप रजःकणो तारां नेत्रोमा पमशे तेथी मार्ग सुनार नथी अर्थात् मोक्षमार्ग मलनार नथी. यांखोमां धूल गयाथी मार्गने जोई शकातुं नथी. ए प्रसिद्ध बे; एम संसाररूप अरण्यमां भ्रमण करीश. या वृत्तमां, कामने हस्तिनाबालक जेवो कह्योबे. तेने क्रीडा करवाने स्त्री नितंब रूप पृथवी बे, अर्थात् कामक्रीडानुं स्थान जे स्त्रीना नितंब कह्यावे. ए शृंगाररस बे; पृथवीने विषे यौवनना योगे नेत्रोनेविषे रजःकणो पमयाथी मार्ग सूजतो नथी; अर्थात् स्त्री नितंबरूप भूमिनेविषे जे पुरुष यावी जायबे ते विषयरूप रजःक करी हृदय aई जायबे. माटे एत्याग करवा योग्य बे. ए वैराग्यरस बे. ॥ ३९ ॥ मालिनीवृत्तम् ॥ शमधनमपहर्तुं काम चौरप्रचारं विरचयति निकामं कामिनी यामिनीयम् ॥ सपदि विदधती या मोह निषासमुद्रां जनयति जनमंतः सर्वचैतन्यशून्यम् ॥ ४० ॥ अर्थः- या कामिनीरूप यामिनी एटले रात्रि, उपशमरूप धन हरण करवाने सारू कामरूप चोरनो अत्यंत प्रचार प्रगट करेबे; तथा मोहरूप निदानी समृद्धि कर नारी जे रात्र, ते जन एटले मनुष्योने अंतःकरणने विषे सर्व चैतन्य थकी रहित करे. जे रात्रिने विषे सर्व मनुष्य निश्ति बतां इव्य हरण करवासांरू चोर फिरे बेतेनी पठे जाणी जेवुं. या वृत्तमां, स्त्रीने मोह उत्पन्न करनारी रात्रि कहीले, ने कामने चोर कह्योबे, र्थात् स्त्री कामोत्पत्ति करनारी बे, ए शृंगाररस बे; घने ए रात्रिने विषे मनुष्य ज्रम करे तो कामरूप चोरना सपाटामां खावी पोतानी संपत्ति तथा प्राण प्रमुख सर्व खोई दिये, माटे एनो त्याग करवो योग्य वे ए वैराग्य रसबे ॥ ४० ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ मृगेणा नूनमसावसीमा भीमाटवी बुद्धिमतामती ॥ यावनी निरनंगनिल्नो बध्वा नरान् संजयते न मुक्तिम् ॥४१॥ अर्थः- जे बुद्धिमान पुरुषोने प्रतिक्रमण करवा योग्य नथी, जेने मर्यादा नथी, जेना मृगना जेवां नेत्र बे, एवी या स्त्री ते जयंकर वन बे; जेनी बाढुलताए करी, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. २३ए कामरूप नील, मनुष्योने बांधिने फरी बोडी मूकतो नथी, अर्थात् बांधेलोने बांधेलो ज रहेवा दिये. जेम अरण्यमां मार्गे चालनारा लोकोने चोर, वेलिवडे बांधिने तेषोनुं सर्वस्व हरण करीलीये, तेमज मृगेदणा स्त्री पोतानी बाहुलताए कंठने विषे बंधन कस्या पनी पुरुषने मूकती नथी. श्रा वृत्तमां, स्त्रीने मर्यादारहित कही, तेथी हावनाव सूचव्या ने, स्त्रीने वनरूप कही ने तेनी नुजाने लतारूप कही, एमां कोई पुरुष सपडाय तो फसी पडेले, अ र्थात् स्त्रीए नुजावडे आलिंगन कर्तुंबता तेथी पुरुष लूटी शकतो नथी, ए शृंगार रस , अने ए वनमा कामरूप चोरटा वशे ते मोक्षमार्गे जनारा पुरुषतुं धर्म धन प्रमुख हरण करी लेनार बे,माटे त्याग करवा योग्य बे, ए वैराग्य रस डे. ॥४१॥ शिखरिणीरत्तम् ॥श्यं वारं वारं द्युतितुलितरोलंबवलयं न वक्र भ्रूचकं चलयति मृगादी मम पुरः ॥ कुधीकारागारापसरणमति मां स्खलयितुं प्रपंचत्पंचेपोर्वदति निवडं लोदनिगडम् ॥ ४॥ अर्थः- मृगलोचना जे स्त्री , तेनु जे वांकुं त्रुकुटिचक्र , ते नमरायोना जेई कांतिवाटुंबे, ते मारी सांबे वारंवार चंचल करेले, एम नथी; पण नरशी बु विरूप काराग्रहथी दूर नाशी जवानी इलावालो जे ढुं बुं, तेमने नाशी जवा न देतां कामना प्रपंच युक्त दुःसह जे लोखमनी बेडी धारण करेली , अर्थात् जेम चोरने बेमी नाखीने बंदीखानामां नाखेडे, तेमज मने पण वश करवा सारु आ स्त्री कुटी चक्ररूप कामदेवनी लोखंमनी बेडी धारण करे. __ आ वृत्तमां, स्त्रीनें त्रुकुटिचक एवं ले के जे पुरुष तेना फासामां आवे ते फरी लूटी शकतो नथी, अर्थात् अति मोह नत्पन्न करनारूं ; ए शृंगार रस ; अने स्त्रीन चुकुटिचक काम देवनी लोहनी बेमी ने, माटे तेनो त्याग करवो जोये ए वैराग्य रस .॥ ४२ ॥ मंदाक्रांता उत्तम् ॥ यामोन्यत्र ततरमितो मित्र यत्कंठपी नायं दारश्चकितहरिणीलोचनाया चकास्ति ॥ नानीरंधे विदितवसति योस्ति कंदर्पसर्पस्तन्मुक्तोयं स्फुरति रुचिरः किंतु निर्मोकपट्टः॥४३॥ अर्थः-हे मित्र, आ आपणे स्थानकने मूकीने जलदीबीजे तेकाणे जवु जोये. के मके तृषावान थएली हरिणीना नेत्रना जेवां जेनां नेत्र , एवी स्त्रीमोना कंठमां जे -- - -- ----------- - --------------------------------- ------- ---- ---- - - -- - - -- - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० शृंगारवैराग्यतरंगिणी. आ दार शोने दे, ते हार नथी; किंतु नानिरूप रंध्रनेविषे रहेनारो जे कामरूप स प, तेणे मूकेबुं आ मनोहर निर्मोकपट्ट एटले कंचुक दीनामां आवेने, तेज आ काणुं मूकीने बीजे काणे जागी जवानी सूचना करे. सर्प, कंचुक जयनो हेतु , माटे नानीरूप जे कामरूप सर्पने रहेवार्नु राफहुं, अने आ हाररूप सर्पनुं कंचुक ले, एम जाणीने नाशी जवु योग्य . या वृत्तमां, स्त्रीओना कंठना हारनी शोना कहीने, तथा नानिनु वर्णन करेलु बे, ए शंगाररस डे; अने ए बन्ने कुःखना साधन होवाथी त्याग करवा योग्य वे ए वैराग्यरस . ॥ ३ ॥ वसंततिलका वृत्तम् ॥ यः कामकामलविलुप्तविवेकचतुः स्वर्गापवर्गपुरमार्गमवीक्ष्यमाणः ॥ ज्ञानांजनं प्रति निरा दरतामुपैति भ्रात: पतिष्यति स नीमनवांधुकूपे ॥४॥ अर्थः- जे पुरुषना विवेकरूप चहु कामरूप कामल एटले नेत्र रोगेकरी ग्रस्त जे; ते स्वर्ग अने अपवर्ग एटले मोदरूप नगरनो मार्ग जोई शकतो नथी : एमबतां जे पुरुष ज्ञानरूप अंजननो आदर करतो नथी, ते पुरुष जयंकर संसाररूप अंधकू पमां पडे ; जेम कमलाना रोगेकरीने जेनां नेत्रो ग्रस्त अयला होय, ते जो अां खोनेविषे अंजन नाखवानो अनादर करे तो अंध कूपमां पड़ी जाय, तेम ज्ञानां जननो जे निरादर करेले, ते आ संसाररूप आंधला कूवामां पडेले. __ आ वृत्तमां, कामने नेत्र रोगना जेवो कह्यो, एटले जेने कामलो प्रमुख ने त्ररोग थायजे, ते काई जोई शकतो नथी तेम कामरूप नेत्र रोगना योगे पुरुष निलऊ थायले, एवी कामनी महिमा ले, ते शंगाररस : अने कामांध पुरुष या संसाररूप बांधला कूवामां पडे, माटे त्याग करवायोग्य डे, ए वैराग्यरस .॥४४॥ शिखरिणी वृत्तम् ॥नवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषर्मक्तिनगरी त दानी माकार्षीविषयविषटदोषु वसतिम्॥ यतश्गयाप्येषां प्रथय ति महामोदमचिरादयं जंतुर्यस्मात्पदमपि न गंतुं प्रनवति ॥४॥ अर्थः- हे पुरुष, जो तुं नवाटवीने मूकीने मुक्ति नगरीप्रते जावानी श्वा क रतो हो, तो विषयरूप विषदने विषे वसति नही कर. केमके, आ वृदनी बा या पण महामोहना विस्तारने पमाडेले. ए विषयवृतनी बायानो स्पर्श पण मो Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारवैराग्यतरंगिणी. २४१ ह कारक बे. ए कारण माटे या प्राणी एक पगलुं पण चालवाने समर्थ थतो नथी. जेम वननेविषे विषवृक्षनी नीचे बेठेलो पुरुष, मत्त थयेलो होय, ते वरखते ते वन मूकीने नगरमा जवानी ना करे तो एक पगलु, पण नाखी शकातुं नथी. मा टे मोदनी इबा करनारा पुरुषे विषयसेवन करवानी बुद्धि करवी नही. __ या वृत्तमां, विषयना सेवन थकी पुरुष कामांध थई जाय , एम कडं ते शं गाररस , अने ते सर्वथा त्याग करवा योग्य जे एम कडं ते वैराग्यरस जे. नपजातिटत्तम्।सोमप्रनाचार्यमना च यन्न पुंसां तमःपंकमपाकरोति॥ तदप्यमुष्मिन्नुपदेशलेश निशम्यमानेऽनिशमेति नाशम् ॥ ४६॥ इति श्रीशतार्थतिकारश्रीसोमप्रनाचार्यविरचिता शंगारवैराग्यतरंगिणी समाप्ता. ___ अर्थः-सोमप्रना एटलेचंकांति, अने अर्यमना एटले सूर्यकांति जे मनुष्यो नो तमःपंक एटले अज्ञानांधकारसमूह दूर करता नथी, ते पण आ अल्प उप देश श्रवण कस्यो बतां नाशने पामेले, अर्थात् चंकांति तथा सूर्यकांति अज्ञानरू प अंधकारनो नाश करवाने समर्थ थती नथी, अने या उपदेश अंतरनो घंधका र मटाडवाने समर्थ ले. एथी या उपदेश अति नत्कृष्ट ने. श्रा पद्यमां ग्रंथकर्ता ए पोतानुं सोमप्रनाचार्य एवं नाम चातुर्ये करी गोपन करेलुजे, ते झाताओए जाणी लेवू. ॥४६॥ - या ग्रंथर्नु नाम ग्रंथकर्ताए शृंगारवैराग्यतरंगिणी राख्युने, एनोअर्थ शृंगार अने वैराग्यरूप तरंगोवाली नदी, एवो थायचे. ते नदीना बन्ने प्रकार नंदलाल नामना टी काकर्ताए स्पष्टरीते दर्शाव्या , तेनोज नाव लईने या अमे अर्थ कस्यो ने. ग्रंथ ना अंतमा टीकाकर्ताए त्रण श्लोक राख्या २ ते याप्रमाणेः.. संवत्सरदिपमुनींऽमितस्य मासे मार्गे त्रयोदशमिते दिवसे नगी च । स्वल्पा तरी विरचिता सुखबोधिकारख्या श्लेषौघउत्तरतरंगिणिकासुशास्त्रे ॥ १ ॥ आगारानानि नगरे नंदलालेन धीमता ॥ दानविशाल शिष्यानुरोधेन कृपया गुरोः ॥॥ युग्मम् ॥ सोमप्रनाचार्यरुति सुर्गमा वितएवता स्वल्पधिया मयाऽत्र यत् ।। न्यूनाधिकोकन मल्पबुदितः कृतं विशोध्य कतिनिः कृपालुनिः॥३॥ इति श्रीशंगारवैराग्यतरंगिणीनाषांतरं समाप्तं - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ स्तोत्र. ॥ अथ श्रीवीरस्तवन प्रारंभः ॥ स्वःश्रेयससरसीरुह, सूरं श्रीवीरं ऋषिवरं सेव ॥ सविशेषहर्षरसवश, सुरासुर व्यूहसेव्यांऽन्हिं ॥ १ ॥ अश्वोवसीयससरः, शोषसहस्रांशुराश्रयः सहसां ॥ संसार लालसा वो, नूयाल्लवशो वशी वीरः ॥ २ ॥ विषयाशीविषवीश्वर, हिंसारस सरसवा रिरुहशिशिर || विश्वस्य शेषशार्वर, संहाररवे शिवाय स्याः ॥ ३ ॥ श्राशंसवः शि श्री, विलासलीलां विहाय सुरयोषाः ॥ यं शिश्रियुः स्वरीशाः श्रीवीरः श्रेयसेऽसौ वः ॥ ४ ॥ हरदासहंसशशिहा, रहारियशसोः शिवैषिसंश्रययोः ॥ ईहे वरिवस्यायै, वीरेशस्यांन्दिसारसयोः ॥ ५ ॥ शीलसरोवरलहरी, विहारशिशिरा असंवरीयो वः ॥ वीरस्य व्याहारा, व्हियासुरशरीरशौर्यहरा ॥ ६ ॥ नरु संशय शैलस्वरु, ररिहा वीराव्ह यो वरवृषांसः ॥ यवसेयाल्लौल्यं वा, वर्षारुहवारिवाहरवः ॥ ७ ॥ सरलाशयाः सुशी ला, रिरंसवः श्रायस श्रिया सह ये ॥ येषां श्रीवीरेश्वर, सेवारस एव हर्षाय ॥ ८ ॥ वीर शिवालयसरसी, वरलावर सर्वविषय विल्लास्य ॥ संवरसारसवासर, सर्वेषां लोलवीष्यवृ षं ॥ ए ॥ शीलश्रियो विवाहावसरे विश्वाश्रयो रसावलये ॥ यावर्ष वसुवर्षी, वि शां विशालैरयैरासीः ॥ १० ॥ श्राशंसे सहसाहं, वासवसेवाई शिवरसाल हरे ॥ रु हविश्रसावसाय, व्यवसायायासविरहवरं ॥ ११ ॥ हरुषयोर्विशरारु, श्रीसर्वस्वं हि शशिसरोरुहयोः ॥ शरारुस्वास्यश्री, लास्यविलासैर्विलोजयसि ॥ १२ ॥ संसा रसलिलराशेः, शोषे ऋषिरौर्वशेयश्व वीरः ॥ सर्वाशाला सियशो, राशिर हिंसारहःशा ला ॥ १३ ॥ उरसिशयालुः श्रेयः, श्रिया असंवरसरोरुहशशीव ॥ रायालयं शि वावह, रसाविहारः स्वसेवायां ॥ १४ ॥ संदानिकं ॥ विषह्य शिरः शूलं, विश्व लिहो विषयवैरिवारस्य ॥ व्याहरसि वृषरहस्यं, शस्याय शरीरिविसराय ॥ १५ ॥ शैश व एव सुसारः, स्वरहार्य शिरोविलोल सेव्यां हे ॥ संहरसि हेलयांहः, सिंहश्व वशेश्वरं सहसा ॥ १६ ॥ शिशिरांशु शिशिर लेइयै, रार्यव्यवहारलाल सैररुषैः ॥ संश्रीयसे क पीरो,रीयवल्लीवासिवरैः ॥ १७ ॥ उल्लासय स्वसेवारसशीले विशि शिवाबलों वी र ॥ अविरल विषय हलाहल, लही संहार सुशिरीष ॥ १८ ॥ श्रवसी वशयसि सौवै, हाररसैः सुरासुरादिविशां ॥ यैः सह रसालयाऽहा, सि हारहूरारसानरस ॥ १८९॥ रैहारिशरीरश्रीः, सुरासुरावार्यवीर्यशाली यः ॥ संवरवैरियशः शशि, राहुरशेषश्रियां वासः ॥ २० ॥ वरिवस्यः सूरिवरै, विहाय खाशारसा विहारियशाः ॥ अंहोऽसुरवंश : Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ३४३ हरिः, सुरशैलशिलाविशालोराः ॥ २१ ॥ शुश्रूषुशिष्यविसर,श्रवःसुहर्षरसवर्षिसंरा | वः ॥ अविलयवार्यैश्वर्य, श्रीयोषाश्लेषरसविवशः ॥२॥ सैषोऽसहायवीरः, शिवा रिवाराहवेष्वसुसहेषु ॥ विश्वस्य सुरोर्वीरुद, आयुष्यः श्रेयसां वीरः ॥ २३॥ संसारो रुविषालय, वारिविशोषौर्वहव्यवाहो वः॥अव्यानीलाऽलससुर, विलयाहावाऽविषय | शीलः ॥ २४ ॥ पंचनिः कुलकं ॥ अन्हियोऽलसस्य शिष्या,वयवलवस्याऽयविरहावि रसस्य ॥ श्रीवीर वीरयरया लेश्या अश्रेयसीरस्य ॥ २५ ॥ यः पंचवर्गपरिहारमनो कमेततश्चमत्कृतिकरं गुणकीर्तनं ते ॥ जिव्हायवर्ति वितनोति विपक्षितानाः श्री वीरनाग्ययुजि न प्रनवंति तस्मिन् ॥ २६ ॥ इति पंचवर्गपरिहारेण श्रीजिनप्रनसू रिक्तश्रीवीरस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीगौतमस्तवनं ॥ श्रीमंतं मगधेषु गौर्वर इति ग्रामोनिरामोऽस्ति यस्तत्रोत्पन्नमसन्नचित्तमनिशं श्री वीरसेवाविधौ ॥ ज्योतिःसंश्रयगौतमान्वयवियत्प्रद्योतनद्योमणिं तापोत्तीर्णसुव वर्णवपुष जत्येनूतिं स्तुवे ॥ १ ॥ के नाम ना गुरजाग्यसृष्टय दृष्टयै सुराणां || स्टहयंति संतः ॥ निमेषविघ्नोसितमानर्नेज्योत्स्ना मनोहत्य तवापिबद्या ॥२॥ निर्जित्य नूनं निजरूपलदम्यातृ णीकृतः पंचशरस्त्वया सः॥ इत्थं न चेत्तर्हि कुतस्त्रिने त्रनेत्रानलस्तं सहसा ददाह ॥३॥ पीत्वा गिरं ते गलितामृतेजाः सुराश्चिरं चक्रुरनो ज्यमिंडं ॥ सुधान्हदे तत्र मुनीश मन्ये लक्ष्मबलात् शैवलमीक्ष्यतेऽतः ॥ ४ ॥ सौ नाग्यनंग्यापि समाधिदाने प्रत्येति लोकः कथमेतदशः॥ यत्त्वांसमग्राथपिलब्धिका ताः समालिलिंगुः समकालमेव ॥ ५ ॥ त्वत्पादपीते विलुम्त्यमस्तिजेहनृत्याः | किल कल्पवृक्षाः॥ तैरप्यमाहंत तवोपमानोपमेयनावः कथमस्तु वस्तु ॥ ६ ॥ पदो नखाली तव रोहिणीयं मुदे न कस्या तरुचरित्रा ॥ वंदारुपुंसां वदनेउरंतःप्रविष्टविं बोपि शिवाय यस्याः ॥ ७ ॥ यत्केवलज्ञानमविद्यमानमथात्मनि स्वांतिषदामदा स्त्वं ॥ लोकोत्तरत्वे ननु तावकानां दिङ्मात्रमेतचरितानुतानां ॥ ७ ॥ नवजुणानां स्तुतयो गुणविधीयमाना विबुधाधिपायैः ॥ स्तुत्यांतरस्तोत्रकथामणस्य समाप्त ये वृत्करणीनवंति ॥ ए ॥ न रागवानो नजसेतिचारं नालंबसे वक्रगति कदाचित ॥ पुरस्कृते नोपि घनाघनाशी तथापि पृथ्वीतनयोसि रूढः ॥१०॥ प्रनो महावीर मुपास्य सम्यक् त्वयार्जितं यत्शकलारहस्यं ॥ गृहे यतित्वेष्यनिरूपरत्नत्रयोजुषा कीर्तिरतानि तेन ॥ ११ ॥ त्वमाणिमाधुर्यजिता पलाय्य सितोपला काचघटीं विवे Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ स्तोत्र. - - श॥ तत्रापि जीतिं दधती शलाकाव्याजेन जग्राह तृणं नु वक्रे॥१२॥ श्रीवीरसेवा रसलालसत्वात् तदाधिनी केवलबोधलक्ष्मी ॥ अप्यायतामादरिणीं वरीतुं तृणा य मत्वा त्वमिव त्वमस्थाः ॥ १३ ॥ अपोढपंके कविनिनिषेव्ये निरस्ततापे बद्ध नंगजाले ॥ विनो नवाङ्मुखगांगपूरे फुर्वा दिपूगास्तृणवत्तरंति ॥ १४ ॥राका मये दिग्वलये समंतात् यशःशशांकेन रुते ध्रुवं ते ॥ कुहूध्वनिः केवलमेव कंठदेशं पिकानां शरणीचकार ।। १५॥ जगत्रयोनासि यशस्तवेतत् कस्पतां साइमनेन चं ः ॥ यस्यापराईपि तृणस्य नैव प्रनाप्रनावो लनतेऽवकाशं ॥१६॥ उपद्मादिषु रूढिमात्रं त्वन्नानि तु श्रीर्वसतीति मुष्टिः॥कुतोन्यथा तऊपदीक्षितानां पुरःपुरो नृत्य ति नित्यमृदिः ॥ १७ ॥ वसुनूतिसुतोपि कौतुकं वसुंनूतेजनकः प्रणेमुषां ॥ नगव ननवोपि वर्तसे कथमंगीकतसर्वमंगलः॥ १७॥ नाधःकरोषि वृषमीश गणाधिपोपि धत्से सदास यमपाशमपि प्रचेताः॥श्रीदोपिसूत्रितयमालयवासकेलिस्त्वं पावकोपि हरसे हरहेतिपातं ॥ १५ ॥ यत्तपत्यपि कलौ जिनप्रनाचार्यमंत्रमनुशीलतां स्फुरेत् ॥ हेतुताऽत्र खलु तत्वदेकताध्यानपारमितयैव गृह्यते॥२०॥ मयैवं दुर्दैवं शमयितुमलं नूभुमहिमा सुतस्त्वं शेन श्रुतरथधुरा गौतमगुरो॥ कुरूद्योतं क्लीव दिनपतिसुधा गौत मसिमे प्रनो विद्यामंत्र प्रनव नवतो गौतम नमः॥१॥इति श्रीगौतमस्तवनं समाप्तम्॥ ॥अथ नेमिस्तवनं क्रियागुप्तं ॥ श्रीहरिकुलहीराकर, वजमणिर्वत्रपाणिना प्रणतः॥ त्वमवद्यमुक्त नेमे, प्रणमुषां शेमुषीमशुजां ॥ १ ॥ अवद्य॥मयि प्रसादप्रवणं कृपानिधे विधेहि शैवेय निजं मनस्त था॥ यथा जगन्नाथ मधुव्रत व्रतं नवे नवे तारकपादपद्मयोः॥शानवे॥नयेन नेमे या वंशमौक्तिक श्रियानिवासस्तव पादपंकजं ॥ दुःखोर्मिसंघट्टविघहितात्मना तेनाति गंनीरतमे नवांबुधौ ॥ ३ ॥ आति ॥ उनयार्णवमहातरीनिनाः स्यात्पदोपहितवस्तु विस्तराः ॥ पातकानि नवदीरितागिराऽजंतु जातशिवदानलालसाः ॥ ४ ॥ अजंतु ॥ खन्नखश्रेणिमयूखलेखा निर्वासिताशावलयांधकारं ॥ अवार्यसौंदर्य विलास गेऽहं तवांध्रियुग्मं शरणं प्रपद्ये ॥ ५॥ गे॥ यस्त्वया ऋजुपथः सतां मतो देववंडितकुतीर्थि | कवर्गः ॥ तं प्रपद्य निरवद्यमुद्यता नेदयंति ननु मुक्तिपुरीझाक्॥ ६ ॥ऊदे॥ वरिवस्या विधौ यस्ते सदिवेकविनारुतः॥ तस्यानिमुखमीदंते न जातु सुखसंपदः॥॥असत्॥ कर्मकदावलीपावकं तावकं पुर्नयाहंरूतित्रासनं शासनं ।। ये प्रपन्ना गुणस्नेहिनो देहिनस्ते सुराराध्यकुःखानि सुश्रियां ॥ ७ ॥ असुः ॥ विनवराज्यकलासुररा जतांवरमणीरमणीनिरलं मम ॥ हृदि पदांबुरुहस्मरणं चते गिरि च तथ्यगुणस्तव Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र.. २४५ नं तव ॥ ॥ चते ॥ जगहानश्रवणपुटामृतवटा तमोपहां सुललितरा गपेशलां ॥ उदीरयन् गिरमिलदेशनावनावरा गतामयसुखसंपदा सतां ॥ ॥१०॥ धराः ॥ नव्यान् नवन्रमणनीरुकचित्तवृत्तीन् सद्देशनानिरनितस्त्वमुरुष नावः ॥ दोषासमागमनिमीलितमलखंडमाश्वासयेन्न किमुरश्मिनिरंशुमाली॥११॥ यावः ॥ नूत्यानिनूतपुरुहूतपुरानिरामतां कुवैति संततमहोत्सवजाजमुर्वरां ॥ स्वबंदनंदधुमयानि महानुतानि ते कल्याणकानि जुवनेश विनाव्य चेतसा ॥ १॥ अयानि ॥ नास्त्वया ब्रमरविन्रमवर्णो हे मुनीं वपुषि प्रचरिमुः ॥ पापशात्रवनिब ईणकम ध्यानसंततिरिवाश्रितमूर्तिः ॥ १३ ॥ कहे ॥ उर्बोधं मे सपदि पदकीनत वास्तोः पते सदनगश्रेणीकुवलयवनश्यामलनायकाय ॥ आकौमारानुवनजयिनि यस्य ते ब्रह्मवर्म स्वैः कादंबने खलु मदनः स्प्रष्टुमप्यमीष्ट ॥१४॥ श्य ॥ नानो दनिनादयादवकुलश्रीकंठपीतीलुन् मुक्ताहारमहारथं रतिपतिं निर्जित्य जैनाजिरे ॥ कीर्ति कैरवकोमलामधिगतं त्वामेव देव प्रतुं श्रीमन्नेमिजिनेश्चं शरणं नीरुन वारातितः॥ १५ ॥ एमि ॥ सेवाहेवा किनः स्युस्तव पदयुगले येऽत्र नक्तिप्रयुक्तास्तेषां देवाः सदा पिप्रति हतविपदः संपदः सुप्रसन्नाः ॥ चिंतारत्नं प्रयत्नात् करतलकति तं कुर्वतां सर्वकालं कालं नेतर्नराणामटति सुघटतां नो मनोराज्यसिदिः॥१६॥पि प्रति ॥नवताऽऽरि जयोऽरैर्यशःप्रसरैः शुक्ततया जगत्रयं ॥ जिनसिविरिति प्रसिदिना क सुखसाम्राज्यमयी महापुरी॥ १७ ॥ आरि॥ अवगहतरां स्वसेवकं मां नगवन् यां च शिवस्य वर्तिनी त्वं ॥करुणाईमनाः कुरु प्रसादं मयि तस्याः सपदि प्रकाश नेन ॥ १७ ॥ अवक् ॥ मरकतकमनीयकांतिकाय त्वमनिनतें किरीटघटितांन्हे ॥ चिरमिन मम चंचरीकचर्या हृदय कुशेशयकोशमन्वजस्त्रं ॥ १५ ॥ अय ॥ निखिलज गतां गोता गुप्तक्रियास्तवसूत्रणादिति कृतनुतिः सानंदं श्रीजिनप्रनसूरीनिः ॥ नव तु जवतां नेत्तुं नूयो नवज्रमसंनवं जयमनयदोनीमः श्रीमडिवातनयःप्रनुः ॥२०॥ इति श्रीने मिजिनस्तवनं क्रियागुप्तं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीवर्धमानस्तवनप्रारंनः॥ कंसारिक्रमनिर्यदापगाधारागुआविराबदबविं ॥ उदोनिर्विविधैरधारधीः स्तोष्येऽहं चरमं जिनेश्वरं ॥ १ ॥ त्रैलोक्यनेतस्तव पुनयालीनिर्नाशनं शासनमाश्रितो यः॥ त स्यैवजायुधमाविरस्ति कर्मशैलेंऽनिदाविधाने ॥ २॥ किमेकमाश्चर्यकरं न ते यत् पुष्पंधयोप्येष विशेषविज्ञः ।। त्यक्तोपजातित्रमणानिलाषस्त्वदंगसौगंध्यमनुप्रयाति ॥ ३ ॥ यः सृजत्यजर सौरजसारैरंबुजैस्तव पदांबुजपूजां ॥ प्रेत्य तस्य दिवि देवमू Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ स्तोत्र. गादयः स्वागतानि निगदंति सरागं ॥ ४ ॥ वाजिवारणरथो ६ तानटैरुङ्गटा सुनग जोगगिनृत् || राज्यद्धिरुपनन्नमीति तं ननमीति तव यः पदौ मुदा ॥ ५ ॥ ना किनिकायकरप्रहतानां संप्रतरन् गगने मरुजानां ॥ जन्ममहे तव कस्य न जज्ञे दत्तमदो धकधतिनादः ॥ ६ ॥ ये नक्त्यातचमरविलसिता जः पादांबुरुहि तव विनो ॥ तैः श्रेयः श्रीर्मधुरमधुरसास्वादो सादात् समजनि कृतिनिः ॥ ७ ॥ तत्वा तत्वारोपलोपप्रवीणां प्रव्हप्राणित्राण संस्थाधुरीणां ॥ श्राज्ञां धत्ते मौलिना नव्यजं तुश्रेणिः श्राशालिनी तावकीनां ॥ ८ ॥ वसुधाम सुधामयवत्र विधो तव नाषित मायते छवि यः ॥ स सुखानि सुखानिरिवोद्यमणीन् बिनृते परितोऽटककीर्ति नरः ॥ ए ॥ स्रग्विणी कुंडलचा जिगल्लस्थला तारहारद्युतिद्यतिवचस्तटा || राजि राखंमलानामखंडादरा पादपीठे लुवत्तावके पावके ॥ १० ॥ कृणादेव तेषां शिव श्रीजंगप्रयातं विवृद्धिं शुभं कर्म पुंसां ॥ नवन्नाममंत्रस्य वर्णानुपूर्वी रसज्ञायव तिरापादिता यैः ॥ ११ ॥ द्रुतविलंबितमध्यरवध्वनद् विविधतूर्यमने कमी मयं ॥ कुसुमवर्षचितं तव देशनावनितलं कश्वैत्य न मोदते ॥ १२ ॥ मुकुरोज्वले ग नृतां हृदये प्रमिताक्षरापि बत वाक् भवतः ॥ धनियत्तया प्रतिपफाल जिनध्व नितोऽर्थतश्च जगदर्च्यधियां ॥ १३ ॥ जगत्प्रनो नक्तिनरादनुद्विजा द्विजातिवंशाद पहृत्य कृत्यवित् || नरेंड्वंशस्थमची कर बचीपतिर्भवंतं हरिनैगमेषिणा ॥ १४ ॥ वाचां ते निखिलनयाविरोधिनीनां दुर्बोधद्रुमदलने कुठारिकायां ॥ माहात्म्यं भुवनमनः प्रहर्षिणीनां निर्वक्तुं कइव यथावदस्तु शक्रः ॥ १५ ॥ सिद्धार्थराजकुलनंदनपारिजा नाम्यति तव कीर्तिरपारिजात ॥ वर्णेन दुग्धमधुरेण मतोजनाग सिंहो sat स्थिरता सुमनोजनाऽग ॥ १६ ॥ श्रति महति नवोर्मीमालिनीह मंतो जननमरणवीच्या घातदोदूयमानाः ॥ कथमपि पृथुपुष्याः प्राणिनः प्राप्नुवंति प्रव aura harai aावकीनं ॥ १७ ॥ लवणिमतर्जितस्मरपुरंधिरूपदर्पा घटितक टालशरविका मिमर्मा ॥ कनकमणीमयानर पर रिमरंजितांगी व्यजयत वाणि नी न जवतः समाधिमु ॥ १८ ॥ प्रबोधं नव्यांनोरुहवनमधीशाधिगमयन् ह रन् मोहध्वांतं परसमयताराः कवलयन् ॥ निविष्टः सिंहासन्यतममलनामंडलयु तो जवानानातिस्मोदय शिखरिणीव द्युतिपतिः ॥ १९ ॥ श्रमितदमितस्रोतो मा चतुरंगमसंगम त्रिदश हरणीनेत्रो नेत्रत्रिभाग विलोकितैः ॥ तव जिन मनः शेके कर्तुं मनागपि न स्वसाञ्चलयितुमलं किं हेमाड़ि युगांतमहाबलाः ॥ २० ॥ दारिद्र्यापत्प रिजवजनुर्विस्त्रसामृत्युडुः खैराः के के न तव बलव देव सेवां प्रपन्नाः ॥ किं स्याोग Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ २४७ प्रशमनपटोरोषधस्योपयुक्तौ मंदाक्रांता जगति जनता दुःसहेनामयेन ॥ २१ ॥ श रडुदित निशाकरांशुप्रना जैत्रकीर्तिच्चटाधवलित निखिल त्रिलोकीतलं श्रयोपासते सरनस विनमत्सुराधीशचूडामणिज्योतिषामरुणितपदपीठमूमिं निरेष्य व विस्त्वां प्रो ॥ २२ ॥ बाणो नखविक्रियां जयकरी धूतोल्लस हालधीरौई शब्दम नीचकैः प्रकटयन् नूयोवनी कादृतः ॥ त्वशक्त्या नृतकोप्यवाप्य नृपतां मांसादरं वर्धयन् धत्तेऽनेकपरा जिदर्पदलने शार्दूलविक्रीडितं ॥ २३ ॥ विद्यामंत्रैर्न कार्य सुर तरु जिरलं वित्तेन च मृर्त पर्याप्तं राज्यलक्ष्म्या कृतममरतया ह्यास्तां सुवदना ॥ स्फू वेका तु स्त्वियि मम मनसि ध्वस्ता खिलमला कैवल्यश्रीर्यया स्यात् करतल निल या साऽन्हाय नगवन् ॥ २४ ॥ श्रीवीरः सर्वदिक्कैः कनकरुचितनूरो चिरुदी प्रदीपैर्मंग व्यः सोस्तु दीपोत्सव इव जगदानंदसंदर्भ कंदः ॥ सूक्तिजैनप्रनीयं मृडुविशदपदा स्नग्ध राधीयमाना नव्यानां नव्यनूत्यै भवतु नवतुदे जावनानावितानां ॥ २५ ॥ इति श्री वर्धमान स्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ चतुर्विंशतिजिनस्तवनं ॥ कनककांतिधनुः शतपंचको द्वितवृषांकितदेहमुपास्महे ॥ रतिपतेर्जयिनं प्रथ मंजिनं नृवृष वृषनं वृषनंजिनः ॥ १ ॥ द्विरदलांबित वांतिदायक क्रमलुवत्रि दशासुरनायक ॥ स्तुतिपरः पुरुषो नवति द्विता वजित राजितरा जितराग ते ॥ २ ॥ तुरग लांबनसंनव संवत्यहरिदं जिन यत्र रसादहं ॥ हृदि दधे नणितीर्गुणनूरुहां शमहिता महितामहि तावकीः || ३ || नवमहार्णव निस्तरणेडया त्वमनिनंदन देव निषेव्यसे || व्रतनृतां कुगतेः स्मरनिग्रहप्रसनया सनया सन्यात्मना ॥ ४ ॥ त्रिभुवनामितका मितपूरणे सुरतरोरुपमामतिगामुकौ ॥ तव विनो नजते नवतः मासुम सुम सुमतेर्दद || ५ || धरनृपात्मज षष्ट जिनेश्वर त्वयि कृतप्रण यः क्रियते पतिः ॥ रजसतः प्रथितार्थिदरि तोपरमया रमया रमयान्वितः ||६|| प्रसुपार्श्व जगत्रितयाऊनुः पवितकाशिपुरी कवीलक्षणः ॥ सुकृतिनः कृतिनश्वरितं वि दुःशुजवतो नवतो नवतोदनं ॥ ७ ॥ कुनयकानननंजनकुंजराः शशिरुचे महसेन सुत प्रनो || निखिलजीवनिकाय हितोक्तिनिः शुनवदा नवदा नवदागमाः ॥ ८ ॥ |युधि विजित्य मनोजवमग्रहीन्मकर मंक मिषाध्वजमस्य यः ॥ स्तुतजनाः सविधिं कुदृशां सुरस्तुतमसंतमसं तमसंस्तुतं ॥ ए ॥ दृढरथांगजशीतल शीतलद्युतिकला वि मला तव भारती ॥ मनसि कस्य न हर्षसनाथतां जिन ततान ततानततायिनी ॥ १० ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចុច स्तोत्र. जयति गंडकलक्ष्मतनुर्जिनः शशिमुखांबुजक् दशमोत्तरः ॥ कनकदीप्तिरमर्षितहीर कस्तवरदो वरदो वरदोर्युगं ॥ ११॥ गुनमयी वसुपूज्यसुत प्रनो नुवननेत्रमहो महि षांकिता॥ तव तनुर्वितनोतु सुखं सतामरुचिरं रुचिरं रुचिरंजिता ॥ १२ ॥ सकलस वसरोजविकासने रविरुचिर्विमल त्रिजगत्पते ॥ अपि शमं नयते तव गीर्जिनामृत रसा तरसा तरसा तृषं ॥ १३ ॥ निजयशोनरनिन्दुतजान्हवीजलवल दिमकिर्तिरनं तजित् ॥ दिशतु वः कुमतासुरनिग्रहे नृशमनःशमनंः शमनश्वरं ॥ १४ ॥ नवनयं तव धर्म धुनोतु वाक्श्रुतिपथाऽतिथितां गमिता सती॥ किमु करोति न पित्तरजःशमं वरसिता रसिता रसिताजुषा ॥ १५॥ जयति शांतिजिनः स्म जगंति या नटचमूर्यु घि मोहमहीपतेः ॥ रणकथामपि नक्तिनरेण ते ससहसा सहसा सहसाऽमुचत् ॥१६॥ अवति कुंथुजिनाधिपराज्यमाहिमवत स्त्वयि चक्रहताहितं ॥ त्रिदिवतोऽन्य धिका जनिदिनिधनरंसा नरसानरसारकं॥१७॥जगदधीश सुदर्शन नूमिपान्वयपयः सरिदीश निशामणे॥प्रणिदधेऽतिषदो विशदव्रता वनरतानरता नरतावकान् ॥१७॥ हृदि नरस्तवमन्निजिनस्मरन्नपि हि मूर्तिमुपैति महत्फलं ॥ निरामयन् समताकरु एगांचितां किमुदिता मुदिता मुदितादरः॥१॥ त्वमिन सुव्रत कापलांनो जनरुचि हरिवंशविनूषणः ॥ शिवसुखाय तपःपरशुबिताऽशुनवनो नवनो नवनोधियां॥२०॥ विरतिवर्म तटाहतिकुंगितस्मरशरः शरणीक्रियतां त्वया ॥ गुणगणस्य नमिर्बुधबई व्रजनना जननाजन नावनक् ॥ २१॥ अनुमितं खल नेमिविनोनवन्रमणतो मयका यदि यचिरं ॥ महितपादनवान् नवतः कृपानवनमानवमा वनमालिना ॥ २२ ॥ कमशासन पार्श्वशिवंकरे रमतएव मनः प्रियधर्मणां ॥ अपि कुंतीर्थ्यज नेन उरात्मना तव मतेऽवमतेऽवमतेजसः ॥ १३ ॥ त्रिजगदीक्षण केसरिलदरा द णमपि प्रनुवीर मनोगिरौ॥ गुणगणान् मम मास्म विरज्यतामुदयिता दयितादयि तावकान् ॥ २४॥च्युतिजनुव्रत केवल निर्वृतिवाणदिनाददतां मुदमार्हताः॥ व्यरचि यैरुपयत्रिदशैदृशां नवसुंधा वसुधा वसुधामनिः॥२५॥ इति जिनप्रनवोमयकांऽति मक्रमगतैर्यमकाऽवयवर्नुताः ॥ बलममी वितरंतु धुरिस्थिताःगुनवतांनवतां जवतां तिनित्॥ २६॥ सउपदेशकर प्रसरक्षिताऽखिलतमस्कतया तपनोपमाः॥ ददतु तीर्थ कतो मम निर्ममाः शमरमा मरमाऽमरमानिताः॥२७॥ जयति उनयपंकजिनीवने हिमततिर्मतिकैरवकौमुदी॥शमयितुं तिमिराणि जते महाजिननाजिन नाजिनजार ती॥२०॥करकताम्रफला एणती जिनप्रनवतीर्थ मिनारिमधिश्रिता ॥ हरतु हेमरू चिः सुदृशां सुखव्युपरमं परमं परमंबिका ॥२॥इति चतुर्विशतिजिनस्तवनं समाप्त। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. अथ श्रीमहावीरस्तवनप्रारंनः पराक्रमेणेव पराजितोऽयं सिंहः सिषेवे धृतलार्दनः ॥ सुखानि वः रवानिरयं र माणां वैमातुरस्तीर्थकरः करोतु ॥ १ ॥ सप्ताश्वतेजाः करसप्तकोजः कर्मेधसप्ता सिरसप्तनीतिः ॥ प्रणीतवान् सप्तशती नयानां वीरः श्रिये व्यंजितसप्ततत्वः ॥ २ ॥ शकानत प्राणतकल्पपुष्योत्तरात्वमाषाढवलक्षष्टयां ॥ देवाधिदेव विजदारदेवा | नंदोदरेऽनर्विहितावतारः ॥ ३ ॥ पस्य नंद्यादसिता त्रयोदशी व्यशीत्यहानंत | तरमीशितस्ततः ॥ सुरेशसेनापतिदेशिताध्वना दात्रं कुलं यत्र पवित्रितं त्वया | ॥४॥ प्रनूतनूतियुनवनुवा नवऊनुर्महे नोऽजनि हेजिन ध्रुवम् ॥ जगत्रयीजंतु षु हर्षवर्षिणी निरूढरूढिर्मदनत्रयोदशी ॥ ५ ॥ त्वया स्वदेहातिसंविनागसंनावि तं हेम सुवर्णमासीत् ॥ तारंतु हीनं त्वदनुग्रहेण उर्वर्णमित्यापदवर्णवादं ॥ ६ ॥ | बाल्ये विबोधाय हरेः सुरादिः पादायनुन्नस्तव यञ्चकंपे ॥ चित्रीयता त्वत्तरसा रसात न्मूर्धानमाधूनयतिस्म नूनं ॥ ७ ॥ बनूव नाग्यातिशयप्रनावात गुरुस्तवापि त्रिजग जुरोयः ॥ युक्त्यैव तं मेरुगिरेगरिष्ठं सिदार्थमप्यार्यगणा गृणंति ॥ ॥ कथं गु णैः प्राप्तयशःपताका नारीषु नास्तु त्रिशलाशलाका ॥ यत्कुदिशुक्तौ विमलः सुट तो मौतिक्यनूस्त्वं गुणयुक्तिहृद्य. ॥ ॥ दिवि प्रवकं सुरमीश मुष्टिघातेन यज्ञाम नतामनैषीः ॥ गर्वा विर्वीकरणश्रमं तु चकर्ष तीर्थेश्वर शैशवेन तत् ॥ १० ॥ मो दं गमी यः खलु तन्नवेपि गंतुं कथं सोर्हति लेखशाला ॥ इतीव शकोऽपललाप पित्रोरनौचितिं ते विनयेन धीमान् ॥ ११ ॥ व्याकुर्वतस्ते हरये यदागमं संगृह्य बु ध्या कतिचित् गिरां लवान् ॥ अध्यापको यदिधे तउच्चकैरें वि व्याकरणं प्र थामगात् ॥ १२ ॥ यस्या न कस्यो दितमुक्तिमार्गमार्गस्य कमा दशमी शमीश ॥ प्रा ज्यं प्रनो यत्र विसृज्य राज्यं श्रमण्यसाम्राज्यमुपायंयास्त्वं ॥ १३ ॥ शिवालये प्रो जिफतविग्रहं यत् त्वत्पादमूले चमरं निलीनं ॥ नारिदंनोलियमः प्रचंडो नस्प्र टुमाप्यैष्ट किमत्र चित्रं ॥ १४ ॥ न बाधितुं जातु दधुः समर्थतां मुनीइ धातोरि व नान्ववर्तिषुः ॥ समाधिरूढां प्रकृतार्थसंपदं तवोपसर्गा व्यशिर्षस्तु केवलं ॥१५॥ न कौशिके रागमुपासनापरे करोषि रोषं स्म न चमकोशिके ॥ अहो नदासीनत यैव निर्जिता चमूस्त्वया उर्विषहापि कर्मणां ॥ १६ ॥ निबर्हितुंगां सुर नर्तुरुद्यतस्तथा तथा यो उरचेष्टत त्वयि ॥ बहिः कृतः स्वर्गिसमाजसंगमा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० स्तोत्र. त् ससंगमः स्यान्नकथं जनंगमः ॥ १७ ॥ एकाग्रपक्षत्रिशतावसाने श्रीवीरती रे रुजुवालिकायाः ॥ तवोदगात् केवलरुधिरस्ताऽपराधराधस्य शुचौ दशम्यां ॥१७॥ एकादमादुर्मुनयः कथं मामितीव कोपात् त्वउपर्यशोकः ॥ अदीदृशत् षट् पदगर्नपुष्पव्याजस्फुरत्तारकढक्सहस्त्रं ॥ १५ ॥ सुरैर्विकीर्णास्तव देशनावना बनुः प्रसूनप्रकराः समंततः ॥ जयश्लथीनूतकरात्परिच्युताः शराश्वानंगजटस्य कौसुमाः ॥ २० ॥ स्फुटीनवन्मालककोशिकीमुखप्रशस्तरागस्तवसंस्तवोचितः ॥ प्रविश्य दि व्यः श्रवणाध्वनि ध्वनिमुदे न केषां रजयन् मृगानपि ॥ २१ ॥ स्थातुं चलञ्चामर युग्मकैतवात् त्वदीयदंतयुतिजान्हवीजले ॥ ध्रुवं त्वदास्यांबुजवासिनारती युग्ये नपेतां कलहंसदंपती॥ २२ ॥ स्थैर्य हतं यनवता शिशुत्वे तद्याचनाय स्फुटमे प मेरुः॥ स्वयंसमागादिति तुंगहेमसिंहासने ते करवंति तर्क ॥ २३ ॥ हंतुं दमो | हं तम एकमेव तदेहि मेसर्वतमोपहत्वं ॥ इतीव विज्ञापयितुं सिषेवे जामंडलम धरो रविस्त्वां ॥ २४ ॥ दूराऊराजन्मनिदे नवजीः सुधासपीत्यै त्रिजगऊनौघं ॥ नूनं नदन् संसदि देवदेवैर्दिव्याहतो दुनिराज्जुहाव ॥ २५ ॥ मेदं प्रमाणांतरद शितं सन्नमस्यते सर्व इतीव पुंसां॥ सितातपत्रत्रितयबलेन रत्नत्रयं दर्शयतिस्म सा दात् ॥ २६ ॥ सुपर्वसंचारितहेमपंकजापदेशतचंक्रमणक्षणे किस ॥ गतस्टहस्या पि गुणैर्वशंवदाः पदोस्तले ते निधयो नवालुन् ॥ २७ ॥ त्रैलोक्यसंयुक्तनिरंकुशश्रि प्राकाररेखात्रयवेष्टितांगं ॥ नैदंत धन्याः कतिनाम रहायंत्रोपमं त्वां सुमनोर्चनीयं ॥ २७ ॥ त्वत्प्रातिहार्यश्रियमित्यवेदय चेतो न यस्येश चमञ्चकार ॥ स केवली चेन्न तदा ऽस्तु तस्य नरब्रुवस्याजननिर्जगत्यां ॥ २७ ॥ अनिंद्यविद्यावदनेदर्पणा गणा | धिपास्ते यदसूत्रयन् श्रुतं ॥ गिरस्तवैव त्रिपदीसुधाकिरः सतां मनःस्वप्रथितेन गौ रवं ॥ ३० ॥ अशेषनाषापरिणाममंजुलं विचित्रसंदेहविषांतवळालं ॥ स्तुवे वच स्ते नयनिर्विरोधता विधायि संबोधविधौ निबंधनं ॥ ३१ ॥ तप्त्वा तपः षष्टमपास्तन व्यलोकार्तिकः कार्तिकदर्शरात्रौ ॥ अपापमापुः पदमीश पापा पुर्या दियुगसप्त तिवत्सरायुः ॥ ३२ ॥ स्वे यत्र बुझे सति फल्गुनीषु जाले स्मरोऽनून्मृतकल्पमानी तविश्ववंद्योत्तरफल्गुनीषु बनूव कल्याणकपंचकं ते ॥ ३३ ॥ नुवनाधिपतेरनंतया नवतः स्वातिगतेऽत्र नाधिपे ॥ उदयाधुचितं घनाघनोदकयोगानवमौक्तिकश्रि या ॥ ३५ ॥ ज्ञातेवाकुकुलप्रदीप नगवन् वंदारुतदारकश्रेणीरत्नकिरीटकांतिलहरी संस्त्राप्यमानांहये ॥ मोहोर्वीपतिगर्वपर्वतनिदि व्याधामधामश्रियामांतं जिनसिं दसूरिमहित श्रीवीर तुन्यं नमः ॥३५॥ इतिस्तुतिपरायणे त्रिजगदेकचूडामणे प्रसीद Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. परमेश्वर स्वरसनक्तिनने मयि ॥ नवेन्मम नवेनवे नवपासनावासना जिनप्रनवसं विंदां वरद पूर्णमेतावता ॥३६॥ इति पंचकल्याणिकमयं श्रीमहावीरस्तवनं समाप्तम्॥ ॥अथ श्रीमंत्रस्तवनप्रारंनः ॥ स्वःश्रियं श्रीमदर्हतः सिक्षाः सिदिपुरीपदं ॥ आचार्याः पंचधाऽऽचारं वाचका वाचनां वरां ॥ १ ॥ साधवः सिदिसाहाय्यं वितन्वंतु विवेकिनां ॥ मंगलानां च सर्वेषा माद्यं नवति मंगलं ॥ २ ॥ अहमित्यदर माया बीजं च प्रणवादरं ॥ एनं नानास्व रूपं च ध्येयं ध्यायति योगिनः ॥ ३ ॥ हृत्पद्मषोडशदलस्थापितं षोडशारं ॥ पर मेष्टिस्तुतेर्बीजं ध्यायेदददं मुदा ॥ ४ ॥ मंत्राणामादिमं मंत्रं तंत्रं विघ्नौघनिग्रहे ॥ ये स्मरति सदैवेनं ते नवंति जिनप्रनाः॥ ५॥ इति श्रीजिनप्रनविरचितं मंत्रस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीवर्धमानस्तवनप्रारंनः॥ श्रीवईमानः सुखपदयेऽस्तु यशःप्रतापैरनिवर्तमानः ॥ सिक्षायिका रति यस्य तीर्थ विघ्नौषतः संततमेव देवी ॥ १ ॥ जिनेंड नेश अपि तावकीनां स्तोतुं गुणान् शक्तिजुषस्तथापि ॥ जत्येरितस्तान् कतिचिन्नवीमि नाज्ञः स्वमात्रां विविनक्ति वीर ॥ २॥ नयाध्वनां नाथ कतैकमत्यैरश्रांतमेकांतहितोपदेशः ॥ करैरिवोलद्युति ना तमिस्त्रास्त्वया नतानां जवनीनिरासि ॥ ३ ॥ प्रणीयतेऽस्मानुतरत्नचित्रैः स मं विमानस्त्रिदशागमेन ॥ कल्याणकैवलयं त्वदीय स्त्रिविष्टपान्यूनमनूनदि॥४॥ नवंतमीशं नजतोऽनुजातु छःखान्यलं कानि च नापि तापैः॥पाणिस्थचिंतामणिमंग जाजं का नितिः पीडयितुं शशाक ॥५॥ सूर्यप्रना मोहतमःसमूहव्यापादने संशयव | निदात्री ॥ त्वदेशनावाग् जयति त्रिलोकीलोकस्य कर्णामृतष्टितुल्या ॥ ६ ॥ रिपून् विजित्यांतरगानगाधवीर्येण सत्झानरमां निवेश्य ॥ करर्यकार्षीरिन मुक्तिपुर्याः सा म्राज्यमज्यानि सुखोत्करेण ॥ ७ ॥ निस्सेव पीयूषनुजा जनस्य मनाति मिथ्यात्व विषोर्मिपूरं ॥ तव प्रना नेत्रपुटनिपीता कतस्थितिवमणि निःकलंके ॥ ॥ वृत्ताष्ट काद्यदनामधेयैस्तदंत्यवर्णाहितनामकेऽन्हि ॥ श्यं स्तुतिर्वीर जिनस्य दृष्टा करोतु क व्याणमनुतरं वः ॥ ए ॥ इति जिनप्रनसूरिकृत श्रीवईमानस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीपार्श्वस्तवनप्रारंनः॥ पार्श्व प्रतुं शश्वदकोपमानं दकोपमानं नववन्हिशांतौ ॥ थाराधता दत्तनिरंतरा | यं निरंतरायं पदमाप्तुमीडे ॥ १ ॥ वीदे जगन्नेत्र महान यत्र महानयत्रस्य तवांति Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ບ स्तोत्र. युग्मं ॥ यः स एवाऽवसरोऽमराली सरो मरालीव निषेवते यत् ॥ २ ॥ प्रणेमुषां पूर्ण समस्त कामं समस्त कामं सकृदप्यधीश || नवंतमानम्य विमानमाया विमानमा याः प्रभवो नवति || ३ || नयाढ्यमुद्यजमनंगमाल मनंगमालदितसर्वनावं ॥ कैर्ना म धीमनिमानि शांतं रमानिशांतं न वचस्त्वदीयं ॥ ४ ॥ नित्यं प्रमादेन विना शि तामं विनाशितामंगल मंगनाजां ॥ त्वन्नाम धन्यः स्मरतीश सारं रतीशसा रंगमृगेंड् नादं ॥ ५ ॥ नृत्यपि योत्राऽवृजिनप्रभावे जिनप्रनावैकरसस्त्वयि स्यात् ॥ सरूपवा नीरजाश्वसे गजाश्व सेनेश्वरतामुपैति ॥ ६ ॥ नूयान्नमो नीलतमाऽलकाय तमाल कायप्रन तुभ्यमेव ॥ जवात्त्वदन्यः कतमोऽविता न तमोवितानविदुरोऽर्क एव ॥ ७ ॥ त्वयुक्तत्येष्वविरामवामे विराम वामेय मयि प्रसीद ॥ नव्यान् स्तवः पातु जिन प्रनोऽयं जिनप्रनो यं विदधे यतः ॥ ८ ॥ इति जिनप्रनसूरिविरचितं श्रीपार्श्वस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीपार्श्वनाथ स्तवन प्रारंभः ॥ श्री पार्श्वपादानत नागराज प्रोत्सर्पदेनः कफनागराज ॥ सतां हृताऽसत्परिणामरागं त्वां संस्तुमः स्थैर्यगुणाऽमराऽगं ॥ १ ॥ ये मर्त्यदेवासुरमाननीयं पश्यंति ते श्रीन माननीयं ॥ सद्यस्त्रिलोकी तिलकाऽमितानि सिध्यंति तेषामिह कामितानि ॥ २ ॥ शोयं पद्मदलानुकारं नाशिश्रयत्ते कमजानुकाऽरं ॥ कुतोऽन्यथा त्वन्नतिदीक्षितेषु स वैश्रियां प्रेम तदीहितेषु ॥ ३ ॥ अन्यर्हितं नव्यकदंबकानां हर्षप्रकर्षाल्लिस दबकानां ॥ सेवंति ये त्वां विधिवननं ते निर्वाणसौख्यं बुधवल्लनं ते ॥ ४ ॥ रतेरहंकृत्यपनायिका निर्वपुः श्रिया ते सुरनायिकानिः ॥ नाहोनि चेतः परजावलीनमचित्य विस्तारि शु नावजीनं ॥ ५ ॥ प्रनो तवाऽस्तस्मरराजमाने नखांशुजालेन विराजमाने ॥ क्रमांबु जे गृहे रसेन कार्चनीय स्तुमहे रसेन ॥ ६ ॥ याकांक्षिता बहुविधं जनतानि रामाऽस्टष्टामहोदयपुरी ध्रुवतानिरामा || अप्यध्वरश्रुतितपः सवनादृतेन पुंसाऽऽ प्यते जिन तव स्तवनादृतेन ॥ ७ ॥ इत्थं फणी सततश्रितपार्श्व नाऽथ स्त्री वा स्तवं पठति यस्तव पार्श्वनाथ ॥ तस्मै स्ष्टहामवृजिनप्रनवाय नव्या लक्ष्मी विजर्ति सुमनःस वायव्य ॥ ॥ इति जिनप्रनसूरिविरचितं श्री पार्श्वनाथस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीनंदीश्वरकल्पप्रारंभः ॥ आराध्य श्रीजिनाधीशान् सुराधीशाचितक्रमान् ॥ कल्पं नंदीश्वर द्वीपस्याच देवि श्वपावनं १ ॥ यस्ति नंदीश्वरोनाम्नाऽष्टमोदीपो घुसंनिनः ॥ तत्परिदेपिणा नं दीश्वरेणांनोधिना युतः ॥ २ ॥ एत ६लय विष्कंने नक्काशीतिश्चतुर्युता ॥ योजना Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ३५३ नां त्रिषष्टिश्च कोट्यः कोटीशतं तथा ॥ ३ ॥ असौ विविधविन्यासोद्यानवान् देव नोगतः ॥ जिनेशपूजासंसक्तसुरसंपातसुंदरः ॥ ४ ॥ अस्य मध्यप्रदेशे तु कमात् पूर्वादिदिक्कु च ॥ अंजनवर्णाश्चत्वारस्तिष्ठत्यंजनपर्वताः ॥ ५ ॥ दशयोजनसहस्रा तिरिक्तविस्तृतास्तले ॥ सहस्त्रयोजनाश्चाई कुमेरूज्याश्च ते ॥ ६ ॥ तत्र प्राक देवरमणो नित्योद्योतश्च दक्षिणः ॥ स्वयंप्रनः प्रतीच्यस्तु रमणीय उदस्थितः ॥७॥ शतयोजनायतानि तदर्ध विस्तृतानि च ॥ विसप्ततियोजनोच्चान्यर्हचैत्यानि तेषु च ॥ ॥ ७ ॥ पृथक् वाराणि चत्वार्युच्चानि षोडश योजनी ॥ प्रवेशे योजनान्यष्ट विस्ता रेप्यष्ट तेषु तु ॥ ए ॥ तानि देवासुरनागसुपर्णानां दिवौकसां ॥ समाश्रयादेव तेषां नामनिर्विश्रुतानि च ॥ १० ॥ षोडशयोजनायामा स्तावन्मात्राश्च विस्तृतौ ॥ अष्ट योजनकोत्सेधास्तन्मध्ये मणिपीलिकाः ॥ ११ ॥ सर्वरत्नमया देवखंदकाः पीविकोप रि॥ पीठिकान्योऽधिकायामोज्यनाजस्तु तेषु च ॥ १२॥ षना वर्षमाना च त था चंशननापि च ॥ वारिषेणाचेति नाम्ना पर्यकासनसंस्थिता ॥ १३ ॥ रत्नमद्योयु ताः स्वस्वपरिवारेण हारिणा ॥ शाश्वताहत्प्रतिमाः प्रत्येकमष्टोत्तरं शतं ॥ १४ ॥ नागनूतकुंडनृत् प्रतिमे पृथक् पृथक् ॥ प्रतिमानां पृष्टतस्तु बननृत् प्रतिमैकिका ॥ १५ ॥ तेषु धूपघटीदामघंटाष्टमंगलध्वजाः ॥ बतोरणचंगेर्यः पटलान्यास नानि च ॥ १६ ॥ षोडश पूर्णकलशादीन्यलंकरणानि च ॥ सुवर्णरुचिररजो वालु कास्तत्र नमयः ॥ १७॥ आयतनप्रमाणेन रुचिरा मुखमंडपाः ॥ प्रेदार्थमंडपा अक्वाटिकामणिपीतिकाः ॥ १७ ॥ रम्याश्च स्तूपप्रतिमाश्चैत्यवृद्धाश्च सुंदराः ॥ इध्वजाः पुष्करिण्यो दिव्याः संति यथाक्रमं ॥ १७ ॥ प्रतिमाः षोमश चतुरिस्तू पेषु सर्वतः ॥ शतं चतुर्विशमेवं ताः साष्टशततद्युताः ॥ २० ॥ प्रत्येकमंजनाझीणां ककुव्सु चतसृष्वपि ॥ गते लदे योजनानां निर्मत्स्यस्वनवारयः ॥ २१ ॥ सहस्त्र योजनो देधा विष्कंने लक्ष्योजनाः ॥ पुष्करिण्यः संति तासां कमान्नामानि पो मश ॥ २२ ॥ नंदिषेणा चाप्यमोघा गोस्तूपाऽथ सुदर्शना ॥ तथा नंदोत्तरानंदा सु नंदा नंदिवर्धना ॥ २३ ॥ नश विशाला कुमुदा पुंडरीकिणिका तथा॥ विजया वै जयंतीच जयंती चापराजिता ॥ २४ ॥ प्रत्येकं योजनं पंच पंचशत्या परत्रच ॥यो जनानां पंचशति यावदिस्तारनांजि तु ॥ २५ ॥ लक्ष्योजनदीघागि महो यानानि तानि तु ॥ अशोकसप्तबदक चूत चंपकसंझया ॥ २६ ॥ मध्ये पुं ष्करिणीनां च स्फटिकाः पत्यमूर्तयः ॥ ललामवो दुद्यानादिचिन्हा दधिमुखाइ यः ॥ २७ ॥ चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः सहस्रं चावगाहिनः ॥ सहस्राणि दशा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ स्तोत्र. धस्ताडुपरिष्टाच्च विस्तृताः ॥ २८ ॥ अंतरे पुष्करिणीनां द्वौ द्वौ रतिकराचलौ ॥ त तो नवंति द्वात्रिंशदेते रतिकराचलाः ॥ २९ ॥ शैलेषु दधिमुखेषु तथा रतिकराड़ि षु ॥ तचाश्वतार्हचैत्यानि संत्यंजन गिरिष्विव ॥ ३० ॥ चत्वारो दीपविदिक्त तथा रतिकराचलाः ॥ दशयोजन सहस्रायामविष्कंनशालिनः ॥ ३१ ॥ योजनानां स हस्रं तु यावडुयशोजिताः ॥ सर्वरत्नमयादिव्या ऊल्लर्याकारधारिणः ॥ ३२ ॥ त यो रतिकराचलयोर्दचिणस्थयोः ॥ शक्रस्येशानस्य पुनरुत्तरस्थितयोः ष्टथक् ॥ ३३ ॥ यष्टानां महादेवीनां राजधान्योऽष्टदिक्तु ताः ॥ लहाबाधा जमाना जिना यतनभूषिताः ॥ ३४ ॥ सुजाता सौमनसा चार्चिमाली च प्रजाकरा ॥ पद्मा शिवा तथा च्यंजने नूतावतंसिका ॥ ३५ ॥ गोस्तूपासुदर्शने श्रप्यमलाप्सरसौ तथा ॥ रोहिणी नवमी चाथ रत्ना रत्नोच्चयापि च ॥ ३६ ॥ सर्वरत्नसंचया च सुवसुर्वसु मित्रिका ॥ व सुनागादि च वसुंधरानंदोत्तरे अपि ॥ ३७ ॥ नंदोत्तरकुरुर्देवकुरुः कृष्मा ततो पिच ॥ कृष्मराजी रामरामा रक्षिता प्राक् क्रमादमूः ३८ ॥ सर्व ईयस्तासु देवाः कुर्व ते सपरिदाः ॥ चैत्येष्वष्टाहिका पुण्य तिथिषु श्रीमदर्हतां ॥ ३५ ॥ प्राच्चें जन गिरौ शक्रः कुरुतेऽष्टाहिकोत्सवं ॥ प्रतिमानां शाश्वतीनां चतुर्द्वारे जिनालये ॥४०॥ तस्य चाश्चतुर्दिकुस्थ महावापीवितर्दिषु ॥ स्फाटिकेषु दधिमुखपरितेषु चतुर्ष्वपि ॥ ४१ ॥ चैत्येष्वर्हत्प्रतिमानां शाश्वतीनां यथाविधि ॥ चत्वारः शक्रदिग्पालाः कुर्वते ष्टा हिकोत्सव ॥ ४२ ॥ ईशानें स्त्वोत्तराहेंऽ जना विदधाति तं ॥ तल्लोकपालास्त छापी दध्यास्यादिषु कुर्वते ॥ ४३ ॥ चमरेंशे दाक्षिणात्येंऽ जनावुत्सवं सृजेत् ॥ तद्वाप्यंत दधिमुखेष्वस्य दिग्पतयः पुनः ॥ ४४ ॥ पश्चिमें जनशैलेतु बलींः कुरुते महं ॥ तद्दि पालास्तु तद्वाप्यंतर्नादधिमुखादिषु ॥ ४५ ॥ वर्षदीप दिनारब्धानुपवासान् कुटू तिथौ || कुर्वनंदीश्वरोपास्त्यै श्रायसी श्रियमाश्रयेत् ॥ ४६ ॥ नक्त्या चैत्यानि वंदा रुस्तत्स्तोत्रस्तुतिपाठना ॥ नंदीश्वरमुपासीनोऽनुपवदस्तरेत्तरां ॥ ४७ ॥ प्रायः पू र्वाचार्य ग्रथितैरेवायमाचितः श्लोकैः ॥ श्रीनंदीश्वरकल्पो लिखित इति श्रीजिन प्राचार्यैः ॥ ४८ ॥ इति श्रीजिनप्रजाचार्यविरचितनंदीश्वरकल्पः समाप्तः ॥ ॥ अथ श्रीशारदास्तवनप्रारंभः ॥ वाग्देवते नक्तिमतां स्वशक्तिकलापवित्रासितविग्रहा मे ॥ बोधं विशुद्धं नवती विधत्तां कलापवित्रासितविग्रहा मे ॥१॥ अकंप्रवीणाकलहंसपत्राकृतस्मरेणानमतां निहंतुं ॥ कंप्रवीणा कलहंसपत्रा सरस्वती शश्वदपोहता ६ः ॥ २ ॥ ब्राह्मी विजे Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. षीष्ट विनिकुंदप्रनावदाता घनर्जितस्य ॥ स्वरेण जैत्री तुना स्वकीयप्रना वदाता घनर्जितस्य ॥ ३ ॥ मुक्तादमालालसदौषधीशाऽनिशूज्वला नाति करे त्व दीये ॥ मुक्ताक्षमाला लसदोषधीशा यां प्रेक्ष्य नेजे मुनयोपि हर्ष ॥ ४ ॥ ज्ञानं प्रदातुं प्रवणा ममातिशया खुनाना नवपातकानि ॥ त्वं नेमुषां नारति पुंडरीक शयालुनानानवपातकानि ॥ ५ ॥ प्रौढप्रनावा समपुस्तके न ध्याता सि येनाबि विरा | जिहस्ता ॥ प्रौढप्रनावा समपुस्तकेन विद्या सुधापूरमदूरःखा ॥ ६ ॥ तुज्यं प्र णामः क्रियते नयेन मरालयेन प्रमदेन मातः॥ कीर्तिप्रतापी नुवि तस्य नम्रमरालयेन प्रमदेन मातः ॥ ७ ॥ रुच्यारविंदचमदं करोति वेलं यदीयोर्चति तेंऽब्दियुग्मं ॥ रु च्या रविं दज्रमदं करोति स स्वस्य गोष्ठी विषां प्रविश्य ॥ ७ ॥ पादप्रसादात्तव रू पसंपत् लेवानिरामोदितमानवेशः ॥ नवेन्नरः सूक्तिनिरंब चित्रोन्नखानिरासीदि तमानवेशः ॥ ॥ सितांशुकां ते नयनानिरामां मूर्ति समाराध्य नवेन्मनुष्यः ॥ सितांगुकांते नयनाजिरामांधकारसूर्यः दितिपावतंसः ॥ १० ॥ येन स्थितं त्वामनु सर्वतीर्यःसनाजिता मानतमस्तकेन ॥ पुर्वा दिनां निर्दलितं नरेंड्सनाजितामानत मस्तकेन ॥ ११ ॥ सर्वज्ञ वक्रवरतामरसांकलीनामाली नती प्रणयमंथरया दशै व ॥ सर्वश्वक्रवरतामरसांकलीना प्रीणातु विश्रुतयशाः श्रुतदेवता नः ॥ १२ ॥ क्लप्तस्तुतिनिबिडनक्तिजमत्वष्टक्तैर्गुफैर्गिरामिति गिरामधिदेवता सा॥ बालोऽनुकंप्य ति रोपयतु प्रसादस्मेरां दृशं मयि जिनप्रनसूरिवा ॥ १३ ॥ इति श्रीजिनप्रनसूरि कृतश्रीशारदास्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीजिनसिंहसूरिस्तवनप्रारंनः॥ प्रचः प्रदद्यान्मुनिपदिपंक्ते गारिरागोपचितिं सदानः ॥ समुहहन् श्रीजिनसिंह सूरि गारिरागोपचितिं सदा नः ॥ १ ॥ कल्याण गोत्रायितमोहरेणी चंमानिलेन स्थिरतागुणेन ॥ कल्याणगोत्रायि तमोहरेणोन्नत्यं त्वयैवाहतशासनस्य ॥ २ ॥ स्वा मिन् मनोन्वेति न ते मृगादी मनोजवानां चतुरंगमानां ॥ बोधेन कहीन कुलं गजा नां मनोजवानां च तुरंगमानां ॥ ३ ॥ कंदर्पकांतार विनावसूनां प्राप्ते त्वयीशान्यम किं तपःश्रीः ॥ कंदर्पकांतार विनावसूनां निधिर्गुणानां नुवि यत्त्वमेव ॥ ४ ॥ ज गऊनांनोजवने गुणौघवक्रारविंदं नविना तोहं ॥ वंदे त्वदीयं सकलोमुपस्य व क्रारविंदं नविनारुतोहं ॥५॥ सर्व कषायानलमेघवारिमोहाय सूक्तं शपु तं विजेतुं॥स र्व कषायानलमेघवारिवृत्तं स्मर श्रीजिनसिंहसूरेः॥ ६ ॥ मुदे न कस्यास्तु धुरि स्थि Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ स्तोत्र. ता ते सरस्वती कुश्वशीकराणां ॥ माधुर्यशैत्याजयिनी तरि। सरस्वती कुश्वशीक राणां ॥ ७॥ सदोदिताबोधमपूरुषा अप्यानंदितावागमृतं श्रवोन्यां ॥ सदोदिताबो | धमपूरुषा अप्युपाशमंस्तन मुनीषु तेषां ॥ ७॥ व्यामोहबाणासुरदर्पमाथ पद्मावरो दीर्णतमोवितानः ॥ त्वमेधि सन्मंत्रजपानिराम पद्मावरो दीर्णतमोवितानः ॥ ५ ॥ योगेन धीरोचित माननीय श्रियस्तवोचे शशिनोपमानं ॥ योगेनधीरोचित माननीय प्रख्यातमूर्व तमुदाहरामः॥१०॥ स्मरागुगानां हृदि में गिमर्माविधामरेशास्त्र निधेहि तानि ॥ तत्वानि सूरी मदांन्हिनेद विधाऽमरेशाऽस्त्रनिधे हितानि ॥ ११॥ जिनप्र नाचार्यमनासमानावबोधमव्याः कविमात्मशिष्यं ॥ जिनप्रना चार्यमनासमाना प्र नो स्फुरत्वस्य तव प्रसादात् ॥१२॥ श्रीमङिनेश्वरयतीश्वरपादपद्मशंगारगंगकरणि जिनसिंहसूरिः ॥ इत्यं स्तुतोस्तु यमकैः शमकैरवेंरानंदकंदलनललितो नतानां ॥१३॥इति श्रीजिनप्रनसूरिकतयमकस्तबकितश्रीजिनसिंहसूरिस्तवनं समाप्तं ।। ॥ अथ श्रीपंचनमस्कृतिस्तवनप्रारंनः ॥ प्रतिष्ठितं तमः पारे पारेवाग्वर्तिवैनवं ॥ प्रपंचं वेदसः पंच नमस्कारमनिष्टुमः ॥१॥ अहो पंचनमस्कारः कोप्युदारो जगत्सु यः॥ संपदोऽष्टौ स्वयं धत्ते दत्तेऽनंता स्तु ताः सतां ॥ २॥ दत्तेऽनुकूलएवान्यो नुक्तिमात्रमपि प्रनुः॥ एष पंच नमस्कारः प्रा तिलोम्यपि मुक्तिदः ॥ ३ ॥ नमस्कारनरेंइस्य किमपि प्रानवं स्तुमः॥ यदीयफूटतेना पि विश्वंति विषः कृणात् ॥ ४ ॥ सिहयोप्यणिमाद्यास्ता नमस्कारमधिष्ठिताः ॥ अष्टाषष्टयदात्मापि यदसो प्रणवेऽविशत् ॥ ५ ॥ शिरःकादिधियाधीरैः स्वांगदेशनि वेशिता ॥ नमस्कृतेर्नवपदी कटरे वजपंजरः ॥ ६॥ वर्ण्यतां श्रीनमस्कारान् कार्मणं किमतोधिकं ॥ यत्संप्रयोगतःपांगुरपि संवनयेऊगत् ॥ ७ ॥ नमस्कारं नुमः सिई यत्पदस्पर्शपूतया ॥ पद्याबादितसवीगः शांतिमासादयेऽऽवरी॥ ७ ॥ नववी नम स्कृत्याः कृती प्रतिपदं जपन् ॥ विधत्ते विविधानिन्न विघ्नावग्रहनिग्रहं ॥ ५ ॥ कर्णिका ष्टदलाढये हृत्पुंडरीके निवेश्य यः॥ध्यायेत्पंच नमस्कार संसारं स तरेत्तरां॥१॥अष्टौ कोष्टे पदेष्वस्य वर्णानालिख्य तावतः ॥ कुड्यादावर्चयन् सम्यगेति शांतेनिशांततां ॥११॥आद्यादाम्यपीष्टार्थ सिध्यै स्युः परमेष्ठिनांबिंरप्यामूतः किं न नाशयेषिवि क्रियां॥१२॥करांगुलीषु विन्यस्याईदादीन् ध्यानमानयन् ॥प्रत्यूहपन्नगव्यूहव्यपोहे वैनतेयति ॥१३॥ गुरून् पंचक्रमात् ध्यायन् मुड्या परमेष्ठिनां ॥ गूढप्ररुढ मचिरात् कर्मग्रंथिं विमोचयेत् ॥ १४ ॥ षोडशावरगान श्रमापरमः परमेष्ठिनः॥प्राणीप्रणि Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. श् दधानोप्यौपवस्तुफलमेधते ॥ १५ ॥ विद्युला मिनूपालव्यालचौरारिमारिजं ॥ जयं वचयते पंच नमस्कारस्य संस्मरन् ॥ १६ ॥ याराध्य विधिवत्पंच नमस्कारमु दारधीः ॥ लक्षजापेन पापेन मुक्तमात्यमश्रुते ॥ १७ ॥ ऐहिकं फलमी सूनामष्ट कर्मप्रसाधिनी ॥ मुक्त्यर्थिनां च स्यादेषैवाष्टकर्म निषेधिनी ॥ १८ ॥ विपदामनि चारस्योपादानस्याखिलनियां ॥ स्मर्ता नमस्कृतेः स्वर्गिवर्गेण वरिवस्यते ॥ १ ॥ चतुर्दशानां पूर्वाणामेषैवोपनिषत्परा ॥ याद्या सकलविद्यानां बीजानां प्रकृतिः परा ॥ २० ॥ इयं पय्योदनं पथ्यं परलोकाध्वयायिनां ॥ परमास्त्रं नृणां मोहराज युद्धाय सतां ॥ २१ ॥ प्राणी प्राणप्रयाणस्य दणे ध्यायन्नमस्क्रियां ॥ जनते सु गतिं नैकान् पाप्मनः कृतपूर्व्यपि ॥ २२ ॥ नमस्कृतिं कृपावित्तैः श्रोत्रयोः प्रानृती कृतां ॥ स्वीकृत्य पुष्यसभ्यंच स्तिर्यचोपि यनुर्दिवं ॥ २३ ॥ त्रिदंडिनं निगृह्याऽसिय ष्टिना श्रेष्टनंदनः || नमस्कारस्य महसाऽसाधय त्स्वर्णपूरुषं ॥ २४ ॥ स्मृत्वा पंच नमस्कारं प्रविष्टायास्तमोगृहं ॥ घटन्यस्तो महासत्याः पन्नगः पुष्पमाव्यनूत् ॥ २५॥ नमस्कारेण संबोध्य मातुलिंगवनामरं ॥ प्राणत्राणं स्वपरयोर्व्यधत्त श्राद्ध पुंगवः ॥ २६ || तां हुंडिकः प्रापत् सुकुलं चंडपिंगलः । इतस्तादृक् गुएास्फीतिं सुदर्श नः सुदर्शने ॥ २७ ॥ एष माता पिता स्वामी गुरुनैत्रं निषक् सखा || प्राणत्राणं गतिः शांतिः पुष्टिर्महन्महः ॥ २८ ॥ निधयः संनिधो कामधेनुरप्यनुगामिका ॥ नूतो नृतास्तस्य यस्य नैष हृदो हिरुक् || २ || नास्येयत्तां प्रजावाणां क्रमवर्ति तया गिरा || मितायुष्ट्वाच्च सर्वोपि न्यदेष नषितुं क्षमः ॥ ३० ॥ सर्वावस्थोचितं सर्वश्रुतसारं सनातनं ॥ परमेष्ठिमहामंत्रं नक्कितंत्रमुपास्महे ॥ ३१ ॥ उचैर्योजन लक्ष्मान विदितो बित्रत्सुवर्णात्मतां नव्यानंदननशालमहिमा रोचिष्णुचूलांचि तः ॥ यस्तु श्री जिनगेहनास्वररुचिस्थानं लसन्निर्जरः सोयं वः परमेष्ठिपंचकनम स्कार : सुमेरुः श्रिये ॥ ३२ ॥ साम्नायावयवां जिन्प्रनगुरुप सूत्रयामासिवान् दि व्यां पंचनमस्कृतिस्तुतिमिमामानंदनंदन्मनाः ॥ यस्यैषांचति कंठसीमनि सदा मुक्ता लताविज्रमं तं मुंचत्य चिरेण विघ्ननिचयाः श्लिष्यंति च श्रीनराः ॥ ३३ ॥ इति श्री पंचनमस्कृतिस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीवीर स्तवन प्रारंभः ॥ श्रीव-ईमान परिपूरितनम्रकाम चामीकरप्रन जिनप्रनसूरिरेत ॥ सोसूयते त व जगऊन हर्षवर्षदीपोत्सवस्तबलवं यमकावदातं ॥ १ ॥ श्रितास्त्वां कमलाह ३३ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RALIA . - - २५७ स्तोत्र. | H कल्पपाद पयोज ये ॥ करौ तान् प्रति विश्वककल्पपादपयोजये ॥ २ ॥ क स्ते नतिं न सद्बोधसिंधुरारातिलक्ष्मणे ॥ रंके च तुल्यचित्ताय सिंधुरारातिलक्ष्मणे ॥३॥ हित्वेश देहं दर्शे त्वां शिवशंकार्तिके विदः ॥ नान्यती• यत्र लुप्ता शिवशंका निकेविदः ॥ ४ ॥ रुद्वान्यपवर्णानामादानं दीपालिका सतां ॥ कोटिं परां यत्र तेऽनू दानंदी पालिका सतां ॥ ५॥ कुदृशां शुश्रुवे तेंऽत्यदेशनाशितदर्पका ॥धन्यैरेवेश वैरा ग्यदेशनाशितदर्पका ॥ ६ ॥ त्वन्मुक्त्याऽसीत्तमो हंतुं तरसा दद पावन।।पूः पापा पापपद्माऽल्पेतरसाददपाऽवनी॥ ७ ॥ त्वत्सेवायां हृषीकेनहस्तिपाऽलस्यहीनता ॥ कैन नाम तदा राझो हस्तिपालस्य हीनता ॥ ७॥ दधाना ऽघोरगेषूक्तस्वातिरेकाविराज तां ॥ देषु जात त्वन्मोदो स्वातिरेका विराजतां ॥ ७ ॥ त्वन्निर्याणेन करणं ना गसंझमरंजयत् ॥ एनांसि नगवन् कं ना नागसंझमरंजयत् ॥ १० ॥ मूर्नागत स्थेश्यिार्थममता विषपानतः ॥ नाथोपचर्या कुर्यास्त्वं मम ताविषपानतः॥११॥ तावकं या पिबत्युच्चै रमायाननसारसं ॥ दृष्टिर्विदति सोरस्य रमाया न न सारसं ॥ १२ ॥ स्तूयासमन्वहमहं नवतः पृथिव्यां सिद्धार्थनंदनयशोनिमतं समस्याः॥ सिक्षार्थनंदनयशोनि मतं समस्याः सर्वश्रियां जिन निजं हृदि रोप्यतां मे ॥ १३ ॥ इतिश्री जिनप्रनसूरिविरचितश्रीवीरस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीआदिजिनादिस्तवनप्रारंनः॥ प्रणम्यादिजिनं प्राणी मरुदेवांगजायते ॥ हरणे पापरेणूनां मरुदेवांग जायते ॥ ॥ गर्वमैदवमजावमाननस्यप्रनोरुणः ॥ सौंदर्येणाजितस्वैर माननस्य प्रनोरु एणः ॥ २ ॥ मोहस्यानापतंत्राणं शंनवेश मिता रये ॥ यस्मै विश्वं नमश्चके शं नवे शमितारये ।। ३ ॥ मुदे ऽनिनंदनः सूतो राजसंवरदेहतः ॥ यत्पादाब्जे नृणां नावं राजसं वरदे हतः ।। ४ ।। दुःस्थानां सुमते दौस्थ्यं साध्वसागदवालनं ॥ ध्यायंस्त्वां च स नीरोगः साध्वसागद वालनं ॥ ५॥ कः पद्मप्रन शक्तीस्त प्रनावद मिता हिताः ।। संख्यातुमीष्टे चंझर्कप्रनावदमिता हिताः ॥ ६ ॥ मोहराजं सुपार्थ त्वं नुतमायामलोलुपः ।। नक्तौ तेऽतः कोस्तु विज्ञानुतमायामलोलुपः ॥ ७ ॥ तव चंप्रनोत्पन्नमहसे नदमेनतः । न सेवाविरहं सोढुं महसेनक्ष्मे नतः॥॥ मयि बिव्रत्तनुं चंइनावलदप्रनोदयां ।। तन्यास्त्वं सुविधे सर्वनावलद प्रनो दयां ॥ ॥ ॥ शीतलाप्तुं श्रियोधाना रविकल्पमनामयाः ।। त्वां प्रत्यात्मा हतो नर्तरवि कल्पमना मया ॥ १० ॥ त्वन्मते रमते श्रेयन् कमलायतनेत्र या ॥ सा धीप्रिया मेऽस्तु कृतं कमलायतनेत्रया ॥ ११ ॥ वासुपूज्य सविनास्त बंधूकारुण्ययोगतः ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. शरणं त्वक्रमौ विश्वबंधूकारुण्ययोगतः ।। १५ ।। श्रेयसः शरणं नव्य त्वं गन्न विमलंकते ।। हदि देहि च नत्यादिक्त्वं गविमरुते ॥ १३ ॥ यःरख्यात स्त्रि जगत्यार्य सदानुतनयोऽनिशं ॥ हंवर्कवन्मोहमयीं सदानुतनयोनिशं ॥ १४ ॥ त्वत्पादानेऽलिनो हर्षाद मलं पटतां पदं ॥ शांते मोहं जितं मन्ये दमलंपटतां पदं ॥ १५ ॥ सुश्रीकुंथु प्रतिप्रव्हा यमलार्जन नंजनाः ॥ यास्तावीइरागरोषयम लार्जननंजनाः ॥ १६ ॥ सोढुं समर्था नूद्यस्य नतमामवनिर्बलं ॥ सोरत्वमर्हच्च कीनत मामव निर्बलं ॥ १७ ।। शक्तिं नवाब्धेरुतु मतिमन्नीनदेहिनः ॥ पुण्य धातर्जने नक्तिर्मतिमन्नीन देहि नः ॥ १७ ॥ यस्या विलासास्त्रैलोक्य पद्मानंदनना नवः ॥ मा तु सुव्रत सा शक्या पद्मानंदनना न वः॥१॥ यत्र नांहिमयी ते वा न मे रुचिरकोमला ॥ तत्र राजेप्यनीतानां नमेरुचिरकोमला ॥ २०॥ नेमे नमस्ते दोषज्ञ रंजनः प्रनविमवे ॥ कर्मासुरवधायोच्चैरंजनप्रनविभवे ॥ २१ ॥ तापाग्नौ जुहुवे पार्श्व नवता पंचसायकः ॥ श्रितोऽतस्त्वं जनो मोहनवतापं च सायकः॥ २२॥ नाऽखुन्यः कामसौख्याय लोकनेतरणीयसा ॥ तेन वीर जगत्कर्मालोकने त रणीयसे ॥ २३ ॥ तवान् पंचकल्याणी दया लोकामदायिनः॥ पायास्त्रिजगते दत्तो दयालो कामदायिनः ॥ २४ ॥ त्रातुं जीववीधाः संविदा मानव तामिताः ॥ जिनें झाः पातु करुणा ददा मानवतामिताः ।। २५॥ यदाराध्यंति गीर्वाणवजाऽनयदशा सनं ॥ तत् प्रज्ञा शरणं नक्ता बजाजयदशासनं ॥ २६ ॥ यस्या नेशजिरा जैन्या सुत रामघवासना ॥ हंत्वापदः सुसंघस्यासुतरा मघवासना ॥२७॥ लदम्याष्टिकर जिनें मनपं नावलीमंदिरं वंदे तस्य गिरं नतन्रमतमः सूर्य धियां कारणं ॥ सार्वीयप्रथित प्रनावमखिलारिष्टौघहानिप्रदं दंनव्यालसृणिं वरेण्यसमयं रंगजुएं बोधिदं ॥२७॥ इति श्रीयमकयुक्त आदिजिनादिस्तवनं संपूर्णम् ॥ ॥ अथ श्रीपार्श्वप्रातिदायस्तवनप्रारंनः ॥ खां विनुत्य महिमश्रियामहं पन्नगांकमठदर्पकोषिणं ॥ स्वां पुनामि किमपीनर कितापन्नगां कमदर्पकोषिणं ॥१॥ कोनुरज्यति देशनौकसि गशोकतरुणा वि नासिते ॥ रत्नहेमरुचिनिः दितोनसशगशोकतरुणाविनासिते ॥ २ ॥ देहदीधिति तिरस्कृतो दयत्सौरजाः सुमनसः सदानवाः ॥ देशना नुवि किरंति ते स्फुरत्तोरनाः सुमनसः सदानवाः ॥ ३ ॥ तादृशः श्रवणतस्तवोत्तमा कारकाय वरदेशनाध्वनेः॥ प्रस्थितः कश्व पाप्मनां निराकारकायवरदेशनाध्वनेः॥४॥ नाकिनायकयुगेन सादरं चामरैर्विषदनाग वीज्यसे ॥ त्वं न कैनवसुखायमुक्तये चामविषदनागवीज्यसे॥५॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. वीक्षितुर्नयनयोर्निराकृता शंसनासुरमणीपनावतः ॥ प्रातनोति कृतसिंह विष्टरं शंस नासुर मणीपनावतः ॥ ६ ॥ इष्टरर्पयति कीर्तिशुचिता शांतनावलयमर्य मोहदं ॥ दीप्यमानमनुमौलि तावकं शांत नावलयमर्थमोहदं ॥ ७ ॥ व्योनि गर्जि निनदः पु रस्तवामान वैरिमुदिरो महर्षिनिः ॥ कैर्न एंडुनिरवः श्रुतस्तनौ मानवैरिमुदि रोमहर्षि निः ॥ ८ ॥ शेमुषीषु कुपथानि मौक्तिकन्यास हृद्यरुचितानि चायितुः ॥ त्रीणि ते जिन शितोष्मवारणं न्यासहरु चितानिचायितुः ॥ ए ॥ प्रातिहार्यम हिमालयस्त्वः श्रीजिनप्रविति स्तुतो मया ॥ पार्श्वकामितफलाय कल्पतां कल्पपादप इवेष नेमुषां ॥ १० ॥ इति जिनप्रनसूरिकृत श्री पार्श्वप्रातिहार्यस्तवनं संपूर्णम् ॥ ॥ अथ श्रीकल्याणपंचकस्तवन प्रारंभः ॥ २६० षं निलिंपलोकायित नूतलं श्रिया नयन्मुदं नैरयिकानपि दणं ॥ त्रिलोकलोकस्य रतेः प्रपंचकं जिनेंड़ कल्याणक पंचकं स्तुमः ॥ १ ॥ निवेदितः प्रीतिपरैः पुरंदरैश्चतुर्द श स्वप्नविनवितोदयः ॥ महानिधानागम चारुरर्हतां तनोतु गर्भावतरोत्सवः शिवं ॥ २ ॥ कुकुकुमारीकृतसूतिसंस्क्रियं सुपर्वसंपादितमनणं ॥ सृजंतमुद्योतम यं जगत्रयं जनुर्महं संस्तुमहे नवद्रहं ॥ ३ ॥ सुरोपनीतैः परिवत्सरं धनैर्यथा निला परितोषितार्थिने ॥ जिनाधिपानां निखिलां गिरक्षिणे नमस्तपस्याप्रतिपत्तिपर्वणे ॥ ४ ॥ अमर्त्य निर्वर्त्तितदेशनाऽवनीकृताद्भुतः कैवलवैनवोद्भवः ॥ अमंदनांदीरवपू रितांबरः करोतु जैनः गुननाजनं जनं ॥ ५ ॥ पुरंदरक्रं दितसंच मत्रमत्सुरोधमालिं गितमुक्तिवल्लनं ॥ जिनस्य निर्वाणदिनं दिगंतरस्फुरत्तमः सत्तमशर्मणेऽस्तु नः ॥ ६ महर्षयो नूतनवद्भविष्यताममुत्र कल्याणकपंचकेऽर्हतां ॥ विना बिदेहान् दश कर्मनू मिषु स्मरंति मास तिथीन् सनातनान् ॥ ७ ॥ इत्यादतस्त्रिभुवनप्रभुसतक पंचक व्यावज्रकवचं हृदि यो बिनर्त्ति ॥ शस्त्राणि ते जिततराख्यपि मोहराजः सौभाग्य नाग्ययुजि न प्रनवंति तस्मिन् ॥ ८ ॥ इति श्रीकल्याण पंचकस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ लक्षणप्रयोगमय श्रीवीरस्तवनप्रारंभः ॥ निस्तीर्ण विस्तीर्णनवार्णवं रुत्कर्णमाकर्षितवर्णवादं । सुपर्णमंदोहि दमे सु पर्ण श्रीपर्णव विनुवामि वीरं ॥ १ ॥ यैर्व्याप्यतां प्राप्यत तावकीनं क्रमांबुजं नाथ नमस्करोतेः ॥ संसारचक्रमणानिधस्य गणस्य ते वृत्करणं गृणंति ॥२॥ तुल्येपि ने त्रामृतवर्षिनावे कलंक पंकच्युतिसंयुतियां ॥ प्रधानशिष्टं वदनं त्वदीयं मन्यामहे ऽन्वाचयशिष्टमंडुं ॥ ३ ॥ द्विगोरिव त्वत्प्रणतस्य संख्या पूर्वा प्रवृत्तिर्न कुतीर्थिका Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्तोत्र. २६१ नां ॥ विनो बहुव्रीहिसमासवत्वमन्यार्थ एवोपदधासि वृत्ति ॥ ४ ॥ विनक्तिमुक्तं पुरु पैरसंख्यैः समाश्रित धातुविकारहीनं ॥ अपूर्वमेतत्कटरुत्यनिष्ठाप्रधानमाख्यात मिन त्वदीयं ॥ ५ ॥ यस्मिन्न संधिर्न च वर्णलोपो न संस्तुतिर्विग्रहकारकाणां ॥ नवा विकल्पः क्वचन प्रयोगेष्वहो नवं व्याकरणं तवेदं ॥ ६ ॥ ध्यात्वा हृदा त्वां फ लमेति नव्यो दृष्टापि सादान्न कृतीत्वनव्यः ॥ तत्सत्यमेतद्वहिरंगतो यत् स्यादंतरं गोत्रविधिबलीयान् ॥ ७ ॥ एतावतैव प्रतिनाति विश्वविलक्षणं वीर जवञ्चरित्रं ॥ जालेन युष्मत्पदसंप्रयोगेप्यतंनि लोकस्य यजुत्तमत्वं ॥७॥ एकत्र धातावुपस र्गपंचकप्रयोग इष्टः कविनिर्निरंतरं ॥ त्वक्ष्यानधातावुपसर्गविंशतिं सुरः प्रयोक्ता न कथं कुलदणः ॥ ए ॥ प्रनो महचित्रमिदं कदंबके कुतीथिकाणामपि कर्म धारये॥ यन्मोहराजप्रधनेषु पुंवनावो न कश्चित् परिपोस्फुरीति ॥१॥ गुरुयोर्वरद नावकर्म पोर्दर्शयन् विकरणस्थिति पदे॥निर्विनक्ति समुदाहरन् पदं साधुलणविचरणो न वान्॥११॥अनुपघातिनमेव किलागमंप्रणिगदंति जिनेश्वर शाब्दिकाः॥यसुमतामुपधा तकरःस्टशत् कथमिवागमतांस कतःपरैः॥१ शायोपादानं नश्यतः पापपूगस्यासि व्या प्यं वंदतेसिवानाधारः श्रीसंपदा संप्रदानं त्रैलोक्यस्य स्तोत्ररत्नोपदायाः ॥१३॥ बेडावद्यःकरणमुशतां मोहवादि तरीतुं कर्ता नातेदिरदरदन दशोनियशोनिः ॥ नव्यानां यस्त्वमसि सुपथप्रस्थितो हेतुकर्ता तस्मै तुन्यं जिन मम शिरो नम्रताकम्रम स्तु ॥ १४ ॥ अंतस्थास्तव शासनस्य यशसां कुंदावदातत्विषां गल्नंते त्रुवि संप्र सारणविधी मयां न तत्कौतुकं ॥ यत्ते नित्यमनामिनोपि कुगुरौ उर्वत्तदेवेषु च घ्रा जंते गुणवृद्धिनाजनतया बमस्तदत्यति ॥ १५॥ तात त्रातरिदं नपुंसकमपि स्वांत मदीयं नवन्माहात्म्यस्तुतिसुंदरी प्रणयतः पाणौ करोत्वेकदा ॥ तत्संश्लेषसुखानु नाववशतः क्लैव्यं विधूय णात् तत्रोत्पादयिता ऽथ शाश्वतचिदानंदान्हयं नंदनं ॥ १६॥ इत्थंकारमिनारि लणनरः सनदपप्रक्रियाचित्रं स्तोत्रमिदं विदंनहृदयो जिव्हाग्रजाग्रत्तमं ॥ कुर्वाणः स्मरबाएकुंठनकलानिमाततानर्तकी नाट्याचार्य जिनप्रनें पदवीसाम्राज्यमासादयेत् ॥ १७॥ इति श्रीजिनप्रन विरचितलदगत योगमयश्रीवीरस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीवीतरागस्तवनप्रारंनः॥ जयंति पादा जिननायकस्य दोषापहा ध्वस्ततमोविकाराः ॥रवेरिवाश्चर्यमतापका श्व न कौशिकक्लेशकराः खराश्च ॥ १॥ वाग्ज्ञानपूजानिरपायरूपाश्चत्वार एतेऽतिशया स्तवैव ॥ देवाधिदेवत्वमनिष्टुवंतश्चतुःकषायदतये तु नाथ ॥ ५ ॥ शुक्षप्रयोगस्तवसं - - Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ स्तोत्र. स्तवेन कृतार्थतामेति कृती कृतीश ॥न वाच्यतां याति कदापि लोके यथा यथार्थस्तव काव्यकर्ता॥३॥ त्वमेव चेन्चेतसि जागरूको जंतोरसि श्रीजिनराजमनः॥ नवेन्न किं सस्त्रिजगन्महनः प्रपात्यते किं नहि मोहमनः ॥४॥ त्वमेव देवस्त्रिविधेन येषां जगत्र यीवंद्यपदो हि पादैः ॥ धात्री पवित्रीक्रियते किमत्रचित्रं तदीय स्त्रिजगत्पवित्रैः॥ ५ ॥ नपाधियोगान्महतो लघुत्वं लघोरपि प्राज्यगुरुत्वमेव॥यादर्शके देव यथा दिपस्य प्रदी पदीप्तौ तु तनूनतःस्यात् ॥६॥ कश्चिजुणानां हिलवोपि लोके यो दृश्यते सोपि विनोः प्रनावः ॥ अक्षतकल्याण निधेर्जिने पयोविना पल्लविता नदः ॥ ७ ॥ नातःपरं देव जडत्वमंतः प्रत्यदलदोपि नवान्नबुः ॥ सर्वझताप्यस्ति विनो न चान्या त्वमेव दे वो विदितो यदीह॥ ७॥ विदंति सर्वेप्यपरानधीशान् नतान्नतास्ते प्रवदंति सर्वान् ॥ जगजगन्नाथ यथास्थितं हि त्वं वेत्सिहि त्वांतु न वेत्ति चित्रं ॥ ५ ॥ बहिःस्थित वेत्ति परस्वरूपं न स्वस्थितं देव तव स्वरूपं ॥ चकुर्यथा पश्यति बाह्यरूपं नचात्मरू पं तु कदापि लोके ॥ १० ॥ सदात्मविज्ञान विहीनधीनिन ज्ञायते नाथ विनोः स्वरूपं ॥ स्वशीर्षपश्चात्प्रविनागसम्यनिरीक्षणे कोपि न बाह्यहेतुः ॥ ११ ॥ मध्य स्थनावोपि जिन त्वयीह गुणदतेः स्यानुणिनो नितांतं ॥ यथाऽगुणप्रत्यय एषधातोः कर्मण्यथो कोऽत्र विचारहेतुः ॥ १२ ॥ त्वक्तिनावोप्ययथार्थ एव नवत्प्रणीतार्थ विपर्ययेण ॥ विधीयते सर्वहितोपसर्गवर्गेण धात्वर्थश्वान्यथा हि ॥ १३ ॥ दो दूयते यःस्वयमेव रागदेषादिलुंटाकनटैर्यथेष्टं ॥ संस्तूयते सोपि हि देवबुध्या दहा महामोहविज॑नितं तत् ॥ १४ ॥अचिंत्यमाहात्म्यनिधि प्रसन्नं जगन्जरण्यं जगतोपि पूज्यं ॥ त्वमेव देव प्रविवेसि हि त्वां प्रकाशतेऽन्येन किमु प्रदीपः ॥ १५॥ किम स्तिनास्तिति विवेकपदा रागादिपद्धतिलब्धददाः ॥ ये श्रीजगन्नाथ जिनप्रनस्ते त्वामेव देवं जिनमाश्रयंति ॥ १६ ॥ इति श्रीवीतरागस्तवनं समाप्तम् ।। ॥अथ श्रीचंप्रनस्वामिस्तवनप्रारंनः॥ देवैर्यःस्तुष्टुवे तुष्टैः सोमलांलितविग्रहः ॥ दद्याचंप्रनःप्रीतिं सोमलांनितविग्रहः ॥ १ ॥ येषां पूजा विधिःकर्माजनहत्कमलालयः ॥ ते जिनाः पातु वोनव्यजनहत् कमलालयः ॥ २ ॥ कुतीर्थसार्थेन उरासदं नोझानिरंजनं ॥ श्रुतं सेवेत मोहानि सदंनो झानिरंजनं ॥३॥ पातु गीर्वाःकताविद्योपरमा कमलासना ॥ यत् प्रनो वाज नैलेने परमा कमलासना ॥ ४ ॥ इति श्रीचंप्रनस्वामिस्तवनं समाप्तम् ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥अथ श्रीझषनदेवस्तवनप्रारंनः ॥ संस्कृतनाषा. निरवधिरुचिरझानं दोषत्रय विजयिनं सतां ध्येयम् ॥ जगदवबोधनिबंधनमादि जिनें; नवीमि मुदा ॥ १ ॥ कस्तवमिति षिोलं वदितुं परितो गुणान् गुरुनिनो पि ॥ चुलुकैः प्रमिमासति वा कश्व जलं वरमनीरनिधेः ॥ २ ॥ तदपि त्वन्नक्तिनर प्रतरलितो वच्मि तावकगुणाj ॥ चापलनुन्नो स्फुटमपि लपन् शिगुर्वा निरपवा दः ॥ ३ ॥ ज्ञानप्रदीपजमिव स्निग्धांजनमुपहितं चरणलदम्या ॥ सघानहगंजि ताय चिकुरचयस्ते स यो रुरुचे ॥ ४ ॥ प्राकृतनाषा. तमकसिण सप्परवयमो,र मोरनलादुते किलिम्मति ॥ तुह सासणापिधं जे कुएं ति विविहे तव किलेसो ॥ ५ ॥ तकिय कन्नाणसिरि, पिदे वकनाणसिरिविलासगि हं॥ तुह वंदे देहमहं विलसिरमोहंपि हयमोहं॥ ६ ॥ युग्मं ॥तुह मुहरन्नासयला, रविंदलबी मरट्टफुसणेणं ॥ जं विजितुं हिमरस्ती नियकंती निवहसुहडेहिं ॥ ७ ॥ असई तमनि नवनरं सुसिरिर पहू ससंकोसो ॥ उग्गं खुर इय घणपरि,दिदंन परनिसेहत ॥ ७ ॥ मागधी नापा. तुह शुस्तिदैवनाव, स्तं गदपत्रे शमयपथमचन्न । ते यिण कुमदल कशव,शि मिश्चादिस्टी पददि नवे ॥ ॥ ॥ तमवय्यवय्यिदमिधं, आचिरिकद गुस्टु मोस्कपुलम ग्गं ॥ काला चिष्टामि हगे, हलिशनले पिस्किडं धने ॥ १० ॥ केलीहलाहगुणहं, हलिञकशवस्टलायि किलणाह ॥ तुह अपुलनवत्तिलसं, वंदामु हगे शलीलाह ॥ ११ ॥ संयणिदधनकमले, ये पष्कालिदमहंदपंकमले ॥ धिदपलमहिमशजूवे, यय नवं शे शदा कोहे ॥ १२ ॥ पैशाची भाषा. विबुधान राचित्रानत, अनन्त्र सामञ्ज वुन तिसपनं ॥रंतून हितपके मे, कतसि दीकुतुंबिनी पनय॥१३॥जत्तिनरातो दूरे चिष्टति यो तुह रमिय्यतेनेन ॥ कसटजरे चरणसुधा विहितसिनातो न सो नोति ॥ १४ ॥ युम्हातिसेवि तेदे अपुरवसुरपात वे सतय्येव।कीरतिनो येन रतीस कथं वपते सुकतबीज॥१५॥ नत्थून तुरितरिपुनो नववं तिहेतुमं मिमलरूपा॥ विलसिर पमतबीजल, परकालितका श्वापगता॥१६॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ स्तोत्र. चूलिका पैशाची. का सिनेहफलिता तुह वतन सेवते लमा अनवादानून फंकुरकुनं पोमं सक लंकमपि च विधु ॥ १७ ॥ चलथलमंटलपटिमा चिकुराली शोफते तवंसयुके ॥ चल नसिरितितसथेनू चरनायल तच्च नव तुबा ॥ १७ ॥ तुलंस किलितटे फुल,ति मवख नालिब मंचुकचलाची॥ गतरुचकपोलतलरुचि,फासुर सोतामिनीतामा॥१॥लि सफसुमक्कानाविल चनपरिहिन संखनीरवाहखटा ॥ पथसं फुवि सत्वकला नयनी ती तसिया तुमए ॥ २० ॥ __ शौरसेनी. कुमद मकय्यनिदाएं ताश्ध नवमाणविङदे जगवं ॥ चिंदाविदाव नय्ये, व नो दि यावाणनाध इमा ॥ २१ ॥ कम्य अलं हरिपदविं कम्य अलं वा महत्त विस यसुहे ॥ खलु लहिय अपुरवपदं पणजणं पाविदूण खलु ॥ २२ ॥ दबाउ वि रागमिदो पय्यत्तं रोग उत्तरलेणं ॥ नवरि तुह नत्तिपथि माजिणरायं फुर हि दयम्मि ॥ २३ ॥ युग्मम् ॥ हीमाणहे नवादो चकिदोहं अम्महे यदिघावो॥णं ता यध तायध मं ससेवगं सामिा तत्तो ॥ २४ ॥ ॥समसंस्कृतम् ॥ हेमसरोरुहनासं कलिमलकमला लिमंथहिमनासं ॥ नवनयधूलिमहाबल ना नेय नवंतमनिवंदे ॥ २५ ॥ तव चरणोनयजलरुह पालीसेवापरायणादेव ॥ विदं ति नरालिगणा वरसिदिरमामरंदलयं ॥२६॥ महिमधरं तमसमहिम, विमलं वरधी सरोरुहेविमलं ॥ समयदयारससुगम चरणं सेवे तवासुगमं ॥ २७ ।। तव नामधेय चिंताबघरसा नुवि नरावलीधते ॥ संरुमारिनरामरनं, दरमालिंगकेलिरसं ॥२॥ ॥अपभ्रंशनाषा ॥ तन रेह थालिसामलि बिदुरावलि जुयपिहि॥ निहियरिउबलमृणे उग सुहडन थसिलहि ॥ ७ ॥ हउ मिल्हि विसहजलि, याव(हिय जणववहार ॥ पई कायहि मुणियह, सुफरुसनिय करणपयार ॥३०॥ ताव महानवजलहिज, लिनरु निवड दुहुरुत्ति ॥ जावन पास्विय तुध्र प,दुसारुणनावऊडत्ति ॥३१॥ सुकटु कहं तिदुता सुथ, इ कहंत मुसनलउजम्मु ॥ दिविदिवि जीवाजुन कर,दि पवुत उजिणधम्मु ॥३॥वे हि कुतित्थियज, वयणू अवरुप्य रयइंविरुद्यात नेरसिवपंमिय त, इंजिदेवु प्रमाणेहिं सुरिछु ॥ ३३ ॥ इकासि तेहा नाव वि,णु बुडुपणमिय तुह पाय॥नुंजिक Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. हिता सुर रहई करिविषु उरकविघाय॥३४॥ मस कहंतिदु नावरि,न दडवड तण उद्द | वेक्कू ॥ सामिय सट्टलतेउ,लु डुनदु चंप परचक्कू ॥३५॥ जुत्तिवि किरिय नाणहरि, घ यंमण मनसुदिजुगग्गि ॥ कुकुनपदुबइ सिवनय, रितुह सासणरहिलग्गि ॥३६॥ परि कवि तुह तणु नूडहि,कंचणकांति रवन्न ॥ वियसहि महणयपुट्नम, तामझ नवजह तिन ॥३७॥ नुत्तरपद्यस्याग्रंन्दी संस्कृतं समसंस्कृतं प्राकृतं ३ दितीये पैशाची चूलिका पैशाचिके ॥ तार्तीयिके मागधीशौरसेन्यौ॥तुर्ये अपभ्रंशः॥ नायालीहयमंदयामयमलं नासं धरंतं परं राकालिं पवलोतयं अखचयासत्तं क मालाचितं ॥धीलं लोअमहं ददावहकलं बिन्नाहमायालदं नाधा नीदिरेसि वंदन पई साणं सीसुन्नई॥३०॥ ॥ कविनामगर्नचक्रं ॥ तं प्राप्तो रुचिनक्ष्योगरजसोन्मीलत्प्रतोषान्वितं शस्तः सौष्ठवनममोहरवनः कं कं जहस्तविः ॥ रुच्या नास्करतिग्मसिविरमणीसंस्कृप्तनावः परं रंता ज्ञानरमांशमास्त रुषमे तन्याः सुविद्यां चिरं ॥ ३५ ॥ जगति विदितवान् यस्त्वत्कमाझास्वरूपं तव गु चिपदनावं संस्तवादध्यवस्य॥ रचयति निजकंठालंकियां स्तोत्रमेतनवति नवकरीणां सिंहसोनीष्टलक्ष्मीः ॥ ४०॥ इति श्रीजिनप्रनसूरिविरचितं अष्टनावात्मकं श्रीषन देवस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीमहावीरस्तवनं ॥ चित्रैः स्तोष्ये जिनं वीरं चित्ररूचरित मुदा ॥ प्रतिलोमानुलोमाद्यैः खड्डाद्यैश्वातिचारुनिः ॥ १ ॥ ॥प्रतिलोमानुलोमपाद॥ वंदे ऽमंददमं देवं यशमाय यमाशयः॥नायेनाघघनायेना पाहता ममता कपाश ॥अनुलोमप्रतिलोम ॥ दासतां तव नागारा नचेयाय मतामसा समतामययाचेनरागानावततां सदा॥३॥ ॥अर्धप्रतिलोमानुलोम॥ वरदानवरादित्व त्वदिरावनदारव ॥ याज्यदेव नयान्यास सन्याय नवदेज्यया॥४॥ ॥अचम॥ श्रीद वीर विरेनत्वं दमिताद गतागुन॥ वीताक्षमारंनितारे रद मां सदरंगवि५ ३४ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ मुरजबंध ॥ गीरतारजतार धीरता स्थिरतारसा ॥ सारतारश्रुतावंध्या सुरता जन तावकी ६ ॥ गोमूत्रिका ॥ पतितवेदास्यारविंदं नक्किबंधुराः ॥न पतंति नवे शस्यास्ते विदो भगवन्नराः ॥७॥ ॥ सर्वतोभय ॥ २६६ नमासररसामान मारिताददतारिमा साता मया यामतासारयाममयाक्षरं ॥ रथपदं ॥ तिर्यङ्नर सुराकीर्णा नासते ननते सना ॥ त्वमाहात्म्यात् कृताश्वर्ये याश्रिता ततता श्रिया ॥ ए ॥ ॥ व्यतरपाद ॥ रैगोरांगोरुगीगंगा गौरीगुरुररोगरुक् ॥ गोरंगा गाररोगारि रैरिरो रैगुरुं गिरिं ॥ १० ॥ ॥ एकाक्षरपाद || जाजनानोलजीलानं तततात तितातते ॥ ममाममामममुमा ननाने नोननानन ॥ ११ ॥ ॥ एकाकर श्लोक ॥ aria arnata: केकाकोककके किक ॥ rantaratha ककुः कौकोंककांककं ॥ १२ ॥ ॥ संयोग ॥ मरुभूमौ तपताविव चारुसरोवरं ॥ कुतः सुकृतहीनानां सुलनं तव शासनं ॥ १३ ॥ युग्मं ॥ ॥ धान्यां खड्ड संदानितकं ॥ सारणि: पुरयवन्याया न्यायमौक्तिकशुक्तिका ॥ कामधेनुर्नयविदां बंधोल्लासन लालसा ॥ १४ ॥ सारं स्याद्वादमुझयास्त्रिपदी नवतोऽअसा ॥ सा मेऽस्तु हृदि कां तैका खिलेन रहितेन सा ॥ १५ ॥ ॥ मुसलं ॥ श्री सिद्धार्थ कुज व्योम दिवाकर निरंजन ॥ कांतवा मतं तीर्थंकर तवाश्रिताः ॥ १६ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ त्रिशूलं ॥ चुक्ता या त्वयि नव्याली धन्या धत्तेस्म चेतसा ॥ सामता तामसाकाममकासारंगसागरं ॥ १७ ॥ ॥ दनं ॥ त्रिशला कुदिपाथोजराजहंस जगद्विनो || जोगास्तृणमिव त्यक्तास्त्वयामुक्ति दिदृक्षया ॥ १८ ॥ ॥ धनु ॥ सुरासुर नमस्तुन्यं नमस्यति जिनोत्तम ॥ मनःप्रसादसंदर्भदलिता गुनवासना ॥ १९ ॥ ॥ शर ॥ कथं कर्तुं जनो मोहव्यपोहम हहमः ॥ मनसा सादरं यस्त्वां न स्तौति तिमिरापहं ॥ २० ॥ ॥ शक्ति ॥ बाल्यो मरुशिरःकंप संपत्प्रतिविक्रम ॥ मनोजन कहव्या मम स्वामी नवाजवं ॥ २१ ॥ ॥ अष्टदलकमलं ॥ मानितार्यक्रमामार रमामाकंद माधवः || वधमार्गे ममाकास सकामाधीः प्रतानि मा ॥ २२ ॥ ॥ पोडशदल कमलं ॥ वनया न घनस्वान ध्यानमौन कनन ॥ ज्ञानस्थान जिन श्रीनवनमेनस्वनःस्व नः ॥ २३ ॥ ॥ स्तुत्यनामगर्भं वीजपूरं ॥ जय हेमay. श्री जगन्मोहापहारक ॥ जराहिवीन सिंहांक जन्मनीरधि नाविक || २४ ॥ ॥ दश ॥ तुभ्यं नमोस्तुलनय स्थितिकाय नीतिवन्यासुपावक सुरस्तुत वीर नेतः ॥ विद्याल ताविपुलमंडप हेमरूप कल्याणधीकरणदछ नतेदमीन ॥ २५ ॥ २६७ D Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६न स्तोत्र. ॥ कविकाव्यनामांकं चक्रं. ॥ जनाकत्यपथो जिनेश्वरवरो नव्याज मित्रः क्रियादिष्टं तत्वविगानदोषरहितैः सूक्तैः श्रवस्तर्पणः जन्माचिंत्यसुखप्रदः सुरचितारिष्टक्यो वः सदा दाता शोननवादिधीः क जलदं यामेक्षणः संविदा ॥ १६ ॥ ॥चामरबंधः॥ श्रीम-झाम समग्रविग्रह मया चित्रस्त वेनामुना नूतस्त्वं पुरुहूतपूजित विनो सद्यः प्रसृद्यै धिमे ॥ ख्यातझातकुलावतंस सकलत्रैलोक्यक्तृप्तांतरः स्फारक्रूरतरज्वरस्मरन रः संरब्धरक्षारतः ॥ २७॥ इति श्रीमहावीरस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीजीरापल्लिपार्श्वस्तवनं ॥ जीरिकापुरपतिं सदैवतं दैवतं परमहं स्तुवे जिनं ॥ यस्य नाम जगतो वशंकर शंकरं जपति मंत्रवऊनः ॥१॥ नाथ तत्तव मुखेंऽदर्शनं दर्शनं च नयनामृत स्तुवे ॥ येन मेडरिततापहारिणा हारिणा लसति पुण्यवारिधिः ॥ २ ॥ विश्वविस्तृत महाप्रनाव ते नावतेज इह मातिनो युगे ॥ उजते दिनकरे हि नासुरे नासुरेश्वरपुर स्य किं नवेत् ॥ ३ ॥ अर्बुदस्य नवता व्यनावि या नावियात्रिकजनेष्वनीतिद ॥ पश्यतोहरनृतापि सारसा सारसाधुनिचिता नवत्तरां ॥ ४ ॥ ग्राममात्रमपिजीरप निका पनिकाननसहोदरीव या ॥ त्वत्पदस्थितिबलेन साधुना साधुनायकपुरीवना सते ॥ ५ ॥ त्वां नमत्यशिववादितारकं तारकंकणसुमैः प्रपूज्य यः ॥ प्राप्य चिन्म यमनेनसं पदं संपदं स समुपैति शाश्वती ॥ ६ ॥ त्वत्पुरः प्रकुरुते प्रनावनां नावनां जिन निधाय यो हृदि ॥ निश्चितं स जनते न उगती उर्गतीर्णनवसागर प्रनो ॥७॥ यो दधाति हदि तेंन्दिपंकजं पंकज मलमधः करोति सः ॥ तप्तयेपि न नवंति पा भृतः पार्श्वतस्यतु नवोभवनमानात्वत्स्मृतेरपि जना निरामया रामया चरमया निरामया ॥ योगिनूषण नवंति नूषिता नूषिताःकिल सुधाशनाश्व ॥ए॥ खप्तदप्रण तिलालसादरं सादरं दधति जातुनावनिं । यत्र यांति ननु जानुनानवो नानवोद य नमस्तु तत्र किं ॥१०॥ अंतरंगरिपवोऽरुपापराः पापराशिहर पीमयंति मां ॥ सत्यपि त्वयि विनो कपालये पालयेश शरणागतं ततः ॥ ११॥ त्वन्मयं जगति यस्य मानसं मानसंयमनतस्य उरा. ॥ तस्करानलपयः करेणवो रेणवो जिन न वंति तत्वयात् ॥ १२॥ देवशारिखमणिधेनुदेवता देव तावदिह वांबितप्रदाः ॥ या वदेव तव धामनाम नाम जंतुमनसि प्रदीव्यति ॥१३॥ ज्ञानिनं जगदिनं निरंजन Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. २६ए रंजनं त्रिजगतः पुरातनं ॥ त्वां स्मरामि सकलंच निष्कलं निष्कलंकमचलं महाब लं ॥१॥ श्वं यः प्रयतः स्तवीति सततं श्रीजीरपल्लीपुरीवासं पार्श्वजिनप्रचं प्रकटित प्रौढप्रतापोदयं ॥ सोवश्यं सुनगं नविभुरधिकं धर्मार्थकामामृतश्रीनिः स्त्रीनिरिव स्वयं गुणगणाश्लिष्टानिराश्लिष्यते ॥१५॥ इति श्रीजीरापल्लीपार्श्वस्तवनं समाप्तम्।। ॥अथ श्रीफलवद्धिजिनपार्श्वस्तवनं ॥ सयलाहिवाहिजलहर, समूहसंहरणचंडपवमाणं ॥ फलवहिपासनाहं संयुणि मो फणय फलं ॥१॥ विदुयासं विद्यासं, विद्यासं पत्तमनियुषंति तुमं ॥श्रम यरया अमयरया, अमयरया पुगश्वमवयणं ॥ २ ॥ समणाणं समणाणं, समणा एं संघिउ फुरइ सत्ती ॥ विणयाणं विणयाणं, विणयाणंदणजयाहि मुदे ॥३॥ हिरन्ना अहिरन्ना, अहिरन्ना विणियमंति कयपूया ॥ सव्वाही सवाही, सवाहीणा तुह य नत्ता ॥ ४ ॥ गयवाहा गयवाहा, गयवाहा अरहियापश्पसने ॥ परमहिया परमदिया, परमहिया सह न टुंति नरा ॥ ५॥ सद्दवणा सदवणा, सहवणामयरि क हवंति जणा ॥ सुहयगया सुहयगया, सुहयगया तुह पसाएण ॥ ६ ॥ कणयाउ कण्या, कण्या ररकसी तुमंजवणं ॥ नदवयो नदवशो, नवयो रिद्धिसिरिया णं ॥ ७ ॥ नाएणं नाएणं, नाएणं चियति लोहसुहसि ॥ नयराई नयराई, नयरा ई सुगुणपोराणं ॥ ॥ फलवड़ी फलवदी, फलवड़ी दाणा तुमे विहिया ॥ सन्न यरी सन्नयरी, सन्नयरीमंतयाजया ॥ ॥ समणाली समणाली, समणाली एं तहागमे धन्ना ॥ चरणरया चरणरया, चरणरया नाश्चत्तसिरी ॥१०॥ निहप्पहस्स निद, पहस्त, निहप्पहस्त मोहदले ॥ रयणायर रयणायर, रयणायर गहिर तुस नमो ॥ ११ ॥ इत्थं थुसि सिरिपास जगनिवास सिंगारहारफलवदिपुरीसिरीए । बुद्धीयराकयजिगप्पहसू रिवाणी थूयच्चमे वियर अंतररोगमुरकं ॥ १२॥ ॥ इति श्रीफलवदिपार्श्वनाथस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥अथ श्रीचंप्रनस्वामिस्तवनं ॥ ॥ संस्कृतं ॥ नमो महसेननरेंइतनूज जगऊनलोचननंगसरोज ॥ शरवसोमसमद्युतिकाय दयामय तुन्यमनंतसुखाय ॥ १ ॥ सुखीकृतसादरसेवकलद विनिर्जितर्जपनाव विपद ॥ सुरासुरवृंदनमस्कृत नंद महोदय कल्पमहीरुहकंद ॥२॥ ॥प्राकृतं ॥ जय निरसिय तिदुयणजंतु नंति जय मोहमहीरुहदलनदंति ॥ जयकुंदक | Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. नियसमदंतयंति जयजय चंदप्पहवंदकंति ॥ ३ ॥ जय पण्यपालिगणकप्परु रक जय जगडिय पयमकसयपरक ॥ जय निम्मल केवलनाएगेह, जयजयजिलिं द पडिमदेह ॥ ४ ॥ २७० ॥ शौरसेनी ॥ foresees मोहारिके दूदयं दलिदगुरु रिदमध विदिकुमदरकयं ॥ नातं नम दिजोसदटनदवत्सलंन हदिनिदि गतिं सोददं निम्मलं ॥ ५ ॥ ॥ मागधी ॥ सुलसुल विसलनलनाय सेविवपदे नमिल जय जंतुतुदि दिन सिवपुलपदे ॥ चलन पुल निलद संसालिसलसीलुदे, देहि महसा मितंसालि सासदपदे ॥ ६ ॥ ॥ पैशाचिकं ॥ तलिता खिलतोसतया सतनं मदनानलनीलमनानगुणं ॥ नलिनारुणपाततलांनमते जिननो इधतं सशिवं जनते ॥ ७ ॥ ॥ चूलिका पैशाचिकं ॥ कलनाजिकनातुलत पहलं चलनीकल चालुयशप्प सर्ज ललनाचनकीत कुनंलु चिलं, चिनलावमहंसमला मिचिनं ॥ ८ ॥ ॥ अपभ्रंश ॥ सास सुक्ख निहानाहन विद्यो जेहिं तवं पुन्नविहूनजाए निकल जम्मु तिह नरपसु ॥ ॥ निम्मल तुह मुहचंडजे पहुपिक्खुई पसरि सिउँ इय निरुवमश्राड ति ह मुनिसामी विष्फुरइ ॥ १० ॥ ॥ वयं समसंस्कृतं ॥ हारिहार हरदासकुंद सुंदर देहानय केवलकमलाकेलिनिलय मंजुलगुलगलमय ॥ कमलारुणकरचरणचरणनरधरणधवल बल सिद्धिरम पिसंगम विलासलालसमलम वदन ॥ ११ ॥ नवनवदवजलवाह विमल मंगलकुल मंदिर वामकामकरिकेलिहर हरिवरगुणबंधुर || मंदर गिरीगुरुसारसबलक निनूरुहकुंजर देहिमहोदयमेव देव म म केवनिकुंजर ॥ १२ ॥ इति जगदनिनंदन जनहृदि चंदन चंप्रन जिनचंश्वर ॥ षड्नापानिष्टुत मम मंगलयुत सिद्धिसुखानि विनो वितर ॥ १३ ॥ इति श्रीजिनप्रनसूरिकृतचं प्रनस्वामिसक्तं पनापास्तवनं संपूर्णम् ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. ॥ अथ श्रीवर्धमाननिर्वाणकल्याणकस्तवनप्रारंनः॥ श्रीसिद्धार्थनरेशवंशकमलाशृंगारचूमामणेनव्यानां डरपोहमोहतिमिरप्रोडासने ऽहर्मणः ॥ कुर्वे किंचन कांचनोज्वलरुचेनिकल्याणकस्तोत्रं गोत्रनिदर्चनीयचर पांनोजस्य वीरप्रनोः॥ १ ॥ प्राप्य देव शरदांदिसप्ततिं शीतगौ पवनदेवतगे ॥ तामुपायत रसेन कार्तिकाऽमावसीनिशि शिवश्रियं नवान् ॥ २॥ हस्तिपालकन पालपालिता पूर्न पूरयतु मन्मनःशुचा॥ यत्र दर्शश्व चंमा जवानस्तमाप नवताप | हा पुनः॥३॥कर्जदर्शनिशि दर्शित ध्यस्तत्रपुर्य खिलवर्णजाःप्रजाः॥ त्वन्महोदयमही तयाऽधुनाऽप्युत्सवं विदधतेऽनुवत्सरं॥४॥ यैर्ध्वनिस्तव पपे श्रवःपुटैः षोडशप्रहरदे शनाविधी॥ तान्निवेश्य धुरि धन्यताजुषां रेखया न खलु सुप्यतेऽन्यतः॥५॥ पुण्यपाप फलपाकवर्णनामध्यमध्ययनपंक्तियुक्शतं ॥ व्याकथाः स्फुटमष्टष्टषतिव्याकृतीश्च परिषद्पुरस्तदा ॥६॥ जीवति त्वयि जिनेनूतिना त्वत्प्रणाम विधिनंगनीरुणा॥ नून मेष्यत न देव केवलज्ञानसंपदनुरागनागपि ॥ ७ ॥ यविधेयमुपदिश्य गौतमः प्रेषि नक्तिनदापि त्वयाऽन्यतः ॥ रोगिणः कटुकजायुपानवज्यायसेऽस्य चरुपे गुणाय तत् ॥ ७ ॥ त्वदिदृववतरत्सुरावली या न देहमणिजषणांशुनिः ॥ सा कुदरजनि र स्ततामसा पूर्णिमानिशमुपाहसद्ध्वं ॥ ॥ निवते त्वयि विलोक्य विष्टपं ध्वांतपूरपरि पूरितोदरं॥रोदयंत इव रोदसी प्रतिश्रुनरेण रुरुः पुरंदराः॥१०॥ वन्हिवायुजलदेश्व रैः सुरैस्तैलपर्णिककृतांगसंस्कृते॥नूतिमात्रमपि नूतिधाम ते ऽपस्टशन बत न तान् र जोऽस्टशत्॥११॥नक्तितो मदितुमीशवासवास्तावकीनहनुसंग्रहं व्यधुः॥नूनमदविज याय तावकानुग्रहेण हनुमत्वमित्रवः॥१॥ कुग्रहा न तव जातु शासनं वीर बाधितुम संनविभवः ॥ एककः स खलु जस्मकग्रहो बाधते नवउपेदितस्तदा॥१३॥जग्मुषि त्व यि शिवं नराधिपास्तत्वणं गृहमणीनबोधयन् ।। ये बचः कुनयकाननप्लुषस्त्वत्प्रताप शिखिनः कणा इव ।।१४। यन्न कश्चन मुनिस्त्वया समं युक्ति मैयरितरैर्जनैरिव ॥ कुषमा समयनावलिंगिनां व्यंजितेन गुरुनिर्व्यपेदिता ॥ १५ ॥ प्रस्थिते त्वयि शिवाय तत्वं संमुमूर्तुरधिष्टथ्वि कुंथवः ॥ कुजीवबदुलामतः परं सूचयंतश्व नाविनी महीं ॥१६॥ यत्र यत्र चरणौ त्वयाऽर्पितो तत्तदास्पदमगादमापतां ॥ ए कया पुनरपापया पुरापापयाऽजनि सुरोक्तिनामतः ॥ १७ ॥ यत्र मुक्तिमगमः शम कुमावाप पापतुहिनार्कतापतत् ॥ प्रीतिमीति तरुकुंजनंजने नाग नागकरणं करो तु नः १७ ॥ यः पठत्यशवधीस्तव वीरस्तोत्रमेतदवधानसमेतः ॥ तत्रनावरिपुरा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र. - जि रयश्रीनाजि न प्रनवति प्रबलापि ॥ १७ ॥ इति श्रीवर्धमाननिर्वाणकल्याण कस्तवनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीअरिनाथस्तवनप्रारंनः ॥ जय शरदशकलदशहयवदन जय हतजगदसहनमदमदन ॥ जय नतशमगतश मनजकदन जयनगवदरपरमपदसदन ॥ १ ॥ गतमलकमलसकलकरचरण जननमरणनवनयनरहरण ॥ रचय चरणरसनशबलस्वन मनवमसनवमरसरम वचन ॥ २ ॥ नवरचनरतदशशतनयन नयवनजलदजलजदलनयन ॥ फलद कलकलयजयकरयजन नमदशमपहरशममननजन ॥ ३ ॥ अमरफलदपदहर पदकमल गजकरसरलसबलकरयमल ॥ जनयसनयमतनतजनसकल मतफ लमपमलकलमलमकल ॥ ४ ॥ नयमयवचनपवनसमवमत परमत लमनसमत ॥ शमदमयमसमरसरमसमय नवपतनजनयमज मम शमय ॥५॥ घनखकनकशकलघनवरन मदकलकरणकलनजयशरन ॥ शरणदचरणनरकदर शमन सदयमदघमफलयगजगमन ॥ ६ ॥ नतशतमखतमखलजनमदर ग मयपरमपदमनयदसदर ॥ नवनवनववननवदशमगम शकलनगजकलगलदन वगम ॥ ७ ॥ तमचयमपनयतपमहतपन परसमयजरजहरपदजपन ॥ समज नदमनकमनगजकरट दलनसबलतमहतमदचरट ॥७॥ मदनयनगमशरणन रशरण गतरणसदवतरणवरकरण ॥ परसहचरसमरसजगदवन समवसरण रमदहमहनवन ॥ ए॥ सततमचरचरजगदवगमक मननजनकथनतरतमशम क॥ परपदनगरगमनरणरणक मफलदशमसफलयपथनणक ॥ १० ॥ रसजर लसदनलसनमदमन नवनपवनचरनरयतसमर ॥ दलयबहलमलमरवरवशत मतरतनरशतगतपरवशत ॥११॥ कपटशकटजलशयसमनवक जनमवगमय समयरसमवक ॥ गदगजरणफणधरदकदहन धनहरमरकजदरहरमहन ॥१२॥ समतसतमहपरमतकलस गणधरगणधरशमरसकलस ॥ नवदनवदपदलयलस दवम वनमवनमयसहनमहनवम ॥१३॥ एवं श्रीधरतीर्थराज तव यो कुक मरोगविदा कामः केवलवर्णसंस्तवसुधास्वादं विधत्ते सुधीः ॥ श्रेयो वा न जरामर वपदवीसौख्यानि बाह्यंतरा मित्राली जय सुंदरः स नियत शिश्रीयते मानवः॥१४॥ इति केवलाक्रमयं श्रीधरनाथस्तवनं संपूर्ण ॥ Jain Education Interational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. २७३ ॥श्रीवीतरागाय नमः॥ - ॥ अथ श्रीयशोविजयजी उपाध्यायकृत अध्यात्ममतपरीक्षाप्रारंनः॥ ॥आर्या वृत्तं॥पणमिय पासजिणंदं, वंदिअ सिरिविजयदेवसू रिंदं ॥अप्पमयपरिकं, जहबोदमिमं करिस्सामि ॥ १ ॥ व्याख्याः- सर्व कल्याणनी सिधिने अर्थे, श्रीपार्श्वनाथने प्रणाम करीने, तथा संप्रति विजयमान तपागजाधिराज जे श्रीविजयदेवसूरी तेमनी वंदना करीने, पो ताना बोधने अनुसारे, आ अध्यात्ममतपरीक्षानामनुं प्रकरण ढुं करूं बुं. उपोद्घातः- कोई आशंका करे के, गुरू तत्वनो जे अंगीकार तेने अध्यात्म कहे. तेमां कोई विवाद नथी: त्यारे परीक्षा ते शानी करवी ? जे वस्तुमा संदेह पमे तेनी परीक्षा कराय जे; निस्संदेह वस्तुनी शी परीदा ! माटे या अध्यात्ममत | परीदानामनुं प्रकरण करवानुं कांई प्रयोजन दीवामां आवतुं नथी. तेने कहे ॥१॥ असप्पं णामाई, चनविदं चनविदा य तवंता ॥ तब श्मे अनुत्रिय, पामेणशप्पिा आ॥ ॥ व्याख्याः- अध्यात्मना चार प्रकार ले. एक नामअध्यात्म, बीजो स्थापनाथ ध्यात्म, त्रीजो इव्यअध्यात्म अने चोथो नावअध्यात्म. चेतन तथा अचेतन ए बेमांनी कोई पण वस्तुनुं अध्यात्म एवं नाम राखेबुं होय ते नामअध्यात्म; अ ध्यात्मवंत यतिना आकार- चित्र कहाडयूं होय ते स्थापनाअध्यात्म ; अने जेथ की नावअध्यात्म उत्पन्न थाय, जेवां के, प्रतिमादर्शन, सजुरुसेवा, अने अध्या त्मशास्त्रान्यास ए त्रणे नावाध्यात्मना कारण ने, माटे ते इव्याध्यात्म; तथा आ माना जे शुभ परिणामते नाव अध्यात्म कहिये. तेम अध्यात्मीना पण पूर्वोक्त रीते चार प्रकार के तेश्रोमांइहां जेओना मतनो विचार कर्त्तव्य जे, ते नामअध्यात्म वंत बे. तेथोना मतनी आशंकानुं निवारण करवू, ते आ ग्रंथनुं प्रयोजन ॥२॥ उ:-पूर्वोक्त चार प्रकारना अध्यात्ममानो नावअध्यात्म मोदनुं कारण . माटे तेनुं विशेषेकरी स्वरूप कहेजेः जा खलु सहावसिक्षा, किरिआ अप्पाणमेव अदिगिव ॥ नाश् परमशप्पं, सा दंसा नाण चरणमा ॥३॥ व्या:- जहांशुधी कषाय तथा इंडियने वश थयोथको संसारनेविष आत्मा ३५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अध्यात्ममतपरीदा. फरे ले, तहांशुधी आत्मानेविषे कर्मनो अधिकार में; स्वतः आत्मानो अधिकार नथी. केमके, आत्मस्वनावनु आबादन थएखं जे. जेम मलव्यना योगे सुवर्ण नुं आबादन थई जाय, तेथी तेनो स्वनाव प्रगट थई शकतो नथी. तेमकर्मना योगे आत्मानुं आजादन थई जायले, तेथी तेनो झान, विज्ञान, तथा अमूर्तत्वा दि स्वनाव प्रगट थई शकतो नथी. अने नामकर्म ते आत्मस्वनावने पलटावीने नर, तिर्यच, नारकी, तथा देवताप्रमुखना पर्यायरूप पोताना स्वनावने प्रगटकरे ने. जेम तीव्र अग्निमां सुवर्णने नाख्याथी ते मल ज्यारे बली जाय त्यारे सुवर्ण नो गुस्तादिस्वनाव प्रगट थायले. तेम शुनपरिणाम पूर्वक तपश्चर्याप्रमुख थ की ज्यारे कर्मोनो य थई जायले, त्यारे आत्मानो झानादिरूप स्वनाव प्रगट थायजे. एटले कर्मनो अधिकार टलीने स्वतः आत्मानो अधिकार प्रवर्ने ने, ए अधिकारनी जे क्रिया तेने नावअध्यात्म कहिये. ते आत्म ज्ञानरूप एक वस्तु हो वाथी बोधरूप ले माटे झान कहिये; तेमज रुचिरूप होवाथी सम्यक्त दर्शन क |हिये; तथा प्राणातिपातादिक आश्रवनिरोधरूप होवाथी चारित्र कहिये. यतः “श्रा स्मानमात्मनोवेत्ति, मोहत्यागाद्ययात्मनि। तदेव तस्य चारित्रं, तज्ज्ञानं तच्च दर्शनं." ___० को आशंका करे के, नावाध्यात्म तथा शुशोपयोग ए बे शब्दोनो अर्थ एक ले. जेम उपाधिरहित स्फटिकनो निर्मल स्वजाव . तेम परव्यसंगरहि त जीवनो निर्मल स्वनाव ले. तेनेज शुक्षोपयोग कहेले. अने एनेज चारित्र कहे. परड्व्यसंगे जीवनो जे मलिन स्वनाव थायले, तेने अशुधोपयोग कहे। एना बे नेद -एक गुनोपयोग बीजो अशुनोपयोग. देव गुरु तथा धर्मादिक न पर जे प्रशस्त राग होय, तेने गुनोपयोग कहेले. जेम राता फूलना संगथकी स्फटिकनो रातो रंग थायडे, तेम जाणवू. अने जे अप्रशस्त राग तथा देष होय जे, तेने अशुनोपयोग कहेले. जेम काला फूलना संगथकी स्फटिकनो कालो रंग थायले, तेम जाग. ए बन्ने मूल स्वनावने ढांकी लिये, तेथी अशुभोपयोग कहेजे. एनेज शुक्षोपयोगरूप चारित्रना बेद कहेः एना आयतन परव्य ने त्यारे श्वेतांबरनेविषे चन्द उपकरणरूप परव्यनो संग बता अध्यात्म केम प्रग ट थाय ? तेने उत्तर कहे जे ॥३॥ णविना रागदोसो, अप्परसेदि किंचि पडिकूलं ॥ परदवं नवगरणं, किंपुण देढुव धम्म ॥ ४ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदाः राज्य व्या० मात्र रागवेषविना बीजू कोई पण परव्य ते गुखोपयोगरूप अध्यात्म ने प्रतिकूल नथी. एम जो अंगीकार नही करशो तो लोकमां सर्वत्र धर्मास्तिका | यादिक परव्य नया जे, ते बधां प्रतिकूल कहेवासे. तेम तो संनवे नही : माटे शुक्षोपयोगरूप अध्यात्मने राग षज प्रतिकूल डे, एविनाबीजुं कोई परव्य प्र | तिकूल नथी एम जागवू. जो एम कहेशो के परिग्रहीत परव्य अध्या त्मनुं विरोधीज , पण अपरिग्रहीत परव्य अध्यात्मनुं विरोधी नथी. त्यारे श रीर रूपव्य परिग्रहीत बतां केम अध्यात्म उत्पन्न थायले ? जो एम कहेशो के, | शरीर धर्मनुं कारण ले. तेथी अध्यात्मनो विरोधी नथी. त्यारे धर्मोपकरण पण | धर्मनां साधन होवाथी अध्यात्मना विरोधी थाय नही. ए सामान्यपणे उत्तर कयुं. न कोई एवी आशंका करे के ज्यांशुधी उपधि होय. त्यां शुधी सर्वथा अ ध्यात्मनी सिदि थाय नही तेनुं मत दूषित करेजेः- ॥४॥ वधिसदिओ ण सिसइ, सतुसा जद तंउला न सिशंति॥ श्य वयणं परिकतं, दूरे दितवेसम्मा ॥५॥ व्या:-उपधिसहित जीव सिक्ष्ताने पामे नही. जेम तूससहित चोखो सीके नही, तेम जाणवं. जेम चोखाने तूस दोषरूप ले, तेम उपधि जीवने दोषरूप बे. एवं वचन अमरचंद नामना दिगंबरनुं जुउंज नारख्यु डे, माटे ए दृष्टांत स मीचीन नथी. केमके, चोखाने तुसरूप दोष ते स्वरूपथकी : अने जीवने न पधिरूप दोष स्वरूपथकी नथी. जीवने उपधिरूप दोष जो स्वरूपथी होय, तो पक श्रेणीए चढेला यतिना स्कंधउपर वस्त्र नाखिये तो तेने केवलज्ञान उत्पन्नथ, न जोये. अने तूससहित वस्तु सीके नही. ए पण सर्वथा संजवित नथी. केमके, मुग प्रमुख तूससहित सीतां दीवामां आवेळे. माटे ए पण एकांत नथी, अनेकांत . ___:- परवादी जे दोष उपधिनेविषे कहे, ते दोष शरीरने विषे पण संनवे लेते देखडावे ः-॥ ५ ॥ जा उबगरणे मुन्ना, आरंनो वा असंजमो तस्स ॥ तह परदवम्मि रई, सा किम तुहं सरीरवि ॥६॥ व्या:- जो एम कहेशो के, उपधि राख्याथी मूळ थायले. त्यारे शरीरकपर केम मूळ थती नथी. उपधिनी मूळ तो शरीर मूर्नानिमित्त . तेथी शरीरने Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अध्यात्ममतपरीक्षा. अधिक मूर्जा संनवे. एनुं समाधान जो भावी रीते करिये के, मूर्बाना बे नेद बे:- एक मारुं मारुं एवो ममत्वपरिणाम, अने बीजो पामेली वस्तुउपर अवि योगनो अध्यवसाय ; ए वार्तध्याननो नेद ले. तेश्रोमांनी पहेली जे शरीरविषे ममत्वपरिणामरूप मूळ कहीले, ते तो सम्यक्दृष्टिने पण थाय नही; केमके, ते ज्ञानी ले. अने ममत्वपरिणाम तो अज्ञाननिमित्त . एथीज सम्यक्दृष्टि विषयादिक- सेवन करतो बतां पण तेने परमार्थथी विषयसेवनरहित कह्यो बे; त्यारे यतिनेविषे ते गुं कहेवं! अर्थात् यति तो सर्वथा विषयसेवनरहित . अने बीजी आर्तध्यानरूप जे मूर्जा ले ते धर्मध्यानना प्रनावेकरी शरीरविषे था य नही. एज समाधान उपकरणने विषे पण जाणी ले. जो एम कहेशो के, उपकरण राख्याथी तेना ग्रहण तथा त्यागथी आरंज थायले., ए वात पण असं नवित ले. केमके, आरंन तो शरीरना करचरणादिनी क्रिया कस्याथी पण थाय . जो कहेशो के शरीरना करचरणादिकनी क्रिया जयणाएकरी थायले. तो जय पाएकरी धर्मोपकरण लेता तथा मूकतां पण आरंन थतुं नथी. जो एम कहे शो के धर्मोपकरणथकी गुधात्मपरिणाम नंगरूप हिंसा थायले. त्यारे शरीरथ की केम हिंसा थती नथी? ज्यारे मूर्नाविना शरीरथकी हिंसानो संनव थतो न थी, त्यारे मू विना धर्मोपकरणनो पण संनव केम थशे! जो एम कहेशोके, धर्मोपकरणथकी परव्यनेविषे रति होवाथी आत्मव्यमां रति थती नथी. त्यारे शरीरथकी पण व्यरति केम नथाय ? किंतु थवीज जोश्ये एनो विचार करो. उ:- परव्यरतिने बे विकल्पेकरी दूषित करेः- ॥ ६ ॥ तह परदवम्मि रई, परिणामो रकणाणुबंधो वा॥ उहओ तणु सममुवहिं, पासंतो किं ण लकेसि ॥ ७॥ व्या:- परव्यरति ते गुं काययोगना परिणामरूप के, संरक्षणानुबंधी रौइध्यानरूप ? जो प्रथम काययोग परिणाम कहेशो तो गुनकाययोगे दोष केम लागे? अर्थात् एम तो संनवे नही. अने जो संरक्षणानुबंधी रोऽध्यानरू प कहेशो तो ते पण संनवशे नही. केमके, चोरादिकथकी सर्व प्रकारे जे वस्त्रा दिकनुं बचाव, तेने संरक्षण कहेजे, ने तेनु जे निरंतर चिंतन करवं, तेने अनुवं ध कहेजे. एरोझ्ध्याननो नेद जो उपधिथकी थाय तो शरीरथकी पण थर्बु जोश्ये. केमके, सर्प, चोर, तथा कंटकप्रमुख थको शरीरनी रदा करवाना अ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. २७ ध्यवसाय पण घणानेविषे दीगमा आवेने. एने तो रोऽध्यान कहेता नथी! जो। एम कहेशो के, यतिने शरीरने विषे राग नथी होतो, तेम बतां सर्पादिकथी शरीर नी रहा तो धर्मसाधनने अर्थे करेले. तेथी तेना अध्यवसाय अशुन होता नथी. एम पण संनवे नही! केमके, यतिने शरीरनी पत्रे धर्मोपकरणनपर पण राग हो तो नथी. तेम बतां तेनीरदा पण धर्मसाधनने अर्थे करेले. एवी रीते शरीरना जे वांज धर्मोपकरण ठरेले. तेम बतां तेश्रोनी नबापना करतां तमने शरम थती नथी! न:- कोई आशंका करे के, नपकरण जे जे ते ध्यानना विरोधी जे. केमके. तेओना प्रतिलेखनादि बाह्यव्यापारना योगे अंतर यात्मतत्वने विषे चित्त एकाग्र तारूपध्यानमां विघ्न थायजे. एम कहेनाराने उत्तर दिये जे. ॥ ७ ॥ जो किर जयणापुबो, वावारो सोण जाण पडिवको॥ सोचेव होइ जाणं, जुगवं मण वयण कायाणं ॥७॥ व्या:- आवश्यक पडिलेहणाप्रमुख जे जयणाएकरी व्यापार थायडे ते प ए ध्याननो विरोधी होवोजोये; एने तो कोई विरोधी कहेतो नथी किंतु एतो ए क कालाश्रित मन, वचन, तथा कायासंबंधी ध्यानरूप होय. जेमके, शुजयो गे करीमन एकाग्र होयडे, एनेज मन संबंधी ध्यान कहे; निरवद्य वचन बोला यजे, अने सावध वचननो त्याग थायडे, एनेज वचनसंबंधी ध्यान कहे। अने गुनयोगनेविषे यत्नेकरी कायानी दृढता थायडे, एने कायसंबंधी ध्यान क हेले. जो तमे एम कहेशो के, नगवंते एकसमयनेविषे बे क्रियानो निषेध कह्योने; तेम बतां एकसमयाश्रित मन, वचन तथा काया संबंधी ध्यान केम संनवे ? ए नो उत्तर यामः- नगवंते जे एकसमयनेविषे बे क्रियानो निषेध कह्योने ते निन्न विषयविषे ने एक विषयविषे निषेध नथी कहो. जेमके, वांदणाना आवर्तननेवि षेत्रण योगनी क्रिया एकज समयनेविषे थायले. यतः “निन्नविषये णिसिई, किरि या उगमेगयाण एगम्मि : जोग तिगस्त विनंगिय, सुत्ते किरिया जनणिया." उ:- कोई आशंका करे के, ध्यान जे जे ते योगनो परिणाम नथी. के जेनी प्रवृत्ति बाह्य व्यापार करतां थाय. जो योगना परिणामरूप ध्यान होय, तो लेश्या अने ध्यान एक कहेवाय. एअोमां कोई न्यूनाधिकता होय नही. तेम तो नथी देखातुं. लेश्याोनुं रूप पण जुउंले, ने ध्याननुं रूप पण शास्त्रोमां जुई कझुंडे. वली जो योगपरिणामरूप ध्यान होय तो चौदमे अयोगिकेवल गुण Jain Education Interational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១២ अध्यात्ममतपरीक्षा. स्थानके शुक्लथ्याननो संनव केम थाय ! ए तो योगनी परिणतिरूप नथी. केम के, ध्यानतो आत्मस्वनाव समवस्थानरूप ले. अने तेनी उत्पत्ति भावीरीते था यः- सुखनी तृमाएकरी मोहनीयकर्मने वश थयो थको जीव परव्यनेविषेप्र वृत्ति करेजे, ज्यारे मोहनीयकर्मनी न्यूनता थायजे, त्यारे परव्यनेविषे प्रवृत्ति थती नथी. एमथयाथी विषयनेविषे वैराग्य थाय ले. केमके, विषयनेविषे जे रा ग होय बे, ते विषय प्राप्तिपूर्वक होय. अने रागना अनावे वैराग्य होय. वैरा ग्यथकी मननो रोध थायले. केमके, मननी प्रवृत्ति विषयविना थती नथी. जेम तृणरहित स्थानकनेविषे पडेली अग्नि पोतानी मेसेज नाशने पामे. तेम विषय विना मन पोतानी मेलेज स्थिरताने पामेले. मननो निरोध थयाथी चंचलता मटी जाय. अने पनी मन एकाग्र थईने आत्मानेविषे प्रवृत्त थायले. ए यात्मस्वनाव ने ध्यान कहेले. यतः “जो ख विदमोहकलुसो, विषयविरत्तो मणेण संनित्ता; समवहिदो सहावे, सो अप्पाणे दवदिजा दा." इति प्रवचनसारे. एवं सह चेतन स्वनावरूप जे ध्यान ते, बाह्य व्यापार करतां, तथा परव्य अधिकरण क्रियाबत केम प्रगट थाय ? एनो निर्णय करे. ॥ ७ ॥ माण तिकरण पयत्तो, ण सहावो तेण जेण सिहस्स॥ श्द पाणविनागो, कह सुक्कक्षागनेआणं ॥ए ॥ व्या० मन वचन तथा कायारूप त्रिकरण एटले त्रण योगनो प्रयत्न कस्याथी ध्याननी सिदि थाय ले; माटे योगपरिणामरूप ध्यान ; परंतु उपयोगरूपज ध्यान नथी. अने लेश्या पण योगपरिणामरूप . तेथी योगपरिणामपणे तो ध्यान तथा लेश्या ए बन्ने सरखा ने; परंतु बन्नेनां लदणो जुदां जुदांजे. लेश्या जे डे ते योगनो चलाचल परिणाम , धने ध्यान जे जे ते योगनो निश्चल परिणा म . अयोगीने यद्यपि करणव्यापार नथी, तथापि बता मन वचन तथा काया ना निरोधरूप प्रयत्न करे बे ते प्रयत्ने करीने जे त्रणे योगनो निरोध थाय ने, ते नेज ध्यान कहेले. अने ही जो आत्मस्वनाव समवस्थानरूप ध्यान लश्ये तो सिध्ने पण ध्याननुं कर्तृत्व ठरशे. शास्त्रोमां तो सिनेविषे ध्यानप्रति सर्व कि यानो अनाव कहो. जो एम कहिये के, सि-बने व्यावहारिक ध्यान तो नथी, पण आत्मस्वनावरूप नैश्चयिक ध्यान तो . जो एम होय तो योगनो निरोध कस्या विना पूर्वकोमिपर्यंत केवलीने ध्याननो निषेध केम करयो ? आत्मस्वनाव सम Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. जए वस्थान तो केवलीने सर्वथकी अधिक जे. ए कारण माटे अयोगीने तो योगनि रोधरूप ध्यान , अने बद्मस्थने करणना दृढव्यापाररूप ध्यानले. एवी रीते गुन योगेकरी प्रवर्तनीय जे ध्यान, तेमां वाद विवाद शानो होय ! ___० कोई आशंका करे के, जो उपकरण होय तो राग पण होय, माटे नप करण सर्वथा त्याग करवा योग्य जे, तेम जो न करिये तो उत्सर्गमार्ग केम रहे? एप्रश्ननो उत्तर दिये :- ॥ ५ ॥ जा खलु सरागचरिआ, साविय नस्सग्गमग्गसंलग्गं॥ मोत्तुं अववायपयं, अप्पसंगी परविसेसो ॥१०॥ व्या जे स्थिविरकल्परूप सरागचर्या कहेतां सरागमार्ग बे. ते पण उत्स र्गमार्गने लागेलोज जे. अर्थात् अपवाद मार्ग अने नत्सर्ग मार्ग निकट संबंधी बे. यद्यपि स्थिविरकल्पी पण अपवादनो तो त्याग करेडे, तथापि कोई कारण ने लीधे तेने ग्रहण पण कर, जोये. अने जिनकल्पी तो कदापि अपवादनुं ग्रह एग करेज नही. एवी रीते स्थिविरकल्पी तथा जिनकल्पीना अपवाद तथा उत्स र्गमार्गमां अल्प अंतराय . एटले अपवादमार्ग थकी नत्सर्गमार्गनी काईक उत्कृष्टता , तेथीज बे नेद थयावे. अने जिनकल्पनी अपेक्षाए स्थिविर कल्प | कह्योने. तेमज उत्सर्गमार्गनीअपेदाए अपवाद मार्ग कह्यो बे. जो उत्सर्ग मार्ग थकी काईक न्यूनता वालो अपवाद मार्ग, तथा अपवादमार्गथी काईक अधिकतावालो उत्सर्ग न कहेगुं तो चौदमा गुणस्थानकना अंतना समयसुधी उत्सर्गमार्गनो संनव थशे नही. केमके सर्वोत्कृष्ट संवर तिहांज . माटे जे ठेकाणे जे मार्ग उत्कृष्ट कह्यो होय ते ठेकाणे तेज उत्सर्गमार्ग ले. जेमके स्थि विरकल्पनेविषे चौद उपकरणज उत्कृष्ट होवाथी ते उत्सर्ग मार्ग ले.॥ १० ॥ उ० मूल गाथावडे पूर्वपदी आशंका करे :नणु बसंगं सादण, मववान अंतरंगमुस्सग्गो ॥ जा पुण सराग चरिया, समुच्चिया णेव सिधाए॥१॥पडिसेवणो पुणलो, अववा - फुडो अणायारो॥ता वनाई गंथो, णो नस्सग्गो ण अववान॥१॥ व्या:- परव्यमात्रनी जे निवृत्ति, एटले परव्यनो काई पण परिग्रह रह्यो न होय, मात्र आत्मव्यनोज प्रतिबंध होय, तेज संयमनुं अंतरंग कारण ; Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. "" एने उत्सर्गमार्ग कहे. एवी सामग्रीनी प्राप्तिविना शुद्धोपयोगचूमिकाए चढ़ी शकातुं नथी, त्यारे तेनी साह्यता करनारी जे उपधि होय तेनुं धारण कर तेने अपवाद कहे. ते उपधि बंधनो हेतु नयी, माटे निषेध नयी कही. केमके, ए उपधि संयमरहित पुरुषना उपयोगमां यावती नथी. किंतु संयतीनेज उपयोगी बे ने मूर्खानो हेतु यती नथी. यतः यममिकुडुं नवहिं, अपन पिऊं असं जद जणोहिं मुष्ठादिजणार हिंदं, गेहसमणोयजदि विश्रप्यते " ते उपधि या बे:- एक तो यथाजातलिंग पुल, एटले जेवो माताना उदरमांथी नीकल्यो होय तेवो खाकार धारण करवो, बीजो वचनपुङ्गल, एटले जेथी शुद्धात्मतत्वनो बोध याय; तेनुं ग्रहण करतुं ; त्रीजुं गुर्वादिक विनयरूप मनना पुजलनुं धार कर; अने चोधुं सूत्राध्ययनना पुजलने धारण करं. यतः " उवयरणं जिएम ग्गो, लिंगं जह जादरूपमिदि नणिदं गुरुवयपि विउ, सुत्तयां च प नत्तं " एवो जे पवादमार्ग तेने सरागचर्या कहे. अर्थात् शुद्धोपयोगनी न्यू ताली पदमार्ग कहेवाय बे. पण जे वस्तु प्रतिषिद्ध एटले सेवन करवा योग्य न होयने तेनुं जे सेवन करवुं तेने अपवाद कहता नथी. तेने तो प्रगट नाचारज कहे. ते मता संयतीने वस्त्रादिक सेवन करवायोग्य नथी केमके, अनाचार बे. माटे ए सर्व परिग्रहनो त्याग करवो जोये. वस्त्रादिक परिग्रहनुं जे ग्रहण कर ते उत्सर्ग पण नथी ने अपवाद पण नथी; किंतु अनाचार बे, ते म करवो ? एह जे कहेते तेने उत्तर थापी तेनो समाधान करेबेः - ॥ ११॥ १२॥ नवकुइ जद सरीरं, सुवनंगं तदेवमुवगरणं ॥ जम्दा तनुं मुणी, सुए आगे गुणा न ि॥ १३ ॥ २८० व्या० : - जेम शरीर परव्य बतां शुद्धोपयोगनुं साह्यकारिबे ; तेथी परिग्रह क देवाय नही. ते उपकरण पण शुद्धोपयोगनां साह्यकारी होवाथी परिग्रह कहेवा य नही. केमके, ए वात, सिद्धांतोनेविषे पण धर्मोपकरणना अनेक गुण काबे तेथी सिद्ध थायले. जेमके, रात्रीयें चनकालें काल ग्रहलेतां वस्त्रे करी यतीने शीत नी पीडाले बे ने जो वस्त्र न होय तो शीतनी पीमाने लोधे मिना ताप प्रमुख नी चिंतना थाय तेथी यतिध्यान उत्पन्न यायले. वस्त्रेकरी सचित्त ष्टथि वी, धूंहरी खोस, वृष्टि, तथा हिरमज प्रमुखनी रक्षा थायडे. ने जो वस्त्र न होय अने उधाकुं शरीर होय, तो शरीरनी गरमीनी बाफथकी ते जीवोने दुःख उत्पन्न याय Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. तर. संपातिमरजरेणु प्रमार्जवाने अर्थे मुहपती राखवी, खेवादेवा प्रमुखनी क्रियाए पू र्वे प्रमार्जवाने अर्थे तथा जैनलिंगने अर्थे उगो राखवो. तथा पुरुष वेदनीयोद यादिक वर्जने अर्थे चोलपट राखवो. इत्यादिक वस्त्रना गुण कह्यावे. अनानोगे लीधेला जे संसक्त गोरसादिक, ते पात्रेकरीने विधिए परवाई शकायचे. पात्रवि ना हाथमांज सीधा होय तो योग्य ठेकाणे केम परवी शकाय? तथा हाथमा सरस वस्तु लीधाथी तेनो बिंड जो नीचे पडे, तो तेथकी कीडीयोप्रमुख अनेक जं तुयोनी विराधना थाय. गृहस्थ नाजनने अर्थे उपनोगेपण पश्चात्कर्मादिक दोष नपजे; अने जो पात्र होय तो तेणे करी ग्लान अथवा पुर्बलने पथ्यादिकं लाव वाने अर्थे उपयोगी होवाथी नपकार थायले. अलब्धिवंत तथा लब्धिवंत अस मर्थ तथा समर्थ प्रादुणाने वास्तव्य पात्र होय तो अन्नपानादिकने आपणी नप कार करे. अन्यथा केम करे ? इत्यादिक वस्त्र तथा पात्रनेविषे अनेक गुणजाणी शरीरनी पठे धर्महेतु होवाथी तेमां परिग्रहपणानी आशंका करवी नही. ॥१३॥ नः- उपहासयुक्त पूर्वपदीनी मूल गाथा वर्ड आशंका करे : जइ वहिनारगहणं, इ मुलाणवळणणिमित्तं ॥ तो सेयं थीगहणं, मेदुणसम्माणिरोह ॥ २४ ॥ व्याo:- शीत तथा तापप्रमुखनी पीडाए करी आर्तध्यान उपजे नही : ते सा संतमे एटसो बधो उपधिनो नार वेठो बो; त्यारे मैथुन संझानिमित्त आर्तध्यान नो त्याग करवासारु एक स्त्रीनो परिग्रह पण शासारं राखता नथी? ज्यारे जी दिक वस्त्र राखवाथी मूळ थती नथी, त्यारे अंगनंग थएली तथा कुरूप स्त्री राखवाथी मूर्जा केम थाय? ॥ १४ ॥ उ:- ए आशंकानो उत्तर दिये: एयं वि दूसगाणं, वयणं मयणंधवयणमिव मोहा ॥ अमह समोवदासो, देदादारागहणेवि ॥ १५ ॥ व्या:-तमा बोलवू नांड (मस्करा) ना जेवं नासेले. जेम होलीना दाहा डामा कामी पुरुषो गमे तेम बक्या करे. अने कामने वश थया थका लाज उप जावे एवां वचनो बोल्या करे . तेम तमे पण मिथ्यात्वना परवशेकरी अज्ञानने लीधे मस्करीना वचन बोलो बो. ते वचनोथी अमने तो कांई थवानुं नथी, पण तमे पोते तेवा देखाई आवो बो. केमके, तमे पोते पण नूरखनी पीडा टालवासारूं २६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अध्यात्ममतपरीदा. - - | खावाने न मलेतो थार्तध्यान थाय तेने टालवासारूं, तथा शरीरने जीवतुं राख वासारु थाहार लेवानुं मानोबो, तेम स्त्रीपरिग्रह शासारु मानता नथी? माटे जेम थाहारमा गुण ने, दोष नथी. तेम धर्मापकरणमां पण गुण जे, दोष नथी. ए रूमुं समाधान ले. एकारणथी धर्मनां साधनोनेविषे जे राग थाय , ते प्रशस्त जाणीने तेनेपरिग्रहरूप दोष जाणवो नही. ॥ १५॥ न:- सम्यक्ज्ञान थवासारु राग प्रशस्त जे अने देष अप्रशस्त ले ते कहेजेः-॥ रागरस व दोसस्सव, नहिस्स सुहासुदे सुहासुहया ॥ जशपुण विसयावेका, कह दोजा तो विनागोसि ॥२६॥ व्या:- सारा नद्देशेकरी अरिहंतादिकनेविषे जे राग करवो, ते प्रशस्त राग कहेवाय. यतः “अरिहंते सुयरागो, रागो सारीसु बनयारीसु ; एस पसको रागो, अऊस रागाण साहूणं” इति आवश्यके. अशुनने तजवासारु जे देष करवो पडे तेने प्रशस्त देष कहिये. जेम के, मिथ्यात्व, अज्ञान, तथा अविरति प्रमुखनपर जे देष थाय , ते प्रशस्त देष कहेवायचे. केमके, तेश्रोविषे जो देष न थाय तो तेथोनो त्याग केम थाय! केवल विषयनी अपेक्षाएज देष था यजे एम न मान. जो मात्र विषयनेयर्थेज देष थतो होय तो तेना प्रशस्त त था अप्रशस्त ए बे विनाग थई शके नही. तेमज नत्तमयतीने विष तथा नुत्तम धर्मनेविर्षे पण जे आ लोकादिकने अर्थे राग थायले ते अप्रशस्त कहेवाय. कोई कहेशे के, रागना उपर कहेला बे विनाग थई शकेले केमके, तेना संक्लेश तथा विशुद्ध ए बे अंग. तेम देषना ए बे विनाग थई शके नही; केमके, ते नो बीजो विगु६ अंग नथी. मात्र संक्लेशरूप होवाथी अप्रशस्त बे. यतः "प रिणामो दो बंधो, परिणामो राग दोस मोह जुदो; अशुनो मोह य दोसो, सुहोव अहो हव दि रागो." इति प्रवचनसारे. एम कहेनाराने एम कहेवू के, तम ने सामायकनेविषे पाप गहीना अध्यवसाय केम थायने ? जे वस्तुविषे षन थाय तेने त्याग करवाना परिणाम थाय नही. तेवा परिणामो तो थायडे ते अप्रशस्त देष कहेवाय? किंतु प्रशस्त देषज कहेवाय. केमके, परने ताप करवो ते क्रोधनो अंश , माटे क्रोधरूप जे देष ते पण रागनी पठे बे प्रकारे होय. न:-चार निपाए करी राग तथा क्षेषतुं विवरण करे :-॥१६॥ - Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. २०३ मं वा दविए, रागो दोसो अभाव चठनेया ॥ कम्मं जोग्गं ब, बसंतमुदीरणोवगयं ॥ १७ ॥ णो कम्म दवराव, गायो वीस साप गंगा य ॥ संकाइ कुसुंभाई, दोसो डुबाई ||१८|| जं राग दोस कम्मं, समुन्नं जे तो अपरिणामा ॥ ते जावराग दोसा, वो मिढ य समोच्यारं ॥ १९ ॥ कोढो माणो दोसो, माया लोनो राग पजाया || संगहणयमयमेयं, दोसो माया वि वदारा ॥२०॥ नकुसु अस्सय कोहो, दोसो सेसेसु चि गंतो ॥ कोदोचिय लोहोचिय, माणो मायाव सदस्स ॥ २१ ॥ व्या० राग तथा द्वेषनां नाम, स्थापना, इव्य तथा नाव ए चार चार प्रकार होवाथी बन्नेना चार चार भेद थायले. जेम के, नामराग, स्थापनाराग, व्य राग, तथा जावराग ए चार भेद रागना थायले. तेमज नामदेष, स्थापना द्वेष, इव्यद्वेष, तथा जावद्वेष ए चार नेद द्वेषना थायडे. जेनुं राग एवं नाम होय ते नामराग कहेवाय. रागवाननुं जे चित्र कहाडेनुं होय ते स्थापनाराग कहेवाय. इव्यरागना बे प्रकार बे :- एक कर्म व्यराग, बीजो नोकर्मइव्यराग, एमांना कर्म व्यरागना चार प्रकार बे:- एक योग बीजो बड्यमान, त्रीजो ब-5, खने चोथो उदीरणाप्राप्त. जे मोहनीयकर्मना पुजलबंध परिणामने अभिमुख थया होय ते योगकर्म व्यराग कहेबाय. जे मोहनीयकर्मना पुजलबंध क्रियाना परिणामने पाम्या होय ते बधमान कर्मव्यराग कहेवाय. जे मोहनीयकर्मना पुल बंध परिणामनी निष्ठाने पाम्या होय तेबद्धकर्म इव्यराग कहेवाय. खने जे मोहनीय कर्मना पुल उदयने पाम्या होय ते उदीरणाप्राप्त कर्म व्यराग कहेवावे. तेम नोकर्म व्यरागना बे प्रकार बे:- एक विश्वसा, बीजो प्रयोग. जे संध्याराग प्र सुख देखायचे ते विश्वसानो कर्म इव्यराग कहेवाय; घने जे वस्त्रादिकने विषे कु सुंनादिक राग देखायने ते प्रयोगनो कर्मव्यराग कहेवाय. खने जावरागना पण बे प्रकार बे: - एक उदयप्राप्त, बीजो परिणाम. मोहनीयकर्मनो उदय थाय ते उदयप्राप्त नावराग कहेवाय अने मोहनीयकर्म परिणामने पामे ते परिणामावराग कहेवायले. जेनुं द्वेष एवं नाम होय ते नामद्वेष कहेवाय देवाननुं जे चित्र कहा मेलुं Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अध्यात्ममतपरीक्षा. होय ते स्थापनाद्वेष कहेवाय. इव्यदेषना बे प्रकार:- एक कर्मव्य देष : बीजो नोकर्मव्यदेष. एमांना कर्मव्यदेषना चार प्रकार बे:- एक योग, बीजो बधमान, त्रीजो ब-5 घने चोथो उदीरणाप्राप्त. जे मोहनीयकर्मना पुजल बंध परिणामने श्रभिमुख थया होय ते योगकर्मव्य द्वेष कहेवाय; जे मोहनीय कर्म ना पुल बंधकियाना परिणामने पाम्या होय ते बध्यमानकर्मव्यदेष कहेवा य; जे मोहनीयकर्मना पुल बंधपरिणामनी निष्टाने पाम्या होय ते बदकर्म इव्य देषक वाय; ने जे मोहनीयकर्मना पुल उदयने पाम्या होय ते नदीर लाप्राप्तकर्मव्यद्वेष कहेवायले. तेम नोकर्मव्य देषना वे प्रकार बे :- एक वि श्रसा, बीजो प्रयोग. जे संध्याराग प्रमुख देखाय बे, ते विश्रसानोकर्मइव्यदेष कवाय; तथा जे वस्त्रादिकनेविषे कुसुंनादिक राग देखायचे ते प्रयोगनो कर्म इव्य देष कहेवाय बे. अने नावद्वेषना पण बे प्रकार बे:- एक उदयप्राप्त, बीजो परिणाम. मोहनीयकर्मनो जे उदय थाय ते उदयप्राप्तभाव द्वेष कहेवाय; श्रने मोहनीय कर्मपरिणामने पामे ते परिणामनाव द्वेष कहेवायले. वे नयेक रागदेषनुं विवरण करे :- संग्रह नयनी रीतिए क्रोध तथा मान ए बन्ने प्रीतिनो परिणाम होवाथी द्वेष कहेवाय; खने माया तथा लोन ए बन्ने प्रीतिनो परिणाम होवाथी राग कहेवायडे. व्यवहारनयनी रीतिए मायानी योजना परना उपघातने अर्थे थायले माटे त्रीजी माया पण देषज कहेवाय. अने न्यायोपात्त इव्यप्रमुखनेविषे जे लोन थायले ते राग कहेवाय. परंतु अन्यायोपार्जित इव्यादिकने विषे जे लोन थायले ते राग कहेवाय नही म के, एथी कषायादिकनी उत्पत्ति थायले. ऋजुसूत्रनयनी रीतिए क्रोध प्रीतिनोज परिणाम होवाथी एकांत द्वेष कहेवायडे. बाकीना त्रण जे मान, माया ने लोन ते एकांत द्वेष कहेवाय नही किंतु अनेकांत कहेवाय ; केम के, मान ज्यारे स्वोत्कर्ष परिणामरूप होय ने त्यारे राग कहेवायले, ने ज्यारे परनिंदापरिणामरूप होयळे त्यारे द्वेष कहेवायले. तेमज माया तथा लोन पण ज्यारे पूर्व परिणामरूप होय ते त्यारे राग कहेवाय बे; धने ज्यारे परोह परिणामरूप होय त्यारे द्वेष कहेवायले. धने शब्दनयनी रीतिए क्रोध तथा लोन ए बे कषायरूप होवाथी एमांना मान तथा माया प्रीतिना परिणा मरूपे थईने ज्यारे क्रोधमां प्रावीने मली जाय त्यारे ते देष कहेवायवे ; ने प्रीति ना परिणामरूपे थईने ज्यारे लोनमां खावी मली जाय त्यारे राग कहेवायले. ॥ २१ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. न्य परदबंमि पवित्ती, ण मोहजाणिया व मोहजाणावा ॥ जोगकयादु पवित्ती, फलकंखा रागदोसकया ॥ २२ ॥ व्या:- परव्यनेविषे जे प्रवृत्ति थाय ने तेनु निश्चयथी मोह कारण नथी. केमके, प्रवृत्ति तो मन वचन तथा काय योगथी थायडे, अने फलनी हा राग षथी थायजे. माटे फलनी नाविना यतिजो धर्मोपकरण धारण करे तो तेथी अयोग्य गुं थयुं कहेवाय ? केमके, फलनी श्वाविना राग तथा द्वेष थता नथी.॥२॥ वबाणेवगंथो, मुगीण मुबं विणेव गदणा ॥ तह देहपालणा, जह आहाला तुह विछो ॥२३॥ __ व्या:- यतिने वस्त्रादिकनो ग्रंथ थतो नथी. केमके, मात्र शरीरनी रक्षा कर वासारु ग्रहण करेले. तेमां मूळ रंचमात्र पण होती नथी. जेम शरीरनी रहाने अर्थ यति निरवद्य आहारनुं ग्रहण करेले पण तेमां मूळ होती नथी. तेम धर्मों पकरणोविषे पण जागी लेवु. ॥ २३॥ जह देहपालणा, जुत्तादारो विराहगो ण मुणी॥ जह जुत्तवनपत्ता, विराहगो व णिदिघो॥२४॥ व्या:- जेम शरीरनु पालन करवाने अर्थे निरवद्य आहार लेतां यतिने विरा धक कह्यो नथी. तेम निरवद्य वस्त्र पात्र राख्याथी पणविराधक न कहेवाय किंतु आराधकज कहेवाय. कोई एम कहे के, शुक्षोपयोग जे जे ते प्रदीप जेवो , बने नोजन तथा शरीर संचलन जे जे ते तेलपूरण तथा वाटसंचार जेवो बे. एतो योग्य ले पण सुपधि अयोग्य ले. एबुं अमरचंद बोल असमीचीन ले. केमके, धर्मोपकरण धारण करवां ते प्रदीपने निर्वातस्थले राखवा जेवां बे. माटे योग्य. अणसण सहावजोगा, जद असणं असणं तिजुत्त मिणं ॥ जुत्तं तद वनाई, सहावन तप्परिणयस्स ॥२५॥ व्या:- जेम सर्व नोजननी तृमाथकी रहित बतां अंतरंग आत्मस्वनावनी नावना करतां तेना नपटनने अर्थ आहारनुं जे ग्रहण करई ते परमार्थ अनाहार ज कहेवाय. यतः “जस्त असणमप्पा, तंपि तो तप्प डिगसमणा; अण निरकमणे सण, मधतेसमणाणाहारा.” इति प्रवचनसारे. तेमज सकल परि - - Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अध्यात्ममतपरीक्षा. ग्रहरहित बतां श्रात्मस्वनावनी नावना करतां तेना उपष्टंजने अर्थे वस्त्रादिक रा खतां पण परमार्थे वस्त्रादिकरहित कहेवाय. ते युक्तज बे. ॥ २५ ॥ एवंच सचेलाएं, कदन सत्तं नवे अचेलतं ॥ इच पतस्स तुर्द, को घररको वान् ॥ २६ ॥ व्या० :- एवीरीते सूत्रमां कहेतुं जे सचेल यतिने प्रचेलपणुं ते केम संनवे; एम कहेतां तमने पोतानुं संनालतां कठण थई पडशे. केमके, तमारा शास्त्रमा जयतीने आहार करतां अनाहारी कह्यावे. त्यारे मूर्खारहित सचेलने पण चे ल कहेतां चुं घटित थाय ! ॥ २६ ॥ जड़ चेल जोगमेत्ता, ण जिया चेलय परीसदो सा दू ॥ झुंजतो प्रजिअ खुदा, परीसदो तो तुमंपत्तो ॥ २७ ॥ व्या० :- जो एम कहेशो के वस्त्र वापस्याथी अचेल परीसह जीताय नही. त्या रे याहार कस्वाथी कुधापरीसह केम जीताय ! जो एम कहेशो के, तीव्र कुधा ला tara अनेषणी आहार लेवो नही. किंतु जो शुद्ध याहार मजे तोज प्रात्माने उपग्रह करवो. एवीरीते कुधापरीसह जीतायडे. तेमज शीतादिक वडे घणी वेदना थती होय तोपल यतिए सदोष वस्त्र जेतुं नही; किंतु निर्दोष वस्त्र मले तोज श्रात्माने उपग्रह कर, एवीरीते अचेलपरीसह पण जीतायडे. एम निश्वयथी अलपणुं जाणवुं ॥ २७ ॥ उ० व्यवहारथी अचेलपणुं दर्शावे बे:-- जद जलमवगाढंतो, नाई चेलरदिन सचेलोवि ॥ तदवचोजु कुचिय, चेलावि प्रचेलया साहू ॥ २८ ॥ व्या० :- जेम कोई माणस पोतीनं पहेरीने तलावप्रमुखना पाणीमां स्नान क रवासारु पेशे ते पोतिनं बतां लोकमां नम्र कहेवाय. तेम यति जीर्णवस्त्रने धार एग करे ते चेलज कहेवाय. ॥ २८ ॥ नवयारेण चेला, सेसयुपी सबदा जिणंदाय ॥ संधान देव दूसं, चवइ तन चेव आरश ॥ २० ॥ व्या०: तीर्थकर विना बीजा यति उपचारे अचेला कहेवाय. केमके, तेज व aari पण वस्त्र गोबे. जेम कोटी धनवान बतां तेनो अभिमान न होय Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. २०७ तो ते निर्धन जेवोज होय . एम सचेल साधुविषे पण जाणी लेवु. सर्वथा थ चेल तो ज्यारे स्कंध ऊपरथी देवकुष्य वस्त्र पडे त्यारे तीर्थकर कहेवाय. ॥३॥ एएण जइ अचेला, जिणंद जिणकप्पिाश्या सुम पीता एसोच्चिय मग्गो, णमोत्ति पराकयं वयणं॥३०॥ व्या:- एणेकरी, जिनतीर्थकर तथा जिनकल्पिप्रमुख अचेला, तेथी एज मार्ग उत्तम ; अने स्थिविरकल्पनो मार्ग उत्तम नथी : एम कहेनारानुं निराकरण कयुं. कारणके, जे जिनकल्पीछे ते पण एकांते अचेला नथी. केमके, जे जिनकल्पीने पात्रनी लब्धि होय, हाथ बिरहित श्रया होय; किंतु वस्त्रनी लब्धि न होय ते ओमांना कोइएकने रजोहरण, मुहपति, तथा एक कल्पक ए त्रण नपधि होय ने ; कोइकने रजोहरण, मुहपति, तथा बे कल्पक मत्ती चार उपधि होय : को इकने रजोहरण, मुहपति, तथा त्रण कल्पक मनी पांच उपधि होय; जेने व स्त्रनी लब्धि होय, किंतु पात्रनी लब्धि न होय तेने सप्तविध पात्रनिर्योग, रजोह रण, तथा मुहपती मली नव उपधि होय ; जेने बन्ने लब्धिमांनी एके लब्धि न होय तेश्रोमांना कोकने सात पात्रा, रजोहरण, मुहपती तथा एक कल्पक मली दश उपधि होयडे; कोकने सात पात्रा, रजोहरण, मुहपति तथा बे कल्प क मली अग्यार उपधि होयडे, अने कोश्कने सात पात्रा, रजोहरण, मुहपति, तथा त्रण कल्पक मली बार नपधि होय. अर्थात पोतानी शक्तिने अनुसारे उप धि होय. अने जेने बन्ने लब्धीयो होय तेने पण रजोहरण तथा मुहपति ए बे उपधि तो निश्चयथी होय. एवो नियम. ॥ ३० ॥ जिएकम्मेव य कम्मं, जश् काय त तुहं श्दयं ॥ ग्वएस सिस्स दिका, गुरुवयणाईदि किं कज्जं ॥३१॥ व्या:- जो तमे कहेशो के, जे कार्य जिनेश्वरे नथी कत्युं ते अमारे पण क र नथी ! त्यारे धर्मोपदेश, शिष्य, दीदा, तथा गुरुवचनादिकनुं तमारे मु उप योग जे ! जेम नगवंते ज्ञान उपना पनी धर्मोपदेश दीधो , किंतु केवलज्ञाननी पूर्वे कोईने उपदेश कस्यो नथी; तेम तमारे पण केवसझान उत्पन्न थाय त्यारेज उपदेश करवो जोये. तेनी पूर्व कांई पण धर्मोपदेश प्रमुख करवू जोईये नही वारु !!! ॥३१॥ पिरतिसयाणं कप्पो, थेरापदिन अि तव ॥ पमिवज्जन जिणकप्पं, पंचदि तुलणाइ जुत्तो तो॥ ३२॥ .. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១៥ថ្មី अध्यात्ममतपरीक्षा. - - व्या:- जे साधु लब्धिरहित होय, तेने स्थिविरकल्प मार्गज हितकारी जे. ते समये जिनकल्प त्याग करवा योग्य वे. ज्यारे आत्मज्ञान थाय त्यारे जिनकल्प आदरवो. परंतु असमर्थ बतां उत्कृष्ट मार्गनो जे अादर करवो ते केवल भार्तध्याननो हेतु थायले. यतः 'अकालौ त्सुक्यस्य तत्वतःआर्तध्यानरूपत्वात धर्मविदो" ॥३॥ वेज्जुवदिई सह, मिव जिणकहियं हिअंत मग्गं ॥ सेवं तो दोश् सुही, इहरा विवरीअफलनागी ॥ ३३ ॥ व्या:- माटे नगवंते कहेला मार्गने जे नजे ते सुखी थाय; अने जगवंते जे म कयुं तेम जे करवा मांझे ते विपरीत फलने लायक थाय. जेम रोगी वैदे कहेली औषधी जो सेवे, तो रोगरहित थाय पण वैदना कस्या प्रमाणे न करे तो अपथ्य सेवन करतो बतां जेम अकाले नाश पामे. तेम ए पण जाणी लेवु.॥३३॥ अणगृहितो सत्तिं, मुंजतोवि जद पो चयऽ मग्गं॥ अगहिंतो सत्तिं, तह नवगरणं धरंतोवि ॥ ३४ ॥ व्या:- सकल आत्मशक्तिने फोरवनारो यति संयमादिकने अर्थे, जेम आहा र करतो बतां जिनमार्गनो त्याग करतो नथी : तेम स्वाध्यायादिकने अर्थेपण ते यतिए धर्मोपकरणनो त्याग करवो नही. यत : “तिहिं नाणेहिं वत्थंधरेजा, तं जहा, हरिवत्तियं, उगंबवत्तियं परीसहवत्तिअं" इति. लजा अथवा गंडा मटा डवाने तथा संयमने अर्थ वस्त्र धारण करवां जोये. जो वस्त्र न होय ने नग्न होय तो लजाथाय, अने संयम पले नही; जो वस्त्र न होयतो लोक निंदा करे के, ए धर्म सारो नथी केमके जेमां साधु नघाडा फरेने. ते टालवाने अर्थे वस्त्र धारण करवा : जो वस्त्र न होय तो टाढ तथा तापप्रमुख लागे तेथी चारित्रनंगरूप आर्तध्यान उत्पन्न थाय ते मटाडवाने अर्थे वस्त्र धा रण करवां. एम कारणीक वस्त्र होवाथी अमे साहसवंत बतां केम धारण करिये : एम जो कहेशो तो थाहार पण कारणीक कह्यु बतां तेपण तमारे क रवो न जोये. यतः "बहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे थाहार माहारे मागे कम तं वेयण वेयावचे इरियहाए असंयमहए तह पाण पत्तियाए बहं पुण धम्मचिं ताए” इत्यादि कारणने लीधे यति थाहार करे तेथी आझार्नु अतिक्रमण थाय नही. तेना कारण आले:- कुधानी वेदनाने मटाडवाने अर्थे, वेयावच करवाने अर्थे ईशिोधवाने अर्थे, संयम पालवाने अर्थे प्राणधारवाने अर्थे, तथा स्वाध्या Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. नए यप्रमुख धर्मचिंताने अर्थे साधु थाहार करे . पण बल तथा रूपादिकने अर्थे करतो नथी. तेमज वस्त्र पण कारणने लीधे धारण करे ने तेनो त्याग करवानुं का रण गं! आहार लेवो अने वस्त्र मूकवा ! एम करवाने तमारो गुं अनिप्राय | ते जाणतु नथी॥३॥ अविजिय हिरिकुलाणं जइ नूणं संजमेण अदिगारो॥ ताकद अजिय गंग तलाणं तब अदिगारो ॥ ३५ ॥ व्या:- जो एम कहेशो के जेणे लाज तथा गंडा प्रमुख जीत्यां न होय ते ने चारित्रनो अधिकार नथी. त्यारे जेणे कुधा तथा तृषा जीत्यां न होय तेने चा रित्रनो अधिकार केम कहेवाय? ज्यारे कुधा तथा तृषा मूलगुणनां घातक न त्यारे सहा तथा गंडा पण मूल गुणघातक केम कहेवाय ? माटे यहीं तमारे अनिनिवेशविना बीजू काई कारण दीठामा आवतुं नथी॥३५॥ अह दिरि कुबा हिसया हिरि कुब सहाव नावणो णोचेत् ॥ एदा बुदादि ताकद तय नाव सहाव संबुद्धी॥ ३६॥ व्या०:- जो कहेशो के, यतिने लड़ा तथा उगंठा होय तो तेथी विपरीत जे अलका तथा अगंडारूप यात्मस्वनावनी नावना ते न थाय. त्यारे कुधा तथा तृषा बतां तेथकी विपरित जे अहुधा तथा अतृषारूप यात्मस्वनावनी नावना ते यतिने केम थाय ! माटे शांत दांत प्रमुख श्रेष्ट गुणयुक्त जे यति , तेनुं मन शुक्ष होय तेनाबलथी आत्मस्वनावनावना टलती नथी. ए समाधान थाहार अने उपकरण ए बनेनेविषे लागु पडे ॥ ३६ ॥ स्सग्गववायाणं मित्तीए अहण नोअणं ॥ स्सग्गववायाणं मित्ती तदेव नवगरणं ॥ ३ ॥ व्या:- जो एम कहेशो के, उत्सर्ग तथा अपवाद ए बन्ने मानेविषे सापेक्ष ताएकरी नोजन कर, ते अयोग्य कहेवाय नही ; त्यारे सापेक्षताएकरी उपकरण धारण करवामां झुं अयोग्यता के ? ॥ ३७॥ ए पसुवगरणेणं पच्चरकापस्स दवननंगो ॥श्यकप्प पावि विदवा जोवणमिव लिप्फला एआ ॥३०॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ប៊ុម अध्यात्ममतपरीदाः व्या:- जो एम कहेशो के, उपकरण जे जे ते नावथी तो मूर्बारहित ले पण इव्यथकी परिग्रहरूप ले. तेथी पञ्चखाणनो नंग थायले. केमके इव्य, देव, काल तथा नाव ए चार प्रकारे जे पच्चरकाण ले तेमांनो प्रथम इव्यपञ्चरकाण उपकरण बतां संनवे नही. एवी जे अध्यात्मनी कल्पना ले ते विधवायौवननी पते निष्फल ले. केमके. इव्यादिक चार प्रकारे सर्व मूर्बानो जे त्याग करवो तेज | सिद्धांतोनो परमार्थ जे. एम जो न मानीए तो शरीर पण इव्यपरिग्रह , तेनो | त्याग केम थाय ! अने पञ्चरकाणना जे चार प्रकार कह्या २ ते तो सर्व नाव प शखानो विस्तार , एम जाणवु. यतः “अपरिग्गदियासुत्ते, तिजाय मुडा प रिग्गहोनिमः; सबवेसु पसा, कायवा सुत्तसप्नावो,” इति विशेषावश्यके. ॥३॥ सिवंत सिधरणं वगरणं तं मुणीण सुहकरणं ॥ अद होइ पावहरणं इय अम्दं विति आयरिया ॥३॥ व्या:- एवीरीते सिक्षांतनेविषे उपकरण धारण करवानुं कर्तुं ने, तेजयणाएकरी राख्याथी यतिने सुखकारक थाय ने, तथा पापनुं दरण करेले एम उत्तराध्ययन बृहत्तिप्रमुखनेविषे अमारा पूर्वाचार्ये कयुं , ते अवश्य मान्य कर, जोये ॥३॥ पुना दिअंबराणं केवलमपिआण वदासो॥ अम्हाणं पुण दूदर दोह्न विवदि आरवावारो॥४०॥ व्या:-थाग्रंथनेविषे दिगंबरीयोए जे प्रश्न कस्यां ने, तथा अध्यात्मीयोए जे हांसीनां वचनो कह्यांडे, ए बन्नेनो थमारे प्रतिकार करवानो अधिकार ले. एवीरीते धर्मोपकरण तथा नावअध्यात्म ए बन्नेनुं पोतपोतामां अविरोधपणुं बताव्यु.॥४०॥ उ:- अध्यात्मनी प्राप्ति केम थाय ते कहेजेः पंच समिन तिगुत्तो सुविहिय ववदार किरिथ परिक म्मो ॥ पाव परमसप्पं साढू विजिदिअप्पसरो॥४१॥ व्या:- जेपांच समिति तथात्रणगृप्तिए करि सहित होय, बालय, विहार, नाषा, तथा विनयप्रमुख विविधप्रकारे किया पालतो होय, तथा इंडियो नीति होय, ते साधुने उत्कृष्ट अध्यात्मनी प्राप्ति थाय . ॥ ४१ ॥ लुंपश् वशं किरियं जो खलु श्रादच्च नाव कदणेणं ॥ सोदण बोदिवीअं नुम्मग्गपरूवणं कानं ॥४२॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षाः शएर व्या:- कोई एम कहे के, व्यवहाररूप बाह्य क्रियाथी अर्थ सिह थाय एवो | नियम नथी; केमके, क्रिया कखाविना नरत चक्रवर्तिने काच जुवनमा अनित्य नावना नावतां केवल ज्ञान उत्पन्न थयुं बने बाह्य क्रिया करतां रौष ध्यानना योगे प्रसन्नचं धान प्रति बांधि सीधी. माटे व्यवहार क्रिया करवी नही, किंतु निश्चय क्रियानो अंगीकार करवो. एम कहेनारा उन्मार्गनी प्ररूपणा करीने पोताना बोधबीजनो नाश करेजे. माटे ते वचन मान्य करवां नही. केमके,नरता दिकनुं स्वरूप कदाचित नावमा कहेवाय. एटले एवं कदाचितज बनेने, पण नि यमथी एमज थायडे एवं कोईनाथी कहेवाय नही. अने व्यवहार पंथमां तो व्य वहार क्रियाविना निश्चय क्रिया संनवेज नही. थने ए कारण माटे एक निश्चय अंगीकार करिने क्रिया मूकी देवी नही किंतु बन्न अवश्य करवीः ॥ ५ ॥ सर्व सहावसजं णि पपरकयं च ववहारा ॥ए गते मितं जय पयमयं पण वयाणं ॥ ४३ ॥ व्या:- निश्चयनयनी रीतिए सर्व वस्तु स्वनावे उत्पन्न थायडे, विशिष्ट वस्तु परिणामने स्वनाव कहेले. ज्यारे बीजने अंकुरपणे उत्पन्न थवानो परिणाम था यजे, त्यारे बीजपर्याय टलीने अंकुरपर्याय उत्पन्न थायले. पण तेने बीजा का रणनी अपेक्षा होती नथी. यहीं कोई थाशंका करे के, जो बीजा कारणनी थ पेक्षा न होय तो कोठामा पडेला बीजनो केम घंकुररूपे परिणाम थतो नथी? एनो जवाबः- कोठामा पडेला बीजने अंकुररूप परिणाम थवानां बीजां कारणो जोयेडे, माटे व्यवहारनय पण अंगीकार करवो जोये . तेने सामग्री कहेने, ते सामग्री मब्याविना बीजनो अंकुररूपे परिणाम थाय नही. किंतु सामग्रीना योगे ते परिणाम थाय . कोई आशंका करे के जो सामग्रीथील कार्यनी उत्प त्ति थती होय तो तेने परिणाम एवं नाम राखवानुं कारण गुं? किंतु सामग्रीय की कार्यनी उत्पत्ति थायडे, एवो अंगीकार करवो जोश्ये. एनो जवाब के, सामग्रीथी कार्यनी उत्पत्ति थायजे एम मानिये तो व्यवहारनय सिम थाय पण निश्चयनय उमी जाय. तेथी एकांतपणुं थाय ते मिथ्यात्व कहेवाय. माटे बन्ने नयनुं मत प्रमाणनूत मानवं, जो एकलो निश्चय नय अंगीकार करिये ने व्यव हारनय अंगीकार नही करिये तो सामग्री थकी परिणाम विशेषनी उत्पत्ति मना य नही, अने एकज वस्तु कारण तथा अकारण ए बन्ने नावे कहेवाशे. त्यारे READ - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएश अध्यात्ममतपरीक्षा. अकारण वस्तुथी. परिणामरूप कार्यनी उत्पत्तिनो संभव केम थशे. कार्यनी उत्प ति तो कारणथी थायले पण अकारणथी थाय नही, इत्यादिक सूक्ष्म विचार कस्या थी बन्ने पद अंगीकार करवा योग्य जे एवं सहज जणाई श्रावशे. ॥ ३ ॥ अनंतर बसाणं बलिज्जाबलितणंति जश् बुद्धि॥नणु कयरं अब लत्तं वेचित्तंवा विवेसम्मं ॥४४॥ णिप्पत्तीव फल अणिचय जोगो फलेण वा सिद्धं ॥ पढमे समसावग्गी बि ति ए वावार वे सम्मं ॥ ४५ ॥ तति ए दोण विसमया सनद परको पुणो असि घोत्ति ॥ तेण समावेरकाणं दोम विसमयत्ति वबुईि॥ ४६॥ व्या:- कोई कहे के, कर्मरूप अंतरंग हेतु जे जे ते बलवान ले. अने उद्यमा दिरूप बाह्यहेतु जे डे, तेनिर्बल जे. एम कहेनारा नयवादीने एम पूQ के, कर्म रूप अंतरंग हेतु केवी रीते बलवान डे ? जो कहेशो के एक जातनो उद्यम करनारा पुरुषोने कर्मनी विचित्रताने लीधे सुखःखनी अधिक न्यूनता दीशेले, तेथी कर्मरूप अंतर हेतु- बल सिप थायले. तो ते कर्म शाथी थया ले ? एनो विचार कयाथी पूर्व नवना उद्यमथीथयांजेएम नरशे. एथी उद्यमनी विचित्रताने लीधेजकर्मनीविचित्रता ॥४॥जो कहेशो के, सुखना कारण बतां पण अशातावेदनीयकर्मना उदये जीव ने छुःख ऊपजे, ए कर्म, बलवंतपणु जाणवू; अहीं दृष्टांत ए के, जेम कोइक मनुष्य ने दूधना पानथीपण उःख थायले. ए वचनपण समर्थ नथी वहीं पण नवांतरना उद्यमनी अपेदा डे, केमके, उग्धपानादिके करी पण पित्तादिकना योगे तिक्तरसादिक नु उद्योधन थयाथी कुःख ऊपजे. ॥४५॥ जो कहेशो के, कर्म पोताना नोगने अर्थ बाह्य कारणने लिये,ते बल ले. तो जन्मांतरनोउद्यम जन्मांतरना फलनोगने अर्थे, अंतराले कारण कर्मादिक कारण उत्पन्न करेले एम पण कहेवाई शकायचे. जोक हेशो के, कचित् बाह्यकारणविना कार्यनी उत्पत्ति थायजे; पण अंतरंगकारणविना कोई कार्यनी उत्पत्ति थायज नही; ए बलजाणतो एम पण संनवे नही; केमके, सादात् अथवा बाह्यकारणथीज कार्यनी उत्पत्ति थायडे, ते विना कार्य थायज नही. किंबहुना कालादिक बाह्य कारणविना कोई कार्यनी उत्पत्तिज थती नथी. माटे परमार्थताए बाह्य तथा अंतरंग ए बन्नेकारण सरखांज . ए वस्तुस्थिति कहेतां बे नयने अनुरोधे प्रमाणमार्ग . ॥ ४६॥ . अ० निश्चयनयनुं मत कहे : - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. यि सकचिय संवं णो परकयं दवइ वनुं ॥ परिणामा बंऊत्ता यबंऊं दाण दरलाई || ४७ ॥ व्या० :- निश्वयनयची सर्व वस्तु श्रात्मपरिणामथी उत्पन्न यायले; परंतु पर श्री परवस्तुनी उत्पत्ति यती नथी. केवल पुष्य पापकर्मना विपाकने अवसरे पाशे चावेला जे अंगना सर्पादिक बाह्य अर्थ ते निमित्त मात्र बे तेने व्यवहार बद्ध मूढ जीव कारण करी माने बे. व्यवहारवादी कहेले के, ज्यारे परकारणत्व नथी, त्यारे साधुने दान दीधाथी गुनफल ने परश्व्यनुं हरण कस्याथी गुन फल केम थायले ? निश्वयवादी समाधान करे बे के निर्दोष याहार साधुने देतां ते देनराना जे शुभ परिणाम होयले, तेथी गुनफल थायले, परंतु यन्नादिक पुजलरू प होवाथी, तेथी फल यतुं नथी. केमके, पुजल इव्यथकी पुजल परिणाम थाय बे; परंतु श्रात्मपरिणाम नथी यतो: तेमज परव्यनुं हरण करवायी जे शुन फल थाले, ते पण आत्माना असुन परिणामे करी थाय बे, परंतु इव्यरूप पु जल थकी नथी यतुं ॥ ४७ ॥ अ० :- निश्चय थकी दान पण श्रात्मपरिणामरूपले, पुजल परिणामरूप नथी एम कहे : दितो वहरंतो वा राय किंचि परस्स देइ अवदरई ॥ देश सुदं परिणामं दरइ वत्तं अप्पणीचेव ॥ ४८ ॥ व्या०:- निश्वयथकी तो साधुने निर्दोष याहार देतां तथा परव्यनुं हरण क रतां ते दान देनार तथा इव्य हरण करनारने विषे कांई देवुं, तथा जेवुं बन्युज नथी. कोई कोईने दान देतो नथी, तथा कोई कोईनुं इव्य हरण करतो नथी. साधु ाहारादिकनुं दान देतां देनारो पोते पोतानेज परानुग्रह बुद्धिरूप गुप रिणाम दिये; तथा परनुं इव्य हरण करतां ते हरण करनारो जीव घात बु दिए करी पोतेज पोताना शुन परिणामनुं हरण करे. परंतु परने विषे कांई दे बुं जेवुं संनवे नही. ॥ ४८ ॥ य धम्माव सुदं वा परस्स देयं गया विहरणिजं ॥ कयणासा कयोग, प्पमुदा दोसा फुमाइ हरा ॥ ४९ ॥ व्याo :- जो परात्मा परने देतो होय तो पोतानो धर्म तथा पोतानुं सुख बीजाने देवाई शकाय बे; घने जो परनो खात्मा परनुं हरण करतो होय तो १३ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शपथ अध्यालमतपरीदा. बोजानो धर्म तथा बीजानुं सुख पोते लेवाई शकायचे. ए बन्ने पक्षमा कृतनाश भने अरुतागम दोष प्राप्त थायडे: केमके, जो पोतानो धर्म तथा पोतानुं सुख बीजाने देवाई शकातुं होय तो पोते करेला कतनो नाश थई गयो कहेवाय, य ने लेनारने अरुतनो बागम थयो कहेवाय. केमके, तेने नकरेलो धर्म तथा ते नुं फल जे सुख, तेनी प्राप्ति थायने, तथा करेलो अधर्म तथा तेहना फलनो नाश थायजे, ते कृतनाश कहेवाय जे. तेमज बीजानो धर्म तथा बीजानुं मुंख पोताथ की आवाई शकातुं होय तो तेणे करेला कतनो नाश थई गयो कहेवाय, यने पोताने अस्तनो आगम थयो कहेवाय; केमके, पोताने नही करेलो धर्म तथा तेना फ लनी प्राप्ति थायजे, तथा करेलो अधर्म तथा तेना फलनो नाश थायडे, ते कृत नाश कहेवाय . ॥ ४ ॥ नत्ता पोग्गलाणवि पं दाण हरणा होइ जीवस्स ॥ जश्तं संचिय दुजा तो दिजा वा अवदरिना ॥ ५० ॥ व्या:-नक्तप्रमुख पुजलनुं देवु तथा जेतुं जीवनेविषे थाय नही, केमके, जे वस्तु पोतानी होय तेनुं देवं तथा ले थायने : परनी वस्तुनुं लेवू देवू थतुं न थी, ने परवस्तुनुं लेवं देवं तो प्रत्यद करिये बैये ते केम बने ? ज्यारे पुजल इव्य थापणुं नथी त्यारे लेवू देवू केम कराय ? ॥ ५० ॥ जोगवसेणुवपीआ इवाणिधा य पोग्गला जेद ॥ अरमाणे जीवा जीवो अग्लो अदितो ॥ १ ॥ व्या:- नामकर्मना परिणाम जे मन वचन तथा कायना योग जे; तेना व शे पुजलनुं ग्रहण थाय: जेम के, सुगंध तथा उर्गधनुं ग्रहण करतां काय यो गना वशेकरी पुजलनुं ग्रहण थाय: तेथात्मतत्वना ज्ञानयकी जीवने रागदेषना कारण थाय; पण ते आत्माथकी अन्य जे. अने थात्मा तेथकी अन्य दे. केम के, पुजल ग्रहण गुण जे; अने थात्मा उपयोग गुण बे. ॥ ५१ ॥ तम्हास परिविनागो पोग्गलदबंमि पनि णिबय॥ नोगानोगविसेसो ववदाराचेव सपसस्तं ॥५॥ व्या:-- माटे निश्चयनयथको एटलो विशेष ले के, जे आपणने जोग यावेने, तेमांनु न्यायोपार्जित वित्त दोय ते थापणुं; ने जे परने नोगावे ते परतुं जाणवू.॥५५ - Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. श पुलपयडीण नदये नोगो नोगांतराय विलएणं ॥ ज इणिअचित्तचित्र, तो नोगो किण किं विणाणं॥५३॥ व्या:-- सातावेदनीयप्रमुख पुण्यप्रकृतीना उदयथी नोगांतरायकर्मनो विल य थया पली पण जो जीवने नोग थता होय तो कपणने पण नोगनी प्राप्ति थ वी जोश्ये, तेम तो नथी थतुं ; केमके, कपणने पण लानांतरायकर्मना श्योप शमयकी इव्यनी प्राप्ति तो थायने, परंतु नोगांतराय कर्मना वशथी जोगवी शकतो नथी. माटे जे आपणने नोगवायोग्य होय ते स्वव्य कहेवाय, ने बीजं बधुं पर व्य जे एम जाणवू. एवी रीते व्यवहार नयना मते पण एकांत नथी; माटे ए सर्व पुजल इव्यने परकरी जाणवू जोश्ये.॥ ५३॥ यथा सर्व पुजल इव्य परकीय जे एम जे जाणे नही तेने श्रात्मस्वनावनी प्राप्ति न थाय. ते कहे . जो परदवंमि पुणो करे मूढो ममत्त संकप्पो ॥ सो कदाय सहायं गिन्चो विसएसु नवलदई ॥५४॥ व्या:-- व्यवहारमूढ जीव परश्व्यनी उपर ममत्वसंकल्प करेले, ते विषय लोलुप थयो थको आत्मस्वनावने पामतो नथी. केमके, शरीरादिकनेविषे 'ढुं मा तेलो भु, दूबलो हुँ, ढुं गोरो बुं तथा हुँ कालो बुं' इत्यादिक अहंकार जीवने उत्पन्न थायले; तथा 'मारुं शरीर, मारुं कुटुंब; इत्यादिक ममकार उत्पन्न थायडे; तेथी विषयोनेविषे दृढप्रवृत्ति थायजे, अने विषयना अभ्यासे तेयोनेविषे दृढ नाव थायडे, एवी परंपराए करीथज्ञाननी वृद्धि थई गयाथीथात्मज्ञान केम थाय!॥५४॥ पाहं दोमि परेसिं ण मे परे पनि मशमिहकिंची॥ श्य अप्पनावणाए राग होसा विलऊंति ॥ ५५॥ ध्या:-हुँ बीजा कोईनो संबंधी नमी, तेम मारो कोई बीजो संबंधी नथी, था जगतनेविषे मारुं काई नथी, केमके, परव्य, अस्तित्व निन्न ले; अने मारा था त्मव्यतुं अस्तित्व निन्न , शरीर कुटुंबादिक कर्मना योगे संयोग लक्षण नावडे; तेमा मारुं काई लागतुं वलगतुं नथी, केमके, तेयोनो वियोग पण थायडे, जेनो कोई काले संयोग तथा कोई काले वियोग थतो होय ते पोतानुं इव्य कहेवाय नहीं जेनो कोई काले वियोग थाय नही ते पोतानुं इव्य कहेवाय बे, एवो तो आत्मस्त्र Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. नाव , जेनो आत्माथी वियोग थतो नथी; जेम ज्ञान दर्शननादिक वनावोनुं कोई कालें आत्माथी वियोग थतो नथी. एवी रीते शास्त्रोक्तमर्यादाए करी था त्मनावना कस्वाथी राग देषनो नाश थाय . ॥ ५५ ॥ . तो परिणामानच्चिय बंधो मोको व पिछयणयस्स ॥ ऐगितिया अणचं तिया पुणो बाहिरो जोगो ॥ ५६ ॥ . व्या:-माटे जीवने बंध अथवामोद निश्चयनयथी आत्मपरिणामथीज थाय २. अज्ञानरूप परिणामथकी बंध थायजे, अने यात्मज्ञानरूप परिणामथी मोद थायजे. जेम हिमथकी थएनी जे शीतनी वेदना ते अग्निना तापथकी निवृत्त थाय , तेम आत्माना अज्ञानथकी थएलो जे कर्मबंध, ते आत्मज्ञानथकी निवृत्त था यजे. केमके, एम सिद्धांतोमां पण कयुं के, तपथकी कुश्चीर्ण कर्मनो क्य थायडे ते पण ज्ञानना संयोगथीज फल थायजे. केमके, अज्ञानी कोमाकोडी वर्षेकरी जे कर्मनो क्ष्य करे, ते कर्मनो क्ष्य ज्ञानी एक उच्वासमां करेले. बाह्य योग प्राणाति पातादिक, तथा क्रियानुष्ठानादिक एकांतिक नथी, तेम आत्यंतिक पण नथी. के मके, बाह्य हिंसाविना मनना क्लिष्ट परिणामे करी, तालमन्च, सातमी नरक पृथ्वी नेविषे उत्पन्न थायजे. अने अप्रमत्त यतिने जयणाए चालतां अनानोगे जीवधा तथी पण ते प्रत्ययिक कर्मनो बंध थतो नथी. तथाविध क्रियानुष्टानविना पण केवल ज्ञान उत्पन्न थाय ने. ने अनव्य जीव यतीने लिंगे उत्कृष्ट बाह्य क्रिया पा ले ले तेना बले ते नवमां ग्रैवेयकसुधी जायजे, तो पण शुद्ध परिणामविना संसारनो पार पामता नथी ॥५६॥ सिद्धी बियच्चिय दोहं संजोग अवेयत्तं ॥क व कर्बई दोहवि नवगो तुल्लवंचेव ॥५॥ व्या:- संसारपार गमन सिलदण निश्चय क्रियाथीज थायः एमां पण श्रा टली विशेषता ने के, पणाने व्यवहारथकीज निश्चय आवेडे. अने कोश्क नरतादि कने पूर्व चारित्रान्यासेकरी तथा नष्यत्वना परिपाकेकरी सहजे पण थायले. क पणुं कहेतां योग्यपणुं ते निश्चय तथा व्यवहार ए बन्नेना संयोग थकीज थायडे. एविषे सिमांतमां चार नांगा कह्या जे. पहेलो जे रू' सारूं नही ने बाप पण सा रीनही, तेनी पते ए नांगो चरकपरिव्राजकप्रमुखनेविषे ले. केमके, ते रूपाना Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. श् जेवो शुद्ध परिणाम नथी, तथा बापना जेवो वेष पण नथी. माटे तेयोना अर्थ सती थी, ने ते वंदन करवायोग्य पण नथी. बीजो रूपुं खोष्टुं, होय ने बाप खरी होय ए नांगो, पासत्या, उसन्ना, प्रमुखनेविषे थाय बे; प्रमुख श देकर दिगंबरादिक पण सेवा. केमके, तेखोने रूपाना जेवो शुद्ध परिणाम नथी मात्र बापन पठे वेष तेवो बे. पण परिणामविना तेयोना प्रर्थनी सिद्धि यती नथी. वेष व माटे जहांसूधी दोष जाण्या न होय तहांसूधी वंदना करवायोग्यबे, परं तु दोष जाया पढी जो वंदना करिये तो माहा दोष लागे. यतः “जह वेलं बगलिं गं, जाणं तस्स एमनं धुवं दोसो; हिंदसत्तिणाऊ, ण वंदमाणे धुवंदोसो ” इत्या वश्यके. एनो अर्थ :- जेम कोइ जांडे यतिनो वेष लीधो होय तेने जाणीने वंदन क - रतां निश्वयेकरी दोष लागेले. तिम निर्दे इस जाणी वेष मात्र जोइने वंदना करतां ध्रुव दोष लागे. त्रीजो रूपुं चोखुं होय पण बाप खरी न होय ए नांगो प्रत्येक बुधने लागु थायले. केमके, तेस्रो अन्यलिंगे पण होय तथापि तेखोने रूपानी पठे नावचारि तो बे, तेथी पोताना खात्मानो अर्थ तो सिद्ध करेबे, परंतु साधुना पय्य विना वंदन करवा योग्य नथी. चोथो जांगो रूपुं पण चोखुं तथा बाप पण चोखी होय तेनी पठे सर्व शुद्ध जावं. जे महानुभाव यालय विहारादिक सर्व शुद्ध, यतिनी समाचारी पाले, ने विशुद्ध चारित्रवंत होय, एने रूपानी पठे शुद्ध परिणाम बे, तेथी श्रात्मानो अर्थ सिद्ध करेबे, तथा साधुनुं पथ्य बे, माटे वंदवा योग्य तथा पूजवायोग्य पण बे. एव एवा ठेका शुद्ध परिणामरूप निश्रय बलवंत बे. साधु वेषादिरूप उपचरिता सनुत व्यवहार ते निर्बलबे तथा कोईक ठेकाणे व्यवहार ने निश्चय ए बन्नेनो सरखो उपयोग बे. यहीं ज्ञान घने क्रियानुं उदाहरण जेवुं ज्ञाननयनी रीतिए ग्राम कह्युं a. ज्ञानविना क्रियामात्रथी फलनी सिद्धि यती नथी. केमके, मिथ्याज्ञानेकर सीपनेविषे रूपानी बुद्धि प्रवर्त्ते बे ने तेनी प्राप्ति तो यती नथी माटे मिथ्याज्ञानजन्य जे क्रिया, तेथी फलनी प्राप्ति यती नथी; किंतु सत्यज्ञानजन्य क्रियाथी फलनी प्राप्ति थायले. परंतु क्रिया तो झानेकरीनेज थायले, तेमां मिथ्याज्ञानजन्य क्रि या निष्फल थायले ने सत्य ज्ञानजन्यक्रिया सफल थायडे, एवीरीते क्रियानुं कारण ज्ञान होवाथी प्रधान बे खने ज्ञाननुं कार्य क्रिया होवाथी प्रधान बे, ते मज क्रियानयनी अपेक्षाए एम कसुंबे :- ज्ञानजन्य क्रियाए करीने संपादन क रेलुं जे फल, ते कोई कारणने लीधे कील थई जाय तो ते पाहुं क्रियाथी प्राप्त था; माटे क्रिया प्रधान बे. अने ज्ञान अप्रधान बे. जुवो के, ज्ञानवान बतां · ३८ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श अध्यात्ममतपरीक्षा. क्रिया न करे तो ते ज्ञानमात्रथकी फलनी प्राप्ति यती नथी. यहीं दृष्टांतो कहे बे :- जेम कोई पुरुषने मार्गनुं ज्ञान सारी पठे होय, पण जो चलनक्रिया न करे तो वांति नगर प्रत्ये पहोची शके नहीं; जेम कोई पुरुषने नृत्यकलानुं सारं ज्ञा न होय पण जो नृत्य निनय क्रिया न करे तो जोनारा लोकनुं मनरंजन करी शके नही; तथा तेने कांई इव्यनी प्राप्ति थाय नहीं तथा जेम कोई पुरुष तरी जातो होय एटले जलतरणज्ञानवान होय, पण जो हस्तपादचलनरूपक्रिया न क तो वितस्थले न पोहोचतां वञ्चेज बूडी मरे, एवी रीते ज्ञाननय तथा क्रियानय नो परस्पर विवाद बे; तेने एककोरे मूकीने मात्र सारांशनो विचार जो कयो होय तो परमार्थदृष्टि फलसिद्धिने विषे बन्ने समान बलवंत बे. केमके, शैलेशीयव स्थाने विषे केवलज्ञानरूप ज्ञान, तथा संवररूप क्रिया ए बन्ने योगथी मुक्ति थायले पण ए बन्नेमांनुं कोई एक न होय तो मुक्ति थाय नहीं, ए प्रमाण पक्ष बेः ॥ ५७ ॥ to निश्चयनयनी अपेक्षाए कहे : तुल्त्तमवेकाए पियमासमुदाय जोगमदि गिच ॥ किरिच्या विसस्सए पुए नापान सुए जन नणियं ॥ ८॥ जम्दा दंसण नाणं संपुन्नफलं न दिति पत्तेयं ॥ चा रित्तजुच्या दिविद विसस्सए तेण चारितं ॥ ५० ॥ व्या० :- यद्यपि कार्य करवानी अपेक्षाए ज्ञान ने किया ए बन्नेनुं सरखं ब लबे ; तथापि ज्ञान करतां क्रियाने चाटली विशेषता बे:- ज्यारे शुद्ध क्रिया हो art ष्टादिस्थानके नियमे शुद्धज्ञान होय. पण ज्यारे शुद्धज्ञान हो त्यारे शुद्धकियानो नियम नथी. केमके, चतुर्थगुणस्थानके सम्यक्तना प्रता पेकरी शुद्ध ज्ञान तो होयले, परंतु अविरति होवाने जीधे शुद्ध क्रिया होती नथी. एविषेयावश्यक निर्युक्तिमा कांबे के, जेमाटे दर्शन तथा ज्ञान ए प्रत्ये के संपूर्ण फल दई शकता नथी, पण ज्यारे चारित्रनेविषे एकता मलेबे. त्यारे संपूर्ण फल दिये. तेमाटे दर्शन तथा ज्ञान करतां चारित्र श्रेष्ठ बे ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ एवं ववदाराव बलवंतो पिच नणेयवो ॥ एग मयं ववहारो समयं च वत्ति ॥ ६० ॥ य, व्या:- एवी रीते व्यवहारथकी निश्चयतुं बल अधिक कयुं तथा प्रावीरीते पण निश्वयनी विशेषता बे:- जे एकनयनुं मत ते व्यवहार, अने सर्वनयनुं मत Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षाः श ते निश्चय कहिये, यथा नूतपदार्थनुं जे कथन ते निश्चयनय कहेवाय बे ने ए नूता ear to heard, निश्चयनयनो विषय नाव जे बे ते सर्व समान बे. यतः सवणया नावमिति " इति विशेषावश्यके ॥ ६० ॥ 66 ० एवं निश्चयनयनुंमत सांगलीने सिंहावलोकनन्यायें व्यवहारवाद । बोजे बे:प्रहिच्या जर तुह किरिच्या हिच्या नाणं वि तस्स देवत्ति ॥ कारणगुणापुरुवा कजगुणाणेव विवरीच्या ॥ ६१ ॥ व्या०:- पूर्व कहेली रीतिए ज्यारे तुं क्रियाने अधिक माने बे, त्यारे ज्ञानने पण अधिक मानतुं जोयेले. केमके, ज्ञान क्रियानुं कारण बे. कारना गुण जेवाज का ना गुण होय, तेथी विपरीत होता नथी. जेमाटे ज्ञान क्रियानुं कारण बे, तेमाटे तेन गुणे करीने क्रियाने कार्य पणानी प्रधानता दे, तेथी ज्ञान अत्यंत प्रधान बे, जो शोके, मोक्षरूप कार्य क्रियाथकी थायले. माटे क्रिया अधिक बे ; तो तेम पण नवे नही. केमके, ज्यारे क्रिया ज्ञाननुं कार्य बे. त्यारे क्रियानुं कार्य जे मोह, ते पण परंपराए ज्ञाननुंज कार्य जाणवुं यतः “ दासेा मे खरो की, दासोवि मे खरोवि मे." एटले मारा दासे खर वेचातो लीधो, ते दास पण मारो ने खर पण मारो बे; एम सिद्धांतोक्तन्यायथी जाणी जेवुं ॥ ६१ ॥ यह जद सब एयमयं वं पिचिन इगमयं च ववदारो ॥ सोसा सलादेसा विगलादेसा कहं होऊं ॥ ६२ ॥ व्या० पूर्वे का प्रमाणे निश्चयनय जे बे ते सर्व नयनुं मत बे, जो एम होय तो ते सर्व नांगानुं ग्रहण करनार सकनादेश प्रमाणरूप मानवो जोशे. त्यारे ते नयरूप विकलादेश केम मानशे ? ॥ ६२ ॥ ० एवीरीते व्यवहार तथा निश्चय ए बन्नेनय परस्पर वाद करता जोईने मध्यस्थपणे प्रमाणवादी कहेबे : मुकामुक विभागो इचामेते पचि एगंतो ॥ ज‍ तितो विना चरणं सारोति तं मुखं ॥ ६३ ॥ व्यto व्यवहार तथा निश्चय एबन्ने नयोना मुख्य तथा मुख्य ए वे विभाग पोतपो तानी इवाए थई शकेबे, कोईक गुणने लईने निश्वयनी मुख्यता कहेवाले, अने कोईक गुणने नईने व्यवहारनी मुख्यता कहेवायडे. परंतु एखीने विषे एकांतपणुं संच Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० अध्यात्ममतपरीदा. वे नही; किंतु अनेकांतपणुं संनवेजे. केम के, निश्चय तथा व्यवहारना मुख्य तथा अमुख्य विनाग स्वनाविकधर्मरूप नथी: किंतु आपेक्षिक जे. जेम श्रामलक बदरनी अपेदाए दीर्घ कहेवाय'; अने घटादिकनी अपेक्षाए म्हस्व कहेवाय. तेम ए बन्ने नयो एक बीजानी अपेक्षाए मुख्य तथा अमुख्य कहेवायडे, एम बतां पण जो व्यवहारनयवादी पोताना मतनुं मुख्यपणुं प्रकाशवानुं मामी न वाले तो तेणे वली था युक्तियेकरीने पोताना मननुं समाधान करी लेवु जोये के व्यवहारनुं जे मुख्यपणुं २ ते मात्र कहेवार्नु , अने निश्चयतुं मुख्यपणुं तो कार्यनो उपयोगी ने ; केम के, सामायक आदिदईने चौद पूर्वपर्यंत ज्ञान- सार ते चारित्र कह्यु , यतः “सामाश्यमाईचं, सुअनाणं जावं विंसारालं; तस्स वि सारो चरण, स्सारो चरणस्स निवाणं” इति आवश्यके.॥ ६३ ॥ सवणयमयत्तं पुण सवेसिं सम्मज विस ॥ णयणिव्यस्स तेणं सयल दिसत्त मेगस्स ॥ ६४ ॥ व्या: निश्चयनयने सर्वनयमय पणुं जे पूर्वे कयुं ते सर्वनय सम्मत थ र्थ माने तेमाटे कयुं एम जाण्याथी एकता निश्चयनयने सर्वनयसमूहरूप प्रमाणात्मक सकल देशपणुं पण दोषनुं करनार थशे नही. ॥ ६ ॥ जेणं सयला देसो अनेय वित्तीय णिचयाधीणो॥ तेणेव सोपमाणं ण पमाणं होइ ववहारो ॥६५॥ ___ व्या: जिहां एक धर्मनी धाराए सर्व धर्म जे सकलादेशनेविषे प्रतिपादन कराय ने , तिहां अस्तित्वादिक एक धर्मनी साथे बीजा सकल धर्मोनुं अनेदपणुं जे जाणवू ते निश्चयनयने आयत बे, एवी अपेक्षाएकरी निश्चयनयने प्रमाण कह्यो ; धने व्यवहारनयने अप्रमाण कह्योले; परंतु एकांत निश्चयनय प्रमाण कह्यो नथी. ॥६५॥ जम गुवयारोविचलं कासगंतिअंदवे तंपि॥ एग स्स मुकनावे णियमा अवरोवयारोत्ति ॥ ६६ ॥ व्याः कोई एम कहेले के निश्चयनय परमार्थयाही तेमां कोई उपचार न ही होवाथी ते बलवान, अने व्यवहार नय परमार्थयाही नथी, तेमां घणा उपचार होवाथी ते निर्बल, एपण एकांत नथी; केमके, बन्नेनय वस्तुग्राही , व्यवहारनय अंशग्राहीले, तेमां ज्यारे निश्चयनयनी मुख्यता विवदिए त्यारेनिश्च Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३०१ यनय पण नपचारसहित थायडे, शहां कोई विशेषता नथी, यतः “अर्पि तानर्पितसिहे तत्वार्थ" शब्देकरी नयनी प्रधानतानी जे विवक्षा करवी ते अर्पित | कहिये, अने नयांतरनी अपेक्षाए तेनी अप्रधानतानी जे विवदा करवी ते अन र्पित कहिये, एबन्ने प्रकारनी विवदाथी जे पदार्थनी सिदि थायने, ते तत्वार्थ सिदि कहेवाय. ॥ ६६ ॥ पिचयणयस्स विसयं नावंचिय जे पमाण मादंसु॥ तेसिं विणेव दे कऊप्पत्ती कामेरा ॥ ६ ॥ व्याः कोईक याम माने के, निश्चयनयनो विषय जे नाव ले तेज प्रमाण बे, तो ते नावनो हेतु इव्य बे, इव्य विना नावनी उत्पत्ति थाय नही जो व्यवि ना नावनी उत्पत्ति अंगीकार करीये तो मर्यादा रहे नही. अने कारणविना का र्यनी नत्पत्ति थती नथी एवो नियम के तेनो नंग थशे! जो एम कहेशो के, इव्य क्रिया संसारमा अनंतवार प्राप्त थएली, माटे ते अप्रधान ; तो नाव पण य प्रशस्त अनंतवार प्राप्त थएलो वे ते केम प्रधान कहेवाय ? जो कहेशो के, गुम नाव अपूर्व ले, तो गु६ इव्य पण अपूर्वज डे, ते शासारूं नही मानवू जोये ! ॥६॥ खाग्वसमिगनावे सुझो देऊ सुहस्स खश्अस्स ॥त नावेण कया पुण किरिआ तनावबुद्धि करी ॥ ६ ॥ व्याः छायोपशमिक नावे कीधेली जे क्रिया तेज दायोपशमिक नावनी ६ करनारी जे; माटे गुरूनावथी क्रिया अवश्य करवी योग्य : थने तेम न कस्वाथी नावनी हाणी थई जाय. ॥ ६ ॥ धि सभा सुद विविश्स विमती तत्त धम्म जोणित्ती। तल्लधम्मनावा वई नावतत्तणं तत्तो ॥ ६ए॥ एवं पवनावो कमेण गुणगणसिमिमारुदिय ॥ परकीणघाकम्मो कयकिच्चो केवली हो ॥ ७० ॥ व्याः धृति, श्रा, शुश्रूषा, विविदिषा, तथा विज्ञप्ति ए पांच पदार्थ धर्मनां कारण ने, एविषे पतंजलिप्रमुख ग्रंथोमां पण कहेल्लं , उगादिनो त्याग क रीने चित्त स्वस्थ करतुं ते धति कहिये, चित्त स्वस्थ थयाथी मार्गानुसारिणी रुचि उत्पन्न थाय जे ते श्रदा कहिये ; मार्गानुसारिणी बुद्धि थयाथी छायोपशम नाव - Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अध्यात्ममतपरीक्षा. उत्पन्न यायले, त्यारे जेम सर्प बाहेर खामो तिडो चाले पण ज्यारे राफडांमां पे सेबे व्यारे पांसरो यई जायले तेम श्रवणादिकने विषे बुद्धिनी जे सरला थवी ते शुश्रू पा कहिये, श्रवणादिक कस्याथी जेम जेम बुद्धि शुद्ध यती जायले, तेम तेम या त्मतत्वचिंतननी उत्पत्ति यती जायबे ते विविदिषा कहिये, ग्रात्मतत्व चिंतनथ की शुश्रूषा जे ते श्रवणादिगुणरूप थायवे, तेविना ते खानासमात्र कहेवाय ; पण गुण कवाय नही, यात्मतत्वचिंतन वडे श्रवणादिक गुण उत्पन्न थयाथी सम्य तनी उत्पत्ति थायले, ते सम्यक्तना पांच लिंग शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, तथा प्रास्तिक्यता; एवो खात्मानो जे गुन परिणाम तेने परमतने विषे विज्ञप्ति कहेबे, प्रा त्माना सुनपरिणामथी धर्मनो नाव उत्पन्न थायले; तेणेकरी नावांतरनी वृ Fs थाले, एम उत्तरोत्तर, जाववृद्धिकरी प्रविरति देश विरत्यादिक गुणस्थान श्रे चढी घातकर्मनो यकरी कृतकृत्य केवलीयाय एनो सारी रीते विचार कर जुवो एटले सहज जलाई यावेळे ॥ ६ए ॥ ७० ॥ ० एवं युक्तिपूर्वक वचन सांजलीने पीडितकर्ण थयो थको परवादी बोल्यो:न जय सो कयकिच्चो घरसदोसविरदिन देवो ॥ ता बुदता नावा जुइ कम्मा कवलनोजी ॥ ७१ ॥ व्या० देव तो डारदोषरहित बे; घने कृतकृत्य बे; ए सर्व मान्यबे ने तमे पण जो एमज मानता होतो तेने कवजाहार करनारो केम कहोबो ? कव लाहार अंगीकार करयाथी कुधा तृषा पण अंगीकार करवा जोईशे. केम के, कुधा तृषाविना कवलाहार संनवे नही. जो कुधा तृषाने पण अंगीकार करशो तो परमेश्वरने डारदोषरहित केम कही शकशो? केम के, कुधा खने तृषा ए बे दोष तो कवलाहारना ग्रहणाथी सिद्ध थायले. त्यारे शुं केवजी सोलदोषरहित बे, जो एम मानशो तो श्रागमवचननो अपमान थशे. यतः “कुत्पिपासा जरातंक, जन्मांतकनयस्मयाः ॥ न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते . " इति दिगंबरयं थांतरगत उपासकाध्ययने कुधा, तृषा, जरा, क्षय, जन्म, यम, इहलोका दिनय, य हंकार, राग, द्वेष, मोह, चिंता, अरति, निशा, विस्मय, विषाद, स्वेद, तथा खेद ; ए डार दोष केवलीने नथी एम कयुंबे. तेश्रोमाना कुधा तथा तृषा ए वे दोष तां कृतकृत्यता के संनवे ? माटे केवलीने जो कवलाहारी कहो तो बे दोष अंगीकार करो. ॥ ७१ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ० ए आशंकानो उत्तर कहे बे:-- तो सक्कावुत्तुं जे बुदतहाई जिस्स किरदोसो ॥ जइ तं दूसेज गुणं साहावियमप्पणो किं वि ॥ ७२ ॥ दूस अबाबाद य ज‍ तुह सम्मन तयं दोसो ॥ मयत्तणं वि दोसो ता सित्तस्स दूसरा ॥ ७३ ॥ व्याः कुधा ने तृषा ए वे दोष अडार दोषमां गणीने, कृतकृत्य जे केवली विषे ते बे दोषनो तें जे नाव कह्यो; ते वचन ताराज मतानुयायिमां कहेता शोनाप्रद बे; परंतु पंमितोनी पर्षदामां शोनाने पामे नही; किंतु मूल्य विना ना कहे वाय केमके, कुधा ने तृषा ए बन्ने दोषमां त्यारे गणी शकाय के ज्यारे कोई स्वानाविकात्माना गुणने दूषण लागतुं होय; तेम तो कांई यतुं नथी, केम के, ए नाव वेदनीयकर्मना करेला बे; ते केवलज्ञानने दूषित करी न शके. के मके, केवलज्ञानने दूषण करनार ज्ञानावरणीय कर्म बे. तेम केवलदर्शनने दू षित करना दर्शनावरणीय कर्म बे; तेम सम्यक्तचारित्रने दूषित करी शके नही केमके, सम्यक्तचारित्रने दूषित करनारुं मोहनीयकर्म बे. तेमज दानादिक पां चलब्धिने पण दूषित करी शके नहीं; केमके, लब्धियोने दूषित करनारुं अंतरा य कर्म बे. ए कारण माटे कुधा यने तृषा ए बे दोष कहेवाय नहीं. यहिं को ई शंका करशे के जेम कुधा तथा तृषावमे उद्मस्यने ईर्ष्या समिति श्रुतान्यासा दिको जंग दीगमां यावेळे ; तेम केवलीने पण चारित्रज्ञानमां प्रतिबंधरूप शा सारू न थाय ? एनो उत्तर या बेः यद्यपि कुधा तथा तृषा ए बे बहिरिंडिय वृत्तिनी ग्लानि करवाने लीधे एकेंद्रिय ज्ञानादिकना विरोधी थायले. तथापि यतीं यि ज्ञाननो घात करी शकतां नथी, कोई एवी आशंका करे के, जीवनो य व्याबाध गुण बे. एटजे निराकुलत्वरूप जे जीव, तेने दूषित करनारी कुधा तथा तृ षा बे. केमके, ते याकुलता परिणामरूप बे. जे याकुलतानी कुधावमे निवृत्ति थायले, तेक्कुधानी परिणामक डे ने कुधा तेनो परिणाम बे; अने जे खाकुल तानी तृषावडे निवृत्ति थायले, ते तृपानी परिणामक बे ने तृषा तेनो परिणाम a. ने एम कहे के, केवलीनो सिद्धत्व गुण बे, तेने दूषित करनारुं मनुष्यपणुं पण दोषरूप केम न कहेवाय ? इत्यादिक विचार करी पोतानी कल्पना मूकीने घातिकर्मा करेला मार दोष जेवी रीते पूर्वाचार्य कह्याबे, तेवी रीतेज मानवा ३०३ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अध्यात्ममतपरीक्षा. जोश्ये, यतः “अंतराया दानलान, वीर्यनोगोपनोगगाः॥ दासोरत्यरती नीति, र्जु गुप्सा शोक एव च ॥ १ ॥ कामोमिथ्यात्वमझानं, निश चाविरतिस्तथा ॥ रागोदो पश्च नो दोषा, केषामष्टादशाप्यमी ॥२॥" ज्ञानगुणनो घात करनाऊं अज्ञान, दशेनगुणनो घात करनारी निज्ञ, सम्यक्तगुणनो घात करनारुं मिथ्यात्व, चारि त्रगुणनो घात करनारां हास्य, रति, अरति, जय शोक, उगंडा, काम, अविरति, राग, तथा देष ; अने दानादि लब्धिरूपवीर्यगुणना घात करनारा दानांतराय, लानांतराय, नोगांतराय, उपनोगांतराय, तथा वीर्यातराय; एअडारदोष घाति कर्मना कह्याने, परंतु केवलीने घातीकर्मोनो क्य थई जायजे, माटे ते निर्दोष क हेवाय. तेम बतां कुधा अने तृषाने अडारदोषोमा जे गणे ते युक्तायुक्त वि चार नकरतां केवल स्वमतनुं पोषण करेले;॥ ७२ ॥ ७३ ॥ अह ज जिणस्स खश्अंसकं मुकं विरुभए तेणं॥ तो सामरमानावे विसेसजुत्ता कहं सत्ता ॥ ४ ॥ व्या:- कोई आशंका करे के, जेम केवलीने दायिक झानादिक डे, तेम का यिक सुख पण जे, तिहां दुःखनोलेश पण नथी, तो तुधा तृषा केमलागे ? ॥७॥ तो वेयणिज्जकम्म उदयप्पत्तं कई दवे तस्स ॥ णय सोपदेसनदन समयम्मि विवाग नणणाd ॥ ५ ॥ व्या:- उपली आशंकानुं उत्तर दिये के, केवलीने जो दायक सुख मान ता होतो सिद्धांतनेविषे केवलीने वेदनीयकर्मनो उदय कह्योले, ते शासारु न मा नवो! अर्थात् मानवो जोशे. जेम ज्ञानावरणीयकर्मनो नदय बतां दायिक झान यतुं नथी, तेम वेदनीयकर्मनो उदय बतां दायिक सुख पण थतुं नथी, कोई शंका करेके, केवलीने एवा वेदनीयकर्मनो उदय होयले के, जेना प्रदेश आत्मप्रदेशनी साथे मलेले, ते स्थिति प्रमाणे रहीने कीण थई जायले. परंतु के वलीने तेनी आकुलता थती नथी. एर्नु उत्तर एके, यद्यपि एवो प्रदेशोदय अम ने पण मान्य जे; तो केवलीने दायिक सुख संनवे नही. तेम बतां अन्युञ्चयता थी अमारे कहेQ जोये के, केवलीने वेदनीयकर्मनो प्रदेशोदय बेज नही. किं तु सिद्धांतोमा विपाकोदय कह्यो. ॥ ७५॥ आवस्सयणिज्जत्ती पयडिपसबोदवएसेणं ॥ जा ता सुहायान असुदपडिवरकवयणेणं ॥७६ ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. ३०५ - व्या:- आवश्यक नियुक्तिनेविषे प्रतिनो प्रशस्त उदय कह्यो , तथा दिगं बरना प्रवचनसारनामक ग्रंथमां पण “ पुणफला अरिहंता" इत्यादिक वचनो कह्यांडे, एवी रीते असुखना प्रतिपद वचनथी केवतीने सुखनो विपाक .॥७६॥ __ अ० कोई आशंका करे के, जे कारण माटे सुख विपाक , तेथीज फुःखवि पाक नयी ? तेनुं समाधान करे. ॥ ७६ ॥ तत्तसुत्तनाणा एकारसदा परीसहा य जिणे ॥तेद विउहतहाइ खश्अस्स सहस्स पडिकलं ॥ ७ ॥ व्या:- अमारा श्रीनगवतीसूत्रनेविषे केवलीने अग्यार परीसह करावे. तद्यथा “ एकविहबंधगस्सणं ते सजोगि नवा केवलिस्त का परीसहा पहा त्ता ? गोयमा, एकारस परीसहा परमत्ता, व पुणवेण तित्ते" तथा बेहुने “ए कादश जिने" एवीरीते श्रीतत्वार्थसूत्रमा अग्यार परीसह कह्याने; एणेकरी के वलीने कुधा तथातृषा प्राप्त थश्बतां दायिक सुंखनी हानि थती नथ एवं ठरेले अहीं उक्त " एकादशजिने ” ए सूत्रनो अर्थ केटलाएक पोतानुं मत पोषण कर वाना हेतुथी एवं करेले के 'एकेनाधिकानदश” एटले एकअधिक दश न थाय; अर्थात् अग्यार परीसह नही. ए अपव्याख्यान जाणवं, केमके, एवो समास सं' नवे नही. वली केटलाएक सर्वार्थसिक्षिप्रमुख “नसंति" एवं बाहेरथी वाक्य लिये, तेतो जाणे पोतार्नु उत्सूत्रनाषणज प्रगट करतो होयनी ! परंतु तेथोए यावो विचार करवो जोये के, परीसहनास्वामी चिंताना अधिकारनेविषे प्रसिह बतां तेनो अनाव केम थशे ! जे धनरहित होय ते धननो स्वामी कहेवाय नही. वली केटलाएक थावीरीते व्याख्यान करेले के, केवलीने वेदनीयकर्म होवाथी कारण कार्योपचारेकरीने अग्यार परीसह कह्या ए व्याख्यान पण नदीमां बूडतां घास नो याश्रय लेवाजेQ , केमके, स्वामित्वचिंताए उपचार संजवे नही, जो उप चार मानिये तो बता मोहनीयकर्मना होवाथी नपशांत मोहगुणस्थानकनेविषे पण बावीस परीसह कह्या जोशे, ए प्रकारे करी सूत्रनां घणां अपव्याख्यानो नो त्याग करीने परमार्थनो विचार करवो जोये. ॥ ७ ॥ अस्साय वेयणिऊं बुदतहाईण कारणं जाण ॥ पऊ त्तिसतित्तउदय जलिअंतरजलादित्ताणं ॥ ७ ॥ व्या:- आहार पर्याप्तिनामकर्म तथा असाता वेदनीयकर्म ए बन्नेना उदय %3 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ अध्यात्ममतपरीक्षा. थी प्रज्वलित थलो जे जठराग्नि, तेणे करीने जीवने कुधा तथा तृषा लागेले, ते बध कारण केवलीने विषे बतां बे तेने कुधा तथा तृषा केम न लागे ? तेकहो ॥ ७८ ॥ to वादी आशंका करे: न बुद्ध ता ता मोदुदन पत्तियारिरंस || माता महुकं तयति ॥ ७ ॥ व्या०: Fer तथा तृषा ए मैथुननी इहानी पठे तृमारूप होवाथी ते मोह नीयकर्म की उत्पन्न यायले. माटे केवलीनेविषे ए संनवे नही. केमके, केवली ए तो मोहनीयकर्मनो प्रथमज नाश कस्योबे. एनो उत्तर खावीरीते बे:- तृमा दुःखमा घणी निन्नता बे, तृमानेज डुःख कहेवाय नही. परंतु संसारीने तृमाकी दुःखनी उत्पत्ति थायले. ॥ ७९ ॥ to मा उत्पन्न थवानो प्रकार कहेले: मोदानिणिवेसेणं चदि वि नमकोध्याई देऊदि ॥ पगरिस पत्तातला जाय याहारसमति ॥ ८० ॥ व्या०:- मोहनीय कर्म अनिनिवेशे चार कारणथी आहारसंज्ञा उत्पन्न था य. ते उत्कर्ष पाम्याने लीधे तृष्मा कहेवायले. ते चार प्रकार श्रीगणांगमां क ह्यावे; यतः " चहिं गणेहिं याहारसमा समुप्पकर; नमकोच्याए, बुहावेह लि |कस्सणं कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदहोवनगेणं, " एनो अर्थः- चार कारणेकरी याहारसंज्ञा उत्पन्न थायले. कोठोखाली थयाथी, कुधावेदनीयकर्मना उदयथी, याहारादिकनी कथानुं श्रवण कस्याथी, तथा वारंवार खाहारनो उपयोग करवा यी आहारसंज्ञा उत्पन्न यायले. अर्थात् ए चार कारण मव्याथी मोहनीय कर्म ना बजे प्रहारसंज्ञा उत्पन्न थायडे. अतएव गोमट सारटीकाप्रमुखने वि पे पण याहारसंज्ञा आहारा निजापरूप कहीले. ते तृमारूप होवाथी यतिने ए विना रानपानादिकने विषे प्रवृत्ति बे ते कहेबे :- ॥ ८० ॥ साइम्म पवित्ती एत्तोच्चिय तं विणा सुसाहूणं ॥ राज दुत्त विविदाणो यारो हंदि सिद्दिने ॥ ८१ ॥ व्या० ए हेतुथीज यतिने पण याहारसंज्ञाविना प्रशनादिकने विषे प्रवृत्तिले . म के, विधि पालतां गतिने अतिचार कह्या नथी; धने श्राहारसंज्ञा तो अति Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३०७ चारमां बे. माटे जे एम कहेबे के थाहारसंज्ञाविना यतीए थाहार करवो नही तेने याचारमां पण अतिचार कह्या बे ॥ ८१ ॥ एयं विणा नुत्ती मेहुणसमं विणा जह प्रबंनं ॥ इ य वयपि परेसिं एएण पराकयं यं ॥ ८२ ॥ व्या० जेम मैथुनसंज्ञाविना ब्रह्मचर्य न थाय, तेम याहारसंज्ञाविना केव जीने मुक्ति थाय नही. एवा परवादीना वचननुं यावीरीते निराकरण कस्युं बेःजेम यतिए श्राहारसंज्ञाविना खाहार करवो उचित बे, तेम केवलीनेविषे पल मानी जेवुं जोईये ॥ ८२ ॥ राहु साहु चिय पवित्ती वय सुपसहकाणदेवत्ति ॥ या हारोच्च प्रबंनं प्रमद तुह दोइ पिछोसं ॥ ८३ ॥ व्या० श्राहार वर्जनीय होवाथी उचित बे, तथा उद्मस्थ यतीने प्रशस्त ध्याननुं कारण बे. माटे याहारसंज्ञाविना केवलीने याहार लेवो संनवे बे. अने मैथुन वर्जनीय होवाथी अनुचित बे; तथा दुर्ध्याननुं कारण बे. माटे मैथुना दिक नुचित प्रवृत्ति प्रशस्त रागदेषविना केवलीने थाय नही. एवा अर्थनो विचार करीने तेनुं ग्रहण कर जोये. ॥ ८३ ॥ आदार चिंतन मेयं आहारसममासक ॥ म हाणं इछा लोने मूढाणं ॥ ८४ ॥ व्या० हारना चिंतनथकी जे याहारसंज्ञा उत्पन्न यायले, तेनेविषे मोहित यता मूढजीवने जो ते श्राहाररूपइष्टवस्तुनी प्राप्ति न याय तो ते 'वस्तु क्यारे प्राप्त यशे एवा चिंतनरूप यार्त्तध्यान करेबे. परंतु ते व्यभिलाषा मटती नथी. ८४ तत्तो माणसडुखं लहइ जिन कंदाइ कुतो ॥ लहुं विविस र चिते प्रवियोगं ॥ ८५ ॥ व्या० त्यार पढी पूर्वोक्त रीतिए जो तेने श्राहारादिक इष्टवस्तुनी प्राप्ति न थाय तो ते जीव कुछेदनीयना उदयथी प्रज्वलित थएला उदरानलना योगे श रीडःख पामेबे घने पछी कंदन रोदनादिक कस्याथी खरतिमोहनीयकर्मना aarने लोधे गाढ चित्तोपतापरूप मानसःख पामेते. कदाच पुण्यप्रकृतिना परिपाके इष्टवस्तुनी प्राप्ति थाय तो पण रतिमोहनीयकर्मना उदयथी ते वस्तु Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अध्यात्ममतपरीता. ना अवियोगनी इबा कयाकरे, तेणे करी ते वस्तु उपर गाढानुरागेकरी आर्न ध्यानना वश थयो थको जीव मुःखज पामे , माटे मोहमूढ जे जीव ले तेने परमार्थथकी कदी पण सुख नथी. ॥ ५ ॥ तो मोदणिजखयन तनवडकाणुबंधि विलएणं ॥ लहई सुहं सवल चएणो पुण बुहं चश्नं ॥ ६ ॥ व्या:- मोहनीयकर्मना व्यथी जीवने आहार करवानी रति तथा अरति उत्पन्न थायडे, ने मोहनीयकर्मना उदयथी जीवने मानस पुःख नत्पन्न थायले. ते दुःख केवलीने मटी जाय; पण असातावेदनीयकर्मना उदययी केवलीने जे हुधा तृषा लागे; तेनो ते त्याग करी शके नही. ॥ ६ ॥ घाश्व वेयणीअं इय जइ मोदं विणा | उस्कयरं ॥ पयर्ड पडिरूवान ता अमान विपयडीन ॥ ॥ . व्या:- पूर्वपदी कहेले के, वेदनीयकर्म घाती कर्मना जेवूने, माटे मोहनीय कर्मविना ते खदायक थाय नही. उक्तंच. “घादीववेदणीयं; मोहस्सुदएण घाददे जीवं:” इति कर्मकांमे. तेनुं समाधान ग्राम:- जो तमारा कह्या प्रमाणे होय तो असातावेदनीयनी पते केवलीने बीजी प्रतियो पण मोहनीय कर्मवि ना पोताना कार्यनी करनारी होवी जोये. अने तमे वेदनीयकर्मनीसाथे घातीकर्मनी तुव्यना केवीरीते करोडो ? घातीयाना रसना जेवो तेनो रस होयडे एम सरखा पणुं करोडो, के स्वकार्य करवानेविषे घातीयानी अपेदापणुं कल्पोबो; के य थवा दोषनुं हेतुपणुं कहोडो, ? जो कहेशोके घातीयाना रसना जेवो रस होवो जोये तो अघातीकर्म प्रकति घातीना जेवी होवी जोये. केमके, ज्यारे अघातीनी प्रकृति सर्व घातिनी प्रकृतिनी साथे वेश्ये त्यारे ते सर्व घातिनीप्रतिनो विपाक देखाडे, तथा ज्यारे देश घातिनीनो विपाक देखाडे, अने एकली वेश्ये त्यारे मा त्र ते एकलो पोतानोज विपाक देखाडे; माटे पद संनवतो नथी. जो कहेशो के, स्वकार्य करवानेविषे घातीयानी अपेक्षा होवी जोयेने, तो नामकर्म पण पू वै मोहनीयकर्मनी अपेक्षा करतुं बतां जेम केवलीने मोहविना थापणु कार्य करेले; तेम वेदनीय कर्म पण मोहनीयकर्मनी अपेक्षा विना कार्य करेः माटे बीजो पक्ष पण संनवे नही. जो कहेशो के वेदनीयकर्मथी दोष लागेजे, तो ते Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. ३०ए पण मनाय नही, केमके, लुधा अने तृषानेविषे दोषपणानुं पूर्वेज खंडन कयुं ने; एवीरीते स्वबुदिएकरी सारी पठे विचार करीने जुवो. ॥ ७ ॥ अणुकूलं पडिकूलं च वेयणं लकणं सुदउहाणं ॥ण दु एसो एगंतो अपमत्तजईसु तयनावा ॥ ७ ॥ व्याः श्रौदयिक सुख बतां अनुकूलत्व वेदन थायजे, ते रागरूप ने अने औ दयिक फुःख बतां प्रतिकूलत्व वेदन थायडे, ते ६षरूप ; माटे केवलीने औ दयिक सुख तथा ख ए बन्ने होतां नथी; किंतु दायिक सुखज होय. एम केटलाएक कहेडे, ते योग्य नथी. केम के, जेम अप्रमत्तयतीने औदयिक सुख तथा कुःख ए बन्ने होय. पण राग तथा देष ए बे होता नथा: तेम केवलीने विषे पण जाणी लेवू. एमां एकांतपणुं न मानQ. ॥ ७ ॥ अधुवाण सुदउहाणं नोगो नोगेण कम्मबंधो य ॥ गदु एसो एगंतो अपमत्तजईसु तयनावा ॥ जए ॥ व्याः सुख तथा फुःख ए बन्ने पदार्थ शाश्वत नथी, किंतु अशाश्वत ले. ते थोनो एवो नियम ले के, अवश्य लोगने दिये. कझुंडे के, “ नानुक्तं दीयते कर्म" इत्यादि. अने नोगथकी कर्मबंध थायजे. ए कारण माटे केवलीनेविषे ते संनवे नही. केमके, सुख तथा कुःख ए बन्ने पदार्थो अध्रुव जे. एम केटलाएक कहे, ते पण योग्य नथी. केमके, सुख तथा पुःख अध्रुव बतां अप्रमत्तयती ने होय; तो पण तेनाथी कर्मबंध थतो नथी: तेम केवलीविषे पण जाणवं जोश्ये. यहीं पण एकांत नथी. ॥ ७ ॥ अन्नापजंतु उरकं नाणावरणकएण खयमेश् । तत्तो सुदमकलंकिय केवलनाणा पुहनूयं ॥ ७ ॥ ___व्या:-- ज्यारे हरेक पदार्थनो सूक्ष्म अर्थ जाण्यामां यावतो नथी, त्यारे जी वने महापुःख उत्पन्न थायजे. केमके, यथार्थवस्तु जाणवानी वा प्रमाणे जाण्यामां न आवे तो तेथी जीवने आकूलता थाय. तेज उःख जाग. ए दुःख वस्तुनो सूक्ष्म अर्थ न जाण्याथकी थायडे, माटे अज्ञानरूपज बे. थ झान ज्ञानावरणीयकर्मना यथी नाश थाय , ते दुःखनोज नाश जाणवो. केवलीने ज्ञानावरणीयकर्मनो क्ष्य थई जवाथी दुःखरूप अज्ञाननो लेश पण Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० अध्यात्ममतपरीदा. रह्यो नथी बने केवल ज्ञाननो नदय थयो ते सर्व सुखरूप ले. ते सुख केव लज्ञानथकी पृथक्नूत नथी. केमके, केवल ज्ञान जे जे ते स्वनावना प्र तिघातरहित होवाथी अनाकूलतारूप में; त्यां याकुलता बेज नही, ज्यारे था कुलता नथी त्यारे तजन्य जे उःख ते क्याथी होय! अने कुःख नथी त्यारे परम सुखज ले. एवी रीते “जं केवलित्तिनाणं, तं सोरकं परण संचसोचेव ॥ खेदो तस्स नणीदो, जम्हाघादीखयं जादा” ए प्रवचनसारनां वचन असंनवित . तोपण घाटलो विशेष :-- केवल ज्ञान दायिकसुखप्रक्रिया संनवे नही; केमके, दायि क सुख तो वेदनीयकोनाक्ष्यथकीज नत्पन्न थायजे. ॥ ए० ॥ णय सुकं धुकं वा देहगयं इंदिनप्रवं सत्वं ॥ अ नाण मोह कके पमाणसिधेन संकोए ॥ एक ॥ व्या० दिगंबर एम कहे-के शरीरगत सुख दुःख सर्वइंडियथकी उत्पन्न थाय ने केम के, बद्मस्थने जे सुख तथा उःख उत्पन्न थाय ते एवी रीतेज था यो. प्रथम परोक्झानना कारणथी इंडियोनी उपर मैत्री प्रवर्ने ने, इंडियोनी मैत्री थकी विषयोनेविषे तृमा उत्पन्न थायडे. जेम अग्निथी तापेलो लोहनो गोलो होय; तेम विषयोनी तृमाएकरी इंडियो तप्त होय. ते महाव्याधिस्थानीय बे. अने तृमा टालवाने अर्थे विषय, सेवन थायले; ते व्याधीना औषधस्थानीय बे. ते यद्यपि व्यवहार दृष्टिए तो सुख कहेवायजे, तथापि परमार्थताए फुःखरूप जे. उक्तंच. “पप्पाइहे विसए, फासेहि समास देस दावेण ; परिणममाणोअप्पा, सयमेव सुह गयवदिरेहोत्ति.” इति प्रवचनसारे. ए कारण माटे देहगत सुख एं यिक . तेमज कुःखपण ऐंख्यिक डे. एवा ऐंडियक विषयोना देषथी कुःख क पजेले. माटे देहगत सुख तथा फुःख केवलीनेविषे नथी. तेथीज केवली अतीहि य थया . उक्तंच. “सोरकंवा पुण उरकं, केवलनाणिस्स नबि देहगयं ; जम्हा य दिदिबत्तं, जावं तम्हा तिणेयंति.” इति प्रवचनसारे. एनुं समाधान करेलेः-देहगत | सर्व सुख तथा कुःख इंख्यिाधीन नथी केम के, इंजियोनी पराधीनताथी जे अज्ञा न तथा मोहथकी सुख तथा फुःख नत्पन्न थायले, तेयोनेज इंडियोनी अपेक्षा, परंतु अप्रमत्तयतीने जे मानस सुख थायडे, तथा सातादिककर्मना उदयथी हु धादिक दोष उत्पन्न थायडे, तेमां इंडियोनी अपेक्षानो नियम नथी, जो एम न मानिये ने इंडियाधीनज सुख तथा फुःख मानीये तो रतिमोहनीयकर्म तथा घरति . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. मोहनीयकर्मनुं नामांतरज वेदनीयकर्मना उदयथी असाता वेदनीय कर्म थाय ने | एम उरशे. त्यारे वेदनीयकर्म जुड़ कहेवाशे नही. जो वेदनीयकर्म मोहनीयसाथे मानीये तो सातज कर्म ठरशे. आठ कर्मनो संनव थशे नही. एम करतां सर्व जैन प्ररूतिनो नन्द थशे. वली देहगत सुख जो केवलीने न मानीये तो तीर्थकरनाम कर्मनो विपाक केम संनवे! जो एम कहिये के तीर्थकरनामकर्म जीव विपाकी छे, माटे तेथी जीवगत सुखतो कपजेले. परंतु देहगत दुधादिक दुःख संजवे नही. तो जेम सुखने पण देहनी अपेक्षा , तेम फुःखने पण देहनी अपेक्षा , माटे देहग तज मानवा योग्यजे, इत्यादिक सूक्ष्म विचार करी मध्यस्थबुद्धिये न्याय करो. ॥१॥ एत्तोच्चित्र बदु ःख, स्कएण तेसिं बुदाश्वेयणियं ॥ णिंबरस लवुव पए अप्पंति नणंति समय विक ॥ ए॥ व्या केवलीने अज्ञानादि जघन्य घणां दुःख मटीगयां ने, मात्र एक कुधावे दनीय रह्यु बे, ते पण घातीकर्मनी साथे मलेला जेवो पोतानो विपाक देखाडे ले केम के, केवलीने पुण्यप्रतिनो विपाक प्रबल . यतः "अस्सायमाश्यायो, जावित्र असुहा हवंति पयडीन; विंबुरस किंबुवपषु ण हुँति ता असुह यात स्त.” ए आवश्यकगाथामां तीर्थकरने असाता प्रकृति दुःखदायिनी थती नथी. जेम दूधना घडामां निंबना रसनो बिंड नाख्याथी कटुता थाय नही, एम श्रीन बाद स्वामीए कह्यु जे, जेमतेने प्रबल पुण्यपरानव करेले, परंतु तेथी कुधादिक कप जे नही एम न जाणवू, एवो नाव जणाय. पनी विशेषार्थ तो बदुश्रुत जाणे.॥ए॥ णय तं कवलाजोग्गं वेयणियं अगणिमंदयानावा ॥ णय दरज्जुकणं वेअणि हंदि सुप्रसिद्धं ॥ ए३ ॥ व्या:- केवलीन वेदनीयकर्म कवलाहार योग्य थाय नही एम न कहे. केमके, केवलीने अग्निमंदपणुं नथी. आहारपर्याप्तनामकर्मनो उदय अने वे |दनीयकर्मनो उदय दोवाने तीधे उदराग्नि प्रज्वलित थायजे. ए बन्ने कारणो हो वाथी केवलीने वेदनीय कर्म कवलाहारयोग्य थायजे. जो कोई कहेशे के, वेदनी य कर्म दोरडीना जेवू दे, तेथी केवलीने व्याबाध करीशके नही. तेने आवो ज बाब देवो के, ए वचन प्रघोष , शास्त्रनुं नथी. केमके, श्रीसुयगडांगनी टीकामां आम कडं के, “ यद्यपि दग्धरकुस्थानकत्वमुच्यते वेदनीयस्य तदप्यना Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ अध्यात्ममतपरीदा. गमिकमयुक्तिसंगतं वागमेह्यत्यंतोदयः सातस्य केवलिन्यनिधीयते. युक्तिरपि घा तिकर्मक्ष्याहानादयस्तस्या अनूवन् वेदनीयोनवायाःहुधः किमायातं येनासौन न वति न तपोबायातपयोरिव सहानवस्थानलक्षणो विरोधो नापिनावानावयो रिव परस्परपरिहारेण लक्षणकचिदिरोधोस्तीति सातासातयोश्चांतर्मुहूर्तपरि वर्तमानतया यथा सातोदय एवमसातोदयोपीति अनंतवीर्यत्वं सत्यपि शरीरब लापचयकुवेदनीयोनवा पीडा च नवत्येव नचाहारग्रहणे किंचित्दीयते. के वल महोपुरुषिकामात्रमेवेति पंचाशीतिर्जर वस्त्रप्रायाः शेषासयोगिनि. " एवं जे गुणस्थानककमारोहमां कयुंजे, ते तो थोडी स्थितिनी अपेदाए जा एवं ; पण रसनी अपेदाए न जाणवू. केमके, सत्तानी प्रकृति तो एवी कही, पण उदयनी प्रकृति एवी कही नथी. उलटो तीर्थकरनामप्रमुखनो प्र बल नदयज कह्यो. एम जागीने "अतएव दग्धरकल्पेन नवोपग्राहिकल्पना पि सता केवलिनोपि न मुक्तिमासादयेयुः " ए आवश्यकबहत्तिनुं वचन जे, ते जोईने पण व्यामोह करवो नही. तेटला माटेज इहां पण स्थितिनी अपेक्षाएम केवलीने कर्म दोरडीना जेवां कह्यांचे. “अतएव नवोपयाहित्वाल्पग्राहित्व विशेषणं" कह्यांले. एवं अमने प्रतिनासेले. वली विशेष गीतार्थनेविषे जेम पूर्वापरविरोध न थाय, तेम विचारवं. केटला एक प्रमेयकमलमातमना अनिप्रायने अनुसरीने आवीरीते कहेले के, अपूर्वकरणगुणताणाए पापप्रकृतिनो रस कस्यो, मा टे केवलीने तथाविध सातोदय थाय नही. मोहसापेदप्रकति थाय. तेनो मोह ना घातथी अवश्य घात थायजे. अन्यथा पराघातनामकर्मना उदयथी केवली परहननादिक केम न करे ! ए बोलवू पण दुराग्रहनुं जाणवू, केमके, जेम रसनो घात थायडे, तेम स्थितिनो पण घात थायले. माटे जो रस प्रोडो थतो होय तो स्थिति पण थोडी थवी जोये. जेम बक्ष्यमानकर्मनी स्थिति घटी जाय तेम ब ६यमान कर्मनो रस पण घटी जाय, एज समाधान. तथा पराघातनामकर्म नुं फल केवलीने थायज, थने परहनन तो मोहविना थाय नही. केटलाएक एम कहे के वेदनीय कर्म केवलीने विषे हतवीर्य में, माटे तेनेविषे दुधादिक परी सह बायारूप जे. एम जे केवलीनेविषे कहे तेणे श्वेतांबरनी प्रक्रिया जाणी नथी, ए म जाणवू. केटलाएक कहे के, केवलीनेविषे उदीरणाविना प्रचुर पुजल आवता नथी, माटे असातावेदनीयोदय बली दोरडीना जेवोज जे. एबोल पण अविचार | रूप जे. केमके, एवीरीते तो सातावेदनीयोदय पण मंद होवो जोये. इत्यादिक Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. ३१३ मतनो विचार करतां वास्तविक अर्थ सहज देखाई आवशे. माटे सूक्ष्म दृष्टिवडे ते अर्थ शोधन करो. ॥ १३ ॥ णय केवलनाणाई बुदाईपडिबंधगं जिणंदरस ॥ दादस्सिव मंताई इय जुत्तं तंतजुत्तीए ॥ ए४ ॥ व्या:- जेम दाहना प्रतिबंधक मंत्रादिक , तेम हुधादिकनुं प्रतिबंधक के वलज्ञान . ए वचन पण शास्त्रानुसार नथी. केमके, जेम हाथनेविषे मंत्रेलो अनि राख्यो बतां हाथ बलतो नथी एवं प्रत्यद दीनामां बावेले, तेथीज मंत्रादि क जे जे ते दाहना प्रतिबंधक बे, एवी कल्पना करायडे, तेम जो केवलीनेविषे वे दनीयादिक कर्मोदयरूप कारण बतां दुधादिक ननय उत्पन्न थतां नथी एम जो सम्मतशास्त्रमा कयुं होय तो एवी कल्पना थई शके; तेविना बोलवू व्यर्थ डे; माटे शास्त्रनी युक्तिए जिमपूर्वे कडुं ने तेम आदर, योग्य वे. ॥ ए४ ॥ खिजय बलं बुदाए णय तं जुज्जइ अणंतविरिणं ॥ इय नुत्तुं पिण सुत्तुं बलविरियाणं जन ने ॥ ५ ॥ व्या:- केवलीने जो नूरव लागती होय तो बलनी हाणी थाय. ते तो तेने विषे संनवे नही. केमके, वीर्यातरायकर्मना क्यने लीधे केवली अनंतवीर्यवंत जे. ए वचन पण अयोग्य ले. केमके, बल अने वीर्यमां नेद बे. शरीरनो जे पराक म ते बल कहेवायडे, अने अंतरंग जे शक्तिविशेष ते वीर्य कहेवायले. तेम बतां कुधाएकरी शरीरनुं बल घटेने, एविषे अमे ना कहेता नथी ए योगप्रत्यय ले; योग जे जे ते शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषरूप ले. अने नामकर्म तो जगवंतनेविषे दीण थयुं नथी. ॥ ५॥ अ० पूर्वेपदी आशंका करे: बंधो परपरिणामा सो पुण नाणा | वीयमोहाणं ॥ जो गकया पिदु किरिया तो तेसिं दो णिवीआ ॥ ए६ ॥ व्या:- ग्रहण तथा मोचनादिक परपरिणामथी जीवने कर्मबंध थायजे. ते परिणाम वीतरागने ज्ञानना प्रतापे थाय नही. उक्तंच “ गेहदि णेव ण मुंचदि, ण परं परिणमदि केवली जगवं; पेनदि समंतदोसो, जाणदि सवं निरवसेसं" ति प्रवचनसारे. केवलीने तो योगनी किया पण नथी, त्यारे नोजननी शी कथा अर्थात् केवलीनेविषे जोजन पण संनवे नही जो नोजन क्रिया केवलीनेविषेमा Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अध्यात्ममतपरीक्षा. निये तो तेथी योगक्रिया सिद्ध थशे. ते तो केवलीने विषे संनवे नही. जुवो के, स्थान निषद्या, विहार, तथा धर्मोपदेशादिकक्रिया पण केवलीने यती नथी, त्यारे जोजन क्रिया ते केम थाय ! जो कहेशो के स्थान निषद्या, विहार, तथा धर्मोपदेशादिकक्रिया केवलीने प्रत्यक्ष विद्यमान बतां ना केम कहेवाय ? तो ते क्रिया यद्यपि, तथापि प्रयत्नपूर्वक नथी. केमके, प्रयत्न रागद्वेष विना यतुं न थी. तो केवलीनेविषे नथी, माटे ए क्रिया स्वनावसिद्ध बे. जेम प्रकाशने विषे वादा समय विशेषे स्वनावेज संचार करेबे, रहेबे, गर्जना करेबे, तथा वर्षा करे. तेम केवलीने पण स्थाननिवद्या, विहार तथा धर्मोपदेशादिक स्वनावेज थायले. उक्तंच " ठाणलिसेऊ विहारो, धम्मुवदेसो अणिय दिला तेसिं; अरिहंताणं का ले, मायाचारोव इवी" इति प्रवचनसारे. अतएव केवलीने जे यदयिकी कि या बे, तेनेविषे मोह नही होवाने लोधे परव्य परिणामना विरथी कायिकीज जावी. यतः मफला अरिहंता, तेसिं किरिया पुलोहि योदयिगी; मोहादि विरदिया, तम्हा साखाइ गतिमदत्ति " ॥ ७६ ॥ ० एवी पूर्वपदीनी शंकानुं उत्तर यापेले: " जोगं विणावि किरिया नवक कदं ण तस्सोवि ॥ तुल्नं किरिवेचित्तं तद् तुल्ल मबुद्धिवत्तं ॥ ७ ॥ व्या० :- केवलीने विषे स्थाननिषद्यादिक्रिया जो स्वनावेज थती होय तो प्रय न निरर्थक थाय. एम तो कां दीगमां यावतुं नथी. प्रयत्न सार्थकज होय. केम, प्रयत्नविना चेष्टा यतीज नथी. माटे केवलीने विषे प्रयत्ननो संभव थायले, मात्र स्वानाविकतानोज उपयोग करवो नही. जो कहेशो के, केवलीनेविषे प्रयत्न जन्य चेष्टा नथी किंतु तेथी विलक्षण बे. अर्थात् केवजीनी चेष्टा प्रयत्न विनाज यायले. तो जेम चेष्टा विलक्षण बे, तेमज प्रयत्न पण शासारू विलक्षण न मानि ये ? अने जेम विलक्षण चेष्टा मोहविना थायडे, तेम विलक्षण प्रयत्न पण मोह विना यतुं जोये. जो कहेशो के, केवलीनी चेष्टा मनःपूर्वक नथी, तो ते प्रमाणे प्रयत्न पण मनःपूर्वक नथी एम शासारू न मानो एवीरीते सर्व ठेकाणे सरखं स माधान जाणी जेवुं ॥ ७ ॥ एवं सहाववाणी कह जुत्ता जेणि तेसि वयजोगो ॥ देऊ व सुप्रस्सा व कम्मखवणाय ॥ एए ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षाः ___ व्या:-पूर्वे कहेला हेतुए करीज दिगंबरो कहेले के, केवतीने राग नथी होतो तेथी तेनेविषे वचनव्यापार संजवे नही. तेम बतां जे वचनव्यापार थायले ते स्वनावेंज मस्तकमांथी ध्वनि नीकले बे एम जाणवो, पण अदररूप वाणी संनवे नही. ए शंका पण अयुक्त जे. केमके, केवलीने केवलस्थनी पूर्वे जेवीरीते वचन योग हतो, तेमज केवलज्ञान थया पनी पण जाणवो. अने केवलीने रागविना पण क्रियानुं सामथ्य बतां अदररूप वाणी केम न संनवे ? कोई आशंका करेके, केवली कृतकृत्य बे. त्यारे ते उपदेश शासारू करे ? तेनु समाधान ए के तीर्थक रनामकर्मनो विपाक एवीरीतेज नोगवाय. तेथीज केवली उपदेश करे. ए केवलीनो स्वनावज . जो कहेशो के, केवली पदेकरी एकांते कृतकृत्य? तो तेम पण न समजबु. यतः ऐगंतेण कयो; जेणे दिन्नं जिणंदणामसे. तदवंक फलं तस्स य खवणो वा अमवेजन : इति विशेषावश्यके. जो कहेशो के.परोप कारनी श्वाविना उपदेश देवो संनवे नही, अने वा तेज राग कहेवायले. घने रागतो वीतरागनेविषे संनवे नही. एवो व्यामोह पण न करवो. केमके एव। हा ते कृपा कहेवाय ने : पण तेने राग न समजवु. ॥ ए॥ णय वयणपयत्तेणं खेअस्सोदीरणं जिणंदस्स ॥ इद रा सुदस्स पावश् तं णय वा अमपयमीणं ॥ एए॥ ___ व्या०:- जो कहेशो के, वचन बोलवाना प्रयत्नेकरी जीवने खेद थयानी न दीरणा थायजे. तो ते संनवे नही. केमके, मनुष्यना धाउखामां साताअसाता वे दनीयकर्मनी नदीरणा प्रमादपरवशेकरीनेज होय; प्रमादविना बीजां कारणो बतां उदीरणा थाय नही. जो एम नकहिये धने बीजां कारणोथी उदीरणा थाय जे एम कहिये ; तो काययोगनेविषे सातावेदनीयनी नदीरणा, पण तेने केम थाय ? केमके, उदीरणानुं तो आवु लक्षण कह्यु:- जे स्थितिना दलिक, उदयावलिका थी बाहेर वर्तेले, तेने कषायसहित योगनामना वीर्यकरी याकर्षण करीने ते नदयावलिकाने विषे जे प्रदेपन करवू, ते उदीरणा कहेवायजे. ॥ एए॥ एणय तं विरिअविरदियं जाय अपवत्तणच करणंति ॥ केवलसदावपरकं सुगयस्स मयमणुमयं जाण ॥ १०॥ व्या:- जो कहेशो के ते उदीरणा वीर्यविना थायजे, तो ते संनवे नही. के मके, उदीरणा जेजे ते अपवर्तनानी परीकरण विशेष. एटले स्थानांतर कराववा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ अध्यात्ममतपरीदा. | नुं कारण ; अने कारण जेने ते प्रयत्नरूप ने, एम नमानतां जो केवल स्वनाव | वाद मानिये तो बोनुं मत अनुमत याय, माटे प्रयत्न पण अंगीकार करवुजोये. खेन पारिज केवलजोगेहि तो विषु पमायं ॥ ननु दयदेपनवो दीस पुण सो वि तत्तुल्लो ॥ ११ ॥ व्या:- केवली योग प्रमादविना खेद नदीरतो नथी, परंतु नदयना हेतु ते हां नदीरणासरखा दीवामां आवेने, तेथी खेद जेने ते नदारितना जेवो जणायले पण परमार्थताए ते उदीरणा कहेवाय नही ॥ ११॥ नुत्ती सुदपत्ती तं पुण जोगाउदीरियं दुजा ॥ एसा परजुत्तिलया एएण पकंपिआ णेआ ॥ १० ॥ व्या:-जुक्ति कहेता जे कवसाहारले. तेणेकरी केवलीने जे सुख उत्पन्न था | यळे; ते योगथी उदीयुं, अने केवलीने तो योगनी उदीरणा संनवे नही. केमके, | तेने वेदनीयनी नदीरणा होती नथी माटे केवलीने कवलाहार संनवे नही. ए वी जे परयुक्तिरूप वेली ते आवीरीते कपाई गई. के प्रमादविना उदीरणा था यज नही. एम निश्चये जाणवू ॥ १० ॥ पय उप्पणिहाणं पिढु, केवलजोगाण दोइ नुत्तीए ॥ तं रागबोसकयं, ते पण तेसिं विलीणत्ति ॥१०३ ॥ श्य सत्तमाइ फासग, कोडिन्नाईण कवलनोईए ॥णेवय उप्पणिहाणं, सुप्पणिदाणस्स मादप्पा ॥ १०४ ॥ व्या:- याहारेकरी केवलीना योगने दुःप्रणिधान थाय नही. केमके, योगःप्र णिधान ते रागदेषवडे थायले. ते रागदेष तो केवलीनेविषे नथी. अतएव सप्त मादि गुणगाणे चडेला जे कोडिन्नादिमहर्षि, तेथोने आहार करतां पण प्रणिधा न योग नथी थतो. विधिएकरि आहार करतां तेओने यात्मलीनताना माहात्म्यथी प्रमाद थतो नथी. किंतु अप्रमादज रहे. सातमा गुणगाणानेविषे नवा व्यापारनो थारंन यतो नथी. पण पूर्वे धारंनेला व्यापारनी निष्टा होय. जेम देवताना आनखाना बंधनो पारंन थतो नथी. पण बने गुणगाणे बांधवा मांड्यो जे देव तानो वानखो, ते बांधता थका पण सातमे गुणगाणे अवायडे. माटे नवा थारं Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३१७ जना अभिप्रायेज “इत्येतस्मिन् गुणस्थानानि संत्यावश्यानि षट् ” एवं गुणस्थान क्रमारोहने विषे कह्युले. ते संनवितले. ॥ १०३ ॥ १४ ॥ देऊ पमत्तयाए आदारकदव व आदारो ॥ होऊ जश् पारो अमहती एव तेणावि ॥ १५ ॥ व्या:- आहारनी कथा करतां साधु प्रमत्त थायले. त्यारे थाहार करतां के म प्रमत्त न थाय ? एबुं प्रनावे कहे ते अयुक्त जाणवू. केमके, आहारकथा प्रमादनुं कारण नथी. तेम बतां जो बन्ने सरखा कहिये तो जेम थाहारकथा करतां अतिचार थायले. तेम आहार करतांपण यतीने अतिचार थवो जोये॥१०॥ पिदाविण एण देन नुत्ती सदयारमेत्त अोत्तीए ॥ जेण सुए णिहिछा पयडी सा दंसणावरणी ॥ १०६ ॥ __व्या:- जो केवली आहार करतो होय तो तेने निश होवी जोश्ये. एम जे कहे ते पण अप्रमाण जाणवू. केमके, निशकारण आहार नथी. या हार तो मात्र निझनो सहचारी ने. सिक्षांतोनेविषे निाने दर्शनावरणीयकर्म नी प्रकृति कही. केमके, आहार करतां पण केवलीने दर्शनावरणीयकर्मनो अनाव ले. माटे केवलीने निज्ञ होती नथी. ॥ १०६ ॥ पय तस्स थोवयाए जेण अणुमा त त छो॥ पिदव उध्या जिदाई पसंग तस्स ॥ १० ॥ व्या:- शास्त्रोमां कडं बे के थोडो थाहार करवो, माटे थाहार उष्ट डे, ए म कहे, पण अयोग्य : केमके, घणो थाहार कस्याथी दर्शनावरणीयकर्म ना विपाकनो उदय थायजे. एटला माटे घणो थाहार करवो उष्ट कह्योले. प ए स्वनावे आहार उष्ट नथी. ॥ १० ॥ आहारो ण पमा नन्न अववाश्नत्तिकाऊणं ॥ - अववाया बोलीणा वीयनयाणं जिणाण जन ॥१॥ व्या:- आहार अपवादमार्गने प्रतिबंध करनारो होवाथी प्रमादरूप में, ए म नकहेवू. केमके, वीतनय तीर्थकरने कोई अपवाद नथी. अपवाद तो जे न त्सर्गमार्ग करी शके नही, अने चारित्रना त्यागथी बीहे, तेने बे. जिनने तो ते नहोय. ए केवल पोतानी कल्पना नथी, केमके, धर्मबिंज्नेविष निरपेक्ष्यतिध मैना अधिकारे अपवादत्यागसूत्र कह्यु, ए गीतार्थे यथा सूत्र विचारवो ॥१०॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ अध्यात्ममतपरीदा. पत्तं ममत्तदेऊ जुत्तं वोत्तुं पुणो ण देढुव ॥ इहराणी ममनावो जिणाण कद पाणिपत्ताणं ॥ १० ॥ व्या:- आदार करनारने पात्र राखवां जोश्ये, ते पात्रतो ममत्वनुं कारण . एम कहेवू नही. केमके, पात्र तो शरीरनी पठे धर्मसाधन . जो एम न मानिये ने ममत्वनुं कारण मानिये तो तीर्थंकरप्रमुख जे पाणिपात्री ने तेश्रोनेविषे नि ममत्वपणुं केम संनवे? जो कहेशो के, बाह्य पात्र ममत्वनुं कारण , तो ते प ण असमीचीन ने. केमके, जेटलुं पुजल इव्य ले ते सर्व पात्माथी बाह्य , मा टे युं ते ममत्वनुं कारण थाय ? ॥ १० ॥ जाणं तवोवघान आदारेणंति ते मई मिना ॥ माणं सेलेसीए तवो अणिविसस्स तेसिंति ॥ ११०॥ व्या:- जो कहेशो के, आहारेकरी केवलीना ध्यान तथा तपनो व्याघात पाय, माटे याहार लेवो अयोग्य ले. तो एवं जे तारीमतिमा नासे २ ते पण मिथ्या जे. केमके, ध्यान तो शैलेशीय जे. पण पूर्वे उत्कर्षताथी देशेनणी पू र्वकोडी सुधी नथी. अने विशेषेकरी केवलीने कोई तप पण नथी. गणांग नेविषे केवलीने जे अणुत्तर तप कडं, ते पण शैलेश्यावस्थानाव ध्यानरूपक युं . अने सोमिलना प्रश्नना अधिकारे श्रीनगवतीमां "किं नंते जत्ता सोमि ला, जमे तव णियम संयम ससाय सशापवस्सयमाईसु जोएसु जयणा” एवं कडं डे तेहां पण तपनुं फल . तेमाटे उपचारें तप कह्यु . ॥ ११ ॥ रालियदेहस्स य लिई अवुफीय णो विणादारं ॥ तेणं पिअ केवलियो कवलादारितणं जुत्तं ॥११॥ व्या:-औदारिकशरीरनी स्थिति, तथा तेनी वृद्धि आहारविना थती नथी माटे केवलीने कवलाहार युक्त . ॥ १११॥ परमोरालिअदेहो केवलिणं ना हवेज मोहखए ॥ रुदिराश्धानरदिन तेअमन अनपडलुवो ॥ ११ ॥ व्याः-पूर्वपदी शंका करेले के, मोहनीयकर्मना क्यथी केवलीने परमौदा रिक शरीर थायले. ते रुधिरादिक सप्तधातुरहित परम पवित्र होय. नोडल Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३१ ना पडलन पठे केवल तेजमय होय. एवा शरीरने कवलाहारनीअपेक्षा नथी॥॥ ११२ अ० उपली आशंका समाधान करे : संघयणणामपगइन केवलिदेदस्स धावर हियते ॥ पोग्गल विवागिणी कढ प्रतारिसे पोग्गले होऊ ॥ ११३ ॥ व्या० :- केवलीनुं शरीर जो सप्तधातुरहित कहिये तो तेने वज्रकषनॅनाराच संघ नामकर्म प्रकृतिनो उदय केम थाय. केमके, ते प्रकृति तो पुल विपाकनी बे. ते प्रस्थ पुलने विषेज विपाक देखामे बे. जो दृढ संस्थानमात्र पुगलने विषे ते विपाकने देखाडती होय तो देवताने पण वज्रऋषननाराच संघयण कहेवुं जोये. ११३ मोहविलएण नाणं णामुदयाचेव तस्स पारम्मं ॥ तो वाइविसेसो तं होऊण धानरदियत्तं ॥ ११४॥ व्या०:-- मोहनीयकर्मना विजयथी केवलीने केवल ज्ञान उपजे बे. पण श रीरने विषे कांई विशेषपणुं यतुं नथी. शरीरनामकर्मना उदयथीज शरीरने विषे विशेषता यायले. माटे केवलीना शरीरनेविषे पुस्यप्रकृतिना माहात्म्यथी वर्णगति सारसत्वादिकनी विशेषता युक्तज बे. परंतु धातुरहितपणुं याय नही. अतए व शास्त्रोनेविषे कयुंबे के, " संघयणरूव संघा, ए वन्नगइ सारसत्त कसासा; ए माइत्तराई, दवंति णामोदया तस्स. " एम बतां जे केवलीना शरीरने विषे स्य्यादि पुल पलटीने अन्य विषेज पुजल उत्पन्न थायले. एवी कल्पना करवी ते दृष्टिविपरीत होवाथी प्रयोग्य बे. केमके, पुण्यप्रकृतिनो उदय थयाथी तथा विध लब्धिवडे शरीरवर्णादिक विशेष दृढ होय. एम जाणवुं ॥ ११४ ॥ रालिपत्तणं तद परमोरालिच्यंवि केवलिणो ॥ कवलादारावेकं वि च बुद्धिं च पाठाई ॥ ११५ ॥ व्या०:-- तीर्थकरनुं शरीर जो परमैौदारिक होय तो पण सेने कवलाहार सा पेज स्थिति तथा वृनो अनुभव याय. केमके सामान्यपणे श्रदारिकशरीर नेविषे एवो नियम ग्रह्मो के, याहारविना शरीरनी स्थिति होयज नही ॥ ११५ एय मइनाणपसत्ती, कवलाहारेण होइ केवलिणो ॥ पुप्फाई विसयं प्रण दयालाइ गिरिजा ॥ ११६ ॥ " व्याः -- जो केवली प्रहार करे तो तेना यास्वादथी रसनानुं मतिज्ञान थाय Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अध्यात्ममतपरीक्ता. नही; जो एम मानिये तो समवरणनू मिकाने विषे गूणप्रमाण फूल पाथरेलां होवाथी, तेना परिमलथी घ्राणेंड़ियनुं मतिज्ञान केम न थाय ? यास्वाद विना तृप्ति याय नही, एम पण न कहेतुं, केमके, रतिरूप तृप्ति यती न होय तो ते मारे पण इष्ट बे. परंतु कुधानाशरूप तृप्ति तो याहारविना थायज नहींी ॥ ११६ ॥ इरिच्या वहिच्या किरिच्या, कवलादारेण जइ ए केवलिणो ॥ गमणाइणा विनवे, सा किं तुह पाण पहियत्ति ॥ ११७ ॥ व्या० जो कहेशो के, केवलीने कवलाहार करतां इरियाव की क्रिया लागेले. तो गमनागमनादिक क्रियाए करी केवलीने इरियावदिया क्रिया केम न लागे ? माटे जेम केवलीने गमनादिक क्रिया बे, तेम जोजन क्रिया पण जावी, एवं प्रथमज कह्युं छे. ॥ ११७ ॥ er परुवारढाणी तेण सया जोग्गसमयणियएए ॥ य वाहिसमुप्पत्ती दिव्यमिच्च प्राहारगहणा ॥ ११८ ॥ व्याo :-- केवली जो कवजाहार करे तो धर्मोपदेशमां अंतराय पडे, तेथी परो पकारनी हानि था, एम कहेवु न जोइये. केमके, ते तृतीयप्रहरने विषे मुहूर्त मात्र नियतसमयेज आहार करे. तेथी बाकीनो सर्व काल उपदेशने यर्थे रहे बे. जो कहेशो के, केवली आहार करेतो शूलादिक व्याधि उत्पन्न युवानो संन व याय, तो ए कल्पना पण व्यर्थ बे. केमके, ते सारी रीते जालीने निष्वं परिणामरहित हित मिताहारज करे बे माटे तेनेविषे शूलादिकनो संभव थाय नहीं. ने एथी तेनेविषे रागनी कल्पना पण थाय नही. ॥ ११८ ॥ पुरीसाइ डुगंबिय मेसि द्दि मोदीच्या || इसय नय परेसिं विवित्तदे से विहाणाय ॥ ११ ॥ व्या०:- जो कहेश के, केवली प्रहार करे तो तेथी वडिनीत प्रमुख कर जो इये, तो गंवानुं कारण बे; एम पण कहेतुं नही. केमके, डुगंधानुं मूल मोहनी य कर्म बे. तेनुं तो प्रथमज उन्मूलन करेलुं वे अने तीर्थकरनो एवो यतिशय ah, तेनां प्रहार तथा निहारनी विधिने कोई देखी शके नही. ए कारण माटे बीजाने पण गंडा उत्पन्न याय नही. वली सामान्य केवली एकांते निहार क रेने तेथी पण बीजा कोईने डुगंडा उत्पन्न याय नही. पूर्वपछी कहेले के, तीर्थ करने पूर्वे पण निहार होय नही तो पढी ते केम संनवे ? यतः "6 तिवय Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३२१ रातपियरो, हलधर चक्कीय वासुदेवाय; मणुयाण जोगभूमी, आहारो एविए हारो. " ए तो कोई पूर्व मतबे. केमके, शास्त्रोनेविषे एवो कोई अतिशय क ह्यो नथी; तेम एवी उदरानि पण नथी के जेथी निहारनो नाव थाय. तेम तां जो ए वातसाची मानिये तो नस्मकव्याधिनी पठे ते दोषरूप थशे. खल रसीकृत याहार मात्र जो नस्म थाय तो पूर्वे केम न थाय ? माटे ते केवल आप रुचिमात्र बे ॥ ११५ ॥ जो पुण तिच्प्रनावी केवलिलो सो वाया मित्तेणं साहेक सुद ख इसत्ति जंपेई ॥ पुष्पं ॥ १२० ॥ व्या० :- जो कहेशो के, केवलीने जे जुक्तिनो अनाव बे. ते अतिशय जाए वो. तो एम कह्याथी तमे पोते पोताना वचने बतीवस्तुने बती करो हो त्या रे प्रकाशना पुष्प पण ते एम कहेशो तो कोण ना कहेनारो बे! पण ए वच नो सप्रमाण न कहेवाय ॥ १२० ॥ एवं कवलाहारो जुत्तीइ समचि वायरिएहि जढ़ा तदेव लेसे व्याo :- एम जे प्रकारे पूर्वाचार्य केवलीने विषे कवलाहारनी समर्थना करी बे ते प्रकारेज या ठेका यमे लेशमात्र कांबे. ॥ १२१ ॥ ते केवलनाणी कयकिच्चो चैव कवलनोई ॥ नालाई गुणा परिघायाभावन सिद्धो ॥ १२२ ॥ व्या०:- माटे केवल कवलाहार करता बतां पण कृतकृत्यज बे. केमके, ज्ञान दर्शन चारित्र तथा वीर्यगुणनो स्वनावपरावृत्ति एटले पाउल हटवारूप प्रतिघात नथी. ज्ञानादिक गुण संपूर्ण सिद्धज होय. माटे ते सर्वथा कृतकृत्य तो सि इज बे. एम कहेतुं जोइये. तथापि ज्ञानादिगुणचतुष्टयनी विद्युताने लीधे केवलीने देश कृतकृत्य कहेतां पण कांई विरोध यावे नहीं. ॥ १२२ ॥ संसु ॥ जम्दा नाणं पप्पा अप्पा नाणं तसं वा ॥ १२३ ॥ नास्स विसुधी पा एगंतन व्याo :-- जो कहेशो के, श्रात्मा ज्ञानरूप बे. तेथी ज्ञाननी एकांत शुद्धताने alt मा पण एकांत शुद्ध थाय छे. एम न कहेवुं. केमके, ज्ञान ते श्रात्म जिवराणं ॥ वो ॥ १२१ ॥ ४१ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. रूपज होय. केमके, आत्माविना ज्ञान रहे नथी. अने आत्मा जे २ ते ज्ञानस्वरूप पण होय. ने तदन्यस्वरूप पण होयने: ए हेतुथी केवली ज्ञानादिगुणने स्वनावेकरी गुम पण . अने अव्याबाधादिगुणना स्वनावे अ शुक्ष पण . एम जाणवू. ॥ १२३ ॥ एवं परमप्पत्तं नाणाश्ज्वारगं मुणेअवं ॥ सवह परमप्पत्तं सिक्षाणं चेव संसिद्ध॥१४॥ व्या:-- एवी रीते केवलीने परमात्मापणुं ज्ञानादिकगुणेकरी देशथीज जाण g; सर्वथा परमात्मा ते लिपज कहेवाय. माटे आत दोषना विरहथी आठ गुण तेनेज प्रगट थायले. आत्मा त्रण प्रकारनो होय. एक बाह्यात्मा, बीजो अं तरात्मा, अने त्रीजो परमात्मा, आत्मबुद्धिथकी जे कायादिकनुं ग्रहण थायडे, ते बाह्यात्मा कहिये. शरीरादिकनो अधिष्ठायक जे चेतन ते अंतरात्मा कहिये; अ ने जे सर्व नपाधिरहित शुक्ष आनंदमय होय ते परमात्मा कहिये. यतः “आ त्मधिया समुपात्तकायादिः कीर्त्यते अत्र बहिरात्मा कायादेशमधिष्ठायको नव त्यंतरात्मा तु चिद्रूपानंदमयो निःशेषोपाधिवर्जितः शुदः अप्रत्यदोनंतगुणः पर मात्माकीर्तितस्तदरिति योगशास्त्रे. “ केटलाएक एम कहे के, जे मिथ्यात्वा दि परिणामवान होय ते बाह्यात्मा कहिये : जे सम्यक्तादि परिणामवान होय ते अंतरात्मा कहिये ; अने जे केवल ज्ञाननिधान होय ते परमात्मा कहिये. मि थ्यात्वादि त्रण गुणताणा सुधी बाह्यात्मा कहेवाय: अविरतिसम्यग्दृष्टिनाम ना चोथा गुणगाणाथी लईने दीपमोहनामना बारमा गुणवाणासुधी अंतरा त्मा कहेवायले: माटे मिथ्यादृष्टिने पण निश्चयथी सम्यग्दर्शन तथा केवल झा न जे. ते शक्तिएकरी अंतरात्मता तथा परमात्मताने पामेजे. केमके, अविरति सम्यग्दृष्ट्या दिकने पण निश्चयथी केवल ज्ञान . अने बाह्यात्मा ते नूतपूर्वनये करी कहेवायजे. केमके. तेने मिथ्यादर्शन पर्याय पूर्वे थयावे. जेम मधुथी न रेला घटमांथी मधु कहाडी लीधा पनी पण मधुघट कहेवायले. ते न्याय अहिं पण जाणवो. व्यक्तं परमात्माते बाह्यात्मा तथा अंतरात्मा पूर्वतनयथी कहेवाय . केमके, तेने मिथ्यादर्शन तथा सम्यकदृष्टयादि ए बन्ने पर्याय पूर्वे थयावे.॥१२४ तस्स य सहावसिक्षा, किरिआ गुण करण जोग अदिगिव ॥ कम्मुगुणी आविहवे, मुंजणकरणं तु अदिगिच्च ॥ १५ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममत परीक्षा. ३२३ व्या० :- ते केवलीने गुणकरण श्राश्री स्वनावसिद्ध क्रिया होय. तेने केव ली ज्ञानादि गुणपर्याय उपजतां आत्माथी अन्यकर्मादिकारणनी अपेक्षा नथी कालवावादिके तेना कारणपणे सर्व यात्मांतरनूत बें मनोवाक्कायरूप युंज नाकारण याने केवलीने कर्मोपनीतक्रिया पण थायले. माटे ते शेकरी के वल स्वनावसिद्ध क्रियान नथी ॥ १२५ ॥ ग्रह सो सेलेसीए, काणानलदडूसयलकम्ममलो ॥ aria सबच्चिय, ल६सदावो दवइ सि ॥ १२६ ॥ व्या० :- - हवे केवली जे बे ते, शैलेसी अवस्थाने विषे युक्तध्यानरूप अमिएक सर्वकर्मरूपमलने दग्ध करीने यमिएकरी निर्मल किधेलां सुवर्णन पठे स था लब्धस्वनाव थईने सिवपर्यायनो नजनार थायबे ॥ १२६ ॥ तस्स वर नाण दंसण, वर सुद सम्मत्त चरण निच्च विई ॥ अवगाहाणंता, मुत्ताणं यई प्रविरियं च ॥ १२७ ॥ व्या० :- ज्ञानावरणीयादिक प्राठकर्मथी जीवने अज्ञानादिक दोष होय ते नाश पाम्यापी सिने या याव गुण प्राप्त थाय:-- पहेलो ज्ञानावरणीय कर्म ना की अनंत केवलज्ञान उत्पन्न थायले; बीजो दर्शनावरणीयकर्मना दय अनंत केवलदर्शन उत्पन्न थायले; त्रीजो वेदनीयकर्मना कयथी कायिक स म्यक्त उत्पन्न थायले चोथो चारित्रमोहनीयकर्मना दयथी कायिक चारित्र न त्पन्न थायले; पांचमो ग्रायुःकर्मना दयथी अक्षय स्थिति उत्पन्न यायले ; ब st नामकर्म तथा गोत्रकर्म ए बन्नेनो दय थयाथी एक सिद्धावगाहक स्थानने वि पे की शर्करानी पठे अनंत सिद्धावगाहना उत्पन्न याय; यहीं मोहनीयकर्मना थी बे गुण उत्पन्न यायले एम कयुं, तथा नाम खने गोत्र ए वे कर्मना दयथी एक ज गुण उत्पन्न थाले एम कयुंबे ; ए ठेकाणे स्वपरिभाषाज शरण बे. ॥१२७॥ थिरयावग्गढाव, पत्तेयं नामगोत्तकम्मखए ॥ चरणंविच्य मोदखए, इ ६ गुणत्ति विंति परे ॥ १२८ ॥ · व्या०:- केटलाएक मोहनीयकर्मना यथी एकज चारित्रगुणमानेबे, त था नामकर्मना यथी यात्मप्रदेश स्थिरतारूप गुण कहेले; तेमज गोत्रकर्मना Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ अध्यात्ममतपरीदा. यथी अवगाहना गुण मानेले. ॥ १२ ॥ य जे आचार्य सिक्ने चारित्र गु ण नथी मानता, ते सूत्रनुं अवलंबन करीने पूर्व पद करे: नणु सिद्धांते सिहो, जो चारित्ती अ णो अचारित्ती॥ नपिन ववदारणया, पिन होई चारित्ती ॥१२॥ व्या:- “ सिके यो चारित्ती णो अचारित्ती " ए सूत्रनेविषे सिमने चारित्री नो अचारित्री कह्योले, एवं वचन तो चारित्र न होय तो संनवे, जेम नव्यत्व न ही होवाथी जव्यत्वने ठेकाणे अजव्यत्व कहेवायले, तेम बतां सिमना गुणोमांचा रित्रनी गणना केम कीधी ? ॥१२॥ अ० कोईएक ए सूत्रनुं समाधान करे: नणु श्द देसणिसेहे,णो सदो तेण तस्स देसस्स ॥ अनु णिसेहो किरिया,रुवस्स प सत्तिरूवस्स ॥ १३०॥ व्या:- “ णो चारित्री णो अचारित्री" ए वाक्यमांना “ नो" शब्दथी देश नो निषेध थायडे. एटले चारित्र बे प्रकारचें होय बे, एक क्रियारूप ने बीजो परि पामरूप ले. तेथोमानां क्रियारूपचारित्रनो सिनेविषे निषेध ; परंतु शक्तिरूप चारित्रनो निषेध नथी ; एम जाणवू.॥ १३० ॥ अ० केवलीनेविषे क्रियारूप चा रित्र ले, परंतु शक्तिरूप चारित्र नथी एम कहेवू नही ते कहेजेः ज किरियारूवं चित्र, चारित्तं व पायपरिणामो ॥ तो किरियारूवं चित्र, सम्मत्तं णायपरिणामो॥१३१॥ व्या:- जे प्रेदोत्प्रेक्षादिक्रियाजे, ते चारित्र कहिये ; अने तऽपयोगरूप चा रित्र ते नावचारित्र कहिये, नावचारित्र ज्ञानरूपज बे. त्यारे निशंकताद्याचाररू प जे क्रिया; तेज सम्यक्त कहिये, अने श्रद्धानपरिणाम ते ज्ञान कहिये, एम निर्णय करतां ज्ञान तथा दर्शननो नेद थाय नही, ज्यारे आत्मगुणरूप सम्यक्त ने त्यारे चारित्र पण आत्मगुणरूप केम न कहिये ! अतएव मरुदेवादिकने बाह्याचा रविना पण चारित्र संनवेजे. ॥१३१॥ अ० " इह नविए नंते, चरित्ते परनविए चरि ते, तज्जयनविए चरित्ते गोयमा, इह नविए चरित्ते; णो परनविए चरित्ने पो तड्न यनविए चरित्ते" एवां जगवती सूत्रनां वचनोए करी चारित्र नवाननुगामी कह्युजे. माटे मोक्षनेविषे चारित्र संनवे नही, एम जे कहेने, तेनुं समाधान बावीरीते : Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३२५ जं पुण तं श्द नविश्र, तं किरियारूपमेव णेयत्वं ॥ अहवा नवो ण मुको, णो तम्मि नवे अं अदवा ॥१३॥ व्याः-जे चारित्र इह नविक कह्युजे, ते कियारूप जाणवू : अने बीजु जे मो हनीयकमना क्यथी उत्पन्न थाय ते चारित्र मोदनेविष होय, तेनी अमे प ण ना कहेता नथी, अथवा मोदना नवमां विवदा करी नथी माटे इह नविक चारित्र कह्यु, अथवा मोदनेविषे चारित्र तो बे, परंतु कर्मनिर्जरारूप प्रयोजन तिहां नथी, तेथीज इह नविक कह्यं ॥ १३ ॥ णय मोरकसुदे लथे, तयणुघाणस्स हंदि वेफल्लं ॥ तकारणस्स इहरा, नाणस्स विदो वेफल्लं ॥१३३॥ व्या० चारित्रनुं फल मोद ले, ते पाम्या पनीचारित्र रहेतुं नथी. एम कहेवू नही. थन्यथा ज्ञान- फल विरति , ते पाम्या पड़ी चारित्र रहेतुं नथी; एम कहेवू न ही; अन्यथा ज्ञान- फल विरति , ते पाम्या पडी झानपण संनवे नही. ज्यारे सिघने ज्ञान- फल निश्चयथी लोकालोकप्रकाशरूप ले; त्यारे चारित्र- फल पण निश्चयथी गुदात्मस्वनावानुनवलक्षण शासारू न होय. ॥ १३३ ॥ णेव पश्मानंगो, अदियावदि पूरणमि चरणस्स ॥ सावा किरियारूवे, सुअकरणे जं करेमित्ति ॥१३४॥ व्या सिने जो चारित्र मानिये तो यावङीवतानी प्रतिझानो जंग थशे. ए म पण न कहेवू. केमके, ओडा काले प्रतिज्ञानो नंग थाय ने ; पण अधिक का ले प्रतिज्ञानो नंग न थाय. अथवा ते प्रतिज्ञा क्रियारूपचारित्रनीयज जाणवी. केमके, “करेमि नंते ” एसूत्र श्रुतकरणार्थ कमुले. ते श्रुतकरण गुंजनाकरण रूप चारित्रज अवलंबीने प्रवः जे. गुणरूप चारित्र ते आत्मस्वरूप जे. मोहवि रहथी तेनो आविर्नाव मात्र थाय. ॥ १३४ ॥ अद चरण मनुघाणं, तंण सरीरं विपत्ति जइ बुद्धी ॥ तेण विणा नाणाई, ता तस्स देकअं पत्तं ॥ १३५ ॥ व्याछ जो चारित्र अनुष्टानरूपले, ते शरीरविना सिखनेविषे संनवे नही. एम जो कहिये तो शरीरविना ज्ञानादिक पण सिनेविषे केम संनवे ! पूर्वावस्थामा शरी रथी उत्पन्न थएला झानादिकना नाशना कारणविना सिक्ने ध्रुव कहियेंडे. ॥१३५॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अध्यात्ममतपरीदा. किरिया फलदायगी, खश्यं चरणं वि दोह्न मह नेना सातेण बसचरणं, बसंतरियं तु परिणामा ॥ १३६ ॥ ___ व्या० बीजूं क्रिया ले ते शरीरनामकर्मना नदयथी ने ; शरीरविना किया था य नही. शरीरवमे चारित्ररूप क्रिया थायडे ते बाह्यचारित्र कहेवाय. एवा बाह्यचारित्ररूप शुक्ष जैनसमाचारीरूप क्रियानुं सेवन करीने अनव्य जीव पण न वमां ग्रैवयकसुधी जायले , एवो बाह्य चारित्रनो महिमाबे. अने केवलीने तो का | यिक चारित्र कडं. माटे ते बाह्यचारित्र कहेवाय नही; किंतु ते शुभ यात्मप रिणामरूप होवाथी ए अंतरंग चारित्रज कहेवाय ॥ १३६ ॥ आया खलु सामाश्य, आया सामाश्अस्स अघोत्ति ॥ तेणेव इमं सुत्तं, नास तं आयपरिणामं ॥१३॥ व्या “ आया सामाईए आया सामाश्यस्त अहे" ए सूत्र पण चारित्रने यात्मपरिणामरूपज कहेले. परंतु बाह्यक्रियारूप नथी कहेता ॥ १३७ ॥ णय खश्यं विचरितं, जोगिणिरोदेण तं विलयमेई ॥ अम्मद विदलं पत्तो, विरदो चारित्तमोहस्स ॥ १३० ॥ व्या० केवलीने जे दायिक चारित्र नत्पन्न थायजे, ते ज्यारे योगनो निरोध करी ने मोदनेविषे गमन करेले, तेना प्रथमसमयमां नाश थायजे. एम कहेवू नही. केमके, दायिकनावनो नाश थतोज नथी. जो एम न मानिये अने दायिकना वनो नाश मानिये तो चारित्रमोहनीयकर्मनो नाश कहेवाशे नही. तेम बतां बलेकरी नाश अंगीकार करयुं तो पण ते निरर्थक थशे. केमके, चारित्रमोहनी यकर्मना नाशथी दायिक नावतो नत्पन्न थयोनही त्यारे ए नाशपणुं गुं काम नु ? जेम ज्ञानावरणीयकर्मना नाशनुं फल केवल ज्ञान ले; तेम चारित्रमोहनीय कर्मना नाश- फल यथारख्यात चारित्र जे ते जो सिनेविषे न होय, तो मोद नीयनो नाश निष्फल कहेवाशे ॥ १३७ ॥ तेणं सुवन्गे, चरणं नाणान दंसणं वनं ॥ कारणकजविनागा, संतंतमिय किं न सिधेसु॥१३॥ व्या० ते कारण माटे शुखोपयोगरूप चारित्र यद्यपि उपयोगरूपताज्ञानथी अन्यथा , तथापि तेश्रोमां कारणकार्यनावनेद ले. ज्ञान चारित्रनुं कारण - Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३२७ बे, तेम चारित्र ज्ञाननुं कारण बे; जेम सम्यक्त तथा ज्ञानना विषयोमां नेद न थी, अर्थात् बन्नेो एकज विषय बे, तथापि तत्वरोचकरूप ते ज्ञान कहेवायबे, तथा तत्वरुचिरूप ते सम्यक्त कहेवाय. एवो बन्नेनो नेद बे. तेम ज्ञान अने चारित्रनो पण नेद जाणवो. तेमज ज्ञानावरणीयादिक कर्मोनो नेद पण संवे बे एवी रीते ज्ञानथी अन्य चारित्र उपयोगरूपने ज्ञानथी अनन्य अनेकांतस्वरू पसिनेविषे केम न थाय ॥ १३९ ॥ अ० ए प्रमाणे सिद्धनेविषे चारित्रनी स मर्थना करी, ते उपर सिद्धांतपने अवलंबीने पूर्वपदी समाधान करेले. एच समादाविदी, जो मूलगुणेस दुज थिरजावे ॥ सो परिणामा किरिया, जुंजणकरणं पचिंतो ॥ १४० ॥ व्या० मूलगुणनेविषे जे स्थिर नावरूप बे, तेज चारित्र क्रियारूप कहेतुं. मके, ते मनोवाक्काययोगरूप गुंजनाकरणनी अपेक्षा करे. कोई पूढे के, एम कह्याथी वीर्यरूप चारित्र थाय. ते संनवे नही. जेम झानाचारादिकथी ज्ञाना दिक अन्य बे, तेम चारित्राचारथी चारित्र पण अन्यज संनवे. तेने एम कहें के, जो एम कहिये तो वीर्याचारथी वीर्य पण कां अन्य न कहिये ! जो कहेशो के, योगरूप चारित्र होय तो ते उपशमिक जावे केम थाय ! केमके' योग ते नामकर्मना उदयिकनावे वर्त्तेबे, उपशमिक नाव तो मोहविना अन्य कर्मनो या यज नही. एम पण. न कहेतुं, केमके, योगपरिणाम विशेष पण चारित्रमोह नीयकर्मना उपशमादिकनी नियमेंकरी अपेक्षा करेले ते उपशमादिक नावेज कहिये, केमके, प्रधाननी अपेक्षाए व्यवहार होय. अतएव इंडियपर्याप्त उ दय जघन्य पण इंडियप्रधाननी अपेक्षाए शास्त्रमां क्षायोपशमिक कहेवायवे ॥ १४० असद वक्कजडाएं, चंमाणं चंमरुद्दपनईणं ॥ वेसिया चारितं वनं गोत्ति काकणं ॥ १४१ ॥ व्या० जो योगस्थैर्यरूप चारित्र न कहिये, घने शुद्धोपयोगरूप चारित्र क हिये, तो वक्र जमने चारित्र केम संनवे ? केमके, तेने तथाविध माया अ नोपयोगरूप बे. अने ते तो शुद्धोपयोगनो नेद बे, तथा क्रोधमोहनीयक मैना परवशे जे चंमरुाचार्यादिक सहजे कोपनशील बे, तेने पण चारित्र केम संभवे ? केमके, तेने पण अनोपयोग बे. मूलगुणने विषे योगस्थैर्य ते तेने पण संजवे. जेम वा अनिएकरी कम थाय, तो पण वज्रपणुं मूके नही. जे Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अध्यात्ममतपरीक्षा. म यथाविध कषायथी अस्थिरता पण कषायपरिणति प्रमादरूप तेने थयो, तो पण योगस्थैर्यनो घात थाय नही. जो योगक्रियारूप चारित्र कहिये तो ते मरुदे वादिकने केम संनवे ? एवो संदेह पण न करवो. केमके, मरुदेवादिकने पल संसारनिवृत्तिरूप मनोयोगपरिणतियुक्त बे. उक्तंच. “जगवदर्शनानंद, योगस्थै मुपेयुषी, केवलज्ञानमम्लान, माससाद तथैव सा.” इति योगशास्त्र वृत्तौ ॥ १४१ ॥ चरणं जइ नवगो, जिला ता ढुंति तिन्नि नवगो ॥ दो तनावे, तं तिस्स पकपणा मोहा ॥१४२॥ व्या० जो शुद्धोपयोगरूप चारित्र कहिये, तो केवलीने या त्रण उपयोग हो वा जोइये. ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, तथा चारित्रोपयोग. इम सामान्यथी प ए तेर उपयोग थवा जोइये. अने शास्त्रोनेविषे तो बार उपयोग कह्यावे. ज्ञा न तथा दर्शनमांज चारित्र जेलिये तो त्रीजुं कयुं चारित्र कहीचं. जे कहिये ते प्रयासमात्र थाय. जो साकारोपयोग चारित्र जेलिए तो साकारोपयोगना यात नेद पण संनवे उपयोगरूप चारित्र मान्याथी इत्यादिक अनेक दूषण याय ॥ १४२ ॥ ० जो वीर्यरूप चारित्र कहिये तो पण शैलेश अवस्थाने विषे ते केम संजवे ! केमके, ते समय विषे प्रवृत्तिरूप वीर्य नथी. एम जे कहेबे, तेनुं समाधान करे. सेलेसीए जत्तो, णिवित्तिरुवो सचेव थिरजावो ॥ यसो सिद्धाणं पिय, जं तेसिं वीरित्र्यं चि ॥ १४३ ॥ व्या० शैलेश अवस्थाने विषे यद्यपि रूप यत्न नथी, तथापि योगनिरोधथी नि वृत्तिरूप यत्न बेज, तेज परम स्थिरनावरूप चारित्र बे, ते स्थिरनाव सिद्धने नथी, केमके तेनो वीर्य नथी, माटे चारित्रने दानादिक पांच लब्धिए क्षायिक ना व सादिसांत कह्याने, तथा सूत्रमां पण सिद्ध वीर्य कह्यावे. ॥ १४३ ॥ To जो चारित्र क्रियारूप कहिये, तो प्रक्रिया मोदकारण कही केम संनवे ? यतः " साणं नंते किरिया किं फला : गोयमा, सि-5गमणपतवसा एफला पन्नता” एह जे कहेले, तेनुं समाधान करेबे: अंते तकिरिया, सैलेसी अकिरियत्ति एगधा ॥ नाकिरिच्याहि मोरको, एत्तो चि जुज्जए एवं ॥ १४४॥ व्या० अंतक्रिया, शैलेशी तथा प्रक्रिया ए सर्व शब्द एकार्थक कह्या बे. यंत क्रिया एटले सकलकर्मध्वंसरूप बेलुं प्रयोजन; जेथी कोई अन्य क्रिया बाकी रहे Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३ २० नही ते; शैलेश एटले मेरुपर्वत, तेनी पठे जे निश्चल व्यवस्था ते शैलेशी कहेवाय; जेवस्थाने विषे प्रवृत्तिरूपक्रिया न होय ते प्रक्रिया कहेवायवे यतएव 'ज्ञानक्रियायां मोक्षः " ए वचन युक्त बे. केमके, सर्व संवररूपक्रिया यक्रिया रूपज बे ॥ १४४ ॥ ० कोइ याशंका करे. 66 नए जोग निरोहेणं, चारितं सासयं परं होऊ ॥ मह तेण ण मोरको, ननव काले प्रसंतेां ॥ १४५ ॥ व्या० परमार्थताथी चारित्रनो प्रतिपक्षी यद्यपि चारित्रमोहनीयकर्म बे, तथा पि जेम चोरनी साथे रहेनारो चोर पण कर्माकित थायडे, तेम मोहना सहचा रथी योग पण चारित्रना विरोधी बे. माटे योगना निरोधेकरी परम यथाख्यातचा रित्र शैलेशीने चरमसमये कपजे ते शाश्वतचारित्र सिडने पण होय. जो ते चा रिते समय विषे उत्पन्न थईने आागल मोह थवाना समये नाश पामतुं होय तो ते उत्पन्न थवानुं प्रयोजन शुं ? तथा जो कार्यना समये कारण न होय तो कार्यनी उत्पत्तिपण केम थाय ? ॥ १४५॥ कई बिंति मुणी, सहावसमव दवे चरणं ॥ तं लवसहावाएं, सिद्धाणं सायं जुतं ॥ १४६ ॥ to लाएकक के, पूर्वोक्त दोषने सीधे युद्धोपयोगरूप चारित्र थाय नही. स्वनावसमवस्थानरूप चारित्र होय. ते यात्मस्वभाव यविरत्यादि दशा वादन की बे. ज्यारे चारित्रमोहनीयकर्मनो विजय थायवे, त्यारे ते श्रात्मस्वनाव प्रगटेले. ते लब्धस्वनाव सिने शाश्वतरूप चारित्र युक्त बे. ॥१४६॥ उ० ए कहेला परमतनुं समाधान करे : चरणरिणो ण जोगा, अब समाएण सव संवरणं ॥ सि तम्म सहावे, समवाति सितो ॥ १४७ ॥ व्या० जो एम कहिये के, योगचारित्रना विरोधी बे, तेथी योगनो निरोध कथा थकी परम चारित्र ऊपजे बे. ए कहेतुं योग्य नथी: केमके जो सहचारथी योग चारित्रना विरोधी थाय: तो दर्शनना पण विरोधी थवा जोये तेम तो न कहेवा य. ज्यारे शैलेशीवस्थाने विषे सर्व संवर कहेवाय बे, त्यारे तेज समयने विषे सकल कर्मनिर्जरा कारण चारित्र बे, एवा अनिप्राये स्वनावसमवस्थानरूप चारित्र पसि - कहे जोये. के जो योगपरिणाम थी जिन्नस्वनाववान चारित्र सिद्ध होय ॥ १४७ ॥ ४२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० अध्यात्ममतपरीक्षा. नज्जुसुए मएणं, सेलेसीचरमसमय नावित्ति ॥ त्र्यंत मन च्चिय जहो, देऊ देऊस्स कज्जम्मि ॥ १४८ ॥ व्या० एम जे सुंबे के, शैलेसीना बेला समयनेविषे चारित्र उपजेबे, ते ऋजु सूत्रनयनामते क्षणपर्याय जंगुरबे तथा कारणनो अंत्यसमयज कार्यनो हेतु बे. ए प्रियेकरी मोहना दययीज सादिसांत कायिकनावरूप बीजुं चारित्र न पजे बे ॥ १४८ ॥ य चरण मोहबंधो, सिक्षणं चरणाण संताणं ॥ विरय पच्चन सो इपसंगी हवे इहरा ॥ १४९॥ व्या० सिने चारित्र नहीं होय तो तेने चारित्रमोहनीयकर्मनो बंध थवो जोये; माटे एम न केहेतुं केमके विरति ने विरति ए वे स्वतंत्र परिणाम बे ॥ १४९ ॥ जंच जिलकणं ते नवइयं तच लकणं लिंगं ॥ ते विषा सो जुज्जइ धूमे विणा दुआ सुव ॥ १५० ॥ व्या० " नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा; वीरियं नवगो य, एवं जीस्स लरकणं " एवीरीते श्रीउत्तराध्ययनसूत्रनी गाथाएकरी जीवनुं लक्षण चा रित्र कळे. माटे ते सिने पण होवुं जोये. एम कहेतुं नही. केमके चारित्र जे बे ते उपयोगनी पठे यावत् इव्यनावि लक्षण नथी. यांही लक्षणशब्दनो लिंग जावो. जेम धूम अग्निनो लिंग बे. तेम चारित्र जीवनो लिंग कांबे. जेम धूम विना अनि तप्त लोहने विषे होयबे, तेम चारित्रविना जीवपण होयने, एम कोई विरोध नथी, अतएव अंतरंग लक्षण कहीने बाह्य लक्षण कहेवाने र्थे उपर कहेली गाथा उत्तराध्ययनवृहद्वृत्तिनेविषे अवतरण करेली . ॥ १५० ॥ य aियस्स नाणे अनेयवित्ती कढं चरणविरहे ॥ संतं चित्र परिवज्जइ फलेण जं सोय संतं वि ॥ १५१ ॥ व्या० जो सिनेविषे चारित्र न होय तो ज्ञानमां चारित्रनी खनेद वृत्ति केम नवे ? केमके, सकलादेशे बतांज सर्व धर्म एक धर्मवाचक शब्दे बोले एवी या शंका पण न करवी, केमके, ते समयमां चारित्र नथी तो पण चारित्रनुं फल बे. | माटे चारित्र बे एम मनायबे, ए नयना मते चारित्रना फलविना बतें चारित्र प तुं माने. ॥ १५१ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. विप्रायाचरणं चि आया सामाइयंति वयणं ॥ दवियाया नया चरणाया सवथोकुत्ति ॥ १५२ ॥ व्या० "छाया समाईए, छाया सामाईअस्स हे " ए सूत्रने विषेयात्मपर्यायरू प जे चारित्र, ते इव्यार्थिक नयना यादेशे आत्मरूप कयुंबे, माटे ते चारित्र यावत् इव्यनावी यात्मस्वनावरूप न जाणवुं केमके, इव्यात्मा, ते नजनाए चा रित्रात्मा कांबे, तथाहि " जस्स दविद्याया तस्स चरिताया जयपाएति " एवी ते जगवती सूत्रां कांबे, तथा यात्माना जे घाव नेद कह्या बे, तेश्रोमा चा रित्रात्माने सर्वस्तोक कयुंबे, माटे श्रात्मा तेज चारित्र एम न कहेतुं ॥ १५२ ॥ एतो चिय सिद्धाणं, खइम्मि नापदंसणगादं ॥ सम्मत्त जागणं, बहूण दोसा एए संकंती ॥ १५३ ॥ व्या० वली सिनेविषे चारित्र नथी, ते माटेज सिइने काइकनावमां ज्ञान तथा दर्शन ए बेज कह्यांडे. जो कोई कहेशे के, सम्यक्तसमान चारित्रले. तेथी सम्यक्तना ग्रह एथी चारित्रनुं पण ग्रहण थायले. एम कहेतुं नही. केमके, शुद्धोपयोगरूप चारित्रनो पूर्वेज निषेध करो. ने योगस्थैर्यरूप तेहनीज व्यवस्थापना करीबे ॥ १५३॥ म्हंणानिणिवेसा, सिद्धाणं चरणस्स परकम्मि ॥ तद विनणिमो रतीरइ, जं जिणमयमन्न दाकानं ॥ १५४ ॥ व्या० सिने चारित्र नथी, ए पक्षमां यद्यपि मने अनिनिवेश नथी, तथा पि घालुं व्यवस्थापन खाटलासारू करिये बैये के, श्रीवीतरागनां वचन अन्यथा न याय ॥ १५४ ॥ ० एवी रीते सिने चारित्र नथी, एवी समर्थना करो, त्यारे सिना गुणोमां चारित्रनी गणना केम करीबे ? एवा पूर्वपदनुं समाधान करेबे:जवि जइमो सितो, इथं केसिंवि तदवि सूरीणं ॥ सिद्धाणं चारितं, तेसिमए तं मए मिढ़ियं ॥ १५५ ॥ arro यद्यपि सिद्ध चारित्र नथी; एवो सिद्धांत बे, तथापि केटलाएक याचा चारित्र माने, < यतः अन्येतु दानादिलब्धिपंचकं चारित्रं च सिद्धस्यापीचंति, तदाचरणस्य तत्राप्यनावात् श्राचरणानावेपि च तदसत्वे क्षीणमोहादि ष्वपि तद सत्व प्रसंगात् ॥ ततस्तन्मते नचारित्रभावनां सिद्धावस्थायामपि सद्भावेना पर्यवसि तत्वादस्मिन् द्वितीयनंग एव कायिको नावो न शेषेषु त्रिष्वपि " इति विशेषावश्यक ३३१ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. टीकायां" ए आचार्यना मतेकरी अमे सिघना गुणोमां चारित्रनी गणना करीने. ए मत जे जे ते पूर्वमतथी विरु६ डे माटे अप्रमाणज. एम कहेवू नही. केमके, अविजिनपरंपराएं आवेलां जे ए बे मत, ते अनतिशय पुरुषथकी निवारण थाय नही. जो कहेशो के, एक एकनी युक्तिनी समर्थना करतां प्रत्येकमां दोष आवशे, एवो विचार पण न करवो. केमके, जिनवचनकपर अरुचि थयाविना सम्यक्तनो बंश थतो नथी.॥ १५५ ॥ तेसिं सवा किरिआ, सहावसिक्षा पण कम्माणं॥ बहंपि कारगाणं, एगठे समावेसो ॥ १५६॥ व्या ते सिध्ने सर्व क्रिया स्वनावसिम ले, एक पण विनाव क्रियानथी. के मके, कर्मरहित सिने न कारक एक अर्थे विश्रांति पामेले. ते कहेजेः- कथंचित झानथी अन्यथा अत्माज्ञप्तिक्रिया स्वतंत्रपणे करे. माटे आत्मा जे जे तेज कर्ता बे, ए पहेलुं कर्त्तानामा कारक ज्ञप्ति किया स्वतंत्र अात्मानेविषे प्राप्यमाण ले, मा टे तेज प्रात्मरूप कर्म के; ए बीजुं कर्मनामा कारक जेणे करीने ज्ञानस्वनावथी तथा ज्ञप्तिस्वनावे आत्मा क्रिया करे , तेज आत्मरूप करण होवाथी आत्माज कर्ता डे एम जाणवू. ए त्रीजुं करणनामा कारक जे स्वानुफलवेद्यने अर्थे या त्मा कृप्तिक्रिया करेजे, तेज आत्मरूप संप्रदान ले; ए चोयुं संप्रदाननामा कार क जे पूर्वज्ञेयाकारने विश्लेषे उत्तरझेयाकारमिश्रित ज्ञानस्व नाव आत्मा नजेले, तेज आत्मस्वनावरूप अपादान बे. ए पांचमुं अपादाननामा कारक तथा जे झा नरूपगुणनुं नाजन जे आत्मानामे इव्य तेज आधार वे एम जाणवू; ए बहुं आधारनामा कारक कह्यु ए ज्ञान आश्रीन कारक कह्या, एमज सर्व बीजा धर्मों आश्री जाणी लेवु.॥ ५५६ ॥ ते पुण पनरस नेआ, तिनातिबाय सिचनेएणं॥ तब श्यीणं सिद्धिं, ण खमा खवणो अनिणिवेसी॥१५॥ ___ व्या० ते सिमना पंदर नेद कह्याने, यतः तीर्थसिह, अतीर्थसिह, तीर्थकर सिह, अतीर्थकरसिह, स्वयंबुझिसिह, प्रत्येकबुझिसिह, बुधबोधितसिह, स्त्रीलिंग सि६, पुरुषलिंगसिह, नपुंसकलिंगसिक्ष, स्वलिंगसिक, अन्यलिंगसिह, गृहलिंगसि ६, एकसिम, तथा अनेकसिह. हवे एनो अर्थ करे तीर्थ एटले जे चतुर्विध संघ, अथवा प्रथम गणधर उत्पन्न थया पनी जे सिक्ष थया ते तीर्थसिक्ष; तीर्थनी नत्प Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षाः ३३३ त्ति थया पहेला अथवा तीर्थनो विवेद थया पनी जे सिह थया ते अतीर्थसिद, तीर्थकरपदवी जोगवीने जे सिह थया ते तीर्थंकरसि; सामान्य केवली बता जे सिम थया ते अतीर्थकरसिह, बाह्य कारण दीवाविना जे पोतेज जातिस्मरणा दिकथी प्रतिबोध पामीने सिम थया ते स्वयंबुझिसिप्रत्येक बाह्य कारण व पनादि देखी प्रतिबोध पामीने जे सिह थयाने ते प्रत्येकबुदिसिह, बुधजे | गुर्वा दिकथकी बोध पामीने सिम थया ते बुधबोधितसि६, स्त्रीलिंगना त्रण | प्रकार . वेद, शरीरनिवृत्ति, तथा पथ्य, ए त्रणमां अत्रे शरीरनिवृत्तिनो अधि | कार लेवो. वेद तथा पथ्यनो अधिकार नथी. केमके, ए बे प्रकार मोदना अंग नथी माटे शरीरेकरी वर्तमान बतां जे सिह थया ते स्त्रीलिंगसि; पुरुष शरीरे करी वर्तमान बतां जे सिह यया ते पुरुषलिंगसि; नपुंसकलिंगे करी वर्तमान बतां जे सिह थया ते नपुंसकलिंगसि६ ; रजोहरणादिकस्वलिंगनेविषे व्यवस्थि त बतां जे सिह थया ते स्वलिंगसि६ : परिव्राजकादिक चार अन्यलिंगनेविषे जे | सिह थया ते परलिंगसि६ ; गृहस्थलिंगनेविषे वर्तमान बतां जे सिह थया ते गृ हस्थनिंगसि ;जे एकला सिम थया ते एकसि; अने जे अनेकनी साथे सिम थाय ते अनेकसि कहेवायले. ए पंदर नेदमांना स्त्रीलिंगसिने अनिनिवेशने वश थया थका दिगंबरीश्रो मानता नथी. ॥ १५७ ॥ तस्सम्मयथीसिचा, जे पुचि चेव खीषयीवेआ ॥ एवं पुरिस णपुंसा, थी पजाएण णो सिद्दी ॥१५॥ चरणविरदेण हीण, तणेण पाव पयडीण बाढल्ला ॥ मणपगरिसविरहान, संघयणानावचेव ॥१ ॥ व्या ते दिगंबरीयोन आई मत ले के, स्त्रीलिंगसि तो कहिये के जो पूर्वे स्त्रीवेदनो क्य करी अने पडी बन्ने वेदनो दय करी सि६ थतां होय; तेमज न पुंसकसि६ पण तो मानिये के जो प्रथम नपुंसकवेदनो तथा पढी बन्ने वेदनो दय करी सिम थता होय ; शरीरे करितो पुरुषज सिह थायडे ; परंतु स्त्रीना प ोये करी सिक्ताने पमातुं नयी. केमके स्त्रीने चारित्र होतुं नथी. चारित्र जे ले ते शुकोपयोगरूप याचेलक्यमूलगुणमयले; अने स्त्रीतो अचेलक थायज नही. त था पुरुष थकी स्त्रीहीन होवाथी पण तेने सितानो संनव नथी. नपुंसकत्व तथा स्त्रीत्व महापापे करीने अर्जायडे, एम पापप्रतिनी बाहुल्यताने लीधे पण स्त्रीने Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. - - मुक्ति थाय नही. तथा जेम स्त्रीने सातमी नरक पृथवीए जवायोग्य तीव्र अगुन म नपरिणाम थता नथी: तेम मुक्ति पामवायोग्य तीव्र गुनमनपरिणाम पण स्त्रीने थता नथी. माटे स्त्री सिम थायज नही. अने सातमी नरकप्टविए स्त्रीथी जवातुं नथी, माटे तेने वचषननाराच संघयण नही होवाथी पण स्त्रीने मुक्तिनो संनव नथी. ॥ १५ ॥ १५ ॥ एवी दिगंबरीयोनी युक्तिने ग्रंथकर्ता दूषण दियेजेः तमिबा वेयखन, सरीरणिवत्ति णियमणियनत्ति ॥ चरणविरहाश्या पुण, सवे तुह दोश्ओ सिधा ॥ १६ ॥ व्या दिगंबरीयो स्त्रीसिक्षादिकना प्रसिह अर्थने मूकीने जे अन्य अर्थ करेले ते संनवित नथी. केमके, जेने स्त्रीवेदादिकनो पूर्वेज क्य बे, एवा नपुंसकादिक शरीरेकरी वर्त्ततां श्रेणी करे तेनेविषे , माटे वीसणपुंसगवेया ” इत्यादिक स्व शास्त्रवचन समर्थवाने अर्थे ए कल्पना केवल कदाग्रहरूप जणाय; जो एम कहिये के, नदी वेदनोज पूर्वे क्य करवो तो तेनेविषे पण शास्त्रोक्त व्यवस्था संनवे नही. शास्त्रोमां तो एम क झुंडे के, जो पुरुष श्रेणिनो आरंन करे तो तेणे पूर्वे नपुंसकवेदनो दय करवो, पड़ी स्त्रीवेदनो, पढ़ी हास्यादिक न प्ररुतिनो, अने पडी पुरुषवेदना त्रण खेम करी तेमांना बे खंमनो एकवार दय करवो, अ नेत्रीजो खंम संज्वलन क्रोध मान खपाववो. जो स्त्रीए दपक श्रेणिनो यारंन कर वो होय तो तेणे पूर्वे नपुंसक वेदनो क्ष्य करवो, पनी पुरुष वेदनो, पडी हास्यादि कब प्रतिनो अने वट स्त्रीवेदनो क्ष्य करवो जोये. अने जो नपुंसके दपक श्रेणीनो आरंन करवो होय तो तेणे पूर्वे स्त्रीवेदनो क्य करवो, पढी पुरुषवेद नो, पडी हास्यादिक उ प्रतिनो, अने सरसेवटे नपुंसकवेदनो क्ष्य करवो जोये इत्यादिक रीति जागी लेवी. ॥ १६॥ अ० स्त्रीलिंगे सिह थवातुं नथी, तेमां चारित्रविरहादिक जे हेतु कह्याने, ते असिमले, एम कहेजेः गंति यमित्रीणं, उत्तं संजमो चिया लज्जा ॥ तासिं चरित्तविरदे, चानवामो कहं संघो॥१६१ ॥ व्या० स्त्रीने चारित्र न होय तेमां कारण गुंजे ? स्त्रीनेविषे जे पुःशीलादिक दोष होयडे ते एकांत नथी ; केमके, परमशीलवान जे सुशीलसादिक श्राविका थई ले ते Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीदा. ३३५ उनी नगवंते पोते प्रशंसा करी. वला स्त्री जेम केटलाएक पुरुष पुष्ट तेम पण महारंन महापरिग्रही देखायजे, माटे स्त्रीन इष्टत्व कांई एकांते नथी. जो कहेशो के, स्त्रीने लक्जा मटती नथी, माटे चारित्र थाय नही; एम पण न कहे ; केमके, नग्नताज चारित्रांग नथी, विधिए करीने धर्मोपकरणोनुं धारण करतां चारित्रनो नंग थतो नथी. जो कहेशो के, स्त्रीन शरीर हिंसायतन ले, माटे तेने हिंसा नथी: एक हे, पण असन्यपणानुं बे. केमके, अशक्यपरिहारस्थलनेविषे हिंसा थाय नही. प्रमा दना योगे हिंसा थाय , प्रमादनुं जे व्यपरोपण तेज हिंसा कहिये. वली जो स्त्रीने चारित्र न मानिये तो चार प्रकारनो संघ केम संनवे? जो वेषधारिणी श्रा विकाज साध्वी कहिये तो चारित्र जाण्याविना जे वेषधारण कर ए तो मोटी विटंबना कहेवाय ! जो कहेशो के, चारित्रलेश स्त्रीने थाय दे, तो तेमां अमे प ण ना कहेता नथी, पण जो कहेशो के, स्त्रीने चारित्र मोदनुं कारण थाय नही तो ते कदाग्रह मात्र जाणवु. केमके, अध्यवसाय विशेषेकरी पुरुषनी पठे स्त्रीने पण चारित्रनो उत्कर्ष होय : एमां कांई विरोधता नथी. ॥ १६१ ॥ हीणतं पुण माणं, लदिनदि बलं च अदिगिच्च ॥ णो पडिकूलमसिई, तिरियणसारम्मि संतम्मि॥२६॥ व्या स्त्रीने जे पुरुषथी हीनपणुं कह्युले, ते जो विशिष्ट पूर्वज्ञाननी अपेक्षा ए कहिये तो ते प्रतिकूल नथी, किंतु अनुकूलज बे. केमके, तथाविध झानविना पण गुरुपरतंत्रताए माषतुषादिक चारित्रना पालणार थयाने जो लब्धिनी अपे छाए कहिये तो पण प्रतिकूल नथी, किंतु अनुकूलज बे, केमके, तथाविध लब्धि विना पण मानुष्यादिक कृतकृत्य थयाले ; जो शदिनी अपेक्षाए कहिये तो पण प्रतिकूल नथी किंतु अनुकूलज . अन्यथा तीर्थकरादिकनी अपेक्षाए अमहार्दिक गणधरादिक ब्रे, तेने मुक्तिनो संनव केम थाय ? स्त्री पुरुषने अवंद्य , माटे ते चारित्र दिए करी हीन होवी जोये, एवी आशंका पण न करवी, अन्यथा शि ष्यादिक आचार्यादिकने अवंद्य ने, तेपण चारित्रदिए करी हीन होवा जोये, जो बलनी अपेक्षा कहिये तो तेपण प्रतिकूल नथी, किंतु अनुकूलज डे, केमके, स्त्री करतां निर्बल जे पंगुप्रमुख ते पण अध्यवसायविशेषे मुक्ति पामेले, जो कहेशो के, हीनबलने विशिष्टादिरूप चारित्र केम थाय! एमपण न कहेवू, केमके, चारि त्र ते यथाशक्ति आचरणारूप जे; माटे ते स्त्रीने पण संनवे ले, उक्तंच “वादिवि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. कुर्वणत्वादिलब्धिविरहे श्रुते कनीयसि च जिनकल्पमनःपर्ययविरहेपि न सिम विरहोस्ती" एणेकरी अनुपस्थाप्यपाराचिंतक प्रायचित्तना अनुपदेशथी स्त्रीने प ण हीनपगुंजे, ए असंबढ़ जाणवू, केमके, योग्यतानी अपेदाए शास्त्रनेविषे वि चित्रतपनो उपदेश बे. नक्तंच “संवरनिर्जरारूपो बहुप्रकारस्तपोविधिशास्त्रे योगचिकित्साविधिरिव कंस्यापि कथंचिउपकारीति ” ॥ १६ ॥ पावाणं पयडीणं थीणिवत्तीय बंधजणगीणं ॥ सम्मत्तेणेव पए पो तासिं पावबदलत्तं ॥१६३ ॥ व्या स्त्रीने जे पापनी बाहुल्यता कही, ते वचन पण मिथ्याडे, केमके, जे वारे स्त्रीपणुं बांध्यु ले. तेवारे यद्यपि बहुल पापप्रकति मिथ्यात्वादिरूप ते ने, तथापि ते प्रकृति जेवारे तथानव्यत्वने परिपाके सम्यक्त गुण पामीने क्य करे तेवारे स्त्रीने पापनी बाहुल्यता नथी. जहांसुधी स्त्रीशरीर होय, तहांसुधी जो तेनां बंधकारण मिथ्यात्वादिक रहे तो स्त्रीए सम्यक्त पण न पाम्युं जोये. जो कहेशो के, पुरुषथी तीव्र काम पण अध्यवसाय , माटे नपुंसकनी पठे स्त्री मुक्ति पामे नही, एम पण न कहेवु. केमके, तीव्र काम पण अध्यवसाय विशेष पामे ; माटे ते मुक्तिनेविषे विघ्नकारक नही होवाथी ए हेतु अप्रयोजक जाणवो अन्यथा स्त्री मुक्ति पामे. केमके, ते नपुंसकथी हीनकाम, माटे तेने पुरुषनी पठे जाण वी. ए हेतु पण अत्रे लागु याय. ॥ १६३ ॥ एण्य तासिं मण विरिअं असुहं च सदं विणेव किटं ॥ तारिसणियमानावा तेण दने चरमदेवि ॥ १६४ ॥ व्या० जो कहेशोके, जेम सातमी नरक पृथवीए जवायोग्य स्त्रीने अद्युन म नोवीर्य नथी, माटे तेने मुक्तिनेविषे जवानो पण तथाविध मनोवीर्य थाय नही. एम कहेवू नही. केमके, एवो नियम नथी, के, जेटलो अधोगति जवानो अध्यव साय थाय तेटलोज ऊर्ध्वगति जवानो अध्यवसाय थाय. केमके, जुजपरी सर्प बीजी पृथ्वीसुधी उत्कर्षथी अधोगतिए जायजे, पदी त्रीजी पृथवीसुधी जायजे. चतुष्पद चोथी पृथवीसुधी जायचे. नरग पांचमी पृथ्वीसुधी आयडे. स्त्री बनी नरक पृथ्वीसुधी जाय; पुरुष अने मब सातमी नरक पृथ्वीसुधी जायले, ए स्त्री तथा पुरुषविना बीजा पूर्वोक्त सर्वे प्राणीयो नत्कर्षथी सहश्रार आठमां देवलोकसुधी उर्ध्वगमन करे. एवी रीते यद्यपि स्त्री सातमी नरक Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३३७ पृथ्वीसुधी जती नथी, तथापि तेने मोदसुरखनी प्राप्ति थायडे एमां कोई विरोध नथी. केटलाएक कहे के, अधोगतिने परमोत्कर्ष होयडे, ते एकांतताथी संनवे नही. केमके, जेवी कारणनी उत्कर्षता होय, तेवीज कार्यनी उत्कर्षता कहेवा | य; एवो नियमले परंतु एथी अन्य कोई नियम नथी. स्त्रीनेविषे जो युदादिक महारंनरूप कारणनो संनव होय, तो सातमी नरक पृथ्वीसुधी जवाय: तेर्बु | कोई कारण नही होवाने लीधे स्त्रीथकी त्यांसुधी जवातुं नथी, किंतु बठीसुधीज जवायले; अने पुरुष तथा मत्स्यनेविषे तेवा कारण होवाथी तेश्रोथी सातमीनर क पृथ्वीसुधी जवाय. एवी रीते अधोगतिनेविषे जवासारू पुरुष अने स्त्रीना | कारणोनी विलक्षणता होवाथी सरखं गमन थतुं नथी, परंतु ऊर्ध्वगतिनेविषे जवासारू बन्नेनां कारणो सरखां होवाथी सरर, गमन थवानो अवश्य संनव . जेम पुरुषनेविषे शीलादिक गुणरूप ऊर्ध्वगमनना कारण होय तेम स्त्रीनेविषे | पण होय. ए हेतुथीज स्त्रीने वजषननाराचसंघयणनो संनव जे. एम न मानवामां कोई युक्ति नथी. ए प्रकारे स्त्रीना निर्वाणना निरोधनेविष दिगंबरीयो | ना हेतुनो निषेध कस्यो ; हवे स्त्रीनो निर्वाण थवामां अनुमान कहेजेः-हरेक व | स्तुना अनुमानमां पद, साध्य, हेतु तथा दृष्टांत ए चार प्रकार होय. एटले ए चार पदार्थोए करी सिह थएली वस्तुने अनुमित कहेडे; अने एचार पदार्थोए करी सिह थवा योग्य वस्तुने अनुमेय कहेजे. जेम के, अग्नियुक्त पर्वत सिद्ध कर वो होय, ते अनुमेय कहेवायजे; अने एज पद कहेवायचे. अनुमान करती वखते “पर्वतम्पदीकत्य, वन्दिमत्वंसाध्यते, धूमत्वात् इतिहेतुः, पाकगृहवत्, य त्रयत्रधूमः तत्रतत्र वन्हिः” पर्वतनो पद करीने तेने अग्नियुक्त सिह करेजे; एमां हेतु पर्वतनपर नीकलतुं धूमाथु बे, जेम रसोई करवाना गृहमा अग्नि होवा थी धूमाथु नीकलेले, केमके, ज्या ज्यां धूमाथु होय त्यां त्यां अग्मि होयडे, ए दृष्टां त . तेम “कांचित्स्त्रीव्यक्तिं पदीकत्य, मोक्षाविकलकारणता साध्यते, दीक्षाधि कारत्वात्, पुरुषवत्, येये दीदाधिकारिणः ते ते मोदा विकलकारिणः” कोईए क स्त्रीनी व्यक्तीने पदय करीने तेने मोदना अविकलकारणवंत लिक करे; एमां दीक्षानो अधिकार हेतु जे; अने पुरुषजातिनी पठे ए दृष्टांत डे, केमके जे जे दी दानो अधिकारी होय ते ते मोदना अविकलकारणवंत होयः ॥ १६ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ अध्यात्ममतपरीक्षा. बस कपिस्सव इवीए कपित्र्याइ सिद्धीवि ॥ ए विणा विसिद्ध चरित्र्यं तासिं तु विसिधकम्मखनं ॥ १६५ ॥ पावं तद चित्तं य पुमफलाए केवली दवे ॥ परमा सुनू राय परमोरालिन देहो ॥ १६६ ॥ व्या० कोई आशंका करे के, जेम जातिनपुंसकने मुक्ति याय नही, तेम स्त्रीने पण मुक्ति यती नथी. एम बतां जो कहेशो के, जेम कृत्रिमनपुंसकने मुक्ति थायले तेम विद्याप्रयोगादिकेकरी युक्त स्त्रीने मुक्ति थायबे; तो तेम पण न संनवे; के मके, स्त्रीने विशिष्ट क्रियानुष्ठान होतुं नथी; विशिष्ट क्रियानुष्टानविना विशिष्टकर्म नो यथाय नहींः ने विशिष्ट कर्मनो दय थयाविना मुक्ति यती नथी. तथा स्त्रीपj जे बे ते पापप्रकृतिरूप नदीनुं करणं बे; ते पुण्यरूप सुरतरुना केवलज्ञा नरूपफलने सेवन करनारा केवलीनेविषे केम संनवे! अर्थात् पापप्रकृतिरूपस्त्री ने केवल ज्ञान संनवे नही. तथा स्त्री परम अशुचिबे, तेने परमोदारिक शरीर पण संनवे नही. केवलीनुं शरीर तो परमोदारिक होय. तेवुं तो स्त्रीनुं शरीर कवाय नही, माटे स्त्रीने केवल ज्ञान केम संनवे ? ॥ १६५ ॥ १६६ ॥ ० शंकाने युक्तिवडे दूषित करेले : एय मयुत्तं जम्दा विचित्तभावा विचित्तकम्मख ॥ चित्तं प्रावं जिलाण पाए गए वित्ति ॥ १६७ ॥ ते व्या० स्त्रीने क्रियाविशिष्टविना विशिष्ट निर्जरा न थाय, एम जे वादिए कह्युं प्रयुक्त a. केमके, नावविशेषे फलविशेषले क्रियाविशेषविना नावविशेष न थाय; एमां एकांतता नथी. केमके, जो शक्तिनो निग्रह करीने किया करिये तो जनावनी हानि थाले, अन्यथा नावनी हानि यती नथी. तथास्त्री पणुं पा परूप बे, एमां पण एकांतता नथी, केमके, सम्यक्तना बजयी मिथ्यात्वादिक पाप नो दय याय. एम पूर्वेकही याव्या बैयेः घणुंकरीने तीर्थकरने विषे स्त्रीपणुं न श्री होतुं, एटले बहुधा स्त्री तीर्थकर यती दीगमां यावती नयी तेथी स्त्रीपणुं पाप रूप बे एम जो कहिये तो विप्रत्वादिक पण तेवांज कहेवा जोये केमके, बहु धा तीर्थकरने विषे विप्रत्वादिकनो पण अनाव होय; अर्थात् घणुंकरीने त्रि यादिक तीर्थकर यएला दीगमां खावे. तेथी युं विप्रादिकने मोनो संभव न Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३३ श्री. परमोदारिक शरीरनो तो पूर्वेज निषेध करचोबे, माटे ते होय के न होय तेनी शासारू चर्चा करवी ! ॥ १६७ ॥ इयची सिद्धी सिद्धा सिदंतमूलजुत्तीहि ॥ ई सर्दता चिक्कणकम्मा मुवा ॥ १६८ ॥ व्या० एवी रीते सिद्धांतमूलयुक्तिए करीने स्त्रीने मुक्ति थायते एवं सिद्ध करयुं मतां जे हवेकरीने ए अर्थनी सदहणा करता नथी, ते चिकला कर्मवाला जावा. एवा प्रकारे स्त्रीनेविषे मुक्तिनी व्यवस्थापन करणाथी सिद्धना पंदर नेदनी व्यवस्था थई थी सप्रसंग सर्व सिद्धनुं स्वरूप कयुं. सिद्धस्वरूपना वर्णनथी परम नावाध्यात्मनुं निरूपण ययुं ने नावाध्यात्मना निरूपणथी ग्रंथार्थ पूर्ण थयो. १६८ to हवे ग्रंथार्थं परम रहस्य कहे : इयं परमरहस्सं एसो सप्पकरागकसवडी ॥ एसा य परा आणा संयमजोगेसु जो जत्तो ॥ १६ ॥ · , व्या० संयमयोगनो जे उद्यम करवो, तेज सर्व शास्त्रना नयविस्तार जाणवानुं फल बे ने एज परम रहस्यनूत बे. यतः “ सवेसिं पिए याएं, बहुविहवत्तव णि सांमित्ता; तं सर्व्वयविसु, जं चरणगुणनि साहू." इत्यावश्यकादौ तथा श्राश्रवो नवहेतुः स्यात् संवरो मोक्कारणं; इतीयमाईती मुष्टि, रदनस्याप्रपंचनम् ; एनो अर्थ:- प्राणातिपातादिक जे याश्रव बे, ते संसारनुं कारणले प्राणातिपा तादिककी विरमवारूप जे संवर ते मोनुं कारण बे: ए परमार्थने विस्तारेकरी जाणवासारूज सर्व शास्त्र बे. माटे जेणे ए अर्थ जाएयो बे ते परमार्थताथी सर्व शास्त्रज्ञ बे एम जाणवुं. अतएव उपशम विवेक संवर ए पदनों अर्थ जाणीने चि लातीपुत्रे निज साध्यो. तथा संयमयोगनो जे उद्यम करवो तेज अध्यात्मरूप सोनानी कसोटी बे; जेम कसोटीए करी सोनानी परीक्षा यायले, तेम क्रियानुष्ठाने करी अध्यात्मनी परीक्षा यायले. ते अध्यात्मेकरी जे विशुद्धि थायले, ते बाह्यका रनुं श्रालस्य करे नही. यतः “ संयमयोगेसु सया, जे पुण संत विरिया विसी यंति कहते विसु चरणा, बाहिरकरपालसा हुंति. " इत्यावश्यके तथा एज श्री वीतरागनी परमप्राज्ञा बे के संयमयोगनेविषे यत्न करवो. जेणे ए यत्न क खो, ते चैत्य कुल गणादिक सर्वनुं कार्य कस्युं, एम जाणवुं यतः " चेश्य कुल गण संघे, यारिया च पवयसुए ; सच्चेसु वि तेा कयं तव संयममुद्धम्मंतो Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ० कोईक कदेशे के, ज्यां सुधी जीवने नव्यत्वनो संदेह होय त्यांसुधी चारि विषे ते केम प्रवृत्ते ? केमके, अनव्य अनेक क्रियाकरे तेथी तेने कष्टमात्र याय परंतु परमार्थथ। तेने कोई फलनी प्राप्ति यती नथी, एवं समाधान करे :आसन्न सिद्धि जीवाणं लकणं इमं चेव ॥ ते ण पवित्तिरोदो नवाजवत्तसंकाए ॥ १७० ॥ "6 या जे जीव थोडा नवे मुक्ति पामनार होय तेनुं एज लक्षणले के, ते विष विषे वैराग्य धारण करीने धर्ममां प्रवृत्ते. यतः 'श्रासन्नकाल नवसि, डिप्रस्स जीवस्स जरकणं इमो; विसयसुहेसु ए रक्त, सवामेण नऊ, मई." इत्युपदेशमा लायां. माटे चारित्रनेविषे प्रवृत्ति याय, त्यारे जीवे पोताने श्रासन्न सिकपणुं जा एक हेवाय, पठी ते नव्यानव्यत्वनी शंकाएकरी गुनप्रवृत्तिनो बाधक केम याय ? किंतु साधकजयाय खने हुं नव्यनुं के अनव्यनुं ? एवी जेने शंका उत्पन्न यायले, ते जीव निश्वये करीने नव्यज जाणवो यतः " अनव्यस्यहि नव्य नव्यत्वशंकाया अनावादित्याचारांगटीकायां.” ए खाशंका तो उलटी चारित्रप्रवृत्तिनो अंग बे ; माटे तेथी कांइ बाधा यती नयी ॥ १७० ॥ ० केटलाएक परवादी एम कहेले के, मोहोपायनेविषे प्रवृत्ति वैराग्यथीज थायवे, ते वैराग्य क्नोगनेविषे संनवेळे; माटे जोगजोगव्या पती तेनो त्याग करीने जो योगमा प्रवृत्ति करिये तो ते सुखथी थई शकेबे ; एम कहेनाराने शिक्षा ने अर्थ कहेते: ३४० जो पुण जोए जोतुं इचो लम्मि पज्जलिता इव ततो असंयमं कानं ॥ ज पचा सपिच्चानं ॥ १७१ ॥ "" व्या० जे पुरुष जोग नागवीने पढी संयम पालवानी इब्बा करेबे, श्वा प्र मी बलीने पढी शीतलता पामवानी पठे बे. केमके, जोग जोग व्याथी तेनी वा मटती नथी किंतु अधिक थायले. यतः "नजातु कामः का माना, मुनोगेन शाम्यति ; हविषा कमवत् व, पुनरेव प्रवईते. जे सुख जी व जोगवे, ते सुख यद्यपि अनंतवार जोगवाई गया बे; तथापि मोहनीयक मैना दोषने लीधे एम नासेबे के, में ए सुख पूर्वे कोई समयनेविषे जोगव्यां नयी यतः 'पत्ता य कामनोगा, कालमतं इदं स उवनोगो; अपुत्रं पिव मन्नई, त हविय जीवो मणे सुरकं" इत्युपदेशमालायां ॥ १७१ ॥ "" Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. ३४१ अ० वली नोगनेविषे प्रवृत्ति करतां एवो संदेह रहे के रखेने नोगनो नाश थई जाय : ते योग्य ने, केमके, नोग स्थिर नथी, किंतु अस्थिर ले. अथवा नो ग जोगवतां आयुष्यनो अंत आवी जाय तो पण नोग जोगवाता नथी. एवा नोग जोगववानेविषे प्रवृत्ति थतां अविरति जीवने प्रतिदणे कर्मबंध थायले. ए मां रंचमात्र संशय नथी. माटे जे विवेकी पुरुष ले ते स्वप्ननेविषे पण नोगनेविषे प्रवृत्तिनी अनिलाषा करता नथी. इवो उपदेश करे. ॥ १७१ ॥ कोवा जिअवीसासो विकलया चंचलम्मि आनम्मि ॥ सजो पिरुजमो ज जरानिनून कई दोही ॥१७॥ व्या० हे जीव, तने जीवितव्यनो शो विश्वास ले ? केमके, जेम विजलीनील ता इटले जात्कार हणनंगुर ने, एटले दणमा देखाय बे ने दणमा नाश थई जायडे, तेम जीवितव्य इकणमां प्रत्यद देखातो बतां कोई रोगादिकना नद यथी बीजी दणमा नाश थतां वार लागती नथी. माटे ज्यांसुधी शरीर निरोगी ने त्यांसुधी जो तूं धर्मकार्य करीश तो करी शकीश. ॥ १७ ॥ __ य० कोई कहेशे के, जो जीव रोगेकरीने ग्रसेलो होय, अथवा कायबलेकरी हीण थएलो होय, ते चारित्र मार्गनेविषे केम प्रवृत्ति करी शके, तेने उत्तर दिये देवबलं जा दातदवि मणोधिबलेण जश्अचं ॥ तिसि पत्तानावे करेण किं पो जलं पिबई ॥ १३ ॥ व्या० जो रोगादिके करी शरीर निर्बल थई गयुं होय तो मनबुयादिकना ब से करीने योग धारण करवो. जेम पुरुषने ज्यारे तृषा लागेले त्यारे तेनीपासे जो पा पीपीवान पात्र न होय तो हाथेकरी पाणी पीएने : पण तरस्यो रहेतो नथी. तेम तथाविध कालबल न बतां पण जेने मोदनी अभिलाषा होय तेणे मनोब लेंकरी योगमार्गनेविषे प्रवृत्ति करवी. ॥ १७३ ॥ अण्जे पुरुष बलना समयनी शोचनाएकरी बलरहितसमयमा नविष्यका ल उपर नरोसो राखी बालस करीने बेशी रहे ते अति दुःख पामे : एम कहेजे. बलकालसोअणाए अलसा चिति जे अकयपुन्ना ॥ ते पबिंता वि लदु सोति सुदं अपावंता ॥ १४ ॥ जद णाम कोइ पुरिसो ण धनवा णिक्षणो वि नामई ॥ मोदाइ यबणाए सो पुण सोए अप्पाणं ॥ २५ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ अध्यात्ममतपरीदा. व्याछ जे पुरुष एवी शोचना करे के, हमणा मारामां बल नथी, माटे पागल धर्माचरण करीश. अथवा हमणा मारो अवसर नथी, माटे बागल जतां धर्माच रण करीश. एम जाणीने बालस करी बेशी रहे ते अकतपुस्य थका आगल घणी प्रार्थना कयाथी पण पुण्यविना सुखने पामे नही, त्यारे घणो शोच करे. जेम को निर्धन पुरुष प्रथम आलस करीने धन अर्जवानो उद्यमन करे ने पनी गाली शबा करीने धनविना कुःखने पामे त्यारे पोताना यात्माने विष घणोज शोच क रेले. माटे प्राप्त थएलो धर्म मूकीने आगल धर्मप्रार्थना करीये तो गली प्रार्थना कहेवाय. यतः “लमिनियंच बोहिं, अकिरंतो गागयंगपबित्तो: आणंदा बोहिं, लनसि कयरेण मुल्लेण.” ॥ १४ ॥ १७५ ॥ अ० कोई कहेशे के, पापनी निं दाथीज पाप टलेले, त्यारे विशेष अनुष्टान करवानुं कारण झुं? एविषे कहेले: जो पावं गरदंतोतं चेव णिसेवए पुणो पावं ॥ तस्स गरहा वि मित्रा अतहकारो दि मिबत्तं ॥ २७६ ॥ व्या जे पाप करी मिहामि उकडं दर्शने फरी पाप करे तेनी पापनिंदा मिथ्या बे. केमके, जे बोलिए ते, जो पालिए नही तो तेज मिथ्यात्व . यतः “जो जह वायण कुणई, मिजदिछी तदुको अन्नो : वझे अमिततं, परस्स संकं जणे मा णे.” इत्युपदेशमालायां. हवे मिहामि उक्कडं ए शब्दनो अर्थ कहेजेः-मि कहेतां कायाथी तथा नावथी मृउ थइ, बा कहेता असंयमरूप दोषतुं अन्नादन करीने, मि कहेता चारित्रनी मर्यादामा रह्यो थको, छ कहेतां उरुत कार्यनो करनार जे आत्मा तेने हुँ नि, क कहेता में जे पाप कस्वांले, तेनुं डं कहेतां उपशम पामी ने उल्लंघन करुंब. एवो अर्थ जाणीने मिहामि उक्क दीधा परी फरी पाप न क रवु, ते पापनी साची निंदा कहेवायचे. तेम न करता पनी जे पाप करवू तेथी तो उलटुं माया मृषावादादि पाप लागे. यतः “जं उक्कडंति मिला। तं चेव णिसेवए पुणो पावं, पच्चरकमुसावाई, माया निवडी पसंगोष” इति ॥ १७६ ॥ __ अ० ए कारण माटे चारित्र लईने जो ते सारा नावथी पालिए तोज तेथी महाफलनी प्राप्ति थायडे, अन्यथा आजीविकाने अर्थे चारित्र लीधा करतां गृह स्थधर्मज सारो बे एम कहेले. चुअधम्मान मुणिणो सुअरं कर सुसावगेत्त पि ॥ प डिअं पि फलं सेयं तरूपडणाने चंपि ॥ १७ ॥ - Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षा. सुसा व्या० वेषधारी चारित्ररहित जे सु श्रावक बे, ते अरिहंतनी पूजा करे, धुनी सेवा करे, दृढाचारीपणुं पाले, इत्यादिक धर्माचरण करेबे, अने जे चारित्र वेष धारी होय ते गृही धर्म तथा यतिधर्म ए बन्नेथी चष्ट थायले. नक्तंच " उतीव किायदया, विवनि णेव दिरिकर्ड एग गिही ; जइधम्माचे चुक्को, चुक्कइ गिहदाए धम्मा: इत्युपदेशमालायां वेषधारी चारित्रियाने मूलगुणविना तपथी पण ते वुं फल यतुं नथी. नक्तंच “ 'मह्वय अणुच्चया, व डेनं जो तवं चरइयाणं, सो अन्नाणी मूढो, नावावुड्डो मुवो. " माटे केवल वेषधारी करतां गृही धर्म सारो बे. दृष्टांत :- फलनी अभिलाषाथी वृक्ष उपर चढी, फल मेलव्यावि नापी न जतां ते फल मेलवाई शकाय तो सारं, पण जो फलनी प्राप्ति न थ तां नीचे पड़ी जवाय तो उलटुं शरीरने लागे तेथी दुःखनी प्राप्ति थाय. तेना क तांनी नीचे बेसीनेज पडेलुं फल ग्रहण करिये ते सारुं ॥ १७७ ।। संयमयोगेन विप्रस्स संचत्तबजोगस्स ॥ ए प रेण किंचि करूं प्रायसहावेण चिघ्स्स ॥ १७८ ॥ व्या० संयमना योगे जे यानंद थायले ते केवल खात्मस्वनावने विषेज अव स्थित बे. तेने परशुं काम छे ! माटे जेने चारित परिम्युं होय, तेणे सर्व प प्रतिबंध मूकीने यात्मव्यमात्रना प्रतिबंधे प्रवर्तकुं ॥ १७८ ॥ अ० एक आत्म इयमात्रविषे प्रवर्त्यार्थी बीजाने उपदेश केम देवाशे, एविषे कहेले. संविग्गो गयो बोन परंपराइ करुणाए ॥ अन्नो पुण तुसी पुवं बोदेन प्रमाणं ॥ १७ ॥ व्या० जे महानुभावी संवेगी गीतार्थ होय, ते पोते तो कृतकृत्य होयडे, प रंतु बीजानी उपर परम करुणाए करीने तेने प्रतिबोध करे तो तेथीते महाफलदाई बे. परंतु जे एवो न होय तेणे बीजाने उपदेश करवानुं मांगीवालीने प्रथम पोताना ग्रात्माने बोध करवो जोये. जे पोते प्रतिबोध पाम्या विना बीजाने प्रतिबोध करे ते केवल नाटकयानी पठे नाटक करी देखामनारोले एम जाणवुं ॥ १७८९ ॥ अ० एवी रीते ज्यारे परप्रतिबंध सारो नथी, किंतु एकाकीपणुंज सारुं बे, माटे पण प्रतिबंधरूपज बे, एम जे जाणेबे तेनो संदेह मटाडवाने खर्थे कहे दवेण जो प्रोगोगवे सो जावन दवे एगो ॥ एगागी गीच्चिय कयाइ दवे नावे ॥ १८० ॥ ३४३ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 अध्यात्ममतपरीता. __व्या० गन्हमा बता इव्यथी जे अनेकता थायडे, तेज नावथी एकता थायले. न्यथा गुर्वाज्ञादिक अंकुशविना चित्तरूप हस्ति संसाररूप बनमा फरतां एकत्व नाव नारूप वेलीनु उन्मूलन करी नाखे. अतएव नगवंते “एकस्त अधि धम्मो” इत्या दिक प्रवंधे करी एकाकी विहारनो निषेध कस्योते. श्रीदशवैकालिक सूत्रनेविषेप ए आम कडं "नया ललिता निनणं सयायं गुणाहि अंवा गुण समंवा : इकोवि पावाइ विवजयंतो, विहरेऊ कामेसु असऊमाणो. आ गाथामां आम कडंडे के, ज्यारे पोताथकी अधिक गुणवालो अथवा समान गुणवालो मले नही, त्यारे एकाकी विहार करवो, ते गीतार्थ आश्री जाणवू. केमके, ते.पापने वर्जीने कामनेविषे असंग करेले माटे तेने एम कह्युजे. अने अगीतार्थ तो गीतार्थनी निश्राविना पाप वर्जी शके नही. तेम कामासंगपण बाली शके नही. अतएव “गीयबो अविहारो, बी गीय मीसित नणि॥ इत्तो तश्य वि हारो, नाणुना जिणवरेहिं" ए गाथामां खुलीरीते अगीतार्थने एकाकी वि हारनो निषेध कस्यो. माटे गढमां रही, गुरुकुलवास सेवी, गुनादिकनो अन्या स करी, अने साधुसंग बतां पण अंतरंग निर्लेप रहीने जो अध्यात्मनावना नाविये तो परमानंदनी प्राप्ति थायजे. // 17 // किं बढुणा श्द जद जद रागद्दोसा लढुं विलऊंति // त द तह पयट्टिअवं एसा आणा जिणंदाणं // 11 // व्या० घणु शुं कहिये, जेजे प्रकारे रागदेष विलय थाय तेवी रीते प्रवर्तवं. ए| ज श्रीवीतरागदेवनी आझा बे. // 171 // असप्पमयपरिका एसा जुत्तीदिं पूरिया जुत्ता // सोहिं तु पसायपरा तं गीयबा विसेस विक // 12 // व्या० आ अध्यात्ममतपरिक्षा युक्तिएकरी पूरी कीधी, तद्रूप जे आ ग्रंथ डे, तेनुं विशेषज्ञ जेगीतार्थ जे ते मजनपर कृपा करीने शोधन करो ए विज्ञापना. 172 शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं // यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतवीजयप्राज्ञाः प्रष्टाझया चाजते सनयानयादि विजयप्राझाश्च विद्याप्रदाः // केम्वा यस्यच सद्म पद्म विज यो जातः सुधीः सोदरः सोयं तत्वमिदं यशोविजयश्त्याख्यानदाख्यातवान् // 1 // इति पंमित यशोविजयजी उपाध्यायकृत श्री अ ध्यात्ममतपरीक्षाग्रंथो बालावबोधसहितः समाप्तः