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अध्यात्ममत परीक्षा.
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व्या० :- ते केवलीने गुणकरण श्राश्री स्वनावसिद्ध क्रिया होय. तेने केव ली ज्ञानादि गुणपर्याय उपजतां आत्माथी अन्यकर्मादिकारणनी अपेक्षा नथी कालवावादिके तेना कारणपणे सर्व यात्मांतरनूत बें मनोवाक्कायरूप युंज नाकारण याने केवलीने कर्मोपनीतक्रिया पण थायले. माटे ते शेकरी के वल स्वनावसिद्ध क्रियान नथी ॥ १२५ ॥
ग्रह सो सेलेसीए, काणानलदडूसयलकम्ममलो ॥ aria सबच्चिय, ल६सदावो दवइ सि ॥ १२६ ॥ व्या० :- - हवे केवली जे बे ते, शैलेसी अवस्थाने विषे युक्तध्यानरूप अमिएक सर्वकर्मरूपमलने दग्ध करीने यमिएकरी निर्मल किधेलां सुवर्णन पठे स था लब्धस्वनाव थईने सिवपर्यायनो नजनार थायबे ॥ १२६ ॥
तस्स वर नाण दंसण, वर सुद सम्मत्त चरण निच्च विई ॥ अवगाहाणंता, मुत्ताणं यई प्रविरियं च ॥ १२७ ॥
व्या० :- ज्ञानावरणीयादिक प्राठकर्मथी जीवने अज्ञानादिक दोष होय ते नाश पाम्यापी सिने या याव गुण प्राप्त थाय:-- पहेलो ज्ञानावरणीय कर्म ना की अनंत केवलज्ञान उत्पन्न थायले; बीजो दर्शनावरणीयकर्मना दय अनंत केवलदर्शन उत्पन्न थायले; त्रीजो वेदनीयकर्मना कयथी कायिक स म्यक्त उत्पन्न थायले चोथो चारित्रमोहनीयकर्मना दयथी कायिक चारित्र न त्पन्न थायले; पांचमो ग्रायुःकर्मना दयथी अक्षय स्थिति उत्पन्न यायले ; ब st नामकर्म तथा गोत्रकर्म ए बन्नेनो दय थयाथी एक सिद्धावगाहक स्थानने वि पे की शर्करानी पठे अनंत सिद्धावगाहना उत्पन्न याय; यहीं मोहनीयकर्मना
थी बे गुण उत्पन्न यायले एम कयुं, तथा नाम खने गोत्र ए वे कर्मना दयथी एक ज गुण उत्पन्न थाले एम कयुंबे ; ए ठेकाणे स्वपरिभाषाज शरण बे. ॥१२७॥ थिरयावग्गढाव, पत्तेयं नामगोत्तकम्मखए ॥
चरणंविच्य मोदखए, इ ६ गुणत्ति विंति परे ॥ १२८ ॥
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व्या०:- केटलाएक मोहनीयकर्मना यथी एकज चारित्रगुणमानेबे, त था नामकर्मना यथी यात्मप्रदेश स्थिरतारूप गुण कहेले; तेमज गोत्रकर्मना
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