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सूक्तमुक्तावली.
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अथ कुशीलविषे ॥ यश पमह वागे लोकमां नीद जागे ॥ दुरजन बहु जागे जे कुले लाज लागे ॥ सजन पण विरागे मां रमे एल रागे ॥ परतिय रस रागे दो कोड जागे || ६१ || परतिय रसरागे नाश लंकेश पायो । परतिय रस त्या गे शील गंगेव गायो ॥ द्रुपद जनक पुत्री विश्व विश्वे विदीत ॥ सुर नर मिलि सेवी 'शीलने जे धरती ॥ ६२ ॥ अथ परिग्रहविषे ॥ शशिनदय वधे ज्यूं सिंधु वेला नजेरी ॥ ॥ धनकर मन साए तेम वाधे घरी ॥ इरित नरग सेरी तूं करे ए परेरी ॥ ममकर अधि केरी प्रीति एकेरी ॥ ६३ ॥ मनुज जनम हारे ॥ दुःखनी कोडि धारे ॥ परिय ह ममता ए स्वर्गना सोख्य वारे ॥ अधिक धरणि लेवा धातकी खंम केरी ॥ सुनुम, कुगति पामी चकिराये घणेरी ॥ ६४ ॥ अथ संतोषविषे ॥ सकल सुख नराए विश्व तावश्य था । जवजलधि तराए दुःख दूरे पलाए । निज जनम सुधारे यापदा दूर वारे ॥ निज धरम वधारे जेह संतोष धारे ॥ ६५ ॥ सकल सुखतो ते सार संतोष जाणे ॥ कनक रमणिकेरी जेह इब्बा न खाये ॥ रजनि कपिल बांध्यो स्व
नी लोलताए । नमर कमल बांध्यो ते असंतोषताए ॥ ६६ ॥ अथ विषय विषे ॥ शिवपद यदि वांले जेह खानंद दाई ॥ विवसम विषया तो बांमि दे दुःखदाई मधुर अमृत धारा दूधनी जो नहीजे ॥ प्रति विरस सदा तो कांजिका संग्रही जे ॥ ६७ ॥ विषय विकल ताली कीचके नीम नार्या ॥ दशमुख पहारी जा नकी रामाय ॥ रति धरि रहनेमी क्रीडवा नेमि नार्या । जिस विषय न वर्ज्या तेह जाणो अनार्या ॥ ६८ ॥ अथ इंडियविषे ॥ गज मगर पतंगा जेह लूंगा कुरं गा || इक इक विषयार्थी ते लहे दुःख चंगा ॥ जस परवश पावे तेहनुं यूं कही जे || इम दृदय विमासी इंड़ि पांचे दमीजे ॥ ६९ ॥ विषय वन चरंतां इंडि जे डाए || निज वश नवि राखे तेह दे दुखडा ए॥ श्रवश करण मृत्यू ज्यूं गुप्तें दि पामे ॥ स्ववश सुख लह्या ज्यूं कुर्म गुप्तींदि नामे ॥ ७० ॥ अथ प्रमादवि ॥ सदु मन सुख वांबे दुःखने को न वांबे ॥ नहि धरम विना ते सौख्य ए संपजे ॥ इह सुधरम पामी कां प्रमादे गमीजे ॥ प्रति अलश तजीने उद्यमे धर्म की जे ॥ ७१ ॥ इह दिवश गया जे तेह पाठा न आवे ॥ धरम समय खाले को प्र मादे गावे ॥ धरम नवि करे जे खायु याले वहावे ॥ शशि नृपतिपरे त्युं सोच ना पावे ॥ ७२ ॥ अथ साधुधर्मविषे ॥ शार्दूल विक्रीडित छंदः ॥ जे पंच व्रत मेरु नार निवहे, निःसंग रंगे रहे । पंचाचार घरे प्रमाद न करे, जे दुःपरिस्सा सहे ॥ पांचे इंडि तुरंगमा वश करे, मोक्षार्थने संग्रहे ॥ एवो डुष्कर साधु धर्म धन ते, जे
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