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सूक्तमुक्तावली. ज्यूं ग्रहे त्यं वहे ॥ ७३ ॥ मालिनीबंद ॥ मयण सरव मोमी कामिनी संग लोम॥ तजिय कनक कोडी मुक्तिसूं प्रीति जोडी ॥ नव नव नय वामी गुरू चारित्र पामी ॥ इह जग शिवगामी ते नमो जंबु स्वामी ॥ ४ ॥ अथ श्रावकधर्म विषे ॥ शा दूलविक्रीडितबंद ॥ जे सम्यक्त लही सदा व्रत धरे, सर्वज्ञ सेवा करे ॥ संध्या वश्य क आदरे गुरु नजे, दानादि धर्माचरे ॥ नित्ये सद्गुरु सेवना मनधरे. एवो जि नाधीशरे ॥ नारख्यो श्रावकधर्म दोय दशधा, जे आदरे ते तरे ॥ ५॥ मालिनी बंद ॥ निशिदिन जिनकेरी जे करे शुद्ध सेवा ॥ अषु व्रत धरि जे ते काम आनंद देवा।। चरम जिन वरिंदे जे सुधर्मे सुवास्या ॥ समकित सतवंता श्रावका ते प्रसं स्या ॥ ७६ ॥ इम अरथ रसाला जे रची सूक्तमाला ।। धरम नपति बाला मालि नी बंद शाला ॥ धरम मति धरंतां ए इहां पुण्य वाध्यो॥प्रथम धरम केरो सार ए वर्ग साध्यो ।। ७७ ॥ इति श्रीमत्सूक्त मुक्तावव्यां धर्मवर्गःप्रथमः समाप्तः ॥१॥
॥अथ अर्थवर्ग प्रारंनः॥ नवजाबंदः॥ अथार्थवर्गे हितचिंतनं श्रीमितंपचार्थ्यस्व महीशसेवा ॥ खलादिमैत्री व्यसनादि चैव: मिहावधार्याः कतिचित्प्रसंगाः ॥ १ ॥ अथ अर्थ विषेः मालिनी बंद ॥ अरथ अरजि जेणे स्वायते विश्व होवे ॥ जिण विण गु ण विद्या रूपने कोण जोवे ॥ अनिनव सुखकेरो सार ए अर्थ जाणी ॥ सकल धरम एथी साधिए चित्त आणी ॥ २ ॥ अरथ विण कवनो जेह वेश्याइ ना ख्यो ॥ अरथ विण वसिष्टे राम जातो नवेख्यो ॥ सुंकत सुजस कारी अर्थ ते ए उपार्जी॥ कुवराज उपजतो अर्थ ते दूर व| ॥३॥ अथ हित चिंतनवि ः॥ परहित करवा जे चित्त नबाह धारे ॥ परकत हितहीये जे न कोई विसारे ॥ प्रति हित परथी ते जे न वांजे कदाई ॥ पुरुप रयण सोई वंदिए सो सदाई ॥४॥ निज उख न गणीने पारकू उःख वारे ॥ तिहतणि बलिहारे जाइए कोडि वा रे ॥ जिम विषनर जेणे मंक पीडा सहीने ॥ विषधर जिनवीरे बूजव्यो ते वहीने ॥ ५ ॥ अथ लक्ष्मी विषहरि सुत रति रंगे जे रमे रात सारी॥ शिवतनय कुमा रो ब्रह्म पुत्री कुमारी ॥ हितकरि दृगलीला जेहने लबि जोवे ॥ सकल सुख ल हे सो सोहि विख्यात होवे ॥ ६ ॥ लखमि बलि यशोदा नंदने विश्व मोहे ॥ ल खमि विण विरूपी संनु नितू न सोहे ॥ लखमि लहिय रांके जे शिलादित्य नां ज्यो ॥ लखमि लहिय शाके विक्रमे विश्व रंज्यो ॥ ७ ॥ अथ कृपणविषेः॥ कण
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