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सूक्तमुक्तावलो.
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कण जिम संचे कीटिका धान्यकेरो ॥ मधुकर मधु संचे जोगवे को अनेरो ॥ ति म धन रुपणकेरो नोपकारे दिवाये ॥ इमहि विलय जाए अन्यथा अन्य खाए॥ G॥ कृपण पषु धरतां जे नवे नंद राया ॥ कनक गिरि कराया ते तिहां अर्थ नाया । इम मनत करंतां दु:ख वासे वसीजे ॥ कृपण पणु तजीजे मेघज्यूं दा न दीजे ॥ ॥ ॥ अथ याचनविषेः ॥ निरमल गुण राजी त्यां लगे लोक राजी ॥ तब लग कहि जीजी त्यां लगे प्रीति काजी ॥ सुजन जन सनेही त्यां लगे मि त्र तेही ॥ मुख थकि न कहीजे ज्यां लगे देहि देही ॥ १० ॥ ज वडपण वांडे मांगजे तो न कांई ॥लङ पण जिण होवे केम कीजे तिकाई॥ जिम लघु थइ सोनें वीरथी दान ली७ ॥ हरि बल नप आगे वामना रूप कीबूं ॥ ११ ॥ अथ नि र्धनविषेः ॥ धनविण निज बंधू तेहने दूर डंडे ॥ धनविण गृह नार्या तेह सेवा न मंडे ॥ निरजल सरजेवो देह निर्जीव जेवो ॥ निरधन तृण जेवो लोकमें ते गणे वो ॥ १२ ॥ सरवर जिम सोहे नीर पूरे जरायो ॥ धन करि नर सोहे तेम नीते उपायो॥धनकरिय सुहंतो माघ जे जाण दूतो॥ धनविण पग सूजी तेह दीगे मरं तो ॥१३॥ अथ राज सेवाविषेः॥ सुजनसुं हित कीजे उर्जना सीख दीजे ॥ जग जन वश कीजे चित्त वांडा वरीजे ॥ निज गुण प्रगटीजे विश्वना कार्य कीजे ॥ प्रनु सम विचरीजे जो प्रनूसेव कीजे ॥ १४॥ नगतिकरि वडानी सेब कीजे जिकाई ॥ अधिक फल न आपे कर्मथी ते तिकाई ॥ जलधि तरिय लंका सीत संदेस लावे ॥ हनुमत करमे ते राम कबोट पावे ॥ १५ ॥ अथ खलताविषे॥ रस विर स नजे ज्यूं अंब निंब प्रसंगे ॥ खल मिलण दुवे त्यूं अंतरंग प्रसंगे ॥ सुण सु ण ससनेही जाणि ले रीति जेही ॥ खल जन निसनेही तेहरों प्रीति केही ॥१६ मगर जल वसंतो ते कपीराय दीगे ॥ मधुर फल चखावी ते कस्यो मित्र मीठो ॥ कपि कलिज नखेवा मत्स खेली खलाई॥जलमहिं कपि बुद्धी बामि दे ते नला ई॥ १७ ॥ अथ अविश्वाश विषे ॥ उपजाति बंद ॥ विश्वासिसाथे न बले रमीजे॥न वैरि विश्वास कदापि कीजे ॥ जो चित्त ए धीर गुणे धरीजे ॥ तो लचिलीला ज गमां वरीजे॥१॥ इंश्वजाबंद।। चाणायके ज्यूं निज काज सायो॥जे राज नागी नप तेह मास्यो ॥ जो घूअडे काक विश्वास कीधो॥तो वायसे घूकने दाह दीधी ॥१॥ अथ मैत्रीविषे ॥ मालिनीबंद ॥ करि कनक सरीसी साधु मैत्री सदाई ॥ घसि कसि तप वेधे जास वाणी सवाई ॥ अहव करहि मैत्री चंमा सिंधु जेही ॥ घट घट वध वाधे सारखा बेसनेही ॥२०॥ इह सहज सनेहे जे वधे मित्रताई ॥ रवि प
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