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सूक्तमुक्तावली.
रि न चले ते काजज्यूं बंधुताई || हरि हलधर मैत्री कृष्णने जे बमासे ॥ हलधर नि जखंधे से फिस्यो जीवि खासे ॥ २१ ॥ अथ व्यसन विषे ॥ नलिन मलिन शोना सां
थी जेम थाए ॥ इह कुवसनथी त्यूं संपदा कीर्त्ति जाए ॥ कुविसन तिए हेते स वथा दूर कीजे ॥ जनम सफल कीजे कीर्त्ति कांता वरीजे ॥ २२ ॥ श्रथ द्यूत विषे ॥ डु तविलंबित बंद || सुगुरु देव जिहां नवि लेखवे ॥धनविला सहुए जिस खेलवे ॥ जव नवे जमवूं जिल कवठें ॥ कहिनि को रमे तिसा जूवटें ॥ २३ ॥ अथमांस नक्षण विषे ॥ उपजातिछंद ॥ जे मांस लुब्धा नर ते न होवे ॥ ते राक्षसा मानुषरूप सोवै ॥ श्रथ चोरी विषेः ॥ जे लोकमां नर्ग निवास करी ॥ निवारीए ते परव्यचोरी ॥ २४ ॥ श्रथ म विषेः ॥ यंगप्रयातबंद ॥ सुरापानथी चित्त संत्रांत थाये ॥ गले लाज गंभीरता शी ल जाये ॥ जिहां ज्ञान विज्ञान सूके न बूजे ॥ इशू मय जाली न पीजे न दीजे ॥ ॥ २५॥ अथ वेश्याविषेः ॥ कहो कोण वेश्या तणो अंग सेवे ॥ जिसे अर्थनी लाजनी हाणि होवे ॥ जिणे कोश सिंहा गुफाये निवासी ॥ उब्यो साधु ने पालग्यो कंबलासी ॥ २६ ॥ अथ खेटक विषेः॥ छंद ॥ मृगयाने तज जीव घात जे || सघले जीव दया सदा नजे ॥ मृगयाथी दुख जे लह्या नवां ॥ हरि रामादि नरेंड् जे हवा || २७ ॥ परस्त्रीविषेः चौपाईछंद || स्वर्ग सौख्यनणि जो मन श्राशा ॥ बांडे तो परनारि विलासा || जेण एव निज जन्म दुःखए ॥ सर्वथा न परलोक सुखए ॥ २८ ॥ अथ ए विषयोना उदाहरणो ॥ शार्दूलविक्रीडित छंदः ॥ जूवा खेलण पांवा वन जम्या, मद्ये बली द्वारिका ॥ मांसे श्रेणिक नारकी दुख लह्या, बांध्या नरे चोरि का || खेटे दशरथपुत्र विरही, केवन्न वेश्या घरे || लंकास्वामि परत्रिया रस रमे, जे ए तजे ते तरे ॥ २५॥ अथ कीर्त्तिविषेः ॥ मालिनी छंदः ॥ दिशि दिशि पसरं ती चंड्मा ज्योति जैसी || श्रवण सुणत लागे जाण मीठी सुधासी ॥ निशिदिन जनगाये रामराजिंद जेवी || इणि कलि बहु पुष्ये पामियें कीर्त्ति एवी ॥३०॥ अथ प्रधान विषेः ॥ सकल व्यसन वारे स्वामिसूं नक्तिधारे ॥ स्वपरहित वधारे राज्यना का ज सारे ॥ नय नय विचारे कुड़ता दूर वारे ॥ निजसुत जिम धारे राज्य लक्ष्मी वधारे ॥ ३१ ॥ अथ कलाविषे ॥ चतुर कर कलानो संग्रहो सौख्यकारी ॥ इ गुण जिलाधी डॉल संपत्ति सारी ॥ त्रिपुर विजय कर्त्ता जे कलाने प्रसंगे ॥ हि मकर मनरंगे से धो उत्तमांगे ॥ ३२॥ अथ मूर्खताविषेः ॥ वचन रस न भेदे मूर्ख वार्त्ता न वेदे ॥ तस कुंवचन खेदे तेहने सीख जे दे ॥ नृपशिर रज नाखी जेल मू र्खे वने ॥ हित कहत हणीज्युं वानरे सुग्रहीने ॥३३॥ श्रथ लाविषेः ॥ निज
ܢܵܐܐ
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